क्या पोलियो जल्दी हमारा पीछा नहीं छोड़ेगा?

हाल वैश्विक पोलियो उन्मूलन के प्रयास थोड़े मुश्किल में फंसते नज़र आ रहे हैं। इस मामले में बाधाएं दो मोर्चों पर आ रही हैं। आंकड़े बता रहे हैं कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान में पोलियो का वायरस अभी भी मौजूद है और वहां पोलियो के प्रकरण सामने आ रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन में पोलियो अनुसंधान के प्रभारी रोलैण्ड सटर का कहना है कि फिलहाल जिस तरह से कामकाज चल रहा है, वह हमें मंज़िल तक नहीं पहुंचा पाएगा।

वैश्विक पोलियो उन्मूलन कार्यक्रम पर पिछले तीस वर्षों में 16 अरब डॉलर खर्च हो चुके हैं। अधिकांश देशों से पोलियो का सफाया भी हो चुका है। किंतु पाकिस्तान और अफगानिस्तान में 2018 की इसी अवधि के मुकाबले इस वर्ष चार गुना प्रकरण सामने आए हैं। यह सही है कि पोलियो प्रकरणों की संख्या मात्र 51 है किंतु सोचने वाली बात यह है कि पोलियो वायरस से संक्रमित 200 में से मात्र 1 व्यक्ति को ही लकवा होता है। यानी वास्तविक संक्रमित व्यक्तियों की संख्या कहीं ज़्यादा है। इसका मतलब यह है कि वायरस अभी भी विचर रहा है। और तो और, हाल ही में इरान में भी इस वायरस को देखा गया है।

एक ओर तो कुदरती पोलियो वायरस खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है, वहीं दूसरी ओर, टीके में उपयोग किए गए दुर्बलीकृत वायरस की वजह से भी पोलियो के प्रकरण सामने आए हैं। खास तौर से अफ्रीका में टीका-जनित पोलियो देखा जा रहा है।

लगता है कि अफ्रीका में कुदरती वायरस का तो सफाया हो चुका है लेकिन टीका-जनित वायरस का प्रवाह में बने रहना भी घातक साबित हो सकता है। दरअसल मुंह से पिलाए जाने वाले पोलियो के टीके में वायरस का दुर्बलीकृत रूप होता है। इस दुर्बलीकृत वायरस में जेनेटिक परिवर्तन की वजह से यह एक बार फिर से संक्रामक हो जाता है। पिछले वर्ष टीका-जनित वायरस की वजह से दुनिया भर में 105 बच्चे लकवाग्रस्त हुए थे जबकि कुदरती वायरस ने मात्र 31 बच्चों को प्रभावित किया था। टीका-जनित वायरस से निपटने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सुझाव दिया है कि जब कुदरती वायरस का सफाया हो जाए तो हमें मुंह से पिलाए जाने वाले टीके को छोड़कर इंजेक्शन की ओर बढ़ना होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कुत्तों और मनुष्य के जुड़ाव में आंखों की भूमिका – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

हाल ही की एक रिपोर्ट में असम के काज़ीरंगा नेशनल पार्क की एक कुतिया के विलक्षण कौशल का वर्णन किया गया है। यह कुतिया सूंघकर बाघ और गैंडों के शिकारियों की मौजूदगी भांप लेती है और इस बारे में वन अधिकारियों को आगाह कर देती है। वन अधिकारियों ने इसे क्वार्मी नाम दिया है क्योंकि यह एक चौथाई सेना के बराबर है। इसी तरह मध्यप्रदेश के जंगलों में निर्माण और मैना नाम के दो कुत्ते बाघ और उसके शिकारियों की उपस्थिति सूंघ कर भांप लेते हैं।

कुत्ते भेड़िया कुल के सदस्य हैं। भेड़िए में तकरीबन 30 करोड़ गंध ग्राही होते हैं जबकि मनुष्यों में सिर्फ 60 लाख। भेड़िए सूंघकर 3 किलोमीटर दूर से किसी की भी मौजूदगी भांप सकते हैं। उनकी नज़र पैनी और श्रवण शक्ति तेज़ होती है, वे अपने शिकार की आहट 10 किलोमीटर दूर से ही सुन लेते हैं। सूंघने, देखने और सुनने की यह विलक्षण शक्ति कुत्तों को विरासत में मिली है। हम यह भी जानते है कुत्ते सूंघकर मनुष्यों में मलेरिया, यहां तक कि कैंसर की पहचान कर लेते हैं। और अच्छी बात तो यह है कि भेड़िए की तुलना में कुत्ते ज़्यादा शांत होते हैं और हम उन्हें पाल सकते हैं।

यूके और यूएसए के शोधकर्ताओं की हालिया रिपोर्ट कुत्तों की एक और विशेषता के बारे में बताती है: पालतू बनाए जाने के बाद कैसे समय के साथ कुत्ते के चेहरे की मांसपेशियां विकसित होती गर्इं और उनमें हमारी तरह भौंह चढ़ाने की क्षमता दिखती है। शोधकर्ता तर्क देते हैं कि उनकी इसी क्षमता के कारण मनुष्यों ने उनका पालन-पोषण शुरु किया और कुत्ते हमारे अच्छे दोस्त बन गए हैं। (Kaminski et al., Evolution of facial muscle anatomy in dogs, PNAS,116: 14677-81,July 16, 2019)

 कुत्तों को लगभग 33 हज़ार साल पहले पालतू बनाया गया था। जैसे-जैसे वे हमारे पालतू होते गए हमने उन कुत्तों को चुनना और प्राथमिकता देना शुरु कर दिया जो हमारे सम्बंधों के अनुरूप थे। और इस चयन का आधार था कुत्तों द्वारा हमारे संप्रेषण को समझने और इस्तेमाल करने की क्षमता, जो अन्य जानवरों में नहीं थी। शोधकर्ता बताते हैं कि कुत्ते मनुष्य के करीबी सम्बंधी चिम्पैंजी से भी ज़्यादा मानव संप्रेषण संकेतों (जैसे किसी दिशा में इंगित करने या किसी चीज़ की तरफ देखने) का उपयोग अधिक कुशलता से करते हैं।

कुत्ते-मनुष्य के आपसी रिश्ते में आंख मिलाने का महत्वपूर्ण योगदान है। एक जापानी शोध समूह के मुताबिक कुत्ते और मनुष्य का एक-दूसरे को एकटक देखना कुत्ते और कुत्ते के मालिक दोनों में जैव-रासायनिक परिवर्तन शुरू करता है, वैसे ही जैसे मां और शिशु के बीच लगाव होता है। शोधकर्ताओं के अनुसार संभावित वैकासिक परिदृश्य यह हो सकता है कि कुत्तों के पूर्वजों ने कुछ ऐसे लक्षण दर्शाए होंगे जिनसे मनुष्यों में उनकी देखभाल करने की इच्छा पैदा होती होगी। मनुष्य ने जाने-अनजाने इस व्यवहार को बढ़ावा दिया होगा और चुना होगा जिसके चलते आज कुत्तों में समरूपी लक्षण दिखते हैं।

इस पूरी प्रक्रिया में आंखों के बीच सम्पर्क और एकटक देखने का महत्वपूर्ण योगदान है। कुत्ते के मालिक कुत्तों की टकटकी को बखूबी पहचानते हैं – वे कभी-कभी इतनी दुखी निगाहों से देखते हैं कि मालिक उन्हें गले लगाना चाहेंगे, और कभी-कभी इतनी परेशान करने वाली निगाहों से देखेंगे कि आप उन्हें सज़ा देना चाहेंगे।

इसी संदर्भ में यूके-यूएसए के शोधकर्ता यह समझना चाहते थे कि कैसे कुत्तों के चेहरे की मांसपेशियां और शरीर रचना मनुष्य द्वारा चयन के ज़रिए इस तरह विकसित हुई कि उसने मनुष्य-कुत्ते के आंखों के सम्पर्क और ऐसी टकटकी में व्यक्त भाषा में योगदान दिया। हम मनुष्य उन कुत्तों को सराहते हैं जिनकी रचना और हावभाव शिशुओं जैसे होते हैं। जैसे बड़ा माथा, बड़ी-बड़ी आंखें। शोधकर्ताओं ने यह भी बताया कि कुत्तों के चेहरे की कुछ खास पेशियां भौंहे ऊपर-नीचे करने में मदद करती हैं, जो मनुष्यों को लुभाता है।

क्या मनुष्य द्वारा पालतू बनाए जाने के दौरान कुत्तों के चेहरे की पेशियों का विकास इस तरह हुआ है जिससे मनुष्य-कुत्ते के बीच आपसी संवाद सुगम हो जाता है? इस बात का पता लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने तफसील से घरेलू, पालतू कुत्तों और धूसर भेड़ियों के चेहरे की रचना तुलना की। उन्होंने पाया कि कुत्तों के समान भेड़िए अपनी भौंह के अंदर वाले हिस्से को नहीं हिला पाते। इसके अलावा कुत्तों में एक ऐसी पेशी होती हैं जिसकी मदद से वे पलकों को कान की ओर ले जा सकते हैं जबकि भेड़िए ऐसा नहीं कर पाते। कुत्ते अपनी भौंहों को लगातार कई बार हिला सकते और उनकी भौंहों की यह हरकत अभिव्यक्ति पूर्ण होती है। इसे लोग ‘पपी डॉग’ हरकत कहते हैं यानी दुखी होना, खुशी ज़ाहिर करना, बे-परवाही जताना, या शिशुओं जैसे अन्य व्यवहार करना। और कुत्तों की यह पपी डॉग हरकत मनुष्यों द्वारा कुत्तों पर चयन के दबाव के चलते आई है।

ज़रूरी नहीं कि बेहतरीन कुत्ता प्यारा या सुंदर हो। बेहतरीन कुत्ता तो वह होता है जो आपकी ओर देखे और आप उसका जवाब दें। यह नज़र आपसी लगाव की द्योतक होती है।

कुछ दिनों पहले कैलिफोर्निया में ‘दुनिया का सबसे बदसूरत कुत्ता’ वार्षिक प्रतियोगिता सम्पन्न हुई। इस प्रतियोगिता का विजेता स्केम्प दी ट्रेम्प नाम का कुत्ता है, जिसकी बटन जैसी आंखे हैं, दांत नदारद, और ठूंठ जैसे छोटे-छोटे पैर हैं। लेकिन उसकी मालकिन मिस यिवोन मॉरोन को उस पर फख्र है। बात सिर्फ यह नहीं है कि आपका कुत्ता कैसा दिखता है, बल्कि कुत्ता अपने मालिक को पपी छवि दिखाता है और मालिक उसे कैसे देखती है। सुंदरता तो देखने वाले की आंखों में होती है। (स्रोत फीचर्स)

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अदरख के अणु सूक्ष्मजीव संसार को बदल देते हैं

शोध पत्रिका सेल होस्ट एंड माइक्रोब में प्रकाशित एक शोध पत्र में हुआंग-जे ज़ांग व उनके साथियों ने अदरख के औषधीय गुणों का आधार स्पष्ट किया है। इससे पहले वे देख चुके थे कि चूहों में अदरख और ब्रोकली जैसे पौधों से प्राप्त कुछ एक्सोसोमनुमा नैनो कण (ELN) अल्कोहल की वजह से होने वाली लीवर की क्षति और कोलाइटिस जैसी तकलीफों की रोकथाम में मददगार होते हैं। हाल ही में जब उन्होंने अदरख से प्राप्त ELN का विश्लेषण किया तो पाया कि उनमें बहुत सारे सूक्ष्म आरएनए होते हैं। इस परिणाम ने उन्हें सोचने पर विवश कर दिया कि शायद आंतों के बैक्टीरिया इन सूक्ष्म आरएनए का भक्षण करेंगे और इसकी वजह से उनके जीन्स की अभिव्यक्ति पर असर पड़ेगा।

इसे जांचने के लिए शोधकर्ताओं ने अदरख से प्राप्त एक्सोसोमनुमा नैनो कणों (GELN) का असर कोलाइटिस पीड़ित चूहों पर करके देखा। पता चला कि GELN को ज़्यादातर लैक्टोबेसिलस ग्रहण करते हैं और इन कणों में उपस्थित आरएनए बैक्टीरिया के जीन्स को उत्तेजित कर देते हैं। यह देखा गया कि खास तौर से इन्टरल्यूकिन-22 के जीन की अभिव्यक्ति बढ़ जाती है। इन्टरल्य़ूकिन-22 ऊतकों की मरम्मत में मदद करता है और सूक्ष्मजीवों के खिलाफ प्रतिरोध को बढ़ाता है। अंतत: चूहे को कोलाइटिस से राहत मिलती है।

इसके बाद ज़ांग की टीम ने कुछ चूहों को शुद्ध GELN खिलाया। इन चूहों के आंतों के बैक्टीरिया संसार का विश्लेषण करने पर पता चला कि उनमें लाभदायक लैक्टोबेसिलस की संख्या काफी बढ़ी हुई थी। अब टीम ने कुछ चूहों में कोलाइटिस पैदा किया और उन्हें GELN खिलाया गया। ऐसा करने पर कोलाइटिस से राहत मिली। ज़ांग का कहना है कि इन प्रयोगों से स्पष्ट है कि पौधों से प्राप्त कख्र्ग़् आंतों में पल रहे सूक्ष्मजीव संघटन को बदल सकते हैं। यह फिलहाल किसी नुस्खे का आधार तो नहीं बन सकता किंतु आगे और अध्ययन की संभावना अवश्य दर्शाता है। (स्रोत फीचर्स)

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सूक्ष्मजीव कुपोषण से लड़ने में सहायक

हाल ही में साइंस पत्रिका में प्रकाशित दो अध्ययनों से लगता है कि कुपोषित बच्चों को पूरक आहार देने के अलावा उनकी आंतों के सूक्ष्मजीव संसार को सुधारने से सेहत में काफी फायदा हो सकता है।

वैसे उपरोक्त अध्ययनों में अधिकांश प्रयोग जंतुओं पर किए गए थे किंतु यह भी देखा गया कि जिन थोड़े-से बच्चों के साथ प्रयोग किया गया था, उनकी सेहत में सुधार आया। यह शोध कार्य बांग्लादेश के अंतर्राष्ट्रीय अतिसार अनुसंधान केंद्र के तहमीद अहमद और वॉशिंगटन विश्वविद्यालय के जेफ्री गॉर्डन के दलों ने संयुक्त रूप से किया है। दरअसल, अहमद पिछले 30 वर्षों से कोशिश कर रहे हैं कि कुपोषित बच्चों की सेहत में अच्छा सुधार हो। फिर उन्होंने गॉर्डन के शोध कार्य को देखा तो आशा की एक नई किरण नज़र आई। गॉर्डन ने मोटापे का सम्बंध आंतों के कुछ बैक्टीरिया से देखा था। दोनों ने सोचा कि क्या मोटापे के विपरीत ये सूक्ष्मजीव कुपोषण में भी कोई भूमिका निभाते हैं।

दोनों दलों ने 2014 में रिपोर्ट किया कि जब कोई शिशु घुटने चलने की स्थिति में आता है तो उसकी आंतों का सूक्ष्मजीव संसार ‘परिपक्व’ होने लगता है। उन्होंने यह भी देखा कि गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों में सूक्ष्मजीव संसार ‘परिपक्वता’ तक नहीं पहुंचता। इस समझ के आधार पर शोधकर्ताओं ने बच्चों से प्राप्त परिपक्व और अपरिपक्व सूक्ष्मजीव संसार को ऐसे चूहों में डाला जिन्हें बगैर सूक्ष्मजीवों के पाला गया था। प्रयोग में पता चला कि जिन चूहों को अपरिपक्व सूक्ष्मजीव संसार मिला था उनमें मांसपेशियां कम विकसित हुर्इं, हड्डियां कमज़ोर रहीं और उनका चयापचय भी गड़बड़ रहा। इसके आधार पर उनका निष्कर्ष था कि परिपक्व सूक्ष्मजीव संसार सही विकास के लिए ज़रूरी है।

इसके बाद शोधकर्ता यह जानना चाहते थे कि आंतों के सूक्ष्मजीवों में से कौन-से सूक्ष्मजीव परिपक्वता के लिए ज़िम्मेदार हैं। अहमद के दल ने बांग्लादेश के 50 बढ़ते शिशुओं के मल के नमूने प्रति माह एकत्र करके रखे थे। इनके विश्लेषण से पता चला कि इनमें से 15 बैक्टीरिया ऐसे हैं जो सूक्ष्मजीव संसार की परिपक्वता के साथ घटते-बढ़ते हैं। यही स्थिति पेरू और भारत के स्वस्थ शिशुओं में देखी गई।

तो विचार यह बना कि इन विशिष्ट सूक्ष्मजीवों को बढ़ावा देकर या उनका दमन करके कुपोषित बच्चों को वापिस स्वस्थ होने में मदद मिलेगी। चूहों और सूअर के पिल्लों में इस विचार का परीक्षण किया गया। कुछ चूहों और पिल्लों को कुपोषित बच्चों से प्राप्त सूक्ष्मजीव संसार दिया गया। शोधकर्ता देखना यह चाहते थे कि क्या कुछ खाद्य पदार्थ ऐसे हैं जो सूक्ष्मजीव संसार को बेहतर बना सकते हैं। निष्कर्ष निकला कि आम तौर पर खाद्य सहायता में जो चावल और दूध पावडर दिया जाता है वह कुपोषण दूर करने में नाकाम रहा। इसकी बजाय काबुली चने, केले और सोयाबीन और मूंगफली के आटे ने सूक्ष्मजीव संसार को स्वस्थ बनाने में मदद की। उनका कहना है कि इससे पता चलता है कि कुपोषित बच्चों के लिए खाद्य वस्तुओं के सही चुनाव का कितना महत्व है।

बांग्लादेश के कुपोषित बच्चों के साथ ऐसे ही एक सीमित अध्ययन में पता चला कि उपरोक्त चार चीज़ों का मिला-जुला उपयोग सही परिणाम देता है। अब अहमद इसी तरह चुने गए भोजन को लेकर बच्चों के एक बड़े समूह पर अध्ययन करने जा रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

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जंगल बसाए जा सकते हैं – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

द्योगिक विकास और उपभोक्ता मांग के कारण बढ़ता वैश्विक तापमान दुनिया भर में तबाही मचा रहा है। विश्व में तापमान बढ़ता जा रहा है, दक्षिण चीन और पूर्वोत्तर भारत में बाढ़ कहर बरपा रही है, बे-मौसम बारिश हो रही है, और विडंबना देखिए कि बारिश के मौसम में देर से और मामूली बारिश हो रही है। इस तरह के जलवायु परिवर्तन को थामने का एक उपाय है तापमान वृद्धि के लिए ज़िम्मेदार ग्रीनहाउस गैसों, खासकर कार्बन डाईऑक्साइड के स्तर को कम करना। बढ़ते वैश्विक तापमान को सीमित करने के प्रयास में दुनिया के कई देश एकजुट हुए हैं। कोशिश यह है कि साल 2050 तक तापमान वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक न हो।

कार्बन डाईऑक्साइड कम करने का एक प्रमुख तरीका है पेड़-पौधों की संख्या और वन क्षेत्र बढ़ाना। पेड़-पौधे हवा से कार्बन डाईऑक्साइड सोखते हैं, और सूर्य के प्रकाश और पानी का उपयोग कर (हमारे लिए) भोजन और ऑक्सीजन बनाते हैं। पेड़ों से प्राप्त लकड़ी का उपयोग हम इमारतें और फर्नीचर बनाने में करते हैं। संस्कृत में कल्पतरू की कल्पना की गई है – इच्छा पूरी करने वाला पेड़।

फिर भी हम इन्हें मार (काट) रहे हैं: पूरे विश्व में दशकों से लगातार वनों की कटाई हो रही है जिससे मौसम, पौधों, जानवरों, सूक्ष्मजीवों का जीवन और जंगलों में रहने वाले मनुष्यों की आजीविका प्रभावित हो रही है। पृथ्वी का कुल भू-क्षेत्र 52 अरब हैक्टर है, इसका 31 प्रतिशत हिस्सा वन क्षेत्र रहा है। व्यावसायिक उद्देश्य से दक्षिणी अमेरिका के अमेज़न वन का बड़ा हिस्सा काटा जा रहा है। वनों की अंधाधुंध कटाई से पश्चिमी अमेज़न क्षेत्र के पेरू और बोलीविया बुरी तरह प्रभावित हैं। यही हाल मेक्सिको और उसके पड़ोसी क्षेत्र मेसोअमेरिका का है। रूस, जिसका लगभग 45 प्रतिशत भू-क्षेत्र वन है, भी पेड़ों की कटाई कर रहा है। बड़े पैमाने पर जंगलों की कटाई ने ग्लोबल वार्मिंग में योगदान दिया है।

खाद्य एवं कृषि संगठन (FOA) के अनुसार ‘वन’ का मतलब है कम से कम 0.5 हैक्टर में फैला ऐसा भू-क्षेत्र जिसके कम से कम 10 प्रतिशत हिस्से में पेड़ हों, और जिस पर कृषि सम्बंधी गतिविधि या मानव बसाहट ना हो। इस परिभाषा की मदद से स्विस और फ्रांसिसी पर्यावरणविदों के समूह ने 4.4 अरब हैक्टर में छाए वृक्षाच्छादन का विश्लेषण किया जो मौजूदा जलवायु में संभव है। उन्होंने पाया कि यदि मौजूदा पेड़ और कृषि सम्बंधित क्षेत्र और शहरी क्षेत्रों को हटा दें तो भी 0.9 अरब हैक्टर से अधिक भूमि वृक्षारोपण के लिए उपलब्ध है। नवीनतम तरीकों से किया गया यह अध्ययन साइंस पत्रिका के 5 जुलाई के अंक में प्रकाशित हुआ है। यानी विश्व स्तर पर वनीकरण करके जलवायु परिवर्तन धीमा करने की संभावना मौजूद है। शोधकर्ताओं के अनुसार 50 प्रतिशत से अधिक वनीकरण की संभावना 6 देशों – रूस, ब्राज़ील, चीन, यूएसए, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में है। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि यह भूमि निजी है या सार्वजनिक, लेकिन उन्होंने इस बात की पुष्टि की है कि 1 अरब हैक्टर में वनीकरण (10 प्रतिशत से अधिक वनाच्छादन के साथ) संभव है।

खुशी की बात यह है कि कई देशों के कुछ समूह और सरकारों ने वृक्षारोपण की ओर रुख किया है। इनमें खास तौर से फिलीपाइन्स और भारत की कई राज्य सरकारें (फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट और डाउन टू अर्थ के विश्लेषण के अनुसार) शामिल हैं।

भारत का भू-क्षेत्र 32,87,569 वर्ग किलोमीटर है, जिसका 21.54 प्रतिशत हिस्सा वन क्षेत्र है। वर्ष 2015 से 2018 के बीच भारत के वन क्षेत्र में लगभग 6778 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है। सबसे अधिक वन क्षेत्र मध्यप्रदेश में है, इसके बाद छत्तीसगढ़, उड़ीसा और अरुणाचल प्रदेश आते हैं। दूसरी ओर पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में सबसे कम वन क्षेत्र है। आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल और उड़ीसा ने अपने वनों में वृक्षाच्छादन को थोड़ा बढ़ाया है (10 प्रतिशत से कम)। कुछ निजी समूह जैसे लुधियाना का गुरू नानक सेक्रेड फॉरेस्ट, रायपुर के मध्य स्थित दी मिडिल ऑफ द टाउन फॉरेस्ट, शुभेन्दु शर्मा का अफॉरेस्ट समूह उल्लेखनीय गैर-सरकारी पहल हैं। आप भी इस तरह के कुछ और समूह के बारे में जानते ही होंगे। (और, हम शतायु सालुमरदा तिमक्का को कैसे भूल सकते हैं जिन्होंने लगभग 385 बरगद और 8000 अन्य वृक्ष लगाए, या उत्तराखंड के चिपको आंदोलन से जुड़े सुंदरलाल बहुगुणा को?)।

एक बेहतरीन मिसाल

लेकिन वनीकरण की सबसे उम्दा मिसाल है फिलीपाइन्स। फिलीपाइन्स 7100 द्वीपों का समूह है जिसका कुल भू-क्षेत्र लगभग तीन लाख वर्ग किलोमीटर है और आबादी लगभग 10 करोड़ 40 लाख। 1900 में फिलीपाइन्स में लगभग 65 प्रतिशत वन क्षेत्र था। इसके बाद बड़े पैमाने पर लगातार हुई कटाई से 1987 में यह वन क्षेत्र घटकर सिर्फ 21 प्रतिशत रह गया। तब वहां की सरकार स्वयं वनीकरण करने के लिए प्रतिबद्ध हुई। नतीजतन वर्ष 2010 में वन क्षेत्र बढ़कर 26 प्रतिशत हो गया। और अब वहां की सरकार ने एक और उल्लेखनीय कार्यक्रम चलाया है जिसमें प्राथमिक, हाईस्कूल और कॉलेज के प्रत्येक छात्र को उत्तीर्ण होने के पहले 10 पेड़ लगाना अनिवार्य है। कहां और कौन-से पौधे लगाने हैं, इसके बारे में छात्रों का मार्गदर्शन किया जाता है। (और जानने के लिए देखें –(news.ml.com.ph> of Manila Bulletin, July 16, 2019)। इस प्रस्ताव के प्रवर्तक गैरी एलेजैनो का इस बात पर ज़ोर था कि शिक्षा प्रणाली युवाओं में प्राकृतिक संसाधनों के नैतिक और किफायती उपयोग के प्रति जागरूकता पैदा करने का माध्यम बननी चाहिए ताकि सामाजिक रूप से ज़िम्मेदार और जागरूक नागरिकों का निर्माण हो सके।

यह हमारे भारतीय छात्रों के लिए एक बेहतरीन मिसाल है। मैंने सिफारिश की है कि इस मॉडल को राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 में जोड़ा जाए, ताकि हमारे युवा फिलीपाइन्स के इस प्रयोग से सीखें और अपनाएं। (स्रोत फीचर्स)

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विज्ञान शिक्षण में भेदभाव

मैक्वारी युनिवर्सिटी, ऑस्ट्रेलिया की शोधकर्ता डॉ. कैरोल नेवाल के अनुसार शिक्षकों में विज्ञान शिक्षण को लेकर भेदभाव का रवैया देखा गया है। अवचेतन रूप से वे भौतिकी में लड़कों की तुलना में लड़कियों को शैक्षणिक रूप से कम सक्षम मानते हैं।

डॉ. नेवाल का यह अध्ययन उस सामाजिक रवैये को रेखांकित करता है जो लड़कियों को विज्ञान अध्ययन से दूर करता है। यह इस बात से साबित होता है कि भौतिकी के नोबेल पुरस्कार के 117 वर्ष के इतिहास में अभी तक केवल 3 महिलाओं को ही यह पुरस्कार मिला है।

कंटेम्पररी एजुकेशनल साइकोलॉजी में प्रकाशित डॉ. नेवाल के शोध में बताया गया है कि एक प्रयोग के दौरान किस प्रकार से एक काल्पनिक आठ वर्षीय बच्चे के जेंडर के साथ हेरफेर की गई और इसने किस तरह बच्चे की क्षमता और विज्ञान के प्रति लगाव को लेकर वयस्कों के एहसास को प्रभावित किया।

डॉ. नेवाल ने अध्ययन में पाया कि व्यस्क दरअसल बच्चों में आठ साल की उम्र से ही भेदभाव करने लगते हैं और लड़कियों में भौतिकी विषय को लेकर उन्हें उम्मीद कम रहती है। एक प्रयोग में डॉ. नेवाल और उनके सहयोगियों ने 80 प्रशिक्षु शिक्षकों और मनोविज्ञान में स्नातकों से आठ साल के बच्चों के एक काल्पनिक प्रोफाइल के आधार पर उनकी शैक्षणिक क्षमता का मूल्यांकन करने को कहा। इसमें उन्होंने कई प्रोफाइल शामिल किए थे – ऐसी लड़कियां जो गुड़ियों से खेलती हैं, ऐसे लड़के जो क्रिकेट खेलते हैं और कुछ ऐसे बच्चे जिनका जेंडर प्रोफाइल में स्पष्ट नहीं होता था और तैराकी पसंद करते थे।

प्रतिभागियों द्वारा इन काल्पनिक बच्चों को स्काइप पर विज्ञान सिखाने के लिए भी कहा गया। जब उन्हें पता होता कि वे किसी लड़की को पढ़ा रहे हैं, तब वे कम वैज्ञानिक शब्दावली का उपयोग करते थे। लड़कियों को पढ़ाने के मामले में अधिकांश प्रतिभागियों का ऐसा मानना था कि भौतिकी में उनका प्रदर्शन अच्छा रहने या उन्हें भौतिकी में रुचि होने की संभावना कम है। यदि वह कोई रूढ़िगत लड़की होती, तो वे मान लेते थे उसकी किसी भी विज्ञान में रुचि रखने की संभावना है। यह मुमकिन है कि वे अपने पूर्वाग्रह से अनजान थे, लेकिन उन्हें यह जानकर आश्चर्य होता कि उन्होंने लड़कियों और लड़कों को अलग-अलग तरीके से पढ़ाया।

वर्तमान परिस्थिति भी इस अध्ययन की पुष्टि करती है। ऑस्ट्रेलियन इंस्टीट्यूट ऑफ फिज़िक्स (एआईपी) के आंकड़ों के अनुसार, हाई स्कूल के अंतिम वर्ष में सात प्रतिशत लड़कियां और 23.5 प्रतिशत लड़के भौतिकी पढ़ते हैं। विश्वविद्यालय में भी वर्ष 2002 में भौतिकी स्नातक कक्षाओं में लड़कियों की संख्या 27.6 प्रतिशत थी जो घटकर 21 प्रतिशत रह गई है। अमेरिकी और ब्रिटिश विश्वविद्यालयों में भी यही स्थिति है। स्कूलों और विश्वविद्यालयों में भौतिकी शिक्षकों और सार्वजनिक एवं निजी प्रयोगशालाओं में शोधकर्ताओं के रूप में भी महिलाओं की संख्या कम होती है। एआईपी के अनुसार आम तौर पर महिला भौतिकविदों की वरिष्ठता भी कम होती है और आय भी।

डॉ. नेवाल का कहना है कि लड़कियों की भागीदारी को प्रोत्साहित करने के लिए विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिग व गणित छात्रवृत्ति वगैरह में निवेश के साथ-साथ सांस्कृतिक बदलाव भी ज़रूरी होगा। साथ ही अभिभावकों को भी अपना रवैया बदलना होगा ताकि विज्ञान व गणित के प्रति एक सकारात्मक रुझान के अनुकरणीय उदाहरण सामने आएं। (स्रोत फीचर्स)
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सोवियत संघ के विघटन से ग्रीनहाउस गैसों में कमी

क अनुमान के मुताबिक 1991 में सोवियत संघ के पतन के बाद जो आर्थिक संकट पैदा हुआ था, उसकी वजह से वहां ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में भारी कमी आई थी। इसका मुख्य कारण यह बताया गया है कि इस आर्थिक संकट के कारण लोगों ने मांस खाना बहुत कम कर दिया था।

सोवियत संघ में कम्युनिस्ट शासन के दौरान पशुपालन से प्राप्त मांस वहां के लोगों का मुख्य भोजन हुआ करता था। 1990 में एक औसत सोवियत नागरिक प्रति वर्ष 32 किलोग्राम मांस खाता था जो उस समय पश्चिमी युरोप की प्रति व्यक्ति खपत से सवा गुना और वैश्विक औसत से 4 गुना ज़्यादा था।

लेकिन सोवियत संघ के विघटन के बाद रोज़मर्रा की वस्तुओं की कीमतों में ज़बरदस्त वृद्धि हुई और रूबल की क्रय क्षमता बहुत कम हो गई। ऐसी स्थिति में मांस उत्पादन भी बहुत कम हो गया। बताते हैं कि उस दौर के बाद पूर्व-सोवियत संघ की एक-तिहाई कृषि भूमि खाली पड़ी है। सोवियत संघ के पतन के बाद उस क्षेत्र में औद्योगिक उत्पादन में भी काफी गिरावट हुई थी।

सोवियत खाद्य एवं कृषि व्यवस्था में उपरोक्त परिवर्तनों के चलते 1992-2011 के दौरान ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 7.6 अरब टन प्रति वर्ष की कमी आई। सोवियत संघ में मांस के उपभोग और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के आंकड़ों के आधार पर यह अनुमान जर्मनी के लीबनिज़ इंस्टीट्यूट ऑफ एग्रिकल्चरल डेवलपमेंट इन ट्रांज़िशन इकॉनॉमीज़ के एफ. शीयरहॉर्न व उनके साथियों ने एन्वायरमेंटल रिसर्च लेटर्स नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित किया है। फिलहाल रूस 2.5 अरब टन ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करता है।

शीयरहॉर्न का कहना है कि फिलहाल पशुपालन दुनिया भर में 14.5 प्रतिशत ग्रीनङाउस गैसों के लिए ज़िम्मेदार है। खास तौर से गौमांस का उत्पादन सबसे अधिक ग्रीनहाउस गैसों के लिए ज़िम्मेदार होता है क्योंकि इसके लिए जो चारागाह विकसित किए जाते हैं, वे जंगल काटकर बनते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जारी है मौसम की भविष्यवाणी के प्रयास – नरेन्द्र देवांगन

टली के आल्प्स पर्वतीय क्षेत्र में चार इंजनों वाला एक टर्बाइन चालित विमान उड़ान भर रहा था। विमान ने 1524 मीटर की ऊंचाई से गोता लगाया। इससे पहले कि वह फिर से अपनी सही अवस्था में आए, विमान सिर्फ 90 सेकंड में 213 मीटर की ऊंचाई तक आ चुका था। कुछ ही मिनटों में वह स्विट्ज़रलैंड के सेंट गाटहार्ड दर्रे में ऊपर-नीचे होता हुआ अपने पूर्व निश्चित लक्ष्य की ओर उड़ान भर रहा था। वह चारों ओर से बहुत ही खराब मौसम से घिर चुका था। 7 घंटे से भी अधिक समय तक यह विमान हिचकोले भरता हुआ आल्प्स के इर्द-गिर्द उड़ता रहा और अंत में भूमध्य सागर तथा 4 देशों की सीमाएं पार कर जेनेवा के कोयनट्रिन हवाई अड्डे पर उतरा।

विमान में सवार युरोप और अमरीका के 12 वायुमंडलीय वैज्ञानिकों में से किसी के भी चेहरे पर परेशानी का भाव नहीं था। उनके लिए यह कष्टकारी उड़ान उनके मिशन का एक हिस्सा थी। एल्पाइन एक्सपेरिमेंट (एलपेक्स) के अंतर्गत उड़ान भर रहे इस विमान का उद्देश्य यह अध्ययन करना था कि पर्वतमालाएं एक बड़े क्षेत्र के मौसम को किस तरह प्रभावित करती हैं। इस कार्य के लिए विमान में पूरी प्रयोगशाला थी जिसमें वायु गति मापने से ले कर बादलों में पानी की मात्रा आदि सभी चीज़ें दर्ज करने के लिए कंप्यूटर व अनेक सूक्ष्म यंत्र लगे हुए थे जो उन कारणों का पता लगा रहे थे जिनसे आल्प्स के मौसम से तेज़ हवाएं पैदा होती हैं और दक्षिण फ्रांस से होती हुई इटली के एड्रियाटिक सागर तट पर पहुंच कर तबाही मचाती हैं।

किसी भी वैज्ञानिक चुनौती की अपेक्षा मौसम की भविष्यवाणी करना अधिक रहस्यमय है। खेती-बाड़ी, परिवहन, जहाज़रानी, उड्डयन और यहां तक कि सैर-सपाटे के लिए भी मौसम की पूर्व जानकारी होना महत्वपूर्ण है। अनुमान है कि अकेले पश्चिमी युरोप के लिए ही मौसम की 7 दिन की पूर्ण विश्वसनीय भविष्यवाणी करने से हर साल करोड़ों डॉलर का फर्क पड़ जाता है।

मनुष्य सदियों से मौसम की भविष्यवाणी करने का प्रयास कर रहा है। युरोप के कुछ देशों में तो वर्षा और तापमान के 300 वर्ष पुराने रिकार्ड मिले हैं। परंतु पुराने समय के मौसम वैज्ञानिक बड़े-बड़े यंत्रों और गणना करने की उच्च क्षमता के बिना अपने अनुभवों के आधार पर ही भविष्यवाणियां किया करते थे।

लगभग 60 वर्ष पहले ब्रिटिश वैज्ञानिक एल. एफ. रिचर्डसन ने यह प्रमाणित किया कि भौतिकी के नियमों पर आधारित गणित के समीकरणों की सहायता से मौसम की भविष्यवाणी की जा सकती है। परंतु रिचर्डसन ने एक छोटे से इलाके के मौसम की 6 घंटे पहले भविष्यवाणी करने का जो प्रयास किया, उसकी गणना करने में उन्हें कई सप्ताह तक कड़ी मेहनत करनी पड़ी। अपने इस प्रयास के उपरांत वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि पूरे विश्व के मौसम की निरंतर भविष्यवाणी करने के लिए 64,000 व्यक्तियों को गणना करने वाली साधारण मशीनों पर लगातार काम करते रहना होगा।

1950 में गणितज्ञ जान फॉन नॉइमान और उनके सहयोगियों ने इस समस्या को कंप्यूटर की मदद से हल किया। आज के सशक्त और तेज़ कंप्यूटर तो इस विधि के मुख्य आधार हैं। लेकिन उन्नत तकनीकों ने मौसम के पूर्वानुमान को अत्यधिक खर्चीला बना दिया है। दुनिया की समस्त मौसम विज्ञान सेवाओं को चलाने की सालाना लागत दो अरब डॉलर से अधिक है।

आफनबाक (पश्चिमी जर्मनी) स्थित प्रेक्षणशाला में पूरी कमान कंप्यूटरों के हाथ में है। यहां विश्व के 9000 से अधिक केंद्रों से वायु की दिशा, आद्रता और वायु दाब के बारे में सूचनाएं एकत्र कर कंप्यूटर में डाली जाती हैं। कभी-कभी तो हज़ारों किलोमीटर दूर दर्ज किए गए आंकड़े भी घंटे भर के अंदर कंप्यूटर में भर दिए जाते हैं। जेनेवा स्थित विश्व मौसम विज्ञान संगठन विभिन्न देशों से तथा विमान चालकों, व्यापारिक जहाज़ों और मौसम उपग्रहों से प्राप्त मौसम के सैकड़ों नक्शे जारी करता है। युरोप का मौसम उपग्रह मेटियोसैट-2 भूमध्य रेखा के ऊपर 36,000 कि.मी. की ऊंचाई से हर आधे घंटे बाद वायुमंडल के चित्र भेजता है।

उपग्रहों द्वारा मौसम के बारे में एकत्रित की गई जानकारी हमें अंकों के रूप में प्राप्त होती है। इन अंकों में वायुमंडल की निश्चित समय की परिस्थितियों का पूर्ण विवरण होता है। इस विवरण से कंप्यूटर पूरे वायुमंडल का एक काल्पनिक चित्र तैयार करता है। इस चित्र में विभिन्न स्थान बिंदुओं की सहायता से दर्शाए जाते हैं। इस मानचित्र को गणित समीकरणों की बहुत ही जटिल प्रणाली में फिट किया जाता है। इसी से यह पता चलता है कि प्रत्येक बिंदु पर मौसम में कैसा-कैसा परिवर्तन होगा।

ऐसा माना जाता है कि इंग्लैंड के रीडिंग शहर में स्थित युरोपियन सेंटर फॉर मीडियम रेंज वेदर फोरकास्ट (ईसीएमडब्लूएफ) मौसम की भविष्यवाणी करने वाला सर्वश्रेष्ठ केंद्र है। इस केंद्र में लगा शक्तिशाली कंप्यूटर प्रति दिन लगभग 8 करोड़ सूचनाएं प्राप्त करता है तथा प्रति सेकंड एक साथ 5 करोड़ क्रियाएं कर सकता है।

मध्यम दूरी के मौसम की भविष्यवाणी करना किसी भी अकेले देश के तकनीकी और वित्तीय साधनों के बस के बाहर है, अत: यह केंद्र स्थापित किया गया। केंद्र के निदेशक के अनुसार, बादलों के लिए राष्ट्रों की सीमाओं का कोई महत्व नहीं है। अब 5-6 दिन तक के मौसम की सही भविष्यवाणी की जा सकती है। पहले केवल 2-3 दिन की भविष्यवाणी सही होती थी।

मौसम के बारे में दो-तीन दिन पहले की सूचना भी बहुत महत्वपूर्ण हो सकती है। नवंबर में जब इटली के दक्षिणी भाग में भूकंप आया तो ईसीएमडब्लूएफ ने आने वाले सप्ताह के दौरान ठंडे मौसम और तेज़ तूफान आने की बिलकुल सही भविष्यवाणी की थी। स्थानीय अधिकारी सचेत हो गए कि ढाई लाख बेघर भूकंप पीड़ितों के लिए गरम कपड़ों और शरण स्थलों की आवश्यकता होगी।

ईसीएमडब्लूएफ तथा अन्य सभी राष्ट्रीय केंद्रों द्वारा इस्तेमाल में लाए जाने वाले कंप्यूटर मॉडलों की बराबर सूक्ष्म ट्यूनिंग की जाती है ताकि वे सटीक काम करें। कई मौसम कार्यालयों में और भी सूक्ष्म ग्रिड लगाए गए हैं ताकि छोटे-छोटे क्षेत्रों के बारे में भविष्यवाणी की जा सके। कहते हैं कि 1982 में मध्य फ्रांस में तबाही मचाने वाले बर्फीले तूफान के बारे में पहले से भविष्यवाणी नहीं की जा सकी थी क्योंकि वह इलाका ग्रिड के हिसाब से बहुत ही छोटा था।

इसके बाद फ्रांस में सूक्ष्म ग्रिड इस्तेमाल किया जाने लगा जो बहुत कम दूरी पर स्थित बिंदुओं को भी अलग-अलग दर्शा सकता है। मौसम वैज्ञानिकों का लक्ष्य इन मॉडलों को और अधिक सटीक बनाना तथा पूर्वानुमान लगाने की सीमा को 10 दिन तक बढ़ाना है।

वैज्ञानिक मौसम की भविष्यवाणी के दूसरे पहलुओं पर भी काम करने लगे हैं। जैसे बहुत ही कम अवधि यानी कुछ ही घंटों के मौसम की जानकारी देना। इसे ‘नाऊकास्टिंग’ यानी तत्काल पूर्वानुमान कहते हैं। अलबत्ता, अल्प अवधि की ये भविष्यवाणियां पूरी तरह पक्की नहीं होतीं। जैसे ब्रिाटेन का मौसम कार्यालय आसमान साफ रहने या कहीं-कहीं वर्षा होने की भविष्यवाणी तो कर सकता है परंतु ठीक-ठीक नहीं बता सकता कि छिटपुट वर्षा कहां होगी तथा कहां ज़्यादा होगी।

इन प्रश्नों के उत्तर नाऊकाÏस्टग द्वारा दिए जा सकते हैं। राडार और उपग्रहों से प्राप्त संकेतों के ज़रिए स्थानीय मौसम के बारे में 6 घंटे पहले भविष्यवाणी की जा सकती है। आंकिक मॉडल से मौसम सम्बंधी जानकारी जहां हमें केवल वायुमंडल के तापमान, नमी और हवा की दिशा के रूप में मिलती है, वहां राडार की आंखें वर्षा को भी देख सकती हैं तथा कुछ किलोमीटर तक उसकी स्थिति दर्शा सकती है। उपग्रहों से प्राप्त इंफ्रारेड चित्रों और राडार की मदद से मौसम वैज्ञानिक बिजली गिरने अथवा जल प्लावन जैसी छोटी-मोटी घटनाओं के बारे में भविष्यवाणी कर सकते हैं। इसके अलावा कंप्यूटरों द्वारा यह भी मालूम कर सकते हैं कि वर्षा तूफान का रुख किधर होगा तथा उसकी तीव्रता में क्या-क्या परिवर्तन आ सकते हैं।

बहुत ही छोटे क्षेत्रों के मौसम का अध्ययन दक्षिण फ्रांस के तूलूज स्थित न्यू मेटियोरलॉजिकल नेशनल सेंटर में भी किया जाता है। इस केंद्र में अनुसंधानकर्ता जिस स्केल मॉडल की सहायता से परीक्षण करते हैं, वह स्थानीय क्षेत्रों की रूपरेखा का आंकिक मॉडल न हो कर भौतिक मॉडल है। 10 मीटर लंबे और 3 मीटर चौड़े इन मॉडलों को पानी के एक बड़े टैंक में रखा जाता है। इसके बाद पानी में हलचल पैदा की जाती है ताकि मॉडल के ऊपर और आसपास से पानी ठीक उसी तरह गुज़रे जिस तरह वास्तविक पर्वतों और घाटियों में से हवा गुज़रती है। अनुसंधानकर्ता लेसर किरणों की सहायता से पानी के वेग और हलचल को माप कर उसके आधार पर स्थानीय मौसम का एक विस्तृत मानचित्र तैयार कर लेते हैं।

मौसम की भविष्यवाणी के क्षेत्र में प्रगति धीमी अवश्य है, लेकिन नाऊकॉस्टिंग से लेकर मध्यम दूरी की भविष्यवाणी तक का दृष्टिकोण मौसम विज्ञान की प्रगति के लिए अति महत्वपूर्ण है। एलपेक्स के वैज्ञानिक डॉ. योआकिम क्यूटनर का कहना है, ‘जब तक आप यह नहीं समझेंगे कि मौसम की रचना कैसे होती है, तब तक आप उसकी सही-सही भविष्यवाणी नहीं कर सकते।’ (स्रोत फीचर्स)

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फुटबॉल के आकार का उल्कापिंड खेत में गिरा

पूर्वी भारत के एक गांव में 22 जुलाई के दिन शायद एक छोटा-सा उल्कापिंड चावल में खेत में गिरा है। समाचार एजेंसी सीएनएन के अनुसार, बिहार के महादेव गांव में चावल के खेत में भरे पानी में लगभग 14 किलोग्राम वज़नी एक फुटबॉल के आकार की अजीब-सी चट्टान गिरी और खेत में इसकी वजह से गड्ढा बन गया।

फिलहाल इस रहस्यमयी चट्टान को बिहार के एक संग्रहालय में रखा गया है, लेकिन जल्द ही इसे बिहार के श्रीकृष्ण विज्ञान केंद्र में स्थानांतरित कर दिया जाएगा, ताकि विशेषज्ञ यह पता लगा सकें कि यह वास्तविक उल्कापिंड है या कोई मामूली पत्थर।

उल्कापिंड अंतरिक्ष की चट्टानें हैं जो हमारे वातावरण में घुसने के बाद पूरी तरह भस्म हो जाने से बचकर पृथ्वी पर गिरती हैं। आम तौर पर इस तरह के पिंडों में चुंबकीय गुण होते हैं क्योंकि वे अक्सर लौह व निकल धातुओं से बने होते हैं। बिहार के मुख्यमंत्री कार्यालय से जारी एक बयान के अनुसार इस संभावित उल्कापिंड में चुंबकीय गुण पाए गए हैं।

यूं तो हमारे ग्रह पर प्रतिदिन लगभग 100 टन से अधिक धूल और रेत के आकार के उल्कापिंडों की बौछार होती है लेकिन बड़े पिंड बहुत कम गिरते हैं। नासा के अनुसार, पिछले वर्ष एक कार के आकार का क्षुद्रग्रह एक बड़े आग के गोले के रूप में वायुमंडल में दाखिल होकर ज़मीन से टकराया था।

हर दो-एक हज़ार साल में, फुटबॉल के मैदान के आकार का उल्कापिंड पृथ्वी से टकराता है और स्थानीय स्तर पर नुकसान पहुंचाता है। हर बीसेक लाख सालों में ही में कोई इतना विशाल उल्कापिंड पृथ्वी से टकराता है जिसमें पूरी मानव सभ्यता को नष्ट करने की क्षमता होती है। (स्रोत फीचर्स)

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एक दुर्लभ ‘मस्तिष्क-भक्षी’ अमीबा बना मौत का कारण

हालिया समाचार रिपोर्ट के अनुसार उत्तरी कैरोलिना के स्थानीय वॉटर पार्क के तालाब में तैराकी के बाद एक 59 वर्षीय व्यक्ति की दुर्लभ ‘मस्तिष्क-भक्षी’ अमीबा के संक्रमण से मृत्यु हो गई।

नार्थ कैरोलिना डिपार्टमेंट ऑफ हेल्थ एंड ह्यूमन सर्विसेज़ (एनसीडीएचएच) द्वारा जारी किए गए एक बयान के अनुसार उस व्यक्ति में एक एककोशिकीय जीव नेगलेरिया फाउलेरी पाया गया। यह जीव कुदरती रूप से झीलों और नदियों के गर्म मीठे पानी में पाया जाता है। इस प्रकार का संक्रमण अक्सर अमेरिका के दक्षिणी राज्यों में पाया जाता है जहां लंबी गर्मियों में पानी का तापमान बढ़ जाता है।

गौरतलब है कि पानी में उपस्थित नेगलेरिया फाउलेरी को निगलने से तो संक्रमण नहीं होता, लेकिन अगर यह पानी नाक से ऊपर चला जाए तो अमीबा मस्तिष्क में प्रवेश कर सकता है। यह मस्तिष्क में ऊतकों को नष्ट कर देता है, जिसके परिणामस्वरूप मस्तिष्क में सूजन के बाद आम तौर पर मौत हो जाती है।

वैसे तो यह अत्यंत दुर्लभ संक्रमण है; 1962 से लेकर 2018 तक अमेरिका में नेगलेरिया फाउलेरी के सिर्फ 145 मामले सामने आए हैं। लेकिन इस बीमारी की मृत्यु दर काफी उच्च है। अभी तक के 145 मामलों में सिर्फ 4 लोग ही बच पाए हैं।

भारत में भी इसके कुछ मामले सामने आए हैं। अन्य इलाकों के अलावा, मई 2019 में केरल के मालापुरम ज़िले के एक 10 वर्षीय बच्चे की मृत्यु भी इसी परजीवी के कारण हुई। वैसे कई रोगियों को तात्कालिक निदान द्वारा बचा भी लिया गया। नार्थ कैरोलिना में यह समस्या पानी में तैरने के कारण हुई जबकि भारत में अधिकांश संक्रमण वाटर-पार्क में दूषित पानी के इस्तेमाल से हुए हैं।

सेंटर्स फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) के अनुसार पानी में नेगलेरिया फाउलेरी की उपस्थिति का पता लगाने का कोई त्वरित परीक्षण नहीं है। इस जीव की पहचान करने में कुछ सप्ताह लग सकते हैं। महामारीविद् डॉ. ज़ैक मूर का सुझाव है कि लोगों को यह जानकारी होना चाहिए कि यह जीव उत्तरी केरोलिना में गर्म मीठे पानी की झीलों, नदियों और गर्म झरनों में मौजूद है, इसलिए ऐसी जगहों पर जाएं तो विशेष ध्यान रखना चाहिए।

एनसीडीएचएच ने लोगों को सुझाव दिया है कि जब भी झील वगैरह के गर्म मीठे पानी में तैरने के लिए जाएं तो सावधानी बरतें कि नाक से पानी अंदर न जाएं। लोग विशेष रूप से पानी के उच्च तापमान और कम स्तर के दौरान गर्म ताज़े पानी में तैरने से बचकर भी इस जोखिम को कम कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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