पीपीई किट से जन्मी नई समस्या – सुदर्शन सोलंकी

लीडेन युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए अध्ययन से पता चला है कि पीपीई कचरा दुनिया भर में जीव-जंतुओं की जान ले रहा है। यह अध्ययन एनिमल बायोलॉजी में प्रकाशित हुआ है। कोविड-19 से बचने के लिए सामाजिक दूरी रखना और बड़े पैमाने पर दस्ताने व मास्क जैसे व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों (पीपीई) का उपयोग एक मजबूरी है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि दुनिया भर में कोरोना से बचने के लिए मेडिकल स्टाफ को हर महीने करीब 8 करोड़ दस्ताने, 16 लाख मेडिकल गॉगल्स और 9 करोड़ मेडिकल मास्क की ज़रूरत पड़ रही है। आम लोगों द्वारा उपयोग किए जा रहे मास्क की संख्या तो अरबों में पहुंच चुकी है। एक अन्य शोध से पता चला है कि वैश्विक स्तर पर हर वर्ष औसतन 12,900 करोड़ फेस मास्क और 6500 करोड़ दस्तानों का उपयोग किया जा रहा है। हांगकांग के सोको आइलैंड पर सिर्फ 100 मीटर की दूरी में 70 मास्क पाए गए थे, जबकि यह एक निर्जन स्थान है।

उपयोग पश्चात ठीक निपटान न होने व यहां-वहां फेंकने से सड़कों पर फैला यह मेडिकल कचरा इंसानों के साथ-साथ पशुओं के लिए भी खतरनाक है, और समुद्र में पहुंचकर जलीय जीवों को भी नुकसान पहुंचा रहा है।

सबसे अधिक प्रभावी अधिकांश थ्री-लेयर मास्क पॉलीप्रोपायलीन के और दस्ताने व पीपीई किट रबर व प्लास्टिक से बने होते हैं। प्लास्टिक की तरह ये पॉलीमर्स भी सैकड़ों सालों तक पर्यावरण के लिए खतरा बने रहेंगे।

पीपीई किट से महामारी से सुरक्षा तो हो रही है लेकिन इनके बढ़ते कचरे ने एक नई समस्या को जन्म दिया है। शोध से पता चला है कि यह कचरा ज़मीन पर रहने वाले जीवों के साथ ही जल में रहने वाले जीवों को भी प्रभावित कर रहा है। जीव इनमें फंस रहे हैं और उनके द्वारा कई बार इन्हें निगलने के मामले भी सामने आए हैं।

शोधकर्ताओं ने पहली बार लीडेन की नहर में एक मछली को लेटेक्स से बने दस्ताने में उलझा पाया था। आगे खोजबीन में यूके में लोमड़ी, कनाडा में पक्षी, हेजहॉग, सीगल, केंकड़े और चमगादड़ वगैरह इन मास्क में उलझे पाए गए। मछलियां पानी में तैरते मास्क और प्लास्टिक कचरे को अपना भोजन समझ रही हैं। विशेषकर डॉल्फिन पर तो बड़ा संकट है क्योंकि वे तटों के करीब आ जाती हैं।

संस्थान क्लीन-सीज़ की प्रमुख लौरा फॉस्टर का कहना है कि आपको नदियों में बहते मास्क दिख जाएंगे। कई बार ये मास्क आपस में उलझकर जाल-सा जैसे बना लेते हैं और जीव-जंतु इसमें फंस जाते हैं। कई बार ये आग लगने का कारण भी बनते हैं। ये सड़ते नहीं लेकिन टुकड़ों-टुकड़ों में बिखर सकते हैं। ऐसे में समुद्र में माइक्रोप्लास्टिक और बढ़ जाता है।

कई बार पक्षियों को इस कचरे को घोंसले के लिए भी इस्तेमाल करते हुए पाया गया है। नीदरलैंड्स में कूट्स पक्षियों को अपने घोंसले के लिए मास्क और ग्लव्स का उपयोग करते पाया गया था। यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि कई जानवरों में भी कोविड-19 के लक्षण सामने आए हैं।

पर्यावरणविदों ने चेतावनी दी है कि अगर यह मेडिकल कचरा जंगलों तक पहुंच गया तो परिणाम भीषण और दूरगामी होंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गर्मी में गर्म पेय ठंडक पहुंचा सकते हैं!

र्मी का मौसम आते ही गन्ने का रस, जलज़ीरा, नींबू पानी जैसे ठंडे पेय की दुकानें सज जाती है। ठंडे पेय लोगों को गर्मी से राहत देते हैं। किंतु कुछ लोगों का ऐसा भी कहना है कि गर्म पेय भी गर्मियों में ठंडक पहुंचा सकते हैं। अब तक वैज्ञानिकों को इस पर संदेह रहा है क्योंकि गर्म चीज़ें पीकर तो आप शरीर को ऊष्मा दे रहे हैं। लेकिन हाल ही में हुआ एक अध्ययन बताता है कि गर्मियों में कुछ विशेष परिस्थितियों में गर्म पेय वाकई आपको ठंडक दे सकते हैं।

होता यह है कि गर्म पेय पीने से हमारे शरीर की ऊष्मा में इज़ाफा होता है, जिससे हमें पसीना अधिक आता है। जब यह पसीना वाष्पीकृत होता है तो पसीने के साथ हमारे शरीर की ऊष्मा भी हवा में बिखर जाती है, जिसके परिणामस्वरूप हमारे शरीर की ऊष्मा में कमी आती है और हमें ठंडक महसूस होती है। शरीर की ऊष्मा में आई यह कमी उस ऊष्मा से अधिक होती है जितनी गर्म पेय पीने के कारण बढ़ी थी।

यह हो सकता है कि पसीना आना हमें अच्छा न लगता हो, लेकिन पसीना शरीर के लिए अच्छी बात है। ठंडक पहुंचाने में अधिक पसीना आना और उसका वाष्पन महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पसीना जितना अधिक आएगा, उतनी अधिक ठंडक देगा लेकिन उस पसीने का वाष्पन ज़रूरी है।

यदि हम किसी ऐसी जगह पर हैं जहां नमी या उमस बहुत है, या किसी ने बहुत सारे कपड़े पहने हैं, या इतना अधिक पसीना आए कि वह चूने लगे और वाष्पीकृत न हो पाए, तो फिर गर्म पेय पीना घाटे का सौदा साबित होगा। क्योंकि वास्तव में तो गर्म पेय शरीर में गर्मी बढ़ाते हैं। इसलिए इन स्थितियों में जहां पसीना वाष्पीकृत न हो पाए, ठंडे पेय पीना ही राहत देगा।

गर्म पेय का सेवन ठंडक क्यों पहुंचाता है, यह जानने के लिए ओटावा विश्वविद्यालय के स्कूल फॉर ह्यूमन काइनेटिक्स के ओली जे और उनके साथियों ने प्रयोगशाला में सायकल चालकों पर अध्ययन किया। प्रत्येक सायकल चालक की त्वचा पर तापमान संवेदी यंत्र लगाए और शरीर के द्वारा उपयोग की गई ऑक्सीजन और बनाई गई कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को नापने के लिए एक माउथपीस भी लगाया। ऑक्सीजन और कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा बताती है कि शरीर के चयापचय में कितनी ऊष्मा बनी। साथ ही उन्होंने हवा के तापमान और आर्द्रता के साथ-साथ अन्य कारकों की भी बारीकी से जांच की। इस तरह एकत्रित जानकारी की मदद से उन्होंने पता किया कि प्रत्येक सायकल चालक ने कुल कितनी ऊष्मा पैदा की और पर्यावरण में कितनी ऊष्मा स्थानांतरित की। देखा गया कि गर्म पानी (लगभग 50 डिग्री सेल्सियस तापमान पर) पीने वाले सायकल चालकों के शरीर में अन्य के मुकाबले में कम ऊष्मा थी।

वैसे यह अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं है कि गर्म पेय शरीर को अधिक पसीना पैदा करने के लिए क्यों उकसाते हैं, लेकिन शोधकर्ताओं का अनुमान है कि ऐसा करने में गले और मुंह में मौजूद ताप संवेदकों की भूमिका होगी। इस पर आगे अध्ययन की ज़रूरत है।

फिलहाल शोधकर्ताओं की सलाह के अनुसार यदि आप नमी वाले इलाकों में हैं तो गर्मी में गर्म पानी न पिएं। लेकिन सूखे रेगिस्तानी इलाकों के गर्म दिनों में गर्म चाय की चुस्की ठंडक पहुंचा सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्लास्टिक का कचरा और नई प्लास्टिक अर्थव्यवस्था – सोमेश केलकर

दुनिया भर में प्लास्टिक प्रदूषण का खतरा बढ़ता जा रहा है और अब समुद्र भी इससे अछूते नहीं हैं। सार्वजनिक दबाव का नतीजा राष्ट्र-आधारित नियम कायदों और स्वैच्छिक प्रयासों के पैबंदों रूप में ही सामने आया है। लेकिन ये इस व्यापक समस्या को संबोधित करने में प्राय: नाकाम ही रहे हैं। अब कॉर्पोरेशन्स के एक वैश्विक समूह ने राष्ट्र संघ के माध्यम से एक संधि-आधारित, समन्वित चक्रीय रणनीति की पहल की है। सवाल इतना ही है कि क्या यह रणनीति सफल होगी या अतीत के प्रयासों की तरह नाकाम रहेगी।

पहल

नवीन प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था का विचार एलन मैककार्थर फाउंडेशन का है। विचार यह है कि इस अर्थ व्यवस्था में प्लास्टिक कभी भी एक कचरा या प्रदूषक नहीं बनेगा। फाउंडेशन ने तीन सुझाव दिए हैं ताकि एक चक्रीय प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था हासिल की जा सके। फाउंडेशन का दावा है कि समस्यामूलक प्लास्टिक वस्तुओं को हटाकर, यह सुनिश्चित करके कि सारा प्लास्टिक पुन:उपयोग, पुनर्चक्रण और कंपोस्ट-लायक हो, हम एक ऐसी अर्थ व्यवस्था हासिल कर सकते हैं कि सारा प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था में ही बना रहे और पर्यावरण से बाहर रहे।

एलन मैककार्थर फाउंडेशन के ही शब्दों में शून्य प्लास्टिक कचरा उत्पन्न करने वाली अर्थव्यवस्था के कुछ तत्व निम्नानुसार होंगे:

1. रीडिज़ाइनिंग, नवाचार और डीलिवरी के नए मॉडल्स अपनाकर समस्यामूलक तथा अनावश्यक प्लास्टिक पैकेजिंग से मुक्ति पाई जा सकती है।

1क – प्लास्टिक के कई लाभ हैं। लेकिन बाज़ार में कुछ समस्यामूलक वस्तुएं भी हैं जिन्हें हटाना होगा ताकि चक्रीय अर्थ व्यवस्था हासिल की जा सके। कहीं-कहीं तो उपयोगिता से समझौता किए बगैर प्लास्टिक पैकेजिंग को पूरी तरह समाप्त भी किया जा सकता है।

2. जहां संभव और प्रासंगिक हो, पुन:उपयोग के मॉडल को लागू किया जाए, पैकेजिंग में एक बार-उपयोग की ज़रूरत को समाप्त किया जाए।

2क – हालांकि पुन:चक्रण को बेहतर बनाना महत्वपूर्ण है, लेकिन मात्र पुन:चक्रण के दम पर हम प्लास्टिक सम्बंधी वर्तमान मुद्दों को नहीं निपटा सकते।

2ख – जहां भी प्रासंगिक हो, पुन:उपयोग के मॉडल को सामने लाया जाना चाहिए ताकि एकबार-उपयोग वाले पैकेजिंग की ज़रूरत कम से कम हो।

3. सारा प्लास्टिक पैकेजिंग 100 फीसदी पुन:उपयोग, पुनर्चक्रण या कंपोÏस्टग के लायक हो।

3क – इसके लिए बिज़नेस मॉडल्स, पदार्थों, पैकेजिंग और डिज़ाइन तथा पुन:प्रसंस्करण की टेक्नॉलॉजी में रीडिज़ाइन और नवाचार की ज़रूरत होगी।

3ख – कंपोÏस्टग-योग्य प्लास्टिक पैकेजिंग कोई रामबाण समाधान नहीं है बल्कि विशिष्ट अनुप्रयोगों के लिए कारगर होगा।

4. सारे प्लास्टिक पैकेजिंग का पुन:उपयोग, पुनर्चक्रण या कंपोÏस्टग किया जाएगा।

4क – कोई भी प्लास्टिक पर्यावरण, कचरा भराव स्थलों, इंसनरेटरों या कचरे-से-ऊर्जा संयंत्रों में नहीं पहुंचना चाहिए। ये चक्रीय प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था के हिस्से नहीं हैं।

4ख – पैकेजिंग का उत्पादन व बिक्री करने वाले कारोबारियों की ज़िम्मेदारी मात्र उनके पैकेजिंग का डिज़ाइन करने व उपयोग करने तक सीमित नहीं है; उन्हें यह भी ज़िम्मेदारी लेनी होगी कि उस प्लास्टिक का वापिस संग्रह किया जाए, पुन:चक्रण किया जाए या कंपोस्ट किया जाए।

4ग – कारगर संग्रह के लिए अधोरचना बनाने, सम्बंधित आत्म-निर्भर वित्त-पोषण की व्यवस्थाएं बनाने तथा उपयुक्त नियामक व नीतिगत माहौल तैयार करने के लिए सरकारों की भूमिका अनिवार्य है।

5. प्लास्टिक उपयोग को सीमित संसाधनों के उपभोग से पूरी तरह पृथक करना होगा।

5क – इस पृथक्करण का सबसे पहला चरण वर्जिन प्लास्टिक के उपयोग को कम करना होगा (पुन:उपयोग और पुन:चक्रण के माध्यम से)

5ख – पुन:चक्रित पदार्थों का उपयोग ज़रूरी है (जहां तकनीकी व कानूनी रूप से संभव हो) ताकि सीमित संसाधनों से इसे मुक्त किया जा सके और संग्रह व पुन:चक्रण को बढ़ावा दिया जा सके।

5ग – धीरे-धीरे प्लास्टिक का समस्त उत्पादन व पुन:चक्रण नवीकरणीय ऊर्जा से किया जाना चाहिए।

6. सारा प्लास्टिक पैकेजिंग हानिकारक रसायनों से मुक्त हो और सम्बंधित पक्षों के स्वास्थ्य व सुरक्षा अधिकारों का सम्मान किया जाए।

6क – पैकेजिंग, और उसके उत्पादन व पुन:चक्रण की प्रक्रियाओं में हानिकारक रसायनों का उपयोग समाप्त होना चाहिए।

6ख – प्लास्टिक कारोबार के समस्त क्षेत्रों में शामिल सारे लोगों के स्वास्थ्य, सुरक्षा व अधिकारों का सम्मान ज़रूरी है, खास तौर से अनौपचारिक क्षेत्र के कामगारों (कचरा बीनने वालों) के संदर्भ में।

राष्ट्र संघ संधि

दी बिज़नेस केस फॉर दी यूएन ट्रीटी ऑन प्लास्टिक पोल्यूशन (प्लास्टिक प्रदूषण पर राष्ट्र संघ संधि के लिए कारोबार का पक्ष) विश्व प्रकृति निधि (डब्लू.डब्लू.एफ.), एलन मैककार्थर फाउंडेशन तथा बोस्टन कंसÏल्टग ग्रुप द्वारा प्रस्तुत एक रिपोर्ट है। इन संस्थाओं का प्रयास है कि प्लास्टिक प्रदूषण पर एक नई राष्ट्र संघ संधि विकसित हो।

इस रिपोर्ट के आधार पर प्रमुख कंपनियों ने 13 अक्टूबर 2020 को आव्हान किया था कि प्लास्टिक प्रदूषण पर एक राष्ट्र संघ संधि तैयार की जाए ताकि नियमन के टुकड़ा-टुकड़ा ढांचे की समस्या को संबोधित किया जा सके और वर्तमान स्वैच्छिक प्रयासों को व्यवस्थित रूप दिया जा सके।

इस तरह की संधि पर बातचीत शुरू करने के लिए एक प्रस्ताव राष्ट्र संघ पर्यावरण सभा के पांचवे सत्र में फरवरी 2021 में पेश हुआ था। इसमें सभा ने प्लास्टिक प्रदूषण को एक समस्या के रूप में मान्यता दी और 2017 में राष्ट्र संघ पर्यावरण सभा द्वारा निर्धारित छानबीन के उपरांत यह स्वीकार किया कि प्लास्टिक प्रदूषण सम्बंधी वर्तमान कानूनी प्रावधान अपर्याप्त हैं।

क्या यह सफल होगा?

ऐसी किसी योजना की सफलता की संभावना कुछ वर्षों पूर्व नगण्य ही होती। अलबत्ता, हाल ही में जैविक विकल्पों में हुई तरक्की ने एक ऐसी अंतर्राष्ट्रीय संधि के लिए पृष्ठभूमि तैयार कर दी है जो व्यावसायिक नवाचारों को बढ़ावा दे।

कोका कोला इस मामले में नवीन टेक्नॉलॉजी को अपनाने में आगे आया है और उसने 2009 में अमरीका के कुछ प्रांतों में ‘प्लांटबॉटल’ (‘PlantBottel’) लॉन्च की है।

इसके अलावा, पेट्रोकेमिकल पुन:चक्रण की अगली पीढ़ी की टेक्नॉलॉजी के विकास ने यह संभावना पैदा कर दी है कि फोम, पोलीस्टायरीन, पोलीथीन जैसे मुश्किल से पुन:चक्रित प्लास्टिक्स और मिश्रित कचरे का पुन:चक्रण किया जा सके।

यूएस के नीति निर्माताओं ने इस क्षेत्र में आर्थिक विकास की संभावना को पहचाना है। हाल ही में यूएस के ऊर्जा विभाग ने डेलावेयर विश्वविद्यालय को उसके नए सेंटर फॉर प्लास्टिक इनोवेशन के लिए 1.16 करोड़ डॉलर का वित्तीय समर्थन दिया है। ऐसा माना जा रहा है कि यह अनुसंधान एकबार-उपयोग वाले प्लास्टिक पैकेजिंग के क्षेत्र में और अन्य क्षेत्रों में भी 100 फीसदी पुन:चक्रण योग्य उत्पाद बनाने के प्रयासों में मददगार होगा। एडिडास द्वारा 100 प्रतिशत पुन:चक्रण योग्य जूतों का विकास इसी का एक उदाहरण है।

सन 2020 में यूएस के ऊर्जा विभाग ने 12 नए प्रोजेक्ट्स के लिए 2.7 करोड़ डॉलर की सहायता का वचन दिया है। इनमें जैविक उत्पादों के विकास के प्रोजेक्ट्स शामिल हैं।

इसके अलावा, यूएस में कुछ एकबारी उपयोग वाले प्लास्टिक पैकेजिंग उपयोगकर्ता अब प्लास्टिक संसाधनों के विकास के लिए अपने आपूर्तिकर्ताओं पर निर्भर नहीं हैं। वे स्वयं ऐसे अनुसंधान को वित्तीय सहायता दे रहे हैं जो ज़्यादा टिकाऊ उत्पाद व कच्चा माल तैयार करने में मददगार हो। इसका एक उदाहरण लोरियाल है जिसने पीईटी बोतलों के विकास के लिए फ्रांसीसी जैव-औद्योगिक अनुसंधान कंपनी कार्बिओस के साथ आणविक-स्तर की पुन:चक्रण टेक्नॉलॉजी पर काम शुरू किया है।

बिज़नेस की दृष्टि

यूएस की कंपनियों के उपरोक्त प्रयासों के अलावा, हाई-टेक पुन:चक्रण के क्षेत्र नवीन आर्थिक गतिविधियों का एक संकेत पेनसिल्वेनिया की प्रांतीय सीनेट में पारित एक विधेयक से भी मिलता है। इस विधेयक के तहत पुन:चक्रण को एक अलग क्षेत्र मानने की बजाय निर्माण उद्योग का ही अंग माना जाएगा। इस कदम से पता चलता है कि पारंपरिक कचरे-से-ऊर्जा की दहन टेक्नॉलॉजी और आधुनिक पायरोलिसिस टेक्नॉलॉजी में कितना अंतर है।

दहन के विपरीत पायरोलिसिस एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें प्लास्टिक को पिघलाकर पुन: उपयोग के काबिल कच्चे माल में परिवर्तित किया जाता है और इसमें गैसों का उत्सर्जन भी बहुत कम होता है। पायरोलिसिस का इस्तेमाल प्लास्टिक से तरल र्इंधन प्राप्त करने में भी किया जा सकता है। अलबत्ता, इस प्रक्रिया के लिए जो ऊर्जा लगती है, उसके लिए पर्यावरण-अनुकूल मार्ग खोजने की ज़रूरत है और पेनसिल्वेनिया में यही कोशिश चल रही है। सौर ऊर्जा के उपयोग पर काम चल रहा है।

पेनसिल्वेनिया में चल रहे प्लास्टिक पुन:चक्रण के अगली पीढ़ी के इन प्रयासों की खास बात यह है कि इनमें सरकार एक भागीदार है और यह ऊर्जा विभाग की एक वर्तमान योजना का हिस्सा है। यह एक और उदाहरण है कि प्लास्टिक पुन:चक्रण की उपलब्ध टेक्नॉलॉजी को व्यवहार में उतारने की ज़रूरत है।

उपभोक्ता की दृष्टि

प्लास्टिक में कमी लाने के सारे प्रयासों के लिए सबसे महत्वपूर्ण घटक उपभोक्ताओं का समर्थन है और इसका अभाव भी सबसे ज़्यादा है। निजी आदतों को बदलना मुश्किल होता है और दुनिया के कई हिस्सों में पुन:चक्रण के क्षेत्र में धीमी प्रगति इसका प्रमाण है। भारत में भी यदि हम अपने घरों के बाहर नज़र डालें तो देख सकते हैं कि हममें से कितने लोग कचरे का पृथक्करण करते हैं और उसे कचरा गाड़ियों में सही जगह पर डालते हैं। लेकिन एकल-उपयोग प्लास्टिक की बजाय पुन:उपयोगी पैकेजिंग के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए उपभोक्ताओं की भागीदारी ज़रूरी है और इस बात के प्रमाण मिल रहे हैं कि प्लास्टिक प्रदूषण की रोकथाम की जागरूकता बढ़ रही है। विश्व प्रकृति निधि व अन्य संस्थाओं के प्रयासों से प्लास्टिक प्रदूषण का संकट मुख्यधारा के विमर्श का हिस्सा बन गया है।

बिज़नेस केस फॉर ए यूएन ट्रीटी में कहा गया है, “दुनिया भर में प्लास्टिक प्रदूषण को नंबर तीन का पर्यावरणीय संकट माना गया है।” रिपोर्ट में 2017 को एक निर्णायक मोड़ का बिंदु भी कहा गया है। यूएस में एक अध्ययन में पाया गया कि “प्लास्टिक को उपभोक्ता वस्तुओं में सबसे नकारात्मक पदार्थ माना जाता है। और अध्ययन में शामिल किए गए 65 प्रतिशत उपभोक्ताओं ने माना था इसका सम्बंध समुद्री प्रदूषण से है और 75 प्रतिशत ने इसे पर्यावरण के लिए हानिकारक माना था।”

भारत में क्रियांवयन

पूर्व के अध्ययनों के लिए उदाहरण यूएस से लिए गए थे क्योंकि वहां प्लास्टिक की एक चक्राकार अर्थ व्यवस्था सम्बंधी छिटपुट प्रयास शुरू हो चुके हैं। अब भारत पर एक नज़र डालते हैं। कुछ मायनों में भारत एक अनूठा देश है। इसलिए यहां ऐसी चक्राकार अर्थ व्यवस्था के विकास के समक्ष कुछ विशिष्ट चुनौतियां उपस्थित होंगी। उदाहरण के लिए, सड़कों-गलियों में कचरा फेंकना हमारे यहां बहुत बुरी बात नहीं माना जाता। इसलिए इस बात पर अमल करना थोड़ा मुश्किल होगा कि कोई प्लास्टिक पर्यावरण में न पहुंचे।

चक्राकार प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था के लिए जो भी कारोबारी मॉडल अपनाया जाए, वह सरकार व बिज़नेस दोनों के लिए लाभदायक होना चाहिए। बिज़नेस को अपने उत्पादन के तौर-तरीकों में बदलाव करने होंगे ताकि प्लास्टिक कचरे को कम करने के नए तरीकों का समावेश किया जा सके। आम तौर पर सरकार के पास ऐसा कोई कदम उठाने का प्रलोभन नहीं होता जिससे वोट का सम्बंध न हो। देश में शिक्षा की अल्प अवस्था को देखते हुए शायद अधिकांश लोगों ने नई प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था के बारे में सुना तक न होगा। यदि इस नए मॉडल को लागू करने से उद्योगों का मुनाफा कम होता है, तो वे शायद ऐसी नवीन चक्राकार प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था के विरुद्ध मुहिम शुरू कर दें। और आम लोगों को ऐसे मॉडल को अपनाने के लिए प्रेरित करने के कोई तरीके भी नहीं हैं। लोगों को पुन:चक्रण के लिए तैयार करने के लिए कुछ तो नगद प्रलोभन देना होगा। लेकिन प्राय: देखा गया है कि ऐसे प्रलोभन गलत व्यवहार को बढ़ावा देने लगते हैं।

निष्कर्ष

यह सही है कि नई प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था के लिए राष्ट्र संघ संधि सही दिशा में एक कदम है, लेकिन किसी इकलौते मॉडल को सब जगह लागू करना मुश्किल है क्योंकि हर देश की अपनी विशिष्ट चुनौतियां हैं। अभी निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता कि जहां अन्य मॉडल्स नाकाम रहे हैं, वहां यह नया मॉडल किस हद तक सफल होगा। ज़रूरत यह है कि मात्र पुन:चक्रण, कंपोस्टिग और पुन:उपयोग से आगे बढ़कर कोई ऐसी चीज़ आज़माई जाए जो बदलाव पैदा कर दे।

एक नज़रिया तो यह है कि भरपूर उपयोग करके फिर कचरे को ठिकाने लगाने के बारे में सोचने की बजाय गैर-ज़रूरी उपयोग को कम किया जाए। अधिक उपभोग ही प्लास्टिक कचरे के पर्यावरण में जमा होने का प्रमुख कारण है। शायद चक्राकार अर्थ व्यवस्था में इस बात पर काफी ध्यान दिया जाना चाहिए कि हम मात्र ज़रूरी कार्यों में प्लास्टिक का उपयोग करें और जहां संभव हो वहां पुन:उपयोग करें। बहरहाल, नवीन प्लास्टिक अर्थ व्यवस्था एक अनोखा मॉडल है जो रोचक है और इस बात को लेकर एक ताज़ातरीन नज़रिया देता है कि हम कचरे के साथ कैसे व्यवहार करते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जलवायु बदलाव के दौर में कृषि – भारत डोगरा

लवायु बदलाव का संकट तेज़ी से विश्व के सबसे बड़े पर्यावरणीय संकट के रूप में उभरा है। जीवन के विभिन्न महत्त्वपूर्ण पक्षों के संदर्भ में इस संकट को समझना ज़रूरी हो गया है। भारत में आजीविका का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत कृषि व इससे जुड़े विभिन्न कार्य हैं। अत: खेती-किसानी, पशुपालन, वृक्षारोपण आदि के संदर्भ में जलवायु बदलाव के संकट को समझना आवश्यक है।

पहला सवाल है कि खेती-किसानी पर जलवायु बदलाव का क्या असर पड़ सकता है? यह असर बहुत व्यापक व गंभीर हो सकता है। मौसम पहले से कहीं अधिक अप्रत्याशित व प्रतिकूल हो सकता है। प्राकृतिक आपदाएं बढ़ सकती हैं। जल संकट अधिक विकट हो सकता है। मौसम में बदलाव के साथ ऐसी कई समस्याएं पैदा हो सकती हैं जो पहले नहीं थीं। किसानों, पशुपालकों, घुमंतू समुदायों, वन-श्रमिकों आदि के लिए कुछ स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ सकती हैं।

अगला प्रश्न है कि इसके लिए कैसी तैयारी लगेगी? इसके लिए खेती-किसानी के खर्च को तेज़ी से कम किया जाए व किसान-समुदायों की आत्म-निर्भरता को तेज़ी से बढ़ाया जाए। यदि किसान रासायनिक खाद, कीटनाशकों आदि पर निर्भरता कम कर लें और विविधता भरे परंपरागत बीजों को संजो लें तो खर्च बहुत कम हो जाएगा, कर्ज़ घटेगा व विपरीत स्थिति का सामना करने में वे अधिक समर्थ हो जाएंगे। स्थानीय निशुल्क उपलब्ध संसाधनों (जैसे गोबर, पत्ती की खाद, स्थानीय पौधों या नीम जैसी वनस्पतियों से प्राप्त छिड़काव) से आत्म-निर्भरता बढ़ जाएगी। परांपरागत बीज संजोने व संग्रहण करने, उनकी जानकारी बढ़ाने, उन्हें आपस में बांटने से आत्म-निर्भरता आएगी, प्रतिकूल या बदले मौसम के अनुकूल बीज भी परंपरागत विविधता भरे बीजों में से मिल जाएंगे।

आपदा-प्रबंधन व कठिन समय में सहायता के लिए सरकारी बजट बढ़ाना चाहिए। जल व मिट्टी संरक्षण पर अधिक ध्यान देना चाहिए व यह कार्य लोगों की नज़दीकी भागीदारी से होना चाहिए। यह कार्य, हरियाली बढ़ाने व वन-रक्षा के कार्य बड़े पैमाने पर, विशेषकर भूमिहीन परिवारों को रोज़गार देते हुए, होने चाहिए ताकि सभी ग्रामीण परिवारों का आजीविका आधार मज़बूत हो सके। इसके अलावा भूमिहीन परिवारों के लिए न्यूनतम भूमि की व्यवस्था भी ज़रूरी है।

कृषि व सम्बंधित आजीविकाओं की मज़बूती के कार्य में विकेंद्रीकरण बढ़ाना चाहिए व गांव समुदायों, ग्राम सभाओं व ग्राम पंचायतों की क्षमता व संसाधनों में भरपूर वृद्धि होनी चाहिए ताकि उन्हें बाहरी मार्गदर्शन पर निर्भर न होना पड़े व बदलती स्थिति में स्थानीय ज़रूरतों के अनुकूल निर्णय वे स्वयं ले सकें। अति-केंद्रीकृत निर्णय ऊपर से लादने की प्रवृत्ति आज भी कठिनाइयां उत्पन्न करती है व जलवायु बदलाव के दौर में ये कठिनाइयां और बढ़ सकती हैं।

आदिवासी क्षेत्रों में यह और भी महत्त्वपूर्ण हैं। वन-रक्षा के प्रयासों में भी आदिवासियों व वनों के पास के समुदायों की भूमिका को तेज़ी से बढ़ाना चाहिए।

तीसरा सवाल यह है कि जलवायु बदलाव के संकट को कम करने में कृषि का योगदान कैसे व कितना हो सकता है। यह योगदान बहुत महत्वपूर्ण हो सकता है। मज़े की बात तो यह है कि जिन उपायों से कृषि को जलवायु बदलाव का सामना करने में मदद मिलेगी, कमोबेश वही उपाय ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने व इस तरह जलवायु बदलाव का संकट कम करने में भी मददगार हो सकते हैं। रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाइयों पर निर्भरता कम करने से किसानों के खर्च कम होंगे तो साथ में उनके उत्पादन, यातायात व उपयोग से जुड़ी ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन भी कम होगा। यदि छोटे नदी-नालों व नहरों से पानी उठाने के लिए डीज़ल के स्थान पर मंगल टरबाईन का उपयोग होगा, तो इससे किसानों का खर्च भी कम होगा व ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन भी कम होगा। यदि चारागाह बचेंगे व हरियाली बढ़ेगी तथा मिट्टी संरक्षण के उपाय होंगे तो इससे किसानों की आजीविका बढ़ेगी पर साथ में इससे ग्रीनहाउस गैसों को सोखने की क्षमता भी बढ़ेगी।

अत: इस बारे में उचित समझ बनाते हुए परंपरागत ज्ञान व नई वैज्ञानिक जानकारी का समावेश करते हुए हमें ऐसी कृषि की ओर बढ़ना है जो किसान की टिकाऊ आजीविका को मज़बूत करे है, आत्म-निर्भरता को बढ़ाए, खर्च व कर्ज़ कम करे व साथ में ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन भी कम करे या उन्हें सोखने में मदद करे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रसायन विज्ञान सुलझाएगा प्लास्टिक प्रदूषण की समस्या

र्ष 1907 में संश्लेषित प्लास्टिक के रूप में सबसे पहले बैकेलाइट का उपयोग किया गया था। वज़न में हल्का, मज़बूत और आसानी से किसी भी आकार में ढलने योग्य बैकेलाइट को विद्युत कुचालक के रूप में उपयोग किया जाता था।

प्लास्टिक आधुनिक दुनिया में काफी उपयोगी चीज़ है। देखा जाए तो प्लास्टिक उत्पादों की डिज़ाइन और निर्माण का एक प्रमुख घटक है। प्लास्टिक विशेष रूप से एकल उपयोग की चीज़ें बनाने में काम आता है – जैसे पानी की बोतलें और खाद्य उत्पादों के पैकेजिंग। फिलहाल प्रति वर्ष 38 करोड़ टन प्लास्टिक का उत्पादन होता है जो वर्ष 2050 तक 90 करोड़ टन होने की संभावना है।

लेकिन जिन जीवाश्म र्इंधनों से प्लास्टिक का निर्माण होता है उन्हीं की तरह प्लास्टिक के भी नकारात्मक पर्यावरणीय प्रभाव हो सकते हैं। एक अनुमान के मुताबिक 2050 तक 12 अरब टन प्लास्टिक लैंडफिल में पड़ा होगा और पर्यावरण को प्रदूषित कर रहा होगा। 2015 में इसकी मात्रा 4.9 अरब टन थी।

कचरे से ऊर्जा प्राप्त करने के लिए जो इंसिनरेटर उपयोग किए जाते हैं उनमें भी प्रमुख रूप से प्लास्टिक ही जलाया जाता है। इनमें भी काफी मात्रा में कार्बन उत्सर्जन होता है। कुछ वृत्त चित्रों में प्लास्टिक कचरे के कारण होने वाले पर्यावरणीय प्रदूषण पर ध्यान आकर्षित किया गया है।

वैसे आजकल प्लास्टिक पुनर्चक्रण किया जाता है लेकिन एक तो यह प्रक्रिया काफी खर्चीली है और पुनर्चक्रित प्लास्टिक कम गुणवत्ता वाले होते हैं और कमज़ोर भी होते हैं। आजकल बाज़ार में जैव-विघटनशील प्लास्टिक का भी उपयोग किया जा रहा है। इनका उत्पादन वनस्पति पदार्थों से किया जाता है या इनमें ऑक्सीजन या अन्य रसायन जोड़े जाते हैं ताकि ये समय के साथ सड़ जाएं। लेकिन ये प्लास्टिक सामान्य प्लास्टिक के पुनर्चक्रण में बाधा डालते हैं क्योंकि तब मिले-जुले पुनर्चक्रित प्लास्टिक की गुणवत्ता और भी खराब होती है। इन्हें अलग करना भी संभव नहीं होता।

ऐसे में अधिक निर्वहनीय प्लास्टिक का निर्माण रसायन विज्ञान का एक महत्वपूर्ण सवाल बन गया है। वर्तमान में शोधकर्ता प्लास्टिक कचरे को कम करने के प्रयास कर रहे हैं और साथ ही ऐसे प्लास्टिक बनाने की कोशिश कर रहे हैं जिनका बेहतर पुनर्चक्रण किया जा सके।

ऐसा एक प्रयास नेचर में प्रकाशित हुआ है। जर्मनी स्थित युनिवर्सिटी ऑफ कॉन्सटेंज़ के स्टीफन मेकिंग और उनके सहयोगियों ने एक नए प्रकार के पॉलिएथीलीन का वर्णन किया है। पॉलीएथीलीन (या पोलीथीन) सर्वाधिक इस्तेमाल होने वाला एकल-उपयोग प्लास्टिक है। मेकिंग द्वारा निर्मित पोलीथीन ऐसा पदार्थ है जिसकी अधिकांश शुरुआती सामग्री को पुर्नप्राप्त करके फिर से काम में लाया जा सकता है। वर्तमान पदार्थों और तकनीकों के साथ ऐसा कर पाना काफी मुश्किल है।

वैसे इस नए प्लास्टिक पर अभी और परीक्षण की आवश्यकता है। मौजूदा पुनर्चक्रण की अधोरचना पर इसके प्रभावों का आकलन भी करना होगा। इसके लिए मौजूदा पुनर्चक्रण केंद्रों में अलग प्रकार की तकनीक की आवश्यकता होगी। यदि इसके उपयोग को लेकर आम सहमति बनती है और इसे बड़े पैमाने पर किया जा सके तो पुनर्चक्रित प्लास्टिक के इस्तेमाल में वृद्धि होगी और शायद प्लास्टिक को पर्यावरण के लिए कम हानिकारक बनाया जा सकेगा।

वास्तव में प्लास्टिक आणविक इकाइयों की शृंखला से बने होते हैं। जाता है। पुन:उपयोग के लिए इस प्रक्रिया को उल्टा चलाकर शुरुआती पदार्थ प्राप्त करना कठिन कार्य है। प्लास्टिक पुनर्चक्रण में मुख्य बाधा यह है कि इकाइयों को जोड़ने वाले रासायनिक बंधनों को कम ऊर्जा खर्च करके इस तरह तोड़ा जाए कि मूल पदार्थों को पुनप्र्राप्त किया जा सके और एक बार फिर अच्छी गुणवत्ता का प्लास्टिक बनाने में इस्तेमाल किया जा सके।

वैसे तो इस तरीके की खोज में कई वैज्ञानिक समूह काम कर रहे थे लेकिन मेकिंग की टीम ने मज़बूत पॉलीएथीलीन-नुमा एक ऐसा पदार्थ विकसित किया जिसके रासायनिक बंधनों को आसानी से तोड़ा जा सकता है। इस प्रक्रिया में वैज्ञानिक लगभग सभी शुरुआती पदार्थ पुर्नप्राप्त करने में सफल रहे।

गौरतलब है कि इसी तरह की खोज एक अन्य टीम द्वारा भी की गई है। युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया की सुज़ाना स्कॉट और उनके सहयोगियों ने एक उत्प्रेरक की मदद से पॉलीएथीलीन के अणुओं को तोड़कर अन्य किस्म की इकाइयां प्राप्त कीं जिनसे शुरू करके एक अलग प्रकार का प्लास्टिक बनाया जा सकता है। यह एक महत्वपूर्ण शोध है। इसे विभिन्न प्रकार के प्लास्टिक और बड़े पैमाने पर उपयोग में लाना चाहिए।

अलबत्ता, रसायन शास्त्र हमें यहीं तक ला सकता है। जब तक प्लास्टिक के उपयोग में वृद्धि जारी है, केवल पुनर्चक्रण से प्लास्टिक प्रदूषण को कम नहीं किया जा सकता है। प्लास्टिक को जलाने और इसे महासागरों या लैंडफिल में भरने से रोकने के लिए प्लास्टिक निर्माण की दर को कम करना होगा। कंपनियों को अपने प्लास्टिक उत्पादों के पूरी तरह से पुनर्चक्रण की ज़िम्मेदारी लेनी होगी। और इसके लिए सरकारों को अधिक नियम-कायदे बनाने होंगे और संयुक्त राष्ट्र की प्लास्टिक संधि को भी सफल बनाना होगा।

इसके लिए प्लास्टिक पैकेजिंग में शामिल 20 प्रतिशत कंपनियों ने न्यू प्लास्टिक्स इकॉनॉमी ग्लोबल कमिटमेंट के तरह यह वादा किया है कि प्लास्टिक पुनर्चक्रण में वृद्धि करेंगे। लेकिन हालिया रिपोर्ट दर्शाती है कि एकल-उपयोग प्लास्टिक को कम करने और पूर्ण रूप से पुन:उपयोगी पैकेजिंग को अपनाने में प्रगति उबड़-खाबड़ है।

ज़ाहिर है कि इस संदर्भ में कंपनियों को ठेलने की आवश्यकता है। यदि उन पर दबाव बनाया जाए कि उन्हें प्लास्टिक के पूरे जीवन चक्र की ज़िम्मेदारी लेनी होगी तो वे ऐसे पदार्थों का उपयोग करने को आगे आएंगी जिनका बार-बार उपयोग हो सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गर्माती दुनिया में अलग-अलग जंतुओं पर प्रभाव

न्नीसवीं सदी की शुरुआत में, जोसेफ ग्रिनेल और उनके दल ने कैलिफोर्निया के जंगलों, पहाड़ों और रेगिस्तानों का और वहां के जंतुओं का बारीकी से सर्वेक्षण किया था। कैलिफोर्निया तट से उन्होंने पॉकेट चूहों को पकड़ा और गिद्धों की उड़ान पर नज़र रखी; मोजेव रेगिस्तान में अमेरिकी छोटे बाज़ (खेरमुतिया) को कीटों पर झपट्टा मारते देखा और चट्टानों के बीच छिपे हुए कैक्टस चूहों को पकड़ा। इसके अलावा भी उन्होंने वहां से कई नमूने-जानकारी एकत्रित कीं, विस्तृत नोट्स बनाए, तस्वीरें खीचीं और इन जगहों का नक्शा तैयार किया। इस तरह उनके द्वारा एकत्रित “ग्रिनेल-युग” का फील्ड डैटा काफी विस्तृत है।

और अब, आधुनिक सर्वेक्षणों के डैटा की तुलना ग्रिनेल-युग के डैटा से करके पारिस्थितिकीविदों ने बताया है कि जलवायु परिवर्तन सभी जीवों को समान रूप से प्रभावित नहीं कर रहा है। वैज्ञानिक मानते आए हैं कि तापमान में वृद्धि पक्षियों और स्तनधारियों को एक जैसा प्रभावित करती है क्योंकि दोनों को ही शरीर का तापमान बनाए रखना होता है। लेकिन लगता है कि ऐसा नहीं है।

पिछली एक शताब्दी में मोजेव के तापमान में लगभग दो डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है जिसके कारण वहां के पक्षियों की कुल संख्या और उनकी प्रजातियों की संख्या में नाटकीय कमी आई है। लेकिन इन्हीं हालात में छोटे स्तनधारी जीव (जैसे पॉकेट चूहे) अपने आपको बनाए रखने में सफल रहे हैं। शोधकर्ताओं ने साइंस पत्रिका में बताया है कि ये चूहे निशाचर जीवन शैली और गर्मी से बचाव के लिए सुरंगों में रहने की आदत के कारण मुश्किल परिस्थितियों में भी जीवित रह पाए हैं।

ग्रिनेल ने जिन जीवों का अध्ययन किया था, वे अब तुलनात्मक रूप से गर्म और शुष्क जलवायु में रहने को मजबूर हैं। पूर्व में प्रोसिडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित इन स्थलों के पुनर्सर्वेक्षण में पता चला था कि प्रत्येक स्थान पर रेगिस्तानी पक्षियों (जैसे अमरीकी छोटे बाज़ या पहाड़ी बटेर) की लगभग 40 प्रतिशत प्रजातियां विलुप्त हो गर्इं हैं। और अधिकतर स्थानों पर शेष प्रजातियों की सदस्य संख्या भी बहुत कम रह गई है। लेकिन आयोवा स्टेट युनिवर्सिटी के फिज़ियोलॉजिकल इकॉलॉजिस्ट एरिक रिडेल का अध्ययन चूहों, माइस, चिपमंक्स और अन्य छोटे स्तनधारियों के संदर्भ में थोड़ी आशा जगाता है।

उन्होंने अपने अध्ययन में पाया है कि ग्रिनेल के सर्वेक्षण के बाद से अब स्तनधारियों की तीन प्रजातियों के जीवों संख्या में कमी आई है, 27 प्रजातियां स्थिर है, और चार प्रजातियों की संख्या में वृद्धि हुई है। यह जानने के लिए कि बदलती जलवायु में पक्षी इतने अधिक असुरक्षित क्यों हैं, रिडेल ने रेगिस्तानी पक्षियों की 50 प्रजातियों और 24 विभिन्न छोटे स्तनधारी जीवों के संग्रहालय में रखे नमूनों के फर और पिच्छों में ऊष्मा स्थानांतरण और प्रकाश अवशोषण को मापा। फिर, इस तरह प्राप्त डैटा और सम्बंधित प्रजातियों के व्यवहार और आवास का डैटा उन्होंने एक कंप्यूटर प्रोग्राम में डाला, जो यह बताता था कि कोई जानवर कितनी गर्मी सहन कर सकता है, और विभिन्न तापमान वाली परिस्थितियों में कोई जानवर खुद को कितना ठंडा रख सकता है। जैसे पक्षी रक्त नलिकाओं को फैला कर, पैरों या मुंह के ज़रिए पानी को वाष्पित कर अपने शरीर का तापमान नियंत्रित रखते हैं। पक्षियों में खुद को ठंडा बनाए रखने की लागत स्तनधारियों की तुलना में तीन गुना अधिक होती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अधिकांश छोटे स्तनधारी दिन के सबसे गर्म समय में ज़मीन के नीचे सुरंगों या बिलों में वक्त बिताते हैं। इस तरह के व्यवहार से वुडरैट जैसे स्तनधारी जीव को भी जलवायु परिवर्तन का सामना करने में मदद मिली है, जबकि वुडरैट रेगिस्तान में जीने के लिए अनुकूलित भी नहीं हैं। केवल वे स्तनधारी जो बहुत गहरे की बजाय ज़मीन में थोड़ा ऊपर ही अपना बिल बनाते हैं, वे ही बढ़ते तापमान का सामना करने में असफल हैं, जैसे कैक्टस माउस।

इसके विपरीत कई पक्षी, जैसे अमरीकी छोटा बाज़ और प्रैयरी बाज़ पर बढ़ते तापमान का बुरा असर है। यह मॉडल स्पष्ट करता है कि क्यों पक्षी और स्तनधारी जलवायु परिवर्तन पर अलग-अलग प्रतिक्रिया देते हैं।

परिणाम सुझाते हैं कि जलवायु परिवर्तन का रेगिस्तानी पारिस्थितिकी तंत्र पर भी उसी तरह का खतरा है जैसा कि तेज़ी से गर्म होते आर्कटिक के पारिस्थितिकी तंत्र पर है।

भविष्य में स्तनधारियों को भी खतरा हो सकता है। मिट्टी की पतली परत केवल दो प्रतिशत रेगिस्तान में है, जिसके अधिक शुष्क होने की संभावना है। इसलिए अब विविध सूक्ष्म आवास वाले क्षेत्रों को संरक्षित करना चाहिए। ऐसे मॉडल संरक्षण की योजना बनाने में मदद कर सकते हैं। जो प्रजातियां जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से लड़ने में सक्षम हैं उनके संरक्षण की बजाय विलुप्त होती प्रजातियों को संरक्षित कर धन और समय दोनों की बचत होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गर्भनाल में मिला माइक्रोप्लास्टिक – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

माइक्रोप्लास्टिक प्लास्टिक के पांच मिलीमीटर से छोटे कण होते हैं। ये व्यावसायिक प्लास्टिक उत्पादन के दौरान और बड़े प्लास्टिक के टूटने से उत्पन्न होते हैं। रोज़मर्रा के जीवन में प्लास्टिक के अधिक इस्तेमाल के कारण माइक्रोप्लास्टिक ने पूरी पृथ्वी को अपनी चपेट में ले लिया है। प्रदूषक के रूप में माइक्रोप्लास्टिक पर्यावरण, मानव और पशु स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक हो सकता है।

हाल ही में वैज्ञानिकों ने गर्भवती महिलाओं के गर्भनाल में माइक्रोप्लास्टिक्स पाया है। यह बेहद चिंता का विषय है। नए शोध में गर्भनाल के नमूनों में अनेक प्रकार के सिंथेटिक पदार्थ भी पाए गए हैं। इटली में हुए एक अध्ययन में महिलाओं की प्रसूति में कोई जटिलता  नहीं पता चली है और इसलिए छोटे प्लास्टिक के कणों का शरीर पर प्रभाव निश्चित तौर पर अभी तक ज्ञात नहीं हो पाया है। हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि प्लास्टिक के रसायन गर्भस्थ शिशु की प्रतिरक्षा प्रणाली को नुकसान अवश्य पहुंचा सकते हैं।

रोम के फेटबेनफ्रेटेली के प्रसूति और स्त्री रोग विभाग के शोध प्रमुख एंटोनियो रागुसा तब आश्चर्यचकित हो गए जब उन्होंने बच्चों के जन्म के बाद माताओं द्वारा दान में दिए गए छह में से चार गर्भनाल में 12 माइक्रोप्लास्टिक टुकड़े पाए। अनुमान है कि माओं के शरीर में माइक्रोप्लास्टिक भोजन या सांस के साथ प्रवेश कर गए होंगे। अध्ययन के लिए प्रत्येक गर्भनाल से केवल तीन प्रतिशत ऊतक का नमूना लिया गया था, और उसमें भी इतनी अधिक मात्रा में माइक्रोप्लास्टिक टुकड़ों का मिलना बेहद गंभीर मामला है। शोध पत्र में कहा गया है कि सभी प्लास्टिक के कण रंगीन थे। तीन नमूनों को पॉलीप्रोपायलीन के रूप में पहचाना गया, जबकि अन्य नौ अन्य नमूनों के केवल रंग की पहचान ही संभव हो पाई।

एनवायरनमेंट इंटरनेशनल नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोध में शोधकर्ताओं ने बताया है कि पिछली सदी में ही प्लास्टिक का वैश्विक उत्पादन प्रति वर्ष 32 करोड़ टन तक पहुंच गया था। उत्पादन में हुई 40 प्रतिशत की वृद्धि का उपयोग एकल-उपयोग पैकेजिंग के रूप में किया जाता है। उपयोग हो जाने पर इसे कचरे के रूप में फेंक दिया जाता है।

गर्भनाल गर्भस्थ शिशु से अपशिष्ट पदार्थ को निकालने के साथ-साथ बच्चे को ऑक्सीजन और पोषण भी प्रदान करता है। 10 माइक्रॉन (0.01 मि.मी.) के माइक्रोप्लास्टिक रक्त प्रवाह में पहुंचकर मां से गर्भस्थ शिशु में भी पहुंच जाते हैं। शरीर में पहुंचते ही ये माइक्रोप्लास्टिक्स शिशु के शरीर में प्रतिरक्षा तंत्र को सक्रिय करके प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया उत्तेजित करते हैं। माइक्रोप्लास्टिक्स पर्यावरणीय प्रदूषकों और प्लास्टिक योजक सहित अन्य रसायनों के वाहक के रूप में भी कार्य कर सकता है, जिससे शरीर को अत्यधिक हानि होती है। माइक्रोप्लास्टिक्स गर्भनाल के भ्रूण और मातृ दोनों हिस्सों में पाए गए थे। ये कण शिशुओं के शरीर में प्रवेश कर गए होंगे, हालांकि वैज्ञानिक शिशु के अंदर इनका पता लगाने में असमर्थ थे। भ्रूण पर माइक्रोप्लास्टिक्स के संभावित प्रभाव में भ्रूण की सामान्य वृद्धि कम हो जाना है। वैज्ञानिकों ने कहा है कि अध्ययन में शामिल दो अन्य महिलाओं के गर्भनाल में माइक्रोप्लास्टिक कणों का न पाया जाना बेहतर आहार, शरीर की कार्यिकी या बेहतर जीवन शैली का परिणाम हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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पर्यावरणीय न्याय: मरीचिका की तलाश – रिनचिन

पिछले साल 27 सितंबर को छत्तीसगढ़ के रायगढ़ ज़िले के तमनार में अडानी समूह द्वारा आयोजित एक पर्यावरणीय जन सुनवाई के विरोध में सुनवाई स्थल के बाहर एक हज़ार से भी ज़्यादा लोगों ने प्रदर्शन किया। अडानी समूह को महाजेनको कोयला खदान के गारे सेक्टर-2 में कोयला खनन करने की मंज़ूरी (माइन डेवलपमेंट ऑर्डर) मिल गई है। उक्त जन सुनवाई जबरन आयोजित की जा रही थी जबकि स्थानीय लोग पर्यावरण कानूनों का घोर उल्लंघन कर किए जा रहे खनन कार्यों से होने वाले खतरनाक प्रदूषण का विरोध पिछले कुछ सालों से कर रहे हैं। खनन कार्यों के खिलाफ क्षेत्र की ग्राम सभाओं द्वारा कई प्रस्ताव पारित किए गए हैं, रैलियां निकाली गर्इं हैं व विरोध प्रदर्शन भी हुए हैं।

स्थानीय समुदायों के जीवन, आजीविका और उनके स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों को अधिकारियों के संज्ञान में लाया गया, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ। इस इलाके के वायु गुणवत्ता परीक्षण में PM-2.5 (2.5 माइक्रॉन से छोटे कण) के महीन कणों का स्तर 200-400 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर के बीच पाया गया है जो कि स्वीकृत मानक स्तर (60 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर) से कई गुना ज़्यादा है। इसके अलावा कई अध्ययनों में पाया गया है कि इन इलाकों की हवा, पानी और मिट्टी में भारी धातुएं और कैंसरजनक पदार्थ उपस्थित हैं। इसके साथ ही, यहां के तेज़ी से गिरते भूजल स्तर और वन आच्छादन में आ रही कमी और लोगों के स्वास्थ्य में तेज़ी से हो रही गिरावट के कारण लोग सविनय अवज्ञा को बाध्य हुए हैं। इसमें समुदाय के कई लोगों को झूठे आरोप और नाजायज़ कारावास झेलना पड़ा है।

समुदाय के लोगों ने न्याय के लिए कानूनी लड़ाई भी लड़ी। इस लड़ाई में उन्होंने पर्यावरण और स्वास्थ्य क्षति, और खनन कंपनियों द्वारा पर्यावरण कानूनों के घोर उल्लंघन के आधार पर राहत की मांग की।

मार्च 2020 में, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने डुकालू राम और अन्य बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में पर्यावरण को क्षति पहुंचाने के लिए जिंदल स्टील एंड पॉवर लिमिटेड और साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड पर 160 करोड़ रुपए का जुर्माना लगाया था। यह केस छह साल चला था।

एक अन्य मामले – शिवपाल भगत व अन्य बनाम यूनियन ऑफ इंडिया – में एनजीटी द्वारा नियुक्त समिति ने जनवरी 2020 में इस क्षेत्र का दौरा किया था। एनजीटी को सौंपी अपनी अंतिम रिपोर्ट में समिति ने कहा था –

“…कोयला भंडारों की उपस्थिति के चलते पिछले दो-तीन दशकों में इस क्षेत्र में कई कोयला खदानें और कोयला आधारित ताप बिजली घर लगाए गए हैं। कई पर्यावरणीय नियम मौजूद होने के बावजूद भी इन गतिविधियों ने कई तरह का भारी प्रदूषण फैलाया है, जो अब भी जारी है।”

समिति ने यह भी माना कि खनन कार्यों के कारण यहां की हवा, पानी, मिट्टी पर ज़हरीले प्रभाव पड़े हैं और इसके कारण भूजल स्तर में भारी गिरावट आई है, वन आच्छादन कम हुआ है और कृषि को नुकसान पहुंचा है। इतने बड़े पैमाने पर और इतने भीषण असर को देखते हुए समिति ने कहा कि वह यह निष्कर्ष निकालने को मजबूर है कि

“ऊपर दिए गए साक्ष्यों के आधार पर समिति की राय है कि तमनार-घरघोड़ा ब्लॉक का क्षेत्र अपनी पर्यावरणीय वहन क्षमता को पार करने के करीब है। अलबत्ता, एक विस्तृत और व्यापक पर्यावरणीय भार वहन क्षमता अध्ययन के ज़रिए वर्तमान पर्यावरणीय भार की सटीक सीमा और भावी खनन और औद्योगिक गतिविधियों के संभावित प्रभावों का आकलन किए जाने की आवश्यकता है, जो किसी प्रतिष्ठित पर्यावरण अनुसंधान संस्थान या इसी तरह की संस्थाओं के किसी संघ द्वारा 24 महीनों के भीतर किया जाए।”

एनजीटी ने समिति की सिफारिशों को स्वीकार किया और 27 फरवरी 2020 के अपने आदेश में कहा:

“जैसा कि रिपोर्ट बताती है, गंभीर खामियां पाई गई हैं और पर्यावरण को और अधिक नुकसान पहुंचने की संभावना भी देखी गई है; हम मानते हैं कि ‘ऐहतियात’ और ‘निर्वहनीय विकास’ सिद्धांतों के लिए आवश्यक है कि गहन मूल्यांकन और स्वास्थ्य देखभाल प्रबंधन सहित उपचारात्मक उपायों का तंत्र स्थापित होने के बाद ही किसी नई परियोजना को शुरू करने या परियोजना का विस्तार करने की अनुमति दी जाए।”

हालांकि ये महत्वपूर्ण कानूनी जीत हैं जो समुदाय में एक उम्मीद भी भरती हैं, लेकिन राज्य प्रशासन की निष्क्रियता दर्शाती है कि सिर्फ (सकारात्मक) आदेश पर्याप्त नहीं हैं। असल जंग तो इन आदेशों को लागू करवाने और कानूनों का पालन करवाने की है।

कोविड-19 की आड़ में कंपनियों ने एनजीटी द्वारा निर्देशित सुधारात्मक कार्यों को करने में ढिलाई बरती है, लेकिन ज़रूरी सेवाओं के नाम पर कंपनियों की खनन गतिविधियां बाकायदा जारी रहीं। एनजीटी ने निचले इलाकों में उड़न-राख की अवैध डंपिंग पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया था और कंपनियों को मौजूदा सारे राख-डंप को हटाने के आदेश दिए थे। लेकिन कोविड-19 के चलते लगाई गई तालाबंदी के बहाने यह कार्य भी नहीं किया गया। उड़न-राख जनित प्रदूषण ऊपरी और निचले श्वसन तंत्र के कई रोगों के लिए ज़िम्मेदार है, और इसका पीएम-2.5 कणों के प्रदूषण में महत्वपूर्ण योगदान है। अध्ययनों में वायु प्रदूषण बढ़ने पर कोविड-19 से होने वाली मौतों की संख्या में वृद्धि देखी गई है।

कोविड-19 और वायु प्रदूषण के बीच इस सम्बंध को देखते हुए, उड़न-राख डंप हटा दिए जाने चाहिए थे और प्रभावित क्षेत्रों में युद्ध स्तर पर उपचारात्मक कार्रवाइयां की जानी चाहिए थीं। लेकिन दुर्भाग्य है कि प्रशासन इस तरह काम नहीं कर रहा। अब समुदायों को अपना इंतज़ाम खुद करने के लिए छोड़ दिया गया है, उन्हें अदालत के आदेशों और भूमि कानूनों को लागू करवाने के तरीके खोजने हैं, वह भी तब जब कोविड-19 के कारण लगाए प्रतिबंधों ने नागरिक स्वतंत्रता पर रोक लगा दी है।

मामले को और भी बदतर करने के लिए सितंबर 2020 में भारत सरकार ने नई कोयला खदानें लगाने के लिए नीलामी की घोषणा की है। इसमें रायगढ़ क्षेत्र में तीन नई खदानें लगनी हैं – दोलेसारा, जारेकेला और झारपलम-तंगारघाट। ये प्रस्तावित इलाके ऐसे क्षेत्र हैं जो मौजूदा खनन कार्यों और अन्य गतिविधियों के कारण प्रदूषण से तबाह हो चुके हैं, और अब कुछ ही हिस्सों में घने जंगल बचे हैं जो इस प्रस्ताव के कारण खतरे में हैं।

12 आदिवासी सरपंचों ने हाल ही में पर्यावरण मंत्री को लिखकर पूछा है कि जब अध्ययनों का डैटा और स्वयं राज्य की रिपोर्ट इस क्षेत्र में खनन कार्यों पर रोक की सिफारिश करती है तो वाणिज्यिक खनन सूची में उनके क्षेत्र में नई खदानें लगाना क्यों शामिल किया गया है। गांवों के मुखियाओं ने भी इस क्षेत्र में नई खदानें लगाने पर रोक और एनजीटी के निर्देशानुसार प्रदूषित भूमि के उपचार और बहाली की मांग की है।

रायगढ़ का अनुभव दर्शाता है कि पर्यावरणीय न्याय और अर्थव्यवस्था की लड़ाई में जीत अर्थव्यवस्था की ही होती है। न्यायिक और प्रशासनिक प्रणालियों ने खनन कार्यों से होने वाली गंभीर मानवीय क्षति को स्वीकार तो किया है लेकिन इस मामले में उनकी निष्क्रियता यह साबित करती है कि पर्यावरणीय न्याय सैद्धांतिक रूप से तो मौजूद है लेकिन व्यवहारिक रूप में नहीं, और इस न्याय के लिए लड़ने वालों को बहुत कठिन लड़ाई लड़नी पड़ती है। लेकिन कोयला खदानों के आसपास रहने वाले आदिवासी समुदायों के लोगों के पास कोई सिद्धांत नहीं है, उनके पास तो केवल जीवंत अनुभव हैं। और स्वच्छ पर्यावरण के लिए उनकी लड़ाई, ताकि आने वाली पीढ़ियों का स्वास्थ्य सुरक्षित रहे, भी जीवित रहने के लिए एक संघर्ष है। यह संघर्ष इस जवाब में बहुत अच्छे से झलकता है: जब एक अधिकारी ने पूछा कि आप यह संघर्ष क्यों कर रहे हैं तो एक महिला का जवाब था, “लड़बो नहीं तो मरबो” – “अगर हम लड़ेंगे नहीं तो हम मर जाएंगे!” यह अस्तित्व के लिए संघर्ष है। (स्रोत फीचर्स)

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2020: वैश्विक तापमान का रिकॉर्ड

र्ष 2020 में महामारी के कारण लॉकडाउन से ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी की संभावना जताई गई थी। लेकिन हाल ही में नासा, यूके मौसम विभाग और अन्य संस्थानों की संयुक्त रिपोर्ट के अनुसार पृथ्वी का तापमान पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में लगभग 1.25 डिग्री सेल्सियस अधिक है।

विभिन्न स्रोतों से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर 2020 का औसत वैश्विक सतही तापमान वर्ष 2016 के बराबर है। गौरतलब है कि वर्ष 2016 में एल-नीनो प्रभाव के कारण तापमान में वृद्धि हुई थी। एल-नीनो प्रभाव पूर्वी प्रशांत महासागर में गहरे ठंडे पानी के प्रभाव को रोक देता है जिससे वैश्विक तापमान में वृद्धि होती है। दूसरी ओर, पिछले वर्ष प्रशांत महासागर में ला-नीना के कारण शीतलन हुआ था लेकिन आश्चर्य की बात है कि इसके बावजूद औसत वैश्विक तापमान बढ़ा।

गत 6 वर्ष पिछले कई सालों में सबसे गर्म रहे हैं लेकिन वायुमंडल का गर्म होना अनियमित रहा है क्योंकि इसकी प्रकृति अव्यवस्थित है। देखा जाए तो महासागरों के गर्म होने का रुझान ज़्यादा नियमित रहा है, जो वैश्विक तापमान की 90 प्रतिशत से अधिक गर्मी को अवशोषित करते हैं। इस मामले में भी 2020 एक रिकॉर्ड वर्ष साबित हुआ। एडवांसेज़ इन एटमॉस्फेरिक साइंस में वैज्ञानिकों ने बताया है कि महासागरों की ऊपरी सतह में 2019 की अपेक्षा 2020 में 20 ज़ीटाजूल्स (1021 जूल्स) अधिक ऊष्मा थी। यह औसत वार्षिक वृद्धि से दोगुनी थी। चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइंस के जलवायु वैज्ञानिक लीजिंग चेंग के अनुसार उपोष्णकटिबंधीय अटलांटिक महासागर विशेष रूप से गर्म रहा जिसके चलते काफी अधिक तूफान आए।

ऊष्मा का मापन 4000 रोबोट की सहायता से महासागरों में 2000 मीटर की गहराई तक किया गया। इससे पता चला कि गर्मी समुद्रों की गहराई तक पहुंच रही है और ध्रुवों तक फैल रही है। उत्तरी प्रशांत में अत्यधिक ग्रीष्म लहर से समुद्री जीवन काफी प्रभावित हुआ। पहली बार अटलांटिक के गर्म पानी को आर्कटिक महासागर की ओर बढ़ते देखा गया जिसने बर्फ को रिकॉर्ड निचले स्तर तक पिघलाया है। महासागरों के बढ़ते तापमान और बर्फ के पिघलने से समुद्र तल में सालाना 4.8 मिलीमीटर की वृद्धि हो रही है और वृद्धि की दर बढ़ भी रही है।

भूमि पर तो हालत और खराब रही। बर्कले अर्थ द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार 2020 का तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तर की तुलना में 1.96 डिग्री अधिक रहा। यह एशिया, युरोप और दक्षिण अमेरिका का अब तक का सबसे गर्म वर्ष रहा। रूस भी पिछले रिकॉर्ड को तोड़ते हुए 1.2 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म रहा जबकि साइबेरिया का इलाका पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में 7 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म रहा। इस बढ़े हुए तापमान के कारण व्यापक स्तर पर आग और पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने से इमारतों के गिरने और तेल रिसाव के मामले भी सामने आए।

2020 की शुरुआत में ऑस्ट्रेलिया में भी रिकॉर्ड-तोड़ गर्मी और सूखे से व्यापक स्तर पर आग के मामले सामने आए। इस आग से दक्षिण-पूर्वी ऑस्ट्रेलिया के लगभग एक-चौथाई जंगल जल गए और 3000 घर तबाह हुए। इसी बीच अमेरिका में पहले से ही काफी गर्म दक्षिण पश्चिमी भाग भी काफी तेज़ी से गर्म हुआ। एरिज़ोना राज्य स्थित फीनिक्स शहर में औसत 36 डिग्री सेल्सियस तापमान दर्ज किया गया। यहां साल 2016 के बाद से गर्मी के कारण होने वाली मौतों ने एक नया रिकॉर्ड बनाया है। एरिज़ोना स्टेट युनिवर्सिटी के जलवायु विज्ञानी डेविड होंडुला के अनुसार वर्ष 2020 में गर्मी से 300 लोगों की मौत हुई जो पिछले वर्ष की तुलना में 50 प्रतिशत अधिक है।

हालांकि, कोविड-19 जनित आर्थिक मंदी से कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन में लगभग 7 प्रतिशत की कमी देखी गई लेकिन, हमारे वातावरण में बढ़ी हुई कार्बन डाईऑक्साइड काफी समय से मौजूद है और पूर्व के उत्सर्जनों का भी काफी प्रभाव मौजूद है। आने वाले समय में उत्सर्जन में कमी की संभावना काफी कम है। यूके मौसम विभाग का अनुमान है कि मई में वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर कई हफ्तों तक 417 पीपीएम रहेगा जो पूर्व-औद्योगिक स्तर से 50 प्रतिशत अधिक है। जलवायु विज्ञानियों के अनुसार उत्सर्जन में कमी लाने के लिए देशों को सख्त कदम उठाने होंगे।

यदि वैश्विक तापमान में वृद्धि इसी तरह से जारी रहती है तो इसे पेरिस जलवायु समझौते में निर्धारित लक्ष्यों (2035 और 2065 तक क्रमश: 1.5 डिग्री सेल्सियस और 2 डिग्री सेल्सियस वृद्धि) तक सीमित रखना काफी मुश्किल हो जाएगा। पिछले कई दशकों से तापमान में प्रति दशक 0.19 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि देखी गई है। वैज्ञानिकों का मानना है कि इसके तेज़ी से बढ़ने की आशंका है। सवाल यह है कि क्या हम इस पर काबू पा सकेंगे? (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जलवायु परिवर्तन और कोविड-19 संकट

क साल पहले तक बढ़ते पर्यावरण संकट को लेकर लोगों में काफी चिंता थी; ज़रूरी कदम उठाने सम्बंधी युवा आंदोलन काफी ज़ोर-शोर से हो रहे थे। लेकिन कोविड-19 ने जलवायु संकट पर उठाए जा रहे कदमों और जागरूकता से लोगों का ध्यान हटा दिया। हकीकत में कोविड-19 और पर्यावरणीय संकट में कुछ समानताएं हैं। दोनों ही संकट मानव गतिविधि के चलते उत्पन्न हुए हैं, और दोनों का आना अनपेक्षित नहीं था। इन दोनों ही संकटों को दूर करने या उनका सामना करने में देरी से कदम उठाए गए, अपर्याप्त कदम या गलत कदम उठाए गए, जिसके कारण जीवन की अनावश्यक हानि हुई। अभी भी हमारे पास मौका है कि हम सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा को बेहतर करें, एक टिकाऊ आर्थिक भविष्य बनाएं और पृथ्वी पर बचे-खुचे प्राकृतिक संसाधनों और जैव विविधता की रक्षा करें।

यह तो जानी-मानी बात है कि स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। पिछले पांच वर्षों से स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन के लैंसेट काउंटडाउन ने जलवायु परिवर्तन के कारण स्वास्थ्य पर होने वाले प्रभावों को मापने वाले 40 से अधिक संकेतकों का विवरण दिया है और उन पर नज़र रखी हुई है। साल 2020 में प्रकाशित लैंसेट की रिपोर्ट में बढ़ती गर्मी से सम्बंधित मृत्यु दर, प्रवास और लोगों का विस्थापन, शहरी हरित क्षेत्र में कमी, कम कार्बन आहार (यानी जिस भोजन के सेवन से पर्यावरण को कम से कम नुकसान हो) और अत्यधिक तापमान के कारण श्रम क्षमता के नुकसान की आर्थिक लागत जैसे नए संकेतक भी शामिल किए गए। जितने अधिक संकेतक होंगे जलवायु परिवर्तन के स्वास्थ्य और स्वास्थ्य तंत्र पर पड़ने वाले प्रभावों को समझने में उतने ही मददगार होंगे। जैसे वायु प्रदूषण के कारण होने वाला दमा, वैश्विक खाद्य सुरक्षा की चुनौतियां और कृषि पैदावार में कमी के कारण अल्प आहार, हरित क्षेत्र में कमी से बढ़ती मानसिक स्वास्थ्य सम्बंधी तकलीफों का जोखिम और 65 वर्ष से अधिक आयु के लोगों में अधिक गर्मी का असर, जैसी समस्याओं को ठीक करने का सामथ्र्य स्वास्थ्य प्रणालियों की क्षमता पर निर्भर करता है, और यह क्षमता स्वास्थ्य सेवाओं के लचीलेपन पर निर्भर करती है। इन दो संकटों के कारण हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था पहले ही काफी दबाव में है।

लैंसेट काउंटडाउन में राष्ट्र-स्तरीय नीतियां दर्शाने वाले क्षेत्रीय डैटा को भी शामिल किया है। इस संदर्भ में लैंसेट काउंटडाउन की दी लैंसेट पब्लिक हेल्थ में एशिया की पहली क्षेत्रीय रिपोर्ट प्रकाशित हुई है, और ऑस्ट्रेलियाई एमजेए-लैंसेट काउंटडाउन की तीसरी वार्षिक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। विश्व में सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जक और सर्वाधिक आबादी वाले देश के रूप में चीन की जलवायु परिवर्तन पर प्रतिक्रिया, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय, दोनों स्तरों पर बहुत मायने रखती है। रिपोर्ट बताती है कि बढ़ते तापमान के कारण बढ़ते स्वास्थ्य जोखिमों से निपटने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कदम उठाए जाने की ज़रूरत है। हालांकि 23 संकेतक बताते हैं कि कई क्षेत्रों में प्रभावशाली सुधार किए गए हैं, और जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयास कर सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार करने की पहल भी देखी गई है। लेकिन इस पर चीन की प्रतिक्रिया अभी भी ढीली है।

जलवायु परिवर्तन को बढ़ाने वाले कारकों पर अंकुश लगाकर ज़ूनोटिक (जंतु-जनित) रोगों के उभरने और दोबारा उभरने को रोका जा सकता है। अधिकाधिक खेती, जानवरों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और वन्य जीवों के प्राकृतिक आवासों में बढ़ता मानव दखल ज़ूनोटिक रोगों से मानव संपर्क और उनके फैलने की संभावना को बढ़ाते हैं। विदेशी यात्राओं में वृद्धि और शहरों में बढ़ती आबादी के कारण ज़ूनोटिक रोग अधिक तेज़ी से फैलते हैं। जलवायु परिवर्तन के पर्यावरणीय स्वास्थ्य निर्धारकों के रूप में इन कारकों की भी महत्वपूर्ण भूमिका है।

कोविड-19 और जलवायु संकट, दोनों इस तथ्य को और भी नुमाया करते हैं कि समाज के सबसे अधिक गरीब और हाशियाकृत लोग, जैसे प्रवासी और शरणार्थी लोग, हमेशा ही सर्वाधिक असुरक्षित होते हैं और इसके प्रभावों की सबसे अधिक मार झेलते हैं। जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में देखें तो इस संकट से सर्वाधिक प्रभावित लोगों का योगदान इस संकट को बनाने में सबसे कम है। इस वर्ष की काउंटडाउन रिपोर्ट के अनुसार कोई भी देश इस बढ़ती असमानता के कारण होने वाली जीवन की क्षति को बचाने के लिए प्रतिबद्ध दिखाई नहीं पड़ता।

कोविड-19 के प्रभावों से निपटना अब राष्ट्रों की वरीयता बन गया है और जलवायु संकट के मुद्दों से उनका ध्यान हट गया है। जिस तत्परता से राष्ट्रीय सरकारें कोविड-19 से हुई क्षति के लिए आर्थिक सुधार की योजनाएं बना रहीं हैं और उन पर अमल कर रही हैं, उतनी ही तत्परता से जलवायु परिवर्तन और सामाजिक समानता के मुद्दों पर काम करने की ज़रूरत है। अब इन दोनों तरह के संकटों से एक साथ निपटना लाज़मी और अनिवार्य है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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