मानव शरीर में कोशिकाएं: साइज़ और संख्या

डॉ. सुशील जोशी

ह तो जानी-मानी बात है कि कोशिका जीवन की इकाई (cell is the basic unit of life) होती है। इसका मतलब यह है कि जीवन की सारी क्रियाएं कोशिका नामक प्रकोष्ठ में संपन्न होती हैं। कई सारे जीव एक-कोशिकीय (unicellular organisms) होते हैं यानी उनका शरीर एक कोशिका से बना होता है और यह एक कोशिका जीवन की समस्त क्रियाएं (पोषक पदार्थों का अवशोषण, पाचन, अपशिष्ट पदार्थों का उत्सर्जन, आसपास के परिवेश के बारे में सूचनाएं प्राप्त करना और उन पर प्रतिक्रिया देना, पोषक पदार्थों से ऊर्जा प्राप्त करना, और श्वसन वगैरह) संपन्न करती है। लेकिन कई जीव बहुकोशिकीय (multicellular organisms) होते हैं। उनमें उक्त सारी क्रियाओं को कई सारी कोशिकाएं मिल-बांटकर समन्वय से संपन्न करती हैं।

क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे शरीर में कितनी कोशिकाएं (how many cells in human body) होती हैं। यदि आप यह संख्या जान जाएंगे तो आपको यह बात हैरान करेगी कि इतनी सारी कोशिकाएं मिल-जुलकर कैसे काम करती हैं। इस संदर्भ में हाल ही में प्रकाशित एक शोध पत्र (scientific paper on cell count) में दिलचस्प खुलासे किए गए हैं।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ (PNAS) में प्रकाशित समीक्षा पर्चे में जर्मनी के मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर मैथेमेटिक्स इन साइंस के इयान हटन, एरिक गालब्रेथ, नोनो साहा सिरिल मर्लो, टीमू मीटिनेन, बेंजामिन स्मिथ तथा जेफ्री शैंडर ने एक औसत पुरुष, एक औसत स्त्री और 10 वर्ष के बालक के शरीर में कोशिकाओं की संख्या के जो अनुमान पेश किए हैं वे तालिका 1 में देखिए।

तालिका 1: मानव शरीर में कोशिकाओं की संख्या

पुरुष (वज़न 70 किलोग्राम, कद 176 से.मी., उम्र 20-50 वर्ष)36 ट्रिलियन
स्त्री (वज़न 60 किलोग्राम, कद 163 से.मी., उम्र 20-50 वर्ष)28 ट्रिलियन
बच्चा (वज़न 32 किलोग्राम, कद 138 से.मी., उम्र 10 वर्ष)17 ट्रिलियन

इन आंकड़ों तक पहुंचने के लिए शोधकर्ताओं ने 60 अलग-अलग ऊतकों में 400 किस्म की कोशिकाओं (400 types of human cells) की साइज़ व संख्याओं के आंकड़े शामिल किए। लेखकों ने स्वीकार किया है कि ये आंकड़े औसत पर आधारित हैं और यह इनकी सीमा है।

इसी प्रकार से उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि जिन शोध पत्रों (research papers on cell biology) या संदर्भों का सहारा लिया गया है, उनमें अधिकांशत: आंकड़े 60 किलोग्राम वज़न के एक वयस्क पुरुष के आंकड़े थे, और वर्तमान अनुमान के लिए उन्हें इन्हीं के आधार पर गणना करनी पड़ी थी।

कोशिकाओं की संख्या का अनुमान लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने पूर्व शोध साहित्य (scientific literature) का सहारा लिया। किसी भी ऊतक की प्रति इकाई में सबसे प्रमुख कोशिका प्रकार के तुलनात्मक अनुपात, कोशिका संख्या, सतह के क्षेत्रफल और डीएनए सांद्रता (DNA density) को आधार बनाया गया। इन आंकड़ों को इंटरनेशनल कमीशन ऑन रेडियोलॉजिकल प्रोटेक्शन के आंकड़ों से जोड़कर प्रत्येक किस्म की कोशिका की संख्या का अनुमान लगाया गया।

शोधकर्ताओं ने अलग-अलग प्रकार की कोशिकाओं के वज़न (cell mass estimation) का आकलन भी किया। 400 से अधिक प्रकार की कोशिकाओं के वज़न के आंकड़े विभिन्न हिस्टॉलॉजी (histology data) स्रोतों से प्राप्त किए गए, जिनका अनुमान कोशिकाओं की आकृति, लंबाई, व्यास तथा कभी-कभी अन्य किस्म की कोशिकाओं से समानता के आधार पर किया गया है। इसके बाद कोशिका संख्या में कोशिका के वज़न से गुणा करके शरीर में उस किस्म की कोशिका का कुल बायोमास निकाल गया।

कोशिकाओं की साइज़ (cell size variation)

यह तो सभी जानते होंगे कि शरीर की सारी कोशिकाएं (human cells are not all the same size) एक समान नहीं होतीं। वैसे तो सारी कोशिकाएं कुछ काम तो एक जैसे करती हैं, लेकिन हर किस्म की कोशिका इन सामान्य कामों के अलावा कुछ विशिष्ट काम (specialized cell functions) करती हैं। जैसे कुछ कोशिकाएं ऑक्सीजन से जुड़कर उसे शरीर के विभिन्न अंगों तक पहुंचाती हैं, कुछ कोशिकाएं पर्यावरण से मिलने वाले संकेतों को ग्रहण करती हैं और उन्हें दिमाग तक पहुंचाती हैं, कुछ कोशिकाएं भोजन के पाचन के लिए एंज़ाइमों का निर्माण करती हैं, वगैरह। आप सोच ही सकते हैं कि हमारे शरीर में कितने सारे काम होते हैं और उनके लिए कितनी तरह की विशिष्ट कोशिकाओं की ज़रूरत होगी। फिर इन कोशिकाओं के कामों के बीच समन्वय भी करना होता है।

यह तो हुई बात कामकाज की। यह भी देखा गया है कि मानव शरीर में कोशिकाओं की साइज़ में भी बहुत विविधता (cell size range in human body) होती है। इस विविधता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सबसे बड़ी कोशिका सबसे छोटी कोशिका से 10 लाख गुना बड़ी (size difference among human cells) होती है। मोटे तौर पर कहें तो सबसे छोटी कोशिका यदि छछूंदर के बराबर मानी जाए, तो सबसे बड़ी कोशिका एक ब्लू व्हेल के बराबर निकलेगी।

साइज़ में विविधता के अलावा एक अंतर प्रत्येक किस्म की कोशिकाओं की संख्या (variation in cell count) में भी देखने को मिलता है।

लेकिन इयान हटन व साथियों के उपरोक्त समीक्षा पर्चे में हमारे शरीर में कोशिकाओं को लेकर एक दिलचस्प बात बताई गई है: किसी किस्म की कोशिका जितनी बड़ी-बड़ी होती हैं, उनकी कुल संख्या उतनी ही कम होती है जबकि छोटी-छोटी कोशिकाएं संख्या में अधिक पाई जाती हैं।

वैसे यह बात हमारे आसपास की कई चीज़ों पर लागू होती है और इसे ज़िफ (Zipf’s law in biology) का नियम कहा जाता है। नियम यह कहता है कि जब किसी चीज़ की साइज़ दुगनी हो जाती है तो उसकी कुल आबादी आधी रह जाती है। जैसे जीवजगत में बड़े जीवों की तादाद कम होती है, बनिस्बत छोटे जीवों के।

तो जीव वैज्ञानिकों के मन में विचार आया कि इस नियम को मानव शरीर पर लागू करके देखा जाए। और जब किया तो आश्चर्यजनक नतीजे मिले। मानव शरीर में विभिन्न किस्म की कोशिकाओं के आयतन और उनकी संख्या के आंकड़े एकत्रित करके इनके पैटर्न (cell size vs frequency pattern) का विश्लेषण करने पर देखा गया कि ज़िफ का नियम कोशिकाओं पर भी लागू होता है।

देखा गया कि जब किसी किस्म की कोशिकाओं का आयतन दुगना होता है, तो शरीर में उस किस्म की कोशिकाओं की आवृत्ति आधी रह जाती है। एक उदाहरण देखिए। हमारे शरीर में केंद्रक-विहीन लाल रक्त कोशिकाएं सबसे अधिक संख्या में पाई जाती हैं। दूसरी ओर, हमारे हाथ-पैरों की मांसपेशियों की बड़ी-बड़ी कोशिकाएं सबसे कम होती हैं। आयतन के हिसाब से देखेंगे तो लाल रक्त कोशिकाएं (RBCs – red blood cells) सबसे छोटी और मांसपेशीय कोशिकाएं सबसे बड़ी होती हैं।

लेकिन सवाल यह है कि इस नियम को जानकर फायदा क्या (benefits of Zipf’s law in cell biology)। शोधकर्ताओं का कहना है कि इससे डॉक्टरों को कई तंत्रों को बेहतर समझने में मदद मिलेगी और उन कोशिका किस्मों की संख्या का आकलन किया जा सकेगा जिनकी गिनती करना मुश्किल होता है। उदाहरण के लिए लिम्फोसाइट (lymphocytes in immune system) नामक प्रतिरक्षा कोशिकाओं की शरीर में संख्या जीव वैज्ञानिकों के अनुमान से कहीं अधिक हो सकती है।

खैर नियम लागू हो ना हो, हम मानव शरीर में कोशिकाओं के प्रकारों और उनकी संख्या के आंकड़े देखने का आनंद तो ले ही सकते हैं।

प्रोसीडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ (PNAS) में प्रकाशित उक्त समीक्षा पर्चे आधार पर विभिन्न कोशिका प्रकारों की बात करते हैं। नीचे दिया गया चार्ट देखें।

आप सोच रहे होंगे कि कोशिकाओं का कुल वज़न 38.616 ग्राम ही है जो शरीर के वज़न से काफी कम है। यह बताता है कि हमारे शरीर में काफी वज़न पानी (body water composition) का होता है जिसमें से लगभग दो-तिहाई पानी कोशिकाओं के अंदर होता और एक-तिहाई कोशिकाओं के बाहर पाया जाता है। (स्रोत फीचर्स)

एपिथीलियल, एंडोथीलियल कोशिकाएं: नाना प्रकार की एपिथीलियल कोशिकाएं शरीर पर और आंतरिक अंगों की बाहरी सतह पर आवरण बनाती हैं। एंडोथीलियल कोशिकाएं रक्त वाहिनियों की अंदरुनी सतह पर फैली होती हैं। इन दोनों की कुल संख्या 1780 अरब है। कुल वज़न 1940 ग्राम।

फाइब्रोब्लास्ट तथा ओस्टिऑइड: फाइब्रोब्लास्ट कोशिकाएं शरीर के संयोजी ऊतक बनाती हैं जबकि ओस्टिऑइड कोशिकाएं (ओस्टियोब्लास्ट तथा ओस्टियोसाइट समेत) हड्डियों में पाई जाती हैं। संख्या 470 अरब। वज़न 720 ग्राम।

न्यूरॉन ग्लियल कोशिकाएं: इस वर्ग में 57 किस्म की तंत्रिका कोशिकाएं और 22 किस्म की ग्लियल कोशिकाएं शामिल हैं। परिधीय तंत्रिका तंत्र में कोशिकाओं की साइज़ तथा संख्या में काफी विविधता होती है। इनकी संख्या 134 अरब है। कुल वज़न 938 ग्राम।

स्टेम कोशिकाएं, जर्म कोशिकाएं तथा पेरिसाइट: इस वर्ग की कोशिकाओं में क्षमता होती है कि वे परिपक्व होकर अन्य किस्म की अपेक्षाकृत विभेदित कोशिकाएं बना सकें। इनमें ऊसाइट (अपरिपक्व अंडाणु कोशिकाएं) शामिल हैं। संख्या 229 अरब। वज़न 106 ग्राम।

रक्त कोशिकाएं: रक्त में कई तरह की कोशिकाएं होती हैं। इनमें से कुछ ऐसी भी होती हैं जिनमें केंद्रक नहीं होता (एरिथ्रोसाइट्स तथा प्लेटलेट्स)। एरिथ्रोसाइट्स फेफड़ों से ऑक्सीजन लेकर विभिन्न अंगों तक पहुंचाती हैं जबकि प्लेटलेट्स खून का थक्का बनने में भूमिका निभाती हैं। लिम्फोसाइट, मोनोसाइट्स तथा मैक्रोफेज कोशिकाएं प्रतिरक्षा तंत्र का हिस्सा हैं और केंद्रक युक्त होती हैं। रक्त में कोशिकाओं की कुल संख्या 24,900 अरब होती है। इनमें से भी लाल रक्त कोशिकाएं यानी एरिथ्रोसाइट्स लगभग 19,200 अरब होती हैं। रक्त कोशिकाओं का कुल वज़न 6500 ग्राम।

मायोसाइट यानी मांसपेशीय कोशिकाएं: ये दो तरह की होती हैं – रेखित तथा चिकनी। रेखित कोशिकाएं कंकाल व हृदय में पाई जाती हैं। जबकि चिकनी मांसपेशीय कोशिकाएं खोखले अंगों, वाहिकाओं की दीवारों, आंखों तथा अन्य स्थानों पर पाई जाती हैं। संख्या 87 अरब। कुल वज़न 14,000 ग्राम।

एडिपोसाइट: ये वसा कोशिकाएं हैं। इनमें श्वेत वसा कोशिकाएं और भूरी वसा कोशिकाएं होती हैं। ये त्वचा के नीचे, अंदरुनी मुलायम अंगों तथा अस्थि मज्जा में स्थित होती हैं और शरीर में वसा संग्रह करती हैं। इनकी संख्या 261 अरब है। कुल वज़न 18,200 ग्राम।

खाद्य तेल की मदद से ई-कचरे से चांदी निकालें

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

सोने के बाद चांदी सबसे कीमती धातु मानी जाती है। कई परिवारों में खुशी के मौकों पर सोने-चांदी की चेन-अंगूठियां ली-दी जाती हैं (या पहनी जाती हैं)। बेशक, चांदी सोने से सस्ती है।

लेकिन जब उद्योग (silver in industry) और ऊर्जा उत्पादन (silver in clean energy) में उपयोग की बात आती है तो चांदी सोने को पछाड़ देती है। पूरे भारत में चांदी का इस्तेमाल छतों पर लगे सौर पैनलों (solar panels) के माध्यम से सौर ऊर्जा को कैद करने में किया जाता है। इससे पूरे देश में सालाना लगभग 108 गीगावॉट स्वच्छ एवं हरित बिजली पैदा होती है। यह मात्रा कोयले से पैदा होने वाली बिजली की लगभग 10 प्रतिशत है। इसके अलावा, भारत की लगभग 1.4 अरब आबादी द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले मोबाइल फोन (silver in mobile phones) में विद्युत चालन और भंडारण के लिए चांदी का इस्तेमाल किया जाता है। हर मोबाइल फोन में लगभग 100-200 मिलीग्राम चांदी होती है। इसी तरह, एक सामान्य लैपटॉप में 350 मिलीग्राम चांदी उपयोग होती है, और वर्तमान में भारत में लगभग 5 करोड़ लैपटॉप हैं।

यदि भारत में मोबाइल फोन और लैपटॉप इतनी संख्या में हैं तो आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि पूरी दुनिया में इनकी संख्या कितनी होगी। अनुमान है कि मोबाइल-लैपटॉप या ऐसी ही अन्य चीज़ों में पूरे विश्व में लगभग 7275 मीट्रिक टन चांदी लगती है। लेकिन (इन उपकरणों के खराब होने पर इनसे) बमुश्किल 15 प्रतिशत चांदी ही वापस निकालकर पुनर्चक्रित (silver recycling) की जाती है। जब कोई फोन या कंप्यूटर खराब हो जाता है या फेंक दिया जाता है तो उसमें मौजूद चांदी भी कूड़े में चली जाती है। काश! हम इन बेकार उपकरणों से यह चांदी वापिस निकाल पाते…

यह तो साफ है कि स्वच्छ ऊर्जा उत्पादन में चांदी (silver in renewable energy) एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इस संदर्भ में मारिया स्मिरनोवा एक हालिया रिपोर्ट स्प्रॉट सिल्वर रिपोर्ट (Sprott Silver Report) में लिखती हैं कि जैसे-जैसे अधिकाधिक देश सौर पैनलों का उपयोग करके अक्षय ऊर्जा बनाएंगे, वैसे-वैसे चांदी की मांग (silver demand in solar industry) में लगातार वृद्धि होगी। वे आगे बताती हैं कि भले ही कुछ समूह सौर ऊर्जा के लिए अन्य धातुओं (जैसे लीथियम, कोबाल्ट और निकल) का उपयोग करने पर विचार कर रहे हैं, फिर भी स्वच्छ और हरित ऊर्जा उत्पादन में चांदी एक प्रमुख भूमिका निभाती है। और, इस साल चांदी की मांग में लगभग 170 प्रतिशत वृद्धि होने की उम्मीद है। इसके अलावा, कारों, बसों और ट्रेनों (electric vehicles) में ईंधन के रूप में पेट्रोल की जगह सौर ऊर्जा का उपयोग होना शुरू हुआ है। स्मिरनोवा आगे बताती हैं कि अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी का अनुमान है कि 2035 तक, दुनिया भर में बिकने वाली हर दूसरी कार इलेक्ट्रिक होगी। इसका मतलब होगा कि हमें और चांदी चाहिए होगी।

इसी संदर्भ में, फिनलैंड के प्रोफेसर टिमो रेपो और उनके साथियों ने अपने शोधपत्र में चांदी को पुनःचक्रित करने की एक कुशल रासायनिक विधि (green silver recovery)  प्रस्तुत की है। इस विधि में कार्बनिक वसीय अम्लों (जैसे लिनोलेनिक या ओलिक एसिड) (fatty acids for silver extraction) का उपयोग चांदी निकालने में किया गया है। ये कार्बनिक वसीय अम्ल तिलहन, मेवों और वनस्पति तेलों (जैसे जैतून का तेल या मूंगफली का तेल) में पाए जाते हैं, जिनका दैनिक भोजन में उपयोग होता है।

गौरतलब है कि इलेक्ट्रॉनिक कचरे (e-waste silver recovery) से चांदी को पुन: प्राप्त करना आसान नहीं है: प्रबल अम्लों और साइनाइड के उपयोग की वजह से इस प्रक्रिया में विषाक्त पदार्थ पैदा हो सकते हैं। अन्य धातुओं और मिश्र धातुओं से चांदी को अलग करने की पारंपरिक विधियों का उपयोग करने की बजाय उपरोक्त समूह ने सूरजमुखी, मूंगफली और अन्य तेलों में प्रचुर मात्रा में पाए जाने वाले साधारण असंतृप्त वसीय अम्लों के उपयोग से चांदी को अलग करके पुन: हासिल करने की एक विधि विकसित की है। समूह ने पाया कि इनका पुनर्चक्रण किया जा सकता है और इस प्रकार ये कार्बनिक विलायक और जलीय माध्यम से बेहतर हैं।

शोधकर्ताओं ने इस विधि को ‘शहरी खनन’ (urban mining of silver) में भी कारगर पाया है, जहां कबाड़ या कचरे में फेंके गए कंप्यूटर के मदरबोर्ड और अन्य इलेक्ट्रॉनिक पुर्ज़ों के कचरे से चांदी पुन: निकाली जा सकती है। शोध दल का निष्कर्ष है, “वसीय अम्ल बहुमूल्य बहु-धातु अपशिष्ट के निपटान का उन्नत माध्यम बन सकते हैं।” (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ई-डीएनए की मदद से हवा में बिखरे जीवन की पहचान

ल्पना कीजिए कि आप किसी जंगल या शहर की सड़क पर चल रहे हैं, और आपको दूर-दूर तक किसी जीव या इंसान का नामोनिशान तक न दिखे, फिर भी वैज्ञानिक यह बता दें कि वहां से कौन-कौन से जीव गुज़रे चुके हैं, कौन से वायरस मौजूद थे, और यह भी बता दें कि वहां से गुज़रने वाले लोग किस मूल के हैं। और, यदि यह कहा जाए कि यह कोई कोरी कल्पना नहीं, बल्कि हकीकत है तो?

यह संभव हुआ है पर्यावरणीय डीएनए (ई-डीएनए) (environmental DNA) का विश्लेषण करने की एक नई तकनीक नैनोपोर सिक्वेंसिंग (nanopore sequencing) से। शोधकर्ताओं ने इसका इस्तेमाल किसी क्षेत्र में मौजूद जैव-विविधता (biodiversity monitoring) की तस्वीर पेश करने में किया है।

गौरतलब है कि हर सजीव, चाहे वह इंसान हो, जानवर हों या वनस्पतियां, अपने आसपास के वातावरण में त्वचा की झिल्ली, लार, बाल या कोशिकाओं जैसे बहुत बारीक कण छोड़ते रहते हैं, जिनमें उनका डीएनए (DNA traces in environment) होता है। वैज्ञानिक इन कणों को मिट्टी, पानी या हवा से इकट्ठा कर यह पता लगा सकते हैं कि वहां कौन-कौन से जीव मौजूद हैं या थे। इस तरह प्राप्त डीएनए को पर्यावरणीय डीएनए या ई-डीएनए कहते हैं।

पहले वैज्ञानिक मेटाबारकोडिंग (metabarcoding DNA technique) नामक तकनीक से ई-डीएनए का अध्ययन करते थे। इससे यह पता चलता था कि किस तरह के जीव वहां थे, लेकिन यह तरीका धीमा, महंगा और सीमित जानकारी वाला था। फिर आई शॉटगन सिक्वेंसिंग (shotgun sequencing) तकनीक। इसमें किसी खास डीएनए को ढूंढने की बजाय नमूने के सम्पूर्ण डीएनए के छोटे-छोटे टुकड़ों का अनुक्रमण किया जाता है और उन्हें किसी पज़ल की तरह कंप्यूटर की मदद से जोड़कर पहचान की जाती है।

अब, एक नई तकनीक (नैनोपोर सिक्वेंसिंग) विकसित की गई है। इसकी मदद से वैज्ञानिक एक बार में डीएनए की लंबी शृंखला पढ़ सकते हैं। इससे नतीजे और भी सटीक मिलते हैं। और तो और, यह तकनीक न सिर्फ तेज़ और सस्ती है, बल्कि इतनी कॉम्पैक्ट है कि इसे लैपटॉप (portable DNA sequencer) से जोड़ा जा सकता है।

इस तकनीक को आज़माने के लिए वैज्ञानिकों ने अप्रैल 2023 में फ्लोरिडा के वॉशिंगटन ओक्स गार्डन्स स्टेट पार्क में हवा के नमूने इकट्ठा किए। उन नमूनो में डीएनए का विश्लेषण करके बताया कि वहां एक जंगली बिल्ली (बॉबकैट), एक ज़हरीला सांप, चमगादड़, मच्छर, एक पक्षी (ऑस्प्रे), और अफ्रीकी, युरोपीय और एशियाई मूल के इंसान मौजूद थे। दिलचस्प बात यह है कि उन्होंने वहां इनमें से कोई जीव नहीं देखा था(airborne DNA sampling, wildlife DNA detection)।

इसी तरह का एक अध्ययन आयरलैंड की राजधानी डबलिन की हवा के नमूने लेकर भी किया गया। यहां वैज्ञानिकों को इंसानों की ज़्यादा विविध जेनेटिक जानकारी (human genetic diversity in air) मिली। उन्हें 221 प्रकार के इंसानी वायरस और बैक्टीरिया के डीएनए (human pathogens in air) मिले जो फ्लोरिडा के मुकाबले 7 गुना अधिक थे।

वैज्ञानिकों के अनुसार, यह तकनीक जंगलों और शहरों में जैव विविधता की निगरानी (urban biodiversity tracking) करने में काफी उपयोगी है। इसके अलावा, बाहरी और संकटग्रस्त प्रजातियों पर नज़र रखने, बीमारियां फैलाने वाले वायरस (airborne disease surveillance) या बैक्टीरिया की पहचान करने और बिना संपर्क के इंसानी उपस्थिति तथा वंश का अध्ययन करने में भी मददगार होगी। इससे किसी भी जगह पर मौजूद जीवन की एक पूरी तस्वीर सिर्फ हवा के विश्लेषण से मिल सकती है।

लेकिन इसके साथ एक चिंता भी है। यदि वैज्ञानिक हवा से इंसानी डीएनए पहचान सकते हैं, तो इसका इस्तेमाल किसी व्यक्ति पर नज़र रखने (genetic surveillance risks) के लिए भी किया जा सकता है। हालांकि अब तक के अध्ययनों में सिर्फ सामान्य वंश की जानकारी मिली है, किसी व्यक्ति विशेष की नहीं। लेकिन भविष्य में यह तकनीक इतनी विकसित हो सकती है कि व्यक्ति विशेष की जानकारी भी दे सके। कानून विशेषज्ञ नताली राम का कहना है कि सरकारें या निजी कंपनियां इस तकनीक का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर निगरानी (mass DNA monitoring) के लिए कर सकती हैं। एक प्राइवेट कंपनी तो ऐसे छोटे ई-डीएनए स्कैनर बना रही है जो चुपचाप किसी कमरे में वायरस या इंसानी डीएनए की निगरानी कर सकता है। हालांकि, यह तकनीक है तो बहुत रोमांचक, लेकिन अभी इस पर कफी काम किया जाना बाकी है। उदाहरण के तौर पर, वैज्ञानिकों को फ्लोरिडा के समुद्री पानी में काऊपॉक्स वायरस के डीएनए (cowpox virus DNA detection) के अंश मिले हैं जबकि वहां ऐसा वायरस पाया ही नहीं जाता है। इससे यह सवाल उठता है कि कहीं इतने छोटे डीएनए अंश झूठी या भ्रामक जानकारी तो नहीं दे रहे? वैज्ञानिकों को ऐसे नतीजों को बहुत सोच-समझकर देखना चाहिए, क्योंकि सिर्फ डीएनए का मौजूद होना यह नहीं साबित करता कि वह जीव वास्तव में वहीं है या वह सक्रिय है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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Y क्रोमोसोम रहित ट्यूमर अधिक घातक होते हैं

ह बात तो पता है कि पुरुषों में उम्र के साथ कुछ कोशिकाओं से Y क्रोमोसोम (chromosome) नदारद होने लगते हैं, खासकर कैंसर कोशिकाओं (cancer cells) से। लेकिन यह मालूम नहीं था कि Y क्रोमोसोम की अनुपस्थिति से शरीर पर किस तरह के प्रभाव पड़ते हैं। अब, कैंसर विशेषज्ञों ने कैंसर कोशिकाओं के एक ताज़ा अध्ययन में पाया है कि यदि कैंसर ट्यूमर (cancer tumor study) से Y क्रोमोसोम नदारद होता है तो मरीज़ के लिए अधिक घातक हो सकता है।

दरअसल, 2023 में एरिज़ोना विश्वविद्यालय के कैंसर विशेषज्ञ थियोडोरस्क्यू और उनके दल ने पाया था कि Y क्रोमोसोम का नदारद होना मनुष्यों में मूत्राशय के कैंसर (bladder cancer in men) की आक्रामकता को बढ़ाता है। उम्र बढ़ने के साथ प्रतिरक्षा कोशिकाओं से भी Y क्रोमोसोम गायब हो सकते हैं, जिससे कैंसर से मृत्यु (cancer-related mortality) का जोखिम बढ़ जाता है।

हालिया अध्ययन में उपरोक्त शोधदल ने कैंसर-कोशिका जीनोम के विशाल भंडार (cancer genome database) से प्राप्त जानकारी के आधार पर दो समूहों की तुलना की: Y क्रोमोसोम विहीन और Y क्रोमोसोम  सहित। उन्होंने पाया कि पुरुषों में, कई प्रकार के कैंसर में, कैंसर ट्यूमर से Y क्रोमोसोम नदारद हो तो वे उन मरीज़ों की तुलना में जल्दी मर जाते हैं जिनके कैंसर ट्यूमर में Y क्रोमोसोम मौजूद होता है। यह भी पता चला कि Y क्रोमोसोम का लोप कैंसर कोशिकाओं और प्रतिरक्षा कोशिकाओं दोनों में होता है। गौरतलब है कि प्रतिरक्षा कोशिकाएं शरीर की रक्षा के लिए ट्यूमर पर हमला करती हैं। अब, महज़ कैंसर कोशिकाओं से Y क्रोमोसोम का लोप होता है तो उनमें अन्य उत्परिवर्तनों (genetic mutations in cancer) की संख्या और गंभीरता बढ़ती है। साथ ही, कुछ ऐसे परिवर्तन भी हो सकते हैं जिससे ट्यूमर प्रतिरक्षा प्रणाली की नज़र से बच निकले, उसकी पकड़ में न आए (immune evasion by cancer)।Text Box: मनुष्यों में लिंग निर्धारण लैंगिक गुणसूत्रों की जोड़ी से होता है; जहां मादाओं में इस जोड़ी में दो X गुणसूत्र होते हैं, वहीं पुरुषों में इसी जोड़ी में एक X और एक Y गुणसूत्र होता है।

लेकिन यदि Y क्रोमोसोम का लोप प्रतिरक्षा कोशिकाओं में भी हो जाता है तो असर अलग होते हैं: Y क्रोमोसोम का लोप प्रतिरक्षा कोशिकाओं को निष्क्रिय कर देता है और प्रतिरक्षा तंत्र (immune system suppression) को शांत कर देता है, जिससे वे कैंसर से लड़ने के उतनी काबिल नहीं रहतीं। यानी, एक तो ट्यूमर बहुरूपिया, ऊपर से प्रतिरक्षा कोशिकाओं की नज़र कमज़ोर। यह स्थिति मरीज़ के लिए घातक (fatal cancer outcomes) साबित होती है।

शोधकर्ताओं का अनुमान है कि कैंसर कोशिकाओं में Y क्रोमोसोम के लोप और उसी ट्यूमर के अंदर मौजूद प्रतिरक्षा कोशिकाओं में Y क्रोमोसोम के लोप के बीच एक सहसम्बंध (correlation between tumor and immune cells) भी है; हो सकता है कि विचित्र रासायनिक आकर्षण (कीमोअट्रैक्शन) की वजह से ऐसी प्रतिरक्षा कोशिकाएं रक्त से ट्यूमर में खिंची चली आती होंगी जिनमें Y क्रोमोसोम नदारद होता है। हालांकि अभी इस बात के पुख्ता प्रमाण नहीं हैं।

लेकिन इतना पक्का है कि Y क्रोमोसोम की गैर-मौजूदगी कैंसर कोशिकाओं को अधिक आक्रामक (aggressive cancer) बनाती है, और Y क्रोमोसोम रहित प्रतिरक्षा कोशिकाएं कम प्रभावी (weakened immune defense) होती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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