ऊर्जा संकट के 40 साल बाद विश्व ऊर्जा का दृश्य – डॉ. बी.जी. देसाई

1973 के ऊर्जा संकट ने ऊर्जा आपूर्ति और कीमतों को लेकर व्याप्त खुशफहमी को एक झटके में दूर कर दिया था। विश्व ने इसका जवाब ऊर्जा दक्षता में सुधार और तेल के विकल्पों के रूप में दिया। ग्लोबल वार्मिंग की चिंता ऊर्जा दक्षता और नवीकरणीय ऊर्जा के विकास की ओर प्रोत्साहित कर रही है। इस लेख में ऊर्जा संकट के पहले और उसके बाद पूरे विश्व और भारत के परिदृश्य की चर्चा की गई है। उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर आगे की कार्रवाई के लिए कुछ टिप्पणियां की गई हैं।

1973 के अरब-इज़राइल युद्ध ने ऊर्जा संकट को जन्म दिया। इस ऊर्जा संकट ने विश्व को ऊर्जा, विशेष रूप से तेल, की सीमित उपलब्धता और बढ़ते मूल्य के प्रति आगाह किया। विकसित दुनिया ने सुरक्षित ऊर्जा आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए 1974 में अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) का गठन किया। 1973 और ऊर्जा संकट के 40 साल बाद 2014 के विश्व ऊर्जा परिदृश्य को देखना लाभदायक होगा। IEA ने अपना वार्षिक प्रतिवेदन “वल्र्ड एनर्जी स्टेटिस्टिक्स 2016” (विश्व ऊर्जा सांख्यिकी) प्रकाशित कर दिया है। यह सारांश रूप में भी उपलब्ध है। ये प्रकाशन 1973 में (ऊर्जा संकट से पहले) और 2014 में (ऊर्जा संकट के बाद) विश्व ऊर्जा आपूर्ति और खपत के दिलचस्प ऊर्जा रुझान प्रस्तुत करते हैं। यह लेख ऊर्जा संकट के पहले और बाद दुनिया में ऊर्जा आपूर्ति और उपयोग की कुछ विशेषताओं का विश्लेषण करता है। इसमें भारत के लिए भी इसी प्रकार की तुलना की गई है।

प्राथमिक ऊर्जा आपूर्ति

1973 में, विश्व ऊर्जा आपूर्ति 6101 एमटीओई थी। (एमटीओई यानी मिलियन टन तेल के समतुल्य, यह गणना एक कि.ग्रा. तेल = 10000 किलो कैलोरी पर आधारित है।) 2014 में यह 13,099 एमओटीआई हो गई थी। अर्थात 1973 की तुलना में 2014 में ऊर्जा आपूर्ति बढ़कर 2.25 गुना हो गई। तालिका 1 में विभिन्न र्इंधनों का योगदान दर्शाया गया है।

तालिका 1
प्राथमिक ऊर्जा आपूर्ति में विभिन्न ईंधनों की भागीदारी (प्रतिशत में)
ईंधन1973 2014
तेल 46.2 31.3
कोयला 24.5 28.6
प्राकृतिक गैस 16.0 21.2
जैव ईंधन और कचरा 10.5 10.3
पनबिजली 1.8 2.4
नाभिकीय 0.9 4.8
अन्य (सौर, पवन, आदि) 0.1 1.4

तेल की कीमतों में तेज़ी से वृद्धि के चलते इसके विकल्पों की खोज और कुशल उपयोग का मार्ग प्रशस्त हुआ है। 1973 में कुल ऊर्जा आपूर्ति में तेल का हिस्सा 46 प्रतिशत था जबकि 2014 में केवल 31.3 प्रतिशत ऊर्जा आपूर्ति तेल से हुई। कोयले और गैस का उपयोग थोड़ा बढ़ा। जलाऊ लकड़ी और कंडे जैसे जैव र्इंधन, जिनका उपयोग मुख्यत: भारत जैसे विकासशील देशों में होता है, की ऊर्जा आपूर्ति में अभी भी 10 प्रतिशत भागीदारी है। जहां नाभिकीय ऊर्जा के हिस्से में तेज़ वृद्धि देखी गई, वहीं पनबिजली में काफी कम वृद्धि हुई। विभिन्न इलाकों की हिस्सेदारी में भी नाटकीय परिवर्तन हुए हैं। ऊर्जा आपूर्ति में विभिन्न इलाकों की हिस्सेदारी तालिका 2 में दिखाई गई है।

तालिका 2
ऊर्जा आपूर्ति में क्षेत्रीय भागीदारी (प्रतिशत में)
क्षेत्र 1973 2014
ओईसीडी 61.3 38.40
गैर-ओईसीडी, यूरोप (रूस एवं अन्य) 15.5 8.2
चीन 7 22.4
मध्य पूर्व 0.8 5.3
एशिया और अन्य 5.5 12.7
कुल 100 100

ओईसीडी में युरोप, यूएसए, जापान और अन्य शामिल हैं। गैर गैर-ओईसीडी युरोप में रूस और इसके पूर्व सहयोगी युक्रेन, तुर्कमेनिस्तान आदि शामिल हैं। एशिया में भारत, इंडोनेशिया, श्रीलंका और अन्य शामिल हैं। तालिका से पता चलता है कि चीन और मध्य पूर्व में ऊर्जा उत्पादन में प्रभावशाली वृद्धि हुई है और संयुक्त राज्य अमेरिका तथा युरोप में ऊर्जा आपूर्ति में गिरावट आई है। ऊर्जा आपूर्ति में एशिया की भागीदारी भी बढ़ी है।

तालिका 3 में 2014 और 1973 में ऊर्जा के मूल्यों को वास्तविक इकाइयों में दर्शाया गया है और 2014 व 1973 में उनका अनुपात दिया गया है। तालिका से स्पष्ट है कि इस अवधि में तेल में अपेक्षाकृत कमी आई है, जबकि गैस और कोयले के साथ-साथ नाभिकीय बिजली और पनबिजली में भी वृद्धि हुई है। गौरतलब है कि पनबिजली का उत्पादन (3833/2535) नाभिकीय से 31 प्रतिशत अधिक है, लेकिन IEA जिस तरीके से गणना करता है उसके आधार पर पनबिजली (2.4 प्रतिशत) की तुलना में नाभिकीय ऊर्जा का योगदान अधिक है (4.8 प्रतिशत) है।

तालिका 3
ईंधनवार ऊर्जा की आपूर्ति (वास्तविक यूनिट)
ईंधन 1973 2014 2014/1973
कच्चा तेल (दस लाख टन, एमटी) 2869 4331 1.509
प्राकृतिक गैस (1 करोड़ घन मीटर-बीसीएम 1224 3590 2.933
कोयला(एमटी) 3074 7709 2.507
नाभिकीय (टेरावॉट घंटा, टीडबल्यूएच) 203 2535 12.48
पनबिजली(टीडबल्यूएच) 1296 3983 3.078
कुलप्राथमिकऊर्जा(एमटीओई) 6106 13,699 2.245
कुल बिजली (टीडबल्यूएच) 6131 23,816 3.88

जनसंख्या, सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और ऊर्जा उपयोग की तीव्रता को देखना काफी दिलचस्प हो सकता है (जीडीपी और जनसंख्या के आंकड़े विश्व बैंक की वेबसाइट से लिए गए हैं)। यह देखा जा सकता है कि ऊर्जा आपूर्ति की तुलना में जीडीपी काफी तेज़ी से बढ़ रहा है जिसका श्रेय ऊर्जा दक्षता में वृद्धि और अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक परिवर्तन को जाता है।

तालिका 4  
क्षेत्र अनुसार विश्व और ओईसीडी की अंतिम ऊर्जा खपत  
क्षेत्र विश्व 1973
एमटीओई(%)
विश्व2014
एमटीओई(%)
ओईसीडी 1973
एमटीओई(%)
ओईसीडी 1973
एमटीओई(%)
उद्योग 1534.49(32.9) 2751.17(29.19) 958.18(34) 808.49(22.28)
परिवहन 1081.26(23.19) 2627.02(27.87) 695.32(24.6) 1215.16(33.49)
घरेलू और व्यवसायिक सेवाएं, अन्य 1758.88(37.73) 3218.98(34.15) 942.43(33.4) 1262.19(34.78)
गैर-ऊर्जा उपयोग 286.50(6.14) 827.52(8.78) 220.63(7.8) 343.03(9.45)
कुल खपत (एमटीओई) 4661.19 9424.69 2815.6 3828.16

इसके परिणामस्वरूप औद्योगिक ऊर्जा खपत में कमी आती है और परिवहन, आवासीय एवं वाणिज्यिक सेवाओं में ऊर्जा की खपत में वृद्धि होती है। तालिका 4 में 1973 और 2014 में विभिन्न क्षेत्रों द्वारा अंतिम ऊर्जा खपत को दर्शाया गया है। विशेष रूप से ओईसीडी देशों में औद्योगिक ऊर्जा खपत में गिरावट के रुझान तथा परिवहन और आवासीय ऊर्जा खपत में वृद्धि नज़र आती है। मैन्यूफेक्चरिंग ओईसीडी से एशिया की ओर चला गया है। 1973 और 2014 में अंतिम ऊर्जा खपत और कुल ऊर्जा आपूर्ति के अनुपात की ओर ध्यान देना उपयोगी होगा।

1973 में, अंतिम ऊर्जा खपत/ कुल ऊर्जा आपूर्ति = 4661/6101 यानी 76 प्रतिशत थी। 2014 में, अंतिम ऊर्जा खपत/कुल ऊर्जा आपूर्ति = 9424/13,699 यानी 68 प्रतिशत थी।

यह ऊर्जा उपयोग में बिजली के अधिक इस्तेमाल का संकेत देता है। इसके चलते बिजली के उत्पादन के दौरान अधिक नुकसान होता है जिसका परिणाम यह होता है कि आपूर्ति की तुलना में अंतिम उपयोग कम हो जाता है। यह ध्यान देने वाली बात है कि जहां 1973 की तुलना में 2014 में विश्व ऊर्जा की खपत दोगुनी से भी अधिक हो गई, वहीं ओईसीडी की ऊर्जा खपत में केवल 28 प्रतिशत की वृद्धि हुई । भारत में 1973 और 2014 ऊर्जा परिदृश्य पर नज़र डालना भी उपयोगी हो सकता है। देखा जा सकता है कि ऊर्जा आपूर्ति में नाटकीय वृद्धि हुई है और ऊर्जा दक्षता में सुधार हुआ है।

सारांश और टिप्पणियां

विश्व ऊर्जा आपूर्ति 1973 से 2014 के बीच दोगुनी से भी अधिक हो गई है। तेल उत्पादन केवल 50 प्रतिशत बढ़ा है। यह र्इंधन दक्षता और तेल की जगह अन्य र्इंधन के उपयोग में उल्लेखनीय वृद्धि को दर्शाता है। बिजली उत्पादन एवं अन्य उपयोगों के लिए तेल की जगह कोयले और गैस का उपयोग किया जाने लगा है। तेल का उपयोग मुख्य रूप से परिवहन क्षेत्र द्वारा किया जा रहा है।

  • भारत में तेल की मांग में 800 प्रतिशत की वृद्धि हुई है जबकि विश्व में यह वृद्धि 50 प्रतिशत है।
  • ऊर्जा आपूर्ति दुगनी होने के साथ बिजली उत्पादन में लगभग 4 गुना वृद्धि हुई है। यह एक विद्युत-आधारित विश्व के प्रति रुझान को दर्शाता है। 65 प्रतिशत बिजली का उत्पादन कोयला और गैस द्वारा किया जाता है।
  • ऊर्जा की उत्पादकता (दक्षता) में नाटकीय सुधार हुआ है। विश्व जीडीपी में 17 गुना और ऊर्जा आपूर्ति में मात्र 2.25 गुना वृद्धि हुई है। मुद्रास्फीति को ध्यान में रखें तो जीडीपी में वास्तविक वृद्धि इससे 10 गुना अधिक होगी।
  • भारत ने भी ऊर्जा के सभी रूपों – कोयला, गैस, और बिजली उत्पादन – में प्रभावशाली प्रगति की है। भारत ने ऊर्जा के कुशल उपयोग और संरचनात्मक परिवर्तन की बदौलत ऊर्जा उत्पादकता में काफी सुधार किया है। सेवा क्षेत्र अब जीडीपी का 50 प्रतिशत से अधिक प्रदान कर रहा है जबकि उद्योगों की भागीदारी 70 प्रतिशत से घटकर 25 प्रतिशत हो गई है।
  • भारत में ऊर्जा परिदृश्य की दो प्रमुख समस्याएं हैं तेल की बढ़ती मांग और बायोमास के उपयोग की कमतर दक्षता। कच्चे तेल का उपयोग आठ गुना बढ़ गया है। उचित नीतियों से इसे टाला जा सकता था।
  •  तेल की बढ़ती मांग पर अंकुश लगाने के लिए सड़क की जगह रेल परिवहन को तथा निजी वाहनों की जगह सार्वजनिक वाहनों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। इन दोनों उपायों की तत्काल आवश्यकता है।
  • पारंपरिक बायोमास र्इंधन 40 साल पहले 50 प्रतिशत ऊर्जा की आपूर्ति करता था, उसकी तुलना में अभी भी 25 प्रतिशत ऊर्जा इसी से मिलती है। इन र्इंधनों का उपयोग मुख्य रूप से खाना पकाने के लिए किया जाता है। उन्नत चूल्हे उपलब्ध होने के बाद भी खाना पकाने के चूल्हों की दक्षता 8-10 प्रतिशत ही है। एलईडी लैंप और नवीकरणीय ऊर्जा की तर्ज़ पर खाना पकाने के कुशल चूल्हों और सोलर कुकर को बढ़ावा देने के लिए बड़े कार्यक्रमों की आवश्यकता है। ठीक उसी तरह जैसे एक कार्यक्रम के तहत जनवरी 2018 तक 28 करोड़ एलईडी बल्ब वितरित किए जा चुके थे।
  • कोयला बिजली उत्पादन के लिए मुख्य ऊर्जा रुाोत बने रहना चाहिए।
  • हाल में सरकारी कार्यक्रम द्वारा नवीकरणीय ऊर्जा को प्रोत्साहन सही दिशा में एक कदम है। ऊर्जा दक्षता के लिए भी इसी तरह के कार्यक्रमों की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)
    नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
    Photo Credit : https://mpng.pngfly.com/20180821/plp/kisspng-non-renewable-resource-renewable-energy-fossil-fue-free-press-wv-5b7c3057bd1c11.0485077115348654957746.jpg

शीतनिद्रा में बिना पानी कैसे जीवित रहती है गिलहरी

ज़्यादातर गिलहरियां ठंड के मौसम के लिए अपने घोसलों में पहले से भोजन की व्यवस्था करके रखती है और सर्दियां अपने घोसले में ही बिताती हैं। लेकिन यू.एस. मिडवेस्ट में पाई जाने वाली तेरह धारियों वाली एक गिलहरी (Ictidomys tridecemlineatus) ऐसा करने की बजाय ठंड बढ़ने पर शीतनिद्रा (हाइबरनेशन) में चली जाती है। इसकी शीतनिद्रा की अवधि लगभग आठ महीने की होती है जो प्राणि जगत में सबसे लंबी अवधि है। और वैज्ञानिकों ने अब यह पता लगा लिया है कि वह भोजन-पानी के बगैर इतनी लंबी शीतनिद्रा कैसे कर पाती है।

शीतनिद्रा करने वाले भालू जैसे अन्य जीवों की तरह हाइबरनेशन के दौरान गिलहरी के दिल की धड़कन, चयापचय प्रक्रिया और शरीर का तापमान नाटकीय रूप से बहुत कम हो जाते हैं। इस दौरान गिलहरी अपनी प्यास को दबाए रखती है, जिसका एहसास होने पर वे शीतनिद्रा की अवस्था से जाग सकती हैं। लेकिन वे अपनी प्यास पर काबू कैसे रख पाती हैं? इस बात का पता लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने दर्जनों गिलहरियों के रक्त सीरम को जांचा। सीरम रक्त के तरल अंश को कहते हैं। उन्होंने गिलहरियों को तीन समूहों में बांटा। एक समूह में गिलहरियां सक्रिय अवस्था में थीं, दूसरे समूह की गिलहरियां मृतप्राय शीतनिद्रा की अवस्था थीं, जिसे तंद्रा कहते हैं और तीसरे समूह की गिलहरियां शीतनिद्रा और सक्रियता के बीच की अवस्था में थीं।

सामान्य तौर पर मनुष्यों सहित सभी जानवरों में प्यास का एहसास सीरम गाढ़ा होने पर होता है। येल विश्वविद्यालय की लीडिया हॉफस्टेटर और साथियों द्वारा किए गए इस अध्ययन में शीतनिद्रा अवस्था की गिलहरियों में सीरम कम गाढ़ा पाया गया जिसके उन्हें प्यास का एहसास नहीं हुआ और वे सोती रहीं। यहां तक कि शोधकर्ताओं द्वारा जगाए जाने पर भी इन गिलहरियों ने एक बूंद भी पानी नहीं पिया। लेकिन जब शोधकर्ताओं ने उनके सीरम की सांद्रता बढ़ाई तो उन्होंने पानी पिया।

इसके बाद शोधकर्ता यह जानना चाहते थे कि शीतनिद्रा के दौरान गिलहरियों का सीरम इतना पतला कैसे हो जाता है? उनका अनुमान था कि शीतनिद्रा में जाने के पहले गिलहरियां ढेर सारा पानी पीकर अपने खून को पतला रखती होंगी। लेकिन सर्दियों में गिलहरियों द्वारा शीतनिद्रा अवस्था में जाने की पूर्व-तैयारी के वक्त बनाए गए वीडियो में दिखा कि आश्चर्यजनक रूप से इस दौरान तो गिलहरियों ने सामान्य से भी कम पानी पिया। 

रासायनिक जांच में पता चला कि वे अपने रक्त में सीरम की सांद्रता पर नियंत्रण सोडियम जैसे इलेक्ट्रोलाइट और ग्लूकोज़ और यूरिया जैसे अन्य रसायनों को हटाकर करती हैं। वे इन्हें शरीर में अन्यत्र कहीं (संभवत:) मूत्राशय में एकत्रित करती हैं। यह अध्ययन करंट बॉयोलॉजी नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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समस्याओं का समाधान विज्ञान के रास्ते – गंगानंद झा

सत्य को झूठ से अलग करने के लिए वैज्ञानिक मिज़ाज की ज़रूरत होती है। विज्ञान के सिद्धान्त चौकस दिमाग का निर्माण करते हैं और तथ्य को भ्रामक जानकारियों से अलग समझने में मदद करते हैं।” – नोबेल विजेता वैज्ञानिक सर्ज हैरोशे ff

दिम मनुष्य बादल, आसमान, सागर, तूफान नदी, पहाड़, तरह-तरह के पेड़ पौधों, जीव-जंतुओं के बीच अपने आपको असुरक्षित, असहाय और असमर्थ महसूस करता था। वह भय, कौतुहल और जिज्ञासा से व्याकुल हो जाता था।

उसका जीवित रह पाना उसके अपने परिवेश की जानकारी और अवलोकन पर निर्भर था, इसलिए अपने देखे-अनदेखे दृश्यों से उसने अनेकों पौराणिक कथाओं की रचना की। इन कथाओं के ज़रिए मनुष्य, विभिन्न जानवरों और पेड़-पौधों की उत्पत्ति की कल्पना तथा व्याख्या की गई। इन कथाओं में जानवर और पौधे मनुष्य की भाषा समझते और बोलते थे। वे एक-दूसरे का रूप धारण किया करते थे। इन कथाओं में ईश्वररूपी सृष्टा की बात कही गई। मनुष्य की चेतना ने सृष्टि के संचालक, नियन्ता, करुणामय ईश्वर का आविष्कार किया। आत्मा तथा परमात्मा की अनुभूति की उसने। वह प्रकृति के साथ एकात्मकता महसूस करने लगा। उसे सुरक्षा का आश्वासन मिला।

समय के साथ विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में जानकारियां इकठ्ठी होती रहीं। समाज, संस्कृतियों का विकास होता गया। हिन्दू, बौद्ध, ईसाई, कनफ्यूशियसवाद, इस्लाम इत्यादि ज्ञान की परंपराएं विकसित और स्थापित हुर्इं। इन सभी परंपराओं की स्थापना है कि इस संसार में जो भी जानने लायक महत्वपूर्ण बातें हैं उन्हें जाना जा चुका है। ईश्वर ने ब्राहृांड की सृष्टि की, मनुष्य और अन्य जीवों का निर्माण किया। माना गया कि प्राचीन ऋषिगण, पैगंबर और धर्मप्रवर्तक व्यापक ज्ञान से युक्त थे और यह ज्ञान धर्मग्रंथों तथा मौखिक परंपराओं में हमें उपलब्ध है। हम इन ग्रंथों तथा परंपराओं के सम्यक अध्ययन से ही ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। मनीषियों के उपदेशों और वाणियों से हमें इस गूढ़ ज्ञान की उपलब्धि हो सकती है। इस स्थापना में यह अकल्पनीय है कि वेद, बाइबल या कुरान में ब्राहृांड के किसी महत्वपूर्ण रहस्य की जानकारी न हो जिसे कोई हाड़-मांस का जीव उद्घाटित कर सके।

सोलहवीं सदी से ज्ञान की एक अनोखी परंपरा का विकास हुआ। यह परंपरा विज्ञान की परंपरा है। इसकी बुनियाद में यह स्वीकृति है कि ब्राहृांड के सारे महत्वपूर्ण सवालों के जवाब हमें नहीं मालूम, उनकी तलाश करनी है।

वह महान आविष्कार जिसने वैज्ञानिक क्रांति का आगाज़ किया, वह इसी बात का आविष्कार था कि मनुष्य अपने सबसे अधिक महत्वपूर्ण सवालों के जवाब नहीं जानता। वैसे तो हर काल में, सर्वाधिक धार्मिक और कट्टर समय में भी, ऐसे लोग हुए हैं जिन्होंने कहा कि ऐसी कई महत्वपूर्ण बातें हैं, जिनकी जानकारी पूरी परंपरा को नहीं है। ये लोग हाशिए पर कर दिए गए या सज़ा के भागी हुए अथवा ऐसा हुआ कि उन्होंने अपना नया मत प्रतिपादित किया और कालांतर में यह मत कहने लगा कि उसके पास सारे सवालों के जवाब हैं।       

सन 1543 में निकोलस कॉपर्निकस की पुस्तक De revolutionibus orbium का प्रकाशन हुआ। यह मानव सभ्यता के विकास में एक क्रांति की सूचना थी। इस क्रांति का नाम वैज्ञानिक क्रांति है। इस पुस्तक ने स्पष्ट तौर पर घोषणा की कि आकाशीय पिंडों का केंद्र धरती नहीं, सूरज है। यह घोषणा उस समय के स्वीकृत ज्ञान को नकारती थी, जिसके अनुसार धरती ब्राहृांड का केंद्र है। यह बात आज साधारण लगती है, पर कॉपर्निकस के समय (1473 -1543) यह कहना धर्मविरोधी माना जाता था। उस समय चर्च समाजपति की भूमिका में था। चर्च की मान्यता थी कि धरती ईश्वर के आकाश का केंद्र है। कॉपर्निकस को विश्वास था कि धर्म-न्यायाधिकरण उसे और उसके सिद्धांत दोनों को ही नष्ट कर डालेगा। इसलिए उसने इसके प्रकाशन के लिए मृत्युशय्या पर जाने की प्रतीक्षा की। अपनी सुरक्षा के लिए कॉपर्निकस की चिंता पूरी तरह सही थी। सत्तावन साल बाद जियार्डेनो ब्रूनो ने खुले तौर पर कॉपर्निकस के सिद्धांत के पक्ष में वक्तव्य देने की ‘धृष्टता’ की तो उन्हें इस ‘कुकर्म’ के लिए ज़िंदा जला दिया गया था।

गैलीलियो(1564-1642) ने प्रतिपादित किया कि प्रकृति की किताब गणित की भाषा में लिखी गई है। इस कथन ने प्राकृतिक दर्शन को मौखिक गुणात्मक विवरण से गणितीय विवरण में बदल दिया। इसमें प्राकृतिक तथ्यों की खोज के लिए प्रयोग आयोजित करना स्वीकृत एवं मान्य पद्धति हो गई। अंत में उनके टेलीस्कोप ने खगोल विज्ञान में क्रांतिकारी प्रभाव डाला और कॉपर्निकस की सूर्य केंद्रित ब्राहृांड की अवधारणा के मान्य होने का रास्ता साफ किया। लेकिन  इस सिस्टम की वकालत करने के कारण उन्हें धर्म-न्यायाधिकरण का सामना करना पड़ा था।

एक सदी बाद, फ्रांसीसी गणितज्ञ और दार्शनिक रेने देकार्ते ने सारे स्थापित सत्य की वैधता का परीक्षण करने के लिए एक सर्वथा नई पद्धति की वकालत की। आध्यात्मिक संसार के अदृश्य सत्य का इस पद्धति से विश्लेषण नहीं किया जा सकता था। आधुनिक काल में वैज्ञानिक प्राकृतिक संसार के अध्ययन के लिए प्रवृत्त हुए। आध्यात्मिक सत्य का अध्ययन सम्मानित नहीं रहा। क्योंकि उसके सत्य की समीक्षा विज्ञान के विश्लेषणात्मक तरीकों से नहीं की जा सकती। जीवन और ब्राहृांड के महत्वपूर्ण तथ्य तर्क-संगत वैज्ञानिकों की गवेषणा के क्षेत्र हो गए। देकार्ते ने ईश्वर की जगह मनुष्य को सत्य का अंतिम दायित्व दिया, जबकि पारंपरिक अवधारणा में एक बाहरी शक्ति सत्य को परिभाषित करती है। देकार्ते के मुताबिक सत्य व्यक्ति के विवेक पर निर्भर करता है। विज्ञान मौलिकता को महान उपलब्धि का निशान मानता है। मौलिकता स्वाधीनता का परिणाम होती है, प्रदत्त ज्ञान से असहमति है।

सन 1859 में चार्ल्स डार्विन के जैव विकासवाद के सिद्धान्त के प्रकाशन के साथ विज्ञान और आत्मा के रिश्ते के तार-तार होने की बुनियाद एकदम पक्की हो गई।

आधुनिक विज्ञान इस मायने में अनोखा है कि यह खुले तौर पर सामूहिक अज्ञान की घोषणा करता है। डार्विन ने नहीं कहा कि उन्होंने जीवन की पहेली का अंतिम समाधान कर दिया है और इसके आगे कोई और बात नहीं हो सकती। सदियों के व्यापक वैज्ञानिक शोध के बाद भी जीव वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं कि वे नहीं जानते कि मस्तिष्क में चेतना कैसे उत्पन्न होती है। पदार्थ वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं कि उन्हें नहीं मालूम कि बिग बैंग कैसे हुआ या सामान्य सापेक्षता के सिद्धांत और क्वांटम मेकेनिक्स के बीच सामंजस्य कैसे स्थापित किया जाए। 

वैज्ञानिक क्रांति के पहले अधिकतर संस्कृतियों में विकास और प्रगति की अवधारणा नहीं थी। समझ यह थी कि सृष्टि का स्वर्णिम काल अतीत में था। मानवीय बुद्धि से रोज़मर्रा ज़िंदगी के कुछ पहलुओं में यदा-कदा कुछ उन्नति हो सकती है लेकिन संसार का संचालन ईश्वरीय विधान करता है। प्राचीन काल की प्रज्ञा का अनुपालन करने से हम सृष्टि और समाज को संकटग्रस्त होने से रोक सकते हैं। लेकिन मानव समाज की मौलिक समस्याओं से उबरना नामुमकिन माना जाता था। जब सर्वज्ञाता ऋषि, ईसा, मोहम्मद और कन्फ्यूशियस अकाल, रोग, गरीबी, युद्ध का नाश नहीं कर पाए तो हम साधारण मनुष्य किस खेत की मूली हैं?

वैज्ञानिक क्रांति के फलस्वरूप एक नई संस्कृति की शुरुआत हुई। उसके केंद्र में यह विचार है कि वैज्ञानिक आविष्कार हमें नई क्षमताओं से लैस कर सकते हैं। जैसे-जैसे विज्ञान एक के बाद एक जटिल समस्याओं का समाधान देने लगा, लोगों को विश्वास होने लगा कि नई जानकारियां हासिल करके और इनका उपयोग कर हम अपनी समस्याओं को सुलझा सकते हैं। दरिद्रता, रोग, युद्ध, अकाल, बुढ़ापा, मृत्यु विधि का विधान नहीं है। ये बस हमारे अज्ञान का नतीजा हैं।

विज्ञान का कोई पूर्व-निर्धारित मत/सिद्धांत नहीं है, अलबत्ता, इसकी गवेषणा की कुछ सामान्य विधियां हैं। सभी अवलोकनों पर आधारित हैं। हम अपनी ज्ञानेंद्रियों के जरिए ये अवलोकन करते हैं और गणितीय औज़ारों की मदद से इनका विश्लेषण करते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दृष्टिहीनों में दिमाग का अलग ढंग से उपयोग

हाल मानव मस्तिष्क को अपने हर एक भाग को नए कार्यों के लिए आवंटित करना बखूबी आता है। दृष्टि जैसी अनुभूति के अभाव में मस्तिष्क दृष्टि से सम्बंधित क्षेत्र को ध्वनि या स्पर्श जैसे नए इनपुट संभालने के लिए अनुकूलित कर लेता है। कई दृष्टिहीन लोग मुंह से कुछ आवाज़ें निकालते हैं और उनकी प्रतिध्वनियों की मदद से वस्तुओं की स्थिति का अंदाज़ लगाते हैं। ऐसे व्यक्तियों पर हाल ही में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि मस्तिष्क में बेकार पड़े हिस्सों का उपयोग काफी उच्च स्तर पर किया जाता है। पता चला है कि प्रारंभिक रूप से दृश्य प्रसंस्करण के लिए समर्पित मस्तिष्क क्षेत्र उन्हीं सिद्धांतों का उपयोग करके प्रतिध्वनियों की व्याख्या कर लेता है जैसे आंखों से मिले संकेतों की व्याख्या की जाती है।    

दृष्टि वाले लोगों में, रेटिना (दृष्टिपटल) के संदेशों को मस्तिष्क के पीछे वाले क्षेत्र (प्राइमरी विज़ुअल कॉर्टेक्स) में भेजा जाता है। हम जानते हैं कि मस्तिष्क के इस क्षेत्र की जमावट हमारे चारों ओर के वास्तविक स्थान की जमावट से मेल खाती है। हमारे पर्यावरण में पास-पास के दो बिंदुओं की छवि हमारे रेटिना पर पास-पास के बिंदुओं पर बनती है और इसके संदेश प्राइमरी विज़ुअल कॉर्टेक्स के भी पास-पास के बिंदुओं को सक्रिय करते हैं। शोधकर्ता यह जानना चाहते थे कि क्या दृष्टिहीन लोग प्राइमरी विज़ुअल कॉर्टेक्स में दृष्टि-आधारित स्थान मानचित्रण की तर्ज़ पर ही प्रतिध्वनियों का प्रोसेसिंग करते हैं।       

इसके लिए शोधकर्ताओं ने दृष्टिहीन और दृष्टि वाले लोगों से कुछ रिकॉर्डिंग सुनने को कहा। यह रिकॉर्डेड आवाज़ें दरअसल कमरे के अलग-अलग स्थानों पर रखी वस्तुओं से टकराकर आ रही थी। इस दौरान मस्तिष्क की गतिविधि को समझने के लिए उन लोगों को मैग्नेटिक रेजोनेंस इमेजिंग (एमआरआई) स्कैनर में रखा गया था। शोधकर्ताओं ने प्रतिध्वनि का उपयोग करने वाले लोगों के प्राइमरी विज़ुअल कॉर्टेक्स में उसी प्रकार की सक्रियता देखी जैसी दृष्टि वाले लोगों में दृश्य संकेतों से होती है।     

प्रोसीडिंग ऑफ द रॉयल सोसाइटी-बी की रिपोर्ट से लगता है कि विज़ुअल कॉर्टेक्स की स्थान मानचित्रण क्षमता का उपयोग एक अलग अनुभूति के लिए किया जा सकता है। किसी व्यक्ति में सुनने और स्थान मानचित्रण की इस मस्तिष्क क्रिया के बीच जितनी अधिक समरूपता रही, वस्तुओं की स्थिति के अनुमान में भी उतनी ही सटीकता दिखी। इस शोध से तंत्रिका लचीलेपन का खुलासा हुआ है जिससे मस्तिष्क को स्थान सम्बंधी जानकारी का उपयोग करने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है भले ही वह आंखों के माध्यम से प्राप्त न हुई हो। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कई ततैयों को काबू में करती है क्रिप्ट कीपर

ई परजीवी अपने मेज़बान के व्यवहार में बदलाव करते हैं ताकि वे अपना जीवन चक्र पूरा कर सकें। अब तक ऐसा लगता था कि कोई भी परजीवी एक मेज़बान या मेज़बानों की करीबी प्रजातियों के व्यवहार में ही बदलाव करते हैं। लेकिन हालिया अध्ययन बताते हैं कि क्रिप्ट कीपर नाम की ततैया (Euderus set) 6 से भी अधिक प्रजातियों की ततैयों को अपना मेज़बान बनाती है और उनके व्यवहार में परिवर्तन करती है।

आम तौर पर क्रिप्ट कीपर ततैया बैसेटिया पैलिडा (Bassettia pallida) नामक ततैयों को अपना मेज़बान बनाती है। बैसेटिया पैलिडा ओक के पेड़ की शाखाओं या तने पर अंडे देती है, और उस स्थान पर गॉल (ट्यूमरनुमा उभार) बना देती है। गॉल के अंदर ही इस ततैया के लार्वा बड़े होते हैं और वयस्क होने पर ये गॉल की दीवार भेदकर बाहर निकल आते हैं।

लेकिन बैसेटिया पैलिडा के इस सामान्य व्यवहार में फर्क तब पड़ता है जब क्रिप्ट कीपर ततैया इन गॉल में अपने अंडे दे देती है। क्रिप्ट कीपर के लार्वा या तो बैसेटिया पैलिडा के लार्वा साथ ही बड़े होते हैं या उसके लार्वा के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। जब बैसेटिया पैलिडा गॉल की दीवार को भेदकर बाहर आने के लिए छेद बनाती है तो क्रिप्ट कीपर ततैया के लार्वा बैसेटिया पैलिडा के दिमाग पर नियंत्रण कर या उन्हें कमज़ोर कर उनके व्यवहार में इस तरह बदलाव करते हैं कि वह बाहर निकलने वाला छेद छोटा बनाती हैं। इस छोटे छेद में बैसिटिया पैलिडा का सिर बॉटल में कार्क की तरह फंस जाता है और वह उस छेद से बाहर नहीं निकल पाती। तब क्रिप्ट कीपर के लार्वा उस ततैया के शरीर को चट करके उसके सिर को भेद कर बाहर निकल आते हैं। क्रिप्ट कीपर ततैया के लार्वा के लिए गॉल की तुलना में सिर को भेदना ज़्यादा आसान होता है क्योंकि गॉल की तुलना में सिर ज़्यादा नर्म होता है।

यह जानने के लिए कि क्रिप्ट कीपर ततैया के कितने मेज़बान हैं, शोधकर्ताओं ने कुछ क्रिप्ट कीपर ततैया और 23,000 गॉल एकत्रित किए जिनमें ओक गॉल ततैया की 100 से भी अधिक प्रजातियां थीं। शोधकर्ताओं ने इन गॉल में क्रिप्ट कीपर ततैयों को बड़ा किया। बॉयोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक 6 अलग-अलग प्रजातियों की 305 से भी अधिक ततैयों को क्रिप्ट कीपर ने मेज़बान बनाया था जो एक-दूसरे की करीबी प्रजातियां नहीं थीं। यह भी देखा गया कि क्रिप्ट कीपर ततैया उन गॉल को खास तवज्जो देती है जिन पर फर या कांटे ना हों। (स्रोत फीचर्स) 
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या रंगों को सब एक नज़र से देखते हैं

म तौर पर पीले रंग को खुशी और उमंग जैसी भावनाओं के साथ जोड़कर देखा जाता है। लेकिन जर्नल ऑफ एनवॉयरमेंटल साइकोलॉजी में प्रकाशित ताज़ा अध्ययन बताता है कि सभी लोग पीले रंग को सुखद एहसास या अनुभूति के साथ जोड़कर नहीं देखते।

दरअसल शोधकर्ता यह जानना चाहते थे कि रंगों के साथ भावनाओं के जुड़ाव में कौन से कारक भूमिका निभाते हैं। यह जानने के लिए उन्होंने एक नई परिकल्पना को जांचा कि क्या किसी खास रंग से उमड़ने वाली भावनाओं को आसपास का भौतिक परिवेश प्रभावित करता है। उदाहरण के लिए क्या ठंडे या बरसाती इलाके फिनलैंड में रहने वाले व्यक्ति में पीले रंग से जो भावनाएं उमड़ती हैं, वे सहारा रेगिस्तान में रहने वाले व्यक्ति से अलग होंगी?

शोधकर्ताओं ने 55 देशों के लगभग 6625 लोगों पर हुए सर्वे के डैटा को देखा। इस सर्वे में लोगों को 12 अलग-अलग रंगों को इस आधार पर अंक देने को कहा गया था कि वे खुशी, गौरव, डर और शर्म जैसी भावनाओं का सम्बंध किस रंग से जोड़ते हैं। 

अध्ययन में शोधकर्ताओं ने सिर्फ पीले रंग से जुड़े डैटा का इस आधार पर विश्लेषण किया कि विभिन्न कारक जैसे धूप की अवधि, दिन की रोशनी की अवधि और वर्षा की मात्रा कैसे लोगों द्वारा रंगों के लिए बताई गई भावनाओं से जुड़ी हैं। लोग पीले रंग के प्रति कैसा अनुभव करते हैं इसका सबसे अधिक सम्बंध दो बातों से देखा गया: वे जहां रहते हैं वहां सालाना कितनी बारिश होती है और वह स्थान भूमध्य रेखा से कितनी दूरी पर है। शोधकर्ताओं ने पाया कि पीले रंग को उमंग से जोड़कर देखने वाले लोगों की संख्या वर्षा वाले इलाकों में अधिक थी और भूमध्य रेखा के नज़दीक कम। इसके अलावा भूमध्य रेखा से दूर रहने वाले लोगों ने उजले रंगों की अधिक सराहना की। मिरुा (गर्म स्थान) में सिर्फ 5.7 लोगों ने पीले रंग को खुशी के साथ जोड़ा जबकि बर्फीले फिनलैंड के 87.7 प्रतिशत लोगों ने पीले रंग को खुशी से जोड़कर देखा। मध्यम जलवायु वाले यू.एस. में पीले रंग और खुशी का जुड़ाव 60-70 प्रतिशत लोगों ने जोड़ा। 

अध्ययन में मौसम परिवर्तन के साथ रंगों में बदलती रुचि पर भी गौर किया गया – क्या किसी इलाके में लोग गर्मियों की बजाय सर्दियों में पीले रंग को ज़्यादा पसंद करते हैं? पाया गया कि रंगों को लेकर लोगों की राय साल भर लगभग एक जैसी ही रहती है। (स्रोत फीचर्स)

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घरेलू ऊर्जा उपभोग: विहंगावलोकन – आदित्य चुनेकर, श्वेता कुलकर्णी

प्रयास (ऊर्जा समूह) ने उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के अर्ध-शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के 3000 घरों में बिजली के अंतिम उपयोग के पैटर्न को समझने के लिए फरवरी-मार्च 2019 में एक सर्वेक्षण किया था। पिछले आलेखों में सर्वेक्षण के आधार पर विभिन्न कार्यों में ऊर्जा खपत की अलग-अलग चर्चा की गई थी। इस आलेख में ऊर्जा के घरेलू उपयोग के मुद्दों को समग्र रूप में प्रस्तुत किया गया है।

र्थिक सर्वेक्षण (2018-19) के अनुसार भारत की वार्षिक प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत 0.6 टन तेल के तुल्य है, जो वैश्विक औसत का लगभग एक तिहाई है। इस सर्वेक्षण में आगे बताया गया है कि यदि भारत को मानव विकास सूचकांक (HDI) को 0.8 तक पहुंचाना है, जो काफी अधिक माना जाता है, तो ऊर्जा खपत को चार गुना बढ़ाना होगा।

आय में वृद्धि, शहरीकरण और टेक्नॉलॉजी में तेज़ी से विकास के चलते आवासीय ऊर्जा उपभोग के स्तर और पैटर्न में काफी बदलाव आने की उम्मीद है। इसलिए इन उभरते हुए पैटर्न का अध्ययन करना काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि ये न सिर्फ मांग को प्रभावित करेंगे बल्कि बढ़ती मांग की आपूर्ति हेतु संसाधनों के नियोजन को भी प्रभावित करेंगे। फिलहाल, इस बात को लेकर जानकारी बहुत कम है कि भारतीय परिवार ऊर्जा का उपयोग कैसे करते हैं।

भारत में राष्ट्रीय स्तर पर आवासीय ऊर्जा खपत सर्वेक्षण (आरईसीएस) नहीं किया जाता है। ऐसे सर्वेक्षणों से कई देशों को अपने परिवारों, घरों की विशेषताओं और खपत के पैटर्न को समझने में काफी मदद मिली है। हमारे यहां जनगणना और उपभोक्ता वस्तुओं से सम्बंधित नमूना सर्वेक्षण जैसे राष्ट्रीय स्तर के सर्वेक्षणों के माध्यम से विभिन्न उपकरणों के स्वामित्व और अलग-अलग कामों के लिए र्इंधन के अंतिम उपयोग का डैटा इकट्ठा किया जाता है। अलबत्ता, इनमें उपकरणों की दक्षता, प्रकार, आयु और उपयोग की विस्तृत जानकारी एकत्र नहीं की जाती है और न ही यह पता किया जाता है कि इस मामले में सम्बंधित नीतियों के प्रति जागरूकता कितनी है और उनका प्रभाव क्या है। यह जानकारी विभिन्न अंतिम उपयोगों के उपकरणों के स्वामित्व और उनके उपयोग के पैटर्न का आकलन करने और सरकारी नीतियों/कार्यक्रमों की प्रभावशीलता का मूल्यांकन करने लिए ज़रूरी है।  

प्रयास (ऊर्जा समूह) द्वारा उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के 3000 अद्र्ध शहरी और ग्रामीण परिवारों में विस्तृत आवासीय ऊर्जा खपत सर्वेक्षण के निष्कर्ष कुछ जानकारी व समझ प्रदान करते हैं जो नीतिगत निर्णयों में सहायक हो सकती है। कुल मिलाकर, सर्वेक्षण के निष्कर्षों से पता चलता है कि बुनियादी ज़रूरतों के लिए उपयोग की जाने वाली ऊर्जा की मात्रा परिवार की आय, भौगोलिक स्थिति और आवास के स्थान के आधार पर अलग-अलग होती है। बुनियादी ज़रूरतों में प्रकाश व्यवस्था, घर को ठंडा रखना, रेफ्रिजरेशन और खाना पकाना शामिल हैं। यह भी देखा गया कि घरों में ऊर्जा की खपत बिजली आपूर्ति की विश्वसनीयता, उपकरण की दक्षता और खाना पकाने के लिए स्वच्छ र्इंधन की उपलब्धता से तय होती है।  

प्रकाश व्यवस्था बिजली का सबसे बुनियादी उपयोग है और इस संदर्भ में सकारात्मक बात यह सामने आई है कि उत्तर प्रदेश में 80 प्रतिशत से अधिक और महाराष्ट्र में 60 प्रतिशत घरों में कार्यक्षम एलईडी का उपयोग किया जाता है। उजाला कार्यक्रम ने प्रकाश उपकरण के बाज़ार में एलईडी के प्रति जागरूकता बढ़ाकर और इसके बाज़ार मूल्य को नीचे लाकर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हमारे सर्वेक्षण में अधिकतर परिवारों ने एलईडी खरीदने का प्राथमिक कारण उनकी गुणवत्ता को बताया। इसलिए बाज़ार के इस बदलाव को बनाए रखने के लिए अच्छी गुणवत्ता वाले एलईडी बल्ब की उपलब्धता सुनिश्चित करने पर ध्यान देने की ज़रूरत है।

घर को ठंडा रखने के लिए छत के पंखे सबसे अधिक उपयोग किए जाने वाले उपकरण हैं। वैसे, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में मध्यम और उच्च आय वाले घरों में एयर कूलर और एयर कंडीशनर की उपस्थिति भी देखी गई है। यह मानकर कि जैसे-जैसे गर्मी बढ़ती जाएगी, घरों में माहौल को अनुकूल बनाने के उपकरणों की आवश्यकता बढ़ेगी। चूंकि छत के पंखे और एयर कूलर स्थानीय स्तर पर बनाए और बेचे जाते हैं, इनके प्रदर्शन का मूल्यांकन और सुधार करने के लिए विशिष्ट प्रयासों की आवश्यकता होगी।

हालांकि रेफ्रिजरेटर का स्वामित्व काफी अधिक है, उनका उपयोग खाना पकाने के तरीकों से निर्धारित होता है। हमारे सर्वेक्षण से पता चलता है कि रेफ्रिजरेटर की उपस्थिति तो काफी अधिक है लेकिन उनका उपयोग सीमित ही है।

खाना पकाने के लिए ऊर्जा घरों की सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकताओं में से एक है और इस ज़रूरत की आपूर्ति विभिन्न र्इंधनों से हो रही है। सर्वेक्षण के मुताबिक दोनों राज्यों में 90 प्रतिशत से अधिक सर्वेक्षित घरों में एलपीजी कनेक्शन हैं। लेकिन विशेष रूप से उत्तर प्रदेश के कई घरों में खाना बनाने के लिए आंशिक रूप से या पूर्णत: ठोस र्इंधन का उपयोग किया जाता है। उत्तर प्रदेश के लगभग 45 प्रतिशत और महाराष्ट्र के लगभग 12 प्रतिशत सर्वेक्षित घरों में खाना पकाने के लिए आंशिक रूप से या पूरी तरह ठोस ईंधन का उपयोग किया जाता है। अधिकांश परिवारों को लगता है कि पूरा खाना पकाने की दृष्टि से एलपीजी काफी महंगा है। कई परिवारों ने बताया कि उन्हें चूल्हे पर पका खाना पसंद है। खाना पकाने के लिए ठोस र्इंधन के उपयोग को खत्म करके उनकी जगह एलपीजी या अन्य स्वच्छ र्इंधनों के उपयोग को बढ़ावा देने और उन्हें एकमात्र र्इंधन बनाने हेतु आर्थिक और व्यवहारगत दोनों तरह के हस्तक्षेपों की आवश्यकता है।

इसके साथ ही, इन घरों में पानी गर्म करने के लिए आम तौर पर ठोस र्इंधन का उपयोग किया जाता है जो अंदरूनी या स्थानीय (गांव स्तर के) वायु प्रदूषण का कारण बनता है। उत्तर प्रदेश के लगभग 37 प्रतिशत और महाराष्ट्र के लगभग 91 प्रतिशत घरों में पानी गर्म करने के लिए ठोस र्इंधन का उपयोग किया जाता है जबकि इन घरों में खाना पकाने के लिए एलपीजी का उपयोग किया जाता है। बिजली, एलपीजी या सौर वाटर हीटर जैसे विकल्पों को बढ़ावा देने के लिए हस्तक्षेप करने से पहले सावधानीपूर्वक इनका मूल्यांकन करने की आवश्यकता है।

इस तरह की सूझबूझ से विस्तृत आवासीय ऊर्जा खपत सर्वेक्षण का महत्व स्पष्ट है। समय-समय पर राष्ट्रीय और उप-राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी प्रतिनिधिमूलक जानकारी एकत्र करना भारत में तेज़ी से बदलती ऊर्जा की घरेलू मांग के प्रबंधन के लिए नीतियों के निर्माण और उनका मूल्यांकन करने के लिए महत्वपूर्ण है। नवगठित राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय, जिसमें राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन शामिल है, समय-समय पर इस तरह के व्यापक सर्वेक्षण कर सकता है, जैसे वह पारिवारिक खर्च, आवास की स्थिति, स्वास्थ्य और अन्य मामलों में करता है।

प्रथम दृष्टि में इस सर्वेक्षण से पता चलता है कि दोनों राज्यों के घरों में लगभग 60 प्रतिशत ऊर्जा खपत खाना पकाने, लगभग 16 प्रतिशत पानी गर्म करने और 9 प्रतिशत घर को ठंडा रखने के लिए खर्च की जाती है। इस बात का विश्लेषण आगे किसी लेख में करेंगे कि ऊर्जा की यह मांग र्इंधन के प्रकार, परिवार की आमदनी और उसके ग्रामीण या शहरी होने के साथ कैसी नज़र आती है।  (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या शिक्षा प्रणाली भारत को महाशक्ति बना पाएगी? – डॉ. गायत्री सबरवाल

ई लोगों का मानना है कि भारत अपने उच्च सकल घरेलू उत्पाद के साथ एक महाशक्ति बनने की उम्मीद कर सकता है। चाहे कोई महाशक्ति बनने की इस लालसा में साझेदार न हो, लेकिन इतना लगभग निश्चित है कि देश को निश्चित रूप से एक ज्ञान-संपन्न अर्थव्यवस्था होना चाहिए, भले ही वह ज्ञान-संचालित न हो। और ज्ञान उत्पन्न करने और इस ज्ञान का सृजन करने व उपयोग करने वाली प्रतिभा का पोषण करने का नज़दीकी सम्बंध शिक्षा प्रणाली से है। इसलिए चलिए हम अपनी शिक्षा प्रणाली पर विचार करें और अन्यत्र विचारकों द्वारा सामान्य रूप से शिक्षा पर की गई टिप्पणियों पर नज़र डालें।

जाने माने जीव विज्ञानी ग्रेगरी पेट्सको ने कुछ वर्ष पहले स्टेट युनिवर्सिटी ऑफ न्यूयॉर्क (एसयूएनवाय) के अध्यक्ष को एक व्यंग्यात्मक खुला पत्र लिखा। इस पत्र में उन्होंने एसयूएनवाय में क्लासिक्स, फ्रेंच, इतालवी, रूसी और थिएटर के विभागों को बंद करने के फैसले पर अपने विचार रखे थे। (क्लासिक्स से आशय प्राचीन ग्रीक व लैटिन साहित्य, दर्शन और इतिहास के अध्ययन से है।) पेट्सको ने बताया कि जीव विज्ञान में आने से पहले किस प्रकार उन्होंने क्लासिक्स में शिक्षा प्राप्त की थी और फिर अपना ध्यान जीव विज्ञान की ओर मोड़ा था और आगे चलकर वे जैव रसायन और रसायन विज्ञान के प्रोफेसर बने थे। उन्होंने कहा कि क्लासिक्स में प्रशिक्षण उनकी शिक्षा के सबसे महत्वपूर्ण घटकों में से एक था। उस प्रशिक्षण ने उन्हें सोचने, विश्लेषण करने और लिखने की समझ प्रदान की जो उन्हें विज्ञान शिक्षा से प्राप्त नहीं हुई थी। इन्हीं की मदद से वे एक बेहतर वैज्ञानिक बन सके। जीनोम बायोलॉजी में पेट्सको के वैचारिक आलेख काफी जाने-माने हैं, और क्लासिक्स में उनके प्रशिक्षण और रुचि के चलते उन्हें विज्ञान और समाज के बारे में लिखने में मदद मिलती रही है। कई सारे वैज्ञानिक यह नहीं कर पाते हैं। यूएस नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस के सदस्य होने के अलावा उन्हें दी अमेरिकन फिलॉसॉफिकल सोसाइटी का सदस्य भी चुना गया जो किसी वैज्ञानिक के लिए एक दुर्लभ सम्मान है।

कुछ मुख्य बिंदु जो पेट्सको ने अपने पत्र में उठाए थे, वे इस प्रकार हैं: (क) विश्वविद्यालय के किसी विभाग को केवल इसलिए बंद नहीं कर देना चाहिए क्योंकि वह प्रासंगिक नहीं दिखता। यही सोचकर अमेरिका में कई वायरोलॉजी (वायरस विज्ञान) विभाग बंद कर दिए गए थे, और जब एचआईवी/एड्स संकट आया तो इस बीमारी से निपटने के लिए अमेरिका को देश में बचे-खुचे वायरोलॉजिस्ट खोजने में काफी मशक्कत करनी पड़ी थी। (ख) किसी विभाग को केवल इसलिए भी बंद नहीं कर देना चाहिए क्योंकि वह आर्थिक रूप से स्वावलंबी नहीं हो सकता। किसी विश्वविद्यालय का उद्देश्य केवल ज्ञान उत्पन्न करना नहीं होता है बल्कि ज्ञान संरक्षण भी होता है। अमेरिका के अधिकांश शैक्षणिक संस्थानों में अरबी और फारसी भाषा के पाठ्यक्रम या सामान्यत: मध्य-पूर्व में कोई रुचि नहीं ली जाती थी, लेकिन 11 सितम्बर 2011 के बाद अचानक सबको लगा कि काश उनके पास इस मामले में ज़्यादा जानकारी होती तो वे समझ पाते कि हो क्या रहा है। (ग) यदि एसयूएनवाय केवल व्यावहारिक उपयोगिता के पाठ्यक्रमों पर ध्यान केंद्रित करे, तो उसे खुद को एक हुनर शाला या व्यावसायिक स्कूल कहना चाहिए, विश्वविद्यालय तो कदापि नहीं।

अब मैं एक बेहतरीन दार्शनिक और तर्कशास्त्री बरट्रैंड रसेल की बात करना चाहूंगी। अपने शोध कार्यों से हटकर, उनकी रुचि सामाजिक मुद्दों पर भी रही और उन्होंने काफी विवादास्पद दृष्टिकोण भी प्रस्तुत किए। प्रथम विश्व युद्ध का विरोध करने के कारण उनको एक गद्दार के रूप में देखा गया और उन्हें कुछ समय के लिए जेल भी जाना पड़ा। लेकिन कुछ ही वर्षों बाद, उनकी गिनती 20वीं शताब्दी के सबसे महत्वपूर्ण विचारकों में हुई और 1950 में उन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। दिलचस्प बात यह है कि यह पुरस्कार उनके अपने विषयगत शोध कार्य के लिए नहीं बल्कि विचारों की स्वतंत्रता की हिमायत के लिए मिला था। 1950 में रसेल ने निबंधों का एक संग्रह (रसेल, बी., अनपॉपुलर एसेस, रूटलेज क्लासिक्स, भारतीय पुनर्मुद्रण, 2010) प्रकाशित किया था, जिसमें एक लेख का शीर्षक ‘दी फंक्शन्स ऑफ ए टीचर’ था। उसके कुछ बिंदु इस प्रकार हैं: आधुनिक समय का शिक्षक एक लोक सेवक बन गया है जो सरकार का प्रचारक है। उन्होंने कहा कि हालांकि शिक्षण के दौरान बच्चों को आवर्त सारणी जैसी निर्विवाद जानकारी पढ़ाना ज़रूरी है लेकिन इससे केवल तकनीकी रूप से कुशल छात्र ही तैयार होंगे। और इस तरह का शिक्षण तो शिक्षा का वह बुनियादी पहलू है जिसे शिक्षकों को पूरा करना चाहिए। सरकारें यह जानती हैं कि शिक्षक कितने शक्तिशाली होते हैं, आखिर वे युवाओं को सिखाते हैं कि कैसे सोचें। अब इसमें या तो विवादास्पद विषयों पर खुली सोच प्रदान की जा सकती है, जैसा कि अपेक्षाकृत खुली सोच वाले समाजों में होता है, या फिर एक विशेष दृष्टिकोण की घुट्टी पिलाई जा सकती है जैसा नाज़ी जर्मनी में हुआ करता था। शिक्षक को खोजबीन की भावना को बढ़ावा देना चाहिए, और यदि ऐसा करते हुए एक ऐसी समझ उभरती है जो राज्य से भिन्न है तो इसके लिए कोई दंड नहीं होना चाहिए।

हमारे अपने विश्वविद्यालयों में क्या स्थिति है? प्रसिद्ध शिक्षाविद और टिप्पणीकार, दिल्ली विश्वविद्यालय के कृष्ण कुमार ने दी हिन्दू (2 अगस्त, 2012) में प्रकाशित एक लेख ‘युनिवर्सिटीज़, अवर्स एंड देयर्स’ में पश्चिमी और भारतीय विश्वविद्यालयों के परिदृश्य की तुलना की थी। उन्होंने दोनों को अलग करने वाले कई अंतरों की पहचान करते हुए हर एक पर टिप्पणी की थी। उन्होंने सबसे पहले उत्कृष्टता पर ज़ोर की बात को लिया। पश्चिमी प्रणाली में यह सुनिश्चित करने की विस्तृत प्रक्रियाएं हैं जिससे विश्वविद्यालय में फैकल्टी के तौर पर सबसे बढ़िया उपलब्ध प्रतिभा को भर्ती किया जाए। यह भर्ती प्रक्रिया बाहरी दबाव से परे है जो इसको कमज़ोर कर सकता है। यह प्रक्रिया उम्मीदवार में बहु-विषयी या विषय-पार रुचि पर ज़ोर देती है। भारतीय विश्वविद्यालयों में नियुक्तियों को नियम-कानूनों और बाहरी प्रभावों में इतना उलझा दिया जाता है कि इसका असर चयन की उत्कृष्टता पर पड़ता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई बहु-विषयी योग्यता वाला उम्मीदवार एक आयु सीमा पार कर चुका होता है तो चयन प्रक्रिया उसके लिए बाधक बन जाती है। दूसरा अंतर यह है कि भारत में इस बात पर काफी ज़ोर दिया जाता है कि कोई शिक्षक कक्षा में प्रति सप्ताह कितने घंटे बिताता है। इसी तरह छात्रों की उपस्थिति पर काफी ज़ोर दिया जाता है। ऐसे नियम दोनों के ही लिए हैं और हर कोई इन नियमों का पालन करता है, यह जाने बिना कि वास्तव में कक्षा के अंदर होता क्या है। कृष्ण कुमार ब्रिटेन में एक शिक्षण संस्थान द्वारा संचालित पाठ्यक्रम की मूल्यांकन समिति के सदस्य रहे थे। अपने उस अनुभव के आधार पर उन्होंने अपने यहां की उक्त प्रणाली पर टिप्पणी की है। समिति ने पाठ्यक्रम से संबंधित दस्तावेज़ों – उस वर्ष प्रत्येक कक्षा सत्र का विवरण और छात्रों की लिखित प्रतिक्रिया – के अध्ययन के अलावा पाठ्यक्रम के विभिन्न पहलुओं पर अलग-अलग छात्रों और प्राध्यापकों से व्यापक चर्चा की। उन्होंने पाया कि कक्षा को उत्साहवर्धक और संभवत: मनोरंजक होना चाहिए। यह तो संभव ही नहीं है कि यदि कोई शिक्षक अपने अध्यापन में पर्याप्त ज्ञान,उत्साह और नवीनता न लाए, तो उसे छात्रों से अच्छी प्रतिक्रिया मिलेगी। तीसरा अंतर पश्चिमी देशों के लगभग सभी महाविद्यालयों में अनुसंधान पर ज़ोर देने से सम्बंधित है। कृष्ण कुमार ने देखा कि विश्वविद्यालय द्वारा निर्धारित एक निश्चित पाठ्यक्रम का सवाल ही नहीं उठता जो कई दशकों तक जस का तस चलता रहे, जैसा कि अक्सर भारत में देखने को मिलता है। इसके अलावा, हमारे यहां प्रचलित रटंत आधारित परीक्षाएं ब्रिटेन में नहीं हैं। नितिन पाई ने बिज़नेस स्टैण्डर्ड में 13 जुलाई 2018 के एक आलेख में एक दिलचस्प बात बताई है कि चीन में महाविद्यालय में प्रवेश का आवेदन देने से पहले छात्रों को एक विचार आधारित परीक्षा, गाओकाओ, देनी होती है। प्राध्यापक जिस क्षेत्र में अनुसंधान करते हैं वे उसी क्षेत्र से जुड़े विषय पढ़ाते हैं ताकि छात्रों को ऐसे सवाल पूछने को प्रेरित कर सकें जिनके जवाब अनुसंधान से दिए जा सकें। यह केवल पूर्व ज्ञान अर्जित करने की शिक्षा नहीं है बल्कि उस ज्ञान को बनाने में मदद करने या उस ज्ञान को उत्पन्न करने की प्रक्रिया में भाग लेने की बात है जो शिक्षा के लिए महत्वपूर्ण है।

एक अन्य लेख (दी ब्लेक न्यू एकेडमिक सिनारियो, दी हिन्दू, 26 मई 2017) में कृष्ण कुमार ने उदारीकरण की प्रक्रिया के बाद से भारत में उच्च शिक्षा की स्थिति पर ध्यान केंद्रित किया है। हालांकि, तब तक केंद्र और राज्य दोनों सरकारों ने शिक्षा के क्षेत्र में काफी बड़ी भूमिका निभाई थी, लेकिन जब 1991 में भारत को कर्ज़ देने वालों को लगा कि भारत की अर्थव्यवस्था में ढांचागत समायोजन की ज़रूरत है, तब जल्दी ही यह स्पष्ट हो गया कि उच्च शिक्षा को बड़े पैमाने पर खुद को संभालना होगा। इस शर्त ने स्वाभाविक रूप से उन पाठ्यक्रमों की पेशकश करने को प्रेरित किया जो बिक्री योग्य कौशल प्रदान करते हैं। जैसे-जैसे विश्वविद्यालयों ने वित्तीय संकट महसूस किया, उन्होंने अपनी आय बढ़ाने के लिए ऐसे पाठ्यक्रमों की ओर रुख किया। इसके अलावा, ‘स्थायी’ प्राध्यापकों की सिकुड़ती संख्या की वजह से शिक्षकों की जो कमी हुई उसे भरने के लिए तदर्थ शिक्षकों को जोड़ा गया। (यह स्थिति फिनलैंड से कितनी अलग है, जहां शिक्षक होना सबसे प्रतिष्ठित काम है। और हो भी क्यों न, आखिर वे अगली पीढ़ी को शिक्षित कर रहे हैं जो देश कि संपदा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है)। कोई विश्वविद्यालय जिस हद तक अपने छात्रों में सोचने, विश्लेषण करने, और अपने मतों के लिए जानकारी एकत्र करने की कुशलता को तराशने के लिए विचार-विमर्श और असहमति को बढ़ावा देता है, उसी हद तक वह स्वतंत्र आवाज़ों वाले युवा तैयार करता है। ये आवाज़ें अक्सर उनके आसपास की दुनिया के लिए महत्वपूर्ण होती हैं। ये आवाज़ एक स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकती हैं लेकिन भारत के राजनेता आम तौर पर ऐसे विश्वविद्यालयों को लेकर बिदकते रहे हैं जो दुनिया के व्यापक परिप्रेक्ष्य के साथ इस तरह की उदार शिक्षा प्रदान करना चाहते हैं। यह बात तो स्पष्ट है कि उच्च शिक्षा जितनी अधिक स्व-वित्तपोषण के भरोसे होती जाएगी उतने ही कम युवा इस तरह से प्रशिक्षित हो पाएंगे क्योंकि ऐसे में शिक्षा केवल उपयोगितावादी होकर रह जाएगी। अलबत्ता, पिछले कुछ दशकों से विश्वविद्यालयों को ऐसी बिगड़ती स्थिति से बचाने के लिए किसी भी सरकार या राजनैतिक दल द्वारा कोई प्रयास नहीं किया गया है।

अपनी बात खत्म करने से पहले मैं एक मानव विज्ञानी के एक लेख के बारे में बताना चाहूंगी जो किसी सर्वथा भिन्न विषय पर लिखा गया था। “… काला आदमी समझ गया कि… गोरों के बीच उसे अपने ऊपर आरोपित स्थान के अनुरूप ही व्यवहार करना पड़ेगा और उसे बार-बार ‘उसकी हैसियत याद दिलाई जाती थी’। उसने सीखा कि गोरे लोगों के बीच आक्रोश, निराशा, असंतोष, गर्व, महत्वाकांक्षा या हसरतों की भावनाएं दिखाना अस्वीकार्य है और उन वास्तविक भावनाओं को मासूमियत, अज्ञानता, बचकानेपन, आज्ञाकारिता, विनम्रता और सम्मान के मुखौटे के पीछे छिपाना पड़ेगा।” ( थॉमस कोचमैन, ‘रैपिंग इन दी ब्लैक घेटो’, दी प्लेज़र्स ऑफ एन्थ्रोपोलॉजी, 1983 में)। हमारी कक्षाओं और प्रयोगशालाओं में यह घटना कितनी आम है और ज्ञान उत्पन्न करने के संदर्भ में इसकी क्या कीमत है?

यदि भारत गंभीरता से महाशक्ति बनने की इच्छा रखता है, तो इसकी संभावना केवल एक शीर्ष ज्ञान उत्पादक देश बनकर ही हो सकती है। ऐसा देश बनने के लिए उसे अपने लोगों में बचपन से ही स्वतंत्र खोजबीन की आदतें विकसित करनी होंगी, इस बात की परवाह किए बगैर कि यह खोजबीन उन्हें कहां ले जाएगी। अगर ऐसी खोजबीन के बाद छात्र इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि भारत को निकट भविष्य में महाशक्ति बनने का लक्ष्य नहीं रखना चाहिए और उससे पहले हासिल करने को कई सारे महत्वपूर्ण लक्ष्य हैं, तो यह बड़ी विडंबना होगी, हालांकि मेरे लिए कोई अचंभे की बात नहीं होगी।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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व्याख्यान के दौरान झपकी क्यों आती है? – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

भारत सितंबर महीना खत्म होने को है और भारत में सेमीनार और सम्मेलनों के आयोजन का मौसम शुरू हो गया है। आम तौर पर कॉन्फ्रेंस में एक व्यापक विषयवस्तु पर विविध विषयों के विशेषज्ञों को आमंत्रित किया जाता है। दूसरी ओर, सेमीनार में किसी एक खास विषय या उपविषय के विशेषज्ञों को आमंत्रित किया जाता है जो मिलकर उस विषय पर विचारों का आदान-प्रदान और समीक्षा करते हैं। सम्मेलनों में श्रोता या प्रतिभागी किसी ऐसे विषय पर तकरीरें सुनते हैं जिससे वे परिचित नहीं हैं। इस तरह से यह उनके लिए सीखने का एक अवसर होता है। विशेष-थीम पर केंद्रित सेमीनार में प्रतिभागी सेमीनार में मात्र श्रोता नहीं होते, वे उस विषय से परिचित होते हैं और विषय की बारीकियां सुनते हैं, जिसमें से वे कुछ नया सीखते हैं, सराहते हैं और उससे कुछ ग्रहण करते हैं। इस तरह सम्मेलन और सेमीनार दोनों उपयोगी होते हैं।

लेकिन इसका एक नकारात्मक पहलू भी है। प्रस्तुतीकरण या तकरीर के दौरान कुछ या कई श्रोता सिर हिलाते-हिलाते ऊंघने लगते हैं और झपकी ले लेते हैं। इसे नॉड ऑफ कहते हैं। इस संदर्भ में 15 साल पहले (दिसंबर 2004 में) केनेडियन मेडिकल एसोसिएशन जर्नल में के. रॉकवुड और साथियों द्वारा प्रकाशित शोध पत्र में बताया गया था कि व्याख्यानों के दौरान श्रोता ऐसा क्यों करते हैं, कितनी दफा करते हैं और झपकी आने के क्या कारक हैं। इस हास्यपूर्ण और व्यंग्यात्मक शोधपत्र में उन्होंने बताया था कि कैसे उन्होंने चुपके से एक ही समूह का लगातार (कोहॉर्ट) अध्ययन किया जिसमें उन्होंने पता लगाया कि वैज्ञानिक मीटिंग के दौरान श्रोता-चिकित्सक कितनी बार झपकी लेते हैं, और झपकी आने के पीछे क्या कारक हो सकते हैं।

एक दो-दिवसीय व्याख्यान, जिसमें तकरीबन 120 लोग शामिल हुए थे, के अध्ययन में उन्होंने पाया कि प्रत्येक 100 प्रतिभागी पर प्रति व्याख्यान झपकी की संख्या (नॉडिंग ऑफ इवेंट पर लेक्चर, एनओईएल) 15-20 मिनट के व्याख्यान के दौरान 10 रही, लेकिन व्याख्यान 30-40 मिनट का होने पर बढ़कर तकरीबन 22 हो गई थी। अर्थात जितना लंबा व्याख्यान उतनी अधिक झपकी संख्या (एनओईएल)।

अध्ययन में यह भी पता चला कि झपकी-प्रेरित सिर हिलाना और वक्ता की बात से सहमति पर सिर हिलाना एकदम अलग-अलग हैं। इनमें सिर हिलाने का तरीका, समय और आवृत्ति अलग-अलग होती है।

ऐसा क्यों होता है? और किन कारणों से होता है? इसके कई कारक सामने आए और ये कारक हैं माहौल (जैसे मद्धिम रोशनी, कमरे का तापमान, आरामदायक बैठक व्यवस्था), दृश्य-श्रव्य गड़बड़ी (जैसे खराब स्लाइड, माइक्रोफोन पर ना बोलना), शरीर की दैनिक लय (सुबह-सुबह के समय, भोजन के बाद या भारी नाश्ता या लंच के बाद नींद आना) और वक्ता सम्बंधी कारण (जैसे नीरस तरीके से बोलना या उबाऊ भाषण)।

आजकल तो सेमीनार या सम्मेलनों में कई श्रोता मोबाइल, लैपटॉप वगैरह साथ लेकर जाते हैं। हालांकि आयोजकों की ओर से निर्देश दिए जाते हैं कि व्याख्यान के दौरान मोबाइल फोन या तो बंद कर दिए जाएं या साइलेंट मोड पर रखे जाएं लेकिन व्याख्यान उबाऊ लगने पर श्रोता अपने मोबाइल या लैपटॉप में मशगूल हो जाते हैं, जिससे व्याख्यान के दौरान झपकी की संख्या (एनओईएल) में कमी दिखती है। जब आयोजकों ने व्याख्यान के दौरान मोबाइल या लैपटॉप का इस्तेमाल ना करने पर सख्ती दिखाई तो व्याख्यान के दौरान झपकी की संख्या में वृद्धि भी देखी गई।

अध्ययन में आगे अध्ययनकर्ताओं ने झपकी लेने वालों को टोका और अदब के साथ उनसे पूछा कि उन्हें झपकी क्यों आई। पहले तो जब उन्हें यह बताया गया कि इस व्याख्यान के दौरान सिर्फ उन्हें ही नहीं अन्य लोगों को भी झपकी आई तो उनमें से कई लोगों को इस बात की तसल्ली हुई कि यह उनका दोष नहीं था। जब उनसे यह पूछा गया कि इस तरह के व्याख्यान में क्या वे आगे भी शामिल होंगे तो कुछ ने लोगों ने हां में जवाब दिया और कहा कि उन्हें हमेशा एक झपकी की ज़रूरत रहती है, कुछ ने कहा कि यदि इसके लिए उन्हें भुगतान किया जाएगा तो वे शामिल होंगे और कुछ ने जवाब में दांत दिखा दिए। जब उनसे यह पूछा गया कि झपकी आने के पीछे गलती किसकी थी तो अधिकतर लोगों ने कहा कि पूरी गलती वक्ता की थी जबकि सिर्फ कुछ ही लोगों ने कहा कि गलती उनकी थी।

वक्ताओं को इस अध्ययन से क्या सीखना चाहिए? कैसे वे व्याख्यान में श्रोताओं की रुचि बनाए रखें? स्लाइड, पीपीटी या वीडियो दिखाते समय हॉल की मद्धिम रोशनी जैसे कारकों को तो हटाया नहीं जा सकता। लेकिन हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट इस सम्बंध में काफी उपयोगी सलाह देती है। इसके अनुसार एक आदर्श वक्तव्य में 37 प्रतिशत टेक्स्ट, 29 प्रतिशत चित्र और 33 प्रतिशत वीडियो होना चाहिए। व्याख्यान के इस तरह के बंटवारे को अमल में लाना फायदेमंद हो सकता है और देखा जा सकता है कि यह कैसे काम करता है। व्याख्यान में पीपीटी के चित्र या टेक्स्ट की ऊंचाई-चौड़ाई का अनुपात सही हो (5 × 3), बड़े अक्षर उपयोग किए जाएं ताकि आसानी से पढ़े जा सकें, टेक्स्ट और पृष्ठभूमि के रंग में साफ अंतर हो (काला या नीला पटल होने पर उस पर स्पष्ट दिखते किसी अन्य रंग से लिखा टेक्स्ट)। इसके अलावा वक्ता आहिस्ता, स्पष्ट और माइक पर बोलें। आप कुछ उपयोगी सुझाव इस लिंक पर पढ़ सकते हैं: http://www.med-ed-online.org)

और अब इन झपकियों के पीछे के मस्तिष्क-विज्ञान को बेहतर समझ लिया गया है। चीनी और जापानी वैज्ञानिकों द्वारा हाल ही में प्रकाशित एक पेपर के अनुसार मस्तिष्क में न्यूक्लियस एक्यूम्बेंस नामक हिस्से में यह क्षमता होती है कि वह अणुओं के एक समूह (A2A रिसेप्टर) को सक्रिय कर झपकी प्रेरित कर सकता है। नेचर कम्युनिकेशन में प्रकाशित इस शोध पत्र के मुताबिक मुख्य अणु एडिनोसीन है जो A2A रिसेप्टर को सक्रिय कर देता है और नींद आने लगती है। एडिनोसीन के अलावा अन्य नींद-प्रेरक अणु भी A2A रिसेप्टर पर कार्य करते हैं। नींद की प्रचलित दवाइयां भी A2A रिसेप्टर को सक्रिय करती हैं और नींद लाती हैं। इसके विपरीत कॉफी और चाय में मौजूद कैफीन इस रिसेप्टर को अवरुद्ध करते हैं और आपको जगाए रखते हैं।

तो अगली बार व्याख्यान सुनने जाएं तो एक प्याला कॉफी पीकर जाएं और जागे रहें। और यदि आप व्याख्याता हैं तो उपरोक्त लिंक पर दिए गए सुझावों का लाभ लें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पानी गर्म करने में खर्च ऊर्जा की अनदेखी – आदित्य चुनेकर, श्वेता कुलकर्णी

प्रयास (ऊर्जा समूह) ने उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के अर्ध-शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के 3000घरों में बिजली के अंतिम उपयोग के पैटर्न को समझने के लिए फरवरी-मार्च 2019में एक सर्वेक्षण किया था। यहां उस सर्वेक्षण के आधार पर प्रकाश व्यवस्था के बदलते परिदृश्य की चर्चा की गई है। इस शृंखला में आगे बिजली के अन्य उपयोगों पर चर्चा की जाएगी।

भारत में वर्तमान ऊर्जा नीति में नहाने के लिए पानी गर्म करने में खर्च होने वाली ऊर्जा को अनदेखा किया गया है। ठोस र्इंधन के उपयोग को खत्म करने के उद्देश्य से किए जाने वाले हस्तक्षेपों का ध्यान मूलत: खाना पकाने पर केंद्रित रहा है। अतीत की नीतियों में सौर वॉटर हीटरों पर काफी ध्यान दिया गया था, लेकिन 2014 में सौर वॉटर हीटरों पर सब्सिडी देने वाले एक राष्ट्रीय कार्यक्रम को भी बंद कर दिया गया। दूसरी ओर, ब्यूरो ऑफ एनर्जी एफिशिएंसी (बीईई) के पास स्टोरेज इलेक्ट्रिक वॉटर हीटर के लिए अनिवार्य मानक और लेबलिंग (एस-एंड-एल) कार्यक्रम ज़रूर है। इस आलेख में, हम सर्वेक्षित घरों में पानी गर्म करने के पैटर्न की चर्चा करेंगे और यह देखेंगे कि इनका नीतिगत हस्तक्षेपों के लिए क्या निहितार्थ हो सकता है।

आम तौर पर, महाराष्ट्र की तुलना में उत्तर प्रदेश में सर्दियां अधिक ठंडी होती हैं। लेकिन सर्वेक्षित परिवारों में उत्तर प्रदेश में 34 प्रतिशत जबकि महाराष्ट्र में 92 प्रतिशत घरों में नहाने के लिए गर्म पानी का उपयोग किया जाता है। इसके अलावा, उत्तर प्रदेश में नहाने के लिए गर्म पानी का उपयोग औसतन साल में केवल 2 महीने किया जाता है जबकि महाराष्ट्र में ऐसा 6 महीने किया जाता है। उत्तर प्रदेश में नहाने के लिए गर्म पानी के कम उपयोग के कई कारक हो सकते हैं। संभवत: आमदनी एक कारण हो सकता है – जहां निम्न आय वाले 25 प्रतिशत घरों में नहाने के लिए गर्म पानी का उपयोग किया जाता है वहीं उच्च आय वाले घरों में यह आंकड़ा 50 प्रतिशत है। इसमें कुछ सामाजिक प्रथाओं का भी योगदान है। एक बात यह कही जाती है कि लोग सर्दियों में नहाने के लिए गुनगुने भूजल का उपयोग करते हैं। हालांकि, यह संभावना हो सकती है कि जैसे-जैसे आय में वृद्धि होगी और सामाजिक प्रथाओं में बदलाव आएगा, वैसे-वैसे पानी गर्म करने के लिए ऊर्जा के उपयोग में भी वृद्धि होगी। इसकी और जांच करने की आवश्यकता है।

जो परिवार नहाने के लिए पहले से ही गर्म पानी का उपयोग कर रहे हैं वे अलग-अलग र्इंधन का इस्तेमाल करते हैं। उत्तर प्रदेश के लगभग 35 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 52 प्रतिशत सर्वेक्षित परिवारों में पानी गर्म करने के लिए ठोस र्इंधन का उपयोग किया जाता है। दिलचस्प बात तो यह है कि इनमें से उत्तर प्रदेश के लगभग 37 प्रतिशत और महाराष्ट्र के लगभग 91 प्रतिशत घरों में पानी गर्म करने के लिए तो ठोस र्इंधन का उपयोग किया जाता है लेकिन खाना बनाने के लिए एलपीजी का इस्तेमाल होता है। इससे लगता है कि पानी गर्म करने के लिए ठोस र्इंधन का उपयोग समाप्त करने के लिए सावधानीपूर्वक विकसित कार्यक्रमों की आवश्यकता है। आंगन में रखे ठोस र्इंधन बायलर या खुली हवा में चूल्हे का उपयोग महाराष्ट्र के घरों में काफी आम है। इससे अंदरूनी घरेलू प्रदूषण तो नहीं होगा लेकिन यह स्थानीय प्रदूषण में योगदान अवश्य दे सकता है।

पानी को गर्म करने के लिए एलपीजी दूसरे नंबर का मुख्य र्इंधन है, खास तौर पर अर्ध-शहरी क्षेत्रों में। उत्तर प्रदेश में लगभग 39 प्रतिशत और महाराष्ट्र में लगभग 33 प्रतिशत अर्ध-शहरी सर्वेक्षित परिवारों में पानी गर्म करने के लिए एलपीजी का उपयोग किया जाता है। जिन घरों में पानी गर्म करने के लिए एलपीजी का उपयोग किया जाता है वहां सिलेंडर की खपत अन्य परिवारों की तुलना में थोड़ी अधिक होती है। इसके लिए उत्तर प्रदेश में औसतन 2 सिलेंडर और महाराष्ट्र में 0.7 सिलेंडर अधिक उपयोग किए जाते हैं। उत्तर प्रदेश में लगभग 19 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 7 प्रतिशत परिवार एलपीजी इंस्टेंट वॉटर हीटर का उपयोग करते हैं। अन्य परिवार पानी गर्म करने के लिए एलपीजी स्टोव का उपयोग करते हैं जिसका उपयोग वे खाना पकाने के लिए भी करते हैं।

कुछ घरों में पानी गर्म करने के लिए बिजली का उपयोग भी किया जाता है – उत्तर प्रदेश में लगभग 19 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 8 प्रतिशत घरों में पानी गर्म करने के लिए बिजली का उपयोग होता है। उत्तर प्रदेश के 92 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 82 प्रतिशत ऐसे घरों में पानी गर्म करने के लिए इमर्शन रॉड का उपयोग किया जाता है। इसकी वजह से बिजली के झटके और आग जैसी दुर्घटनाओं का खतरा बना रहता है।

सौर वॉटर हीटर का उपयोग दोनों ही राज्यों में न के बराबर है। पानी गर्म करने के लिए एक ही घर में अलग-अलग र्इंधनों का उपयोग नहीं किया जाता जैसे खाना पकाने के लिए किया जाता है।

यदि पानी गर्म करके उपयोग किया जाता है तो कुल घरेलू ऊर्जा खपत में इसका काफी योगदान रहता है। ठोस र्इंधन के आम उपयोग के परिणामस्वरूप अंदरूनी और स्थानीय वायु प्रदूषण होता है जिससे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। खाना पकाने के लिए ठोस र्इंधन के उपयोग को खत्म करने के लिए जिस ढंग के हस्तक्षेप किए गए हैं, वे शायद इस मामले में कारगर न रहें। बिजली, एलपीजी और सौर वॉटर हीटर जैसे विकल्पों को अपनाने का आग्रह करने से पहले उनका सावधानीपूर्वक मूल्यांकन करना होगा।

अगले आलेख में हम अपने सर्वेक्षण के नतीजों और प्रत्येक कार्य में कुल उर्जा खपत के योगदान का आकलन करके इस शृंखला का समापन करेंगे।(स्रोत फीचर्स)

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