टेरोसौर की गर्दन को स्पोक का सहारा

गभग 10 करोड़ साल पहले आधुनिक समय के मोरक्को में विशालकाय उड़ने वाले सरीसृप, टेरोसौर, रहा करते थे। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि बड़े जबड़े और जिराफ जैसी सुराहीदार गर्दन वाले टेरोसौर का भोजन मछली, छोटे स्तनधारी और शिशु डायनासौर होते थे। लेकिन यह एक पहेली थी कि उनकी गर्दन अपने भारी-भरकम शिकार का वज़न उठाते चटकती क्यों नहीं थी। अब, एक नए अध्ययन में पता चला है कि उनकी हड्डियों के अंदर स्पोकनुमा जटिल संरचना होती थी जो गर्दन को मज़बूती और स्थिरता प्रदान करती थी।

मोरक्को और अल्जीरिया की सीमा के पास जीवाश्मों से समृद्ध स्थल केम केम क्यारियों में लगभग 10 करोड़ वर्ष पुराना टेरोसौर का एक जीवाश्म मिला था, जो काफी अच्छी तरह संरक्षित था। इसे अज़दारचिड टेरोसौर नाम दिया गया। ये टेरोसौर पृथ्वी पर रहे विशालकाय उड़ने वाले जीवों में से थे। इनके पंख 8 मीटर लंबे और गर्दन 1.5 मीटर लंबी थी। वैज्ञानिकों के बीच हमेशा यह सवाल रहा कि इतनी असामान्य शरीरिक रचना के साथ टेरोसौर किस तरह शिकार करते होंगे, चलते और उड़ते होंगे?

युनिवर्सिटी ऑफ पोर्ट्समाउथ के जीवाश्म विज्ञानी निज़ार इब्रााहिम और उनके साथियों ने अज़दारचिड टेरोसौर की रीढ़ की हड्डी की आंतरिक संरचना का अध्ययन किया। एक्स-रे कम्प्यूटेड टोमोग्राफी और 3-डी मॉडलिंग करने पर उन्होंने पाया कि उनकी रीढ़ की हड्डी में दर्जनों एक-एक मिलीमीटर मोटी कीलनुमा रचनाएं (ट्रेबिकुले) थीं। इन कीलों की जमावट एक-दूसरे को क्रॉस करते हुए इस तरह थी जिस तरह साइकिल के पहिए के स्पोक होते हैं। और ये रचनाएं रीढ़ की हड्डी में केंद्रीय नलिका को घेरे हुए थीं।

गणितीय मॉडलिंग कर शोधकर्ताओं ने जांचा कि क्या वास्तव में ये स्पोकनुमा रचनाएं हड्डियों को अतिरिक्त सहारा देती होंगी। iScience पत्रिका में शोधकर्ता बताते हैं कि कम से कम 50 ट्रेबिकुले रीढ़ की हड्डी की वज़न सहन करने की क्षमता को दुगना कर देते हैं। शोधकर्ता यह भी बताते हैं कि उक्त टेरोसौर की गर्दन 9 से 11 किलोग्राम तक का वज़न उठा सकती थी।

शिकार को पकड़ने और उठाने में सहायता करने के अलावा ये स्पोकनुमा रचनाएं टेरोसौर की गर्दन को उड़ान के दौरान पड़ने वाले तेज़ हवाओं के थपेड़ों का सामना करने और प्रतिद्वंदी नर साथी के प्रहार झेलने में भी मदद करती थीं।

वैज्ञानिकों का यह अनुमान तो था कि अज़दारचिड टेरोसौर बड़े शिकार पकड़ सकते थे लेकिन हड्डी की आंतरिक संरचना की जानकारी का उपयोग कर इस परिकल्पना की पुष्टि पहली बार की गई है। अन्य शोधकर्ताओं का सुझाव है कि अन्य टेरोसौर की गर्दन की हड्डियों का अध्ययन करके इन नतीजों की पुष्टि की जानी चाहिए।

उक्त शोधकर्ता भी यही करना चाहते हैं लेकिन दिक्कत यह है कि टेरोसौर की हड्डियों के भलीभांति सुरक्षित जीवाश्म दुर्लभ हैं। बहरहाल, शोधकर्ताओं का इरादा है कि महामारी खत्म होने के बाद जीवाश्मों से समृद्ध स्थलों पर ऐसे जीवाश्म तलाश करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/pterosaurs_cross-section_1280x720.jpg?itok=KzDnCr4h
https://scitechdaily.com/images/Spoked-Vertebra-Structure-scaled.jpg

तितलियां कपास का अतिरिक्त परागण करती हैं

ह तो हम सब जानते हैं कि मधुमक्खियां बहुत ही अच्छी परागणकर्ता होती हैं। बादाम और सेब जैसी फसलों के लिए वे परागणकर्ता के रूप में बहुत महत्वपूर्ण भी हैं। लेकिन जब कपास की फसल की बात आती है तो इसमें तितलियां अप्रत्याशित भूमिका निभाती हैं। हाल ही में हुआ एक अध्ययन बताता है कि मधुमक्खियां कपास के जिन फूलों पर नहीं जातीं, उन फूलों पर अन्य प्रकार के कीट और तितलियों के जाने से अमेरिका के टेक्सास प्रांत में ही प्रति वर्ष कपास की फसल में लगभग 12 करोड़ डॉलर का अतिरिक्त उत्पादन होता है।

तितलियां मधुमक्खियों की तरह अधिक संख्या में नहीं पाई जातीं और न ही वे उनकी तरह पराग इकट्ठा करने का प्रयास करती हैं। मधुमक्खियों का शरीर रोएंदार होता है जिन पर परागकण आसानी से चिपककर एक फूल से दूसरे तक पहुंच जाते हैं। दूसरी ओर, तितलियों के पैर पतले और लंबे होते हैं जो शायद ही कभी फूल के परागकोश से टकराते हैं। इसलिए जब भी परागण की बात आती है तो मकरंद पान करने वाली तितलियों को परागणकर्ता के रूप में नहीं देखा जाता।

युनिवर्सिटी ऑफ वरमॉन्ट की सारा कसर देखना चाहती थीं कि आवास और परागणकर्ता में विविधता किस तरह कृषि में योगदान देती है। उन्होंने नौ हैक्टर के कपास के खेत का तीन साल की अवधि में तीन बार अवलोकन किया और देखा कि कपास के फूलों का परागण करने में कौन-कौन से कीट शामिल हैं। किसी फूल पर किसी भी कीट के बैठते समय उन्होंने उसे नेट की मदद से पकड़ा और एथेनॉल से भरी शीशी में एकत्रित किया। इस तरह उन्होंने कुल 2444 कीट पकड़े और उनका अध्ययन किया। जैसी कि उम्मीद थी इन कीटों में अधिकतर परागणकर्ता तो मधुमक्खियां ही थीं। लेकिन इनके अलावा वहां की एक देशज मक्खी के साथ अन्य तरह की मक्खियां और तितलियां भी परागण करती पाई गर्इं। उन्होंने मधुमक्खियों की 40 प्रजातियां, मक्खियों की 16 प्रजातियां और तितलियों की 18 प्रजातियां परागणकर्ता के रूप में पहचानी।

कसर ने यह भी पाया कि विभिन्न तरह के परागणकर्ता फूलों पर दिन के अलग-अलग समय आते हैं। मक्खियां फूलों पर सबसे पहले और सुबह जल्दी आती हैं, संभवत: इसलिए कि वे खेतों में ही रहती हैं। उसके बाद फूलों पर तितलियां आती हैं। और जब दिन में अधिक गर्मी पड़ने लगती है तब मधुमक्खियां आती हैं। परागणकर्ताओं का फूलों पर आने का समय मायने रखता है क्योंकि कपास का फूल कुछ ही घंटों के लिए परागण योग्य होता है, और सूर्यास्त के साथ ही वह कुम्हला जाता है।

कसर ने यह भी पता लगाया कि विभिन्न परागणकर्ता कपास के पौधे के किन अलग-अलग भागों पर जाते हैं। उन्होंने पाया कि मधुमक्खियां भीतर की ओर (मुख्य तने के पास) खिले फूलों पर जाती हैं जबकि मक्खियां और तितलियां बाहर की ओर खिले फूलों पर जाती हैं। एग्रीकल्चर, इकोसिस्टम एंड एनवायरमेंट पत्रिका में प्रकाशित नतीजों के अनुसार मक्खियों और तितलियों की फूलों पर जाने की इस वरीयता और योगदान के कारण लगभग 50 प्रतिशत अधिक फूलों का परागण होता है।

मुख्य परागणकर्ता के अलावा अन्य कीटों द्वारा परागण करना परागण पूरकता कहलाता है। और परागण पूरकता सिर्फ कपास में ही नहीं बल्कि अन्य फसलों में भी पाई जाती है। बादाम के बागानों में जंगली मधुमक्खियां और पालतू मधुमक्खियां दोनों पेड़ के अलग-अलग हिस्से पर जाती हैं।

यह तो सही है कि परागण का अधिकांश काम मधुमक्खियां ही करती हैं लेकिन तितलियों और अन्य परागणकर्ताओं की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। कपास में लगभग 66 प्रतिशत परागण मधुमक्खियों द्वारा होता है लेकिन तितलियां और मक्खियां सिर्फ टेक्सास में कपास की फसल में प्रति वर्ष लगभग 12 करोड़ डॉलर का अतिरिक्त योगदान देती हैं। कसर को उम्मीद है कि ये निष्कर्ष किसानों को उपेक्षित परागणकर्ताओं और उनके आवास को संरक्षित करने के लिए प्रेरित करेंगे।

लोग तितलियों को इसलिए महत्व देते हैं क्योंकि वे सुंदर और आकर्षक लगती हैं, लेकिन कृषि में परागणकर्ता के रूप में भी वे महत्वपूर्ण हो सकती हैं। यदि ऐसे ही परिणाम अन्य फसलों में भी दिखे तो महत्वपूर्ण परागणकर्ताओं की सूची में तितलियां भी शामिल हो जाएंगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_large/public/Butterfly_1280x720.jpg?itok=doXC5zD5

पृथ्वी का विशालतम जीव – डॉ. किशोर पंवार, भरत नागेश

पने तरह-तरह के जीव-जंतु देखे होंगे या इनके बारे में सुना होगा – अति सूक्ष्म जीवाणु से लेकर विशालकाय नीली व्हेल तक। पर यहां जिस जीव की बात करेंगे, आपने शायद ही कभी उसके बारे में सुना होगा। यदि हम आपसे प्रश्न करें कि इस पृथ्वी का सबसे बड़े जीव कौन है, तो आपकी जानकारी के अनुसार इसका उत्तर जिराफ, हाथी या ब्लू व्हेल या फिर सिकोया पेड़ होगा।

ब्लू व्हेल समुद्र में पाई जाती है जिसकी लंबाई लगभग 30 मीटर तथा वज़न 173 टन तक हो सकता है। यह संसार का सबसे बड़ा स्तनधारी जीव है। इसी तरह सिकोया पेड़ है जो उत्तरी अमेरिका में पाया जाता है, इसकी लंबाई लगभग 115 मीटर तथा चौड़ाई 10 मीटर तक हो सकती है। यह संसार का सबसे लंबा पेड़ है। लेकिन आश्चर्य की बात है कि ये दोनों ही पृथ्वी के विशालतम जीवों में से नहीं है। तो फिर कौन है?

आपके मन में यह सवाल भी आ रहा होगा कि विशालतम जीव का निर्धारण कैसे किया जाता है? इसके निर्धारण को लेकर वैज्ञानिक समुदाय में कुछ मतभेद हैं फिर भी कुछ पहलुओं के आधार पर इसका निर्धारण संभव है। जैसे, किसी जीव का परिमाप, क्षेत्रफल, लंबाई, ऊंचाई। यहां तक कि जीनोम के आकार के द्वारा भी इसका निर्धारण किया जा सकता है। चींटियों और मधुमक्खियों जैसे कुछ जीव साथ मिलकर सुपरऑर्गेनिज़्म का निर्माण करते हैं। लेकिन ये एकल जीव नहीं हैं। दी ग्रेट बैरियर रीफ दुनिया की सबसे बड़ी संरचना है जो 2000 किलोमीटर तक फैली है लेकिन इसमें कई प्रजातियों के जीव हैं।

वज़न के हिसाब से इस पृथ्वी का सबसे बड़ा ज्ञात जीव है – पंडो। शुद्ध वज़न के मामले में पंडो सबसे ऊपर है। पंडो का लैटिन भाषा में मतलब ‘I Spread’  (यानी मैं फैलता हूं) है। इसे ट्रेम्बलिंग जाएंट (कंपायमान दैत्य) या एस्पेन के नाम से भी जाना जाता है। पंडो संयुक्त राज्य अमेरिका के दक्षिण मध्य ऊटा में कोलेरैडो पठार के पश्चिम छोर पर फिशलेक राष्ट्रीय उद्यान में है। लेकिन आप यदि इस जीव के बारे में पढ़े बिना इसे खोजने जाएंगे तो ढूंढना थोड़ा मुश्किल होगा क्योंकि यह एक पेड़ है। एक पेड़ को ढूंढना इतना मुश्किल क्यों है? तो आपको बता दें कि यह पेड़ देखने में एक जंगल के समान ही है। लेकिन वैज्ञानिक दृष्टि से पंडो एक पेड़ है जिसके क्लोनों के समुदाय 5 किलोमीटर तक फैले हो सकते हैं। आनुवंशिक शोधकर्ताओं द्वारा इसे एकल जीव के रूप में चिंहित किया गया है। यह लगभग 108 एकड़ में फैला है जिसका वजन लगभग 6000 टन (60,00,000 कि.ग्रा.) हो सकता है। यह सबसे बड़े विशालकाय सिकोया पेड़ से लगभग 5 गुना अधिक और लगभग पूरी तरह से विकसित 45 ब्लू व्हेल के बराबर है।

पंडो (Populus tremuloids) की पहचान 1976 में जेरी केम्परमैन और बर्टन बार्न्स ने की थी। माइकल ग्रांट, जेफरी लिटन और कोलेरैडो विश्वविद्यालय के यिन लिनहार्ट ने 1992 में क्लोन्स की फिर से जांच की और इसे पंडो नाम दिया। साथ ही वज़न के लिहाज़ से दुनिया का सबसे बड़ा जीव होने का दावा किया। ऐसा माना जाता है कि पंडो की शुरुआत एक बीज से हुई थी। यह लगभग 14,000 साल या उससे भी पहले की बात है। हालांकि इसकी उम्र का सही-सही अनुमान लगा पाना कठिन है। कुछ जगह इसकी उम्र  50,000-60,000 वर्ष भी बताई गई है। पंडो आनुवंशिक रूप से नर है जिसमें एक अलग जड़ तंत्र होता है जो आपस में जुड़ा हुआ होता है। वैज्ञानिक नहीं जानते कि क्लोन में बड़े पैमाने पर पेड़ कैसे जुड़े हैं। एक बार पौधे जब एक निश्चित उम्र तक पहुंच जाते हैं, तो वे अपने जड़ तंत्र को अलग कर सकते हैं। ऊटा विश्वविद्यालय की कैरन मॉक बताती हैं कि साझा आनुवंशिकी के कारण, अलग होने वाले पेड़ों में अभी भी एक जैसे गुणधर्म हैं। जैसे कि कलियों का एक समय में खिलना और पत्तियों का विशेष परिस्थिति होने पर एक ही समय में मुड़ना।

इसका जड़ तंत्र कई हज़ार साल पुराना माना जाता है। सभी क्लोन जड़ों की एक साझा प्रणाली के ज़रिए एक पेड़ द्वारा एकत्रित ऊर्जा या पानी को इस जड़ तंत्र के द्वारा सभी पेड़ साझा करते हैं। पंडो में अपने जड़ तंत्र के माध्यम से अलैंगिक रूप से आनुवंशिक रूप से समान संतानें उत्पन्न करने की अद्भुत क्षमता है।

पंडो देखने में खूबसूरत होता है। इसके सभी क्लोन लगभग समान ऊंचाई के हैं। शरद ऋतु में पंडो अपने पीले-सुनहरे रंग के लिए जाने जाते हैं। ऊटा ने 2014 में पंडो को अपने राज्य का अधिकारिक पेड़ बनाया। इसकी छाल सफेद-भूरे रंग की होती है जिसमें मोटे काले आड़े निशान और गांठें होती हैं। ये निशान एल्क (एक प्रकार का बारहसिंहा) द्वारा बनाए गए संकेत हैं जो दांतों द्वारा एस्पेन की छाल को छीलने से बने हैं। पंडो की पत्तियां गोल होती हैं और तनों पर विशिष्ट तरीके से जुड़ी हुई होती हैं। जब हवा इन पत्तियों को छूकर गुज़रती है तो वे विशिष्ट तरीके से हिलती-डुलती हैं।

लेकिन इस ग्रह का विशालतम जीव आज मरने की कगार पर है। इसके कुछ कारण ज्ञात हैं तो कुछ अज्ञात। रोग, जलवायु परिवर्तन और जंगल में लगी आग ने पंडो पर बहुत ही बुरा प्रभाव डाला है। परंतु गिरावट का मूल कारण बहुत ही आश्चर्यजनक है। बहुत सारे शाकाहारी जानवर (खच्चर, हिरण, एल्क) पंडो के बीच घूमते रहते हैं। परन्तु इनकी बढ़ती जनसंख्या सबसे बड़ा खतरा बन गई है। इन जानवरों ने नई निकल रही कोपलों तथा युवा तनों को तेज़ी से खाना प्रारंभ कर दिया है, जिसके कारण नए क्लोनों की संख्या घट रही है। पंडो पर शोध करने वाले रॉजर्स कहते हैं कि पुराने पेड़ के लगभग 47,000 तने लगभग 70 प्रतिशत मृत हैं या तेज़ी से अपने अंत के करीब हैं। अमेरिकी वन सेवा के निकोलस मास्टो कहते हैं कि पंडो के नए तने खच्चर, हिरण एवं एल्क के लिए स्वादिष्ट भोजन हैं। पंडो के पास अपना सुरक्षा तंत्र भी है – यदि पंडो खुद को खतरे में पाता है तो वह अपने रसायनों को बदल सकता है और अधिक अंकुरण कर सकता है। विपरीत परिस्थितियों में एस्पेन एक रसायन का उत्पादन करने में सक्षम होते हैं जो हिरणों के लिए अपने तनों के स्वाद को खराब करते हैं जो चराई के खिलाफ एक सुरक्षा है। शाकाहारी जानवरों से पंडो की सुरक्षा के लिए 2013 में अमरीकी वन विभाग के सहयोग से तथा संरक्षण प्रेमियों के एक गैर-मुनाफा संगठन की मदद से पंडो की 108 एकड़ जगह को तार से घेरा गया है। वैज्ञानिक आशावादी थे, पर कुछ कशमकश में थे कि शाकाहारी जानवरों के आक्रमण से बचाव के बाद पंडो के नए अंकुरों तथा युवा क्लोनों का क्या होगा? क्या पंडो नए क्लोनों को तेज़ी बनाने में सक्षम होंगे या फिर इनके मरने के और भी कारण है। खुशी की बात यह है कि फेंसिंग के कुछ साल बाद नए क्लोनों की कोपलें सुरक्षित हैं और युवा क्लोन तेज़ी से बढ़ रहे है। आशा है कि पृथ्वी का यह विशालतम जीव सुरक्षित रहेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : http://www.mattheweckert.com/wp-content/uploads/2014/06/Pando-Forest.jpg

मधुमक्खियों में दूर तक संवाद

बेशक मधुमक्खियां हमारी तरह बोल नहीं सकतीं लेकिन हाल ही में शोधकर्ताओं ने पाया है कि उनमें भी लंबी दूरी का और बड़े पैमाने पर संवाद होता है। मधुमक्खियां आपस में मिलकर रसायनों की गंध के माध्यम से दूर-दूर मौजूद अपने अन्य साथियों को रानी मधुमक्खी की स्थिति के बारे में जानकारी देती हैं।

मधुमक्खियां फेरोमोन नामक रसायनों की मदद से आपस में संवाद करती हैं, जिसे वे अपने एंटीना के माध्यम से पहचानती हैं। रानी मधुमक्खी फेरोमोन्स जारी करके श्रमिक मधुमक्खियों को अपने पास बुलाती है। लेकिन फेरोमोन्स हवा में सीमित दूरी तक ही पहुंचते हैं। तो रानी का संदेश दूर के श्रमिकों तक कैसे पहुंचता है?

रानी मधुमक्खी के आसपास मंडराने वाली श्रमिक मधुमक्खियां भी नेसानोव नामक फेरोमोन जारी कर अन्यत्र मौजूद अपने साथियों को बुला सकती हैं। नेसानोव की गंध छोड़ने के लिए वे अपने पेट को थोड़ा ऊंचा उठाती हैं ताकि फेरोमोन स्रावित करने वाली ग्रंथियां हवा के संपर्क में आ जाएं। फिर अपने पंखों को फड़फड़ाकर वे गंध को पीछे की ओर भेजती हैं।

इस प्रक्रिया का खुलासा करने के लिए कोलेरैडो विश्वविद्यालय के कंप्यूटर विज्ञानी डियू माय गुयेन और उनके साथियों ने अध्ययन के लिए आम तौर पर पाई जाने वाली मधुमक्खियों (एपिस मेलिफेरा) की एक कॉलोनी को चुना। अध्ययन के लिए उन्होंने पिज़्ज़ा के डिब्बे के आकार का समतल क्षेत्र तैयार किया जिसकी छत पारदर्शी थी। इसमें मधुमक्खियां सिर्फ चल सकती थीं, उड़ नहीं सकती थीं। इसके एक कोने पर उन्होंने रानी मधुमक्खी को कैद कर दिया और दूसरी तरफ से श्रमिक मधुमक्खियों को छोड़ा और उनकी गतिविधियां कैमरे में रिकॉर्ड की। फिर कृत्रिम बुद्धि सॉफ्टवेयर की मदद से नेसानोव फेरोमोन जारी करने वाली मधुमक्खियों को ट्रैक किया।

शोधकर्ताओं ने पाया कि किसी श्रमिक मधुमक्खी द्वारा रानी की स्थिति पता कर लेने के बाद उन्होंने रानी मधुमक्खी के पास से एक-दूसरे को एक-समान दूरी पर व्यवस्थित रूप से कतारबद्ध करना शुरू कर दिया था, हरेक मधुमक्खी अपने पंख फड़फड़ा कर अपने पड़ोसी मधुमक्खी तक नेसानोव पहुंचाकर उसे ठीक से कतार में लगवा रही थी। प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में शोधकर्ता बताते हैं कि इस तरह के सामूहिक संवाद का अवलोकन पहली बार मधुमक्खियों में किया गया है। यह संवाद मधुमक्खियों को रानी मधुमक्खी तक वापस पहुंचने में मदद करता है – जो एक अकेली मधुमक्खी द्वारा संभव नहीं है। देखा गया है कि मधुमक्खियां गंध की इस  शृंखला के द्वारा एक-दूसरे के बीच लगभग 6 सेंटीमीटर की दूरी रखती हैं। इससे लगता है कि किसी मधुमक्खी को फेरोमोन की एक निश्चित मात्रा प्राप्त होते ही वह अपना सारा काम छोड़कर खुद फेरोमोन स्रावित करने लगती है।

अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि यह अध्ययन समतल स्थान में किया गया है जबकि वास्तव में मधुमक्खियां आगे-पीछे, ऊपर-नीचे कहीं भी हो सकती हैं। और तो और, अक्सर हवा और बारिश जैसे कारक उन्हें प्रभावित करते हैं, जो उनके संचार को और अधिक जटिल बनाते हैं। हालांकि सरलीकृत मॉडल से यह पता चलता है कि मधुमक्खियां कैसे खुद व्यवस्थित होती हैं, झुंड बनाती हैं। बहरहाल मधुमक्खियों के प्राकृतिक झुंडों का निरीक्षण करके देखना चाहिए कि क्या वास्तव में वे ऐसा करती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://i.ytimg.com/vi/LA1OTMCJrT8/maxresdefault.jpg

वन्यजीवों से कोरोनावायरस फैलने की अधिक संभावना

कोविड महामारी के स्रोत का पता लगाने के प्रयास लगातार जारी हैं। हाल ही में सीएनएन द्वारा प्रसारित साक्षात्कार में एक प्रमुख वैज्ञानिक सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल के पूर्व निदेशक और वायरोलॉजिस्ट रॉबर्ट रेडफील्ड ने बिना किसी प्रमाण के दावा किया कि सार्स-कोव-2 वुहान की प्रयोगशाला से निकला है। साथ ही उन्होंने कहा कि यह मात्र एक निजी राय है। इसके दो दिन बाद कुछ अन्य लोगों (डबल्यूएचओ और चीन सरकार की टीम) ने वायरस के वन्यजीवों से फैलने की बात कही जिसकी शुरुआत चमगादड़ों से हुई है। इसमें भी कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं दिया गया।

गौरतलब है कि वुहान की प्रयोगशाला में किसी को भी ऐसा कोरोनावायरस नहीं मिला है जिसे बदलकर ज़्यादा फैलने वाला बनाया गया हो और फिर उसने बदलते-बदलते सार्स-कोव-2 जैसा रूप लेकर वहां किसी कर्मचारी को संक्रमित कर दिया हो। इसी तरह किसी को जंगली जीवों में कोरोनावायरस के प्रमाण भी नहीं मिले हैं जो एक से दूसरे जंतु में आगे बढ़ते-बढ़ते उत्परिवर्तित होकर सार्स-कोव-2 के समान हो गया हो और फिर मनुष्यों में प्रवेश कर गया हो।

अभी तक ये दोनों ही विचार प्रमाण-विहीन हैं और दोनों ही संभव हैं।

फिर भी इन दोनों विचारों के सही होने की संभावना बराबर नहीं है। देखा जाए तो प्रयोगशाला से वायरस के निकलने की कोई एक या शायद कुछ मुट्ठी भर घटनाएं हो सकती हैं जबकि वन्यजीवों से वायरस के फैलने के अनेकों अवसर होंगे।

रेडफील्ड की अटकल है कि किसी भी वायरस के लिए इतने कम समय में जीवों से मनुष्यों में प्रवेश करने की कुशलता हासिल करना बिना प्रयोगशाला के संभव नहीं है। लेकिन एक बार में इतनी बड़ी छलांग बहुत बड़ी बात होगी। स्वयं रेडफील्ड ने कहा है कि यह वायरस हमारी जानकारी में आने के कई महीनों पहले से प्रसारित हो रहा था। यानी मनुष्यों तक पहुंचने से पहले एक लंबी अवधि रही होगी जो इस वायरस के वन्यजीवों से फैलने का संकेत देती है।

वन्यजीवों से वायरस के फैलने का विचार इस बात पर टिका है कि चीन में करोड़ों चमगादड़ हैं और उनका मनुष्यों समेत अन्य जीवों से खूब संपर्क होता है। अत:, वायरस के मनुष्यों में प्रवेश करने के कई मौके हो सकते हैं। मूल रूप में तो यह वायरस मनुष्यों में खुद की प्रतिलिपि तैयार करने में अक्षम होता है। लेकिन मनुष्यों को संक्रमित करने के पहले इसे विकसित होने के लाखों मौके मिले होंगे। गौरतलब है कि चमगादड़ अक्सर कई जीवों जैसे पैंगोलिन, बैजर, सूअर, एवं अन्य के संपर्क में आते हैं जिससे ये मौकापरस्त वायरस इन प्रजातियों को आसानी से संक्रमित कर देते हैं। चमगादड़ कॉलोनियों में रहते हैं इसलिए विभिन्न प्रकार के कोरोनावायरस के मिश्रण की संभावना होती है और उन्हें अपने जींस को पुनर्मिश्रित करने का पूरा मौका मिलता है। यहां तक कि एक अकेले चमगादड़ में भी विभिन्न कोरोनावायरस देखे गए हैं।

इन वायरसों को मेज़बानों के बीच छलांग लगाने के लिए कई महीनों का समय मिलता है। इसी दौरान वे उत्परिवर्तित भी होते रहते हैं। एक बार मनुष्यों में प्रवेश करने पर उन वायरस संस्करणों को वरीयता मिलती है जो मानव कोशिकाओं को संक्रमित करके अपनी प्रतिलिपियां बनाने की क्षमता रखते हैं। जल्द ही वे कोशिकाओं को इस स्तर तक संक्रमित कर देते हैं कि लोग बीमार होने लगते हैं। तब जाकर एक नई बीमारी प्रकट होती है। यह वही अवधि होती है जिसे रेडफील्ड ने माना है कि वायरस प्रसारित होता रहा है।

वास्तव में हम कोरोनावायरस के विकास में यह घटनाक्रम देख भी रहे हैं। इसमें काफी तेज़ी से उत्परिवर्तन हो रहे हैं (E484K और 501Y जैसे) जो वायरस को और अधिक संक्रामक बनाते हैं। युनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन के वायरोलॉजिस्ट एडम लौरिंग के अनुसार ये परिवर्तन प्राकृतिक रूप से हो रहे हैं। जिसका कारण यह है कि वायरस को लाखों संक्रमित व्यक्तियों में उत्परिवर्तन के लाखों अवसर मिल रहे हैं।

तो किसे सही माना जाए? रेडफील्ड की प्रयोगशाला से रिसाव की परिकल्पना को जो मात्र एक संयोग पर निर्भर है? या फिर वन्यजीवों से प्रसारित होने की परिकल्पना को जिसे लाखों अवसर मिल रहे हैं? हालांकि दोनों ही संभव हैं लेकिन एक की संभावना अधिक मालूम होती है। इसीलिए, अधिकांश वैज्ञानिकों को वन्यजीवों के माध्यम से इस वायरस के फैलने के आशंका अधिक विश्वसनीय लगती है।

वायरस की उत्पत्ति का सवाल महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे किसी महामारी के शुरू होने की जानकारी मिल सकती है ताकि भविष्य में इस तरह की स्थितियों को रोका जा सके। आज भी कई रोग पैदा करने वाले वायरस हमारे बीच मौजूद हैं जो महामारी का रूप ले सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/sciam/cache/file/78CEB3D4-DB49-4A8C-825A560639BFC60E_source.jpg

क्या ऑक्टोपस सपने देखते हैं?

क्टोपस सपने देखते हैं या नहीं, यह तो अभी पता नहीं चल पाया है लेकिन वैज्ञानिक इस गुत्थी को सुलझाने की ओर बढ़े हैं। आईसाइंस (iScience) में प्रकाशित हालिया अध्ययन बताता है कि मनुष्यों की तरह ऑक्टोपस भी नींद की दो अवस्थाओं का अनुभव करते हैं -सक्रिय नींद और शांत नींद। लेकिन मनुष्यों और ऑक्टोपस, दोनों में इस दो अवस्था वाली नींद का विकास स्वतंत्र रूप से हुआ होगा, क्योंकि ये दोनों जैव-विकास में लगभग 50 करोड़ वर्ष पूर्व अलग-अलग हो चुके थे।

फेडरल युनिवर्सिटी ऑफ रियो ग्रांड डो नोर्टे के सिडार्टा रिबेलियो और उनके साथियों ने इस अध्ययन में ऑक्टोपस इंसुलेरिस (Octopus insularis) प्रजाति के चार ऑक्टोपस का प्रयोगशाला के टैंक में सोते समय वीडियो बनाया। यह जांचने के लिए कि ऑक्टोपस सो रहे हैं या जाग रहे हैं, शोधकर्ताओं ने ऑक्टोपस को टैंक के बाहर से स्क्रीन पर जीवित केकड़ों का वीडियो दिखाया या रबर के हथौड़े से टैंक की दीवार पर हल्के से ठोंका और देखा कि क्या ऑक्टोपस में प्रतिक्रिया स्वरूप कोई हलचल हुई। देखा गया कि ‘शांत’ नींद के दौरान ऑक्टोपस की त्वचा की रंगत पीली थी, पुतलियां सिकुड़ गर्इं थी, वे शांत थे और उनके चूषक व भुजाओं के छोर हल्के-हल्के हिल रहे थे। लेकिन ‘सक्रिय नींद’ के दौरान उनकी त्वचा गहरे रंग की और कसी हुई थी, उन्होंने अपनी आंखें घुमाई और मांसपेशीय ऐंठन ने उनके चूषकों और शरीर को सिकोड़ दिया था।

ऑक्टोपस में लगभग 40 सेकंड लंबी सक्रिय नींद सामान्यत: एक लंबी शांत नींद के बाद आती है। हर 30-40 मिनट की शांत नींद के बाद उनमें सक्रिय नींद देखी गई। ऑक्टोपस में नींद की ये दो अवस्थाएं स्तनधारियों की नींद की दो प्रमुख अवस्थाओं के समान दिखती हैं। पहली, तीव्र नेत्र गति (या रेपिड आई मूवमेंट, REM) नींद। इस अवस्था में आंखें तेज़ी से घूमती हैं और सपने आते हैं। और दूसरी है ‘मंद-तरंग’ नींद। इस अवस्था में पूरे मस्तिष्क में विद्युत गतिविधि एक समान लय में चलती हैं। नींद की यह अवस्था मस्तिष्क में स्मृतियों को सहेजने और फालतू जानकारी हटाने में अहम मानी जाती है।

फिर भी, शोधकर्ता मनुष्यों और ऑक्टोपस की नींद में समानता देखने मे सावधानी बरत रहे हैं क्योंकि ऑक्टोपस और स्तनधारियों के मस्तिष्क की बनावट बहुत अलग-अलग है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि मनुष्यों में सपने आम तौर पर REM नींद के दौरान आते हैं, लेकिन ऑक्टोपस से तो यह नहीं पूछा जा सकता कि क्या वे सपने देख रहे हैं। फिर भी शोधकर्ताओं का अनुमान है कि जागते हुए जब वे कोई नई बात सीखते हैं तब उनकी त्वचा की रंगत और विभिन्न अवस्थाओं में सोते हुए त्वचा की रंगत की तुलना करके पता लगाया जा सकता है कि वे सपने देख रहे हैं या नहीं। यदि सपने नहीं भी देखते, तो भी यह तो माना जा सकता है कि वे इस दौरान कुछ तो अनुभव करते हैं। ऑक्टोपस कठिन चुनौतियां हल करने के लिए जाने जाते हैं – मर्तबान का ढक्कन हटाना या छद्मावरण बनाना। तो उनमें इस बात की जांच की जा सकती है कि नींद (या नींद में कमी) उनकी सीखने की क्षमता को कैसे प्रभावित करती है, जो उनकी स्मृतियों को ठीक से सहेजने में नींद की भूमिका स्पष्ट करेगी।

उनके मस्तिष्क में चलने वाली हलचल को इलेक्ट्रोड की मदद से मापा जाना चाहिए लेकिन यह मुश्किल होगा, क्योंकि वे शरीर पर लगी हर चीज़ को निकाल फेंकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://images.immediate.co.uk/production/volatile/sites/4/2021/03/octopus-336117c.jpg?quality=90&resize=768,574

कीटनाशकों के बदलते उपयोग का जीवों पर प्रभाव

रपतवार व फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीट किसानों को अपने दुश्मन लगते हैं। इनका सफाया करने के लिए वे रासायनिक कीटनाशकों का उपयोग करते हैं। लेकिन ये रसायन सिर्फ दुश्मनों का सफाया नहीं करते बल्कि वे मधुमक्खियों, मछलियों और क्रस्टेशियन जैसे निर्दोष जीवों को भी नुकसान पहुंचाते हैं।

हाल ही में एक विशाल अध्ययन ने हाल के दशकों में अमेरिका के किसानों द्वारा कीटनाशकों के उपयोग में हुए बदलाव के चलते ऐसे प्रभावों में हुए परिवर्तनों का विश्लेषण किया है। देखा गया कि कीटनाशकों के उपयोग में आए बदलाव से पक्षियों और स्तनधारियों की स्थिति बेहतर रही, जबकि इससे परागणकर्ता जीव व जलीय अकशेरुकी जीव बहुत बुरी तरह प्रभावित हुए हैं।

खरपतवारों में खरपतवारनाशकों के खिलाफ प्रतिरोध विकसित हो जाने से किसानों द्वारा इन रसायनों का उपयोग बढ़ा और इसके चलते भूमि पर उगने वाले पौधों में भी विषाक्तता का प्रभाव बहुत बढ़ गया।

पिछले कुछ दशकों में संयुक्त राज्य अमेरिका में कीटनाशकों के उपयोग की मात्रा में लगभग 40 प्रतिशत की कमी आई है। लेकिन इसके साथ अधिक शक्तिशाली और विषाक्त रसायनों का उपयोग बढ़ा है। उदाहरण के लिए पायरेथ्रॉइड्स अत्यधिक प्रभावी कीटनाशक समूह है। इनकी बहुत कम मात्रा भी अत्यधिक ज़हरीली होती है और ये तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करते हैं। पूर्व में उपयोग किए जाने वाले कीटनाशक (जैसे ऑर्गेनोफॉस्फेट या कार्बेमेट) एक हैक्टर में कई किलोग्राम लगते थे, लेकिन पायरेथ्रॉइड्स की महज़ 6 ग्राम मात्रा पर्याप्त होती है।

पारिस्थितिकी-विषाक्तता विज्ञानी रॉल्फ शुल्ज़ और उनके साथियों ने वर्ष 1992 से 2016 तक स्वयं किसानों द्वारा कीटनाशकों के उपयोग के बारे में दी गई जानकारी के अमेरिकी भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण डैटा से शुरुआत की। फिर उन्होंने उपयोग किए गए सभी यौगिकों (381 रसायनों) के लिए अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी (ईपीए) द्वारा निर्धारित विषाक्तता के स्तर (जितनी मात्रा में कोई पदार्थ या रसायन वनस्पतियों या वन्यजीवों को नुकसान पहुंचा सकता है) और खेतों में उपयोग किए गए प्रत्येक कीटनाशक की मात्रा की तुलना की और कुल प्रयुक्त विषाक्तता पता की।

साइंस पत्रिका में प्रकाशित नतीजों के अनुसार संभवत: पुराने कीटनाशकों के उपयोग में आई कमी के कारण 1992 से 2016 तक पक्षियों और स्तनधारियों के लिए कुल विषाक्तता में 95 प्रतिशत से अधिक की कमी आई है। मछलियों के लिए विषाक्तता स्तर में एक-तिहाई की कमी आई है। मछलियों के लिए विषाक्तता में होने वाली कमी का प्रतिशत कम दिखता है क्योंकि मछलियां पायरेथ्रॉइड्स के प्रति अधिक संवेदनशील हैं और खेतों में इनका उपयोग बढ़ा है। लेकिन पायरेथ्रॉइड्स की वजह से जलीय अकशेरुकी जीवों (जैसे प्लवक और कीट-लार्वा) के लिए विषाक्तता दुगनी हो गई है। इसके अलावा निओनिकोटिनॉइड्स कीटनाशक ने मधुमक्खियों और भौंरों जैसे परागणकर्ताओं के लिए विषाक्तता का जोखिम दुगना कर दिया है। इसी तरह के नतीजे एक छोटे अध्ययन में भी देखने को मिले थे, जिसके अनुसार इस बदलाव से कशेरुकी जीव कम प्रभावित हुए लेकिन अकशेरुकी जीवों को बहुत क्षति पहुंची है।

कुछ कीटनाशकों और प्रजातियों के लिए वास्तविक प्रभाव का अनुमान लगाना मुश्किल है, क्योंकि पौधों और जीवों को सिर्फ रसायन ही प्रभावित नहीं करते बल्कि मौसम या वर्ष का समय जैसे कई अन्य कारक भी होते हैं। यह देखने के लिए कि सिर्फ कीटनाशकों ने जलीय क्रस्टेशियन और कीटों को किस तरह प्रभावित किया, शोधकर्ताओं ने संयुक्त राज्य अमेरिका की 231 झीलों और नदियों का विषाक्तता सम्बंधी डैटा खंगाला। जब इसकी तुलना उन्होंने उन क्षेत्रों के आसपास उपयोग किए गए कीटनाशकों की मात्रा के साथ की तो उन्होंने पाया कि इनके बीच काफी सम्बंध है।

जीवों के अलावा विषाक्तता से पौधे भी प्रभावित हुए हैं। 2004 के बाद से थलीय पौधों में खरपतवारनाशी रसायनों के कारण आई कुल विषाक्तता दुगनी हुई है। इस विषाक्तता को बढ़ाने में सबसे अधिक योगदान ग्लायफोसेट नामक खरपतवारनाशी का है। कुछ खरपतवारों ने ग्लायफोसेट के खिलाफ प्रतिरोध विकसित कर लिया, और किसान उनके सफाए के लिए अधिकाधिक मात्रा में ग्लायफोसेट का छिड़काव करने लगे। इससे मेड़ों पर उगने वाले पौधों और उन पर आश्रित जीवों के लिए खतरा बढ़ गया।

कीटनाशकों का उपयोग कम करने के लिए मक्का की एक किस्म को जेनेटिक रूप से परिवर्तित करके उसमें कीटनाशक रसायन बीटी जोड़ा गया था। इसके चलते विषाक्त रसायनों का उपयोग कम होना था लेकिन देखा गया कि पिछले एक दशक में बीटी मक्का और सामान्य मक्का दोनों में डाली गई विषाक्तता में प्रति वर्ष 8 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है।

शुल्ज़ को उम्मीद है कि ये नतीजे नीति निर्माताओं और अन्य लोगों को कीट और खरपतवार नियंत्रण की जटिलता पर और जंगली प्रजातियों को बेवजह होने वाली क्षति को कम करने के लिए सोचने में मदद करेंगे। अमेरिका में कीटनाशक के उपयोग के पैटर्न और विषाक्तता सम्बंधी डैटा से बाकी दुनिया को सबक लेना चाहिए, जहां कीट नियंत्रण के लिए पर्यावरण हितैषी तरीकों की बजाय कीटनाशकों का उपयोग किया जा रहा है।

कीटनाशक उपयोग सम्बंधी फैसले इस पर भी निर्भर करते हैं कि किसी समाज या समुदाय के लिए कौन-सी प्रजातियां महत्व रखती हैं। जैसे युरोपीय संघ में नियामकों ने नियोनिकोटिनॉइड्स के उपयोग को प्रतिबंधित कर दिया ताकि परागणकर्ताओं को नुकसान न हो। लेकिन संभवत: अब किसान अन्य कीटनाशकों का उपयोग करेंगे जो अन्य प्रजातियों को जोखिम में डाल सकता है, या पैदावार घट जाएगी और खाद्यान्न की कीमतें आसमान छूएंगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_large/public/bee_1280p_3.jpg?itok=4GeLXZHp

तीन अरब साल पहले आए थे एरोबिक सूक्ष्मजीव

हाल ही में विभिन्न कुलों के सूक्ष्मजीवों के आनुवंशिक विश्लेषण से पता चला है कि ऑक्सीजन में सांस लेने वाले या कम से कम इसका उपयोग करने वाले सबसे पहले जीव 3.1 अरब साल पहले अस्तित्व में आए थे। यह खोज इसलिए चौंकाती है क्योंकि पृथ्वी को ऑक्सीजनमय करने वाली महान ऑक्सीकरण घटना तो इसके लगभग 50 करोड़ वर्ष बाद शुरू हुई थी।

ऑक्सीजन का उपयोग करने वाले प्रोटीनों का अस्तित्व में आना, ऑक्सीजन का उपयोग करने वाले सूक्ष्मजीवों के उद्भव में एक महत्वपूर्ण कदम था। और अनॉक्सी जीवों से लदी पृथ्वी का अधिकांशत: ऑक्सी जीवों वाली पृथ्वी में परिवर्तित होना जीवन का एक अहम नवाचार था।

वैज्ञानिक इस बात से तो सहमत हैं कि पृथ्वी का प्रारंभिक वायुमंडल और महासागर ऑक्सीजन रहित थे। लेकिन ऐसे संकेत मिले हैं जो बताते हैं कि इस समय भी पृथ्वी पर कुछ मात्रा में तो ऑक्सीजन मौजूद थी। जैसे वैज्ञानिकों ने लगभग 3 अरब साल पहले के ऐसे खनिज भंडार खोजे हैं जो सिर्फ ऑक्सीजन की उपस्थिति में बन सकते थे। इसके अलावा कुछ साक्ष्य बताते हैं कि अपशिष्ट उत्पाद के रूप में ऑक्सीजन छोड़ने वाले सबसे पहले प्रकाश संश्लेषक जीव, सायनोबैक्टीरिया, भी 3.5 अरब साल पहले अस्तित्व में आए थे। वे इस ऑक्सीजन का उपयोग नहीं करते थे।

लेकिन इस पर आपत्ति यह है कि यदि ऑक्सीजन उत्पादक और उपयोगकर्ता इतनी जल्दी आए होते तो वे पूरी पृथ्वी पर तेज़ी से फैल गए होते, क्योंकि ऑक्सीजन का उपयोग भोजन से अधिक ऊर्जा प्राप्त करने में मदद करता है। लेकिन महान ऑक्सीकरण की घटना 2.4 अरब साल पूर्व से पहले शुरू नहीं हुई थी।

ताज़ा अध्ययन में वाइज़मैन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के जैव-रसायनज्ञ डैन तौफीक और उनके साथियों ने केंद्रक-पूर्व जीवों के 130 कुलों के जीनोम का विश्लेषण किया। उन्होंने एक वंश वृक्ष बनाया जो लगभग 700 ऑक्सीजन निर्माता या उपयोगकर्ता एंज़ाइम्स पर आधारित था। इससे उन्होंने प्रोटीन में उत्परिवर्तन दर पता की और इसकी मदद से एक आणविक घड़ी तैयार की ताकि यह देखा जा सके कि प्रत्येक एंज़ाइम कब विकसित हुआ था। 130 कुलों में से सिर्फ 36 कुलों के विकसित होने का समय निर्धारित किया जा सका।

नेचर इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन में शोधकर्ता बताते हैं कि 3 अरब से 3.1 अरब साल पहले ऑक्सीजन का उपयोग करने वाले सूक्ष्मजीव कुलों में अचानक उछाल आया था। इस समय 36 कुल में से 22 कुल के सूक्ष्मजीव विकसित हुए जबकि 12 कुल के सूक्ष्मजीव इसके बाद और दो कुल के सूक्ष्मजीव इसके पहले अस्तित्व में आए थे। और इन्हीं सूक्ष्मजीवों से ऐसे सूक्ष्मजीव विकसित हुए जो ऑक्सीजन का उपयोग कर भोजन से अधिक ऊर्जा हासिल करने में सक्षम थे।

यदि यह बदलाव लगभग 3 अरब साल पहले आया था तो स्पष्ट है कि ऑक्सीजन का उपयोग करने वाले जीव तुरंत ही पूरी पृथ्वी पर नहीं फैले थे, बल्कि ऑक्सीजन के उपयोग की क्षमता छोटे-छोटे इलाकों में विकसित हुई थी जो धीरे-धीरे करोड़ों सालों के दरम्यान फैलती गई।

फिर भी कुछ लोगों का कहना है कि आणविक घड़ी से काल निर्धारण का विज्ञान अभी विकसित ही हो रहा है इसलिए घटनाओं का क्रम शायद सही हो सकता है, लेकिन घटनाओं का वास्तविक समय भिन्न हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.ucsfhealth.org/-/media/project/ucsf/ucsf-health/medical-tests/hero/aerobic-bacteria-2x.jpg

एक साथ रहकर भी पक्षी दो प्रजातियों में बंटे

र्जेंटीना के आइबेरा नेशनल पार्क में पिद्दी के आकार के पक्षियों की दो लगभग समान प्रजातियां साथ-साथ रहती हैं, एक ही तरह के बीज खाती हैं और एक ही तरह के स्थानों पर घोंसले बनाती हैं। वैसे तो ये प्रजातियां आपस में सफलतापूर्वक प्रजनन कर सकती हैं। लेकिन हाल ही में शोधकर्ताओं ने पाया है कि ये प्रजातियां पीढ़ियों से आपस में प्रजनन नहीं कर रही हैं। और यह रुकावट कुछ मामूली से परिवर्तनों की वजह से है – पंखों के रंग और गीत में अंतर। यह अध्ययन आनुवंशिक रूप से काफी हद तक समान दो भिन्न प्रजातियों के बनने में व्यवहार की महत्वपूर्ण भूमिका को दर्शाता है।

आम तौर पर, नई प्रजातियां तब बनती हैं जब किसी प्रजाति की आबादी या समूह के कुछ सदस्य नदी, पर्वत श्रेणी या अन्य किसी भौतिक बाधा के चलते शेष समूह से अलग-थलग हो जाते हैं। समय के साथ, इन दोनों समूह की आनुवंशिकी में, और उनके लक्षणों और व्यवहारों में बदलाव हो जाते हैं। यदि दोनों समूह में अलगाव लंबे समय तक बना रहे तो फिर ये समूह आपस में प्रजनन करने में सक्षम नहीं होते।

लेकिन जैसा कि कैपुचिनो बीज चुगने वाले पक्षियों की इन दो प्रजातियों के मामले में देखा गया है, कभी-कभी कोई भौतिक बाधा आए बिना भी, एक साथ रहते हुए एक प्रजाति दो भिन्न प्रजातियों में बंट सकती है।

कॉर्नेल विश्वविद्यालय के वैकासिक जीव विज्ञानी लियोनार्डो कैंपगना ने लगभग 20 साल पहले स्पोरोफिला कुल के दक्षिणी कैपुचिनो बीजभक्षी पक्षियों का अध्ययन शुरू किया था। अपने अध्ययन में वे जानना चाहते थे कि कैसे ये पक्षी 10 लाख सालों से भी कम समय में एक से 10 प्रजातियों में बंट गए। वर्ष 2017 में कैंपगना और उनके साथियों ने बताया था कि कैपुचिनो बीजभक्षी की 10 प्रजातियों के बीच सबसे बड़ा आनुवंशिक अंतर उनके मेलेनिन रंजक बनाने वाले जीन्स में होता है, जिससे लगता है कि नई प्रजाति के बनने में उनके पंखों के रंग की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है।

इस अध्ययन में कैंपगना और कोलोरेडो विश्वविद्यालय की शीला टरबेक ने आइबेरा कैपुचिनो बीजभक्षी (स्पोरोफिला आइबेरैंसिस) और पीले पेट वाले कैपुचिनो बीजभक्षी (एस. हायपोक्सेंथा) पर ध्यान केंद्रित किया। इन दोनों प्रजातियों की मादाएं एकदम समान दिखती हैं। और दोनों ही प्रजातियां आइबेरा राष्ट्रीय उद्यान के एक ही हिस्से में रहती हैं, प्रजनन करती हैं, दाने चुगती हैं। इस तरह दोनों प्रजातियों के बीच आपस में संपर्क करने और संभवत: परस्पर प्रजनन करने के लिए पर्याप्त मौका है। दोनों प्रजातियों में जो मुख्य अंतर है वह यह है कि आइबेरा प्रजाति के नर के पेट का रंग रेतीला और गले का रंग काला होता है, जबकि एस. हायपोक्सेंथा प्रजाति के नर के पेट और गले का रंग लालिमा लिया पीला होता है। और दोनों प्रजाति के गीत में थोड़ा अंतर होता है।

यह देखने के लिए कि क्या वास्तव में दोनों प्रजातियां जंगल में एक-दूसरे के साथ प्रजनन नहीं करतीं, शोधकर्ताओं ने दोनों प्रजातियों के 126 पक्षियों पर पहचान चिन्ह लगाए। और इस तरह इन प्रजातियों के वयस्कों और 80 नवजातों की गतिविधियों पर नज़र रखी। हरेक पक्षी के डीएनए का नमूना भी लिया। आनुवंशिक विश्लेषण में पता चला कि वास्तव में ये दोनों प्रजातियां आपस में प्रजनन नहीं करती हैं। इससे ऐसा लगता है कि मादाएं अपने प्रजनन-साथी के चयन में किसी एक पंख या पेट के रंग और गीत को वरीयता देती हैं। और मादा के इस चयन या पसंद ने ही पक्षियों को दो अलग-अलग प्रजातियों में बांटा है।

दो प्रजातियों की एक जैसी लगने वाली मादाओं का अध्ययन करके यह पता लगाना मुश्किल है कि वे साथी का चयन किस आधार पर करती हैं। लेकिन कुछ पक्षियों पर हुए अध्ययनों में पाया गया है कि साथी चयन में मादा जिन लक्षणों को वरीयता देती हैं, उन लक्षणों का उपयोग नर अपने प्रतिद्वंद्वियों की पहचान करने में करते हैं। अक्सर, एक प्रजाति के नर को अन्य प्रजाति के नर की उपस्थिति से कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन अपनी ही प्रजाति या अपने जैसे दिखने वाले नर के साथ उनमें साथी के लिए प्रतिस्पर्धा होती है।

यह जांचने के लिए शोधकर्ताओं ने दोनों प्रजातियों के नर की तरह दिखने वाले रंगीन मॉडल बनाए। फिर इन मॉडल नरों को दोनों प्रजातियों के वास्तविक नरों को दिखाया और इन मॉडल के प्रति उनकी प्रतिक्रिया देखी। मॉडल दिखाते समय उन्होंने दोनों प्रजातियों में से कभी किसी एक प्रजाति के पक्षीगीत की रिकॉर्डिंग बजाई तो कभी दूसरी की। साइंस पत्रिका में प्रकाशित नतीजे बताते हैं कि नरों ने उन मॉडल नरों पर सबसे अधिक प्रतिक्रिया दी जिनके पक्षीगीत और पेट का रंग, दोनों उनकी अपनी प्रजाति के नर से मेल खाता था। ज़ाहिर है नर पक्षियों ने मॉडल नरों को मादा साथी के लिए प्रतिस्पर्धी के रूप में देखा।

दोनों प्रजातियों का आनुवंशिक विश्लेषण करने पर पाया गया कि उनके केवल तीन जीन क्षेत्र में कुल 12 जीन अलग थे जो उन्हें एक-दूसरे से अलग बनाते हैं। इनमें पंखों के रंग का जीन भी शामिल है। ये छोटे-छोटे आनुवंशिक और पेट के रंग के परिवर्तन कुछ मादाओं की पसंद बने, जिससे आगे जाकर दोनों प्रजातियां अलग हो गर्इं।

वैसे एक संभावना यह भी है कि आइबेरा और पीले पेट वाली कैपुचिनो बीजभक्षी प्रजातियां पूर्व में कभी किन्हीं अलग-अलग स्थानों पर विकसित हुई होंगी और केवल बाद में उनका आवास एक हो गया होगा।

देखा गया है कैपुचिनो बीजभक्षी की अन्य प्रजातियों के बीच अतीत में आपस में प्रजनन हुआ था इसलिए एक संभावना यह भी है कि अभी जो जीन संस्करण आइबेरा प्रजाति को अलग बनाता है वह उसमें पहले से मौजूद रहा हो उसके नए संयोजनों और फेरबदल से नई प्रजाति बन गई हो। ऐसे में किसी नए जीन के विकास की ज़रूरत नहीं पड़ी होगी और इसलिए इतनी जल्दी नई प्रजाति बन गई। पक्षी विज्ञानी लंबे समय से जानते हैं कि पक्षीगीत और पंखों का रंग प्रजातियों को अलग रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अब यह अध्ययन दिखाता है कि ये चीज़ें जीनोमिक स्तर पर किस तरह दिखती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.youtube.com/watch?v=-IMBpCKAwDU&t=1s

हाथी दांत से अफ्रीकी हाथी के वंशजों की कहानी – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

र्ष 2008 में नामीबिया के तट पर खनन करने वाले मजदूरों ने मिट्टी में दफन एक खजाना खोज निकाला था – एक व्यापारिक पुर्तगाली जहाज़ बोम जीसस। वर्ष 1533 में भारत की यात्रा पर निकला यह जहाज़ दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। जहाज़ में सोने-चांदी के सिक्कों के अलावा अन्य मूल्यवान सामग्री भरी थी। लेकिन पुरातत्वविदों और जीव विज्ञानियों की एक टीम के लिए तो बोम जीसस का सबसे कीमती खज़ाना था 100 से अधिक हाथी दांत, जो अफ्रीकी हाथी दांत का अब तक का सबसे बड़ा पुरातात्विक जानकारी का भंडार था।

हाथी दांत का आनुवंशिक और रासायनिक विश्लेषण करने पर हाथियों की उन नस्लों का पता लगा है जो कई अलग-अलग समूहों में पश्चिम अफ्रीका में सदियों पूर्व विचरण करते थे। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार वैज्ञानिकों का मानना है कि यह अध्ययन अफ्रीका के हाथियों की 500 वर्ष पुरानी आबादी और हाथी दांत व्यापार सम्बंधी बहुमूल्य जानकारी दे रहा है।

लगभग 500 वर्षों तक समुद्र की तलछट में दबे रहने के बावजूद हाथी दांत अविश्वसनीय रूप से अच्छी तरह से संरक्षित थे। जब जहाज़ समुद्र में डूबा तो डिब्बों में हाथी दांत के ऊपर जमी तांबे और सीसे की सिल्लियों ने हाथी दांतों को समुद्र में नीचे धकेल दिया और वे मिट्टी में धंस कर नष्ट होने से बच गए। यह भी अनुमान है कि अटलांटिक के इस क्षेत्र से ठंडा महासागरीय प्रवाह भी चलता है, जिसने डीएनए के संरक्षण में मदद की होगी।

44 हाथी दांत के डीएनए के अध्ययन में पाया गया कि ये हाथी दांत घास के मैदानों की प्रजाति (लोक्सोडोंटा अफ्रीकाना) की बजाय अफ्रीकी जंगली हाथियों (लोक्सोडोंटा साइक्लोटिस) के थे।

पहले से ज्ञात आबादियों के डीएनए से तुलना करके टीम ने निर्धारित किया कि बोम जीसस से प्राप्त हाथी दांत पश्चिम अफ्रीका में कम से कम 17 अलग-अलग आनुवंशिक समूहों के हाथियों के थे, जिनमें से केवल चार वर्तमान में मौजूद हैं। हाथी दांत में पाए गए कार्बन और नाइट्रोजन के समस्थानिकों ने इन हाथियों के आवास के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध कराई है।

भोजन और पानी के माध्यम से कार्बन और नाइट्रोजन ताउम्र हाथी दांत में जमा होते रहते हैं। कार्बन और नाइट्रोजन के विभिन्न समस्थानिकों की सापेक्ष मात्रा इस बात का संकेत है कि किसी हाथी ने अपना अधिकांश समय किसी वर्षा-वन में बिताया है या किसी शुष्क घास के मैदान में। बोम जीसस के हाथी दांत के समस्थानिकों से पता चला कि ये हाथी जंगलों और घास के मैदानों के मिश्रित प्रकार के आवास में रहते थे।

परंतु वैज्ञानिक शोध परिणाम से बहुत हैरान थे क्योंकि उनका अनुमान था कि वनों में रहने वाले हाथी 20वीं सदी में पहली बार जंगल से घास के मैदानों में आए थे। लेकिन परिणाम बता रहे थे कि अफ्रीकी हाथी तो दोनों आवासों में विचरते रहे हैं। आवास की जानकारी संरक्षण की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।

बोम जीसस से प्राप्त हाथी दांत 16वीं शताब्दी में अफ्रीकी महाद्वीप से हाथी दांत के व्यापार की तस्वीर चित्रित करते हैं। लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि पुर्तगाली जहाज़ पर लादे गए ये हाथी दांत विभिन्न बंदरगाहों से आए थे या किसी एक ही जगह से। भविष्य में ऐतिहासिक बंदरगाह वाले स्थानों से प्राप्त प्रमाण हाथी आवास की जानकारी के रहस्य को सुलझाने में मदद कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.archaeology.wiki/wp-content/uploads/2020/12/elephant.jpg