हड्डियों से स्रावित हारमोन

ड्रीनेलिन, यह उस मशहूर हारमोन का नाम है जो अचानक आए किसी खतरे या डर की स्थिति से निपटने या पलायन करने के लिए हमारे शरीर को तैयार करता है। लेकिन हालिया अध्ययन बताते हैं कि तनाव की स्थिति में होने वाली प्रतिक्रिया के लिए एड्रीनेलिन की अपेक्षा हड्डियों में बनने वाला एक अन्य हार्मोन ज़्यादा ज़िम्मेदार होता है।

कोलंबिया विश्वविद्यालय के जेनेटिक्स वैज्ञानिक गैरार्ड कारसेन्टी का कहना है कि कंकाल शरीर के लिए हड्डियों का कठोर ढांचा भर नहीं है। हमारी हड्डियां ऑस्टियोकैल्सिन नामक प्रोटीन का स्राव करती हैं जो कंकाल का पुनर्निर्माण करता है। 2007 में कारसेन्टी और उनके साथियों ने इस बात का पता लगाया था कि ऑस्टियोकैल्सिन नामक यह प्रोटीन एक हार्मोन की तरह काम करता है, जो रक्त शर्करा स्तर को नियंत्रित रखता है और चर्बी कम करता है। इसके अलावा यह प्रोटीन मस्तिष्क गतिविधि को बनाए रखने, शरीर को चुस्त बनाए रखने, वृद्ध चूहों में स्मृति फिर से सहेजने और चूहों और लोगों में व्यायाम के दौरान बेहतर प्रदर्शन करने के लिए भी ज़िम्मेदार होता है। इस आधार पर कारसेन्टी का मानना था कि जानवरों में कंकाल का विकास खतरों से बचने या खतरे के समय भागने के लिए हुआ होगा।

अपने अनुमान की पुष्टि के लिए उन्होंने चूहों को कुछ तनाव-कारकों का सामना कराया। जैसे उनके पंजों में हल्का बिजली का झटका दिया और लोमड़ी के पेशाब की गंध छोड़ी, जिससे चूहे डरते हैं। इसके बाद उन्होंने चूहों के रक्त में ऑस्टियोकैल्सिन का स्तर जांचा।

उन्होंने पाया कि तनाव से सामना करने के 2-3 मिनट के बाद चूहों के शरीर में ऑस्टियोकैल्सिन का स्तर चौगुना हो गया। इसी तरह के नतीजे उन्हें मनुष्यों के साथ भी मिले। जब शोधकर्ताओं ने वालन्टियर्स को लोगों के सामने मंच पर कुछ बोलने को कहा तब उनमें भी ऑस्टियोकैल्सिन का स्तर अधिक पाया गया। उनका यह शोध सेल मेटाबॉलिज़्म पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।

शोधकर्ताओं ने चूहों के मस्तिष्क और कंकाल के बीच के तंत्रिका सम्बंध की पड़ताल करने पर पाया कि कैसे ऑस्टियोकैल्सिन आपात स्थिति में ‘लड़ो या भागो’ प्रतिक्रिया शुरू करता है। इस प्रतिक्रिया में नब्ज़ का तेज़ होना, तेज़ सांस चलना और रक्त में शर्करा की मात्रा में वृद्धि शामिल होते हैं। कुल मिलाकर इसके चलते शरीर को भागने या लड़ने के लिए अतिरिक्त ऊर्जा मिल जाती है। जब मस्तिष्क के एक हिस्से, एमिग्डेला, को खतरे का आभास होता है तो वह ऑस्टियोब्लास्ट नामक अस्थि कोशिकाओं को ऑस्टियोकैल्सिन का स्राव करने का संदेश देता है। ऑस्टियोकैल्सिन पैरासिम्पैथेटिक तंत्रिका तंत्र की उस क्रिया को धीमा कर देता है जो दिल की धड़कन और सांस को धीमा करने का काम करती है। इसके चलते सिम्पैथेटिक तंत्रिका तंत्र पर लगा अंकुश हट जाता है और वह एड्रीनेलिन स्राव सहित शरीर की तनाव-प्रतिक्रिया शुरू कर देता है।

इस शोध के मुताबिक एड्रीनेलिन नहीं बल्कि ऑस्टियोकैल्सिन इस बात का ख्याल रखता है कि शरीर कब ‘लड़ो या भागो’ की स्थिति में आएगा। यह भी स्पष्ट होता है कि कैसे एड्रीनल ग्रंथि रहित चूहे या वे लोग भी मुसीबत के समय तीव्र शारीरिक प्रतिक्रिया देते हैं जिनका शरीर किसी कारणवश एड्रीनेलिन नहीं बना सकता। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्लास्टिक का प्रोटीन विकल्प

गभग एक सदी पहले आविष्कृत प्लास्टिक अत्यंत उपयोगी पदार्थ साबित हुआ है। वज़न में हल्का होने के बावजूद भी यह अत्यधिक लचीला और सख्त हो सकता है। और सबसे बड़ी बात तो यह कि यह लगभग अनश्वर है। और यही अनश्वरता इसकी समस्या बन गई है।

हर वर्ष दुनिया में 38 करोड़ टन प्लास्टिक का उत्पादन किया जाता है। इसमें से अधिक से अधिक 10 प्रतिशत का रीसायक्लिंग होता है। बाकी कचरे के रूप में जमा होता रहता है। एक अनुमान के मुताबिक हम 6.3 अरब टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न कर चुके हैं। आज के रुझान को देखते हुए लगता है कि वर्ष 2050 तक पर्यावरण में 12 अरब टन प्लास्टिक कचरा मौजूद होगा।

एक ओर तो प्लास्टिक का उपयोग कम करने की कोशिशें की जा रही हैं, तो दूसरी ओर प्लास्टिक रीयाक्लिंग को बढ़ावा देने के प्रयास चल रहे हैं। इसी बीच नए किस्म का प्लास्टिक बनाने पर भी अनुसंधान चल रहा है जो लचीला व सख्त तो हो लेकिन प्रकृति में इसका विघटन हो सके।

इस संदर्भ में मेलबोर्न विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ग्रेग कियाओ का प्रयास है कि अमीनो अम्लों के पोलीमर बनाए जाएं जिनमें प्लास्टिक की खूबियां हों। जीव-जंतु, पेड़-पौधे अमीनो अम्लों को जोड़-जोड़कर पेप्टाइड और प्रोटीन तो बनाते ही हैं। और प्रकृति में ऐसे कई एंज़ाइम मौजूद हैं जो इन प्रोटीन अणुओं को तोड़ भी सकते हैं। कियाओ के मुताबिक प्रोटीन प्लास्टिक का सही विकल्प हो सकता है।

उनकी प्रयोगशाला में ऐसे प्रोटीन बनाए जा चुके हैं जो काफी लचीले व सख्त हैं, जिनके रेशे बनाए जा सकते हैं, चादरें बनाई जा सकती हैं। ये वाटरप्रूफ हैं और अम्ल वगैरह का सामना कर सकते हैं।

जहां प्रकृति में प्रोटीन नुमा पोलीमर बनाने का काम एंज़ाइमों की उपस्थिति में होता है वहीं कियाओ की टीम इसी काम को रासायनिक विधि से करने में लगी हुई है। यदि वे सही किस्म के अमीनो अम्ल पोलीमर (यानी पेप्टाइड) बनाने में सफल रहे तो यह एक अच्छा विकल्प साबित हो सकता है। मगर इसमें एक दिक्कत आएगी। प्लास्टिक उत्पादन के लिए कच्चा माल तो पेट्रोलियम व अन्य जीवाश्म र्इंधनों से प्राप्त हो जाता है। मगर प्रोटीन-प्लास्टिक का कच्चा माल कहां से आएगा? यह संभवत: पेड़-पौधों से प्राप्त होगा। पहले ही हम फसलों का इस्तेमाल जैव-र्इंधन बनाने में कर रहे हैं। यदि प्लास्टिक भी उन्हीं से बनना है तो खाद्यान्न की कीमतों पर भारी असर पड़ेगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पदचिन्हों के जीवाश्म और चलने-फिरने का इतिहास

कुछ जीवाश्म स्थल अक्सर खरोचों और ऐसे निशानों से भरे होते हैं जो संभवत: किसी चलते-फिरते जीव द्वारा छोड़े गए होते हैं। इन निशानों के स्रोत की पुष्टि नहीं हो पाती क्योंकि उन्हें बनाने वाले जीव अब पाए नहीं जाते हैं।

लेकिन हाल ही में वैज्ञानिकों ने एक अपवाद खोज निकाला है। एक जीवाश्म का पता लगाया है जो रेंगने की क्रिया करते अश्मीभूत हुआ है। यह चट्टान लगभग 56 करोड़ वर्ष पुरानी चट्टान है यानी लगभग उतनी ही पुरानी जितने कि जंतु हैं। यह छोटे-छोटे अनेक पैरों वाला एक चपटा-सा खंडित शरीर वाला जीव है जो काफी कुछ आधुनिक कनखजूरे जैसा दिखता है लेकिन इसका शरीर नर्म मालूम होता है। इस जीवाश्म के पीछे की चट्टान में एक लम्बी खांचेदार किनारों की लकीर-सी दिखाई देती है।

शोधकर्ताओं ने इसे यिलिंगिया स्पाइसीफॉर्मिस नाम दिया है। गौरतलब है कि यिलिंगिया नाम यांगेज़ नदी घाटी के नाम से लिया गया है जहां यह जीवाश्म पाया गया, और स्पाइसीफॉर्मिस नाम जीव के कांटेदार शरीर के कारण दिया गया है। इसके प्रत्येक खंड में तीन भाग हैं, एक बड़ा केंद्रीय भाग जिसके दोनों ओर छोटे-छोटे पीछे की ओर मुड़े हुए भाग जुड़े हुए हैं। वहां मिले 35 यिलिंगिया नमूनों में सबसे लम्बा 27 सेंटीमीटर लम्बा था जो एक वयस्क मानव पैर की लंबाई के बराबर है।

नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार जीवाश्म की शारीरिक रचना और उसके पदचिन्हों के आधार पर, इस जगह पाए गए अन्य पदचिन्ह भी इसी तरह की जोड़वाली टांगों वाले जीवों द्वारा बनाए गए होंगे। यह विशेषता शुरुआती विकसित होते जीवों से मेल नहीं खाती और उनके हिसाब से काफी आगे की है। जोड़दार पैरों वाले अधिकांश जंतु तो इसके 15 करोड़ साल बाद तक विकसित नहीं हुए थे।

वैज्ञानिकों का मत है कि इन खंडों का विकास जीवों को चलने-फिरने में मदद करता था। इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप जीवों के विविधीकरण में मदद मिली। वास्तव में, शोधकर्ताओं को लगता है कि यह जीवाश्म बिना खंड वाले जीवों (जैसे साधारण कृमि) और जोड़वाली टांगों वाले जीवों (जैसे कीड़े और झींगा मछलियों) के बीच की लापता कड़ी हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)
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पक्षी एवरेस्ट की ऊंचाई पर उड़ सकते हैं

र्ष 1953 में, एक पर्वतारोही ने माउंट एवरेस्ट के शिखर पर सिर पर पट्टों वाले हंस (करेयी हंस, एंसर इंडिकस) को उड़ान भरते देखा था। लगभग 9 किलोमीटर की ऊंचाई पर किसी पक्षी का उड़ना शारीरिक क्रियाओं की दृष्टि से असंभव प्रतीत होता है। यह किसी भी पक्षी के उड़ने की अधिकतम ज्ञात ऊंचाई से भी 2 कि.मी. अधिक था। इसको समझने के लिए शोधकर्ताओं ने 19 हंसों को पाला ताकि इतनी ऊंचाई पर उनकी उड़ान के रहस्य का पता लगाया जा सके।

शोधकर्ताओं की टीम ने एक बड़ी हवाई सुरंग बनाई और युवा करेयी हंसों को बैकपैक और मास्क के साथ उसमें उड़ने के लिए प्रशिक्षित किया। विभिन्न प्रकार के सेंसर की मदद से उन्होंने हंसों की ह्मदय गति, रक्त में ऑक्सीजन की मात्रा, तापमान और चयापचय दर को दर्ज करके प्रति घंटे उनकी कैलोरी खपत का पता लगाया। शोधकर्ताओं ने मास्क में ऑक्सीजन की सांद्रता में बदलाव करके निम्न, मध्यम और अधिक ऊंचाई जैसी स्थितियां निर्मित कीं।

यह तो पहले से पता था कि स्तनधारियों की तुलना में पक्षियों के पास पहले से ही निरंतर शारीरिक गतिविधि के लिए बेहतर ह्मदय और फेफड़े हैं। गौरतलब है कि करेयी हंस में तो फेफड़े और भी बड़े व पतले होते हैं जो उन्हें अन्य पक्षियों की तुलना में अधिक गहरी सांस लेने में मदद करते हैं और उनके ह्मदय भी अपेक्षाकृत बड़े होते हैं जिसकी मदद से वे मांसपेशियों को अधिक ऑक्सीजन पहुंचा पाते हैं।

हवाई सुरंग में किए गए प्रयोग से पता चला कि जब ऑक्सीजन की सांद्रता माउंट एवरेस्ट के शीर्ष पर 7 प्रतिशत के बराबर थी (जो समुद्र सतह पर 21 प्रतिशत होती है), तब हंस की चयापचय दर में गिरावट तो हुई लेकिन उसके बावजूद ह्मदय की धड़कन और पंखों के फड़फड़ाने की आवृत्ति में कोई कमी नहीं आई। शोधकर्ताओं ने ई-लाइफ में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया है कि किसी तरह यह पक्षी अपने खून को ठंडा करने में कामयाब रहे ताकि वे अधिक ऑक्सीजन ले सकें। गौरतलब है कि गैसों की घुलनशीलता तापमान कम होने पर बढ़ती है। खून की यह ठंडक बहुत विरल हवा की भरपाई करने में मदद करती है।

हालांकि पक्षी अच्छी तरह से प्रशिक्षित थे, लेकिन बैकपैक्स का बोझा लादे कृत्रिम अधिक ऊंचाई की परिस्थितियों में कुछ ही मिनटों के लिए हवा में बने रहे। इसलिए यह स्पष्ट नहीं है कि क्या उपरोक्त अनुकूलन की बदौलत ही वे 8 घंटे की उड़ान भरकर माउंट एवरेस्ट पर पहुंचने में सफल हो जाते हैं। या क्या यही अनुकूलन उन्हें मध्य और दक्षिण एशिया के बीच 4000 किलोमीटर के प्रवास को पूरा करने की क्षमता देते हैं। और ये करतब वे बिना किसी प्रशिक्षण के कर लेते हैं। लेकिन प्रयोग में बिताए गए कुछ मिनटों से इतना तो पता चलता ही है कि ये हंस वास्तव में माउंट एवरेस्ट की चोटी के ऊपर से उड़ सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वातानुकूलन: गर्मी से निपटने के उपाय – आदित्य चुनेकर, श्वेता कुलकर्णी

प्रयास (ऊर्जा समूह) ने उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के अर्ध-शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के 3000घरों में बिजली के अंतिम उपयोग के पैटर्न को समझने के लिए फरवरी-मार्च 2019में एक सर्वेक्षण किया था। यहां उस सर्वेक्षण के आधार पर प्रकाश व्यवस्था के बदलते परिदृश्य की चर्चा की गई है। इस शृंखला में आगे बिजली के अन्य उपयोगों पर चर्चा की जाएगी।

भारत की जलवायु, अलग-अलग क्षेत्रों और अलग-अलग मौसमों में बहुत अलग-अलग होती है। अलबत्ता, अधिकांश देश गर्म ग्रीष्मकाल का अनुभव करता है जो और अधिक गर्म हो रहा है। भारत में हर साल लगभग 50 करोड़ पंखे, 8 करोड़ एयर-कूलर और 45 लाख एयर कंडीशनर खरीदे जाते हैं। इनकी बिक्री पिछले कुछ वर्षों में लगातार बढ़ी है और आगे भी वृद्धि की उम्मीद है। फिर भी, भारत में एयर कंडीशनर और कूलर का घरेलू स्वामित्व अभी भी अपेक्षाकृत कम है। भारत उन चुनिंदा देशों में से है जहां कूलिंग एक्शन प्लान तैयार किया गया है। इसका उद्देश्य है कि पर्यावरणीय और सामजिक-आर्थिक लाभ को सुरक्षित करते हुए सभी के लिए निर्वहनीय ठंडक एवं ऊष्मीय राहत प्रदान की जा सके। सर्वेक्षण में यह समझने की कोशिश की गई कि सर्वेक्षित परिवार किस तरह गर्मी से राहत पाने की कोशिश करते हैं और इसमें ठंडक के लिए ऊर्जा-मांग सम्बंधी कार्यक्रमों के लिए क्या समझ मिल सकती है?

आमतौर पर, महाराष्ट्र की तुलना में उत्तर प्रदेश अधिक गर्म रहता है। 2018 में, सर्वेक्षित ज़िलों में महाराष्ट्र की तुलना में उत्तर प्रदेश में 40 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान वाले दिनों की संख्या ज़्यादा रही। हालांकि, खास तौर से उत्तर प्रदेश में, सर्दियों का मौसम काफी ठंडा रहा, फिर भी बिजली से चलने वाले रूम हीटरों का स्वामित्व दोनों ही राज्यों में नगण्य है। इसलिए, हम केवल गर्मी से राहत पाने के लिए घरों में बिजली के उपयोग पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं।

छत का पंखा सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाला उपकरण है। उत्तर प्रदेश के लगभग 94 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 95 प्रतिशत सर्वेक्षित घरों में छत के पंखे हैं। प्रति परिवार छत के पंखों की संख्या उत्तर प्रदेश में 2.4 और महाराष्ट्र में 1.6 है। यह भी देखा गया है कि महाराष्ट्र (औसतन 2.4 कमरे प्रति घर) की तुलना में उत्तर प्रदेश में घर बड़े (औसतन 3.8 कमरे प्रति घर) हैं। अगला लोकप्रिय उपकरण कूलर है – उत्तर प्रदेश में 40 प्रतिशत परिवारों और महाराष्ट्र में 23 प्रतिशत परिवारों के पास कूलर है। हालांकि, उच्च आय वाले परिवारों में इनका स्वामित्व अधिक है, लेकिन कुछ निम्न और मध्यम आय वाले परिवारों में भी कूलर थे। इससे स्थानीय स्तर पर निर्मित सस्ते कूलर की उपलब्धता का पता चलता है। दूसरी ओर एयर कंडीशनर का स्वामित्व दोनों राज्यों में काफी कम (3.5 प्रतिशत) है, जो अधिकतर उच्च आय वर्ग में होंगे। अधिकांश वातानुकूलन उपकरण (ए.सी.) स्प्लिट प्रकार के हैं; उत्तर प्रदेश में 84 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 70 प्रतिशत। प्रत्येक श्रेणी में सबसे अधिक उपयोग किए जाने वाले उपकरण की औसत आयु उत्तर प्रदेश में छत के पंखे की 7 साल, कूलर की 4 साल और एयर कंडीशनर की 2.5 साल है जबकि महाराष्ट्र में क्रमश: 7, 5 और 3 साल थी।

छत के पंखों के लिए ब्यूरो ऑफ एनर्जी एफिशिएंसी (बीईई) का मानक और लेबलिंग (एसएंडएल) कार्यक्रम स्वैच्छिक है। भारत में उत्पादित 95 प्रतिशत से अधिक छत के पंखे स्टार रेटेड नहीं हैं। हमारे सर्वेक्षण में, उत्तर प्रदेश में लगभग 6 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 18 प्रतिशत घरों में ही स्टार रेटेड छत के पंखे थे। बीईई ने हाल ही में मानकों को संशोधित किया है जिसके बाद नए 5-स्टार रेटेड छत के पंखे गैर-स्टार रेटेड पंखों की तुलना में आधी बिजली खपत करते हैं। लिहाज़ा, व्यापक पैमाने पर स्टार रेटेड छत के पंखे अपनाए जाएं, इसके लिए जागरूकता और उपलब्धता बढ़ाने तथा कीमतें कम करने की आवश्यकता है। स्टार रेटेड पंखों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए बीईई राष्ट्रीय स्तर पर अभियान चला सकता है। वह छत के पंखों के लिए एसएंडएल कार्यक्रम को भी अनिवार्य बना सकता है ताकि भारत में अक्षम और गैर-स्टार रेटेड पंखे न बेचे जा सकें। एनर्जी एफिशिएंसी सर्विसेज लिमिटेड (ईईएसएल) का उजाला कार्यक्रम 5-स्टार पंखे रियायती मूल्य पर बेचता है। ईईएसएल नए 5-स्टार पंखों को बेचने के लिए कार्यक्रम को अपग्रेड कर सकता है, जो पुराने 5-स्टार पंखों की तुलना में 30 प्रतिशत अधिक कार्यक्षम हैं। बीईई अपने खुद के अत्यंत कुशल उपकरण कार्यक्रम (एसईईपी) के तहत उजाला कार्यक्रम का समर्थन कर सकता है, जिसके तहत निर्माताओं को सामान्य पंखों की बजाय अत्यंत कुशल (नए 5 स्टार पंखे) को बेचने की बढ़ती लागत की क्षतिपूर्ति करने के लिए समयबद्ध वित्त प्रदान किया जाता है। इससे इन पंखों की कीमत में और गिरावट आ सकती है और खरीद बढ़ सकती है। एयर कूलर के लिए भी यही तरीका अपनाया जा सकता है। छत के पंखों के विपरीत, बीईई के पास एयर कूलर के लिए कोई भी स्टार रेटिंग कार्यक्रम नहीं है। इसके लिए पहला कदम यह होगा कि एयर कूलर को भी स्टार रेटेड कार्यक्रम के तहत लाया जाए और फिर एयर कूलर के लिए भी उजाला जैसा कोई कार्यक्रम शुरू करना होगा।

छत के पंखों और एयर कूलर के स्टार रेटिंग कार्यक्रम के समक्ष एक चुनौती स्थानीय निर्माताओं की उपस्थिति हो सकती है। हो सकता है उनमें से कुछ निर्माता सस्ते, गैर-मानक और अत्यधिक अक्षम मॉडल बेचें। तब बीईई के लिए इन उत्पादों में स्टार रेटिंग मानदंडों के अनुपालन की निगरानी करना मुश्किल हो सकता है। यह समस्या एयर कूलर में अधिक स्पष्ट है। दोनों राज्यों में सर्वेक्षित परिवारों में स्थानीय रूप से निर्मित एयर कूलर की हिस्सेदारी स्थानीय पंखों की तुलना में काफी अधिक है। एयर कूलर और पंखों के स्टार रेटिंग कार्यक्रम की सफलता के लिए इस मुद्दे को संबोधित करना ज़रूरी होगा।

सर्वेक्षित परिवारों में एयर कंडीशनर का स्वामित्व दोनों राज्यों में काफी कम है। हालांकि उनके उपयोग के बारे में कुछ टिप्पणियां की जा सकती हैं। बीईई के पास एयर कंडीशनर के लिए अनिवार्य एसएंडएल कार्यक्रम है। दोनों राज्यों में एयर कंडीशनर वाले 34 प्रतिशत घरों में ऊर्जाक्षम 4 और 5 स्टार रेटेड मॉडल हैं। उत्तर प्रदेश के लगभग 49 प्रतिशत और महाराष्ट्र के लगभग 32 प्रतिशत परिवार या तो स्टार-लेबल के बारे में जानते नहीं हैं या किसी गैर-स्टार रेटेड मॉडल का उपयोग कर रहे हैं। इससे पता चलता है कि एयर कंडीशनर तक के बारे में इस कार्यक्रम को लेकर जागरूकता कम है। उत्तर प्रदेश के परिवार 21 डिग्री सेल्सियस और महाराष्ट्र के परिवार 22 डिग्री सेल्सियस की औसत तापमान सेटिंग पर एसी का इस्तेमाल करते हैं। यह दर्शाता है कि बीईई द्वारा हाल में अनुशंसित 24 डिग्री की डिफॉल्ट सेटिंग उपभोक्ताओं को तापमान अधिक सेट करने और बिजली बचाने के लिए प्रेरित कर सकती है। दूसरी ओर, एयर कंडीशनर का उपयोग काफी कम है। सामान्य गर्मी के दिन में एयर कंडीशनर का प्रतिदिन औसत उपयोग उत्तर प्रदेश में 3.8 घंटे और महाराष्ट्र में 4.5 घंटे  है। इससे तो लगता है कि शायद लोग एयर कंडीशनर का तापमान कम सेट करते हैं और कमरा ठंडा होने के बाद इसे बंद कर देते हैं। इससे एक आशंका यह पैदा होती है कि उपभोक्ता अधिक ऊर्जाक्षम एसी होने पर उसका उपयोग लंबी अवधि के लिए करने लगेंगे और तब ज़्यादा ऊर्जा खर्च होगी। इसकी और जांच करने की आवश्यकता है।

हमने परिवारों से यह भी पूछा था कि क्या वे उनके पास उपलब्ध उपकरणों के उपयोग के बाद भी गर्मियों के मौसम में किसी तरह की असुविधा का सामना करते हैं। सर्वेक्षण में उत्तर प्रदेश के लगभग 59 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 34 प्रतिशत परिवारों ने बताया कि वे गर्मी के कई या अधिकांश दिनों में असुविधा का सामना करते हैं। हमने अनुकूलन उपकरणों के स्वामित्व के आधार पर परिवारों का समूहीकरण किया और उनके असुविधा के स्तर को दर्ज किया। इन आंकड़ों से लगता है परिवारों में कई श्रेणी के उपकरण हो सकते हैं। जिन घरों में एयर कंडीशनर है वहां एयर कूलर, छत का पंखा, टेबल फैन, आदि में से कोई एक या सभी उपस्थित हो सकते हैं। देखा गया कि उत्तर प्रदेश में टेबलफैन वाले परिवारों से एयर कंडीशनर वाले परिवारों की ओर बढ़ें, तो असुविधा भी कम होती जाती है। हालांकि, यह रुझान महाराष्ट्र में इतना स्पष्ट नहीं है। इसका एक संभावित कारण उत्तर प्रदेश में ग्रीष्मकाल की तीव्रता हो सकता है। दिलचस्प बात यह है कि दोनों राज्यों में लगभग 10 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं जो एयर कंडीशनर का उपयोग करते हैं लेकिन फिर भी गर्मियों के अधिकतर दिनों में असुविधा का सामना करते हैं। ऐसा एयर कंडीशनर के सीमित उपयोग की वजह से हो सकता है। इसका कारण उच्च बिजली बिल, पॉवर कट या दोनों ही हो सकते हैं। यह एयर कंडीशनर के अनुचित आकार के कारण भी हो सकता है जिसके परिणामस्वरूप अपर्याप्त शीतलन होता है।

तापमान में वृद्धि के रुझान के साथ घरों में असुविधा का उच्च स्तर सभी वातानुकूलन उपकरणों के लिए एक संभावित मांग का संकेत देता है। इसके मद्दे नज़र ऐसे हस्तक्षेपों की आवश्यकता है जिनसे यह सुनिश्चित हो सके कि ये उपकरण ऊर्जा-क्षम हों ताकि वे एक निर्वहनीय और सस्ते तरीके से शीतलन की ज़रूरतों को पूरा कर सकें। मानक और लेबलिंग (एसएंडएल) जैसी नीतियां और अत्यंत कुशल उपकरण कार्यक्रम (एसईईपी) द्वारा समर्थित उजाला जैसे कार्यक्रम इस लक्ष्य को प्राप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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लोग एलईडी प्रकाश अपना रहे हैं – आदित्य चुनेकर, श्वेता कुलकर्णी

प्रयास (ऊर्जा समूह) ने उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के अर्ध-शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के 3000घरों में बिजली के अंतिम उपयोग के पैटर्न को समझने के लिए फरवरी-मार्च 2019में एक सर्वेक्षण किया था। यहां उस सर्वेक्षण के आधार पर प्रकाश व्यवस्था के बदलते परिदृश्य की चर्चा की गई है। इस शृंखला में आगे बिजली के अन्य उपयोगों पर चर्चा की जाएगी।

रों में बिजली का सबसे बुनियादी उपयोग प्रकाश व्यवस्था के लिए किया जाता है। कई कम आय वाले और नए विद्युतीकृत घरों में तो बिजली का प्रमुख या एकमात्र उपयोग इसी के लिए किया जाता है। प्रकाश व्यवस्था की ज़रूरत शाम के समय बिजली के सर्वाधिक उपयोग के समय से भी मेल खाती है। पूर्व में कई सरकारी कार्यक्रमों/कंपनियों ने फिलामेंट बल्ब को अत्यधिक कुशल सीएफएल और एलईडी बल्बों से बदलने का लक्ष्य रखा था। इनमें से सबसे नया और सबसे सफल कार्यक्रम उजाला कार्यक्रम रहा, जो अभी भी जारी है। उजाला के तहत, एलईडी बल्ब थोक मूल्य में खरीदकर अनुबंधित विक्रेताओं के माध्यम से उपभोक्ताओं को रियायती मूल्य पर उपलब्ध कराए जा रहे हैं। इसके तहत अब तक 35 करोड़ से अधिक एलईडी बल्ब बेचे जा चुके हैं।

2018 में भारत में लगभग 1.4 अरब बल्ब और ट्यूब लाइट्स का उत्पादन किया गया। इनमें से लगभग 46 प्रतिशत एलईडी, 43 प्रतिशत फिलामेंट बल्ब और शेष सीएफएल और फ्लोरोसेंट ट्यूब लाइट का था। एलईडी की मांग बढ़ती गई है जबकि हाल के वर्षों में सीएफएल की बिक्री में गिरावट आई है। फिलामेंट बल्बों की बिक्री भी कम हो रही है, लेकिन सीएफएल की तुलना में इसमें गिरावट की दर बहुत कम है।

हमने अपने सर्वेक्षण में उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र दोनों में एलईडी को अपनाने का काफी उच्च स्तर देखा। उत्तर प्रदेश में सर्वेक्षित परिवारों में 80 प्रतिशत से अधिक प्रकाश उपकरण एलईडी बल्ब या ट्यूब लाइट हैं। सभी आय वर्गों में लगभग यही स्थिति थी। लगभग 68 प्रतिशत घरों में प्रकाश के लिए केवल एलईडी बल्ब का उपयोग किया जाता है। अधिकांश परिवारों ने बताया कि वे एलईडी के प्रदर्शन से संतुष्ट हैं और उनका उपयोग जारी रखेंगे। महाराष्ट्र में, सर्वेक्षित परिवारों में 54 प्रतिशत से अधिक प्रकाश उपकरण एलईडी हैं, हालांकि विभिन्न आय वर्गों में छिटपुट अंतर हैं। सीएफएल दूसरा सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाले प्रकाश विकल्प है (लगभग 27-28 प्रतिशत)।

महाराष्ट्र के घरों में एलईडी बल्बों को कम अपनाने का एक संभावित कारण यह लगता है कि महाराष्ट्र में परिवार पहले फिलामेंट बल्ब छोड़कर सीएफएल का उपयोग करने लगे थे। ऐसा सरकार के बचत लैंप योजना (बीएलवाय) के तहत सीएफएल को दिए गए प्रोत्साहन के कारण हुआ था। हालांकि महाराष्ट्र के अधिकांश सर्वेक्षित परिवारों ने भविष्य में एलईडी बल्ब खरीदने की इच्छा व्यक्त की, लेकिन संभवत: पूरे स्टॉक को एलईडी में बदलने में काफी समय लगेगा। दूसरी ओर, उत्तर प्रदेश के परिवारों ने फिलामेंट बल्ब या प्रकाश व्यवस्था के सर्वथा अभाव से सीधे एलईडी की ओर लंबी छलांग लगाई है।

एक दिलचस्प बात यह है कि उत्तर प्रदेश के मात्र 12 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 17 प्रतिशत सर्वेक्षित परिवारों ने ही बताया कि उन्होंने एलईडी बल्ब उजाला कार्यक्रम के तहत खरीदा है। फिर भी, बड़े पैमाने पर एलईडी को अपनाए जाने का श्रेय उजाला कर्यक्रम को दिया जा सकता है क्योंकि कार्यक्रम ने प्रकाश उद्योग पर व्यापक असर डाला है। उजाला के तहत बड़े पैमाने की खरीदी के चलते कार्यक्रम के बाहर बेचे जाने वाले एलईडी बल्बों की कीमत में भी भारी कमी हुई है। इसके अलावा, एलईडी बल्बों की बढ़ी हुई मांग ने एक बड़े लघु उद्योग को भी जन्म दिया है। भारत में लगभग 250 पंजीकृत एलईडी बल्ब उत्पादन इकाइयां हैं, जो 2014 में मुट्ठी भर थीं। इसलिए, बाज़ारों में सस्ते एलईडी बल्बों की बहुतायत है। हालांकि, इससे उनकी गुणवत्ता को लेकर भी चिंता बढ़ गई है। भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) का निर्देश है कि भारत में बिकने वाले सारे एलईडी उपकरण सुरक्षा और प्रदर्शन मानकों के अनुरूप होना चाहिए। इसके अलावा, ब्यूरो ऑफ एनर्जी एफिशिएंसी (बीईई) ने एलईडी लैंप की रेटिंग के लिए एक अनिवार्य स्टार लेबलिंग योजना शुरू की है। इसके तहत सभी एलईडी उपकरणों को 1 स्टार (न्यूनतम कुशल) से 5 स्टार (सबसे कुशल) तक अंकित किया जाता है। अलबत्ता, इन नियमों का अनुपालन ढीला है। 8 शहरों में 400 खुदरा विक्रेताओं के एक हालिया सर्वेक्षण में पाया गया है कि बाज़ार में उपलब्ध एलईडी बल्ब ब्रांडों में से आधे सुरक्षा और प्रदर्शन के बीआईएस मानकों के अनुरूप नहीं हैं। हमारे सर्वेक्षण में, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र दोनों में केवल 2-3 प्रतिशत परिवारों को एलईडी बल्ब के लिए स्टार-लेबलिंग कार्यक्रम के बारे में पता था। इसके अलावा, दोनों राज्यों के अधिकांश परिवारों ने एलईडी बल्बों के प्रदर्शन को खरीद का कारण बताया। चंद परिवारों ने ही कहा कि वे एलईडी बल्बों का उपयोग कम कीमत और बिजली बिल में कमी के कारण कर रहे हैं। इसलिए, बाज़ार में एलईडी की ओर झुकाव को बनाए रखने के लिए अच्छी गुणवत्ता वाले एलईडी बल्ब की उपलब्धता सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है। इसके लिए एलईडी बल्बों के लिए स्टार रेटिंग कार्यक्रम के बारे में उपभोक्ताओं को जागरूक बनाना और नियमों के सख्ती से अनुपालन की आवश्यकता होगी।

यह सर्वेक्षण इस बात को भी रेखांकित करता है कि परिवार के व्यवहार पर बिजली आपूर्ति की गुणवत्ता का प्रभाव होता है। उत्तर प्रदेश में लगभग 45 प्रतिशत ग्रामीण परिवार अभी भी प्रकाश व्यवस्था के लिए विकल्प के रूप में केरोसिन चिमनी का उपयोग करते हैं जो घर के अंदर प्रदूषण और दुर्घटनाओं का कारण बन सकती है। अर्ध-शहरी और ग्रामीण, दोनों क्षेत्रों में बैटरी और सौर लैंप के साथ एकीकृत एलईडी बल्बों का स्वामित्व 11-14 प्रतिशत है। ये विकल्प नियमित एलईडी बल्बों की तुलना में महंगे हैं, लेकिन कम आय वाले परिवार तक यही विकल्प चुन रहे हैं। दूसरी ओर महाराष्ट्र में, अपेक्षाकृत कम परिवार वैकल्पिक प्रकाश स्रोतों का उपयोग करते हैं।

कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि दोनों राज्यों के अर्ध-शहरी और ग्रामीण क्षेत्र के विभिन्न आय वर्गों के परिवारों में एलईडी को व्यापक रूप से अपनाया गया है। उत्तर प्रदेश के परिवारों ने फिलामेंट बल्बों या प्रकाश व्यवस्था के सर्वथा अभाव से सीधे एलईडी को अपनाया है, जबकि महाराष्ट्र के लोग धीरे-धीरे सीएफएल से एलईडी की ओर बढ़ रहे हैं। सर्वेक्षण का एक निष्कर्ष यह है कि सरकार और अन्य सम्बंधित किरदारों के लिए यह ज़रूरी है कि वे बाज़ार में एलईडी की ओर हो रहे परिवर्तन को बनाए रखने के लिए अच्छी गुणवत्ता वाले एलईडी बल्बों की उपलब्धता सुनिश्चित करें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्षयरोग पर नियंत्रण के लिए नया टीका – डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन

लगभग दस हज़ार साल पूर्व, जब से मनुष्यों ने समुदायों में रहना शुरू किया, तब से टीबी (क्षयरोग) हमारे साथ रहा है। पश्चिमी एशिया की तरह भारत में भी लोग प्राचीन काल से ही टीबी के बारे में जानते थे। लगभग 1500 ईसा पूर्व के संस्कृत ग्रंथों में इसके बारे में उल्लेख मिलता है जिनमें इसे शोष कहा गया है। 600 ईसा पूर्व की सुश्रुत संहिता में क्षय रोग के उपचार के लिए मां का दूध, अल्कोहल और आराम की सलाह दी गई है। 900 ईस्वीं के मधुकोश नामक ग्रंथ में इस बीमारी का उल्लेख यक्ष्मा (या क्षय होना) के नाम से है। टीबी के बारे में यह भी जानकारी थी कि मनुष्य से मनुष्य में यह रोग खखार और बलगम के माध्यम से फैलता है (यहां तक कि पशुओं के बलगम से भी यह रोग फैल सकता है)। इसके इलाज के लिए कई औषधि-उपचार आज़माए जाते थे, मगर सफलता बहुत अधिक नहीं मिलती थी।

वर्ष 1882 में जाकर जर्मन सूक्ष्मजीव विज्ञानी रॉबर्ट कॉच ने पता लगाया था कि टीबी रोग मायकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस (एमटीबी) नामक रोगाणु के कारण होता है, जिसके लिए उन्हें वर्ष 1905 में नोबेल पुरस्कार मिला था। कॉच ने टीबी के उपचार के लिए दवा खोजने के भी प्रयास किए थे, जिसके परिणाम स्वरूप ट्यूबरक्यूलिन नामक दवा बनी, हालांकि यह टीबी के उपचार में ज़्यादा सफल नहीं रही। उस समय से अब तक टीबी के उपचार के लिए कई दवाएं बाज़ार में आ चुकी हैं, जैसे रिफेम्पिसिन, आइसोनिएज़िड, पायराज़िनेमाइड, और हाल ही में प्रेटोमेनिड और बैडाक्विलिन। भारत सरकार हर साल टीबी के लाखों मरीज़ों के उपचार के लिए इनमें से कई या सभी दवाओं का उपयोग करती है।  

अलबत्ता, इलाज से बेहतर है बचाव। प्रतिरक्षा विज्ञान इसी कहावत पर अमल करते हुए हमलावर रोगाणुओं को शरीर में प्रवेश करने और बीमारी फैलाने से रोकने का प्रयास करता है। इसी दिशा में वर्ष 1908-1921 के दौरान दो फ्रांसिसी जीवाणु विज्ञानियों अल्बर्ट कामेट और कैमिली ग्यूरिन को एक ऐसा उत्पाद बनाने में सफलता मिली थी जो टीबी के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता प्रदान कर सकता था। इसे बैसिलस-कामेट-ग्यूरिन (बीसीजी) नाम दिया गया था। जब बीसीजी को टीके के रूप में शरीर में इंजेक्ट किया गया तो इसने एमटीबी के हमले के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता दी। इस तरह टीबी का पहला टीका बना। आज भी यह टीका दुनिया भर में नवजात शिशुओं और 15 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को टीबी से बचाव के लिए लगाया जाता है। हालिया अध्ययन बताते हैं कि टीके से यह सुरक्षा 20 वर्षों तक मिलती रहती है। भारत दशकों से सफलतापूर्वक बीसीजी टीके का उपयोग कर रहा है।

सांस के ज़रिए टीका

अलबत्ता, अब यह पता चला है कि बीसीजी का टीका बच्चों के लिए जितना असरदार है उतना वयस्कों पर प्रभावी नहीं रहता क्योंकि वयस्कों में फेफड़ों की टीबी ज़्यादा होती है जबकि बच्चों में आंत, हड्डियों या मूत्र-मार्ग में ज़्यादा देखी गई है और बीसीजी फेफड़ों की टीबी में कम प्रभावी है। किसी अन्य बीमारी (जैसे एड्स) के होने पर भी टीका प्रभावी नहीं रहता क्योंकि प्रतिरक्षा तंत्र कमज़ोर हो जाता है। कभी-कभी बीसीजी का टीका देने पर कुछ लोगों को बुखार आ जाता है या इंजेक्शन की जगह पर खुजली होने लगती है; यह भी टीके के उपयोग को असहज बनाता है। इसलिए अब एक वैकल्पिक टीके की ज़रूरत है जो खुद तो टीबी के टीके की तरह काम करे ही, साथ में बीसीजी टीके के लिए बूस्टर (वर्धक) का काम भी करे। और यदि यह टीका इंजेक्शन की बजाय अन्य आसान तरीकों से दिया जा सके तो सोने में सुहागा।

लगभग 50 साल पहले टीकाकरण का एक ऐसा तरीका खोजा गया था जिसमें फेफड़ों में सांस के ज़रिए टीका दिया जाता है। इसे ·ासन मार्ग टीका कहते हैं। फुहार के रूप में टीके का पहला परीक्षण 1951 में इंग्लैंड में मुर्गियों के झुंड पर वायरस के खिलाफ किया गया था। इसके बाद 1968 में बीसीजी का इसी तरह का परीक्षण गिनी पिग और कुछ इंसानों पर किया गया। इसकी मदद से मेक्सिको में 1988-1990 के दौरान स्कूली बच्चों में खसरा के खिलाफ प्रतिरक्षा विकसित करने में सफलता मिली थी और इसके बाद टीबी के खिलाफ प्रतिरोध हासिल करने में। (अधिक जानकारी के लिए मायकोबैक्टीरियल डिसीज़ में प्रकाशित कॉन्ट्रेरास, अवस्थी, हनीफ और हिक्की द्वारा की गई समीक्षा इन्हेल्ड वैक्सीन फॉर द प्रिवेंशन ऑफ टीबी पढ़ सकते हैं)। अच्छी बात यह है कि इस तरीके से टीकाकरण में सुई की कोई आवश्यकता नहीं होती, प्रशिक्षित व्यक्ति की ज़रूरत नहीं होती, कचरा कम निकलता है और लागत भी कम होती है।

जब रोगजनक जीव शरीर पर हमला करते हैं तो वे शरीर को भेदते हैं और अपनी संख्या वृद्धि करने के लिए अंदर की सामग्री का उपयोग करते हैं, और तबाही मचाते हैं। मेज़बान शरीर अपने प्रतिरक्षा तंत्र की मदद से इन रोगजनक जीवों के खिलाफ लड़ता है। इसमें तथाकथित बी-कोशिकाएं एंटीबॉडी नामक प्रोटीन संश्लेषित करती हैं जो हमलावर के साथ बंधकर उसे निष्क्रिय कर देता है। और सुरक्षा के इस तरीके को याद भी रखा जाता है ताकि भविष्य में जब यही हमलावर हमला करे तो उससे निपटा जा सके। टीके के कार्य करने का आधार यही है, जो सालों तक काम करता रहता है।

वास्तव में एंटीबॉडी बनाने के लिए पूरे हमलावर जीव की ज़रूरत नहीं होती। बी-कोशिकाओं द्वारा एंटीबॉडी बनाने के लिए हमलावर जीव के अणु का एक हिस्सा (‘कामकाजी अंश’ या एपिटोप, एंटीजन का वह हिस्सा जिससे एंटीबॉडी जुड़ती है) ही पर्याप्त होता है। प्रतिरक्षा प्रणाली की एक और श्रेणी होती है टी-कोशिकाएं, जो बी-कोशिकाओं के साथ मिलकर काम करती हैं। टी-कोशकाओं में मौजूद अणु हमलावर को मारने में मदद करते हैं। इस प्रक्रिया में भी पूरे अणु की ज़रूरत नहीं होती बल्कि मात्र उस हिस्से की ज़रूरत होती है जो प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया के लिए सहायक के रूप में काम करता है।

ऑस्ट्रेलिया की युनिवर्सिटी ऑफ सिडनी के शोधकर्ताओं के दल ने इन तीनों सिद्धांतों की मदद से सांस के द्वारा दिया जा सकने वाला टीबी का टीका तैयार किया है। उनका यह शोधकार्य जर्नल ऑफ केमिस्ट्री के 16 अगस्त 2019 अंक में प्रकाशित हुआ है। उन्होंने टी-कोशिकाओं के अणु के एक हिस्से को सहायक के रूप में  प्रयोगशाला में संश्लेषित किया और फिर इसे प्रयोगशाला में ही संश्लेषित किए गए एमटीबी के एपिटोप वाले हिस्से से जोड़ दिया। इस तरह संश्लेषित किए गए टीके (जिसे कंपाउंड I कहा गया) को चूहों में नाक से दिया गया। और इसके बाद चूहों को एमटीबी से संक्रमित किया गया और कुछ हफ्तों बाद चूहों के फेफड़े और तिल्ली को जांचा गया। जांच में बैक्टीरिया काफी कम संख्या में पाए गए जो यह दर्शाता है कि सांस के ज़रिए दिए जाने पर I एक टीके की तरह सुरक्षा दे सकता है। और तो और, इंजेक्शन की बजाय सांस के ज़रिए टीका देना बेहतर पाया गया है। इस तरह के टीके से बच्चे और टीके से घबराने वाले वयस्क खुश हो जाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

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चांदनी रात में सफेद उल्लुओं को शिकार में फायदा

बार्न उल्लू एक किस्म के उल्लू होते हैं और छोटे चूहे इनका प्रिय भोजन है। ये उल्लू दो प्रकार के होते हैं। एक जिनका रंग थोड़ा लाल-कत्थई सा होता है और दूसरे जिनका रंग सफेद होता है। चांदनी रात में सफेद उल्लू के देखे जाने की संभावना ज़्यादा होती है। इसका मतलब यह होता है कि चूहे सफेद उल्लू की उपस्थिति को जल्दी भांप लेंगे और खुद को बचा लेंगे। मगर वास्तविकता कुछ और है। यह देखा गया है कि चांदनी रात में सफेद उल्लू अनपेक्षित रूप से ज़्यादा चूहे मार लेते हैं। यह पता चला है कि अंधेरी रातों में तो दोनों रंग के उल्लुओं को लगभग 5-5 चूहे मिल जाते हैं। मगर चांदनी रात में सफेद उल्लू को तो 5 चूहे मिल जाते हैं लेकिन लाल-कत्थई उल्लू को तीन से ही संतोष करना पड़ता है। आखिर क्यों?

स्विटज़रलैंड के लौसाने विश्वविद्यालय के लुइस सैन-जोस और एलेक्ज़ेंडर रोलिन की अपेक्षा तो यह थी कि चांदनी रात में सफेद उल्लुओं को कम और लाल-कत्थई उल्लुओं को ज़्यादा चूहे मिलेंगे। लेकिन इन शोधकर्ताओं ने पाया कि यह तो सही है कि चांदनी बिखरी हो, तो सफेद उल्लू ज़्यादा आसानी से नज़र आते हैं किंतु इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। फर्क इसलिए नहीं पड़ता क्योंकि इनके शिकार यानी चूहे का व्यवहार भी विचित्र होता है। जब चूहे उल्लू को देखते हैं तो उनकी प्रतिक्रिया दो तरह की होती है। एक प्रतिक्रिया होती है जड़ हो जाने की। वे अपनी जगह शायद इस उम्मीद में दुबक जाते हैं कि उल्लू उन्हें देख नहीं पाएगा। या दूसरी प्रतिक्रिया होती है भाग निकलने की। किंतु जब वे चांदनी में चमचमाते सफेद उल्लू को देखते हैं तो वे पांच सेकंड ज़्यादा देर तक जड़ होते हैं। अपने अवलोकन के निष्कर्ष उन्होंने नेचर इकॉलॉजी एंड इवॉल्यूशन में प्रकाशित किए हैं।

वैसे इस अनुसंधान को लेकर एक विशेष बात यह है कि आम तौर पर जंतुओं के रंग परिधान को लेकर अध्ययनों में इस बात पर बहुत कम ध्यान दिया गया है कि निशाचर जीवों में शरीर के रंग से क्या और कैसा फर्क पड़ता है। अब जब ऐसे अध्ययन शुरू हुए हैं तो कई आश्चर्यजनक खोजें हो रही हैं। (स्रोत फीचर्स)

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बैक्टीरिया की मदद से मच्छरों पर नियंत्रण

हाल के एक प्रयोग में देखा गया है कि वोल्बेचिया नामक बैक्टीरिया डेंगू फैलाने वाले मच्छरों की आबादी को काबू में रख सकते हैं।

वोल्बेचिया बैक्टीरिया लगभग 50 प्रतिशत कीट प्रजातियों की कोशिकाओं में कुदरती रूप से पाया जाता है और यह उनके प्रजनन में दखलंदाज़ी करता है। मच्छरों में देखा गया है कि यदि नर मच्छर इस बैक्टीरिया से संक्रमित हो और वोल्बेचिया मुक्त कोई मादा उसके साथ समागम करे, तो उस मादा के अंडे जनन क्षमता खो बैठते हैं। इसकी वजह से वह मादा प्रजनन करने में पूरी तरह अक्षम हो जाती है क्योंकि आम तौर पर मादा मच्छर एक ही बार समागम करती है। लेकिन यदि उस मादा के शरीर में पहले से उसी किस्म का वोल्बेचिया बैक्टीरिया मौजूद हो तो उसके अंडे इस तरह प्रभावित नहीं होते।

वैज्ञानिकों का विचार बना कि यदि मच्छरों की किसी आबादी में ऐसे वोल्बेचिया संक्रमित नर मच्छर छोड़ दिए जाएं तो जल्दी ही उनकी संख्या पर नियंत्रण हासिल किया जा सकेगा। हाल ही में शोधकर्ताओं के एक अंतर्राष्ट्रीय दल ने इस विचार को वास्तविक परिस्थिति में आज़माया। उन्होंने इस तरीके से हांगकांग के निकट गुआंगडांग प्रांत में एडीस मच्छरों पर नियंत्रण हासिल करने में सफलता प्राप्त की।

प्रयोग में एक समस्या यह थी कि यदि छोड़े गए वोल्बेचिया संक्रमित मच्छरों में मादा मच्छर भी रहे तो पूरा प्रयोग असफल हो जाएगा। इस समस्या से निपटने के लिए उन्होंने वोल्बेचिया संक्रमित मच्छरों को हल्के-से विकिरण से उपचारित किया ताकि यदि उनमें कोई मादा मच्छर हो, तो वह वंध्या हो जाए।

इस तरह किए गए परीक्षण में एडीस मच्छरों की आबादी में 95 प्रतिशत की गिरावट आई। यह भी देखा गया कि आबादी में यह गिरावट कई महीनों तक कायम रही। गौरतलब है कि नर मच्छर तो काटते नहीं, इसलिए उनकी आबादी बढ़ने से कोई फर्क नहीं पड़ता। शोधकर्ताओं का कहना है कि इस परीक्षण के परिणामों से लगता है कि मच्छरों पर नियंत्रण के लिए एक नया तरीका मिल गया है जिसमें कीटनाशकों का उपयोग नहीं होता है। वैसे अभी कई सारे अगर-मगर हैं। जैसे, वोल्बेचिया संक्रमित मच्छर छोड़ने के बाद यदि बाहर से नए मच्छर उस इलाके में आ गए तो क्या होगा? इसका मतलब होगा कि आपको बार-बार संक्रमित मच्छर छोड़ते रहना होगा। (स्रोत फीचर्स)

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अमेज़न में लगी आग जंगल काटने का नतीजा है

ब्राज़ील में अमेज़न के वर्षा वनों में भयानक आग लगी हुई है, धुएं के स्तंभ उठते दिख रहे हैं। जहां सरकारी प्रवक्ता का कहना है कि इस साल जंगलों में लगी इस भीषण आग का कारण सूखा मौसम, हवाएं और गर्मी है, वहीं ब्रााज़ील व अन्य देशों के वैज्ञानिकों का स्पष्ट मत है कि आग का प्रमुख कारण जंगल कटाई की गतिविधियों में हुई वृद्धि है।

साओ पौलो विश्वविद्यालय में वायुमंडलीय भौतिक शास्त्री पौलो आर्टक्सो का कहना है कि आग के फैलाव का पैटर्न जंगल कटाई से जुड़ा नज़र आता है। सबसे ज़्यादा आग कृषि क्षेत्र से सटे क्षेत्रों में लगी दिख रही है। ब्राज़ील के नेशनल इंस्टिट्यूट फॉर स्पेस रिसर्च ने अब ब्रााज़ील के अमेज़न में 41,000 अग्नि स्थल पता किए हैं। पिछले वर्ष इसी अवधि में 22,000 ऐसे स्थल पहचाने गए थे। यही स्थिति कैलिफोर्निया स्थित ग्लोबल फायर एमिशन डैटाबेस प्रोजेक्ट ने भी रिकॉर्ड की है। वैसे दोनों एजेंसियों के पास आंकड़ों का रुाोत एक ही है मगर विश्लेषण के तरीकों में अंतर के कारण ग्लोबल फायर एमिशन डैटाबेस ने कुछ अधिक ऐसे स्थलों की गिनती है जहां आग लगी हुई है।

इस वर्ष अग्नि स्थलों की संख्या 2010 के बाद सबसे अधिक है। लेकिन 2010 में एल निनो तथा अटलांटिक के गर्म होने की वजह से भीषण सूखा पड़ा था जिसे दावानलों के लिए दोषी ठहराया गया था। मगर इस वर्ष सूखा ज़्यादा नहीं पड़ा है। गैर सरकारी संगठन अमेज़न एन्वायर्मेंट रिसर्च इंस्टिट्यूट के पौलो मूटिन्हो का मत है कि इस साल जंगल की आग में सबसे बड़ा योगदान निर्वनीकरण का है। उनका कहना है कि जिन 10 नगर पालिकाओं में सबसे ज़्यादा दावानल की घटनाएं हुई हैं, वे वही हैं जहां इस वर्ष सबसे अधिक जंगल कटाई रिकॉर्ड की गई है। ये 10 नगरपालिकाएं बहुत बड़ी-बड़ी हैं, कुछ तो छोटे-मोटे युरोपीय देशों से भी बड़ी हैं। आम तौर किया यह जाता है कि जंगल की किसी पट्टी को साफ करने के बाद वहां आग लगा दी जाती है ताकि झाड़-झंखाड़ जल जाएं। परिणास्वरूप जो आग लगती है उसे बुझने में महीनों लग जाते हैं। आग बुझने के बाद इस पट्टी को चारागाह अथवा कृषि भूमि में तबदील कर दिया जाता है।

कई लोगों का मानना है कि ब्रााज़ील में जंगल कटाई की गतिविधियों में वृद्धि का प्रमुख कारण नव निर्वाचित राष्ट्रपति जायर बोलसोनेरो की नीतियां हैं। इन नीतियों में विकास के नाम पर पर्यावरण की बलि देना शामिल है। ब्राज़ील के एक पर्यावरणविद कार्लोस पेरेस के मुताबिक उन्होंने “अपने जीवन में ऐसा पर्यावरण-विरोधी माहौल नहीं देखा है।” (स्रोत फीचर्स)

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