मिठास, मीठे की पसंद और उसे दबाने के प्रयास

डॉ. सुशील जोशी

भोजन का स्वाद (taste) इस बात को तय करने में अहम भूमिका निभाता है कि हम क्या खाएं और कितना खाएं। वैसे तो मीठे खाद्य पदार्थ (खासकर शकर) कैलोरी का एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं। अत्यधिक शकर (sugar) के सेवन के स्वास्थ्य सम्बंधी प्रतिकूल प्रभाव भी होते हैं। शर्कराएं समस्त कार्बोहाइड्रेट युक्त खाद्य पदार्थों में पाई जाती है – जैसे फल-सब्ज़ियां, अनाज, डेयरी उत्पाद वगैरह। इन सभी को प्राकृतिक शर्करा स्रोत कह सकते हैं और इनमें शकर के अलावा कई अन्य पोषक तत्व होते हैं। समस्या खाद्य पदार्थों में ऊपर से डाली गई शकर के सेवन से होती है।

अत्यधिक शकर के सेवन से हृदय रोग (heart disease) की संभावना बढ़ती है, शरीर इंसुलिन का प्रतिरोधी हो जाता है, जिसकी वज़ह से डायबिटीज़ (diabetes) का खतरा पैदा होता है, वज़न बढ़ता है और मोटापे की स्थिति बन जाती है जो स्वयं कई अन्य रोगों का कारण बनती है। लीवर में वसा का संग्रह होने लगता है जो फैटी लीवर रोग (fatty liver disease) को जन्म देता है। रक्तचाप भी बढ़ता है। और ये सारी स्थितियां परस्पर सम्बंधित हैं।

इस तरह के स्वास्थ्य जोखिमों (health risks) के चलते स्वास्थ्य विशेषज्ञ शकर का सेवन कम करने की सलाह देते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की सिफारिश है कि रोज़ाना के कुल कैलोरी उपभोग में 10 प्रतिशत से अधिक फ्री शुगर न हो जबकि आदर्श स्थिति में तो इसे 5 प्रतिशत से कम रखना ठीक होगा। इसका मतलब है कि यदि एक वयस्क की दैनिक ऊर्जा खपत 2000 कैलोरी है तो उसे रोज़ाना 50 ग्राम से ज़्यादा शकर नहीं खानी चाहिए। अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन (American Heart Association) का मत है कि दैनिक कैलोरी खपत में 6 प्रतिशत से अधिक ऊपर से डाली गई शकर न हो।

भारत में भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) के मुताबिक दैनिक भोजन में 25-30 ग्राम से अधिक शकर नहीं होनी चाहिए। इस अनुशंसित मात्रा में भोजन तथा पेय पदार्थों (beverages) में डाली गई शकर शामिल है।

भारत में शकर का सेवन पहले से ही बहुत अधिक रहा है और अब बढ़ता जा रहा है। 2014 में न्यूट्रिएंट्स नामक शोध पत्रिका (Nutrients journal) में प्रकाशित सीमा गुलाटी व अनूप मिश्रा के एक लेख में बताया गया है कि दरअसल, शकर का आविष्कार (invention of sugar) भारत में ही हुआ था। यहां हर अवसर पर मिठाई की उपस्थिति अनिवार्य सी ही है। मुंह मीठा कराना तो एक जानी-मानी रस्म है।

जहां स्वास्थ्य विशेषज्ञ (health experts) शकर के अत्यधिक सेवन को स्वास्थ्य के लिए एक जोखिम बताते हैं और इसे कम करने की सलाह देते हैं, वहीं इसके प्रति लगाव शकर के सेवन को थामने में एक बड़ी बाधा है।

ऐसा बताते हैं कि मीठे खाद्य पदार्थों (sweet food products) के प्रति आकर्षण स्तनधारियों में काफी पहले विकसित हो गया था। इस आकर्षण का मुख्य आधार यह है कि मीठा खाने के बाद व्यक्ति एक तृप्ति व आनंद का अनुभव करता है। इस तरह के आकर्षण के विकसित होने का कारण यह बताया जाता है कि मीठे पदार्थ अमूमन कैलोरी की उपलब्धता को दर्शाते हैं।

इस संवेदना और आकर्षण का नियमन दो तंत्रों द्वारा किया जाता है। एक का नाम है T1R आश्रित तंत्र और दूसरे को T1R से स्वतंत्र व्यवस्था कहते हैं। जहां T1R से स्वतंत्र मार्ग ग्लूकोज़ तथा अन्य मोनो-सेकेराइड के लिए विशिष्ट होता है वहीं T1R आश्रित मार्ग अधिकांश मीठे पदार्थों (sweet products) की उपस्थिति से सक्रिय हो जाता है। इस मार्ग के संचालक मुंह में उपस्थिति स्वाद कलिकाओं के अलावा आहारनाल के अस्तर में भी पाए जाते हैं। इन कलिकाओं से तंत्रिका संकेत मस्तिष्क तक पहुंचकर आनंद की अनुभूति पैदा करते हैं और खाने की इच्छा को भी नियंत्रित करते हैं। खास तौर से मीठे के प्रति आकर्षण और मस्तिष्क में पारितोषिक का एहसास इन्हीं तंत्रिका संकेतों का परिणाम होता है। इस तरह से मिठास भोजन के आकर्षण को बढ़ाती है और खाने की इच्छा को भी।

कई शोधकर्ताओं ने इन स्वाद-ग्राहियों को अपने अनुसंधान का लक्ष्य बनाया है ताकि मोटापे और खानपान से सम्बंधित समस्याओं से निपटने की नई रणनीति विकसित की जा सके।

यह देखा गया है कि भोजन के उपभोग की मात्रा से जुड़ा मोटापा (obesity) और खाने की लत, इन दोनों में ही शकर के प्रति पसंद में वृद्धि देखी जाती है। इसीलिए मीठे स्वाद के प्रति संवेदना में कमी और भोजन सम्बंधी व्यवहार के बीच सम्बंध को लेकर काफी शोध हो रहे हैं। अलबत्ता, इनसे प्राप्त नतीजों में काफी अंतर और मतभेद हैं।

उदाहरण के लिए, कुछ अध्ययनों में देखा गया है कि मिठास की घटी हुई अनुभूति के चलते जल्दी पेट भरने का एहसास हो सकता है, जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति कम खाएगा/खाएगी और वज़न में कमी आएगी।

इन अध्ययनों में मिठास की संवेदना को दबाने के लिए पेड़-पौधों के सत या उनसे प्राप्त रसायनों का उपयोग किया गया है। जैसे गुड़मार (Gymnema sylvestre) नामक पौधे का रस मीठे की संवेदना को दबा देता है। देखा गया है कि सामान्य संवेदना वाले लोगों की तुलना में गुड़मार (Gymnema sylvestre) के रस से दमित मीठा संवेदना वाले लोगों ने कुल कैलोरी (total calories) और मीठी कैलोरी का कम उपभोग किया। लेकिन कुछ अध्ययनों में परिणाम इसके विपरीत भी रहे। पता चला कि दमित मीठे स्वाद के बाद खुराक बढ़ गई और वज़न भी बढ़ा (weight gain)। शायद मीठे स्वाद से मिलने वाली तृप्ति न मिलने पर खाने की इच्छा और बढ़ गई हो। डायबिटीज़ व मोटापे से ग्रस्त व्यक्तियों पर हुए कुछ अध्ययनों में भी स्वाद परिवर्तन और वज़न में वृद्धि के ऐसे ही सम्बंध देखे गए हैं।

बात को और समझने के लिए रासायनिक संवेदना में गड़बड़ी सम्बंधी कुछ अध्ययन किए गए हैं। कुछ अध्ययनों में देखा गया कि जब मरीज़ शुरुआत में स्वाद-हीनता महसूस करते हैं तो वे आनंद और तृप्ति की वही अनुभूति हासिल करने के लिए नाना प्रकार के खाद्य पदार्थों का सेवन करने लगते हैं। परिणाम यह होता है कि इस गड़बड़ी के शुरू होने के बाद कुछ समय तक उनका वज़न बढ़ता है। लेकिन एक बार समझ में आने पर वे उपभोग कम कर देते हैं और वज़न घटने लगता है। खास तौर से देखा गया कि स्वाद-हीनता यदि क्रमिक रूप से शुरू हो तो परिणाम वज़न में वृद्धि के रूप में सामने आता है जबकि एकाएक यही स्थिति प्रकट हो जाए, तो वज़न कम होना ज़्यादा लोगों में देखा जाता है।

ऐसा लगता है कि मीठे स्वाद के दमन का एक स्तर है। इस स्तर से अधिक दमन हो तो भोजन का उपभोग घटता है जबकि दमन इससे कम हो तो उपभोग बढ़ता है।

इस परिकल्पना की जांच कई अध्ययनों में की गई है। कुछ अध्ययनों में मीठे स्वाद की अनुभूति को अलग-अलग स्तर पर दबाया गया और भोजन सम्बंधी व्यवहार को देखा गया। मीठा-रोधी रसायनों का मीठे की अनुभूति पर असर तथा भोजन सम्बंधी व्यवहार को अलग-अलग जांचा गया।

ऐसे अध्ययनों की संख्या तो सैकड़ों में है। लेकिन हाल ही में प्रकाशित एक समीक्षा पर्चे में इनमें से 33 अध्ययनों का विश्लेषण प्रस्तुत हुआ है। इनमें सबसे ज़्यादा अध्ययनों (16) में गुड़मार के सत या उससे प्राप्त सक्रिय पदार्थों का उपयोग किया गया था। अन्य पादप रसायनों में बेर (Ziziphus jujuba), मुनक्का (Hovenia dulcis), स्टेफेनोटिस लुचुएंसिस, जिम्नेमा आल्टरनिफोलियम और स्टारेक्स जेपोनिका से मिले रसायनों का इस्तेमाल किया गया।

स्वाद की संवेदना (taste sensitivity) में आए अंतर को कैसे नापा जाए, यह खासा मुश्किल मसला है क्योंकि कोई मानक पैमाना तो है नहीं। उपरोक्त सारे अध्ययनों में विविध परीक्षणों का सहारा लिया गया था। सामान्यत: परिमाण का आधार स्वयं व्यक्ति द्वारा किया गया आकलन था। जैसे स्वाद की पहचान कर पाना, स्वाद पता चलने के लिए मीठे पदार्थ की न्यूनतम ज़रूरी मात्रा, या कई बार तो व्यक्ति द्वारा स्वाद की तीव्रता के आकलन को आधार बनाया गया। जांच के लिए कुछ अध्ययनों में स्वाद-दमन के बाद एक अकेले मीठे पदार्थ की जांच की गई जबकि कुछ अध्ययनों में मीठे मिश्रण (जैसे फलों के रस) पर असर देखा गया।

सभी मामलों में भोजन के उपरांत स्वाद-दमनकर्ता देने पर मीठे स्वाद का दमन देखा गया। गुड़मार के मामले में एक खास बात यह रिपोर्ट हुई है कि वह मीठे स्वाद को दबा देता है, जबकि खट्टे, नमकीन या कड़वे स्वाद का दमन नहीं करता। ज़िज़िफस जुजुबा और होवेनिया डल्सिस में भी यही देखा गया, हालांकि इनके मामले में कुछ मीठे पदार्थों की संवेदना पर कोई असर नहीं पड़ा।

लेकिन शोधकर्ताओं (researchers) के सामने एक सवाल तो यह था कि मीठे स्वाद के साथ जो आनंद की अनुभूति (pleasure) होती है, उस पर क्या असर होता है क्योंकि उसका सम्बंध भोजन के उपभोग की मात्रा से होता है।

तो, अध्ययनों से संकेत मिलता है कि गुड़मार व्यक्ति में मीठे उद्दीपन (sweet stimulus) के प्रति लगाव को कम करता है। एक प्लेसिबो (placebo) कंट्रोल्ड अध्ययन में देखा गया कि गुड़मार उपचार के बाद सहभागियों में पहला चॉकलेट खाने से मिलने वाली खुशी में 31 प्रतिशत की कमी आई। इसी प्रकार के परिणाम एक अन्य अध्ययन में भी मिले, जिसमें सहभागियों को जिम्नेमा युक्त गोली खाने को दी गई थी। इनमें दूसरा चॉकलेट खाते समय आनंद में कमी देखी गई।

ऐसे विभिन्न उपचारों का असर लगभग 15-30 सेकंड बाद दिखना शुरू होता है। और असर की अवधि काफी हद तक इस बात पर निर्भर करती है कि उपचार कितनी अवधि के लिए दिया गया। इस बात की भी जांच की गई कि स्वाद दमन से बहाली कितनी देर में हो जाती है यानी स्वाद उन व्यक्तियों के समान हो जाता है जिन्हें प्लेसिबो उपचार दिया गया था। एक तो यह पता चला है कि ज़िज़िफिन तथा होल्डुसिन के मुकाबले जिम्नेमिक एसिड का असर ज़्यादा देर तक बना रहता है। जिम्नेमिक एसिड उपचार के बाद स्वाद बहाली में 20 मिनट से लेकर घंटों तक लग जाते हैं। इसके विपरीत ज़िज़िफिन के मामले में 5-10 मिनट तथा होल्डुसिन के लिए बहाली अवधि 1-4 मिनट देखी गई है।

कुछ अध्ययनों में एक मज़ेदार बात देखी गई है। मिठास-दमन परीक्षण के बाद जब स्वाद बहाल हुआ तो मिठास की अनुभूति परीक्षण-पूर्व स्तर से भी ज़्यादा हो गई और आनंद की अनुभूति भी।

बहरहाल, ये सारे अध्ययन व्यक्तियों के अपने बयानों या मीठे की पसंद में परिवर्तन के उनके अपने अनुमानों पर आधारित थे। लेकिन कम से कम तीन अध्ययन ऐसे थे जिनमें मनुष्यों की स्वाद सम्बंधी प्रतिक्रियाओं का विद्युत-कार्यिकीय अध्ययन (electrophysiology) किया गया था। इनमें से दो में ऐसे मरीज़ों का अध्ययन किया गया जो कान की सर्जरी करवा रहे थे। इनमें स्वाद सम्बंधी गतिविधि के रिकॉर्ड कॉर्डा टिम्पेनी तंत्रिका के ज़रिए प्राप्त किए गए थे। कॉर्डा टिम्पेनी तंत्रिका चेहरे की तंत्रिका (कपाल तंत्रिका VII) की एक शाखा है। विशेष रूप से, यह जीभ के आगे के दो-तिहाई भाग से स्वाद की अनुभूति प्रदान करती है। तीसरे अध्ययन में स्वस्थ व्यक्तियों का अध्ययन एमआरआई तकनीक से किया गया था।

दोनों विद्युत-कार्यिकीय अध्ययनों में देखा गया कि गुड़मार सत जीभ पर लगाने के 1-2 मिनट के अंदर कॉर्डा टिम्पेनिक तंत्रिका की स्वीटनर्स के प्रति संवेदना पूरी तरह बाधित हो गई थी हालांकि अन्य स्वाद रसायनों के साथ ऐसा नहीं हुआ था। दूसरी ओर, एमआरआई अध्ययन में देखा गया कि जिम्नेमिक एसिड युक्त गोली चूसने के बाद न सिर्फ उच्च-शर्करा युक्त खाद्य पदार्थों ने मस्तिष्क में आनंद वाले क्षेत्र को मंद कर दिया बल्कि ऐसे खाद्य पदार्थों से अपेक्षित आनंद के एहसास को भी घटा दिया।

भोजन उपभोग पर असर

खुराक, ज़्यादा खाने की इच्छा या भोजन के अधिक संभावित उपभोग का भी मापन किया गया था। आप देख ही सकते हैं कि ऐसी चीज़ों का मापन कठिन होगा। शोधकर्ताओं ने इसके लिए व्यक्ति के एहसासों या प्रतिक्रियाओं को एक पैमाने पर रखा। जैसे यह देखा गया कि उपचार के बाद कितने सहभागी पहली टॉफी खाने का निर्णय लेते हैं। कुछ शोध पत्रों में कुल भोजन की खपत या अनुमानित खपत के आंकड़े भी शामिल किए गए थे।

खाने की इच्छा को लेकर परिणामों में काफी विविधता रही। जैसे दो शोध पत्रों में बताया गया था कि सहभागियों में मीठे पदार्थ खाने की इच्छा में कमी आई थी, जबकि एक अन्य शोध पत्र में देखा गया कि मीठा खाने से मिलने वाले आनंद में गिरावट के बावजूद खाने की इच्छा में कोई कमी नहीं आई थी। एक अध्ययन में तो यह भी देखा गया कि मीठा-दमन के तुरंत बाद मीठा खाने की इच्छा में काफी वृद्धि हुई और तृप्ति में कमी देखी गई।

चार अध्ययनों में देखा गया कि जिन लोगों को गुड़मार स्वाद-मारक दिया गया था, उन्होंने सामान्य संवेदना वाले लोगों की तुलना में लघु-अवधि (यानी परीक्षण सत्र के दौरान) में कुल कम कैलोरी और कम मीठी कैलोरी खाई। खपत में 5 से 52 प्रतिशत तक की कमी दिखी। लेकिन इस मामले में व्यक्ति-व्यक्ति के बीच काफी अंतर देखे गए थे। एक अध्ययन में तो बताया गया है कि अपेक्षा के विपरीत कई लोगों ने उपचार-उपरांत उच्च शर्करा वाले पदार्थ ज़्यादा खाए। इसकी व्याख्या के लिए कुछ अपुष्ट परिकल्पनाएं प्रस्तुत हुई है। एक का सम्बंध ‘जिज्ञासा’ (curiosity) से बताया गया है – चूंकि सहभागी शकर के स्वाद के दमन प्रभाव से अनभिज्ञ थे, इसलिए वे इसे कई बार महसूस करना चाहते थे। दूसरी परिकल्पना के अनुसार स्वाद-ग्राही पुन: सक्रिय स्थिति में लौट आता है और ज़्यादा आनंददायक एहसास प्रदान करने लगता है।

लेकिन ये सारे अध्ययन तो इसलिए शुरू किए गए थे कि मीठा स्वाद दबाकर उपभोग पर नियंत्रण किया जा सकेगा। लेकिन जिन 33 शोध पत्रों को समीक्षा में शामिल किया गया था, उनमें से मात्र तीन में इन दोनों बातों (मीठा-स्वाद-दमन और खानपान व्यवहार में परिवर्तन) के आंकड़े साथ-साथ प्रस्तुत किए गए हैं। एक अध्ययन में पाया गया कि सहभागियों में पहले परीक्षण में 20 पॉइंट के पैमाने पर मिठास का एहसास 6±1 कम हुआ। इसके अलावा जिस समूह ने जिम्नेमिक एसिड का सेवन किया था उन्होंने औसतन 501±237 कैलोरी का उपभोग किया जबकि प्लेसिबो समूह (जिन्हें चाय का कुल्ला करवाया गया था) के मामले में यह आंकड़ा औसतन 638±333 कैलोरी रहा। यानी लगभग 20 प्रतिशत की कमी आई।

एक अन्य अध्ययन में प्लेसिबो समूह के 74 प्रतिशत सहभागियों ने दूसरी टॉफी खाई जबकि जिम्नेमिक एसिड उपचारित लोगों में से मात्र 51 प्रतिशत ने ही दूसरी टॉफी खाई। यानी 23 प्रतिशत कम और इतनी ही गिरावट आनंद के एहसास में देखी गई।

विभिन्न प्रकाशित अध्ययनों के विश्लेषण से इतना तो पता चलता है कि 7 पौधों (Gymnema sylvestre, Hovenia dulcis, Ziziphus jujuba, Gymnema alternifolium, Stephanotis lutchuensis और Styrax japonica) तथा उनके कुछ अवयवों के असर से मीठे स्वाद की अनुभूति में परिवर्तन होता है। खास तौर पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जिम्नेमा सिलवेस्टर के सत ने मीठे की मनोशारीरिक व आनंद की अनुभूति को कम किया और तंत्रिका संवेदना तथा मीठे पदार्थों के सेवन को भी कम किया। यह भी दिखता है कि इस उपचार का असर अन्य स्वादों पर नहीं होता। लेकिन इन मीठा-रोधी रसायनों के प्रेरणात्मक कारकों (खाने की इच्छा समेत) पर असर का निश्चित प्रमाण नहीं मिला है।

वैसे, गौरतलब बात यह है कि कई अन्य कारक भी हैं जो मीठे स्वाद ग्राही के कामकाज को कम कर सकते हैं। इनमें जेनेटिक्स, पोषण (जैसे ज़िंक की कमी), जीव-वैज्ञानिक (जैसे उम्र), बाह्य कारक (जैसे धूम्रपान, शराब का सेवन) और कोविड-19 जैसी वायरल बीमारियां शामिल हैं। इन परिस्थितियों में प्राय: भोजन उपभोग कम हो जाता है और खानपान की आदतों में बदलाव भी होते हैं। लेकिन इन परिस्थितियों में यह पक्का नहीं है कि मीठे स्वाद के दमन की वजह से भोजन उपभोग पर असर होता है। उदाहरण के लिए T1R2-T1R3 स्वाद ग्राही संकुल के जीन में एक न्यूक्लियोटाइड के परिवर्तन से मीठे स्वाद पर ऐसा ही असर होता है। इसके द्वारा शकर के स्वाद और शकर के उपभोग पर असर होता है।

चिकित्सकीय उपयोग

इस समीक्षा पर्चे से एक बात तो स्पष्ट है – मोटापे या खानपान की गड़बड़ियों वाले व्यक्तियों के लिए मीठे स्वाद के दमन की तकनीक को लागू करने को लेकर कई अगर-मगर हैं।

पहला तो यह अस्पष्ट है कि क्या मीठे स्वाद को दमनकारी पदार्थों से दबाकर गैर-मीठे (हालांकि उच्च वसा वाले) भोजन का उपभोग बढ़ता है। खास तौर पर जब दोनों तरह के भोजन एक साथ परोसे जाएं।

दूसरा, यह तो देखा गया है कि मीठा-शामक पदार्थों का अन्य स्वादों (खट्टे, कड़वे और नमकीन) पर कोई असर नहीं होता लेकिन क्या इनका असर उमामी स्वाद (जैसे अजीनो मोटो यानी मोनो सोडियम ग्लूटामेट) पर भी नहीं होता क्योंकि वह भी मीठे ग्राही की उप-इकाई (T1R3) के ज़रिए ही पहचाना जाता है।

तीसरा, हो सकता है कि मीठा-शामक मीठा खाने की इच्छा और उत्साह को थाम सकता है लेकिन यह भी देखा गया है कि इसका एक पलटवार भी होता है जिसमें आनंददायक अनुभूति के तीव्र दमन की वजह से मीठा खाने की इच्छा और बलवती हो सकती है क्योंकि शायद व्यक्ति मीठे स्वाद की तलाश में हो और उसे वह स्वाद न मिल रहा हो।

चौथा, ऐसा लगता है कि जिन लोगों को खुद को मीठा खाने से रोकने में दिक्कत होती है, उनके मामले में शायद यह तरीका काम कर सकता है। लेकिन एक अध्ययन में पता चला कि मीठे के प्रति आसक्ति और व्यक्ति के वर्तमान वज़न के बीच कोई सम्बंध नहीं है।

कहना न होगा कि इन विभिन्न स्वाद-रोधियों के साइड प्रभावों का विस्तृत अध्ययन ज़रूरी है, क्योकि इनका सेवन लंबे समय तक होता है। जैसे, डायबिटीज़ के मरीज़ों के उपचार के लिए जिम्नेमा सिल्वेस्टर के उपयोग का सम्बंध हेपेटाइटिस, लीवर क्षति से देखा गया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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