नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित एक हालिया शोध के अनुसार पिछले 2000 वर्षों में
पृथ्वी के गर्म होने की गति इतनी तेज़ कभी नहीं रही जितनी आज है। यह अध्ययन
युनिवर्सिटी ऑफ मेलबोर्न के डॉ. बेन्जमिल हेनले और युनिवर्सिटी ऑफ बर्न के डॉ.
राफेल न्यूकोम ने संयुक्त रूप से किया है।
दरअसल,
यह अध्ययन पहले माइकल मान, रेमंड
ब्रोडले और मालकोम ह्रूजेस द्वारा 1999 में किए गए अध्ययन को आगे बढ़ाता है जिसमें
उन पुरा-जलवायु वेत्ताओं ने यह बताया था कि बीसवीं सदी में उत्तरी गोलार्ध में
गर्मी जिस तेज़ी से बढ़ी है वैसी पिछले 1000 वर्षों में नहीं देखी गई थी। हज़ारों साल
पहले की जलवायु के बारे में अनुमान हम प्राय: प्रकृति में छूटे चिंहों की मदद से
लगाते हैं क्योंकि उस ज़माने में आधुनिक टेक्नॉलॉजी तो थी नहीं।
अतीत की जलवाय़ु के बारे में सुराग देने के लिए पुरा-जलवायु वेत्ता कोरल
(मूंगा चट्टानों), बर्फ के अंदरूनी हिस्से, पेड़ों
में बनने वाली वार्षिक वलयों, झीलों और समुद्रों में जमी तलछट
वगैरह का सहारा लेते हैं। इनसे प्राप्त परोक्ष आंकड़ों का उपयोग करके वैज्ञानिक अथक
मेहनत करके अतीत की जलवायु की तस्वीर बनाने की कोशिश करते हैं। वर्तमान शोध पत्र
की विशेषता यह है कि इसमें सात अलग-अलग तरह की विधियों से विश्लेषण करने पर एक
समान नतीजे प्राप्त हुए। अत: इनके सच्चाई के करीब होने की ज़्यादा संभावना है।
हेनले और न्यूकोम ने इस विश्लेषण के आधार पर निष्कर्ष निकाला है कि औद्योगिक क्रांति से पूर्व वै·िाक तापमान में होने वाले उतार-चढ़ाव का मुख्य कारण ज्वालामुखी के विस्फोट से निकलने वाली धूल आदि थे। सूर्य से आने वाली गर्मी से इनका कोई सम्बंध नहीं था। अर्थात मानवीय गतिविधियों के ज़ोर पकड़ने से पहले ज्वालामुखी ही जलवायु के प्रमुख नियंत्रक थे। वे यह भी अंदाज़ा लगा पाए कि पिछले 2000 वर्षों में गर्मी और ठंड की रफ्तार क्या रही है। उनका निष्कर्ष है कि धरती के गर्म होने की रफ्तार पहले कभी आज जैसी नहीं रही। इसका सीधा-सा मतलब है कि वर्तमान तपन मुख्य रूप से मानवीय गतिविधियों के कारण हो रही है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit :
अमरीका में जल्द ही शुरू होने वाली 5जी सेवाओं पर मौसम
विज्ञानियों की चिंता है कि यदि आवंटित स्पेक्ट्रम पर 5जी सेवाएं शुरू हुर्इं तो
मौसम सम्बंधी भविष्यवाणी का काम प्रभावित होगा।
मार्च 2019 में फेडरल कम्युनिकेशन कमीशन (FCC) द्वारा 5जी सेवाओं के लिए स्पेक्ट्रम
आवंटन किया गया था, जिसके बाद वायरलेस कंपनियां 24 गीगा हर्ट्ज़ पर 5जी सेवाएं
देना शुरु कर सकती हैं। 5जी शुरू होने के बाद सेवा की रफ्तार 100 गुना तक बढ़
जाएगी।
वहीं नेशनल ओशिएनिक एंड एटमॉस्फरिक एडमिनिस्ट्रेशन (NOAA) के प्रमुख नील जैकब्स की आशंका है कि 5जी का उपयोग मौसम पूर्वानुमान की सटीकता को 30 प्रतिशत तक कम कर सकता है। तब मौसम भविष्यवाणी की स्थिति वैसी हो जाएगी जैसे 1980 के दशक में हुआ करती थी। जिससे तटीय इलाकों में रहने वाले लोगों को 2-3 दिन देर से चेतावनी मिल पाएगी। विसकॉन्सिन मेडिसन युनिवर्सिटी के मौसम विज्ञानी जॉर्डन गर्थ का कहना है कि दरअसल वायुमंडल में जलवाष्प मौजूदगी बताने वाले संकेत 23.6 गीगा हर्ट्ज़ से 24 गीगा हर्टज़ के बीच काम करते हैं और 5जी नेटवर्क 24 गीगा हर्ट्ज़ पर शुरू होगा। तो 5जी से होने वाला प्रसारण इन सेंसरों को आसानी से प्रभावित कर सकता है जैसे कोई शोरगुल करने वाला पड़ोसी हो।
लेकिन सेल्युलर टेलीकम्युनिकेशन इंडस्ट्री
संघ (CTIA) के उपाध्यक्ष ब्राड गिलेन का कहना है कि
मौसम पूर्वानुमान पर 5जी के प्रभाव पर जो गंभीर चिंताएं व्यक्त की जा रही हैं वे
गलत हैं। जो लोग 5जी के उपयोग पर रोक लगाना चाहते हैं वे यह सोच रहे हैं कि यह
मौसम के बारे में अनुमान देने वाले सेंसर,
कोनिकल माइक्रोवेव
इमेजर साउंडर (CMIS) को प्रभावित करेगा। लेकिन तथ्य यह है कि
इन्हें (CMIS) को 2006 में ही खारिज कर दिया गया था ये
कभी इस्तेमाल ही नहीं किए गए हैं।
इस पर गर्थ का कहना है कि CMIS के उन्नत तकनीक के सेंसर (एडवांस्ड
टेक्नॉलॉजी माइक्रोवेव साउंडर, ATMS) मौसम पूर्वानुमान में उपयोग किए जाते हैं
जो 23.8 गीगा हर्ट्ज़ पर काम करते हैं जो 5जी की सीमा के नज़दीक ही है। इस पर CTIA के निक ल्युडलम का कहना है कि CMIS की तुलना में ATMS सेंसर काफी छोटे हैं और उनकी रेंज सीमित है जिससे यह आसपास
की स्पेक्ट्रम के प्रति कम संवेदी है।
5जी के उपयोग के मसले पर मोबाइल कंपनियों
और अमरीकी सरकार के बीच असहमति और बहस तो कई महीनों से चल रही है लेकिन यह उजागर
कुछ समय पहले हुई है। लोग चाहते हैं कि 28 अक्टूबर को मिरुा में होने वाली वर्ल्ड
कम्युनिकेशन कॉन्फ्रेंस के पहले इस मुद्दे पर चल रही बहस को सुलझा लिया जाए।
वैसे यदि 5जी किसी अन्य स्पेक्ट्रम पर शुरू होता है तो वह भी नई बहस शुरू कर सकता है। गर्थ का कहना है कि 5जी के उपयोग पर विवाद तो 36-37 गीगा हर्ट्ज पर भी हो सकता है जिसका उपयोग बारिश और बर्फ गिरने के अनुमान के लिए किया जाता है या 50 गीगाहर्ट्ज़ पर भी हो सकता है जिस पर वायुमंडलीय तापमान का पता किया जाता है। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cnet2.cbsistatic.com/img/6JtSuF7ImhGHLbX4tC8bMbOba7U=/1092×0/2019/05/17/ca7dc5c9-83f8-4ed0-8c33-49c61391e026/weather-gettyimages-1030785334.jpg
एक अनुमान के मुताबिक 1991 में सोवियत संघ के पतन के बाद जो
आर्थिक संकट पैदा हुआ था, उसकी वजह से वहां ग्रीनहाउस गैसों के
उत्सर्जन में भारी कमी आई थी। इसका मुख्य कारण यह बताया गया है कि इस आर्थिक संकट
के कारण लोगों ने मांस खाना बहुत कम कर दिया था।
सोवियत संघ में कम्युनिस्ट शासन के दौरान
पशुपालन से प्राप्त मांस वहां के लोगों का मुख्य भोजन हुआ करता था। 1990 में एक
औसत सोवियत नागरिक प्रति वर्ष 32 किलोग्राम मांस खाता था जो उस समय पश्चिमी युरोप
की प्रति व्यक्ति खपत से सवा गुना और वैश्विक औसत से 4 गुना ज़्यादा था।
लेकिन सोवियत संघ के विघटन के बाद रोज़मर्रा
की वस्तुओं की कीमतों में ज़बरदस्त वृद्धि हुई और रूबल की क्रय क्षमता बहुत कम हो
गई। ऐसी स्थिति में मांस उत्पादन भी बहुत कम हो गया। बताते हैं कि उस दौर के बाद
पूर्व-सोवियत संघ की एक-तिहाई कृषि भूमि खाली पड़ी है। सोवियत संघ के पतन के बाद उस
क्षेत्र में औद्योगिक उत्पादन में भी काफी गिरावट हुई थी।
सोवियत खाद्य एवं कृषि व्यवस्था में
उपरोक्त परिवर्तनों के चलते 1992-2011 के दौरान ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में
7.6 अरब टन प्रति वर्ष की कमी आई। सोवियत संघ में मांस के उपभोग और अंतर्राष्ट्रीय
व्यापार के आंकड़ों के आधार पर यह अनुमान जर्मनी के लीबनिज़ इंस्टीट्यूट ऑफ
एग्रिकल्चरल डेवलपमेंट इन ट्रांज़िशन इकॉनॉमीज़ के एफ. शीयरहॉर्न व उनके साथियों ने एन्वायरमेंटल
रिसर्च लेटर्स नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित किया है। फिलहाल रूस 2.5 अरब टन
ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करता है।
शीयरहॉर्न का कहना है कि फिलहाल पशुपालन दुनिया भर में 14.5 प्रतिशत ग्रीनङाउस गैसों के लिए ज़िम्मेदार है। खास तौर से गौमांस का उत्पादन सबसे अधिक ग्रीनहाउस गैसों के लिए ज़िम्मेदार होता है क्योंकि इसके लिए जो चारागाह विकसित किए जाते हैं, वे जंगल काटकर बनते हैं। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cff2.earth.com/uploads/2019/06/20192123/The-collapse-of-the-Soviet-Union-led-to-much-lower-greenhouse-gas-emissions-730×410.jpg
इटली के आल्प्स पर्वतीय क्षेत्र में चार इंजनों वाला एक
टर्बाइन चालित विमान उड़ान भर रहा था। विमान ने 1524 मीटर की ऊंचाई से गोता लगाया। इससे पहले
कि वह फिर से अपनी सही अवस्था में आए, विमान सिर्फ 90 सेकंड में 213 मीटर की ऊंचाई तक आ चुका था। कुछ ही
मिनटों में वह स्विट्ज़रलैंड के सेंट गाटहार्ड दर्रे में ऊपर-नीचे होता हुआ अपने
पूर्व निश्चित लक्ष्य की ओर उड़ान भर रहा था। वह चारों ओर से बहुत ही खराब मौसम से
घिर चुका था। 7 घंटे से भी अधिक समय तक यह विमान हिचकोले भरता हुआ आल्प्स
के इर्द-गिर्द उड़ता रहा और अंत में भूमध्य सागर तथा 4 देशों की सीमाएं पार कर जेनेवा के
कोयनट्रिन हवाई अड्डे पर उतरा।
विमान में सवार युरोप और अमरीका के 12
वायुमंडलीय वैज्ञानिकों में से किसी के भी चेहरे पर परेशानी का भाव नहीं था। उनके
लिए यह कष्टकारी उड़ान उनके मिशन का एक हिस्सा थी। एल्पाइन एक्सपेरिमेंट (एलपेक्स)
के अंतर्गत उड़ान भर रहे इस विमान का उद्देश्य यह अध्ययन करना था कि पर्वतमालाएं एक
बड़े क्षेत्र के मौसम को किस तरह प्रभावित करती हैं। इस कार्य के लिए विमान में
पूरी प्रयोगशाला थी जिसमें वायु गति मापने से ले कर बादलों में पानी की मात्रा आदि
सभी चीज़ें दर्ज करने के लिए कंप्यूटर व अनेक सूक्ष्म यंत्र लगे हुए थे जो उन
कारणों का पता लगा रहे थे जिनसे आल्प्स के मौसम से तेज़ हवाएं पैदा होती हैं और
दक्षिण फ्रांस से होती हुई इटली के एड्रियाटिक सागर तट पर पहुंच कर तबाही मचाती
हैं।
किसी भी वैज्ञानिक चुनौती की अपेक्षा मौसम
की भविष्यवाणी करना अधिक रहस्यमय है। खेती-बाड़ी,
परिवहन, जहाज़रानी, उड्डयन
और यहां तक कि सैर-सपाटे के लिए भी मौसम की पूर्व जानकारी होना महत्वपूर्ण है।
अनुमान है कि अकेले पश्चिमी युरोप के लिए ही मौसम की 7 दिन की पूर्ण विश्वसनीय भविष्यवाणी करने
से हर साल करोड़ों डॉलर का फर्क पड़ जाता है।
मनुष्य सदियों से मौसम की भविष्यवाणी करने
का प्रयास कर रहा है। युरोप के कुछ देशों में तो वर्षा और तापमान के 300
वर्ष पुराने रिकार्ड मिले हैं। परंतु पुराने समय के मौसम वैज्ञानिक बड़े-बड़े
यंत्रों और गणना करने की उच्च क्षमता के बिना अपने अनुभवों के आधार पर ही
भविष्यवाणियां किया करते थे।
लगभग 60 वर्ष पहले ब्रिटिश वैज्ञानिक एल. एफ.
रिचर्डसन ने यह प्रमाणित किया कि भौतिकी के नियमों पर आधारित गणित के समीकरणों की
सहायता से मौसम की भविष्यवाणी की जा सकती है। परंतु रिचर्डसन ने एक छोटे से इलाके
के मौसम की 6 घंटे पहले भविष्यवाणी करने का जो प्रयास किया, उसकी
गणना करने में उन्हें कई सप्ताह तक कड़ी मेहनत करनी पड़ी। अपने इस प्रयास के उपरांत
वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि पूरे विश्व के मौसम की निरंतर भविष्यवाणी करने के लिए
64,000 व्यक्तियों को गणना करने वाली साधारण मशीनों पर लगातार काम
करते रहना होगा।
1950 में
गणितज्ञ जान फॉन नॉइमान और उनके सहयोगियों ने इस समस्या को कंप्यूटर की मदद से हल
किया। आज के सशक्त और तेज़ कंप्यूटर तो इस विधि के मुख्य आधार हैं। लेकिन उन्नत
तकनीकों ने मौसम के पूर्वानुमान को अत्यधिक खर्चीला बना दिया है। दुनिया की समस्त
मौसम विज्ञान सेवाओं को चलाने की सालाना लागत दो अरब डॉलर से अधिक है।
आफनबाक (पश्चिमी जर्मनी) स्थित
प्रेक्षणशाला में पूरी कमान कंप्यूटरों के हाथ में है। यहां विश्व के 9000 से
अधिक केंद्रों से वायु की दिशा, आद्रता और वायु दाब के बारे में सूचनाएं
एकत्र कर कंप्यूटर में डाली जाती हैं। कभी-कभी तो हज़ारों किलोमीटर दूर दर्ज किए गए
आंकड़े भी घंटे भर के अंदर कंप्यूटर में भर दिए जाते हैं। जेनेवा स्थित विश्व मौसम
विज्ञान संगठन विभिन्न देशों से तथा विमान चालकों,
व्यापारिक जहाज़ों और
मौसम उपग्रहों से प्राप्त मौसम के सैकड़ों नक्शे जारी करता है। युरोप का मौसम
उपग्रह मेटियोसैट-2 भूमध्य रेखा के ऊपर 36,000 कि.मी. की ऊंचाई से हर आधे घंटे बाद
वायुमंडल के चित्र भेजता है।
उपग्रहों द्वारा मौसम के बारे में एकत्रित
की गई जानकारी हमें अंकों के रूप में प्राप्त होती है। इन अंकों में वायुमंडल की
निश्चित समय की परिस्थितियों का पूर्ण विवरण होता है। इस विवरण से कंप्यूटर पूरे
वायुमंडल का एक काल्पनिक चित्र तैयार करता है। इस चित्र में विभिन्न स्थान बिंदुओं
की सहायता से दर्शाए जाते हैं। इस मानचित्र को गणित समीकरणों की बहुत ही जटिल
प्रणाली में फिट किया जाता है। इसी से यह पता चलता है कि प्रत्येक बिंदु पर मौसम
में कैसा-कैसा परिवर्तन होगा।
ऐसा माना जाता है कि इंग्लैंड के रीडिंग
शहर में स्थित युरोपियन सेंटर फॉर मीडियम रेंज वेदर फोरकास्ट (ईसीएमडब्लूएफ) मौसम
की भविष्यवाणी करने वाला सर्वश्रेष्ठ केंद्र है। इस केंद्र में लगा शक्तिशाली कंप्यूटर
प्रति दिन लगभग 8 करोड़ सूचनाएं प्राप्त करता है तथा प्रति सेकंड एक साथ 5 करोड़ क्रियाएं कर
सकता है।
मध्यम दूरी के मौसम की भविष्यवाणी करना
किसी भी अकेले देश के तकनीकी और वित्तीय साधनों के बस के बाहर है, अत:
यह केंद्र स्थापित किया गया। केंद्र के निदेशक के अनुसार,
बादलों के लिए
राष्ट्रों की सीमाओं का कोई महत्व नहीं है। अब 5-6 दिन तक के मौसम की सही भविष्यवाणी की जा
सकती है। पहले केवल 2-3 दिन की भविष्यवाणी सही होती थी।
मौसम के बारे में दो-तीन दिन पहले की सूचना
भी बहुत महत्वपूर्ण हो सकती है। नवंबर में जब इटली के दक्षिणी भाग में भूकंप आया
तो ईसीएमडब्लूएफ ने आने वाले सप्ताह के दौरान ठंडे मौसम और तेज़ तूफान आने की
बिलकुल सही भविष्यवाणी की थी। स्थानीय अधिकारी सचेत हो गए कि ढाई लाख बेघर भूकंप
पीड़ितों के लिए गरम कपड़ों और शरण स्थलों की आवश्यकता होगी।
ईसीएमडब्लूएफ तथा अन्य सभी राष्ट्रीय
केंद्रों द्वारा इस्तेमाल में लाए जाने वाले कंप्यूटर मॉडलों की बराबर सूक्ष्म
ट्यूनिंग की जाती है ताकि वे सटीक काम करें। कई मौसम कार्यालयों में और भी सूक्ष्म
ग्रिड लगाए गए हैं ताकि छोटे-छोटे क्षेत्रों के बारे में भविष्यवाणी की जा सके। कहते
हैं कि 1982 में मध्य फ्रांस में तबाही मचाने वाले बर्फीले तूफान के
बारे में पहले से भविष्यवाणी नहीं की जा सकी थी क्योंकि वह इलाका ग्रिड के हिसाब
से बहुत ही छोटा था।
इसके बाद फ्रांस में सूक्ष्म ग्रिड
इस्तेमाल किया जाने लगा जो बहुत कम दूरी पर स्थित बिंदुओं को भी अलग-अलग दर्शा
सकता है। मौसम वैज्ञानिकों का लक्ष्य इन मॉडलों को और अधिक सटीक बनाना तथा
पूर्वानुमान लगाने की सीमा को 10 दिन तक बढ़ाना है।
वैज्ञानिक मौसम की भविष्यवाणी के दूसरे
पहलुओं पर भी काम करने लगे हैं। जैसे बहुत ही कम अवधि यानी कुछ ही घंटों के मौसम
की जानकारी देना। इसे ‘नाऊकास्टिंग’ यानी तत्काल पूर्वानुमान कहते हैं। अलबत्ता, अल्प
अवधि की ये भविष्यवाणियां पूरी तरह पक्की नहीं होतीं। जैसे ब्रिाटेन का मौसम
कार्यालय आसमान साफ रहने या कहीं-कहीं वर्षा होने की भविष्यवाणी तो कर सकता है
परंतु ठीक-ठीक नहीं बता सकता कि छिटपुट वर्षा कहां होगी तथा कहां ज़्यादा होगी।
इन प्रश्नों के उत्तर नाऊकाÏस्टग द्वारा दिए जा
सकते हैं। राडार और उपग्रहों से प्राप्त संकेतों के ज़रिए स्थानीय मौसम के बारे में
6 घंटे पहले भविष्यवाणी की जा सकती है। आंकिक मॉडल से मौसम
सम्बंधी जानकारी जहां हमें केवल वायुमंडल के तापमान,
नमी और हवा की दिशा
के रूप में मिलती है, वहां राडार की आंखें वर्षा को भी देख सकती हैं तथा कुछ
किलोमीटर तक उसकी स्थिति दर्शा सकती है। उपग्रहों से प्राप्त इंफ्रारेड चित्रों और
राडार की मदद से मौसम वैज्ञानिक बिजली गिरने अथवा जल प्लावन जैसी छोटी-मोटी घटनाओं
के बारे में भविष्यवाणी कर सकते हैं। इसके अलावा कंप्यूटरों द्वारा यह भी मालूम कर
सकते हैं कि वर्षा तूफान का रुख किधर होगा तथा उसकी तीव्रता में क्या-क्या
परिवर्तन आ सकते हैं।
बहुत ही छोटे क्षेत्रों के मौसम का अध्ययन
दक्षिण फ्रांस के तूलूज स्थित न्यू मेटियोरलॉजिकल नेशनल सेंटर में भी किया जाता
है। इस केंद्र में अनुसंधानकर्ता जिस स्केल मॉडल की सहायता से परीक्षण करते हैं, वह
स्थानीय क्षेत्रों की रूपरेखा का आंकिक मॉडल न हो कर भौतिक मॉडल है। 10
मीटर लंबे और 3 मीटर चौड़े इन मॉडलों को पानी के एक बड़े टैंक में रखा जाता
है। इसके बाद पानी में हलचल पैदा की जाती है ताकि मॉडल के ऊपर और आसपास से पानी
ठीक उसी तरह गुज़रे जिस तरह वास्तविक पर्वतों और घाटियों में से हवा गुज़रती है।
अनुसंधानकर्ता लेसर किरणों की सहायता से पानी के वेग और हलचल को माप कर उसके आधार
पर स्थानीय मौसम का एक विस्तृत मानचित्र तैयार कर लेते हैं।
मौसम की भविष्यवाणी के क्षेत्र में प्रगति धीमी अवश्य है, लेकिन नाऊकॉस्टिंग से लेकर मध्यम दूरी की भविष्यवाणी तक का दृष्टिकोण मौसम विज्ञान की प्रगति के लिए अति महत्वपूर्ण है। एलपेक्स के वैज्ञानिक डॉ. योआकिम क्यूटनर का कहना है, ‘जब तक आप यह नहीं समझेंगे कि मौसम की रचना कैसे होती है, तब तक आप उसकी सही-सही भविष्यवाणी नहीं कर सकते।’ (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit :https://www.weathertoski.co.uk/s/cc_images/cache_2475560870.jpg?t=1519640271
इस साल जून में यदि आपने अत्यधिक गर्मी का अहसास किया है तो आपका एहसास एकदम
सही है। वास्तव में जून 2019 पृथ्वी पर अब तक का सर्वाधिक गर्म जून रहा है। साथ ही
यह लगातार दूसरा महीना था जब अधिक तापमान के कारण अंटार्कटिक सागर में सबसे कम
बर्फ की चादर दर्ज की गई।
नेशनल ओशिएनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन के नेशनल सेंटर फॉर एनवॉयरमेंटल
इंफरमेशन के अनुसार विगत जून में भूमि और सागर का औसत तापमान वैश्विक औसत तापमान
(15.5 डिग्री सेल्सियस) से 0.95 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा। यह पिछले 140 वर्षों
में जून माह में दजऱ् किए गए तापमान में सर्वाधिक था। 10 में से 9 सबसे गर्म जून
माह तो साल 2010 के बाद रिकॉर्ड किए गए हैं।
उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों, मेक्सिको खाड़ी के देशों, युरोप,
ऑस्ट्रिया, हंगरी और जर्मनी में इस वर्ष का
जून सर्वाधिक गर्म जून रहा। वहीं स्विटज़रलैंड में दूसरा सर्वाधिक गर्म जून रहा।
यही हाल यूएस के अलास्का में भी रहा। यहां भी 1925 के बाद से अब तक का दूसरा सबसे
गर्म जून दर्ज किया गया।
जून में पूरी पृथ्वी का हाल ऐसा था जैसे इसने गर्म कंबल ओढ़ रखा हो। इतनी अधिक
गर्मी के कारण ध्रुवों पर बर्फ पिघलने
लगी। जून 2019 लगातार ऐसा बीसवां जून रहा जब आर्कटिक में औसत से भी कम बर्फ दर्ज
की गई है। और अंटार्कटिक में लगातार चौथा ऐसा जून रहा जब वहां औसत से भी कम बर्फ
आच्छादन रहा। अंटार्कटिक में पिछले 41 सालों में सबसे कम बर्फ देखा गया। यह 2002
में दर्ज सबसे कम बर्फ आच्छादन (1,60,580 वर्ग किलोमीटर) से भी कम था।
क्या इतना अधिक तापमान ग्लोबल वार्मिंग का नतीजा है? जी हां।
युनिवर्सिटी ऑफ पीट्सबर्ग के जोसेफ वर्न बताते हैं कि कई सालों में लंबी अवधि के
मौसम का औसत जलवायु कहलाती है। कोई एक गर्म या ठंडे साल का पूरी जलवायु पर बहुत कम
असर पड़ता है। लेकिन जब ठंडे या गर्म वर्ष का दोहराव बार-बार होने लगता है तो यह
जलवायु परिवर्तन है।
पूरी पृथ्वी पर अत्यधिक गर्म हवाएं (लू) अधिक चलने लगी हैं। पृथ्वी का तापमान भी लगातार बढ़ता जा रहा है, ऐसे में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को नज़रअंदाज करना मुश्किल है। नेचर क्लाईमेट चेंज पत्रिका के जून अंक के अनुसार यदि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम नहीं किया गया तो हर साल झुलसा देने वाली गर्मी बढ़ती जाएगी। (स्रोत फीचर्स)
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इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार ग्लोबल
वार्मिंग पर रोक लगाने के लिए 1 अरब हैक्टर अतिरिक्त जंगल लगाने की आवश्यकता है।
यह क्षेत्र लगभग संयुक्त राज्य अमेरिका के बराबर बैठता है। हालांकि यह काफी कठिन
मालूम होता है लेकिन साइंस पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, पृथ्वी
पर पेड़ लगाने के लिए इतनी जगह तो मौजूद है।
कृषि क्षेत्रों,
शहरों और मौजूदा
जंगलों को न भी गिना जाए तो दुनिया में 0.9 अरब हैक्टर अतिरिक्त वन लगाया जा सकता
है। इतने बड़े वन क्षेत्र को विकसित किया जाए तो अनुमानित 205 गीगाटन कार्बन का
स्थिरीकरण हो सकता है। यह उस कार्बन का लगभग दो-तिहाई होगा जो पिछले दो सौ वर्षां
में मनुष्य ने वायुमंडल में उड़ेला है। इस अध्ययन का नेतृत्व करने वाले थॉमस
क्रॉथर के अनुसार यह जलवायु परिवर्तन से निपटने का सबसे सस्ता समाधान है और सबसे
कारगर भी है।
आखिर यह कैसे संभव है? यह
पता लगाने के लिए क्रॉथर और उनके सहयोगियों ने लगभग 80,000 उपग्रह तस्वीरों का
विश्लेषण किया और यह देखने की कोशिश की कि कौन-से क्षेत्र जंगल के लिए उपयुक्त
होंगे। इसमें से उन्होंने मौजूदा जंगलों, कृषि क्षेत्रों और शहरी क्षेत्रों को घटाकर
पता किया कि नए जंगल लगाने के लिए कितनी जमीन बची है। आंकड़ा आया 0.9 अरब हैक्टर।
एक अनुमान के मुताबिक 0.9 अरब हैक्टर में 10-15 खरब पेड़ लगाए जा सकते हैं। पृथ्वी
पर इस समय पेड़ों की संख्या 30 खरब है। इसमें आधी से अधिक बहाली क्षमता तो मात्र
छह देशों – रूस, अमेरिका, कनाडा,
ऑस्ट्रेलिया, ब्राज़ील
और चीन – में है।
परिणाम बताते हैं कि यह लक्ष्य वर्तमान जलवायु के तहत प्राप्त करने योग्य है। लेकिन जलवायु बदल रही है, इसलिए हमें इस संभावित समाधान का लाभ लेने के लिए तेज़ी से कार्य करना होगा। यदि धरती के गर्म होने का मौजूदा रुझान जारी रहता है तो 2050 तक नए जंगलों के लिए उपलब्ध क्षेत्र में 22.3 करोड़ हैक्टर की कमी आ जाएगी। (स्रोत फीचर्स)
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सूर्य से आने वाले विकिरण के
कारण पृथ्वी और उसके चारों ओर मौजूद वायुमंडल गर्म हो जाता है। होता यह है कि
पृथ्वी की सतह से वापिस निकलने वाली ऊष्मा को वायुमंडल में मौजूद कुछ गैसें,
जैसे कार्बन डाईऑक्साइड, सोख लेती हैं और इसे वापस पृथ्वी पर भेज देती हैं। इस तरह
समुद्र और भूमि सहित पूरी पृथ्वी पर मनुष्यों और अन्य जीवों के रहने के लिए
आरामदायक या अनुकूल तापमान बना रहता है। तो हम एक विशाल ‘ग्रीनहाउस’ में रहते हैं।
लेकिन तब क्या होगा जब ग्रीनहाउस
गैसें वायुमंडल में एक निश्चित सीमा से अधिक हो जाएंगी? ऐसा होने पर तापमान में वृद्धि होगी। और यह वृद्धि मूलत:
कार्बन उत्सर्जन करने वाले र्इंधन जैसे कोयला, लकड़ी, पेट्रोलियम आदि जलाने के फलस्वरूप बनने वाली कार्बन डाईऑक्साइड और अन्य गैसों
के वायुमंडल में बढ़ते स्तर के कारण होती है। सिर्फ पिछले सौ वर्षों में वैश्विक
तापमान में लगभग 2 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है। और यदि हमने इन र्इंधनों का
उपयोग बंद या कम करके, ऊर्जा के अन्य
विकल्पों (जैसे सौर, पवन वगैरह) को
नहीं अपनाया तो वैश्विक तापमान इसी तरह बढ़ता जाएगा।
पिछले कुछ समय में हम बढ़ते
तापमान के परिणाम हिमच्छदों (आइस कैप्स) और ग्लेशियरों के पिघलने के रूप में देख
चुके हैं, जिसके
फलस्वरूप समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है। समुद्रों के बढ़ते जलस्तर के चलते मालदीव
और मॉरीशस जैसे द्वीप-राष्ट्र जलमग्न हो सकते हैं। बढ़ते तापमान से वैश्विक जलवायु
में परिवर्तन आया है जिससे अनिश्चित मानसून, चक्रवात, सुनामी, एल-नीनो
प्रभावित हुए। इसके अलावा भूमि और समुद्र दोनों ही जगह पर जीवन (मछलियां,
शैवाल, मूंगा चट्टानें) भी प्रभावित हुआ है।
बढ़ते तापमान और जलवायु
परिवर्तन से सिर्फ कुछ देश नहीं बल्कि पूरी धरती ही प्रभावित हो रही है। इस धरती
पर मानव, जंतु,
पेड़-पौधे, मछलियां, सूक्ष्मजीव
सहित विभिन्न प्रजातियां रहती हैं। यदि बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन पर
नियंत्रण नहीं किया गया तो पृथ्वी पर मौजूद समस्त जीवन पर संकट गहराता जाएगा। जलवायु
परिवर्तन के साथ निरंतर औद्योगिक खेती और मत्स्याखेट के चलते कुछ ही दशकों में
पृथ्वी से लगभग दस लाख प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी।
पेरिस समझौता 2015
इस तबाही को रोकने के लिए
राष्ट्र संघ ने विश्व के देशों को एकजुट किया और 2015 में पेरिस समझौता पारित किया,
जिसके तहत सभी देशों को मिलकर प्रयास करना था कि वैश्विक
तापमान में 1.5 डिग्री से अधिक की वृद्धि न हो। पेरिस समझौते पर दुनिया के लगभग
195 देशों ने हस्ताक्षर किए थे और इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ज़रूरी कदम
उठाने का वादा किया था, लेकिन कुछ तेल निर्माता या निर्यात करने वाले देश जैसे टर्की,
सीरिया, ईरान और अमेरिका इससे पीछे हट गए। अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प का तो कहना है
कि ग्लोबल वार्मिंग या जलवायु परिवर्तन कोरी कल्पना है।
इस बारे में हमें 2 कदम तत्काल
उठाने की ज़रूरत है। पहले तो कार्बन उत्सर्जन करने वाले र्इंधन के उपयोग को समाप्त
नहीं तो कम करके इनकी जगह अन्य वैकल्पिक ऊर्जा रुाोतों का उपयोग करना होगा,
जो ग्रीन हाऊस गैस का उत्सर्जन नहीं करते (जैसे सौर ऊर्जा,
पवन ऊर्जा)।
दूसरा, कार्बन डाईऑक्साइड को प्राकृतिक रूप से सोखने के तरीकों को
बढ़ावा देना होगा। और यह काम जंगल और पेड़-पौधे बहुत अच्छे से करते हैं। पानी में
शैवाल, तटीय इलाके के
मैंग्रोव, जमीन पर उगने
वाली फसलें और वन सभी तरह के पौधे प्रकाश संश्लेषण करते हैं। ये वायुमंडल से
कार्बन डाईऑक्साइड लेकर ऑक्सीजन छोड़ते हैं। ऊष्णकटिबंधीय वन यह काम बेहतर करते
हैं। इसलिए अमेज़न, अफ्रीका और
भारत में हो रही वनों की अंधाधुंध कटाई को बंद किया जाना चाहिए। इन क्षेत्रों में
वनस्पतियों, जानवरों और
कवकों की 20 करोड़ से अधिक प्रजातियां रहती हैं। इसलिए इन्हें प्रमुख जैव विविधता
क्षेत्र (Key Biodiversity Areas) कहा जाता है। इसी तरह समुद्री संरक्षण क्षेत्र (Marine Protection Areas) भी हैं। ये जैव विविधता को बहाल करते हैं और उसकी रक्षा करते हैं,
पैदावार बढ़ाते हैं और पारिस्थितिकी तंत्र के बचाव और
सुरक्षा को सुदृढ़ करते हैं। केवल ये क्षेत्र 2020 तक लगभग 17 प्रतिशत भूमि और 10 प्रतिशत
जलीय क्षेत्र का संरक्षण करेंगे और लाखों प्रजातियों को विलुप्त होने से बचाएंगे।
लेकिन आने वाले सालों में हमें इससेअधिक करने की ज़रूरत है।
वैश्विक प्रकृति समझौता
इन्ही सब बातों को ध्यान में
रखते हुए विश्व के वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों के समूह ने पेरिस समझौते का एक
सह-समझौता प्रस्तावित किया है जिसे
उन्होंने नाम दिया है: ‘प्रकृति के लिए वैश्विक समझौता: मार्गदर्शक सिद्धांत,
पड़ाव और लक्ष्य’। यह नीति दस्तावेज़ साइंस एडवांसेस
पत्रिका के 19 अप्रैल 2019 के अंक में प्रकाशित हुआ है। पर्यावरण और पर्यावरणीय
मुद्दों से सरोकार रखने वाले प्रत्येक नागरिक और सरकार को यह नीति दस्तावेज़ अवश्य
पढ़ना चाहिए। प्रकृति के लिए समझौते के पांच मूलभूत लक्ष्य हैं: (1) स्थानीय
पारिस्थितिक तंत्रों की सभी किस्मों और अवस्थाओं तथा उनमें प्राकृतिक विविधता का
निरूपण; (2)
‘प्रजातियों को बचाना’ अर्थात स्थानीय प्रजातियों की आबादियों को उनके प्राकृतिक
बाहुल्य और वितरण के मुताबिक बनाए रखना; (3) पारिस्थितिक कार्यों और सेवाओं को बनाए रखना; (4) प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र द्वारा कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषण
को बढ़ावा देना; और (5) जलवायु
परिवर्तन को संबोधित करना ताकि वैकासिक प्रक्रियाओं को बनाए रखा जा सके और जलवायु
परिवर्तन के साथ तालमेल बनाया जा सके।
इन पांच लक्ष्यों की तीन मुख्य
थीम हैं। पहली थीम है जैव विविधता को बचाना। इसके तहत विश्व के 846 पारिस्थितिकी
क्षेत्रों को चुना गया है और बताया गया है कि साल 2030 तक इन क्षेत्रों को कम से
कम 30 प्रतिशत तक कैसे बचाया जाए। दूसरी थीम है जलवायु परिवर्तन को रोकना। इसके
अंतर्गत कार्बन संग्रहण क्षेत्र और संरक्षण के अन्य क्षेत्र-आधारित उपायों की मदद
से जलवायु परिवर्तन को कम करना शामिल है। इसके तहत विश्व के मौजूदा क्षेत्रों
(जैसे टुंड्रा, वर्षावन) के
लगभग 18 प्रतिशत क्षेत्र को जलवायु स्थिरीकरण क्षेत्र की तरह संरक्षित करना और
लगभग 37 प्रतिशत क्षेत्र (जैसे अमेज़न कछार, कॉन्गो कछार, उत्तर-पूर्वी एशिया वगैरह में देशज लोगों की ज़मीनों) को क्षेत्र-आधारित
उपायों की तरह संरक्षित करना। तीसरी थीम है, पारिस्थितिकी के खतरों को कम करना और इसका मुख्य सरोकार
प्रमुख खतरों जैसे अत्यधिक मत्स्याखेट, वन्यजीवों का व्यापार, नई सड़कों के लिए जंगल कटाई, बड़े बांध बनाने जैसे जोखिमों को कम करने से है।
हम कर सकते हैं
इन उदेश्यों को पूरा करने में सालाना तकरीबन सौ करोड़ डॉलर का खर्च आएगा। और यह खर्चा दुनिया के 200 देशों (साथ ही प्रायवेट सेक्टर) को मिलकर करना है। यदि हम इस धरती को आने वाली पीढ़ी, जीवों और वनस्पतियों (जो पिछले 55 करोड़ वर्ष से पृथ्वी को समृद्ध बनाए हुए हैं) के लिए रहने लायक छोड़कर जाना चाहते हैं तो यह राशि बहुत अधिक नहीं है। और यदि कोई इस कार्य में लगाई गई लागत का लाभ जानना चाहता है तो उपरोक्त पेपर में बताया गया है कि जैव-विविधता संरक्षण से समुद्री खाद्य उद्योग का सालाना लाभ 50 अरब डॉलर तक हो सकता है और बाढ़ के कारण होने वाले नुकसान की भरपाई से बीमा उद्योग सालाना 52 अरब डॉलर की बचत कर सकता है। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i.dailymail.co.uk/i/pix/2015/06/15/19/29A566B100000578-0-image-a-62_1434391429741.jpg
लगभग पिछले 40 वर्षों से कंप्यूटर मॉडल कार्बन उत्सर्जन के कारण धरती के तेज़ी से गर्म होने के संकेत दे रहे हैं। लेकिन 2021 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा ग्लोबल वार्मिंग का आकलन करने के लिए जो नए मॉडल विकसित किए गए हैं, वे अजीब लेकिन निश्चित रुझान दिखा रहे हैं। इन मॉडल्स के अनुसार, धरती का तापमान पूर्व के अनुमानों की अपेक्षा कहीं अधिक होगा।
पहले के मॉडल्स के अनुसार, उद्योग-पूर्व युग के मुकाबले यदि वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) दुगनी हो जाए, तो संतुलन स्थापित होने तक पृथ्वी के तापमान में 2 से 4.5 डिग्री के बीच वृद्धि का अनुमान लगाया था। लेकिन यूएस, यूके, कनाडा और फ्रांस के केंद्रों द्वारा निर्मित अगली पीढ़ी के मॉडलों ने “संतुलित परिस्थिति” में 5 डिग्री सेल्सियस या अधिक वृद्धि का अनुमान लगाया है। इन मॉडलों को बनाने वाले यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि वह क्या चीज़ है जो उनके मॉडल्स द्वारा व्यक्त इस अतिरिक्त वृद्धि की व्याख्या कर सकती है।
अलबत्ता, यदि इन परिणामों पर विश्वास किया जाए, तो हमारे पास ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 से 2 डिग्री सेल्सियस या 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए पहले की तुलना में काफी कम समय है। वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड पहले ही 408 पीपीएम हो चुकी है। इसके आधार पर पहले के मॉडल्स ने भी आगामी चंद दशकों में 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि का अनुमान लगाया था। एक विशेषज्ञ के मुताबिक इन नए मॉडलों के परिणामों पर अभी चर्चा की जा रही है। ऐसे में परेशान होने की ज़रूरत नहीं है किंतु यह पक्की बात है कि हमारे सामने जो संभावनाएं हैं वे काफी निराशाजनक हैं।
कई वैज्ञानिकों को इस पर काफी संदेह है। उनके मुताबिक पूर्व में दर्ज किए गए जलवायु परिवर्तन के आंकड़े इस उच्च जलवायु संवेदनशीलता या तापमान वृद्धि की तेज़तर गति का समर्थन नहीं करते। मॉडल बनाने वाले लोग भी इस बात से सहमत हैं और मॉडलों में सुधार का काम कर रहे हैं। लेकिन मॉडल में इन सुधारों के साथ भी पृथ्वी तेज़ी से गर्म होती मालूम हो रही है।
कुल मिलाकर, मॉडल के परिणाम निराशाजनक हैं, ग्रह पहले से ही तेज़ी से गर्म हो रहा है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि यह मॉडल सही भी हो सकता है। अगर ऐसा रहा तो यह काफी विनाशकारी होगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/ca_0419NID_Heat_Wave_Australia_online.jpg?itok=wKvKBw-o
मोटर गाड़ियों, उद्योगों आदि से निकलने वाले बारीक कण स्वास्थ के लिए हानिकारक हैं। पिछले पच्चीस सालों में वैज्ञानिकों ने यह सम्बंध स्थापित किया है और उनकी कोशिशों से वायु प्रदूषण को रोकने के कानून सख्त हुए हैं। विश्व स्वास्थ संगठन (डब्ल्यूएचओ) का अनुमान है कि हर साल बाह्र वायु प्रदूषण से 42 लाख लोगों की मृत्यु होती है। लेकिन हाल ही में कई देशों में वायु प्रदूषण को असमय मौतों से जोड़ने वाले अध्ययन हमले की चपेट में हैं।
जैसे अमेरिका में प्रशासन द्वारा विभिन्न पर्यावरणीय और स्वास्थ्य सम्बंधी नियमों को खत्म किया जा रहा है। वायु-गुणवत्ता मानकों पर अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी को सलाह देने वाले एक विज्ञान पैनल में भी वायु गुणवत्ता के मानकों और बारीक कणों के असमय मृत्यु से सम्बंध को लेकर मतभेद हो गए। यह कहा गया कि बारीक कणों का असमय मृत्यु से सम्बंध संदिग्ध है।
फ्रांस, पोलैंड और भारत सहित अन्य देशों में भी वायु प्रदूषण के स्वास्थ्य पर प्रभाव की बात पर संदेह व्यक्त किए जा रहे हैं। जर्मनी में 140 फेफड़ा विशेषज्ञों ने एक वक्तव्य में वाहनों से निकलने वाले नाइट्रोजन ऑक्साइड्स तथा बारीक कणों के स्वास्थ्य पर असर को लेकर शंका ज़ाहिर की है। वक्तव्य में इस बात से तो सहमति जताई गई है कि उच्च प्रदूषण वाले इलाकों में लोग दमा वगैरह से ज़्यादा मरते हैं किंतु साथ ही यह भी कहा गया है कि ज़रूरी नहीं कि इनके बीच कार्य-कारण सम्बंध हो।
अलबत्ता, पिछले महीने जर्मन राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी ने स्पष्ट कहा है कि नाइट्रोजन के ऑक्साइड्स बीमारियों की दर में तो वृद्धि करते ही हैं, बारीक कणों के निर्माण में भी योगदान देते हैं। ये कण सांस और ह्मदय सम्बंधी रोगों और फेफड़ों के कैंसर के कारण असमय मौत का कारण बनते हैं।
ये निष्कर्ष दशकों में एकत्र किए गए साक्ष्य के आधार पर निकाले गए हैं। 1993 में हारवर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के शोधकर्ताओं ने छह अमेरिकी शहरों में प्रदूषण के प्रभावों के संदर्भ में पाया था कि साफ वायु में रहने वाले लोगों की तुलना में प्रदूषित वायु वाले शहरों के लोगों के मरने की दर अधिक होती है जिसका मुख्य कारण वायु में बारीक कण की उपस्थिति है। 2017 में 6.1 करोड़ लोगों पर किए गए एक अध्ययन तथा बाद के कई अध्ययनों ने भी यही दर्शाया है।
अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी को सलाह देने वाले एक विज्ञान पैनल के अध्यक्ष टॉनी कॉक्स और अन्य संशयवादी अक्सर तर्क देते हैं कि महामारी विज्ञान के प्रमाण यह साबित नहीं कर सकते कि वायु प्रदूषण असमय मौत का कारण है। लेकिन वे यह नहीं देख पा रहे हैं कि इन सबूतों को अन्य प्रमाणों के साथ देखने की ज़रूरत है।
वैज्ञानिकों ने उन प्रक्रियाओं की पहचान की है जिनके ज़रिए सूक्ष्म कण स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं, और साथ ही उन्होंने प्रयोगशाला विधियों, चूहों और मानव अध्ययनों में इन प्रभावों का विश्लेषण भी किया है। नए-नए प्रमाणों के साथ कई देशों ने अपने प्रदूषण नियंत्रण कानूनों में सुधार भी किए हैं।
आज दुनिया की 90 प्रतिशत से अधिक आबादी ऐसे क्षेत्रों में रहती है जो डब्ल्यूएचओ द्वारा निर्धारित वायु-गुणवत्ता के दिशानिर्देश सीमाओं को तोड़ते हैं। प्रदूषण अभी भी भारत और चीन जैसे देशों में प्रमुख शहरों का दम घोंट रहा है। यह समय हवा को साफ करने के प्रयासों को कम करने का या प्रदूषण से जुड़े निष्कर्षों पर सवाल उठाने का नहीं बल्कि इनको मज़बूत करने का है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : http://morungexpress.com/wp-content/uploads/2015/11/Poor-air-quality.png
जब से हम तापमान का रिकॉर्ड रख रहे हैं, तब से आज तक 2018 चौथा सबसे गर्म साल रहा है। यह निष्कर्ष यूएस के नेशनल एरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) और नेशनल ओशिओनोग्राफिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिनिस्ट्रेशन (एनओओए) की अलग-अलग रिपोर्ट में बताया गया है।
एनओओए की रिपोर्ट के मुताबिक पिछला साल इतना गर्म था कि समुद्र सतह का तापमान बीसवीं सदी के औसत से 0.79 डिग्री सेल्सियस ज़्यादा रहा। तापमान के रिकॉर्ड 1880 से उपलब्ध हैं। तब से आज तक मात्र 2016, 2015 और 2017 ही इससे गर्म रहे हैं। नासा के वैज्ञानिक गेविन श्मिट का कहना है मुख्य बात यह है कि पृथ्वी गर्म हो रही है और हम भलीभांति समझते हैं कि ऐसा क्यों हो रहा है। इसका मुख्य कारण है ग्रीनहाउस गैसें जो हम वायुमंडल में छोड़ते चले जा रहे हैं।
गर्म वर्षों की ओर यह रुझान कोई नई बात नहीं है। सदी के 10 सबसे गर्म वर्षों में से 9 तो 2005 के बाद के हैं। और सबसे गर्म 5 साल दरअसल पिछले 5 वर्ष (2014-2018) रहे हैं।
नासा तथा एनओओए का यह निष्कर्ष अन्य संस्थाओं के आंकड़ों से मेल खाता है। जैसे युनाइटेड किंगडम के मौसम कार्यालय तथा विश्व मौसम विज्ञान संगठन ने भी वर्ष 2018 को ही चौथा सबसे गर्म वर्ष बताया है। युरोप के अधिकांश हिस्सों, भूमध्यसागर क्षेत्र, मध्य पूर्व, न्यूज़ीलैंड और रूस के अलावा अटलांटिक महासागर तथा पश्चिमी प्रशांत महासागर के कुछ हिस्सों में भी धरती और समुद्र का तापमान रिकॉर्ड ऊंचाई पर रहा। हालांकि पृथ्वी के कुछ हिस्सों में ठंडक रही किंतु कुल मिलाकर 2018 गर्म रहा। वैश्विक औसत देखें तो बीसवीं सदी के औसत की तुलना में 2018 में धरती का तापमान 1.12 डिग्री सेल्सियस तथा समुद्र का तापमान 0.66 डिग्री सेल्सियस अधिक रिकॉर्ड किया गया। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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