रांगा: प्रागैतिहासिक काल से आधुनिक काल तक – डॉ. विजय कुमार उपाध्याय

रांगा एक बहुत ही उपयोगी धातु है जिसे संस्कृत में वंग या त्रपुस तथा अंग्रेज़ी में टिन कहा जाता है। लैटिन भाषा में इसे स्टैनम कहा जाता है जिसका अर्थ है सख्त। इसका रासायनिक संकेत Sn, परमाणु संख्या 50 है और परमाणु भार 118.7 है। इसका घनत्व 7.31 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर, द्रवणांक 231.9 डिग्री सेल्सियस, तथा क्वथनांक 2602 डिग्री सेल्सियस है।

यह बताना कठिन है कि मानव ने रांगे का उपयोग सर्वप्रथम कब तथा कहां प्रारंभ किया। शुरू-शुरू में रांगे का उपयोग सिर्फ तांबे के साथ मिलाकर एक मिश्र धातु (एलॉय) बनाने के लिए किया जाता था। इस मिश्र धातु का नाम था कांसा (बेल मेटल)। कांसे के बर्तन तथा औज़ार शुद्ध तांबे से बने बर्तनों तथा औज़ारों की तुलना में अधिक मज़बूत होते थे। परंतु आज यह किसी को मालूम नहीं कि उस काल में कांसे के निर्माण हेतु जो टिन उपयोग में लाया जाता था वह धात्विक अवस्था में होता था अथवा टिनयुक्त अयस्क को ही अवकारक परिस्थितियों में मिश्रित कर कांसे का निर्माण किया जाता था।

ऐतिहासिक साक्ष्यों से पता चलता है कि रांगे का उपयोग सर्वप्रथम पूर्वी देशों (जैसे भारत, चीन वगैरह) में शुरू हुआ। भारत में लगभग साढ़े तीन हज़ार वर्ष ईसा पूर्व रांगे को उपयोग में लाए जाने के प्रमाण मिलते हैं। गुजरात में लोथल नामक स्थान पर कुछ हड़प्पा कालीन पुरातात्विक अवशेष मिले हैं जिनसे पता चलता है कि वहां मालाओं में उपयोग हेतु धातु के मनके बनाए जाते थे। इन धातुओं में रांगा भी शामिल था। ये अवशेष लगभग पांच हज़ार वर्ष पुराने बताए जाते हैं। महाभारत काल में भी अन्य धातुओं के साथ कांसे का उपयोग किया जाता था।

मौर्य तथा गुप्त काल में भी अन्य धातुओं के साथ कांसे का काफी अधिक उपयोग किया जाता था। गुप्त काल में कांसे से बर्तन तथा मूर्तियों के अलावा सिक्कों का भी निर्माण किया जाता था। गुप्त काल में निर्मित कांसे की मूर्तियां भारत में कई स्थानों पर पुरातात्विक खुदाई के दौरान पाई गई हैं। बिहार में भागलपुर ज़िले के बटेश्वर नामक पहाड़ी स्थल पर प्राचीन काल के कुछ पुरातात्विक अवशेष मिले हैं जिनमें कांस्य मूर्तियां भी शामिल हैं। ये मूर्तियां पाल एवं गुप्त काल की बताई जाती हैं। इन मूर्तियों में शामिल हैं ध्यान तथा भूमि स्पर्श मुद्रा में गौतम बुद्ध की कांस्य प्रतिमा। इसी काल की कुछ कांस्य प्रतिमाएं भागलपुर ज़िले में ही एक अन्य स्थान सुल्तानगंज में भी मिली हैं। दूसरी इस्वीं शताब्दी में भारत के महान आयुर्वेदाचार्य चरक ने वंग भस्म (टिन ऑक्साइड) को औषधि निर्माण हेतु उपयोगी पाया था। कहा जाता है कि चीन में भी लगभग 1800 ईसा पूर्व कांस्य उद्योग काफी पनप चुका था।

मिरुा में एक स्थान पर पुरातात्विक खुदाई से 3700 ईसा पूर्व में निर्मित कांसे की एक छड़ पाई गई है। इसके रासायनिक विश्लेषण से पता चला है कि इसमें 9.1 प्रतिशत रांगा उपस्थित है। मिरुा में ही 600 ईसा पूर्व रांगे की चादर का उपयोग किसी व्यक्ति के मृत शरीर को लपेटकर कब्र में दफनाने के लिए किया गया था।

शुद्ध रांगे से निर्मित जो सबसे पुरानी वस्तुएं मिली हैं उनमें शामिल हैं अंगूठी तथा तीर्थ यात्रियों द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली बोतलें। ये वस्तुएं मिरुा में अनेक स्थानों पर की गई खुदाई से मिली हैं। ये चीजें लगभग 1500 वर्ष ईसा पूर्व निर्मित बताई जाती हैं। रांगा मिरुा में कहीं नहीं पाया जाता। अत: यह निष्कर्ष निकाला गया है कि यहां रांगे का आयात अन्य देशों से किया जाता था। ऐसा माना जाता है कि भूमध्य सागरीय क्षेत्र के देशों में रांगा या रांगे से बनी वस्तुएं एशियाई देशों से मंगाई जाती थीं।

प्रारंभिक हिब्रू, ग्रीक तथा लैटिन साहित्य में जो ‘टिन’ शब्द व्यवहार में लाया जाता था उसका अर्थ आज से भिन्न था। बाइबल में वर्णित ‘टिन’ शब्द हिब्रू शब्द ‘बेडिल’ के अर्थ में आया है। बेडिल शब्द का उपयोग तांबे तथा टिन की मिश्र धातु के लिए किया जाता था। यूनान के महान कवि होमर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक इलियाड में कांसे तथा टिन को अलग-अलग धातुओं के रूप में माना है।

युरोप में कई देशों में रांगे का खनन एवं व्यापार कई सदियों से चलता रहा है। लगभग 15वीं शताब्दी ईसा पूर्व में टिन के खनन प्रारंभ किए जाने के संकेत मिले हैं। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि इंग्लैंड में कॉर्नवाल की खानों से टिन का काफी अधिक खनन किया जाता था। फिर उस टिन को पूर्वी भूमध्य सागरीय क्षेत्र के देशों में स्थित धातुकर्म केन्द्रों पर पहुंचाया जाता था। कुछ उपलब्ध साक्ष्यों से पता चलता है कि लगभग 500 ईसा पूर्व तक कॉर्नवाल की खानों से लगभग 30 लाख टन रांगे का खनन किया गया। उस काल में ब्रिाटेन से प्रति वर्ष लगभग एक हज़ार टन टिन का निर्यात अन्य देशों को किया जाता था। 1925 इस्वीं में इंग्लैंड के पुरात्ववेत्ताओं को ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में निर्मित एक दुर्ग की खुदाई करते समय प्रगलन भट्टियां मिलीं जिनके अंदर टिन-युक्त धातु-मल पड़ा हुआ था। इससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि आज से लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व इंग्लैंड में टिन का उपयोग काफी विकसित अवस्था में था। जूलियस सीज़र ने अपनी पुस्तक डी बैलो गैलिको में भी इस बात की चर्चा की है कि इंग्लैंड के कुछ क्षेत्रों में टिन का उत्पादन किया जाता था।

पेरू के रेड इंडियन (जिन्हें इन्का कहा जाता है) लोगों द्वारा निर्मित एक पुराने किले में वैज्ञानिकों को शुद्ध टिन मिला है। उन लोगों ने यह टिन शायद कांसे के निर्माण के लिए रखा होगा। यहां की वस्तुएं काफी उच्च कोटि की मानी जाती थीं। 16वीं शताब्दी में जब स्पैनिश विजेता कार्टेस मेक्सिको पहुंचा तो स्थानीय लोगों द्वारा टिन से बने सिक्कों का उपयोग होते देखा।

प्राचीन काल में टिन का उपयोग प्राय: कांसे के निर्माण के लिए किया जाता था। फिर कांसे से दैनिक उपयोग के सामान (जैसे चाकू, हथियार, बर्तन तथा आभूषण) बनाए जाते थे। मध्यकाल में कांसे का उपयोग घंटियों के निर्माण के लिए व्यापक स्तर पर किया जाने लगा। टिन में कुछ विशेष गुण होते हैं। जैसे इसमें जंग नहीं लगता। यह आघातवर्धनीय है (यानी इसकी चादरें बनाई जा सकती हैं) तथा इसका द्रवणांक भी कम है। ये सभी गुण मिल कर रांगे को काफी उपयोगी बना देते हैं। सन् 79 में प्लीनी ने बताया था कि टिन तथा लेड की मिश्र धातु को आसानी से पिघलने वाले सोल्डर के रूप में उपयोग में लाया जा सकता है। रोमवासी अपने तांबे के बर्तनों पर टिन की कलई किया करते थे। इंग्लैंड में 17वीं सदी के मध्य के दौरान रांगे की कलई युक्त इस्पात का निर्माण किया जाने लगा। रांगे में यह विशेषता है कि यह हवा में रहने पर ऑक्सीजन के संयोग से अपने चारों ओर टिन ऑक्साइड की एक सूक्ष्म परत का निर्माण कर लेता है। यह परत स्थाई होती है जो पानी, नाइट्रोजन, हाइड्रोजन, कार्बन डाईऑक्साइड तथा अमोनिया आदि से प्रतिक्रिया नहीं करती।

अभी संसार में उत्पादित कुल रांगे का लगभग आधा भाग टिन प्लेट के निर्माण में खर्च हो जाता है जिसे मुख्यत: डिब्बों के निर्माण के लिए उपयोग किया जाता है। यही कारण है कि टिन को डिब्बों की धातु कहा जाता है।

विभिन्न उपयोगों में टिन के रासायनिक यौगिकों का उपयोग व्यापक स्तर पर किया जाता है। स्टैनस तथा स्टैनिक क्लोराइड रूई तथा रेशम को रंगने में रंग को पक्का बनाने का काम करते हैं। चीनी मिट्टी के बर्तनों तथा कांच में लाली लाने के लिए ‘कारियस पर्पल’ नामक पदार्थ को उपयोग में लाया जाता है। यह स्टैनस क्लोराइड तथा स्वर्ण क्लोराइड के विलयन से बनाया जाता है। सुनहरे रंग में किसी वस्तु को रंगने के लिए स्टैनस डाईसल्फाइड का उपयोग किया जाता है।  इसे ‘मोज़ैक स्वर्ण’ भी कहा जाता है।

भूपटल में रांगा सिर्फ 0.004 प्रतिशत उपस्थित है। यह प्राय: ग्रैनाइट के साथ पाया जाता है। ग्रैनाइट की एक पट्टी दक्षिण पूर्व एशिया, चीन, मलाया, इंडोनेशिया तथा पूर्वी ऑस्ट्रेलिया से होकर गुज़रती है जिसमें रांगे के अयस्क पाए जाते हैं। युरोप में रांगायुक्त ग्रैनाइट सैक्सोनी, चेकोस्लोवाकिया, इंग्लैंड, फ्रांस तथा स्पेन में पाया जाता है। दक्षिणी अमेरिका में रांगायुक्त ग्रैनाइट बोसीनिया में मिलता है। अफ्रीका में नाइजीरिया तथा कांगो में रांगायुक्त ग्रैनाइट पाया जाता है। प्राचीन काल से ही टिन का प्रमुख अयस्क कैसीटेराइट रहा है। टिन के उत्पादन में मलेशिया का योगदान सबसे अधिक है। टिन का उत्पादन करने वाले अन्य प्रमुख देश हैं रूस, चीन, इंडोनेशिया, थाइलैंड तथा ऑस्ट्रेलिया। नीदरलैंड में भी काफी टिन मिलता है।

भारत में टिन खनिजों के उत्खनन के प्रयास प्रागैतिहासिक काल से ही चलते रहे हैं। भारत में रांगे का प्रमुख उपयोग था कांसे का निर्माण। उस काल में हमारे देश में रांगे का खनन छिटपुट ढंग से तथा गृह उद्योग स्तर पर किया जाता था। प्राचीन काल के दौरान भारत के किसी भाग में व्यापक स्तर पर रांगे के खनन के संकेत नहीं मिलते। मैक्सीलैंड नामक एक भूविज्ञानवेत्ता ने सन् 1849 में पारसनाथ (झारखंड) के निकट पुरगो नामक स्थान पर कैसीटेराइट खनिज का लौह भट्टी में प्रगलन कुटीर उद्योग स्तर पर होते देखा था। लुइस फर्मोर नामक भूविज्ञानवेत्ता ने सन् 1906 में बताया कि पुरगो क्षेत्र में कैसीटेराइट ग्रेनुलाइट नामक शैल की एक पतली परत लगभग 15 सेंटीमीटर मोटी है जिसमें कैसीटेराइट 30 से 50 प्रतिशत तक उपलब्ध है।

बिहार के गया जिले में धनरास तथा ढकनहवा पहाड़ियों में कैसीटेराइट की प्राप्ति के समाचार कुछ समय पूर्व मिले थे। यहां पर टिन अयस्कयुक्त शैल की परत लगभग चार किलोमीटर लम्बी तथा 0.36 किलोमीटर चौड़ी है। झारखंड के हज़ारीबाग जिले में अनेक स्थानों पर कैसीटेराइट पाया जाता है। राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में सोनियाना नामक स्थान पर कैसीटेराइट पाया जाता है। भीलवाड़ा जिले में परोली नामक स्थान पर पेगमेटाइट नामक शैल में कैसीटेराइट पाया जाता है। कर्नाटक में धारवाड़ जिले के डम्बल नामक स्थान पर भी कैसीटेराइट पाया जाता है। मध्य प्रदेश के बस्तर जिले में गोविन्दपाल, चीतलनार, मुंडवाल तथा जोगपाल नामक स्थानों पर उच्च दर्जे का कैसीटेराइट पाया जाता है जिसमें टिन की मात्रा 55 से 67 प्रतिशत तक है। फिलहाल भारत में टिन का खनन कहीं भी नहीं हो रहा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मन्टा-रे मछलियां दोस्ती भी करती हैं

वैसे तो शार्क की अधिकतर प्रजातियां एकांत प्रवृत्ति की होती हैं, लेकिन हैरानी की बात यह है कि शार्क की करीबी मंटा-रे मछलियां शार्क की तुलना में काफी मिलनसार होती हैं। ये एक-दूसरे की हरकतों की नकल करती हैं, साथ खेलती हैं और इंसानों के पास जाने को आतुर होती हैं। और अब हाल ही में पता चला है कि वे अपनी साथी मछलियों के साथ ‘दोस्ती’ भी करती हैं। उनकी ये दोस्तियां एक तरह के ढीले-ढाले सम्बंध होते हैं जो कुछ हफ्ते या महीनों तक बने रहते हैं।

मंटा-रे समूह की संरचना समझने के लिए शोधकर्ताओं ने 5 साल तक उत्तर-पश्चिमी इंडोनेशिया के समुद्र में तट से दूर, साफ पानी वाले स्थानों पर 500 से ज़्यादा रीफ मंटा-रे मछलियों (Mobula alfredi) के समूह का अध्ययन किया। अपने अध्ययन में उन्होंने इन मछलियों के 5 सामूहिक अड्डों की कई तस्वीरें निकालीं। इन 5 सामूहिक स्थानों में से तीन वे जगहें थीं जहां ये मछलियां रासे मछलियों और कोपेपॉड्स की मदद से अपने पूरे शरीर की सफाई (मैनीक्योर) करवाती हैं। बाकी दो सामूहिक स्थान उनके भोजन की जगह थे, जहां झींगा और मछलियों के लार्वा उनका भोजन बनते हैं (और कभी-कभी उनकी सफाई करने वाले कॉपेपॉड्स भी।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने उनके शरीर पर बने पैटर्न और धब्बों  की मदद से हर मछली को चिन्हित किया और उन पर नज़र रखी। उन्होंने पाया कि नर की तुलना में मादा मंटा-रे मछलियां एक-दूसरे से ज़्यादा लंबा जुड़ाव बनाती हैं लेकिन नर से दूरी बनाए रखती हैं। अध्ययन का यह निष्कर्ष बीहेवियरल इकॉलॉजी एंड सोशल बॉयोलॉजी पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। लेकिन मंटा-रे मछलियां अन्य जीवों (जो आपस में मज़बूत समूह बनाते हैं) की तुलना मज़बूत जुड़ाव वाला समूह नहीं बनातीं। इसकी बजाय वे दो तरह के लचीले समूह बनाती हैं; एक समूह में अधिकतर मादा मछलियां होती हैं जबकि दूसरे समूह में मादा, बच्चे और नर होते हैं। दोनों समूह सफाई की जगह (क्लीनिंग स्टेशन) और भोजन की जगह पर एक-दूसरे मिलते हैं और उसके बाद हर मछली अपने-अपने स्थान पर वापस लौट जाती है। और फिर कुछ घंटों या एक दिन बाद एक बार फिर सभी वापस अपने समूह से मिलते हैं। ठीक इसी तरह चिम्पैंज़ी भी सोने और भोजन के लिए दो अलग-अलग समूह बनाते हैं। अध्ययन में यह भी पाया गया कि रे मछलियों ने कुछ स्थानों के लिए काफी स्पष्ट प्राथमिकता दिखाई। देखा गया कि मादा रे मछलियों ने ज़्यादातर समय क्लीनिंग स्टेशन पर बिताया जबकि नर रे मछलियों ने अधिकतर समय भोजन की जगह पर। (स्रोत फीचर्स)

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दिमाग की कैमेस्ट्री बिगाड़ रही है इंटरनेट की लत – प्रदीप

इंटरनेट ने हमारे जीवन को कई मायनों में बदलकर रख दिया है। इसने हमारे जीवन स्तर को ऊंचा कर दिया है और कई कार्यों को बहुत सरल-सुलभ बना दिया है। सूचना, मनोरंजन और ज्ञान के इस अथाह भंडार से जहां सहूलियतों में इजाफा हुआ है, वहीं इसकी लत भी लोगों के लिए परेशानी का सबब बन गई है। हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय शोधकर्ताओं की एक टीम ने अपने अध्ययन में पाया है कि इंटरनेट का अधिक इस्तेमाल हमारे दिमाग की अंदरूनी संरचना को तेज़ी से बदल रहा है, जिससे उपभोक्ता (यूज़र) की एकाग्रता, स्मरण प्रक्रिया और सामाजिक सम्बंध प्रभावित हो सकते हैं। दरअसल, यह बदलाव कुछ-कुछ हमारे तंत्रिका तंत्र की कोशिकाओं की वायरिंग और री-वायरिंग जैसा है।

मनोरोग अनुसंधान की विश्व प्रतिष्ठित पत्रिका वर्ल्ड सायकिएट्री के जून 2019 अंक में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक इंटरनेट का ज़्यादा इस्तेमाल हमारे दिमाग पर स्थाई और अस्थाई रूप से असर डालता है। इस अध्ययन में शामिल शोधकर्ताओं ने उन प्रमुख परिकल्पनाओं की जांच की जो यह बताती हैं कि किस तरह से इंटरनेट संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं को बदल सकता है। इसके साथ ही शोधकर्ताओं ने इसकी भी पड़ताल की कि ये परिकल्पनाएं मनोविज्ञान, मनोचिकित्सा और न्यूरोइमेजिंग के हालिया अनुसंधानों के निष्कर्षों से किस हद तक मेल खाती हैं।

इंटरनेट मस्तिष्क की संरचना को कैसे प्रभावित करता है, इसके बारे में शोध दल के नेतृत्वकर्ता और वेस्टर्न सिडनी विश्वविद्यालय, ऑस्ट्रेलिया के सीनियर रिसर्च फेलो डॉ. जोसेफ फर्थ के मुताबिक “इस शोध का प्रमुख निष्कर्ष यह है कि उच्च स्तर का इंटरनेट उपयोग मस्तिष्क के कई कार्यों पर प्रभाव डाल सकता है। उदाहरण के लिए, इंटरनेट से लगातार आने वाले नोटिफिकेशन और सूचनाओं की असीम धारा हमें अपना ध्यान उसी ओर लगाए रखने के लिए प्रोत्साहित करती हैं। इसके परिणामस्वरूप किसी एक काम पर ध्यान केंद्रित करने, उसे गहराई से समझने और आत्मसात करने की हमारी क्षमता बहुत तेज़ी से कम हो सकती है।”

यह शोध मुख्य रूप से यह बताता है कि इंटरनेट दिमाग की संरचना, कार्य और संज्ञानात्मक विकास को कैसे प्रभावित कर सकता है। हाल के समय में सोशल मीडिया के साथ-साथ अनेक ऑनलाइन तकनीकों का व्यापक रूप से अपनाया जाना शिक्षकों और अभिभावकों के लिए भी चिंता का विषय है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) द्वारा साल 2018 में जारी दिशानिर्देशों के मुताबिक छोटे बच्चों (2-5 वर्ष की आयु) को प्रतिदिन एक घंटे से ज़्यादा स्क्रीन के संपर्क में नहीं आना चाहिए। हालांकि वर्ल्ड साइकिएट्री के हालिया अंक में प्रकाशित इस शोधपत्र में इस बात का भी उल्लेख किया गया है कि मस्तिष्क पर इंटरनेट के प्रभावों की जांच करने वाले अधिकांश शोध वयस्कों पर ही किए गए हैं, इसलिए बच्चों में इंटरनेट के इस्तेमाल से होने वाले फायदे और नुकसान को निर्धारित करने के लिए और अधिक शोध की ज़रूरत है।

डॉ. फर्थ कहते हैं, “हालांकि बच्चों और युवाओं को इंटरनेट के नकारात्मक प्रभावों से बचाने के लिए अधिक शोध की ज़रूरत है मगर अभिभावकों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके बच्चे डिजिटल डिवाइस पर ज़्यादा समय तो नहीं बिता रहे हैं। माता-पिता को बच्चों की अन्य महत्वपूर्ण विकासात्मक गतिविधियों, जैसे सामाजिक संपर्क और शारीरिक क्रियाकलापों पर अधिक ध्यान देना चाहिए।”

इस शोध का लब्बोलुबाब यह है कि आज हमें यह समझने की ज़रूरत है कि इंटरनेट की बदौलत जहां वैश्विक समाज एकीकृत हो रहा है, वहीं यह पूरी दुनिया (बच्चों से लेकर बूढ़ों तक) को साइबर एडिक्ट भी बना रहा है। इंटरनेट की लत वैसे ही लग रही है जैसे शराब या सिगरेट की लगती है। इंटरनेट की लत से जूझ रहे लोगों के मस्तिष्क के कुछ खास हिस्सों में गामा अमिनोब्यूटरिक एसिड (जीएबीए) का स्तर बढ़ रहा है। जीएबीए का मस्तिष्क के तमाम कार्यों, मसलन जिज्ञासा, तनाव, नींद आदि पर बड़ा असर होता है। जीएबीए का असंतुलन अधीरता, बेचैनी, तनाव और अवसाद (डिप्रेशन) को बढ़ावा देता है। इंटरनेट की लत दिमागी सर्किटों की बेहद तेज़ी से और पूर्णत: नए तरीकों से वायरिंग कर रही है! इंटरनेट के शुरुआती दौर में हम निरंतर कनेक्टेड होने की बात किया करते थे और आज यह नौबत आ गई कि हम डिजिटल विष-मुक्ति की बात कर रहे हैं! इंटरनेट के नशेड़ियों के इलाज के लिए ठीक उसी तकनीक को आज़माने की जरूरत है, जिसका इस्तेमाल शराब छुड़ाने के लिए किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)

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50 वर्षों बाद टीबी की नई दवा

हाल ही में यूएस खाद्य एवं औषधि प्रशासन ने टीबी के एक नए उपचार क्रम को मंजूरी दी है, और इस उपचार में एक नई दवा शामिल है। पिछले 50 वर्षों में पहली बार किसी नई दवा को टीबी के इलाज के लिए मंज़ूरी मिली है। यह नई दवा बहुऔषधि-प्रतिरोधी टीबी के उपचार में कारगर है जिससे विकासशील देशों में बढ़ रही टीबी की समस्या पर काबू किया जा सकेगा।

टीबी के इस उपचार में तीन दवाएं शामिल हैं। इनमें से दो तो पहले भी टीबी के उपचार में उपयोग की जाती रही हैं – जॉनसन एंड जॉनसन की बेडाक्वीलीन और लिनेज़ोलिड। तीसरी दवा नई है – प्रेटोमेनिड नामक एंटीबॉयोटिक।

नए उपचार के क्लीनिकल परीक्षण में अत्यंत दवा-प्रतिरोधी टीबी के लगभग 90 प्रतिशत मरीज़ 6 महीनों में ही चंगे हो गए। यह फिलहाल किए जा रहे अन्य इलाज से तीन गुना अधिक सफलता दर है। अन्य औषधि मिश्रण से उपचारों में मरीज़ को ठीक होने में लगभग 2 साल तक का वक्त लग जाता है।

प्रेटोमेनिड नामक यह एंटीबॉयोटिक दवा गैर-मुनाफा संस्था टीबी अलाएंस ने विकसित है। टीबी अलाएंस के प्रमुख मेल स्पाईजलमेन का कहना है कि गैर-मुनाफा संस्था के लिए काम करने का एक फायदा यह होता है कि यह चिंता नहीं करनी पड़ती कि शेयरधारकों को कितना पैसा और कैसे लौटाना है। टीबी अलाएंस ने इस दवा को बनाने और बेचने के अधिकार पेनिसिल्वेनिया स्थित दवा कंपनी मायलेन एनवी को दिए हैं। कंपनी प्रमुख कहना है कि वे यूएस और उन जगह पर ध्यान देंगे जहां अत्यंत दवा-प्रतिरोधी टीबी की समस्या गंभीर है जिनमें से अधिकतर देश निम्न और मध्यम आमदनी वाले हैं। टीबी अलाएंस ने युरोप में भी टीबी के इलाज के लिए प्रेटोमेनिड को अन्य दवा के साथ उपयोग पर मंज़ूरी के लिए आवेदन किया है। (स्रोत फीचर्स)

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कहीं आप फफूंद तो नहीं खा रहे

अक्सर फल, ब्रेड या खाने की चीज़ों पर कुछ दिनों बाद फफूंद लगने लगती है, खासकर बारिश के मौसम में। यदि फफूंद खाने पर बहुत फैली ना हो तो कई लोग फफूंद लगा हिस्सा हटाकर बाकी खा लेते हैं। यदि आप भी ऐसा करते हैं तो एक बार फिर सोचिए कि  हटाने के बावजूद भी कहीं आप फफूंद तो नहीं खा रहे।

दरअसल खाद्य सामग्री पर दिखाई देने वाली हरी-सफेद मखमली फफूंद पूरी फफूंद के बीजाणु भर होते हैं जो फफूंद को फैलाने का काम करते हैं। फफूंद का बाकी हिस्सा, जिसे कवकजाल या मायसेलियम कहते हैं, खाद्य पदार्थ में काफी अंदर तक धंसा रहता है और दिखाई नहीं देता। फफूंद हटाते वक्त लोग दिखाई देने वाला हिस्सा ही हटाते हैं जबकि फफूंद का शेष हिस्सा तो खाने में रह जाता है।

यूएस डिपार्टमेंट ऑफ एग्रीकल्चर की विशेषज्ञ नडीन शॉ का कहना है कि वैसे तो अधिकतर फफूंद हानिरहित होती हैं लेकिन कुछ फफूंद खतरनाक होती हैं। जैसे कुछ फफूंदों में कवकविष मौजूद होता है जो काफी ज़हरीला होता है और शरीर में पहुंचने पर एलर्जी पैदा कर सकता है या श्वसन तंत्र को प्रभावित कर सकता है। खास तौर से एस्परजिलस फफूंद का विष (एफ्लॉटॉक्सिन) कैंसर का कारण बन सकता है। कवकविष प्रमुख रूप से अनाजों और मेवे पर लगने वाली फफूंद में पाया जाता है लेकिन अंगूर के रस, अजवाइन, सेब और अन्य खाद्यों पर पनपने वाली फफूंद में भी हो सकता है। इसके अलावा घातक एफ्लॉटॉक्सिन अक्सर मक्का और मूंगफली की फसलों में पनपने वाली फफूंद में पाया जाता है। (स्रोत फीचर्स)

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जैव विकास और मनुष्यों की विलुप्त पूंछ – डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन

जापान की कियो युनिवर्सिटी के बायोइंजीनियर्स के एक दल ने हाल ही में इंसानों के लिए एक रोबोटिक पूंछ बनाई है। पहली नज़र में यह खबर थोड़ी हास्यापद लगती है लेकिन विस्तार से पढ़ने पर पता चलता है कि उन्होंने ज़रूरतमंद लोगों के लिए एक ऐसी रोबोटिक पूंछ बनाई है जिसे पहना जा सकता है। लेकिन फिर भी यह विचार तो आता ही है मनुष्यों को पूंछ की क्या ज़रूरत है!

इस पूंछ का नाम आक्र्यू है जो बुज़ुर्गों को चलने में, उन्हें गिरने से बचाने, सीढ़ी चढ़ने के दौरान संतुलन बनाने आदि में सहायक है। इसके बारे में और भी विस्तार से आप टेकएक्सप्लोर के 7 अगस्त के अंक में प्रकाशित नैन्सी कोहेन का लेख में पढ़ सकते हैं या यू-ट्यूब की इस लिंक https://www.youtube.com/watch?v=Tr1-IhEhXYQ पर जाकर देख सकते हैं कि कैसे यह कृत्रिम पूंछ मनुष्य के लिए उपयोगी हो सकती है। ज़रूरतमंद बुज़ुर्गों के अलावा आक्र्यू बोझा ढोने वाले मज़दूरों, खड़ी ऊंचाई पर चढ़ने वाले पर्वतारोहियों के लिए भी मददगार है।

जब हममें से कुछ लोगों को उम्र बढ़ने पर चलने-फिरने में दिक्कत होती है तब यदि आक्र्यू जैसी कृत्रिम पूंछ मददगार है तो फिर प्रकृति ने  पूंछ को मनुष्य (और हमारे करीबी रिश्तेदार चिम्पैंज़ी, गोरिल्ला या बोनोबो) में क्यों बनाए नहीं रखा। भूमि व पानी में रहने वाले अधिकतर जीवों की पूंछ होती है (चाहे छोटी हो या बड़ी) और कई महत्वपूर्ण कार्य करती है। युनिवर्सिटी ऑफ मेलबोर्न के डॉ. डेविड यंग के मुताबिक जानवरों में पूंछ मक्खियां या कीट उड़ाने के अलावा भी कई कार्य करती है। पानी में मछली मुड़ने के लिए अपनी पूंछ की मदद लेती है, मगरमच्छ अपनी पूंछ में अतिरिक्त वसा संग्रहित करके रखते हैं जो आड़े वक्त ऊर्जा प्रदान करती है, और स्तनधारियों में पूंछ दौड़ते वक्त सिर के वज़न का संतुलन बनाने में मददगार होती है। तेज़ दौड़ने वाले जानवरों की पूंछ लंबी होती है। पेड़ पर चढ़ने वाले बंदरों की भी पूंछ लंबी होती है जो उनका संतुलन बनाए रखती है।

तो क्यों खोई?

जैसे ही हमने चार पैरों की जगह दो पैरों पर चलना शुरू किया, पूंछ से सहूलियत मिलने की बजाए असुविधा होने लगी। हैना ऐशवर्थ ने बीबीसी साइंस फोकस मैग्ज़ीन (sciencefocus.com) में बताया है कि पूंछ का जब कोई उपयोग ना हो तो वह महज़ ऐसा अंग होती है जिसे बढ़ने के लिए ऊर्जा चाहिए और वह शिकारियों को झपटने के लिए एक और चीज़ बन जाती है। छिपकली के लिए पूंछ सुरक्षा का एक साधन है – हमले या खतरे का आभास होने पर वह अपनी पूंछ गिरा देती है, जो बाद में फिर से उग जाती है। हम दोपाए मनुष्य सीधे चलते हैं, और शरीर के गुरुत्व केंद्र को ज़मीन से जोड़ने वाली रेखा हमारी रीढ़ की हड्डी से होती हुई पैरों तक जाती है। इसलिए हमें संतुलन बनाने के लिए पूंछ जैसे किसी अतिरिक्त अंग की ज़रूरत नहीं होती। ऐशवर्थ  आगे बताती हैं कि जंगल से घास के मैदानों (सवाना) की ओर प्रवास के समय  प्राकृतिक चयन ने हमारे उन पूर्वजों को वरीयता दी जिनकी पूंछ छोटी थी।

और अगले कुछ लाख सालों में धीरे-धीरे यह खत्म हो गई। वैसे मनुष्यों और ऐप्स (वनमानुषों) के बीच और भी कई अंतर हैं। इंडियाना युनिवर्सिटी के डॉ. केविन हंट को लगता है कि हमारे पूर्वज वृक्षों की नीचे लटकती डालियों तक पहुंचने के लिए सीधे खड़े होने लगे होंगे। “आज से लगभग 65 लाख साल पहले जब अफ्रीका में सूखा पड़ने लगा तब हमारे पूर्वज पूर्वी इलाकों में फंसे रह गए। यह इलाका सबसे ज़्यादा सूखा था। जंगल के मुकाबले सूखे इलाकों में पेड़ छोटे और अलग किस्म के होते हैं। इस तरह हमारे पूर्वज अफ्रीका के सूखे और झाड़-झंखाड़ भरे इलाकों में भोजन प्राप्त करने के लिए दो पैरों पर खड़े होने लगे। जबकि जंगलों में रहने वाले चिम्पैंज़ियों ने ऐसा नहीं किया। वे दोनों तरह से चलते रहे – दो पैरों पर और ज़रूरत पड़ने पर चार पैरों पर।” इस तरह के प्राकृतवास और दोपाया होने के कारण हमारी और पूर्वज वानरों की नाक की बनावट में भी अंतर आया – वह थोड़ी उभरी हुई हो गई। डार्विन ने बताया है कि सीधा खड़े होना या दो पैरों पर खड़े होने की मामूली-सी घटना के कारण वे सारे बदलाव हुए हैं जो मनुष्य को वानरों से अलग करते हैं। औज़ारों को ही लें। हंट बताते हैं कि “जैसे ही हमने दो पैरों पर चलना शुरू किया तो हमें औज़ार साथ रखने के लिए दो हाथ मिल गए। अलबत्ता मनुष्य ने औज़ारों का उपयोग दोपाया होने के 15 लाख साल बाद करना शुरू किया था।)” चौपाए से दोपाए होने की प्रक्रिया में इस तरह के जैव-संरचनात्मक, ऊर्जात्मक और कार्यात्मक प्रभाव पड़े।

वास्तव में, गर्भ के अंदर एकदम शुरुआती चार हफ्तों के जीवन के दौरान हमारी पूंछ होती है जो बाद में सातवें हफ्ते तक खत्म (अवशोषित) हो जाती है और हमारी रीढ़ की हड्डी के आधार में सिर्फ कॉक्सीक्स (पुच्छास्थि) बचती है, जो मांसपेशी के जुड़ाव-स्थल का कार्य करती है। चिम्पैंजी, गोरिल्ला जैसे वानरों में भी कॉक्सीक्स होती है।

पूरी विलुप्त नहीं हुई

अब सवाल यह है कि यदि भ्रूण में सात हफ्तों बाद भी पूंछ का अवशोषण ना हो और शिशुओं में पूंछ बनने लगे तो क्या होगा? सौभाग्यवश यह स्थिति दुर्लभ है, और अब तक दुनिया भर में इस तरह के सिर्फ 40 मामले रिपोर्ट हुए हैं। भारत में 6 इंच से ज़्यादा लंबी पूंछ किसी मामले में नहीं देखी गई है। शिशुओं में, कमर के नीचे के हिस्से में पूंछ वाले सिर्फ 3 मामले और रीढ़ की हड्डी के अन्य स्थानों पर पूंछ के कुल 8 मामले सामने आए हैं। सबसे हाल का मामला 2017 में सामने आया था। इन सभी नवजात शिशुओं में पूंछ को सफलतापूर्वक हटा दिया गया और सभी स्वस्थ और सामान्य हैं। निकाली गई पूंछ का अध्ययन करने पर पता चला कि ये पूंछ वसा ऊतकों, कोलेजन फाइबर, तंत्रिका फाइबर, रक्त वाहिकाओं और नाड़ी-ग्रंथि कोशिकाओं से बनी थीं जिसमें हड्डी नहीं थी। पूंछ के प्रारंभिक जीन-आधारित विश्लेषण से पता चला है कि पूंछ के विकास को नियंत्रित करने वाला जीन ज़्दद्य कुल का है। इस दुर्लभ विकार के कारणों और समाधान पर अनुसंधान उपयोगी होगा। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दा विंची की पेंटिंग के पीछे छिपी तस्वीर

लंदन के नेशनल आर्ट म्यूज़ियम में रखी लियोनार्डो दा विंची की बेजोड़ पेंटिंग – दी वर्जिन ऑफ दी रॉक्स – के पीछे एक और तस्वीर छिपी है। हाल ही में उस ओझल तस्वीर के बारे में नई जानकारी सामने आई है। इस पेंटिंग में वर्जिन मैरी, शिशु जीसस और शिशु सेंट जॉन और एक फरिश्ता हैं।

दरअसल 2005 में नेशनल आर्ट गैलरी ने दी वर्जिन ऑफ दी रॉक्स पेंटिंग की इंफ्रारेड रिफ्लेक्टोग्राफी की मदद से इमेंज़िंग की थी जिसमें उन्हें पता चला था कि एक अन्य चित्र इस पेंटिंग के पीछे छिपा हुआ है जिसमें मैरी की आंखे बिलकुल अलग जगह पर बनी हुई थीं जिसे बाद में बनाए गए चित्र के रंगों से पूरा ढंक दिया गया था।

और अब पेंटिंग के पीछे ढंके चित्र के बारे में तफसील से जानने के लिए नेशनल आर्ट गैलरी ने तीन तकनीकों – इंफ्रारेड रेफ्लेक्टोग्राफी, एक्स-रे फ्लोरोसेंस स्केनिंग और हायपर स्पेक्ट्रल इमेंजिंग – की मदद ली है।

इंफ्रारेड रेफ्लेक्टोग्राफी में डाले गए इंफ्रारेड प्रकाश में ऊपरी रंगों के पीछे छिपे वे सभी ब्रश स्ट्रोक भी दिखाई देते हैं जो सामान्य प्रकाश में दिखाई नहीं देते। इनसे पता चलता है कि इस पेंटिंग में कलाकार ने पहले मैरी को बार्इं ओर बनाया था जो शिशु जीसस की ओर देख रही थी, और फरिश्ता दार्इं ओर था। चित्रों से लगता है कि दा विंची ने अंतत: जो पेंटिंग बनाई उसकी दिशा शुरुआती पेंटिंग से एकदम विपरीत है।

इसके अलावा एक्स-रे फ्लोरोसेंस करने पर पता चला कि पीछे छिपे चित्र के रंगो में ज़िंक था। दरअसल ज़िंक के कण एक्स-रे प्रकाश डालने पर चमकने लगते हैं। हायपर स्पेक्ट्रल इमेंजिंग में किसी चीज़ से आने वाली विद्युत-चुम्बकीय ऊर्जा का पता लगता है।

हालांकि अभी तक यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि दा विंची ने नीचे वाले चित्र को नई पेंटिंग से क्यों ढंका? वैसे यह पेंटिंग मूल पेंटिंग का दूसरा संस्करण है। उन्होंने अपनी मूल पेंटिंग चर्च के लिए बनाई थी जो किसी विवाद के बाद उन्होंने पेरिस में रहने वाले एक ग्राहक को बेच दी थी। उन्होंने दूसरी पेंटिंग हू-ब-हू पहली पेंटिंग की तरह बनाने की बजाय उसमें थोड़े बदलाव किए थे। जैसे दूसरी पेंटिंग में रंगों से उन्होंने अलग प्रकाश प्रभाव दिया है। चित्र में मौजूद लोगों की मुद्राएं भी थोड़ी अलग हैं। इमेंज़िंग से प्राप्त चित्रों का प्रदर्शन नवंबर से जनवरी के बीच किया जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अमेज़न के जंगल बचाना धरती की रक्षा के लिए ज़रूरी – भारत डोगरा

व्यक्तिगत, ब्राज़ील के अमेज़न वर्षा वनों के व्यापक पर्यावरणीय महत्व को देखते हुए इन्हें बचाना सदा ज़रूरी रहा है, पर जलवायु बदलाव के इस दौर में तो यह पूरे विश्व के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। इन घने जंगलों में बहुत कार्बन समाता है व इनके कटने से इतने बड़े पैमाने पर ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन होगा कि विश्व स्तर के जलवायु सम्बंधी लक्ष्य प्राप्त करना मुश्किल हो जाएगा। अत: जब ब्राज़ील के अमेज़न वर्षावन में क्षति की बात होती है तो पूरे विश्व के पर्यावरणविद चौकन्ने हो जाते हैं।

इसके अतिरिक्त अमेज़न वर्षावनों की रक्षा से ब्राज़ील के आदिवासियों का जीवन भी बहुत नज़दीकी तौर पर जुड़ा है। 274 भाषाएं बोलने वाले लगभग 300 आदिवासी समूहों की आजीविका और दैनिक जीवन भी इन वनों से नज़दीकी तौर पर जुड़े हुए हैं।

इस महत्व को देखते हुए ब्राज़ील के 1988 के संविधान में आदिवासी समुदायों के संरक्षित क्षेत्रों की पहचान व संरक्षण की व्यवस्था की गई थी। फुनाय नाम से विशेष सरकारी विभाग आदिवासी हकदारी की रक्षा के लिए बनाया गया। अमेज़न के आदिवासियों को इतिहास में बहुत अत्याचार सहने पड़े हैं, अत: बचे-खुचे लगभग नौ लाख आदिवासियों की रक्षा को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। जर्मनी और नार्वे की सहायता से इन वनों की रक्षा के लिए संरक्षण कोश भी स्थापित किया गया है।

जहां ब्राज़ील में कुछ महत्वपूर्ण कदम सही दिशा में उठाए गए थे, वहीं दूसरी ओर इससे भी बड़ा सच यह है कि अनेक शक्तिशाली तत्व इन वनों को उजाड़ने के पीछे पड़े हैं। इसमें मांस (विशेषकर बीफ) बेचने वाली बड़ी कंपनियां हैं जो जंगल काटकर पशु फार्म बना रही हैं। कुछ अन्य कंपनियां खनन व अन्य स्रोतों से कमाई करना चाहती हैं। पर इनका सामान्य लक्ष्य यह है कि जंगल काटे जाएं व आदिवासियों को उनकी वन-आधारित जीवन पद्धति से हटाया जाए।

इन व्यावसायिक हितों को इस वर्ष राष्ट्रपति पद पर जैर बोल्सोनारो के निर्वाचन से बहुत बल मिला है क्योंकि बोल्सोनारो उनके पक्ष में व आदिवासियों के विरुद्ध बयान देते रहे हैं। बोल्सोनारो के राष्ट्रपति बनने के बाद आदिवासी हितों की संवैधानिक व्यवस्था को बहुत कमज़ोर किया गया है तथा वनों पर अतिक्रमण करने वाले व्यापारिक हितों को बढ़ावा दिया गया है।

उपग्रह चित्रों से प्राप्त आरंभिक जानकारी के अनुसार जहां वर्ष 2016 में 3183 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र पर वन उजड़े थे, वहीं इस वर्ष सात महीने से भी कम समय में 3700 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर वन उजड़ गए हैं। वन विनाश की गति और भी तीव्र हो रही है। 2017 में जुलाई महीने में 457 वर्ग किलोमीटर वन उजड़े थे, जबकि इस वर्ष जुलाई के पहले तीन हफ्तों में ही 1260 वर्ग किलोमीटर वन उजड़े।

इसके साथ आदिवासी हितों पर हमले भी बढ़ गए हैं। हाल ही में वाइअपी समुदाय के मुखिया की हत्या कर दी गई। इस समुदाय के क्षेत्र में बहुत खनिज संपदा है। इस हत्या की संयुक्त मानवाधिकार उच्चायुक्त ने कड़ी निंदा की है। इस स्थिति में ब्राज़ील के अमेज़न वर्षावनों तथा यहां के आदिवासियों की आजीविका व संस्कृति की रक्षा की मांग को विश्व स्तर पर व्यापक समर्थन मिलना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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5जी शुरु होने से मौसम पूर्वानुमान पर असर

मरीका में जल्द ही शुरू होने वाली 5जी सेवाओं पर मौसम विज्ञानियों की चिंता है कि यदि आवंटित स्पेक्ट्रम पर 5जी सेवाएं शुरू हुर्इं तो मौसम सम्बंधी भविष्यवाणी का काम प्रभावित होगा।

मार्च 2019 में फेडरल कम्युनिकेशन कमीशन (FCC) द्वारा 5जी सेवाओं के लिए स्पेक्ट्रम आवंटन किया गया था, जिसके बाद वायरलेस कंपनियां 24 गीगा हर्ट्ज़ पर 5जी सेवाएं देना शुरु कर सकती हैं। 5जी शुरू होने के बाद सेवा की रफ्तार 100 गुना तक बढ़ जाएगी।

वहीं नेशनल ओशिएनिक एंड एटमॉस्फरिक एडमिनिस्ट्रेशन (NOAA) के प्रमुख नील जैकब्स की आशंका है कि 5जी का उपयोग मौसम पूर्वानुमान की सटीकता को 30 प्रतिशत तक कम कर सकता है। तब मौसम भविष्यवाणी की स्थिति वैसी हो जाएगी जैसे 1980 के दशक में हुआ करती थी। जिससे तटीय इलाकों में रहने वाले लोगों को 2-3 दिन देर से चेतावनी मिल पाएगी। विसकॉन्सिन मेडिसन युनिवर्सिटी के मौसम विज्ञानी जॉर्डन गर्थ का कहना है कि दरअसल वायुमंडल में जलवाष्प मौजूदगी बताने वाले संकेत 23.6 गीगा हर्ट्ज़ से 24 गीगा हर्टज़ के बीच काम करते हैं और 5जी नेटवर्क 24 गीगा हर्ट्ज़ पर शुरू होगा। तो 5जी से होने वाला प्रसारण इन सेंसरों को आसानी से प्रभावित कर सकता है जैसे कोई शोरगुल करने वाला पड़ोसी हो।

लेकिन सेल्युलर टेलीकम्युनिकेशन इंडस्ट्री संघ (CTIA) के उपाध्यक्ष ब्राड गिलेन का कहना है कि मौसम पूर्वानुमान पर 5जी के प्रभाव पर जो गंभीर चिंताएं व्यक्त की जा रही हैं वे गलत हैं। जो लोग 5जी के उपयोग पर रोक लगाना चाहते हैं वे यह सोच रहे हैं कि यह मौसम के बारे में अनुमान देने वाले सेंसर, कोनिकल माइक्रोवेव इमेजर साउंडर (CMIS) को प्रभावित करेगा। लेकिन तथ्य यह है कि इन्हें (CMIS) को 2006 में ही खारिज कर दिया गया था ये कभी इस्तेमाल ही नहीं किए गए हैं।

इस पर गर्थ का कहना है कि CMIS के उन्नत तकनीक के सेंसर (एडवांस्ड टेक्नॉलॉजी माइक्रोवेव साउंडर, ATMS) मौसम पूर्वानुमान में उपयोग किए जाते हैं जो 23.8 गीगा हर्ट्ज़ पर काम करते हैं जो 5जी की सीमा के नज़दीक ही है। इस पर CTIA के निक ल्युडलम का कहना है कि CMIS की तुलना में ATMS सेंसर काफी छोटे हैं और उनकी रेंज सीमित है जिससे यह आसपास की स्पेक्ट्रम के प्रति कम संवेदी है।  

5जी के उपयोग के मसले पर मोबाइल कंपनियों और अमरीकी सरकार के बीच असहमति और बहस तो कई महीनों से चल रही है लेकिन यह उजागर कुछ समय पहले हुई है। लोग चाहते हैं कि 28 अक्टूबर को मिरुा में होने वाली वर्ल्ड कम्युनिकेशन कॉन्फ्रेंस के पहले इस मुद्दे पर चल रही बहस को सुलझा लिया जाए। 

वैसे यदि 5जी किसी अन्य स्पेक्ट्रम पर शुरू होता है तो वह भी नई बहस शुरू कर सकता है। गर्थ का कहना है कि 5जी के उपयोग पर विवाद तो 36-37 गीगा हर्ट्ज पर भी हो सकता है जिसका उपयोग बारिश और बर्फ गिरने के अनुमान के लिए किया जाता है या 50 गीगाहर्ट्ज़ पर भी हो सकता है जिस पर वायुमंडलीय तापमान का पता किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)
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कानों की सफाई के लिए कपास का इस्तेमाल सुरक्षित नहीं

साफ-सफाई का ध्यान रखना शरीर के लिए काफी महत्वपूर्ण है, लेकिन एक महिला की कान साफ करने की दैनिक आदत ने उसकी खोपड़ी में जानलेवा संक्रमण पैदा कर दिया।

एक 37 वर्षीय ऑस्ट्रेलियाई महिला जैस्मिन को रोज़ रात को रूई के फोहे से अपने कान साफ करने की आदत थी। इसी आदत के चलते उसके बाएं कान से सुनने में काफी परेशानी होने लगी। शुरुआत में डॉक्टर को लगा कि कान में संक्रमण है जिसके लिए एंटीबायोटिक औषधि दी गई। लेकिन सुनने की समस्या बनी रही। कुछ ही दिनों बाद कानों को साफ करने के बाद रूई के फोहे में खून नज़र आने लगा।    

तब कान, नाक और गले के विशेषज्ञ ने सीटी स्कैन सुझाव दिया जिसमें एक भयावह स्थिति सामने आई। जैस्मिन को एक जीवाणु संक्रमण था जो उसके कान के पीछे उसकी खोपड़ी की हड्डी को खा रहा था। विशेषज्ञ ने सर्जरी का सुझाव दिया।

आखिरकार जैस्मिन के संक्रमित ऊतकों को हटाने और उसकी कर्ण नलिका को फिर से बनाने में 5 घंटे का समय लगा। चिकित्सकों ने बताया कि उसके कान में रूई के रेशे जमा हो गए थे और संक्रमित हो गए थे।

आम तौर पर लोग मानते हैं कि रूई से कान साफ करना सुरक्षित है लेकिन अमेरिकन एकेडमी ऑफ ओटोलैंरिगोलॉजी के अनुसार अपने कानों में चीज़ों को डालने से बचना चाहिए। कान को रूई के फोहे से साफ करना वास्तव में एक गलत तरीका है। इससे कान साफ होने के बजाय मैल कान में और अंदर चला जाता है। रूई या कोई अन्य उपकरण कान में जलन पैदा कर सकते हैं, कान के पर्दे को नुकसान पहुंचा सकते हैं।

इसी वर्ष मार्च में, इंग्लैंड के एक व्यक्ति की कर्ण नलिका में भी रूई फंसने के बाद उसकी खोपड़ी में संक्रमण विकसित हो गया। सर्जरी के बाद जैस्मिन के संक्रमण का इलाज तो हो गया लेकिन उसकी सुनने की क्षमता सदा के लिए जाती रही। जैस्मिन अब रूई से कान साफ करने के खतरों से सभी को सचेत करती हैं। हमारा कान शरीर का एक नाज़ुक और संवेदनशील अंग हैं जिसकी देखभाल करना काफी आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)

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