संकलन: आभा सूर

अन्ना मणि दक्षिण भारत की एक पूर्व रियासत, त्रावणकोर रियासत, के एक समृद्ध परिवार में पली-बढ़ीं। यह रियासत अब केरल का हिस्सा है। 1918 में जन्मी अन्ना मणि आठ भाई-बहनों में सातवीं थीं। उनके पिता एक सिविल इंजीनियर थे, और उनके इलायची के बड़े बागान थे। उनका परिवार प्राचीन सीरियाई ईसाई चर्च से सम्बंधित था; हालांकि उनके पिता ताउम्र अनिश्वरवादी रहे।
मणि का परिवार ठेठ उच्च-वर्गीय पेशेवर परिवार था, जहां बचपन से ही लड़कों की तर्बियत बेहतरीन करियर बनाने के हिसाब से की जाती थी, जबकि बेटियों को शादी के लिए तैयार किया जाता था। लेकिन अन्ना मणि ने इसकी कोई परवाह नहीं की। उनके जीवन के शुरुआती साल किताबों में डूबे हुए बीते। आठ साल की उम्र तक उन्होंने स्थानीय सार्वजनिक लाइब्रेरी में उपलब्ध लगभग सभी मलयालम किताबें पढ़ ली थीं और बारह साल की उम्र तक उन्होंने लगभग सभी अंग्रेज़ी किताबें पढ़ ली थीं। जब उनके आठवें जन्मदिन पर उनके परिवार ने उन्हें पारंपरिक उपहार स्वरूप हीरे की बालियां दीं तो उन्होंने यह उपहार लेने से इन्कार कर दिया और इसके बदले एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका (Encyclopaedia Britannica) को चुना। किताबों ने उन्हें नए विचारों से परिचित कराया और उनमें सामाजिक न्याय (social justice) की गहरी भावना भर दी, जिसने उनके जीवन को प्रभावित किया और आकार दिया।
1925 में, वाइकोम सत्याग्रह (Vaikom Satyagraha) अपने चरम पर था। दरअसल वाइकोम शहर के एक मंदिर के पुजारियों ने मंदिर के बगल वाली सड़क से दलितों के आने-जाने पर रोक लगाई थी। पुजारियों के इस निर्णय के विरोध में त्रावणकोर के सभी जाति और धर्म के लोग इकट्ठा हुए थे। महात्मा गांधी लोगों के इस सविनय अवज्ञा आंदोलन (वाइकोम सत्याग्रह – civil disobedience movement) को अपना समर्थन देने के लिए वाइकोम आए थे। सत्याग्रह का आदर्श वाक्य, ‘एक जाति, एक धर्म और एक ईश्वर’ प्रगतिवादियों का नारा बन गया था। उनकी मांग थी कि सभी हिंदुओं को, चाहे वे किसी भी जाति के हों, राज्य के मंदिरों में प्रवेश दिया जाए। इस सत्याग्रह ने, और विशेष रूप से गांधीजी की शामिलियत ने, युवा और आदर्शवादी अन्ना को बहुत प्रभावित किया।
बाद के सालों में, जब राष्ट्रवादी आंदोलन ने गति पकड़ी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पूर्ण स्वतंत्रता (complete independence) को अपना लक्ष्य बनाया तो अन्ना मणि धीरे-धीरे राष्ट्रवादी राजनीति से आकर्षित हुईं। हालांकि वे किसी विशेष आंदोलन में शामिल नहीं हुईं, लेकिन उन्होंने अपनी राष्ट्रवादी सहानुभूति के प्रतीक के रूप में खादी पहनना शुरू कर दिया। राष्ट्रवाद की सशक्त भावना ने उनमें अपनी स्वछंदता के लिए लड़ने की तीव्र इच्छा को भी मजबूत किया। जब उन्होंने अपनी बहनों के नक्श-ए-कदम, जिनकी शादी किशोरावस्था में ही हो गई थी, पर चलने के बजाय उच्च शिक्षा (higher education) हासिल करने की ठानी तो उनके परिवार ने न तो कोई कड़ा विरोध किया और न ही कोई हौसला दिया।
अन्ना मणि चिकित्सा की पढ़ाई करना चाहती थीं, लेकिन जब यह संभव नहीं हुआ तो उन्होंने भौतिकी (physics) पढ़ने का विकल्प चुना क्योंकि वे इस विषय में अच्छी थीं। अन्ना मणि ने मद्रास (अब चेन्नई) के प्रेसीडेंसी कॉलेज (Presidency College, Chennai) में भौतिकी ऑनर्स प्रोग्राम में दाखिला लिया। 1940 में, कॉलेज की पढ़ाई समाप्त करने के एक साल बाद अन्ना मणि को भारतीय विज्ञान संस्थान (Indian Institute of Science, IISc) में भौतिकी में शोध करने के लिए छात्रवृत्ति मिली और उन्हें सी. वी. रमन की प्रयोगशाला में स्नातक छात्र के रूप में लिया गया। रमन की प्रयोगशाला में, अन्ना मणि ने हीरे और माणिक की स्पेक्ट्रोस्कोपी (spectroscopy of diamonds and rubies) पर काम किया। उस समय रमन की प्रयोगशाला हीरे के अध्ययन में लगी हुई थी क्योंकि उस समय रमन का विवाद चल रहा था – मैक्स बोर्न के साथ क्रिस्टल डायनेमिक्स (crystal dynamics) के सिद्धांत पर और कैथलीन लोन्सडेल के साथ हीरे की संरचना पर। रमन के पास भारत और अफ्रीका के तीन सौ हीरे थे और उनके सभी शोधार्थी हीरे के किसी न किसी पहलू पर काम कर रहे थे।
अन्ना मणि ने तीस से अधिक विविध हीरों के प्रतिदीप्ति (fluorescence) वर्णक्रम, अवशोषण वर्णक्रम और रमन वर्णक्रम रिकॉर्ड करके विश्लेषण किया। साथ ही उन्होंने हीरों के वर्णक्रम पर तापमान के प्रभाव और ध्रुवीकरण प्रभावों को भी देखा। प्रयोग लंबे और श्रमसाध्य थे: (हीरे) क्रिस्टल को तरल हवा के तापमान (-196 डिग्री सेल्सियस) पर रखा जाता था, और कुछ हीरों की दुर्बल चमक के वर्णक्रम को फोटोग्राफिक प्लेट पर रिकॉर्ड करने के लिए पंद्रह से बीस घंटे इस तापमान पर रखना पड़ता था। अन्ना मणि ने प्रयोगशाला में कई घंटों तक काम किया, कभी-कभी तो उन्होंने रात-रात भर काम किया।
1942 से 1945 के बीच उन्होंने हीरे और माणिक की कांति पर पांच शोधपत्र (research papers) प्रकाशित किए। इन शोधपत्रों का कोई सह-लेखक नहीं था, सभी अकेले उन्होंने लिखे थे। अगस्त 1945 में उन्होंने मद्रास विश्वविद्यालय में अपना पीएचडी शोध प्रबंध प्रस्तुत किया, और उन्हें इंग्लैंड में इंटर्नशिप के लिए सरकारी छात्रवृत्ति दी गई। हालांकि, अन्ना मणि को कभी भी पीएचडी की उपाधि नहीं दी गई जिसकी वे हकदार थीं। मद्रास विश्वविद्यालय, जो उस समय औपचारिक रूप से भारतीय विज्ञान संस्थान में किए गए कार्य के लिए डिग्री प्रदान किया करता था, का कहना था कि अन्ना मणि के पास एमएससी की डिग्री नहीं है और इसलिए उन्हें पीएचडी उपाधि नहीं दी जा सकती। मद्रास विश्वविद्यालय ने इस बात को नज़रअंदाज किया कि अन्ना मणि ने भौतिकी ऑनर्स और रसायन विज्ञान ऑनर्स (chemistry honours) में ग्रेजुएट किया है, और अपनी अंडर-ग्रेजुएट की डिग्री के आधार पर भारतीय विज्ञान संस्थान में ग्रेजुएट अध्ययन के लिए छात्रवृत्ति हासिल की है। उनका संपूर्ण पीएचडी शोध प्रबंध आज तक रमन शोध संस्थान (Raman Research Institute Museum) के संग्रहालय में अन्य जिल्दबंद शोध प्रबंधों के साथ रखा हुआ है, बिना इस भेद के कि अन्ना मणि को इस शोधकार्य के बावजूद पीएचडी डिग्री नहीं मिली। हालांकि, अन्ना मणि ने इस अन्याय के खिलाफ कोई गिला-शिकवा नहीं पाला, और ज़ोर देकर यही कहा कि पीएचडी डिग्री न होने से उनके काम/जीवन पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता।
रमन प्रयोगशाला में अपना शोध कार्य पूरा करने के तुरंत बाद वे इंग्लैंड चली गईं। हालांकि उनका मन भौतिकी में अनुसंधान कार्य करने का था, लेकिन उन्होंने मौसम सम्बंधी उपकरणों (meteorological instruments) में विशेषज्ञता हासिल की क्योंकि उस समय उनके लिए यही एकमात्र छात्रवृत्ति उपलब्ध थी।

अन्ना मणि 1948 में स्वतंत्र भारत लौट आईं और पुणे के भारतीय मौसम विभाग (India Meteorological Department, IMD) में शामिल हो गईं। विभाग में वे विकिरण उपकरणों के निर्माण की प्रभारी थीं। लगभग 30 साल के अपने करियर में उन्होंने वायुमंडलीय ओज़ोन (atmospheric ozone) से लेकर अंतर्राष्ट्रीय उपकरणों की तुलना की आवश्यकता, और मौसम सम्बंधी उपकरणों के राष्ट्रीय मानकीकरण जैसे विषयों पर कई शोधपत्र प्रकाशित किए। 1976 में वे भारतीय मौसम विभाग के उप महानिदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुईं। इसके बाद वे रमन रिसर्च इंस्टीट्यूट में तीन साल के लिए विज़िटिंग प्रोफेसर रहीं।
उन्होंने दो पुस्तकें भी लिखी हैं: दी हैंडबुक फॉर सोलर रेडिएशन डैटा फॉर इंडिया (1980) और सोलर रेडिएशन ओवर इंडिया (1981)। उन्होंने भारत में पवन ऊर्जा (wind energy in India) के दोहन के लिए कई परियोजनाओं पर काम किया। बाद में, अन्ना मणि ने बैंगलोर के औद्योगिक उपनगर में एक छोटी-सी कंपनी शुरू की जो पवन गति और सौर ऊर्जा को मापने के उपकरण बनाती थी। अन्ना मणि का मानना था कि भारत में पवन और सौर ऊर्जा (solar energy) के विकास के लिए विभिन्न क्षेत्रों में आपतित सौर ऊर्जा और पवन पैटर्न की विस्तृत जानकारी की ज़रूरत है। और उन्हें उम्मीद थी कि उनके कारखाने में बने उपकरण इस संदर्भ में काफी उपयोगी होंगे।
पर्यावरण के मुद्दों में रुचि और भागीदारी होने बावजूद अन्ना मणि ने खुद को कभी पर्यावरणवादी (environmentalist) के रूप में नहीं देखा। वे ऐसे लोगों को ‘कारपेट बैगर्स’ कहा करती थीं, जो हमेशा यहां से वहां और वहां से यहां डोलते रहते थे। वे एक स्थान पर टिके रहना पसंद करती थीं।
अपने जीवन और उपलब्धियों के बारे में अन्ना मणि का नज़रिया बहुत ही तटस्थ था। उन्होंने उस ज़माने में भौतिकी पढ़ने को कोई बड़ी बात नहीं माना, जिस ज़माने में भारत में गिनी-चुनी महिला भौतिकविद (women physicists) थीं। उन्होंने एक महिला वैज्ञानिक के रूप में अपने सामने आने वाली कठिनाइयों और भेदभाव को दिल पर नहीं लिया और ‘बेचारेपन’ की राजनीति से दूर ही रहीं, उससे घृणा ही की। लेकिन महिलाओं की क्षमता को सीमित करने वाली एवं महिला और पुरुषों की बौद्धिक क्षमताओं में अंतर बताने वाली, थोपी गई लैंगिक पहचान (gender bias) का उन्होंने लगातार सक्रियता से विरोध किया।
इसमें कोई दो राय नहीं कि अन्ना मणि सफलता के ऐसे पड़ाव पर पहुंचीं जिसकी आकांक्षा चंद महिलाएं (या पुरुष) कर सकते हैं। वे उपलब्ध सीमित सांस्कृतिक दायरों से आगे गईं, और न केवल अपने लिए जगह बनाई और अपनी प्रयोगशाला बनाई, बल्कि अपनी एक वर्कशॉप, एक फैक्ट्री बनाई। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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