हयाबुसा-2 की कार्बन युक्त नमूनों के साथ वापसी

जापान एक बार फिर एक क्षुद्रग्रह के नमूने पृथ्वी पर लाने में सफल रहा है। इन नमूनों पर वैज्ञानिकों द्वारा पृथ्वी पर पानी और कार्बनिक अणुओं के प्राचीन वितरण के सुरागों की छानबीन की जाएगी। हयाबुसा-2 का कैप्सूल रयूगू क्षुद्रग्रह का लगभग 5.3 अरब किलोमीटर का फासला तय करके 6 दिसंबर को ऑस्ट्रेलिया के वूमेरा रेगिस्तान में पैराशूट से उतारा गया। इसके बाद एक हेलीकॉप्टर की मदद से कैप्सूल को सुरक्षित जापान ले जाया गया।  

गौरतलब है कि हयाबुसा-2 को जापान एयरोस्पेस एक्सप्लोरेशन एजेंसी (जाक्सा) द्वारा 2014 में प्रक्षेपित किया गया था। इसने 18 महीनों तक रयूगू का चक्कर लगते हुए दूर से अवलोकन किया। इस दौरान डैटा एकत्र करने के लिए क्षुद्रग्रह पर कई छोटे रोवर भी उतारे गए। इसके अलावा सतह और सतह के नीचे से नमूने एकत्रित करने के लिए दो बार यान क्षुद्रग्रह पर उतरा भी। इसका उद्देश्य 100 मिलीग्राम कार्बन युक्त मृदा और चट्टान के टुकड़े एकत्र करना था। नमूने की असल मात्रा तो टोक्यो स्थित क्लीन रूम में कैप्सूल को खोलने के बाद ही पता चलेगी।           

इसके पहले 2010 में हयाबुसा मिशन के तहत ही इटोकावा क्षुद्रग्रह से सामग्री पृथ्वी पर लाई गई थी। क्षुद्रग्रहों में दिलचस्पी का कारण उनमें उपस्थित वह पदार्थ है जो 4.6 अरब वर्ष पूर्व सौर मंडल के निर्माण के समय से मौजूद है। ग्रहों पर होने वाली प्रक्रियाओं के विपरीत यह सामग्री दबाव एवं गर्मी के प्रभाव से परिवर्तित नहीं हुई है और अपने मूल रूप में मौजूद है।

वास्तव में रयूगू एक कार्बनमय या सी-प्रकार का क्षुद्रग्रह है जिसमें कार्बनिक पदार्थ और हाइड्रेट्स मौजूद हैं। इन दोनों में रासायनिक रूप से बंधा हुआ पानी काफी मात्रा में होता है। वैज्ञानिकों के अनुसार जब इस तरह के क्षुद्रग्रह अरबों वर्ष पहले नवनिर्मित पृथ्वी से टकराए होंगे तब इन मूलभूत सामग्रियों से जीवन की शुरुआत हुई होगी। वैसे दूर से किए गए अवलोकनों से संकेत मिल चुके हैं यहां पानी युक्त खनिज और कार्बनिक पदार्थ मौजूद है।

रयूगू पर पानी की मात्रा के आधार पर पता लगाया जा सकेगा कि अरबों वर्ष पहले पृथ्वी पर क्षुद्रग्रहों से कितना पानी आया है। नासा के अवलोकनों के अनुसार बेनू क्षुद्रग्रह पर रयूगू से अधिक मात्रा में पानी है।  

बहुत कम वैज्ञानिक क्षुद्रग्रहों के ज़रिए पृथ्वी पर जीवन के आगमन के विचार के समर्थक हैं। अलबत्ता, रयूगू जैसे क्षुद्रग्रहों से उत्पन्न कार्बन युक्त उल्कापिंडों से अमीनो अम्ल और यहां तक कि आरएनए भी उत्पन्न होने के संकेत मिले हैं। तो हो सकता है कि प्राचीन पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति जैविक-पूर्व रासायनिक क्रियाओं के कारण हुई हो। अत: रयूगू से प्राप्त सामग्री के विश्लेषण में कई अन्य वैज्ञानिक रुचि ले रहे हैं।  

पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण में कैप्सूल को छोड़ने के बाद हयाबुसा-2 एक बार फिर 1998 केवाय-26 क्षुद्रग्रह के मिशन पर रवाना हो गया है। यान के शेष र्इंधन के आधार पर जाक्सा को उम्मीद है कि हयाबुसा अपने नए मिशन में भी सफल रहेगा। इसी बीच नासा के ओसिरिस-रेक्स मिशन के तहत सितंबर 2023 में बेनू क्षुद्रग्रह से नमूने प्राप्त होने हैं। नासा और जाक्सा अपने-अपने मिशनों से प्राप्त नमूनों की अदला-बदली पर भी सहमत हुए हैं। इकोटावा नमूनों सहित तीनों नमूनों की तुलना करने पर सौर मंडल के निर्माण सम्बंधी काफी जानकारियां प्राप्त हो सकती हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/hayabusa_1280p.jpg?itok=50kUWjQu

स्पर्श अनुभूति में एक प्रोटीन की भूमिका

म छूकर कई बारीक अंतर कर पाते हैं। जैसे एक सरीखे दिखने वाले कपड़ों की क्वालिटी में फर्क। और हालिया अध्ययन बताता है कि ऐसा हम अपनी उंगलियों के सिरों में पाए जाने वाले अशरिन नामक प्रोटीन की बदौलत कर पाते हैं। सामान्यत: अशरिन प्रोटीन हमें देखने और सुनने में मदद करता है। और अब पता चला है कि यह स्पर्श में भी सहायक हैं। इससे लगता है कि हमारी प्रमुख इंद्रियों के बीच एक गहरा आणविक सम्बंध है।

देखा गया है कि अशरिन प्रोटीन को कूटबद्ध करने वाले जीन, USH2A, में उत्परिवर्तन हो जाए तो अशर सिंड्रोम होता है। अशर सिंड्रोम एक बिरली आनुवंशिक बीमारी है जिसमें अंधापन, बहरापन और उंगलियों में हल्का कंपन्न भी महसूस ना कर पाने की समस्या होती है। इसलिए वैज्ञानिकों को इस बारे में अंदाज़ा तो था कि स्पर्श के एहसास के लिए अशरिन प्रोटीन महत्वपूर्ण है।

मैक्स डेलब्रुक सेंटर फॉर मॉलीक्यूलर मेडिसिन के तंत्रिका वैज्ञानिक गैरी लेविन और उनकी टीम ने स्पर्श में अशरिन की भूमिका को विस्तार से समझने के लिए अशर सिंड्रोम से पीड़ित 13 ऐसे मरीज़ों का अध्ययन किया जिनमें विशेष रूप से स्पर्श अनुभूति प्रभावित थी। इन मरीज़ों में उन्होंने तापमान में अंतर कर पाने, दर्द, और 10 हर्ट्ज़ व 125 हर्ट्ज़ के कंपन को महसूस करने की क्षमता जांची। यह कंपन लगभग वैसा ही उद्दीपन है जो उंगली को किसी खुरदरी सतह पर फिराते वक्त मिलता है। इन परिणामों की तुलना उन्होंने 65 स्वस्थ लोगों के परिणामों से की।

टीम ने पाया कि तापमान और हल्के दर्द के प्रति तो दोनों समूहों के लोगों ने एक जैसी प्रतिक्रिया दी। लेकिन अशर सिंड्रोम से पीड़ित लोगों ने 125 हर्ट्ज़ का कंपन स्वस्थ लोगों के मुकाबले चार गुना कम महसूस किया और 10 हर्ट्ज़ का कंपन डेढ़ गुना कम महसूस किया।

इसका कारण जानने के लिए शोधकर्ताओं ने यही प्रयोग चूहों पर दोहराया। नेचर न्यूरोसाइंस में शोधकर्ता बताते हैं कि मनुष्यों की तरह दोनों समूहों के चूहे, USH2A जीन वाले और USH2A जीन रहित चूहे, तापमान परिवर्तन और दर्द का एहसास तो ठीक से कर पा रहे थे। लेकिन जीन-रहित चूहों की तुलना में जीन-सहित चूहे कंपन की संवेदना के मामले में बेहतर थे।

सामान्यत: अशरिन प्रोटीन देखने और सुनने के लिए ज़िम्मेदार तंत्रिका कोशिकाओं में पाया जाता है। लेकिन पाया गया कि चूहों और मनुष्यों में यह माइस्नर कॉर्पसकल में भी मौजूद होता है। माइस्नर कॉर्पसकल सूक्ष्म और अंडाकार कैप्सूल जैसी रचना है जो उंगलियों की तंत्रिका कोशिकाओं को चारों ओर से घेरकर उन्हेंे सुरक्षित रखती है व सहारा देती है। यह खोज एक मायने में बहुत महत्वपूर्ण है। आम तौर पर माना जाता है कि तंत्रिकाएं अकेले ही संदेशों को प्रेषित करती हैं। लेकिन माइस्नर कार्पसकल में पाए जाने वाले प्रोटीन की संदेश-प्रेषण में भूमिका दर्शाती है कि तंत्रिका के बाहर उपस्थित अणु भी संदेशों के प्रेषण में कुछ भूमिका निभाते हैं।

शोधकर्ता आगे यह जानना चाहते हैं कि ठीक किस तरह USH2A प्रोटीन कंपन का एहसास करने में मदद करता है। जीन और प्रोटीन दोनों पर गहन अध्ययन कर यह बेहतर समझा जा सकता है कि हमारी पकड़ बनाने की क्षमता कैसे बढ़ाई और नियंत्रित की जा सकती है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/touch_1280p.jpg?itok=kGKJRje5

आपके पैरों तले है विशाल जैव विविधता

क्या आपने कभी सोचा है कि आपके पैरों तले एक विशाल जैविक तंत्र है? क्या आप जानते हैं कि मुट्ठी भर मिट्टी में लगभग 5,000 तरह के जीव बसते हैं और इसमें कुल कोशिकाओं की संख्या पृथ्वी की कुल आबादी के बराबर हो सकती है? साधारण मृदा में सूक्ष्म कवक, सड़ते-गलते पौधे, कवक को खाने वाले नन्हे कृमि और उन कृमियों का भक्षण करने की फिराक में सुई की नोक के बराबर घुन हो सकती है। और साथ में कोई ऐसा बैक्टीरिया भी हो सकता है जो अन्य बैक्टीरिया को अपने शक्तिशाली एंटीबायोटिक से खत्म कर सकता है। कुल मिलाकर, यह जैव विविधता का का विशाल मगर उपेक्षित संसार है।

लेकिन इस वर्ष विश्व मृदा दिवस (5 दिसंबर) पर संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन ने इस भूमिगत दुनिया में उपस्थित जैव विविधता का पहला वैश्विक मूल्यांकन जारी किया है। इस मूल्यांकन में 300 विशेषज्ञों ने इन जीवों की विविधता, प्राकृतिक और कृषि परिवेश में इनके योगदान और इन पर मंडराते संभावित खतरों को साझा करने के लिए जानकारियां और डैटा एकत्र किया है। इस रिपोर्ट में फसल की पैदावार में वृद्धि तथा मिट्टी व पानी को स्वच्छ रखने में इन जीवों के योगदान की चर्चा भी की गई है। स्पैनिश नेशनल रिसर्च काउंसिल के मृदा एवं पादप पारिस्थितिकीविद फ्रांसिस्को पुग्नायर के अनुसार पौधों की जड़ें और भूमिगत जीव भूमि के ऊपर पाए जाने वाले जीवों से ज़्यादा कार्बन का संचय करते हैं और अधिक लंबे समय के लिए। 

देखा जाए तो मृदा कार्बनिक पदार्थों, खनिजों, गैसों और अन्य घटकों का मिश्रण होती है जो पौधों के विकास में मदद करता है। इतना ही नहीं, लगभग 40 प्रतिशत जंतु अपने जीवन चक्र में भोजन, आश्रय या फिर शरण लेने के लिए मृदा का उपयोग करते हैं। लेकिन धरती पर एक बुलडोज़र या ट्रैक्टर चलने, जंगल की आग, तेल के फैलने, यहां तक कि पैदल यात्रियों के निरंतर आवागमन से मृदा के पारिस्थितिकी तंत्र को क्षति पहुंचती है। उम्मीद है कि यह रिपोर्ट वैज्ञानिकों, नीति निर्माताओं और आम जनता को इस भूमिगत पारिस्थितिकी तंत्र के प्रति जागरूक करेगी।               

पूर्व के अध्ययनों में वैज्ञानिक मृदा के सबसे बड़े और सबसे छोटे जीवों पर ध्यान केंद्रित करते रहे हैं। कई सदियों से प्राकृतिक इतिहासकारों ने चींटियों, दीमकों, और यहां तक कि केंचुओं तथा मृदा से उनके सम्बंध पर चर्चा की है। पिछले कुछ दशकों में सूक्ष्मजीव विज्ञानियों ने तो मृदा के डीएनए का अनुक्रमण करके बैक्टीरिया और कवक की एक आश्चर्यजनक विविधता का भी पता लगाया है। लेकिन बड़े और छोटे जीवों के बीच हज़ारों जीवों को अनदेखा किया जाता रहा है। सूक्ष्म प्रोटिस्ट, कृमि और टार्डिग्रेड्स मृदा के कणों के आसपास पानी की बारीक झिल्ली का निर्माण करते हैं। कुछ बड़े और छोटे कृमि, स्प्रिंगटेल्स और कीट लार्वा, इन कणों के बीच हवादार छिद्रों में रहते हैं जो मृदा को जैविक रूप से इस पृथ्वी का सबसे विविध आवास बनाने में मदद करते हैं।   

यह विविधता एक समृद्ध और जटिल पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण करती है जो फसल की वृद्धि को बढ़ावा देती है, प्रदूषकों को विघटित करती है और कार्बन के अनंत सोख्ते के रूप में काम कर सकती है। मृदा के कुछ जीव पौधों की विविधता को बढ़ावा देते हैं और कई तो एंटीबायोटिक दवाओं से लेकर प्राकृतिक कीटनाशकों तक महत्वपूर्ण यौगिक उत्पन्न करते हैं। मृदा, जीवों और उनकी गतिविधियों के बिना अन्य जीवों का जीवित रहना असंभव होगा।

इस रिपोर्ट में कई मानव गतिविधियों की चर्चा की गई है जो मृदा के जीवों को नुकसान पहुंचाती हैं। इनमें वनों की कटाई, सघन कृषि, प्रदूषकों के कारण अम्लीकरण, अनुचित सिंचाई के कारण लवणीकरण, मृदा संघनन, सतह का बंद होना, आग तथा कटाव को शामिल किया गया है। इस सम्बंध में कुछ सरकारों और कंपनियों ने भी कार्य किया है। कई राष्ट्र ऐसे कानून बनाने पर विचार कर रहे हैं जिनसे मृदा को विनाशकारी मानव गतिविधियों से बचाया जा सके। चीन में एग्रीकल्चर ग्रीन डेवलपमेंट कार्यक्रम के तहत विभिन्न फसलों को एक साथ उगाया जा रहा है ताकि जैव विविधता को संरक्षित किया जा सके। उम्मीद है कि यह रिपोर्ट मृदा-जीव संरक्षण के प्रति जागरूकता बढ़ाएगी और संरक्षण को प्रोत्साहित करेगी।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/ca_1211NID_Bugs_Soil_online_new.jpg?itok=1eKhpTd4

सर्पदंश से अनमोल जीवन की क्षति

हाल ही में जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार हर वर्ष भारत में सर्पदंश से लगभग 30 लाख वर्षों के स्वास्थ्य और उत्पादकता के बराबर नुकसान होता है। इस अध्ययन में विशेष रूप से उन लोगों पर चर्चा की गई है जो सर्पदंश के बाद जीवित रहते हैं लेकिन अंग-विच्छेदन, गुर्दों की बीमारी जैसी स्थितियों से जूझ रहे हैं। गौरतलब है कि भारत में पहली बार इस तरह का विश्लेषण किया गया है। इसे युनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन इंस्टिट्यूट ऑफ हेल्थ मैट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन (IHMI) के निक रॉबर्ट्स ने अमेरिकन सोसाइटी ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन एंड हाइजीन द्वारा नवंबर में आयोजित वर्चुअल बैठक में प्रस्तुत किया। 

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने 2017 में सर्पदंश के कारण विषाक्तता को एक उपेक्षित उष्णकटिबंधीय बीमारी घोषित किया है। इसके लिए संगठन ने पिछले वर्ष एक वैश्विक पहल की शुरुआत की है जिसमें वर्ष 2030 तक सर्पदंश से होने वाली मौतों और विकलांगता को आधा करने का लक्ष्य है। टोरंटो स्थित सेंटर फॉर ग्लोबल हेल्थ रिसर्च के निदेशक प्रभात झा और उनके सहयोगियों ने सर्पदंश से होने वाली मौतों का सटीक अनुमान लगाने का प्रयास किया है। अपनी रिपोर्ट में झा ने बताया है कि भारत में प्रति वर्ष लगभग 46,000 मौतें सर्पदंश से होती हैं। इस रिपोर्ट के बाद WHO ने भी अपने अनुमान को संशोधित करके कहा है कि प्रति वर्ष विश्व भर में सर्पदंश से 81,000 से 1,38,000 मौतें होती हैं। ऐसे में भारत को निवारण पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। 

सर्पदंश के अधिकांश मामले  अस्पतालों या स्वास्थ्य केंद्रों तक पहुंच के अभाव में औपचारिक रूप से दर्ज नहीं हो पाते और ऐसे में इसके प्रभाव को कम आंका जाता है। देखा जाए तो इस तरह के मामले अधिकतर गरीब किसानों और उनके परिवारों में होते हैं। इसलिए इन पर अधिक ध्यान भी नहीं दिया जाता है।

भारत में सर्पदंश की अधिकता का एक कारण यहां मौजूद सांपों की 300 से अधिक प्रजातियां हैं जिनमें से 60 प्रजातियां अत्यधिक विषैली हैं। इसके अलावा दूरदराज़ क्षेत्रों में निकटतम स्वास्थ्य केंद्र से दूरी के कारण भी समय पर पहुंचना काफी मुश्किल हो जाता है। क्लीनिकों में एंटी-वेनम दवाओं का अभाव या उनके रखरखाव में लापरवाही भी एक बड़ा कारण है। 

फिर भी क्ष्क्तग्क के विश्लेषण से सर्पदंश के उपरांत जीवित रहे लोगों में होने वाले दीर्धकालिक प्रभावों की पहली मात्रात्मक जानकारी प्राप्त हुई है। ऐसे विश्लेषणों से स्वास्थ्य व्यवस्था की लागत और अन्य सामाजिक दबावों की जानकारी मिल सकती है।

इन अध्ययनों से यह बात तो साफ है कि नीति स्तर पर बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं तक आसान पहुंच की तत्काल आवश्यकता है। सरकार को ग्रामीण क्षेत्रों पर विशेष ध्यान देते हुए सभी राज्यों में सर्पदंश के उपचार की उपलब्धता बढ़ाने की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.nature.com/w400/magazine-assets/d41586-020-03327-9/d41586-020-03327-9_18614746.jpg

कोविड-19: क्लस्टर-बस्टिंग तकनीक की सीमा

जापान में कोरोनावायरस के बढ़ते मामलों के बीच विशेषज्ञों ने राष्ट्रव्यापी स्तर पर संक्रमण की रोकथाम के लिए क्लस्टर-बस्टिंग तकनीक अपनाई थी। अब लग रहा है कि शायद उस तरीके की सीमा आ चुकी है। जापानी स्वास्थ्य मंत्रालय की सलाहकार समिति के अनुसार इस तकनीक की मदद से अब महामारी को नियंत्रित नहीं रखा जा सकता है। यानी अब कोरोनावायरस के संक्रमण को रोकने के लिए कोई अन्य शक्तिशाली कदम उठाना होगा।

गौरतलब है कि जापान में जन-स्वास्थ्य केंद्रों के माध्यम से क्लस्टर-बस्टिंग (प्रसार के स्थानों को चिंहित करना) तकनीक को अपनाया गया था। इसमें संक्रमण के मूल स्रोत का पता लगाने के लिए उलटी दिशा में कांटेक्ट ट्रेसिंग की जाती है। यह तकनीक जापान में वायरस के प्रसार को रोकने में अब तक काफी प्रभावी रही है। लेकिन विशेषज्ञों के अनुसार तीसरी लहर में परिस्थिति बदल चुकी है। अब क्लस्टर काफी फैल गए हैं और विविधता भी काफी अधिक है।

देखा जाए तो गर्मी के मौसम में दूसरी लहर के दौरान रात के मनोरंजन स्थलों पर सबसे अधिक क्लस्टर पाए गए थे। लेकिन अब ये क्लस्टर चिकित्सा संस्थानों, कार्यस्थलों और विदेशी बस्तियों सहित कई स्थानों पर पाए जा रहे हैं। ऐसे में स्वास्थ्य-कर्मियों की कमी के कारण जन-स्वास्थ्य केंद्रों में वृद्ध लोगों की देखभाल को प्राथमिकता दी जा रही है। फिर भी जन-स्वास्थ्य केंद्रों का बोझ कम करने के लिहाज़ से विशेषज्ञों की मानें तो यह तकनीक अपनी अंतिम सीमा तक पहुंच चुकी है। वर्तमान स्थिति में राष्ट्र स्तर पर पांच दिनों तक रोज़ाना 2000 से अधिक मामले इस तकनीक की सीमा को उजागर करते हैं।

सलाहकार समिति के एक सदस्य के अनुसार क्लस्टर-बस्टिंग तकनीक का उपयोग केवल तब संभव है जब किसी क्षेत्र में संक्रमण व्यापक रूप से न फैला हो। लेकिन एक खास बात यह भी है कि ऐसे स्थानों को नियंत्रित करना भी मुश्किल होता है जहां आधे से अधिक मामलों में संक्रमण का मार्ग अज्ञात हो। ऐसे हालात में समिति का सुझाव है कि लंबी दूरी की यात्रा पर प्रतिबंध के साथ-साथ सरकार को महामारी नियंत्रित करने के लिए अन्य सख्त कदम उठाने चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://cdn.japantimes.2xx.jp/wp-content/uploads/2020/11/np_file_52749.jpeg

नासा का मिशन मंगल – प्रदीप

दुनिया राजनैतिक, सामाजिक और पर्यावरणीय दृष्टि से उथल-पुथल के दौर में है। ऐसी परिस्थिति में महान वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग यह कहकर धरती से रुखसत हो चुके हैं कि महज़ 200 वर्षों के भीतर मानव जाति का अस्तित्व हमेशा के लिए खत्म हो सकता है और इस संकट का एक ही समाधान है कि हम अंतरिक्ष में कॉलोनियां बसाएं।

हाल के वर्षों में हुए अनुसंधानों से पता चलता है कि भविष्य में पृथ्वीवासियों द्वारा रिहायशी कॉलोनी बनाने के लिए सबसे उपयुक्त स्थान हमारा पड़ोसी ग्रह मंगल है। मंगल ग्रह और पृथ्वी में अनेक समानताएं हैं। हालांकि मंगल एक शुष्क और ठंडा ग्रह है, लेकिन वहां पानी, कार्बन डाईऑक्साइड, नाइट्रोजन आदि मौजूद हैं जो इसे जीवन के अनुकूल बनाते हैं। मंगल अनोखे रूप से सर्वाधिक उपयोगी और उपयुक्त ग्रह है। मंगल अपनी धुरी पर एक चक्कर लगाने में लगभग पृथ्वी के बराबर समय लेता है। मंगल पर पृथ्वी के समान ऋतुचक्र होता है। पृथ्वी की तरह मंगल पर भी वायुमंडल मौजूद है, हालांकि बहुत विरल है।

हाल ही में अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने एक रिव्यू रिपोर्ट के ज़रिए यह घोषणा की है कि वह युरोपियन स्पेस एजेंसी ईसा के साथ मिलकर ‘मार्स सैम्पल रिटर्न मिशन’ के तहत मंगल ग्रह की सतह के नमूने पृथ्वी पर लाएगा। इसकी बड़ी वजह यह है कि अगर हमें मंगल ग्रह के बारे में अच्छे से जानना है, तो हमें उसकी सतह के नमूनों का बारीकी से अध्ययन करना होगा। इसी से हम यह जान सकेंगे कि मंगल ग्रह की सतह में किस प्रकार के कार्बनिक अणु मौजूद हैं, और क्या वहां किसी तरह की फसल उगाई जा सकती है।

नमूने इकट्ठा करके धरती पर लाने के लिए रोवर, लैंडर और ऑर्बाइटर का निर्माण काफी पहले ही शुरू हो चुका है। इसके लिए मंगल पर कुछ खास प्रयोग और अन्वेषण करने के लिए ‘परसेवियरेंस रोवर’ रवाना हो चुका है और जो फरवरी में मंगल पर पहुंचेगा।

परसेवियरेंस का मंगल पर सबसे महत्वपूर्ण प्रयोग है ऑक्सीजन का उत्पादन। इसके लिए रोवर के साथ मार्स ऑक्सीजन इनसीटू रिसोर्स युटिलाइजेशन एक्सपेरिमेंट (मॉक्सी) भेजा है। मॉक्सी मंगल की कार्बन डाईऑक्साइड को ऑक्सीजन में बदलने का काम करेगा, जो भविष्य के मंगल यात्रियों के लिए स्वच्छ जीवनदायक हवा मुहैया कराएगी।

परसेवियरेंस अलग-अलग स्थानों से मंगल ग्रह की सतह में मौजूद मिट्टी और चट्टानों के नमूने इकट्ठा करेगा। दूसरे चरण में ईसा का ‘एक्सोमार्स रोवर’ परसेवियरेंस रोवर द्वारा इकट्ठा किए गए सैंपल कैपस्यूल्स को अलग-अलग स्थानों से उठाकर एक जगह पर इकट्ठा करेगा। तीसरे चरण में एक्सोमार्स रोवर इन कैपस्यूल्स को ‘मार्स सैंपल रिट्रीवल लैंडर’ तक ले जाएगा। मार्स सैंपल रिट्रीवल लैंडर अपने विशेष सॉलिड रॉकेट की सहायता से इन कैपस्यूल्स को मंगल ग्रह की कक्षा में तकरीबन 350 कि.मी. की ऊंचाई तक भेजेगा। चौथे चरण में ईसा का ‘अर्थ रिटर्न ऑर्बाइटर’ इन सैंपल कैपस्यूल्स को एक विशेष कंटेनर में इकट्ठा करेगा और अपने सोलर इलेक्ट्रिक आयन इंजन के ज़रिए धरती तक लाएगा। नासा के प्रशासक जिम ब्रिडेनस्टीन के मुताबिक अगर सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो 2030 तक यह विशेष कंटेनर, सैंपल कैपस्यूल्स के साथ धरती पर उतर सकता है और करीब 500 ग्राम सैंपल हमें अध्ययन के लिए मिल जाएगा!(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.nasa.gov/sites/default/files/thumbnails/image/journey_to_mars.jpeg

आनुवंशिक विरासत को बदल देता है एपिजेनेटिक्स – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

हाल ही में नेचर पत्रिका में एक रोमांचक पेपर प्रकाशित हुआ है: जेनेटिक रिप्रोग्रामिंग के द्वारा युवावस्था की एपिजेनेटिक जानकारी को बहाल करके दृष्टि लौटाना। पेपर के लेखक युआंगचेंग लू और उनके साथी बताते हैं कि बुढ़ापे का एक कारण ‘एपिजेनेटिक परिवर्तनों’ का जमा होना है जो जीन की अभिव्यक्ति को अस्त-व्यस्त कर देता है, जिससे जीन्स की अभिव्यक्ति का पैटर्न बदल जाता है और डीएनए का मूल काम प्रभावित होता है। यदि विशिष्ट जीन्स का उपयोग करके उन जीन्स को वापिस कार्यक्षम बना दिया जाए (यानी जीन थेरेपी की जाए) तो (चूहों में) दृष्टि क्षमता को बहाल किया जा सकता है।

मनुष्य (और अन्य स्तनधारी जीवों) की आंखें जैव विकास में बना एक महत्वपूर्ण अंग है। इनकी मदद से हम बाहरी दुनिया को रंगीन रूप में स्पष्ट देख पाते हैं। जैव विकास के शुरुआती जीव, जैसे सूक्ष्मजीव और पौधे, प्रकाश के प्रति अलग-अलग तरीकों से प्रतिक्रिया देते हैं, जैसे प्रकाश सोखना और उपयोग करना (मसलन प्रकाश संश्लेषण में)। मानव आंख का अग्र भाग (कॉर्निया, लेंस और विट्रियस ह्यूमर) पारदर्शी और रंगहीन होता है, यह रेटिना पर पड़ने वाले प्रकाश को एक जगह केंद्रित करने में मदद करता है जिससे हमें विभिन्न रंग दिखाई देते हैं। रेटिना ही मस्तिष्क को संदेश भेजने का कार्य करता है। रेटिना का मुख्य भाग, रेटिनल गैंग्लियॉन सेल्स (आरजीसी) जिन्हें न्यूरॉन्स या तंत्रिका कोशिकाएं कहा जाता है, विद्युत संकेतों के रूप में संदेश भेजने में मदद करती हैं। यानी आरजीसी प्रकाश को विद्युत संकेतों में परिवर्तित करती हैं।

कोशिकीय नियंत्रक

हमारे शरीर की कोशिकाओं और ऊतकों के कामकाज हज़ारों प्रोटीन द्वारा नियंत्रित किए जाते हैं। ये प्रोटीन सम्बंधित जीन्स के रूप में कूदबद्ध होते हैं। ये जीन्स हमारे जीनोम या कोशिकीय डीएनए का हिस्सा होते हैं। वंशानुगत डीएनए में यदि छोटा-बड़ा किसी भी तरह का बदलाव (जुड़ना या उत्परिवर्तन) होता है तो प्रोटीन के विकृत रूप का निर्माण होने लगता है। परिणामस्वरूप कोशिका का कार्य गड़बड़ा जाता है। यही मनुष्यों में कई वंशानुगत विकारों का आधार है।

डीएनए या प्रोटीन स्तर के अनुक्रम में परिवर्तनों के अलावा कुछ अन्य जैव रासायनिक परिवर्तन भी होते हैं जो इस बात को प्रभावित करते हैं और तय करते हैं कि किसी कोशिका में कोई जीन सक्रिय होना चाहिए या निष्क्रिय रहना चाहिए। उदाहरण के लिए, इंसुलिन (एक प्रोटीन) बनाने वाला जीन शरीर की प्रत्येक कोशिका में मौजूद होता है, लेकिन यह सिर्फ अग्न्याशय की इंसुलिन स्रावित करने वाली बीटा कोशिकाओं में व्यक्त किया जाता है जबकि शरीर की बाकी कोशिकाओं में इसे निष्क्रिय रखा जाता है। इस प्रक्रिया को नियंत्रक प्रोटीनों के संयोजन द्वारा सख्ती से नियंत्रित किया जाता है। ये नियंत्रक प्रोटीन जीन की अभिव्यक्ति को बदलते हैं। इसके अलावा, हिस्टोन प्रोटीन होते हैं जो डीएनए को बांधते हैं और गुणसूत्रों के अंदर सघन रूप में संजोकर रखने में मदद करते हैं। इन हिस्टोन प्रोटीन्स में भी रासायनिक परिवर्तन हो सकते हैं। जैसे प्रोटीन के विभिन्न लाइसिन अमीनो एसिड पर मिथाइलेशन और एसिटाइलेशन। डीएनए और इससे जुड़े प्रोटीन दोनों पर हुए परिवर्तन गुणसूत्र की जमावट को बदल देते हैं और जीन अभिव्यक्ति को नियंत्रित करते हैं। ये परिवर्तन या तो डीएनए को खोल कर जीन अभिव्यक्ति की अनुमति देते हैं या डीएनए को घनीभूत करके उस स्थान पर उपस्थित जीन को निष्क्रिय या खामोश कर देते हैं।

इस तरह के जैव रासायनिक परिवर्तन, जो किसी कोशिका विशेष में किसी जीन की अभिव्यक्ति निर्धारित करते हैं, को ‘एपिजेनेटिक्स’ कहा जाता है। डीएनए उत्परिवर्तन तो स्थायी होते हैं। उनके विपरीत एपिजेनेटिक परिवर्तन पलटे जा सकते हैं। इनके कामकाज का संचालन कई नियंत्रक प्रोटीन्स द्वारा किया जाता है, जैसे डीएनए मिथाइल ट्रांसफरेज़ (डीएनएमटी), हिस्टोन एसिटाइल ट्रांसफरेज़ (एचएटीएस), हिस्टोन डीएसिटाइलेज़ (एचडीएसी)। ये नियंत्रक प्रोटीन ऐसे परिवर्तनों को जोड़ सकते हैं या हटा सकते हैं, जिनसे किसी अंग या ऊतक के किसी खास जीन को खास तरह से चालू या बंद किया जा सकता है। अग्न्याशय की बीटा कोशिकाओं में इंसुलिन जीन को खुला या सक्रिय रखा जाता है जो प्रोटीन को अभिव्यक्त होने देता है, जबकि अन्य कोशिकाओं में यह जीन निष्किय रहता है। बुढ़ापे, तनाव या किसी बीमारी के चलते हमारे जीन्स का सामान्य एपिजेनेटिक नियंत्रण प्रभावित हो सकता है।

हम यह तो अच्छी तरह जानते हैं कि कई तरह के कैंसर में कोशिका विभाजन को नियंत्रित करने वाले कुछ जीन (ट्यूमर शामक जीन्स) या तो उत्परिवर्तन के कारण या एपिजेनेटिक परिवर्तनों के कारण निष्क्रिय हो जाते हैं, नतीजतन अनियंत्रित कोशिका विभाजन होने लगता है और ट्यूमर बन जाता है। इसी तरह, उम्र बढ़ने की सामान्य प्रक्रिया के साथ होने वाले एपिजेनेटिक परिवर्तनों से कई संदेश या नौजवान जीन्स भी निष्क्रिय हो जाते हैं।

आरजीसी कोशिकाओं के कारण हम स्पष्ट और रंगों को देख पाने में सक्षम हैं। बुढ़ापे के कारण आरजीसी की काम करने की क्षमता धीरे-धीरे कम होने लगती है। इसके अलावा, बाह्र कारक जैसे कि वंशानुगत इतिहास, मधुमेह (टाइप 1 और टाइप 2 दोनों) और अन्य कारक उपरोक्त एपिजेनेटिक परिवर्तनों द्वारा सामान्य स्थिति को बदल देते हैं।

उपरोक्त शोधपत्र पर मैंने अपने साथियों, इंदुमति मरियप्पन (कोशिका जीव विज्ञान में ट्रांसलेशनल शोधकर्ता) और जी. चंद्रशेखर (ग्लकामो में विशेष रुचि रखने वाले नैदानिक विशेषज्ञ) की प्रतिक्रिया जानना चाही। डॉ. मरियप्पन बताती हैं कि मनुष्यों में इस तरह के प्रयोग पर विचार करना जोखिम भरा हो सकता है क्योंकि हरेक कोशिका में इतने सारे अज्ञात और अनिश्चित प्रभाव हो सकते हैं जिससे ऐसा कुछ अप्रत्याशित घट सकता है जिसे वापस ठीक नहीं किया जा सकेगा और डीएनए स्थायी रूप से परिवर्तित हो जाएगा। लेकिन वे कहती हैं कि मोतियाबिंद के अध्ययन के लिए इस तरह के प्रयोग जंतु मॉडल, जैसे माइस, चूहे और ज़ेब्राफिश पर किए जा सकते हैं। डॉ. चंद्रशेखर कहते हैं कि वास्तविक कसौटी तो यह होगी कि क्या अन्य प्रयोगशालाओं में इस तरह के परीक्षण बुढ़ापे के कारण प्रभावित अन्य अंगों जैसे हृदय, फेफड़ों और गुर्दों पर सफलतापूर्वक करके देखे जा सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/d/dd/Epigenetic_mechanisms.jpg/1024px-Epigenetic_mechanisms.jpg

हाथी शरीर का 10 प्रतिशत तक पानी गंवा सकते हैं

क हालिया अध्ययन से पता चला है कि किसी गर्म दिन में हाथी अपने शरीर का 10 प्रतिशत तक पानी गंवा देते हैं। यह ज़मीन पर पाए जाने वाले किसी भी जीव की तुलना में अधिक है।

यह समाचार लाड़-प्यार में पलने वाले चिड़ियाघर के हाथियों के लिए तो कोई मायने नहीं रखता, लेकिन वैश्विक तापमान में वृद्धि को देखते हुए जंगली हाथियों के लिए यह चिंता का विषय है। गौरतलब है कि हाथियों पर पहले से ही विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है, ऐसे में पानी की कमी से उनकी जन्म-दर में कमी, बच्चे के लिए दूध की कमी और निर्जलीकरण के कारण मृत्यु की संभावना बढ़ जाएगी।

हाथियों को हर दिन सैकड़ों लीटर पानी की आवश्यकता होती है, लेकिन जलवायु परिवर्तन से उनकी पानी की ज़रूरतों में किस तरह के बदलाव होंगे यह अभी तक स्पष्ट नहीं है। इसके लिए संरक्षण जीव विज्ञानी खोरीन केंडल ने नार्थ कैरोलिना चिड़ियाघर के पांच अफ्रीकी सवाना हाथियों पर अध्ययन किया। साधारण पानी हाइड्रोजन और ऑक्सीजन से बना अणु होता है। केंडल और उनकी टीम ने तीन वर्षों के दौरान छह अवसरों पर हाथियों को हाइड्रोजन की बजाय हाइड्रोजन के भारी समस्थानिक ड्यूटेरियम से बने पानी (‘भारी पानी’) की खुराक दी। ड्यूटेरियम हानिरहित है। यह भारी पानी शरीर के पानी में घुल जाता है और जीवों द्वारा उत्सर्जित तरल में ट्रेस किया जा सकता है। वैज्ञानिकों ने नियमित रूप से 10 दिनों तक ‘भारी पानी’ की नपी-तुली खुराक देने के बाद रक्त के नमूने लिए और ड्यूटेरियम की बची हुई मात्रा के आधार पर यह पता लगाया कि हाथी कितनी तेज़ी से शरीर का पानी गंवा रहे हैं।  

रॉयल सोसाइटी ओपन साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार ठंडे मौसम (6 से 14 डिग्री सेल्सियस तापमान पर) में नर हाथी औसतन 325 लीटर तक पानी गंवा देते हैं जबकि गर्म दिनों (24 डिग्री सेल्सियस तापमान पर) में यह मात्रा औसतन 427 लीटर होती है और कभी-कभी 516 लीटर तक हो सकती है। यह मात्रा शरीर में उपस्थित कुल पानी का 10 प्रतिशत या शरीर के द्रव्यमान का 7.5 प्रतिशत तक है। इसलिए हाथियों को निर्जलीकरण के खतरनाक स्तर से बचने के लिए हर 2 से 3 दिन में कम से कम एक बार खूब पानी पीना पड़ता है। तुलना के लिए किसी गर्म वातावरण में घोड़े प्रतिदिन 40 लीटर पानी गंवाते हैं जो उनके शरीर के द्रव्यमान का 6 प्रतिशत है। मनुष्यों में यह मात्रा 3-5 लीटर प्रतिदिन है जो हमारे शरीर के द्रव्यमान का 5 प्रतिशत है। यह मात्रा मैराथन धावकों और फौजियों में दो गुनी होती है।

इस चर्चा में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी के साथ हाथियों को अधिक पानी की आवश्यकता होगी। लेकिन पानी के स्रोत और पानी से भरपूर पेड़ों में कमी आने से समस्या काफी जटिल हो सकती है। ऐसे में संसाधनों की कमी के चलते मनुष्यों और हाथियों में संघर्ष के हालात और बिगड़ सकते हैं। कभी-कभी हाथी फसलों पर हमला कर देते हैं या फिर भूमिगत जल संरचनाओं को नष्ट करते हैं। इससे दोनों प्रजातियों में टकराव घातक हो जाता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/elephant_1280p.jpg?itok=loupVgZw

घुड़दौड़ जीतने का गणित

घुड़दौड़ काफी लोकप्रिय खेल है और इसमें पैसा भी खूब लगता है। रेस जीतने के लिए घुड़सवार (जॉकी) और प्रशिक्षक घोड़े की पिछली दौड़ों के डैटा, घोड़ों के दौड़ने की क्षमता, वर्षों के अनुभव और अपने एहसास पर निर्भर करते हैं। लेकिन हाल ही में पेरिस के स्कूल फॉर एडवांस्ड स्टडीज़ ऑफ सोशल साइंसेज की गणितज्ञ एमैंडाइन एफ्टेलियन ने घुड़दौड़ के लिए घोड़ों द्वारा खर्च की गई ऊर्जा का गणितीय मॉडल तैयार किया है। मॉडल के अनुसार छोटी दूरी की दौड़ जीतने के लिए शुरुआत तो तेज़ रफ्तार के साथ करनी चाहिए लेकिन आखिर में तेज़ दौड़ने के लिए ऊर्जा बचाकर रखनी चाहिए। उनका कहना है कि इस मॉडल की मदद से विभिन्न घोड़ों की क्षमता के मुताबिक उनके दौड़ने की रफ्तार बनाए रखने की रणनीति बनाई जा सकती है।

एफ्टेलियन 2013 से मनुष्यों की रेस के विश्व चैंपियन धावकों के प्रदर्शन का विश्लेषण कर रही थीं। उन्होंने देखा कि कम दूरी की दौड़ों में धावक तब जीतते हैं जब वे दौड़ की शुरुआत तेज़ रफ्तार से करते हैं और फिनिश लाइन की ओर बढ़ते हुए धीरे-धीरे अपनी रफ्तार कम करते जाते हैं। लेकिन मध्यम दूरी की दौड़ में धावक तब बेहतर प्रदर्शन करते हैं जब वे शुरुआत तेज़ रफ्तार से करते हैं, फिर स्थिर रफ्तार से दौड़ते हुए फिनिश लाइन की ओर बढ़ते हैं और फिनिश लाइन के करीब बहुत तेज़ दौड़ते हैं।

उन्होंने अपने मॉडल में दर्शाया था कि किस तरह जीतने की इन दो रणनीतियों में दो अलग-अलग तरीकों से मांसपेशियों को अधिकतम ऊर्जा मिलती हैं। पहली विधि एरोबिक है, जिसमें ऑक्सीजन की ज़रूरत होती है और दौड़ के दौरान ऑक्सीजन की आपूर्ति सीमित हो सकती है। दूसरी एनएरोबिक विधि है, जिसमें ऑक्सीजन की ज़रूरत तो नहीं होती लेकिन इस तरीके में ऐसे अपशिष्ट बनते हैं जिनसे थकान पैदा होती है।

एफ्टेलियन देखना चाहती थीं कि इनमें से कौन सी रणनीति घोड़ों के लिए बेहतर होगी। इसके लिए उनकी टीम ने फ्रेंच रेस के घोड़ों की काठियों (जीन) में लगे जीपीएस ट्रैकिंग डिवाइस से घोड़ों की वास्तविक गति और स्थिति का डैटा लिया और दर्जनों रेस के पैटर्न का अध्ययन किया। उन्होंने तीन तरह की दौड़ – 1300 मीटर की छोटी दौड़, 1900 मीटर की मध्यम दूरी दौड़, और 2100 मीटर की लंबी दौड़ – के लिए अलग-अलग मॉडल विकसित किए। मॉडल्स में दौड़ की अलग-अलग दूरियों के अलावा ट्रैक के घुमाव और उतार-चढ़ाव का भी ध्यान रखा।

प्लॉस वन में प्रकाशित परिणाम उन जॉकी को चकित कर सकते हैं जो आखिर में तेज़ दौड़कर रेस जीतने के लिए शुरुआत में घोड़े की रफ्तार पर काबू रखते हैं। मॉडल के अनुसार दौड़ की बेहतर शुरुआत बेहतर अंत देती है। लेकिन शुरू में बहुत तेज़ रफ्तार से अंत तक घोड़े निढाल भी हो सकते हैं।

कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि जीत का मामला, प्रशिक्षक और जॉकी या घोड़ों की कद-काठी और एरोबिक क्षमता भर का नहीं है। घोड़ों का व्यवहार भी महत्वपूर्ण है। जब तक घोड़े के मनोवैज्ञानिक व्यवहार को मॉडलों में शामिल नहीं किया जाएगा, मॉडल सही प्रदर्शन नहीं कर पाएंगे।

और सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या वास्तव में इन मॉडल्स की ज़रूरत है? घुड़दौड़ का असली मज़ा तो उसकी अनिश्चितता में ही है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_large/public/horse_1280p.jpg?itok=8eHT1fMl

स्कूल खोलें या न खोलें – डॉ. सुशील जोशी

पिछले 9 माह से देश के स्कूल कमोबेश बंद पड़े हैं। कहने को तो रिमोट शिक्षा की व्यवस्था की गई है लेकिन उसकी अपनी समस्याएं हैं। वैसे तो केंद्र सरकार ने अक्टूबर में आदेश जारी कर दिए थे कि राज्य अपने विवेक के अनुसार स्कूल खोलने का निर्णय ले सकते हैं किंतु अधिकांश राज्यों ने स्कूल न खोलने या आंशिक रूप से खोलने का ही निर्णय लिया है। इस संदर्भ में मुख्य सवाल यह है कि स्कूल खोलने या बंद रखने का निर्णय किन आधारों पर लिया जाएगा।

पहले तो यह देखना होगा कि हमारे सामने विकल्प क्या हैं। पहला विकल्प तो यही है कि सब कुछ सामान्य हो जाए और सारे स्कूल पहले की भांति (जैसे लॉकडाउन से पहले थे) चलने लगें। इसका मतलब यह तो नहीं लगाया जा सकता कि सब कुछ ठीक हो गया क्योंकि देश में शिक्षा की हालत को लेकर कई अन्य चिंताएं तो बनी रहेंगी।

दूसरा विकल्प है स्कूलों को पूरी तरह बंद रखना। और तीसरा विकल्प है स्कूलों को आंशिक रूप से खोलना यानी कुछ कक्षाएं शुरू कर देना या प्रत्येक कक्षा में सीमित संख्या में छात्रों को आने देना। स्कूल बंद रखने का मतलब होगा कि देश के 15 लाख से ज़्यादा स्कूलों में दाखिल 28 करोड़ बच्चे घरों में बंद रहेंगे और संभव हुआ तो ऑनलाइन कुछ सीखने की कोशिश करेंगे। लेकिन इसके साथ जुड़े कई मसले हैं।

सबसे पहला मुद्दा तो ऑनलाइन शिक्षा तक पहुंच का है। युनिसेफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में मात्र 23 प्रतिशत घरों में इंटरनेट कनेक्शन हैं जिनके माध्यम से ऑनलाइन शिक्षा तक पहुंच बनाई जा सकती है। दुनिया भर में देखें तो ऐसे डिजिटल-वंचित बच्चों की संख्या 50 करोड़ के आसपास है। इस मामले में विशाल ग्रामीण-शहरी अंतर भी है। इंटरनेट उपलब्धता में इस अंतर का स्पष्ट परिणाम यह होगा कि सीखने के मामले में खाई और बढ़ेगी। स्मार्ट फोन वगैरह भी काफी कम परिवारों के पास हैं और यदि हैं भी, तो वे पूरे परिवार के इस्तेमाल के लिए हैं। ज़ाहिर है, ग्रामीण बच्चे, लड़कियां और शहरी गरीब बच्चे पिछड़ जाएंगे।

यह सही है कि शासन की ओर से यह प्रयास किया गया है कि इंटरनेट से स्वतंत्र प्लेटफॉम्र्स (जैसे टेलीविज़न) पर भी शिक्षा का उपक्रम किया जाए लेकिन उसकी समस्याएं भी कम नहीं हैं। एक तो इस शैली में मानकर चला जाता है कि पर्दे पर किसी जानकार को सुनकर शिक्षा पूरी हो जाती है। इस माध्यम में बच्चों और शिक्षक के बीच किसी वार्तालाप के लिए कोई गुंजाइश नहीं होती। दूसरी बात यह है कि लगभग सारे शिक्षक बताएंगे कि बच्चे कक्षा में लगातार ध्यान केंद्रित नहीं करते/कर पाते। शिक्षक की नज़र रहती है कि किसका ध्यान कब व कहां भटक रहा है। टेलीविज़न जैसा माध्यम तो इसमें कोई मदद नहीं कर सकता। यानी यह रिमोट शिक्षा एक ओर तो शिक्षा की गुणवत्ता को बिगाड़ेगी और साथ ही गरीब-अमीर, ग्रामीण-शहरी बच्चों के बीच तथा लड़के-लड़कियों के बीच असमानता को बढ़ाएगी।

युनिसेफ की उक्त रिपोर्ट में आगाह किया गया है कि रिमोट शिक्षा के माध्यम उपलब्ध होने के बावजूद भी शायद बच्चे उतने अच्छे से न सीख पाएं क्योंकि घर के परिवेश में कई अन्य दबाव भी काम करते हैं। यदि बच्ची/बच्चा स्कूल चला जाए तो उतने घंटे तो समझिए, ‘सीखने’ के लिए आरक्षित हो गए। लेकिन वह घर पर ही है तो कई अन्य प्राथमिकताएं सिर उठाने लगती हैं।

अधिकांश लोग शायद यह तो स्वीकार करेंगे कि बच्चे स्कूल सिर्फ ‘पढ़ाई’ करने नहीं जाते। स्कूल हमजोलियों से मेलजोल का एक स्थान भी होता है जहां तमाम तरह के खेलकूद होते हैं, रिश्ते-नाते बनते हैं। स्कूल बंद रहने से बच्चे इन महत्वपूर्ण सामाजिक अवसरों से वंचित हो रहे हैं। यह बात कई अध्ययनों में उभरी है कि सतत माता-पिता की निगरानी में रहना और हमउम्र बच्चों के साथ मेलजोल न होना बच्चों के लिए मानसिक दबाव पैदा कर रहा है और मनोवैज्ञानिक समस्याएं भी। माता-पिता के लिए जो समस्याएं सामने आ रही हैं, वे तो सूद के रूप में हैं। वॉशिंगटन स्थित चिल्ड्रन नेशनल हॉस्पिटल की डॉ. डेनियल डूली ने कहा है कि स्कूल बंद होने की वजह से शिक्षा का तो नुकसान हुआ ही है, मानसिक स्वास्थ्य, कुपोषण वगैरह के खतरे भी बढ़े हैं।

एक मुद्दा मध्यान्ह भोजन यानी मिडडे मील का भी है। मिडडे मील को दुनिया का सबसे बड़ा पोषण कार्यक्रम कहा गया है। इसके तहत दिन में एक बार कक्षा 1 से 8 तक के सारे स्कूली बच्चों को पौष्टिक भोजन प्राप्त होता है। इनकी संख्या करीब 6 करोड़ होगी। इतने ही बच्चों को आंगनवाड़ी से भोजन दिया जाता है और वे भी बंद हैं। यह उनके पोषण स्तर को बेहतर करने में एक महत्वपूर्ण योगदान देता है। हो सकता है यह योजना बहुत अच्छी तरह से लागू न हुई है, फिर भी इसने स्कूली बच्चों की सेहत पर सकारात्मक असर डाला है। स्कूल बंद मतलब मिडडे मील भी बंद। भारत में कुपोषण की स्थिति को देखते हुए यह एक बहुत बड़ा व महत्वपूर्ण नुकसान है।

कुल मिलाकर स्कूल बंद रहने का मतलब बच्चों के लिए संज्ञानात्मक विकास और तंदुरुस्ती में ज़बर्दस्त नुकसान। इसके साथ-साथ खेलकूद का अभाव, हमउम्र बच्चों से मेलजोल के अभाव वगैरह का मनोवैज्ञानिक असर तो हो ही रहा है। इसके अलावा, कई संस्थाओं ने आशंका व्यक्त की है कि यदि यह साल इसी तरह गया तो 2021 में बड़ी संख्या में बच्चे शायद स्कूल न लौटें, नए दाखिलों की तो बात ही जाने दें। स्कूलों में दाखिलों को लेकर जो प्रगति पिछले एक-डेढ़ दशकों में हुई है वह शायद वापिस पुरानी स्थिति में पहुंच जाए। लैंसेट के एक शोध पत्र में यह भी शंका व्यक्त की गई है कि इस तरह स्कूल बंद रहने से बाल-विवाह में भी वृद्धि की संभावना है।

तो स्कूलों को जल्द से जल्द बहाल करने के पक्ष में काफी दलीलें हैं। लेकिन यदि सरकारें स्कूलों को नहीं खोल रही हैं, तो यकीनन कुछ कारण होंगे। सरकार तो सरकार, माता-पिता भी कह रहे हैं कि स्कूल खुलेंगे तो भी वे अपने बच्चों को नहीं भेजेंगे। एक सर्वेक्षण में 70 प्रतिशत अभिभावकों ने यह राय व्यक्त की है। वैसे यदि पालकों को कहा जाएगा कि वे बच्चों को स्कूल अपनी ज़िम्मेदारी पर ही भेजें, तो पालकों का कोई अन्य जवाब हो भी नहीं सकता। कई स्कूल प्रबंधन भी ऐसा ही सोचते हैं। और इन सबकी हिचक का प्रमुख (या शायद एकमात्र) कारण है कि स्कूल में भीड़भाड़ होगी, बच्चों के बीच निकटता होगी, बच्चे मास्क वगैरह भूल जाएंगे और खुद संक्रमित होंगे, और संक्रमण को घर ले आएंगे। कहा जा रहा है कि स्कूल संक्रमण प्रसार के अड्डे बन जाएंगे। इसी मूल चिंता के चलते समाज में स्कूल खोलने के विरुद्ध माहौल बना है। तो सवाल है कि यह चिंता कितनी जायज़ है।

पिछले दिनों कई देशों में स्कूल पूर्ण या आंशिक रूप से खोले गए हैं। भारत में भी कुछ राज्यों ने स्कूल खोले हैं। कहना न होगा कि स्कूल खोलने को लेकर केंद्र सरकार द्वारा प्रोटोकॉल जारी किए गए हैं और शायद शत प्रतिशत नहीं लेकिन इनका पालन भी हुआ है। तो उनसे किस तरह के आंकड़े व अनुभव मिले हैं।

स्विटज़लैंड स्थित इनसाइट्स फॉर एजूकेशन नामक एक संस्था ने स्कूल खोलने के बाद के अनुभवों का एक अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन किया था। उनके अध्ययन में 191 देशों के अनुभवों का विश्लेषण किया गया है। रिपोर्ट का पहला चौंकाने वाला निष्कर्ष यह है कि कोविड-19 वैश्विक महामारी ने दुनिया भर में बच्चों की शिक्षा के 3 खरब स्कूल दिवसों की हानि की है।

बहरहाल, रिपोर्ट का सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह है कि स्कूलों के खुलने और संक्रमण दर में वृद्धि के बीच कोई सम्बंध नहीं है। इनसाइट्स फॉर एजूकेशन की मुख्य कार्यकारी अधिकारी रैण्डा ग्रोब-ज़कारी का कहना है कि यह तो सही है कि स्कूल खोलने या ना खोलने का निर्णय तो स्थानीय परिस्थितियों पर निर्भर करेगा लेकिन कुछ मान्यताओं की छानबीन आवश्यक है। जैसे यह मान लिया गया है स्कूल खुले तो संक्रमण फैलने की दर में उछाल आएगा और स्कूल बंद रखने से संक्रमण फैलने की दर कम रहेगी। देखना यह है कि विभिन्न देशों का अनुभव क्या कहता है। इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं ने 191 अलग-अलग देशों में अपनाए गए तरीकों और उनके परिणामों का विश्लेषण किया है।

जिन देशों का अध्ययन किया गया उनमें से कम से कम 92 देशों में स्कूल खोले गए हैं। इनमें से कुछ देश तो ऐसे भी थे जहां कोविड-19 काफी अधिक था। रिपोर्ट में बताया गया है कि फ्रांस व स्पैन समेत 52 देशों में बच्चे अगस्त और सितंबर में स्कूल आने लगे थे। ये सभी वे देश हैं जहां लॉकडाउन के दौरान संक्रमण दर बढ़ रही थी लेकिन स्कूल खुलने के बाद और नहीं बढ़ी थी। दूसरी ओर, यू.के. व हंगरी में स्कूल खुलने के बाद संक्रमण दर बढ़ी थी। 52 देशों का विश्लेषण बताता है कि संक्रमण दर बढ़ने का स्कूल खुलने से कोई सम्बंध नहीं दिखता। इसके लिए अन्य परिस्थितियों पर विचार करना होगा। यूएस में भी स्कूल खुलने और संक्रमण दर में वृद्धि का कोई सीधा सम्बंध स्थापित नहीं हुआ है।

भारत में कुछ राज्यों ने स्कूल खोलने का निर्णय लिया है। अधिकांश राज्यों में कक्षा 9 तथा उससे ऊपर की कक्षाओं को ही शुरू किया गया है। इस संदर्भ में आंध्र प्रदेश की रिपोर्ट है कि वहां स्कूल खुलने के बाद राज्य के कुल 1.89 लाख शिक्षकों में से लगभग 71 हज़ार की जांच की गई और उनमें से 829 (1.17 प्रतिशत) पॉज़िटिव पाए गए। कुल 96 हज़ार छात्रों की जांच में 575 (0.6 प्रतिशत) पॉज़िटिव निकले। राज्य के शिक्षा आयुक्त ने माना है कि ये आंकड़े कदापि चिंताजनक नहीं हैं क्योंकि पहली बात तो यह है कि शिक्षकों की जांच स्कूल खुलने से पहले की गई थी जिसके परिणाम स्कूल खुलने के बाद आए हैं।

मिशिगन विश्वविद्यालय चिकित्सा अध्ययन शाला की संक्रामक रोग विशेषज्ञ डॉ. प्रीति मालनी ने स्कूल खोलने के बारे में कहा है कि अब तक उपलब्ध आंकड़ों से नहीं लगता कि स्कूल सुपरस्प्रेडर स्थान हैं। दरअसल ऐसा लगता है कि स्कूल अपने इलाके के सामान्य रुझान को ही प्रतिबिंबित करते हैं। स्पैन के पोलीटेक्निक विश्वविद्यालय के एनरिक अल्वारेज़ ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि स्पैन में दूसरी लहर में संक्रमणों में वृद्धि स्कूल खुलने से कई सप्ताह पहले शुरू हो गई थी और स्कूल खुलने के तीन सप्ताह बाद गिरने लगी थी। कहीं भी यह नहीं देखा गया कि स्कूल खुलने से संक्रमण के प्रसार में वृद्धि हुई हो। और उनके आंकड़े बताते हैं कि स्कूल संक्रमण फैलाने के हॉट-स्पॉट तो कदापि नहीं बने हैं। अलबत्ता, उन्होंने स्पष्ट किया है कि यह स्पैन की बात है जहां जांच और संपर्कों की खोज काफी व्यवस्थित रूप से की जाती है। इसके अलावा स्पैन में मास्क पहनना, शारीरिक दूरी बनाए रखना तथा साफ-सफाई का भी विशेष ध्यान रखा जा रहा है।

इसी प्रकार से थाईलैंड व दक्षिण अफ्रीका में स्कूल पूरी तरह खोल दिए गए और संक्रमण के फैलाव पर इसका कोई असर नहीं देखा गया। वियतनाम व गाम्बिया में गर्मी की छुट्टियों में मामले बढ़े लेकिन स्कूल खुलने के बाद कम हो गए। जापान में भी पहले तो मामले बढ़े लेकिन फिर घटने लगे। इस पूरे दौरान स्कूल खुले रहे। सिर्फ यू.के. में ही देखा गया कि स्कूल खुलने के समय के बाद से संक्रमणों में वृद्धि हुई।

अधिकांश देशों में, और खासकर यू.एस. व यू.के. में वैज्ञानिकों का मत है कि कहीं-कहीं स्कूल खुलने के बाद संक्रमण दर में वृद्धि हुई है लेकिन इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि ऐसा स्कूल खुलने के कारण हुआ है। साथ ही वे कहते हैं कि इस बात का भी कोई प्रमाण नहीं है कि इसमें स्कूलों की कोई भूमिका नहीं रही है।

महामारी और स्कूल खोलने के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण सवाल यह उठता रहा है कि क्या बच्चे कम संक्रमित होते हैं और संक्रमण को कम फैलाते हैं। सामान्य आंकड़ों से पता चला है कि संक्रमित लोगों में बच्चे सबसे कम हैं। इसकी कई व्याख्याएं प्रस्तुत की गई हैं और काफी मतभेद भी हैं। कुछ विशेषज्ञों का मत है कि बच्चों की प्रतिरक्षा प्रणाली अप्रशिक्षित होने की वजह से वे सुरक्षित रहते हैं। इसके विपरीत कुछ लोगों का कहना है कि यदि ऐसा होता तो वे अन्य संक्रमणों से भी सुरक्षित रहते लेकिन हकीकत अलग है। कुछ लोगों को कहना है कि बच्चों के फेफड़ों की कम कोशिकाओं में वे ग्राही (ACE2 ग्राही) होते हैं जो कोरोनावायरस को कोशिका में प्रवेश का रास्ता प्रदान करते हैं। यह भी कहा गया है कि बच्चे संक्रमण को बहुत अधिक नहीं फैलाते क्योंकि उनके फेफड़े छोटे होते हैं और उनकी छींक या खांसी के साथ निकली बूंदों में वायरस की संख्या कम होती है और ये बूंदें बहुत दूर तक नहीं जातीं।

बहरहाल, मामला यह है कि अधिकांश आंकड़े दर्शाते हैं कि स्कूल कोविड-19 वायरस फैलाने के प्रमुख या बड़े स्रोत नहीं हैं। यह भी स्पष्ट है कि स्कूलों के बंद रहने का शैक्षणिक व स्वास्थ्य सम्बंधी खामियाजा खास तौर से गरीब व वंचित तबके के बच्चों को भुगतना पड़ रहा है। इसलिए इस मुद्दे को मात्र प्रशासनिक सहूलियत के नज़रिए से न देखकर व्यापक अर्थों में देखकर निर्णय करने की ज़रूरत है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://resize.indiatvnews.com/en/resize/newbucket/715_-/2020/08/schools-rep2-1597077148.jpg