वातानुकूलन: गर्मी से निपटने के उपाय – आदित्य चुनेकर, श्वेता कुलकर्णी

प्रयास (ऊर्जा समूह) ने उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के अर्ध-शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के 3000घरों में बिजली के अंतिम उपयोग के पैटर्न को समझने के लिए फरवरी-मार्च 2019में एक सर्वेक्षण किया था। यहां उस सर्वेक्षण के आधार पर प्रकाश व्यवस्था के बदलते परिदृश्य की चर्चा की गई है। इस शृंखला में आगे बिजली के अन्य उपयोगों पर चर्चा की जाएगी।

भारत की जलवायु, अलग-अलग क्षेत्रों और अलग-अलग मौसमों में बहुत अलग-अलग होती है। अलबत्ता, अधिकांश देश गर्म ग्रीष्मकाल का अनुभव करता है जो और अधिक गर्म हो रहा है। भारत में हर साल लगभग 50 करोड़ पंखे, 8 करोड़ एयर-कूलर और 45 लाख एयर कंडीशनर खरीदे जाते हैं। इनकी बिक्री पिछले कुछ वर्षों में लगातार बढ़ी है और आगे भी वृद्धि की उम्मीद है। फिर भी, भारत में एयर कंडीशनर और कूलर का घरेलू स्वामित्व अभी भी अपेक्षाकृत कम है। भारत उन चुनिंदा देशों में से है जहां कूलिंग एक्शन प्लान तैयार किया गया है। इसका उद्देश्य है कि पर्यावरणीय और सामजिक-आर्थिक लाभ को सुरक्षित करते हुए सभी के लिए निर्वहनीय ठंडक एवं ऊष्मीय राहत प्रदान की जा सके। सर्वेक्षण में यह समझने की कोशिश की गई कि सर्वेक्षित परिवार किस तरह गर्मी से राहत पाने की कोशिश करते हैं और इसमें ठंडक के लिए ऊर्जा-मांग सम्बंधी कार्यक्रमों के लिए क्या समझ मिल सकती है?

आमतौर पर, महाराष्ट्र की तुलना में उत्तर प्रदेश अधिक गर्म रहता है। 2018 में, सर्वेक्षित ज़िलों में महाराष्ट्र की तुलना में उत्तर प्रदेश में 40 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान वाले दिनों की संख्या ज़्यादा रही। हालांकि, खास तौर से उत्तर प्रदेश में, सर्दियों का मौसम काफी ठंडा रहा, फिर भी बिजली से चलने वाले रूम हीटरों का स्वामित्व दोनों ही राज्यों में नगण्य है। इसलिए, हम केवल गर्मी से राहत पाने के लिए घरों में बिजली के उपयोग पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं।

छत का पंखा सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाला उपकरण है। उत्तर प्रदेश के लगभग 94 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 95 प्रतिशत सर्वेक्षित घरों में छत के पंखे हैं। प्रति परिवार छत के पंखों की संख्या उत्तर प्रदेश में 2.4 और महाराष्ट्र में 1.6 है। यह भी देखा गया है कि महाराष्ट्र (औसतन 2.4 कमरे प्रति घर) की तुलना में उत्तर प्रदेश में घर बड़े (औसतन 3.8 कमरे प्रति घर) हैं। अगला लोकप्रिय उपकरण कूलर है – उत्तर प्रदेश में 40 प्रतिशत परिवारों और महाराष्ट्र में 23 प्रतिशत परिवारों के पास कूलर है। हालांकि, उच्च आय वाले परिवारों में इनका स्वामित्व अधिक है, लेकिन कुछ निम्न और मध्यम आय वाले परिवारों में भी कूलर थे। इससे स्थानीय स्तर पर निर्मित सस्ते कूलर की उपलब्धता का पता चलता है। दूसरी ओर एयर कंडीशनर का स्वामित्व दोनों राज्यों में काफी कम (3.5 प्रतिशत) है, जो अधिकतर उच्च आय वर्ग में होंगे। अधिकांश वातानुकूलन उपकरण (ए.सी.) स्प्लिट प्रकार के हैं; उत्तर प्रदेश में 84 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 70 प्रतिशत। प्रत्येक श्रेणी में सबसे अधिक उपयोग किए जाने वाले उपकरण की औसत आयु उत्तर प्रदेश में छत के पंखे की 7 साल, कूलर की 4 साल और एयर कंडीशनर की 2.5 साल है जबकि महाराष्ट्र में क्रमश: 7, 5 और 3 साल थी।

छत के पंखों के लिए ब्यूरो ऑफ एनर्जी एफिशिएंसी (बीईई) का मानक और लेबलिंग (एसएंडएल) कार्यक्रम स्वैच्छिक है। भारत में उत्पादित 95 प्रतिशत से अधिक छत के पंखे स्टार रेटेड नहीं हैं। हमारे सर्वेक्षण में, उत्तर प्रदेश में लगभग 6 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 18 प्रतिशत घरों में ही स्टार रेटेड छत के पंखे थे। बीईई ने हाल ही में मानकों को संशोधित किया है जिसके बाद नए 5-स्टार रेटेड छत के पंखे गैर-स्टार रेटेड पंखों की तुलना में आधी बिजली खपत करते हैं। लिहाज़ा, व्यापक पैमाने पर स्टार रेटेड छत के पंखे अपनाए जाएं, इसके लिए जागरूकता और उपलब्धता बढ़ाने तथा कीमतें कम करने की आवश्यकता है। स्टार रेटेड पंखों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए बीईई राष्ट्रीय स्तर पर अभियान चला सकता है। वह छत के पंखों के लिए एसएंडएल कार्यक्रम को भी अनिवार्य बना सकता है ताकि भारत में अक्षम और गैर-स्टार रेटेड पंखे न बेचे जा सकें। एनर्जी एफिशिएंसी सर्विसेज लिमिटेड (ईईएसएल) का उजाला कार्यक्रम 5-स्टार पंखे रियायती मूल्य पर बेचता है। ईईएसएल नए 5-स्टार पंखों को बेचने के लिए कार्यक्रम को अपग्रेड कर सकता है, जो पुराने 5-स्टार पंखों की तुलना में 30 प्रतिशत अधिक कार्यक्षम हैं। बीईई अपने खुद के अत्यंत कुशल उपकरण कार्यक्रम (एसईईपी) के तहत उजाला कार्यक्रम का समर्थन कर सकता है, जिसके तहत निर्माताओं को सामान्य पंखों की बजाय अत्यंत कुशल (नए 5 स्टार पंखे) को बेचने की बढ़ती लागत की क्षतिपूर्ति करने के लिए समयबद्ध वित्त प्रदान किया जाता है। इससे इन पंखों की कीमत में और गिरावट आ सकती है और खरीद बढ़ सकती है। एयर कूलर के लिए भी यही तरीका अपनाया जा सकता है। छत के पंखों के विपरीत, बीईई के पास एयर कूलर के लिए कोई भी स्टार रेटिंग कार्यक्रम नहीं है। इसके लिए पहला कदम यह होगा कि एयर कूलर को भी स्टार रेटेड कार्यक्रम के तहत लाया जाए और फिर एयर कूलर के लिए भी उजाला जैसा कोई कार्यक्रम शुरू करना होगा।

छत के पंखों और एयर कूलर के स्टार रेटिंग कार्यक्रम के समक्ष एक चुनौती स्थानीय निर्माताओं की उपस्थिति हो सकती है। हो सकता है उनमें से कुछ निर्माता सस्ते, गैर-मानक और अत्यधिक अक्षम मॉडल बेचें। तब बीईई के लिए इन उत्पादों में स्टार रेटिंग मानदंडों के अनुपालन की निगरानी करना मुश्किल हो सकता है। यह समस्या एयर कूलर में अधिक स्पष्ट है। दोनों राज्यों में सर्वेक्षित परिवारों में स्थानीय रूप से निर्मित एयर कूलर की हिस्सेदारी स्थानीय पंखों की तुलना में काफी अधिक है। एयर कूलर और पंखों के स्टार रेटिंग कार्यक्रम की सफलता के लिए इस मुद्दे को संबोधित करना ज़रूरी होगा।

सर्वेक्षित परिवारों में एयर कंडीशनर का स्वामित्व दोनों राज्यों में काफी कम है। हालांकि उनके उपयोग के बारे में कुछ टिप्पणियां की जा सकती हैं। बीईई के पास एयर कंडीशनर के लिए अनिवार्य एसएंडएल कार्यक्रम है। दोनों राज्यों में एयर कंडीशनर वाले 34 प्रतिशत घरों में ऊर्जाक्षम 4 और 5 स्टार रेटेड मॉडल हैं। उत्तर प्रदेश के लगभग 49 प्रतिशत और महाराष्ट्र के लगभग 32 प्रतिशत परिवार या तो स्टार-लेबल के बारे में जानते नहीं हैं या किसी गैर-स्टार रेटेड मॉडल का उपयोग कर रहे हैं। इससे पता चलता है कि एयर कंडीशनर तक के बारे में इस कार्यक्रम को लेकर जागरूकता कम है। उत्तर प्रदेश के परिवार 21 डिग्री सेल्सियस और महाराष्ट्र के परिवार 22 डिग्री सेल्सियस की औसत तापमान सेटिंग पर एसी का इस्तेमाल करते हैं। यह दर्शाता है कि बीईई द्वारा हाल में अनुशंसित 24 डिग्री की डिफॉल्ट सेटिंग उपभोक्ताओं को तापमान अधिक सेट करने और बिजली बचाने के लिए प्रेरित कर सकती है। दूसरी ओर, एयर कंडीशनर का उपयोग काफी कम है। सामान्य गर्मी के दिन में एयर कंडीशनर का प्रतिदिन औसत उपयोग उत्तर प्रदेश में 3.8 घंटे और महाराष्ट्र में 4.5 घंटे  है। इससे तो लगता है कि शायद लोग एयर कंडीशनर का तापमान कम सेट करते हैं और कमरा ठंडा होने के बाद इसे बंद कर देते हैं। इससे एक आशंका यह पैदा होती है कि उपभोक्ता अधिक ऊर्जाक्षम एसी होने पर उसका उपयोग लंबी अवधि के लिए करने लगेंगे और तब ज़्यादा ऊर्जा खर्च होगी। इसकी और जांच करने की आवश्यकता है।

हमने परिवारों से यह भी पूछा था कि क्या वे उनके पास उपलब्ध उपकरणों के उपयोग के बाद भी गर्मियों के मौसम में किसी तरह की असुविधा का सामना करते हैं। सर्वेक्षण में उत्तर प्रदेश के लगभग 59 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 34 प्रतिशत परिवारों ने बताया कि वे गर्मी के कई या अधिकांश दिनों में असुविधा का सामना करते हैं। हमने अनुकूलन उपकरणों के स्वामित्व के आधार पर परिवारों का समूहीकरण किया और उनके असुविधा के स्तर को दर्ज किया। इन आंकड़ों से लगता है परिवारों में कई श्रेणी के उपकरण हो सकते हैं। जिन घरों में एयर कंडीशनर है वहां एयर कूलर, छत का पंखा, टेबल फैन, आदि में से कोई एक या सभी उपस्थित हो सकते हैं। देखा गया कि उत्तर प्रदेश में टेबलफैन वाले परिवारों से एयर कंडीशनर वाले परिवारों की ओर बढ़ें, तो असुविधा भी कम होती जाती है। हालांकि, यह रुझान महाराष्ट्र में इतना स्पष्ट नहीं है। इसका एक संभावित कारण उत्तर प्रदेश में ग्रीष्मकाल की तीव्रता हो सकता है। दिलचस्प बात यह है कि दोनों राज्यों में लगभग 10 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं जो एयर कंडीशनर का उपयोग करते हैं लेकिन फिर भी गर्मियों के अधिकतर दिनों में असुविधा का सामना करते हैं। ऐसा एयर कंडीशनर के सीमित उपयोग की वजह से हो सकता है। इसका कारण उच्च बिजली बिल, पॉवर कट या दोनों ही हो सकते हैं। यह एयर कंडीशनर के अनुचित आकार के कारण भी हो सकता है जिसके परिणामस्वरूप अपर्याप्त शीतलन होता है।

तापमान में वृद्धि के रुझान के साथ घरों में असुविधा का उच्च स्तर सभी वातानुकूलन उपकरणों के लिए एक संभावित मांग का संकेत देता है। इसके मद्दे नज़र ऐसे हस्तक्षेपों की आवश्यकता है जिनसे यह सुनिश्चित हो सके कि ये उपकरण ऊर्जा-क्षम हों ताकि वे एक निर्वहनीय और सस्ते तरीके से शीतलन की ज़रूरतों को पूरा कर सकें। मानक और लेबलिंग (एसएंडएल) जैसी नीतियां और अत्यंत कुशल उपकरण कार्यक्रम (एसईईपी) द्वारा समर्थित उजाला जैसे कार्यक्रम इस लक्ष्य को प्राप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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लोग एलईडी प्रकाश अपना रहे हैं – आदित्य चुनेकर, श्वेता कुलकर्णी

प्रयास (ऊर्जा समूह) ने उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के अर्ध-शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के 3000घरों में बिजली के अंतिम उपयोग के पैटर्न को समझने के लिए फरवरी-मार्च 2019में एक सर्वेक्षण किया था। यहां उस सर्वेक्षण के आधार पर प्रकाश व्यवस्था के बदलते परिदृश्य की चर्चा की गई है। इस शृंखला में आगे बिजली के अन्य उपयोगों पर चर्चा की जाएगी।

रों में बिजली का सबसे बुनियादी उपयोग प्रकाश व्यवस्था के लिए किया जाता है। कई कम आय वाले और नए विद्युतीकृत घरों में तो बिजली का प्रमुख या एकमात्र उपयोग इसी के लिए किया जाता है। प्रकाश व्यवस्था की ज़रूरत शाम के समय बिजली के सर्वाधिक उपयोग के समय से भी मेल खाती है। पूर्व में कई सरकारी कार्यक्रमों/कंपनियों ने फिलामेंट बल्ब को अत्यधिक कुशल सीएफएल और एलईडी बल्बों से बदलने का लक्ष्य रखा था। इनमें से सबसे नया और सबसे सफल कार्यक्रम उजाला कार्यक्रम रहा, जो अभी भी जारी है। उजाला के तहत, एलईडी बल्ब थोक मूल्य में खरीदकर अनुबंधित विक्रेताओं के माध्यम से उपभोक्ताओं को रियायती मूल्य पर उपलब्ध कराए जा रहे हैं। इसके तहत अब तक 35 करोड़ से अधिक एलईडी बल्ब बेचे जा चुके हैं।

2018 में भारत में लगभग 1.4 अरब बल्ब और ट्यूब लाइट्स का उत्पादन किया गया। इनमें से लगभग 46 प्रतिशत एलईडी, 43 प्रतिशत फिलामेंट बल्ब और शेष सीएफएल और फ्लोरोसेंट ट्यूब लाइट का था। एलईडी की मांग बढ़ती गई है जबकि हाल के वर्षों में सीएफएल की बिक्री में गिरावट आई है। फिलामेंट बल्बों की बिक्री भी कम हो रही है, लेकिन सीएफएल की तुलना में इसमें गिरावट की दर बहुत कम है।

हमने अपने सर्वेक्षण में उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र दोनों में एलईडी को अपनाने का काफी उच्च स्तर देखा। उत्तर प्रदेश में सर्वेक्षित परिवारों में 80 प्रतिशत से अधिक प्रकाश उपकरण एलईडी बल्ब या ट्यूब लाइट हैं। सभी आय वर्गों में लगभग यही स्थिति थी। लगभग 68 प्रतिशत घरों में प्रकाश के लिए केवल एलईडी बल्ब का उपयोग किया जाता है। अधिकांश परिवारों ने बताया कि वे एलईडी के प्रदर्शन से संतुष्ट हैं और उनका उपयोग जारी रखेंगे। महाराष्ट्र में, सर्वेक्षित परिवारों में 54 प्रतिशत से अधिक प्रकाश उपकरण एलईडी हैं, हालांकि विभिन्न आय वर्गों में छिटपुट अंतर हैं। सीएफएल दूसरा सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाले प्रकाश विकल्प है (लगभग 27-28 प्रतिशत)।

महाराष्ट्र के घरों में एलईडी बल्बों को कम अपनाने का एक संभावित कारण यह लगता है कि महाराष्ट्र में परिवार पहले फिलामेंट बल्ब छोड़कर सीएफएल का उपयोग करने लगे थे। ऐसा सरकार के बचत लैंप योजना (बीएलवाय) के तहत सीएफएल को दिए गए प्रोत्साहन के कारण हुआ था। हालांकि महाराष्ट्र के अधिकांश सर्वेक्षित परिवारों ने भविष्य में एलईडी बल्ब खरीदने की इच्छा व्यक्त की, लेकिन संभवत: पूरे स्टॉक को एलईडी में बदलने में काफी समय लगेगा। दूसरी ओर, उत्तर प्रदेश के परिवारों ने फिलामेंट बल्ब या प्रकाश व्यवस्था के सर्वथा अभाव से सीधे एलईडी की ओर लंबी छलांग लगाई है।

एक दिलचस्प बात यह है कि उत्तर प्रदेश के मात्र 12 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 17 प्रतिशत सर्वेक्षित परिवारों ने ही बताया कि उन्होंने एलईडी बल्ब उजाला कार्यक्रम के तहत खरीदा है। फिर भी, बड़े पैमाने पर एलईडी को अपनाए जाने का श्रेय उजाला कर्यक्रम को दिया जा सकता है क्योंकि कार्यक्रम ने प्रकाश उद्योग पर व्यापक असर डाला है। उजाला के तहत बड़े पैमाने की खरीदी के चलते कार्यक्रम के बाहर बेचे जाने वाले एलईडी बल्बों की कीमत में भी भारी कमी हुई है। इसके अलावा, एलईडी बल्बों की बढ़ी हुई मांग ने एक बड़े लघु उद्योग को भी जन्म दिया है। भारत में लगभग 250 पंजीकृत एलईडी बल्ब उत्पादन इकाइयां हैं, जो 2014 में मुट्ठी भर थीं। इसलिए, बाज़ारों में सस्ते एलईडी बल्बों की बहुतायत है। हालांकि, इससे उनकी गुणवत्ता को लेकर भी चिंता बढ़ गई है। भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) का निर्देश है कि भारत में बिकने वाले सारे एलईडी उपकरण सुरक्षा और प्रदर्शन मानकों के अनुरूप होना चाहिए। इसके अलावा, ब्यूरो ऑफ एनर्जी एफिशिएंसी (बीईई) ने एलईडी लैंप की रेटिंग के लिए एक अनिवार्य स्टार लेबलिंग योजना शुरू की है। इसके तहत सभी एलईडी उपकरणों को 1 स्टार (न्यूनतम कुशल) से 5 स्टार (सबसे कुशल) तक अंकित किया जाता है। अलबत्ता, इन नियमों का अनुपालन ढीला है। 8 शहरों में 400 खुदरा विक्रेताओं के एक हालिया सर्वेक्षण में पाया गया है कि बाज़ार में उपलब्ध एलईडी बल्ब ब्रांडों में से आधे सुरक्षा और प्रदर्शन के बीआईएस मानकों के अनुरूप नहीं हैं। हमारे सर्वेक्षण में, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र दोनों में केवल 2-3 प्रतिशत परिवारों को एलईडी बल्ब के लिए स्टार-लेबलिंग कार्यक्रम के बारे में पता था। इसके अलावा, दोनों राज्यों के अधिकांश परिवारों ने एलईडी बल्बों के प्रदर्शन को खरीद का कारण बताया। चंद परिवारों ने ही कहा कि वे एलईडी बल्बों का उपयोग कम कीमत और बिजली बिल में कमी के कारण कर रहे हैं। इसलिए, बाज़ार में एलईडी की ओर झुकाव को बनाए रखने के लिए अच्छी गुणवत्ता वाले एलईडी बल्ब की उपलब्धता सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है। इसके लिए एलईडी बल्बों के लिए स्टार रेटिंग कार्यक्रम के बारे में उपभोक्ताओं को जागरूक बनाना और नियमों के सख्ती से अनुपालन की आवश्यकता होगी।

यह सर्वेक्षण इस बात को भी रेखांकित करता है कि परिवार के व्यवहार पर बिजली आपूर्ति की गुणवत्ता का प्रभाव होता है। उत्तर प्रदेश में लगभग 45 प्रतिशत ग्रामीण परिवार अभी भी प्रकाश व्यवस्था के लिए विकल्प के रूप में केरोसिन चिमनी का उपयोग करते हैं जो घर के अंदर प्रदूषण और दुर्घटनाओं का कारण बन सकती है। अर्ध-शहरी और ग्रामीण, दोनों क्षेत्रों में बैटरी और सौर लैंप के साथ एकीकृत एलईडी बल्बों का स्वामित्व 11-14 प्रतिशत है। ये विकल्प नियमित एलईडी बल्बों की तुलना में महंगे हैं, लेकिन कम आय वाले परिवार तक यही विकल्प चुन रहे हैं। दूसरी ओर महाराष्ट्र में, अपेक्षाकृत कम परिवार वैकल्पिक प्रकाश स्रोतों का उपयोग करते हैं।

कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि दोनों राज्यों के अर्ध-शहरी और ग्रामीण क्षेत्र के विभिन्न आय वर्गों के परिवारों में एलईडी को व्यापक रूप से अपनाया गया है। उत्तर प्रदेश के परिवारों ने फिलामेंट बल्बों या प्रकाश व्यवस्था के सर्वथा अभाव से सीधे एलईडी को अपनाया है, जबकि महाराष्ट्र के लोग धीरे-धीरे सीएफएल से एलईडी की ओर बढ़ रहे हैं। सर्वेक्षण का एक निष्कर्ष यह है कि सरकार और अन्य सम्बंधित किरदारों के लिए यह ज़रूरी है कि वे बाज़ार में एलईडी की ओर हो रहे परिवर्तन को बनाए रखने के लिए अच्छी गुणवत्ता वाले एलईडी बल्बों की उपलब्धता सुनिश्चित करें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्षयरोग पर नियंत्रण के लिए नया टीका – डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन

लगभग दस हज़ार साल पूर्व, जब से मनुष्यों ने समुदायों में रहना शुरू किया, तब से टीबी (क्षयरोग) हमारे साथ रहा है। पश्चिमी एशिया की तरह भारत में भी लोग प्राचीन काल से ही टीबी के बारे में जानते थे। लगभग 1500 ईसा पूर्व के संस्कृत ग्रंथों में इसके बारे में उल्लेख मिलता है जिनमें इसे शोष कहा गया है। 600 ईसा पूर्व की सुश्रुत संहिता में क्षय रोग के उपचार के लिए मां का दूध, अल्कोहल और आराम की सलाह दी गई है। 900 ईस्वीं के मधुकोश नामक ग्रंथ में इस बीमारी का उल्लेख यक्ष्मा (या क्षय होना) के नाम से है। टीबी के बारे में यह भी जानकारी थी कि मनुष्य से मनुष्य में यह रोग खखार और बलगम के माध्यम से फैलता है (यहां तक कि पशुओं के बलगम से भी यह रोग फैल सकता है)। इसके इलाज के लिए कई औषधि-उपचार आज़माए जाते थे, मगर सफलता बहुत अधिक नहीं मिलती थी।

वर्ष 1882 में जाकर जर्मन सूक्ष्मजीव विज्ञानी रॉबर्ट कॉच ने पता लगाया था कि टीबी रोग मायकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस (एमटीबी) नामक रोगाणु के कारण होता है, जिसके लिए उन्हें वर्ष 1905 में नोबेल पुरस्कार मिला था। कॉच ने टीबी के उपचार के लिए दवा खोजने के भी प्रयास किए थे, जिसके परिणाम स्वरूप ट्यूबरक्यूलिन नामक दवा बनी, हालांकि यह टीबी के उपचार में ज़्यादा सफल नहीं रही। उस समय से अब तक टीबी के उपचार के लिए कई दवाएं बाज़ार में आ चुकी हैं, जैसे रिफेम्पिसिन, आइसोनिएज़िड, पायराज़िनेमाइड, और हाल ही में प्रेटोमेनिड और बैडाक्विलिन। भारत सरकार हर साल टीबी के लाखों मरीज़ों के उपचार के लिए इनमें से कई या सभी दवाओं का उपयोग करती है।  

अलबत्ता, इलाज से बेहतर है बचाव। प्रतिरक्षा विज्ञान इसी कहावत पर अमल करते हुए हमलावर रोगाणुओं को शरीर में प्रवेश करने और बीमारी फैलाने से रोकने का प्रयास करता है। इसी दिशा में वर्ष 1908-1921 के दौरान दो फ्रांसिसी जीवाणु विज्ञानियों अल्बर्ट कामेट और कैमिली ग्यूरिन को एक ऐसा उत्पाद बनाने में सफलता मिली थी जो टीबी के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता प्रदान कर सकता था। इसे बैसिलस-कामेट-ग्यूरिन (बीसीजी) नाम दिया गया था। जब बीसीजी को टीके के रूप में शरीर में इंजेक्ट किया गया तो इसने एमटीबी के हमले के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता दी। इस तरह टीबी का पहला टीका बना। आज भी यह टीका दुनिया भर में नवजात शिशुओं और 15 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को टीबी से बचाव के लिए लगाया जाता है। हालिया अध्ययन बताते हैं कि टीके से यह सुरक्षा 20 वर्षों तक मिलती रहती है। भारत दशकों से सफलतापूर्वक बीसीजी टीके का उपयोग कर रहा है।

सांस के ज़रिए टीका

अलबत्ता, अब यह पता चला है कि बीसीजी का टीका बच्चों के लिए जितना असरदार है उतना वयस्कों पर प्रभावी नहीं रहता क्योंकि वयस्कों में फेफड़ों की टीबी ज़्यादा होती है जबकि बच्चों में आंत, हड्डियों या मूत्र-मार्ग में ज़्यादा देखी गई है और बीसीजी फेफड़ों की टीबी में कम प्रभावी है। किसी अन्य बीमारी (जैसे एड्स) के होने पर भी टीका प्रभावी नहीं रहता क्योंकि प्रतिरक्षा तंत्र कमज़ोर हो जाता है। कभी-कभी बीसीजी का टीका देने पर कुछ लोगों को बुखार आ जाता है या इंजेक्शन की जगह पर खुजली होने लगती है; यह भी टीके के उपयोग को असहज बनाता है। इसलिए अब एक वैकल्पिक टीके की ज़रूरत है जो खुद तो टीबी के टीके की तरह काम करे ही, साथ में बीसीजी टीके के लिए बूस्टर (वर्धक) का काम भी करे। और यदि यह टीका इंजेक्शन की बजाय अन्य आसान तरीकों से दिया जा सके तो सोने में सुहागा।

लगभग 50 साल पहले टीकाकरण का एक ऐसा तरीका खोजा गया था जिसमें फेफड़ों में सांस के ज़रिए टीका दिया जाता है। इसे ·ासन मार्ग टीका कहते हैं। फुहार के रूप में टीके का पहला परीक्षण 1951 में इंग्लैंड में मुर्गियों के झुंड पर वायरस के खिलाफ किया गया था। इसके बाद 1968 में बीसीजी का इसी तरह का परीक्षण गिनी पिग और कुछ इंसानों पर किया गया। इसकी मदद से मेक्सिको में 1988-1990 के दौरान स्कूली बच्चों में खसरा के खिलाफ प्रतिरक्षा विकसित करने में सफलता मिली थी और इसके बाद टीबी के खिलाफ प्रतिरोध हासिल करने में। (अधिक जानकारी के लिए मायकोबैक्टीरियल डिसीज़ में प्रकाशित कॉन्ट्रेरास, अवस्थी, हनीफ और हिक्की द्वारा की गई समीक्षा इन्हेल्ड वैक्सीन फॉर द प्रिवेंशन ऑफ टीबी पढ़ सकते हैं)। अच्छी बात यह है कि इस तरीके से टीकाकरण में सुई की कोई आवश्यकता नहीं होती, प्रशिक्षित व्यक्ति की ज़रूरत नहीं होती, कचरा कम निकलता है और लागत भी कम होती है।

जब रोगजनक जीव शरीर पर हमला करते हैं तो वे शरीर को भेदते हैं और अपनी संख्या वृद्धि करने के लिए अंदर की सामग्री का उपयोग करते हैं, और तबाही मचाते हैं। मेज़बान शरीर अपने प्रतिरक्षा तंत्र की मदद से इन रोगजनक जीवों के खिलाफ लड़ता है। इसमें तथाकथित बी-कोशिकाएं एंटीबॉडी नामक प्रोटीन संश्लेषित करती हैं जो हमलावर के साथ बंधकर उसे निष्क्रिय कर देता है। और सुरक्षा के इस तरीके को याद भी रखा जाता है ताकि भविष्य में जब यही हमलावर हमला करे तो उससे निपटा जा सके। टीके के कार्य करने का आधार यही है, जो सालों तक काम करता रहता है।

वास्तव में एंटीबॉडी बनाने के लिए पूरे हमलावर जीव की ज़रूरत नहीं होती। बी-कोशिकाओं द्वारा एंटीबॉडी बनाने के लिए हमलावर जीव के अणु का एक हिस्सा (‘कामकाजी अंश’ या एपिटोप, एंटीजन का वह हिस्सा जिससे एंटीबॉडी जुड़ती है) ही पर्याप्त होता है। प्रतिरक्षा प्रणाली की एक और श्रेणी होती है टी-कोशिकाएं, जो बी-कोशिकाओं के साथ मिलकर काम करती हैं। टी-कोशकाओं में मौजूद अणु हमलावर को मारने में मदद करते हैं। इस प्रक्रिया में भी पूरे अणु की ज़रूरत नहीं होती बल्कि मात्र उस हिस्से की ज़रूरत होती है जो प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया के लिए सहायक के रूप में काम करता है।

ऑस्ट्रेलिया की युनिवर्सिटी ऑफ सिडनी के शोधकर्ताओं के दल ने इन तीनों सिद्धांतों की मदद से सांस के द्वारा दिया जा सकने वाला टीबी का टीका तैयार किया है। उनका यह शोधकार्य जर्नल ऑफ केमिस्ट्री के 16 अगस्त 2019 अंक में प्रकाशित हुआ है। उन्होंने टी-कोशिकाओं के अणु के एक हिस्से को सहायक के रूप में  प्रयोगशाला में संश्लेषित किया और फिर इसे प्रयोगशाला में ही संश्लेषित किए गए एमटीबी के एपिटोप वाले हिस्से से जोड़ दिया। इस तरह संश्लेषित किए गए टीके (जिसे कंपाउंड I कहा गया) को चूहों में नाक से दिया गया। और इसके बाद चूहों को एमटीबी से संक्रमित किया गया और कुछ हफ्तों बाद चूहों के फेफड़े और तिल्ली को जांचा गया। जांच में बैक्टीरिया काफी कम संख्या में पाए गए जो यह दर्शाता है कि सांस के ज़रिए दिए जाने पर I एक टीके की तरह सुरक्षा दे सकता है। और तो और, इंजेक्शन की बजाय सांस के ज़रिए टीका देना बेहतर पाया गया है। इस तरह के टीके से बच्चे और टीके से घबराने वाले वयस्क खुश हो जाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चांदनी रात में सफेद उल्लुओं को शिकार में फायदा

बार्न उल्लू एक किस्म के उल्लू होते हैं और छोटे चूहे इनका प्रिय भोजन है। ये उल्लू दो प्रकार के होते हैं। एक जिनका रंग थोड़ा लाल-कत्थई सा होता है और दूसरे जिनका रंग सफेद होता है। चांदनी रात में सफेद उल्लू के देखे जाने की संभावना ज़्यादा होती है। इसका मतलब यह होता है कि चूहे सफेद उल्लू की उपस्थिति को जल्दी भांप लेंगे और खुद को बचा लेंगे। मगर वास्तविकता कुछ और है। यह देखा गया है कि चांदनी रात में सफेद उल्लू अनपेक्षित रूप से ज़्यादा चूहे मार लेते हैं। यह पता चला है कि अंधेरी रातों में तो दोनों रंग के उल्लुओं को लगभग 5-5 चूहे मिल जाते हैं। मगर चांदनी रात में सफेद उल्लू को तो 5 चूहे मिल जाते हैं लेकिन लाल-कत्थई उल्लू को तीन से ही संतोष करना पड़ता है। आखिर क्यों?

स्विटज़रलैंड के लौसाने विश्वविद्यालय के लुइस सैन-जोस और एलेक्ज़ेंडर रोलिन की अपेक्षा तो यह थी कि चांदनी रात में सफेद उल्लुओं को कम और लाल-कत्थई उल्लुओं को ज़्यादा चूहे मिलेंगे। लेकिन इन शोधकर्ताओं ने पाया कि यह तो सही है कि चांदनी बिखरी हो, तो सफेद उल्लू ज़्यादा आसानी से नज़र आते हैं किंतु इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। फर्क इसलिए नहीं पड़ता क्योंकि इनके शिकार यानी चूहे का व्यवहार भी विचित्र होता है। जब चूहे उल्लू को देखते हैं तो उनकी प्रतिक्रिया दो तरह की होती है। एक प्रतिक्रिया होती है जड़ हो जाने की। वे अपनी जगह शायद इस उम्मीद में दुबक जाते हैं कि उल्लू उन्हें देख नहीं पाएगा। या दूसरी प्रतिक्रिया होती है भाग निकलने की। किंतु जब वे चांदनी में चमचमाते सफेद उल्लू को देखते हैं तो वे पांच सेकंड ज़्यादा देर तक जड़ होते हैं। अपने अवलोकन के निष्कर्ष उन्होंने नेचर इकॉलॉजी एंड इवॉल्यूशन में प्रकाशित किए हैं।

वैसे इस अनुसंधान को लेकर एक विशेष बात यह है कि आम तौर पर जंतुओं के रंग परिधान को लेकर अध्ययनों में इस बात पर बहुत कम ध्यान दिया गया है कि निशाचर जीवों में शरीर के रंग से क्या और कैसा फर्क पड़ता है। अब जब ऐसे अध्ययन शुरू हुए हैं तो कई आश्चर्यजनक खोजें हो रही हैं। (स्रोत फीचर्स)

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बैक्टीरिया की मदद से मच्छरों पर नियंत्रण

हाल के एक प्रयोग में देखा गया है कि वोल्बेचिया नामक बैक्टीरिया डेंगू फैलाने वाले मच्छरों की आबादी को काबू में रख सकते हैं।

वोल्बेचिया बैक्टीरिया लगभग 50 प्रतिशत कीट प्रजातियों की कोशिकाओं में कुदरती रूप से पाया जाता है और यह उनके प्रजनन में दखलंदाज़ी करता है। मच्छरों में देखा गया है कि यदि नर मच्छर इस बैक्टीरिया से संक्रमित हो और वोल्बेचिया मुक्त कोई मादा उसके साथ समागम करे, तो उस मादा के अंडे जनन क्षमता खो बैठते हैं। इसकी वजह से वह मादा प्रजनन करने में पूरी तरह अक्षम हो जाती है क्योंकि आम तौर पर मादा मच्छर एक ही बार समागम करती है। लेकिन यदि उस मादा के शरीर में पहले से उसी किस्म का वोल्बेचिया बैक्टीरिया मौजूद हो तो उसके अंडे इस तरह प्रभावित नहीं होते।

वैज्ञानिकों का विचार बना कि यदि मच्छरों की किसी आबादी में ऐसे वोल्बेचिया संक्रमित नर मच्छर छोड़ दिए जाएं तो जल्दी ही उनकी संख्या पर नियंत्रण हासिल किया जा सकेगा। हाल ही में शोधकर्ताओं के एक अंतर्राष्ट्रीय दल ने इस विचार को वास्तविक परिस्थिति में आज़माया। उन्होंने इस तरीके से हांगकांग के निकट गुआंगडांग प्रांत में एडीस मच्छरों पर नियंत्रण हासिल करने में सफलता प्राप्त की।

प्रयोग में एक समस्या यह थी कि यदि छोड़े गए वोल्बेचिया संक्रमित मच्छरों में मादा मच्छर भी रहे तो पूरा प्रयोग असफल हो जाएगा। इस समस्या से निपटने के लिए उन्होंने वोल्बेचिया संक्रमित मच्छरों को हल्के-से विकिरण से उपचारित किया ताकि यदि उनमें कोई मादा मच्छर हो, तो वह वंध्या हो जाए।

इस तरह किए गए परीक्षण में एडीस मच्छरों की आबादी में 95 प्रतिशत की गिरावट आई। यह भी देखा गया कि आबादी में यह गिरावट कई महीनों तक कायम रही। गौरतलब है कि नर मच्छर तो काटते नहीं, इसलिए उनकी आबादी बढ़ने से कोई फर्क नहीं पड़ता। शोधकर्ताओं का कहना है कि इस परीक्षण के परिणामों से लगता है कि मच्छरों पर नियंत्रण के लिए एक नया तरीका मिल गया है जिसमें कीटनाशकों का उपयोग नहीं होता है। वैसे अभी कई सारे अगर-मगर हैं। जैसे, वोल्बेचिया संक्रमित मच्छर छोड़ने के बाद यदि बाहर से नए मच्छर उस इलाके में आ गए तो क्या होगा? इसका मतलब होगा कि आपको बार-बार संक्रमित मच्छर छोड़ते रहना होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अमेज़न में लगी आग जंगल काटने का नतीजा है

ब्राज़ील में अमेज़न के वर्षा वनों में भयानक आग लगी हुई है, धुएं के स्तंभ उठते दिख रहे हैं। जहां सरकारी प्रवक्ता का कहना है कि इस साल जंगलों में लगी इस भीषण आग का कारण सूखा मौसम, हवाएं और गर्मी है, वहीं ब्रााज़ील व अन्य देशों के वैज्ञानिकों का स्पष्ट मत है कि आग का प्रमुख कारण जंगल कटाई की गतिविधियों में हुई वृद्धि है।

साओ पौलो विश्वविद्यालय में वायुमंडलीय भौतिक शास्त्री पौलो आर्टक्सो का कहना है कि आग के फैलाव का पैटर्न जंगल कटाई से जुड़ा नज़र आता है। सबसे ज़्यादा आग कृषि क्षेत्र से सटे क्षेत्रों में लगी दिख रही है। ब्राज़ील के नेशनल इंस्टिट्यूट फॉर स्पेस रिसर्च ने अब ब्रााज़ील के अमेज़न में 41,000 अग्नि स्थल पता किए हैं। पिछले वर्ष इसी अवधि में 22,000 ऐसे स्थल पहचाने गए थे। यही स्थिति कैलिफोर्निया स्थित ग्लोबल फायर एमिशन डैटाबेस प्रोजेक्ट ने भी रिकॉर्ड की है। वैसे दोनों एजेंसियों के पास आंकड़ों का रुाोत एक ही है मगर विश्लेषण के तरीकों में अंतर के कारण ग्लोबल फायर एमिशन डैटाबेस ने कुछ अधिक ऐसे स्थलों की गिनती है जहां आग लगी हुई है।

इस वर्ष अग्नि स्थलों की संख्या 2010 के बाद सबसे अधिक है। लेकिन 2010 में एल निनो तथा अटलांटिक के गर्म होने की वजह से भीषण सूखा पड़ा था जिसे दावानलों के लिए दोषी ठहराया गया था। मगर इस वर्ष सूखा ज़्यादा नहीं पड़ा है। गैर सरकारी संगठन अमेज़न एन्वायर्मेंट रिसर्च इंस्टिट्यूट के पौलो मूटिन्हो का मत है कि इस साल जंगल की आग में सबसे बड़ा योगदान निर्वनीकरण का है। उनका कहना है कि जिन 10 नगर पालिकाओं में सबसे ज़्यादा दावानल की घटनाएं हुई हैं, वे वही हैं जहां इस वर्ष सबसे अधिक जंगल कटाई रिकॉर्ड की गई है। ये 10 नगरपालिकाएं बहुत बड़ी-बड़ी हैं, कुछ तो छोटे-मोटे युरोपीय देशों से भी बड़ी हैं। आम तौर किया यह जाता है कि जंगल की किसी पट्टी को साफ करने के बाद वहां आग लगा दी जाती है ताकि झाड़-झंखाड़ जल जाएं। परिणास्वरूप जो आग लगती है उसे बुझने में महीनों लग जाते हैं। आग बुझने के बाद इस पट्टी को चारागाह अथवा कृषि भूमि में तबदील कर दिया जाता है।

कई लोगों का मानना है कि ब्रााज़ील में जंगल कटाई की गतिविधियों में वृद्धि का प्रमुख कारण नव निर्वाचित राष्ट्रपति जायर बोलसोनेरो की नीतियां हैं। इन नीतियों में विकास के नाम पर पर्यावरण की बलि देना शामिल है। ब्राज़ील के एक पर्यावरणविद कार्लोस पेरेस के मुताबिक उन्होंने “अपने जीवन में ऐसा पर्यावरण-विरोधी माहौल नहीं देखा है।” (स्रोत फीचर्स)

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पहले की तुलना में धरती तेज़ी से गर्म हो रही है

नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित एक हालिया शोध के अनुसार पिछले 2000 वर्षों में पृथ्वी के गर्म होने की गति इतनी तेज़ कभी नहीं रही जितनी आज है। यह अध्ययन युनिवर्सिटी ऑफ मेलबोर्न के डॉ. बेन्जमिल हेनले और युनिवर्सिटी ऑफ बर्न के डॉ. राफेल न्यूकोम ने संयुक्त रूप से किया है।

दरअसल, यह अध्ययन पहले माइकल मान, रेमंड ब्रोडले और मालकोम ह्रूजेस द्वारा 1999 में किए गए अध्ययन को आगे बढ़ाता है जिसमें उन पुरा-जलवायु वेत्ताओं ने यह बताया था कि बीसवीं सदी में उत्तरी गोलार्ध में गर्मी जिस तेज़ी से बढ़ी है वैसी पिछले 1000 वर्षों में नहीं देखी गई थी। हज़ारों साल पहले की जलवायु के बारे में अनुमान हम प्राय: प्रकृति में छूटे चिंहों की मदद से लगाते हैं क्योंकि उस ज़माने में आधुनिक टेक्नॉलॉजी तो थी नहीं।

अतीत की जलवाय़ु के बारे में सुराग देने के लिए पुरा-जलवायु वेत्ता कोरल (मूंगा चट्टानों), बर्फ के अंदरूनी हिस्से, पेड़ों में बनने वाली वार्षिक वलयों, झीलों और समुद्रों में जमी तलछट वगैरह का सहारा लेते हैं। इनसे प्राप्त परोक्ष आंकड़ों का उपयोग करके वैज्ञानिक अथक मेहनत करके अतीत की जलवायु की तस्वीर बनाने की कोशिश करते हैं। वर्तमान शोध पत्र की विशेषता यह है कि इसमें सात अलग-अलग तरह की विधियों से विश्लेषण करने पर एक समान नतीजे प्राप्त हुए। अत: इनके सच्चाई के करीब होने की ज़्यादा संभावना है।

हेनले और न्यूकोम ने इस विश्लेषण के आधार पर निष्कर्ष निकाला है कि औद्योगिक क्रांति से पूर्व वै·िाक तापमान में होने वाले उतार-चढ़ाव का मुख्य कारण ज्वालामुखी के विस्फोट से निकलने वाली धूल आदि थे। सूर्य से आने वाली गर्मी से इनका कोई सम्बंध नहीं था। अर्थात मानवीय गतिविधियों के ज़ोर पकड़ने से पहले ज्वालामुखी ही जलवायु के प्रमुख नियंत्रक थे। वे यह भी अंदाज़ा लगा पाए कि पिछले 2000 वर्षों में गर्मी और ठंड की रफ्तार क्या रही है। उनका निष्कर्ष है कि धरती के गर्म होने की रफ्तार पहले कभी आज जैसी नहीं रही। इसका सीधा-सा मतलब है कि वर्तमान तपन मुख्य रूप से मानवीय गतिविधियों के कारण हो रही है। (स्रोत फीचर्स)

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बिजली आपूर्ति में गुणवत्ता की समस्या – आदित्य चुनेकर और श्वेता कुलकर्णी

प्रयास (ऊर्जा समूह) ने उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के अर्ध शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के 3000 घरों में बिजली के अंतिम उपयोग के पैटर्न को समझने के लिए फरवरी-मार्च 2019 में एक सर्वेक्षण किया था। यहां उस सर्वेक्षण के आधार पर बिजली आपूर्ति की गुणवत्ता पर परिवारों की समझ और उनके बिजली के उपयोग पर इसके प्रभाव पर चर्चा की गई है। इसी श्रंखला के आगामी लेखों में ऊर्जा से सम्बंधित अन्य मुद्दों, जैसे वातानुकूलन, खाना पकाना, प्रकाश व्यवस्था आदि की चर्चा की जाएगी।

वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) द्वारा बिजली की आपूर्ति व सेवा की गुणवत्ता घरेलू उपकरणों के उपयोग को काफी प्रभावित करती है; ये वे उपकरण हैं जो परिवार के जीवन स्तर में सुधार ला सकते हैं। बिजली आपूर्ति की घटिया क्वालिटी (जैसे बार-बार बिजली जाना और वोल्टेज में उतार-चढ़ाव) उपकरणों को नुकसान पहुंचा सकती है या उनकी आयु कम कर सकती है। घटिया क्वालिटी का एक परिणाम यह होता है कि कई घरों में सौर लैंप, इनवर्टर या वोल्टेज स्टेबलाइज़र्स वगैरह में निवेश किया जाता है। अन्य परिवार या तो उपकरणों का उपयोग कम कर देते हैं या फिर खरीदते ही नहीं।

भारत में ग्रामीण विद्युतीकरण कार्यक्रमों के ज़रिए लगभग सभी घरों में बिजली पहुंचाने में सफलता मिल चुकी है। जैसा कि विद्युत मंत्रालय के आगामी वितरण योजना के प्रारूप में परिलक्षित होता है, अब चर्चा विश्वसनीय और अच्छी गुणवत्ता की आपूर्ति प्रदान करने की दिशा में हो रही है ताकि सभी को चौबीसों घंटे बिजली उपलब्ध कराई जा सके। हमारा सर्वेक्षण बिजली आपूर्ति की गुणवत्ता को लेकर परिवारों के एहसास पर केंद्रित है क्योंकि इसका असर उपकरणों की खरीद और उपयोग के निर्णयों पर होता है। हम 2015 से अपने विद्युत आपूर्ति निगरानी कार्यक्रम (ESMI) के तहत भारत भर में लगभग 400 स्थानों पर वास्तविक बिजली आपूर्ति की गुणवत्ता की निगरानी भी करते रहे हैं। सभी स्थानों से प्राप्त मिनट-वार डैटा और उनके विश्लेषण के आधार पर तैयार रिपोर्ट सार्वजनिक रूप से www.watchyourpower.org पर उपलब्ध है।

महाराष्ट्र सभी घरों तक बिजली पहुंचाने में पहुंचाने में अग्रणी रहा है, जबकि उत्तर प्रदेश हाल ही में इस श्रेणी में शामिल हुआ है। 2011 की जनगणना के अनुसार, महाराष्ट्र में लगभग 84 प्रतिशत परिवार प्रकाश के प्राथमिक रुाोत के रूप में बिजली का उपयोग करते थे, जबकि उत्तर प्रदेश में मात्र 37 प्रतिशत। लगभग यही स्थिति हमारे नमूना सर्वेक्षण में भी सामने आई। महाराष्ट्र में हमारे द्वारा चयनित परिवारों के विद्युतीकरण का औसत वर्ष 1994 है जबकि उत्तर प्रदेश में 2006 है। उत्तर प्रदेश में लगभग 45 प्रतिशत सर्वेक्षित परिवारों को 2011 के बाद विद्युतीकृत किया गया है।

आपूर्ति के घंटे प्रदाय की गुणवत्ता का एक प्रमुख मापदंड है। सर्वेक्षित घरों में आपूर्ति के घंटे उत्तर प्रदेश की तुलना में महाराष्ट्र में अधिक थे। महाराष्ट्र में औसत दैनिक आपूर्ति लगभग 22 घंटे और उत्तर प्रदेश में 15 घंटे रही। वैसे इस संदर्भ में विभिन्न परिवारों के बीच काफी विविधता भी देखी गई (तालिका देखें)। महाराष्ट्र में अर्ध शहरी क्षेत्र के परिवारों को ग्रामीण परिवारों की तुलना में लगभग 40 मिनट अधिक आपूर्ति मिलती है, जबकि उत्तर प्रदेश में यह अंतर लगभग 2 घंटे का है।

बिजली आपूर्ति की कुल अवधि के बराबर महत्व बिजली कटौती की प्रकृति का भी होता है। बार-बार बिजली जाए, तो लाइटिंग उपकरणों और मोटरों को नुकसान पहुंच सकता है, जिनमें आजकल काफी इलेक्ट्रॉनिक पुर्ज़े लगे होते हैं। उत्तर प्रदेश में लगभग 42-47 प्रतिशत परिवारों ने बताया बिजली कई मर्तबा जाती है और अप्रत्याशित ढंग से जाती है, जबकि महाराष्ट्र में यह संख्या लगभग 26-28 प्रतिशत थी। बिजली गुल होने की अप्रत्याशित प्रकृति से परिवार के लिए उपकरणों के उपयोग की योजना बनाना मुश्किल हो जाता है।

वोल्टेज भी बिजली आपूर्ति की गुणवत्ता का एक और मापदंड है जिसमें वोल्टेज में उतार-चढ़ाव, असंतुलन, अचानक घटना-बढ़ना जैसे कई मुद्दे शामिल हो सकते हैं। उपभोक्ताओं को वोल्टेज की समस्या का अनुभव प्राय: उतार-चढ़ाव के रूप में होता है। ऐसे उतार-चढ़ाव उपकरणों को गंभीर नुकसान पहुंचा सकते हैं। यूपी में लगभग 50-60 प्रतिशत घरों में वोल्टेज में उतार-चढ़ाव का अनुभव हुआ, जबकि महाराष्ट्र में लगभग 24-26 प्रतिशत। दोनों राज्यों में अर्ध-शहरी और ग्रामीण घरों में वोल्टेज में उतार-चढ़ाव का अनुभव हुआ है।

दोनों राज्यों में ग्रामीण व अर्ध-शहरी दोनों क्षेत्रों में वोल्टेज में उतार-चढ़ाव का अनुभव समान रूप से किया गया है। आपूर्ति की क्वालिटी की समस्या के कारण परिवारों को क्षतिग्रस्त उपकरणों की मरम्मत के अलावा बिजली बैकअप या इसी तरह के वैकल्पिक इंतज़ाम पर पैसा खर्च करना पड़ता है। उत्तर प्रदेश में खराब आपूर्ति का एक प्रमाण यह है कि वहां वैकल्पिक प्रकाश व्यवस्था ज़्यादा घरों में नज़र आती है और उपकरण क्षति के मामले भी ज़्यादा दिखाई देते हैं। लगभग 34 प्रतिशत घरों, जिनमें निम्न आय वर्ग के काफी घऱ हैं, में अभी भी वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में कैरोसीन की चिमनी का उपयोग होता है। ये चिमनियां घरों के अंदर प्रदूषण और दुर्घटनाओं का कारण बन सकती हैं। इसके अलावा, 38 प्रतिशत अन्य परिवार बैटरी युक्त सोलर लैंप या एलईडी बल्ब का उपयोग करते हैं। लगभग 47 प्रतिशत घरों में खराब आपूर्ति के कारण किसी न किसी प्रकार के उपकरण के नुकसान की सूचना है। 28 प्रतिशत घरों (अधिकतर मध्यम व उच्च आय) में उपकरणों की सुरक्षा के लिए वोल्टेज स्टेबलाइज़र्स का उपयोग होता है जबकि लगभग 31 प्रतिशत ने बिजली कटौती की समस्या से निपटने के लिए इनवर्टर खरीदा है। दूसरी ओर, महाराष्ट्र में सर्वेक्षित घरों में इनवर्टर और स्टेबलाइज़र्स 5 प्रतिशत से भी कम परिवारों के पास हैं और मात्र 6 प्रतिशत घरों में खराब आपूर्ति से उपकरणों का नुकसान हुआ है।

विश्वसनीय और अच्छी गुणवत्तापूर्ण आपूर्ति प्रदान करने की डिस्कॉम की क्षमता में योगदान करने वाले कारकों में से एक उपभोक्ताओं से राजस्व की वसूली है, जिसका उपयोग वितरण नेटवर्क को मज़बूत करने और रख-रखाव के लिए किया जा सकता है। सही और समय पर मीटर वाचन और बिल वितरण उपभोक्ताओं में विश्वास बनाने में मदद करता है, तथा चोरी और छेड़छाड़ का पता लगने पर राजस्व में सुधार होता है। ग्रामीण उत्तर प्रदेश में लगभग 24 प्रतिशत सर्वेक्षित घरों में मीटर नहीं है, जबकि अन्य 12 प्रतिशत में गैर-कामकाजी मीटर हैं। अर्ध-शहरी क्षेत्रों में स्थिति बेहतर है जहां लगभग 95 प्रतिशत सर्वेक्षित घरों में कामकाजी मीटर हैं। बिलिंग के मामले में, लगभग 82 प्रतिशत अर्ध-शहरी परिवारों को नियमित बिजली बिल प्राप्त होता है, जबकि ग्रामीण परिवारों के लिए यह संख्या केवल 42 प्रतिशत है। दूसरी ओर महाराष्ट्र में, अर्ध-शहरी और ग्रामीण दोनों घरों में लगभग 98 प्रतिशत में मीटर हैं और उन्हें नियमित रूप से बिल प्राप्त होते हैं।

आपूर्ति की गुणवत्ता डिस्कॉम के प्रति परिवारों की संतुष्टि में झलकती है।  उत्तर प्रदेश के केवल 54 प्रतिशत ग्रामीण और 61 प्रतिशत अर्ध-शहरी परिवार अपने डिस्कॉम से संतुष्ट थे, जबकि महाराष्ट्र में यह संख्या लगभग 80 प्रतिशत है।

हालांकि महाराष्ट्र उत्तर प्रदेश की तुलना में बेहतर है, लेकिन सर्वेक्षण से पता चलता है कि दोनों राज्यों में गुणवत्ता की दिक्कतें मौजूद हैं। घरों में बिजली का अधिक सार्थक उपयोग संभव बनाने के लिए सेवा की गुणवत्ता में सुधार के उपाय आवश्यक हैं।

अगले आलेख में, घरों में बिजली के सबसे बुनियादी उपयोग, प्रकाश व्यवस्था की बात करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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जैसी दिखती है असल में वैसी है नहीं आकाशगंगा!- प्रदीप

काश में सूरज, चांद, ग्रहों और तारों की दुनिया बहुत अनोखी है। आपने चांद और तारों को खुशी और आश्चर्य से कभी न कभी ज़रूर निहारा होगा। गांवों में तो आकाश में तारों को देखने में और भी अधिक आनंद आता है, क्योंकि शहरों की अपेक्षा गांवों में बिजली की रोशनी की चकाचौंध कम होती है और वातावरण भी स्वच्छ एवं शांत होता है। तारों को निहारते-निहारते और उनकी विशाल संख्या को देखकर आप ज़रूर आश्चर्यचकित हो जाते होंगे। इस बात की पूरी संभावना है कि आपने शहर में कभी भी ऐसा सुंदर दृश्य न देखा होगा!

हम अपनी कोरी आंखों से जितने भी ग्रहों, तारों एवं तारा-समूहों को देख सकतें हैं, वे सभी एक अत्यंत विराट योजना के सदस्य हैं, जो आकाश में लगभग उत्तर से दक्षिण तक फैली हुई नदी के समान प्रवाहमान प्रतीत होती है। यह एक निहारिका (गैलेक्सी) है। हमारा सूर्य और उसका परिवार यानी सौरमंडल जिस निहारिका का सदस्य है उसका नाम आकाशगंगा (मिल्की-वे) है। हमारी आकाशगंगा में 100 अरब से भी ज़्यादा तारे हैं। हमारा सूर्य इन्हीं में से एक साधारण तारा है।

सूर्य आकाशगंगा के केंद्र से लगभग 27,000 प्रकाश वर्ष दूर एक किनारे पर है। इसलिए पृथ्वी से देखने पर आकाशगंगा तारों के एक सघन पट्टे के रूप में दिखाई देती है। चूंकि हम स्वयं आकाशगंगा के भीतर ही स्थित हैं, इसलिए हम इसकी सही आकृति का सटीक अनुमान नहीं लगा पाए हैं। हम आकाशगंगा के 90 प्रतिशत हिस्से को नहीं देख सकते। वास्तव में, हम अपनी आकाशगंगा के बारे में जो कुछ भी जानते हैं, वह ब्राहृांड की हज़ारों अन्य निहारिकाओं की संरचना के अध्ययन और अप्रत्यक्ष खगोलीय प्रेक्षणों पर ही आधारित है। वैज्ञानिकों ने हमारी आकाशगंगा को सर्पिल या कुंडलित निहारिका (स्पाइरल गैलेक्सी) की श्रेणी में वर्गीकृत किया है। अधिकांश पाठ्यपुस्तकों और विज्ञान की लोकप्रिय पुस्तकों में आकाशगंगा को एक सपाट तश्तरीनुमा सर्पिल संरचना के रूप में ही दिखाया जाता है।

हाल ही में पोलैंड के वारसॉ विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने आकाशगंगा के अब तक के सर्वश्रेष्ठ 3-डी मानचित्र विकसित करते हुए आकाशगंगा को समतल या सपाट मानने की हमारी परंपरागत धारणा को चुनौती दी है। इस नए अध्ययन से यह पता चलता है कि हमारी आकाशगंगा ऊपर और नीचे के घुमावदार किनारों के साथ काफी विकृत है। सपाट तश्तरीनुमा योजना बनाने की बजाय मिल्की-वे के तारे एक ऐसी तश्तरी बनाते हैं जो किनारों पर बिलकुल मुड़ जाती है, कुछ-कुछ अंग्रेजी के अक्षर ‘S’ की तरह।

शोधकर्ताओं ने हमारी आकाशगंगा में बिखरे और नियमित अंतराल पर चमकने वाले (स्पंदन करने वाले) सेफाइड वेरीएबल तारों की सूर्य से दूरी मापकर आकाशगंगा का पहले से बहुत ज़्यादा सटीक 3-डी चार्ट बनाया है। सेफाइड तारों के स्पंदन और उनके निरपेक्ष कांतिमान (एब्सॉल्यूट मैग्नीट्यूड) में सीधा सम्बंध होता है। इसके चलते ये तारे दूरियां मापने वाले तारे कहे जाते हैं। सेफाइड तारों का स्पंदन जितना ज़्यादा होता है, उतनी ही उस तारे की निरपेक्ष कांति ज़्यादा होती है।

अत: स्पंदन-काल की जानकारी होने पर निरपेक्ष कांति भी ज्ञात हो जाती है। उसके बाद प्रत्यक्ष कांति और निरपेक्ष कांति के परस्पर सम्बंध के आधार पर गणित की सहायता से उस तारे की दूरी मालूम हो जाती है। इसी तरह सेफाइड तारों की चमक की विविधता का इस्तेमाल करते हुए सूर्य से इनकी सटीक दूरी को मापा जाता है।

शोधकर्ताओं ने 2400 से अधिक सेफाइड तारों की दूरी को मापा। इनमें से अधिकांश तारों की पहचान चिली के दक्षिणी अटाकामा रेगिस्तान के लास कैंपानास ऑब्ज़र्वेटरी के ऑप्टिकल ग्रेविटेशनल लेन्सिंग एक्सपेरिमेंट (ओजीएलई) की सहायता से की गई। ओजीएलई एक पोलिश खगोलीय परियोजना है, जो मुख्यत: सेफाइड तारों की जांच-पड़ताल करती है। यह खगोलविदों को बड़ी सटीकता के साथ ब्राहृांडीय दूरियों की गणना करने में सक्षम बनाता है।

खगोलविद डोरोटा स्कोरॉन ने इस अध्ययन का नेतृत्व किया है, जो जर्नल साइंस के हालिया अंक में प्रकाशित हुआ है। शोध पत्र के सह-लेखक पर्जमेक म्राज के मुताबिक आकाशगंगा की जिस वर्तमान आकृति को हम जानते हैं, वह दूसरी मिलती-जुलती निहारिकाओं के आधार पर तथा मुख्यत: अप्रत्यक्ष मापों पर आधारित है। उन सीमित प्रेक्षणों द्वारा तैयार किए आकाशगंगा के मानचित्र अधूरे हैं। हालिया 3-डी मानचित्र प्रत्यक्ष प्रेक्षणों और बड़े पैमाने पर हुए अध्ययन पर आधारित हैं।

इस नए शोध के नतीजों के मुताबिक आकाशगंगा की वक्र भुजाएं कई लहरदार तरंगों में बंटी होती हैं। संक्षेप में कहें, तो इस शोध से यह पता चला है कि आकाशगंगा और उसकी भुजाएं एक चपटे समतल में तारों की तश्तरी नहीं, बल्कि लहरदार हैं। यह बहुत ही उलझी हुई एक विराट संरचना है। बहरहाल, यह नया 3-डी मानचित्र निश्चित रूप से हमारी आकाशगंगा की आकृति सम्बंधी हमारी समझ में आमूल-चूल परिवर्तन लाएगा। (स्रोत फीचर्स)

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शहरों का पर्यावरण भी काफी समृद्ध है – हरिनी नागेन्द्र, सीमा मुंडोली

म बहुत मुश्किल दौर में जी रहे हैं; इंटरगवरमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज (IPCC) की विशेष रिपोर्ट ने चेताया है कि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से वर्ष 2030 से 2052 के बीच तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हो जाएगी, जो मानव और प्रकृति को खतरे में डाल सकती है। इंटरगवरमेंटल साइंस पॉलिसी प्लेटफार्म ऑन बायोडायवर्सिटी एंड इकोसिस्टम सर्विस (IPBES) ने 2019 की ग्लोबल असेसमेंट रिपोर्ट में बताया है कि इसकी वजह से करीब 10 लाख जंतु और वनस्पति प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है।

जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता की क्षति का करीबी सम्बंध दुनिया में कई क्षेत्रों मे तेज़ी से हो रहे शहरीकरण से है। एक अनुमान के मुताबिक, भारत में 2050 तक शहरों में 41.6 करोड़ नए निवासी जुड़ जाएंगे और देश की शहरी आबादी कुल आबादी का 50 प्रतिशत तक हो जाएगी। सतत विकास लक्ष्यों में लक्ष्य क्रमांक 11 टिकाऊ शहरों और समुदायों के विकास पर केंद्रित है। इस लक्ष्य को अमल में लाने पर हम जलवायु परिवर्तन और विलुप्ति के संकट में वृद्धि किए बिना ही, कुछ चुनौतियों को संबोधित करने और सतत विकास व आर्थिक वृद्धि को प्राप्त कर सकेंगे। लक्ष्य 11 के अंतर्गत पर्यावरण में शहरी पदचिन्हों को कम करना, हरियाली को सुलभ एवं समावेशी बनाना, और शहरों में प्राकृतिक धरोहरों की रक्षा करना शामिल है।

भारतीय शहर, जैसे मुंबई, कोलकाता और चैन्नई जैव विविधता से रहित नहीं हैं। र्इंट, डामर और कांक्रीट से बने इन शहरों का विकास उपजाऊ तटीय मैंग्रोव और कछारों में हुआ था जो जैव विविधता से समृद्ध थे। कई भारतीय शहर उनके निकटवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अधिक हरे-भरे हैं; ये पेड़ वहां राजाओं और आम लोगों द्वारा लगाए गए होंगे। इन शहरों में समृद्ध वानस्पतिक विविधता है, जिसमें स्थानीय व बाहरी दोनों तरह के पेड़-पौधे हैं। इसके अलावा स्लेंडर लोरिस (मराठी में लाजवंती या तमिल में कुट्टी तेवांग), टोपीवाला बंदर या बोनेट मेकॉक, किस्म-किस्म के उभयचर, कीट, मकड़ियां और पक्षी भी पाए जाते हैं।

हम न केवल भारतीय शहरों की पारिस्थितिक विविधता से बल्कि इस बात से भी अनजान हैं कि शहरी क्षेत्रों की प्रकृति मानव स्वास्थ्य और खुशहाली के लिए कितनी महत्वपूर्ण है। शहरी योजनाकार, आर्किटेक्ट्स और बिल्डर्स इमारतों व अन्य निर्माण कार्यों को ही डिज़ाइन करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। दूसरी ओर, परिस्थितिकीविद शहरों की जैव विविधता को अनदेखा करके केवल वनों और संरक्षित क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करते हैं।

शहरी जैव विविधता हमें भोजन, ऊर्जा, और जड़ी-बूटियां उपलब्ध कराती है, जो गरीब लोगों के जीवन के लिए महत्वपूर्ण है। हमारे शहरों का न सिर्फ विस्तार हो रहा है बल्कि वे गैर-बराबरी के स्थल भी बनते जा रहे हैं। शहर की झुग्गी बस्तियों और ग्रामीण क्षेत्र के प्रवासियों को बहुत-सी समस्याओं का सामना करना पड़ता है और जीवन की बुनियादी ज़रूरतों के लिए जूझना पड़ता है। यह ज़ोखिमग्रस्त आबादी र्इंधन, भोजन और दवाओं के लिए अक्सर पेड़ों पर निर्भर रहती है।

सहजन के पेड़ दक्षिण भारतीय झुग्गी बस्तियों में आम हैं। इनके फूल, पत्तियां और फलियां प्रचुर मात्रा में पोषक तत्व मुफ्त प्रदान करते हैं। सड़क के किनारे लगे नीम और बरगद के पेड़ कई छोटी-मोटी बीमारियों से लड़ने में मदद करते है और दवाओं पर होने वाला खर्च बच जाता है।

ऐसे ही जामुन, आम, इमली और कटहल के पेड़ से भी हमें पोषक फल मिलते हैं, बच्चे इन पर चढ़ते और खेलते हैं जिससे उनकी कसरत और मनोरंजन भी हो जाता है। वही करंज के वृक्ष (पौंगेमिया पिन्नाटा) से लोग र्इंधन के लिए लकड़ी प्राप्त करते हैं और इसके बीज से तेल भी निकालते हैं।

हमारे जीवन में प्रकृति की भूमिका काफी महत्वपूर्ण है जो इन भौतिक वस्तुओं से कहीं आगे जाती है। शहरों में रहने वाले बच्चे घर की चारदीवारी के अंदर रहकर ही अपनी आभासी दुनिया में बड़े होते हैं, जिससे उनके व्यवहार और मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर होता है। प्रकृति अतिसक्रियता और एकाग्रता की कमी के विकार से उभरने में बहुत मदद करती है, इससे बच्चों और उनके पालकों, दोनों को राहत मिलती है। नेचर डेफिसिट डिसऑर्डर एक प्रकार का मानसिक विकार होता है जो प्रकृति से दूरी बनने से पैदा होता है।

पेड़, चाहे एक पेड़ हो, के करीब रहकर भी शहरी जीवन शैली की समस्या को कम कर सकते हैं। अध्ययन दर्शाते हैं कि प्रकृति की गोद में रहने से खुशहाली बढ़ती है, न सिर्फ बीमारियों से जल्दी उबरने में मदद मिलती है, बल्कि हम शांत, खुश, और तनावमुक्त रहते हैं। आजकल कई अस्पताल अपने आसपास हरियाली बनाए रखने की कोशिश कर रहे हैं ताकि उनके मरीज़ों को जल्दी स्वस्थ होने में मदद मिले।

शहरी लोग कुछ विशेष प्रकार के पेड़ों से आजीवन रिश्ता बनाकर रखते हैं। यह उनकी बचपन की यादों की वजह से हो सकता है या सांस्कृतिक महत्व की वजह से भी। किसी पार्क या प्राकृतिक स्थान के नज़दीक रहने से जीवन शैली से जुड़ी समस्याएं, जैसे मोटापे, डायबिटीज़ और ब्लड प्रेशर को कम करने में मदद मिलती है। पेड़ सामुदायिक सम्मेलन के लिए भी जगह उपलब्ध कराते हैं। खासकर भारत में आम तौर पर यह देखा जाता है कि शहरों में जब बैठक का आयोजन करना हो तब नीम और पीपल जैसे वृक्ष की छाया में चबूतरे पर बैठकर लोग बातें करते हैं। सड़क पर फल विक्रेताओं, बच्चों के लिए क्रिकेट खेलने और महिलाओं के लिए पेड़ों की छाया बैठकर गप्पे मारने की जगह बन जाती है। साथ ही साथ लोग दोपहर की तेज़ धूप में इन पेड़ों की छाया में बैठकर शतरंज और ताश के पत्तों का खेल खेलते और आराम फरमाते हैं। बुज़ुर्ग लोग पेड़ों की छाया में दोपहर की झपकी भी ले लेते हैं। उन शहरों में, जहां लोग अपने पड़ोसियों से भी मेलजोल नही रखते, वहां एक पेड़ भी मेल-मिलाप और सामूहिक क्रियाकलाप का स्थान बन जाता है।

वर्तमान में शहरों की बढ़ती हुई सुस्त जीवन शैली ऐसी है जो मोटापे, ब्लड प्रेशर और मानसिक तनाव जैसी कई समस्याओं को जन्म देती है। अध्ययनों से पता चलता है कि प्रकृति के पास रहकर मनुष्य कई परेशानियों से छुटकारा पा सकता है। कही-सुनी बातों के अलावा भारतीय परिप्रेक्ष्य में हमें इस बात की बहुत कम जानकारी है कि प्रकृति के करीब रहने से तनाव को दूर करने तथा शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य व खुशहाली में कितनी मदद मिलती है।

पेड़ शहरी वातावरण में लगातार बढ़ रहे वायु प्रदूषण के खतरे को कम करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे हवा और सड़क पर बिछे डामर को ठंडा रखते हैं जो लू के दौरान बहुत महत्वपूर्ण होता है। दोपहर की तपती गर्मी मे जी-तोड़ मेहनत करने वाले मज़दूर या गलियों मे घूमते फेरी वालों और घरेलू कामगारों के लिए इन पेड़ों का होना बहुत आवश्यक हो जाता है जो गर्मी के प्रभाव को कम करता है।

यह देखकर आश्चर्य होता है और नियोजन की कलई खुल जाती है कि दिल्ली और बैंगलुरु जैसे बड़े शहर एक तरफ तो बड़े राजमार्गों पर लगे हुए पेड़ों कि अंधाधुन्ध कटाई मे लगे हैं और दूसरी तरफ प्रदूषण को कम करने के लिए जगह-जगह स्मोक स्क्रबर टॉवर लगवा रहे हैं। हमें तत्काल इस बात को लेकर रिसर्च करने की आवश्यकता है कि कौन सी प्रजाति के पेड़ प्रदूषण प्रतिरोधी और ताप प्रतिरोधी हैं और भविष्य में शहरी योजनाओं के लिए आवश्यक है। इस एंथ्रोपोसीन युग में इस तरह का अनुसंधान ज़रूरी है क्योंकि इन तपते शहरी टापुओं और ग्लोबल वार्मिंग के मिले-जुले असर से पेड़ों की मृत्यु दर बढ़ने वाली है। दूसरा सबसे महत्वपूर्ण शोध ‘पेड़ों के आपस में होने वाले संचार’ को लेकर हो रहा है। जिसमें हमें हाल के अध्ययनों से पता चला है कि पेड़ भी हवा में कुछ केमिकल छोड़कर और जमीन के नीचे फैले फफूंद मायसेलीया के नेटवर्क से जुड़कर आपस में संचार स्थापित करते हैं। वैज्ञानिकों ने इसे  “वुड वाइड वेब” का नाम दिया है। इस भूमिगत नेटवर्क के द्वारा समान और अलग-अलग प्रजाति के पेड़ आपस में संचार स्थापित करके एक दूसरे का सहयोग करते हैं। इससे वे कीटों के हमले से बचाव करते हैं, और भोजन का आदान-प्रदान भी करते हैं। शोध का विषय यह है कि जब ये पेड़ शहरों में एक ही पंक्ति में लगाए जाते हैं उस स्थिति में क्या इनका संचार तंत्र स्थापित हो पाता होगा, जहां जमीन पर डामर और कांक्रीट की परतें बिछी होती हैं?

वुड वाइड वेब पर ताज़ा रिसर्च से यह भी पता चला है कि मातृ वृक्ष ‘किसी जंगल या उपवन का सबसे पुराना पेड़’ आसपास के पेड़ों के लिए महत्वपूर्ण होता है। किसी जंगल में पास-पास के ये पेड़ परस्पर आनुवंशिक रूप से जुड़े होते हैं और एक-दूसरे की मदद करते हैं जबकि मातृ वृक्ष एक क्रिटिकल सेंट्रल नोड का काम करता है। भारतीय शहरों में हम मान सकते हैं कि मातृ वृक्ष सबसे बड़े और पुराने पेड़ होंगे। लिहाज़ा इन पर सबसे अधिक खतरा है क्योंकि शहरी योजनाकार उन्हें ये कहकर कटवा देते हैं कि ये अति प्रौढ़ और वयस्क हो चुके हैं और लोगों और उनकी सम्पत्ति के लिए नुकसानदायक हैं।

अगर शहरी परिवेश से इन मातृ वृक्षों को हटा दिया जाए तो क्या परिणाम होंगे, और परस्पर सम्बद्ध नेटवर्क पर क्या असर होंगे? हमारे पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है क्योंकि आज तक इस को लेकर कोई भी शोध या अध्ययन देश में नही हुआ है। हमें तो अंदाज़ भी नहीं है कि क्या भारतीय शहरों मे ऐसा कोई वृक्ष-संचार है भी या नहीं, वह कैसे काम करता है और करता भी है या नहीं।

उपरोक्त चर्चा दर्शाती है कि शहरी क्षेत्रों के पेड़ अनुसंधान के आकर्षक क्षेत्र उपलब्ध कराते हैं और जिसके लिए बढ़िया परिस्थितिकी रिसर्च स्टेशन की ज़रूरत है। भारत में ऐसे अनुसंधान की भारी कमी है चाहे वह पेड़ों को लेकर हो या फिर शहरी स्थायित्व को लेकर। वर्तमान में शहरी स्थायित्व पर 2008 से 2017 के बीच हुए 1000 शोधपत्रों में से सिर्फ 10 पेपर ही भारत से थे। यह दुखद है कि शहरी क्षेत्रों के प्रशासन सम्बंधी हमारा अधिकांश ज्ञान उन शोधो पर आधारित है जो यूएस, चीन और युरोप में किए गए हैं, जबकि इन देशों की परिस्थितिकी, पर्यावरण, विकास और संस्कृति भारतीय शहरों से सर्वथा भिन्न है। शहरी विकास के इन मॉडलों को हम जस-का-तस अपना नहीं सकते क्योंकि हमारे देश का राजनैतिक, आर्थिक, पारिस्थितिक, पर्यावरणीय और संस्थागत संदर्भ भिन्न है। लेकिन ये बात दुखद है कि हमारे अधिकतर शहरों का विकास इन्हीं तरीकों से किया जा रहा है।

शोध आवश्यक है लेकिन वह अपने आप में पर्याप्त नहीं है। शहरी पारिस्थितिकी पर शोध कार्य को गति देने के साथ-साथ, भारतीय वैज्ञानिकों को चाहिए कि शहरी विकास के सम्बंध में वे शहर में रहने वाले लोगों के साथ संवाद करें। भारत में इसका एक रास्ता यह भी हो सकता है कि नागरिक विज्ञान में बढ़ती रुचि का इस्तेमाल किया जाए। सीज़न वॉच एक राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम है जिसमें लोग किसी एक पेड़ को चुनते हैं और इसमें साल भर में होने वाले बदलावों, जैसे फूलों और फलों का आना आदि का अध्ययन करते हैं। इस तरह वे महत्वपूर्ण वैज्ञानिक जानकारी का संकलन तो करते ही हैं, साथ-साथ इस प्रकिया के तहत वे बच्चों और बड़ों को प्रकृति से जोड़ने का काम भी करते हैं। बैंगलुरु का शहरी स्लेंडर लॉरिस प्रोजेक्ट नागरिक विज्ञान का एक बेहतरीन उदाहरण है जो एक जोखिमग्रस्त दुर्लभ प्रायमेट प्रजाति पर केंद्रित है।

दुनिया भर में पेड़ों के बारे में लोकप्रिय किताबें लिखने का चलन फिर से उभरा है। जैसे डी. जे. हास्केल की दी सॉन्ग ऑफ ट्रीज़: स्टोरीस फ्रॉम नेचर्स ग्रेट कनेक्टर्स (पेंÏग्वन वाइकिंग 2017); पी. वोहलेबेन, दी हिडन लाइफ ऑफ ट्रीज़, व्हाट दे फील, हाऊ दे कम्युनिकेट: डिस्कवरीज़ फ्रॉम अ सीक्रेट वर्ल्ड, ग्रे स्टोन बुक्स, 2016)। हमें भी भारतीय जन, बच्चों और बड़ों के लिए संरक्षण, विलुप्ति और जलवायु परिवर्तन जैसे पर्यावरणीय व पारिस्थितिकी सम्बंधी विभिन्न विविध मुद्दों पर पुस्तकों की आवश्यकता है। इससे व्यक्ति, स्कूल, कॉलेज और समुदाय भी नागरिक विज्ञान और जन विज्ञान में सम्मिलित हो सकेंगे। जैसे एच. नगेंद्र और एस मंदोली लिखित सिटीज़ एंड केनॉपीज़; ट्रीज़ इन इंडियन सिटीज़ पेंग्विन रैंडम हाउस इंडिया, दिल्ली 2019)। शहरी पारिस्थितिकी पर सहयोगी अनुसंधान की भी आवश्यकता है ताकि हम यह समझ पाएं कि लोगों के हितों को ध्यान में रखते हुए अपने शहरों की पारिस्थितिक दृष्टि से डिज़ाइन कैसे करें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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