कार्बन चोर सूक्ष्मजीव

दुनिया पृथ्वी की सतह के नीचे भी सूक्ष्मजीवों का एक संसार बसता है। हाल ही में हुआ एक अध्ययन बताता है कि इनमें से कुछ सूक्ष्मजीव पृथ्वी के अंदर जाकर ज़ब्त होने वाले कार्बन में से काफी मात्रा में कार्बन चुरा लेते हैं और नीचे के प्रकाश-विहीन पर्यावरण में र्इंधन के रूप में उपयोग करते हैं। सूक्ष्मजीवों की इस करतूत का परिणाम काफी नकारात्मक हो सकता है। जो कार्बन पृथ्वी की गहराई में समा जाने वाला था और कभी वापस लौटकर वायुमंडल में नहीं आता, वह इन सूक्ष्मजीवों की वजह से कम गहराई पर ही बना रह जाता है। यह भविष्य में वायुमंडल में वापस आ सकता है और पृथ्वी का तापमान बढ़ा सकता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि पृथ्वी की गहराई में चल रहे कार्बन चक्र को समझने में अब तक इन सूक्ष्मजीवों की भूमिका अनदेखी रही थी।

वैसे तो मानव-जनित कार्बन डाईऑक्साइड पृथ्वी के भावी तापमान में निर्णायक भूमिका निभाएगी लेकिन पृथ्वी में एक गहरा कार्बन चक्र भी है जिसकी अवधि करोड़ों साल की होती है। दरअसल, धंसान क्षेत्र में पृथ्वी की एक प्लेट दूसरी प्लेट के नीचे धंसती हैं और पृथ्वी के मेंटल में पहुंचती हैं। धंसती हुई प्लेट अपने साथ-साथ कार्बन भी पृथ्वी के अंदर ले जाती हैं। यह लंबे समय तक मैंटल में जमा रहता है। इसमें से कुछ कार्बन ज्वालामुखी विस्फोट के साथ वापस वायुमंडल में आ जाता है। लेकिन पृथ्वी के नीचे पहुंचने वाला अधिकतर कार्बन वापस नहीं आता, और क्यों वापस नहीं आता यह पूरी तरह से स्पष्ट नहीं था।

2017 में कोस्टा रिका के 20 विभिन्न गर्म सोतों से निकलने वाली गैसों और तरल का अध्ययन करते समय युनिवर्सिटी ऑफ टेनेसी की सूक्ष्मजीव विज्ञानी केरेन लॉयड और उनके साथियों ने पाया था कि पृथ्वी के नीचे जाने वाली कुछ कार्बन डाईऑक्साइड चट्टानों में बदल जाती है, जो मैंटल की गहराई तक कभी नहीं पहुंचती और वापस वायुमंडल में भी नहीं आती। ये सोते उस धंसान क्षेत्र से 40 से 120 किलोमीटर ऊपर स्थित है जहां कोकोस प्लेट सेंट्रल अमेरिका के नीचे धंस रही है। इसके अलावा उन्हें यह भी संकेत मिले थे कि जितनी कार्बन डाईऑक्साइड चट्टान में बदल रही है उससे अधिक कार्बन डाईऑक्साइड कहीं और रिस रही है।

नमूनों का बारीकी से विश्लेषण करने पर शोधकर्ताओं ने ऐसी रासायनिक अभिक्रियाओं के संकेत पाए हैं जिन्हें केवल सजीव ही अंजाम देते हैं। उन्हें नमूनों में कई ऐसे बैक्टीरिया मिले हैं जिनमें इन रासायनिक अभिक्रियाओं को अंजाम देने वाले आवश्यक जीन मौजूद हैं। नमूनों से प्राप्त कार्बन समस्थानिकों के अनुपात से पता चलता है कि सूक्ष्मजीव इन धंसती प्लेटों से कार्बन डाईऑक्साइड चुरा लेते हैं और इसे कार्बनिक कार्बन में बदलकर इसका उपयोग करके फलते-फूलते हैं।

नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार सिर्फ कोस्टा रिका के नीचे रहने वाले सूक्ष्मजीव हज़ारों ब्लू व्हेल के द्रव्यमान के बराबर कार्बन प्रति वर्ष चुरा लेते हैं, जो कभी न कभी वापस वायुमंडल में पहुंच जाएगा और पृथ्वी का तापमान बढ़ाएगा। हालांकि अभी इन नतीजों की पुष्टि होना बाकी है, लेकिन यह अध्ययन भविष्य में पृथ्वी के तापमान में होने वाली वृद्धि में सूक्ष्मजीवों की भूमिका को उजागर करता है और ध्यान दिलाता है कि यह पृथ्वी के तापमान सम्बंधी अनुमानों को प्रभावित कर सकती है।

इसके अलावा शोधकर्ताओं को वे सूक्ष्मजीव भी मिले हैं जो कार्बन चुराने वाले बैक्टीरिया के मलबे पर निर्भर करते हैं। शोधकर्ता यह भी संभावना जताते हैं कि कोस्टा रिका के अलावा इस तरह की गतिविधियां अन्य धंसान क्षेत्रों के नीचे भी चल रही होंगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अमेरिकी शहद में परमाणु बमों के अवशेष

हाल ही में हुए एक अध्ययन के अनुसार लगभग पांच दशक पूर्व किए परमाणु बम परीक्षणों के अवशेष आज भी दिखाई दे रहे हैं। शोधकर्ताओं ने शहद में रेडियोधर्मी तत्व मौजूद पाया है। हालांकि शहद में रेडियोधर्मी तत्व का स्तर खतरनाक नहीं है, लेकिन अंदाज़ है कि 1970-80 के दशक में यह स्तर काफी अधिक रहा होगा।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, संयुक्त राज्य अमेरिका, पूर्व सोवियत संघ और अन्य कई देशों ने सैकड़ों परमाणु बम परीक्षण धरती की सतह पर किए थे। इन बमों से रेडियोधर्मी सीज़ियम निकला और ऊपरी वायुमंडल में पहुंचा। हवाओं ने इसे दुनिया भर में फैलाया, हालांकि हर जगह यह एक समान मात्रा में नहीं फैला था। उदाहरण के लिए, क्षेत्रीय हवाओं और वर्षा के पैटर्न के कारण अमेरिका के पूर्वी तट पर बहुत अधिक रेडियोधर्मी कण पहुंचे।

रेडियोधर्मी सीज़ियम पानी में घुलनशील है, और चूंकि इसके रासायनिक गुण पोटेशियम के समान हैं इसलिए पौधे इसे पोटेशियम मानकर उपयोग कर लेते हैं। यह देखने के लिए कि क्या अब भी पौधों में यह परमाणु संदूषण पहुंच रहा है, विलियम एंड मैरी कॉलेज के भूविज्ञानी जेम्स कास्ट ने विभिन्न स्थानों के स्थानीय खाद्य पदार्थों में रेडियोधर्मी सीज़ियम की जांच की।

उत्तरी कैरोलिना से लिए गए शहद के नमूनों के परिणाम आश्चर्यजनक थे। उन्हें इस शहद में रेडियोधर्मी सीज़ियम का स्तर अन्य खाद्य पदार्थों की तुलना में 100 गुना अधिक मिला। यह जानने के लिए कि क्या पूर्वी यूएस में मधुमक्खियां पौधों से मकरंद लेकर शहद बना रही हैं, और सीज़ियम का सांद्रण कर रही हैं, उनकी टीम ने पूर्वी यूएस के विभिन्न स्थानों से शहद के 122 नमूने एकत्रित किए और उनमें रेडियोधर्मी सीज़ियम का मापन किया। उन्हें 68 नमूनों में प्रति किलोग्राम 0.03 बेकरेल से अधिक रेडियोधर्मी सीज़ियम मिला (यानी लगभग एक चम्मच शहद में 8,70,000 रेडियोधर्मी सीज़ियम परमाणु)। सबसे अधिक (19.1 बेकरेल प्रति किलोग्राम) रेडियोधर्मी सीज़ियम फ्लोरिडा से प्राप्त नमूने में मिला।

नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित शोध पत्र के मुताबिक परमाणु बम परीक्षण स्थल से हज़ारों किलोमीटर दूर और बम परीक्षण के 50 साल बाद तक रेडियोधर्मी तत्व पौधों और जानवरों के माध्यम से पर्यावरण में घूम रहा है। हालांकि अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन ने स्पष्ट किया है यह स्तर चिंताजनक नहीं है। यह सुरक्षित स्तर (1200 बेकरेल प्रति किलोग्राम) से बहुत कम है।

समय के साथ रेडियोधर्मी तत्वों की मात्रा कम होती जाती है। इसलिए भले ही वर्तमान में रेडियोधर्मी सीज़ियम का स्तर कम है, लेकिन पूर्व में यह स्तर काफी अधिक रहा होगा। पूर्व में यह मात्रा कितनी होगी यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने दूध के नमूनों में सीज़ियम का स्तर मापा, और संग्रहालय में रखे पौधों के नमूनों का विश्लेषण किया। शोधकर्ताओं ने पाया कि 1960 के दशक के बाद से दोनों तरह के नमूनों में रेडियोधर्मी सीज़ियम का स्तर बहुत कम हुआ है, और कमी आने की यही प्रवृत्ति शहद में भी रही होगी। अनुमान है कि 1970 के दशक में शहद में सीज़ियम का स्तर मौजूदा स्तर से 10 गुना अधिक रहा होगा। सवाल उठता है कि पिछले 50 सालों में रेडियोधर्मी सीज़ियम ने मधुमक्खियों को किस तरह प्रभावित किया होगा? कीटनाशकों के अलावा अन्य मानव जनित प्रभाव भी इनके अस्तित्व को खतरे में डाल सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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जैव विविधता संरक्षण में मनुष्यों का योगदान

जैव विविधता को बचाने के लिए 1960 के दशक से ही संरक्षणवादी एक मानक समाधान देते आए हैं – प्राकृतिक क्षेत्रों को मानव दखल से बचाया जाए। लेकिन हाल ही में हुआ अध्ययन संरक्षणवादियों के इस मिथक को तोड़ता है और पिछले 12,000 सालों के दौरान मनुष्यों द्वारा भूमि उपयोग के विश्लेषण के आधार पर बताता है कि मनुष्यों ने नहीं बल्कि संसाधनों के अति दोहन ने जैव विविधता को खतरे में डाला है। अध्ययन के अनुसार 12,000 साल पूर्व भी भूस्थल का मात्र एक चौथाई हिस्सा मनुष्यों से अछूता था जबकि वर्तमान में 19 प्रतिशत है। हज़ारों वर्षों से स्थानीय या देशज लोगों और उनकी कई पारंपरिक प्रथाओं ने जैव विविधता का संरक्षण करने के साथ-साथ उसे बढ़ाने में मदद की है।

यह जानने के लिए कि इन्सानों ने जैव विविधता को कैसे प्रभावित किया है, दुनिया भर के विश्वविद्यालयों के शोधकर्ताओं के दल ने एक मॉडल तैयार कर अतीत के भूमि उपयोग का अंदाज़ा लगाया। मॉडल में उन्होंने वर्तमान भूमि उपयोग के पैटर्न को चित्रित किया – जिसमें उन्होंने जंगली इलाके, कृषि भूमि, शहर और खदानों को दर्शाया। फिर इसमें उन्होंने पूर्व और वर्तमान की जनसंख्या के आंकड़े भी शामिल किए। पिछले 12,000 वर्षों के दौरान 60 विभिन्न समयों पर मनुष्यों द्वारा भूमि उपयोग किस तरह का था, यह पता लगाने के लिए उन्होंने मॉडल में पुरातात्विक डैटा भी जोड़ा। इन जानकारियों के साथ उन्होंने रीढ़धारी जीवों की विविधता, विलुप्तप्राय प्रजातियां और संरक्षित क्षेत्र और सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त देशज निवासी क्षेत्र सम्बंधी वर्तमान आंकड़े रखकर विश्लेषण किया।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस में शोधकर्ता बताते हैं कि 12,000 साल पहले पृथ्वी का लगभग एक-चौथाई हिस्सा ही मनुष्यों से अछूता था, यानी अधिकतर उन जगहों पर मनुष्यों का दखल था जिन्हें संरक्षणवादी आज ‘प्राकृतिक’, ‘अछूता’ या ‘जंगली’ भूमि कहते हैं। दस हज़ार साल पहले तक 27 प्रतिशत भूमि मनुष्यों से अछूती थी, और अब 19 प्रतिशत भूमि मनुष्यों से अछूती है। उन्होंने यह भी पाया कि प्राचीन मनुष्यों ने जैव विविधता हॉट-स्पॉट को संरक्षित करने में ही नहीं बल्कि इन हॉट-स्पॉट को बनाने में भी भूमिका निभाई है।

यह अध्ययन इस धारणा को तोड़ता है कि प्रकृति मनुष्यों से मुक्त होनी चाहिए। अध्ययन में देखा गया कि विगत 12,000 वर्षों तक भूमि उपयोग काफी हद तक स्थिर रहा था, लेकिन 1800 से 1950 के दौरान इसमें तेज़ी से परिवर्तन हुए। जैसे सघन कृषि होने लगी, शहरीकरण बढ़ा, बड़े पैमाने पर खनन कार्य हुए, और वनों की अंधाधुंध कटाई होने लगी।

मानव विज्ञानियों और पुरातत्वविदों का कहना है कि हमारे लिए ये नतीजे कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यह तो हम पहले से ही जानते हैं कि जंगल जलाकर खेती जैसे कार्य कर मनुष्य सदियों से भूमि प्रबंधन कर रहे हैं। देशज निवासियों के अधिकारों के संरक्षण अभियान, सर्वाइवल इंटरनेशनल, के प्रमुख फियोर लोंगो इन नतीजों पर सहमति जताते हुए कहते हैं कि यह अध्ययन हमारी उस बात की पुष्टि करता है जो हम वर्षों से कहते आए हैं – जंगलों को निर्जन रखे जाने की धारणा एक औपनिवेशिक और नस्लवादी मिथक है जिसके पीछे कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, और इस धारणा का उपयोग अन्य लोग अक्सर इन भूमियों को हड़पने के लिए करते हैं।

लेकिन मानव विज्ञानी कहते हैं कि हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि हर मूल निवासी या स्थानीय समूह जैव विविधता कायम नहीं रखता। जैसे कुछ प्राचीन लोगों के कारण ही मैमथ और प्रशांत द्वीप के उड़ान रहित पक्षी विलुप्त हो गए। लेकिन यह बात भी उतनी ही सच है कि अन्य लोगों की तुलना में स्थानीय लोग प्रकृति का बहुत अच्छे से ख्याल रखते हैं और संरक्षक की भूमिका निभाते हैं। यदि स्थानीय लोगों की प्रथाएं जैव विविधता के लिए सकारात्मक या हितकारी हैं, तो विलुप्त होती प्रजातियों को बचाने के लिए हमें उन लोगों को जंगलों से बेदखल करने की ज़रूरत नहीं है। बल्कि हमें उनकी भूमि को संरक्षित करने के लिए इन लोगों को सशक्त बनाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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पृथ्वी पर कुल कितने टी. रेक्स हुए?

जुरासिक पार्क फिल्म ने टी. रेक्स को घर-घर में पहुंचा दिया लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि कुल मिलाकर कितने टायरेनोसॉरस रेक्स (टी. रेक्स) पृथ्वी पर हुए होंगे? साइंस पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन बताता है कि 20 लाख सालों के अस्तित्व के दौरान कुल मिलाकर तकरीबन ढाई अरब टी. रेक्स इस पृथ्वी पर रहे होंगे।

यह तो हम जानते ही हैं कि टी. रेक्स के जीवाश्म दुर्लभ हैं, लेकिन सवाल था कि कितने दुर्लभ? और यह पता लगाने के लिए यह पता होना ज़रूरी है कि वास्तव में पृथ्वी पर कितने टी. रेक्स जीवित रहे थे।

इसलिए कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के जीवाश्म विज्ञानी चार्ल्स मार्शल और उनके साथियों ने पहले क्रेटेशियस काल के दौरान पृथ्वी रहने वाले टी. रेक्स की संख्या पता लगाई। ऐसा उन्होंने आधुनिक जीवों की गणना के लिए इस्तेमाल की जाने वाली विधि की मदद से किया। इसमें किसी जीव के शरीर के द्रव्यमान और जिस भौगोलिक क्षेत्र में वे रहते हैं उसके फैलाव के आधार पर उनके जनसंख्या घनत्व का अनुमान लगाया जाता है। पारिस्थितिकी के डेमथ के नियम के अनुसार किसी जीव के शरीर का द्रव्यमान जितना अधिक होगा, उस प्रजाति का औसत जनसंख्या घनत्व उतना कम होगा। यानी जितना बड़ा जानवर होगा, कुल संख्या उतनी ही कम होगी। जैसे, किसी एक क्षेत्र में चूहों की तुलना में हाथी कम संख्या में होंगे।

शोधकर्ताओं ने पहले तो वर्तमान उत्तरी अमेरिका में टी. रेक्स के कुल फैलाव क्षेत्र का अनुमान लगाया, फिर इन आंकड़ों को टी. रेक्स के शरीर के द्रव्यमान के साथ रखकर गणना की और पाया कि किसी एक कालखंड में लगभग 20,000 टी. रेक्स पृथ्वी पर जीवित रहे होंगे। यानी उस कालखंड में कैलिफोर्निया के बराबर क्षेत्र में लगभग 3800 टी. रेक्स रहे होंगे, या वाशिंगटन डीसी बराबर क्षेत्र में महज़ दो टी. रेक्स विचरण करते होंगे।

गणना कर उन्होंने पाया कि विलुप्त हो चुके टी. रेक्स की लगभग 1,27,000 पीढ़ियां पृथ्वी पर जीवित रही थीं। इस आधार पर उन्होंने अनुमान लगाया कि पूरे अस्तित्व काल के दौरान पृथ्वी पर लगभग ढाई अरब टी. रेक्स थे। और इनमें से केवल 32 वयस्क टी. रेक्स अश्मीभूत अवस्था में मिले हैं; यानी आठ करोड़ टी. रेक्स में से सिर्फ एक टी. रेक्स जीवाश्म मिला है। इससे पता चलता है कि अश्मीभूत होने की संभावना बहुत कम है, यहां तक कि बड़े मांसाहारी जीवों के लिए भी।

आंकड़े के अनुसार जीवाश्म मिलना दुर्लभ है। जब टी. रेक्स जैसे अधिक संख्या में पाए जाने वाले जीवों के जीवाश्म इतनी कम संख्या में हैं तो वे प्रजातियां जो टी. रेक्स की तुलना में बहुत कम संख्या में रही होंगी वे तो शायद ही संरक्षित हो पाई होंगी। और पूर्व में पृथ्वी पर क्या था उसका एकदम सीधा प्रमाण तो जीवाश्म ही देते हैं।

अन्य शोधकर्ताओं का सुझाव है कि जीवित प्रजातियों पर इस तरह की गणना करके देखना चाहिए कि ये अनुमान कितने सटीक हैं। इसके अलावा, मैमथ, निएंडरथल और खूंखार भेड़ियों जैसी विलुप्त प्रजातियों, जिनके जीवाश्म प्रचुरता से उपलब्ध हैं, उनका तुलनात्मक अध्ययन करके पूर्व के पारिस्थितिक तंत्र को भी बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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टेरोसौर की गर्दन को स्पोक का सहारा

गभग 10 करोड़ साल पहले आधुनिक समय के मोरक्को में विशालकाय उड़ने वाले सरीसृप, टेरोसौर, रहा करते थे। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि बड़े जबड़े और जिराफ जैसी सुराहीदार गर्दन वाले टेरोसौर का भोजन मछली, छोटे स्तनधारी और शिशु डायनासौर होते थे। लेकिन यह एक पहेली थी कि उनकी गर्दन अपने भारी-भरकम शिकार का वज़न उठाते चटकती क्यों नहीं थी। अब, एक नए अध्ययन में पता चला है कि उनकी हड्डियों के अंदर स्पोकनुमा जटिल संरचना होती थी जो गर्दन को मज़बूती और स्थिरता प्रदान करती थी।

मोरक्को और अल्जीरिया की सीमा के पास जीवाश्मों से समृद्ध स्थल केम केम क्यारियों में लगभग 10 करोड़ वर्ष पुराना टेरोसौर का एक जीवाश्म मिला था, जो काफी अच्छी तरह संरक्षित था। इसे अज़दारचिड टेरोसौर नाम दिया गया। ये टेरोसौर पृथ्वी पर रहे विशालकाय उड़ने वाले जीवों में से थे। इनके पंख 8 मीटर लंबे और गर्दन 1.5 मीटर लंबी थी। वैज्ञानिकों के बीच हमेशा यह सवाल रहा कि इतनी असामान्य शरीरिक रचना के साथ टेरोसौर किस तरह शिकार करते होंगे, चलते और उड़ते होंगे?

युनिवर्सिटी ऑफ पोर्ट्समाउथ के जीवाश्म विज्ञानी निज़ार इब्रााहिम और उनके साथियों ने अज़दारचिड टेरोसौर की रीढ़ की हड्डी की आंतरिक संरचना का अध्ययन किया। एक्स-रे कम्प्यूटेड टोमोग्राफी और 3-डी मॉडलिंग करने पर उन्होंने पाया कि उनकी रीढ़ की हड्डी में दर्जनों एक-एक मिलीमीटर मोटी कीलनुमा रचनाएं (ट्रेबिकुले) थीं। इन कीलों की जमावट एक-दूसरे को क्रॉस करते हुए इस तरह थी जिस तरह साइकिल के पहिए के स्पोक होते हैं। और ये रचनाएं रीढ़ की हड्डी में केंद्रीय नलिका को घेरे हुए थीं।

गणितीय मॉडलिंग कर शोधकर्ताओं ने जांचा कि क्या वास्तव में ये स्पोकनुमा रचनाएं हड्डियों को अतिरिक्त सहारा देती होंगी। iScience पत्रिका में शोधकर्ता बताते हैं कि कम से कम 50 ट्रेबिकुले रीढ़ की हड्डी की वज़न सहन करने की क्षमता को दुगना कर देते हैं। शोधकर्ता यह भी बताते हैं कि उक्त टेरोसौर की गर्दन 9 से 11 किलोग्राम तक का वज़न उठा सकती थी।

शिकार को पकड़ने और उठाने में सहायता करने के अलावा ये स्पोकनुमा रचनाएं टेरोसौर की गर्दन को उड़ान के दौरान पड़ने वाले तेज़ हवाओं के थपेड़ों का सामना करने और प्रतिद्वंदी नर साथी के प्रहार झेलने में भी मदद करती थीं।

वैज्ञानिकों का यह अनुमान तो था कि अज़दारचिड टेरोसौर बड़े शिकार पकड़ सकते थे लेकिन हड्डी की आंतरिक संरचना की जानकारी का उपयोग कर इस परिकल्पना की पुष्टि पहली बार की गई है। अन्य शोधकर्ताओं का सुझाव है कि अन्य टेरोसौर की गर्दन की हड्डियों का अध्ययन करके इन नतीजों की पुष्टि की जानी चाहिए।

उक्त शोधकर्ता भी यही करना चाहते हैं लेकिन दिक्कत यह है कि टेरोसौर की हड्डियों के भलीभांति सुरक्षित जीवाश्म दुर्लभ हैं। बहरहाल, शोधकर्ताओं का इरादा है कि महामारी खत्म होने के बाद जीवाश्मों से समृद्ध स्थलों पर ऐसे जीवाश्म तलाश करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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तितलियां कपास का अतिरिक्त परागण करती हैं

ह तो हम सब जानते हैं कि मधुमक्खियां बहुत ही अच्छी परागणकर्ता होती हैं। बादाम और सेब जैसी फसलों के लिए वे परागणकर्ता के रूप में बहुत महत्वपूर्ण भी हैं। लेकिन जब कपास की फसल की बात आती है तो इसमें तितलियां अप्रत्याशित भूमिका निभाती हैं। हाल ही में हुआ एक अध्ययन बताता है कि मधुमक्खियां कपास के जिन फूलों पर नहीं जातीं, उन फूलों पर अन्य प्रकार के कीट और तितलियों के जाने से अमेरिका के टेक्सास प्रांत में ही प्रति वर्ष कपास की फसल में लगभग 12 करोड़ डॉलर का अतिरिक्त उत्पादन होता है।

तितलियां मधुमक्खियों की तरह अधिक संख्या में नहीं पाई जातीं और न ही वे उनकी तरह पराग इकट्ठा करने का प्रयास करती हैं। मधुमक्खियों का शरीर रोएंदार होता है जिन पर परागकण आसानी से चिपककर एक फूल से दूसरे तक पहुंच जाते हैं। दूसरी ओर, तितलियों के पैर पतले और लंबे होते हैं जो शायद ही कभी फूल के परागकोश से टकराते हैं। इसलिए जब भी परागण की बात आती है तो मकरंद पान करने वाली तितलियों को परागणकर्ता के रूप में नहीं देखा जाता।

युनिवर्सिटी ऑफ वरमॉन्ट की सारा कसर देखना चाहती थीं कि आवास और परागणकर्ता में विविधता किस तरह कृषि में योगदान देती है। उन्होंने नौ हैक्टर के कपास के खेत का तीन साल की अवधि में तीन बार अवलोकन किया और देखा कि कपास के फूलों का परागण करने में कौन-कौन से कीट शामिल हैं। किसी फूल पर किसी भी कीट के बैठते समय उन्होंने उसे नेट की मदद से पकड़ा और एथेनॉल से भरी शीशी में एकत्रित किया। इस तरह उन्होंने कुल 2444 कीट पकड़े और उनका अध्ययन किया। जैसी कि उम्मीद थी इन कीटों में अधिकतर परागणकर्ता तो मधुमक्खियां ही थीं। लेकिन इनके अलावा वहां की एक देशज मक्खी के साथ अन्य तरह की मक्खियां और तितलियां भी परागण करती पाई गर्इं। उन्होंने मधुमक्खियों की 40 प्रजातियां, मक्खियों की 16 प्रजातियां और तितलियों की 18 प्रजातियां परागणकर्ता के रूप में पहचानी।

कसर ने यह भी पाया कि विभिन्न तरह के परागणकर्ता फूलों पर दिन के अलग-अलग समय आते हैं। मक्खियां फूलों पर सबसे पहले और सुबह जल्दी आती हैं, संभवत: इसलिए कि वे खेतों में ही रहती हैं। उसके बाद फूलों पर तितलियां आती हैं। और जब दिन में अधिक गर्मी पड़ने लगती है तब मधुमक्खियां आती हैं। परागणकर्ताओं का फूलों पर आने का समय मायने रखता है क्योंकि कपास का फूल कुछ ही घंटों के लिए परागण योग्य होता है, और सूर्यास्त के साथ ही वह कुम्हला जाता है।

कसर ने यह भी पता लगाया कि विभिन्न परागणकर्ता कपास के पौधे के किन अलग-अलग भागों पर जाते हैं। उन्होंने पाया कि मधुमक्खियां भीतर की ओर (मुख्य तने के पास) खिले फूलों पर जाती हैं जबकि मक्खियां और तितलियां बाहर की ओर खिले फूलों पर जाती हैं। एग्रीकल्चर, इकोसिस्टम एंड एनवायरमेंट पत्रिका में प्रकाशित नतीजों के अनुसार मक्खियों और तितलियों की फूलों पर जाने की इस वरीयता और योगदान के कारण लगभग 50 प्रतिशत अधिक फूलों का परागण होता है।

मुख्य परागणकर्ता के अलावा अन्य कीटों द्वारा परागण करना परागण पूरकता कहलाता है। और परागण पूरकता सिर्फ कपास में ही नहीं बल्कि अन्य फसलों में भी पाई जाती है। बादाम के बागानों में जंगली मधुमक्खियां और पालतू मधुमक्खियां दोनों पेड़ के अलग-अलग हिस्से पर जाती हैं।

यह तो सही है कि परागण का अधिकांश काम मधुमक्खियां ही करती हैं लेकिन तितलियों और अन्य परागणकर्ताओं की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। कपास में लगभग 66 प्रतिशत परागण मधुमक्खियों द्वारा होता है लेकिन तितलियां और मक्खियां सिर्फ टेक्सास में कपास की फसल में प्रति वर्ष लगभग 12 करोड़ डॉलर का अतिरिक्त योगदान देती हैं। कसर को उम्मीद है कि ये निष्कर्ष किसानों को उपेक्षित परागणकर्ताओं और उनके आवास को संरक्षित करने के लिए प्रेरित करेंगे।

लोग तितलियों को इसलिए महत्व देते हैं क्योंकि वे सुंदर और आकर्षक लगती हैं, लेकिन कृषि में परागणकर्ता के रूप में भी वे महत्वपूर्ण हो सकती हैं। यदि ऐसे ही परिणाम अन्य फसलों में भी दिखे तो महत्वपूर्ण परागणकर्ताओं की सूची में तितलियां भी शामिल हो जाएंगी। (स्रोत फीचर्स)

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पृथ्वी का विशालतम जीव – डॉ. किशोर पंवार, भरत नागेश

पने तरह-तरह के जीव-जंतु देखे होंगे या इनके बारे में सुना होगा – अति सूक्ष्म जीवाणु से लेकर विशालकाय नीली व्हेल तक। पर यहां जिस जीव की बात करेंगे, आपने शायद ही कभी उसके बारे में सुना होगा। यदि हम आपसे प्रश्न करें कि इस पृथ्वी का सबसे बड़े जीव कौन है, तो आपकी जानकारी के अनुसार इसका उत्तर जिराफ, हाथी या ब्लू व्हेल या फिर सिकोया पेड़ होगा।

ब्लू व्हेल समुद्र में पाई जाती है जिसकी लंबाई लगभग 30 मीटर तथा वज़न 173 टन तक हो सकता है। यह संसार का सबसे बड़ा स्तनधारी जीव है। इसी तरह सिकोया पेड़ है जो उत्तरी अमेरिका में पाया जाता है, इसकी लंबाई लगभग 115 मीटर तथा चौड़ाई 10 मीटर तक हो सकती है। यह संसार का सबसे लंबा पेड़ है। लेकिन आश्चर्य की बात है कि ये दोनों ही पृथ्वी के विशालतम जीवों में से नहीं है। तो फिर कौन है?

आपके मन में यह सवाल भी आ रहा होगा कि विशालतम जीव का निर्धारण कैसे किया जाता है? इसके निर्धारण को लेकर वैज्ञानिक समुदाय में कुछ मतभेद हैं फिर भी कुछ पहलुओं के आधार पर इसका निर्धारण संभव है। जैसे, किसी जीव का परिमाप, क्षेत्रफल, लंबाई, ऊंचाई। यहां तक कि जीनोम के आकार के द्वारा भी इसका निर्धारण किया जा सकता है। चींटियों और मधुमक्खियों जैसे कुछ जीव साथ मिलकर सुपरऑर्गेनिज़्म का निर्माण करते हैं। लेकिन ये एकल जीव नहीं हैं। दी ग्रेट बैरियर रीफ दुनिया की सबसे बड़ी संरचना है जो 2000 किलोमीटर तक फैली है लेकिन इसमें कई प्रजातियों के जीव हैं।

वज़न के हिसाब से इस पृथ्वी का सबसे बड़ा ज्ञात जीव है – पंडो। शुद्ध वज़न के मामले में पंडो सबसे ऊपर है। पंडो का लैटिन भाषा में मतलब ‘I Spread’  (यानी मैं फैलता हूं) है। इसे ट्रेम्बलिंग जाएंट (कंपायमान दैत्य) या एस्पेन के नाम से भी जाना जाता है। पंडो संयुक्त राज्य अमेरिका के दक्षिण मध्य ऊटा में कोलेरैडो पठार के पश्चिम छोर पर फिशलेक राष्ट्रीय उद्यान में है। लेकिन आप यदि इस जीव के बारे में पढ़े बिना इसे खोजने जाएंगे तो ढूंढना थोड़ा मुश्किल होगा क्योंकि यह एक पेड़ है। एक पेड़ को ढूंढना इतना मुश्किल क्यों है? तो आपको बता दें कि यह पेड़ देखने में एक जंगल के समान ही है। लेकिन वैज्ञानिक दृष्टि से पंडो एक पेड़ है जिसके क्लोनों के समुदाय 5 किलोमीटर तक फैले हो सकते हैं। आनुवंशिक शोधकर्ताओं द्वारा इसे एकल जीव के रूप में चिंहित किया गया है। यह लगभग 108 एकड़ में फैला है जिसका वजन लगभग 6000 टन (60,00,000 कि.ग्रा.) हो सकता है। यह सबसे बड़े विशालकाय सिकोया पेड़ से लगभग 5 गुना अधिक और लगभग पूरी तरह से विकसित 45 ब्लू व्हेल के बराबर है।

पंडो (Populus tremuloids) की पहचान 1976 में जेरी केम्परमैन और बर्टन बार्न्स ने की थी। माइकल ग्रांट, जेफरी लिटन और कोलेरैडो विश्वविद्यालय के यिन लिनहार्ट ने 1992 में क्लोन्स की फिर से जांच की और इसे पंडो नाम दिया। साथ ही वज़न के लिहाज़ से दुनिया का सबसे बड़ा जीव होने का दावा किया। ऐसा माना जाता है कि पंडो की शुरुआत एक बीज से हुई थी। यह लगभग 14,000 साल या उससे भी पहले की बात है। हालांकि इसकी उम्र का सही-सही अनुमान लगा पाना कठिन है। कुछ जगह इसकी उम्र  50,000-60,000 वर्ष भी बताई गई है। पंडो आनुवंशिक रूप से नर है जिसमें एक अलग जड़ तंत्र होता है जो आपस में जुड़ा हुआ होता है। वैज्ञानिक नहीं जानते कि क्लोन में बड़े पैमाने पर पेड़ कैसे जुड़े हैं। एक बार पौधे जब एक निश्चित उम्र तक पहुंच जाते हैं, तो वे अपने जड़ तंत्र को अलग कर सकते हैं। ऊटा विश्वविद्यालय की कैरन मॉक बताती हैं कि साझा आनुवंशिकी के कारण, अलग होने वाले पेड़ों में अभी भी एक जैसे गुणधर्म हैं। जैसे कि कलियों का एक समय में खिलना और पत्तियों का विशेष परिस्थिति होने पर एक ही समय में मुड़ना।

इसका जड़ तंत्र कई हज़ार साल पुराना माना जाता है। सभी क्लोन जड़ों की एक साझा प्रणाली के ज़रिए एक पेड़ द्वारा एकत्रित ऊर्जा या पानी को इस जड़ तंत्र के द्वारा सभी पेड़ साझा करते हैं। पंडो में अपने जड़ तंत्र के माध्यम से अलैंगिक रूप से आनुवंशिक रूप से समान संतानें उत्पन्न करने की अद्भुत क्षमता है।

पंडो देखने में खूबसूरत होता है। इसके सभी क्लोन लगभग समान ऊंचाई के हैं। शरद ऋतु में पंडो अपने पीले-सुनहरे रंग के लिए जाने जाते हैं। ऊटा ने 2014 में पंडो को अपने राज्य का अधिकारिक पेड़ बनाया। इसकी छाल सफेद-भूरे रंग की होती है जिसमें मोटे काले आड़े निशान और गांठें होती हैं। ये निशान एल्क (एक प्रकार का बारहसिंहा) द्वारा बनाए गए संकेत हैं जो दांतों द्वारा एस्पेन की छाल को छीलने से बने हैं। पंडो की पत्तियां गोल होती हैं और तनों पर विशिष्ट तरीके से जुड़ी हुई होती हैं। जब हवा इन पत्तियों को छूकर गुज़रती है तो वे विशिष्ट तरीके से हिलती-डुलती हैं।

लेकिन इस ग्रह का विशालतम जीव आज मरने की कगार पर है। इसके कुछ कारण ज्ञात हैं तो कुछ अज्ञात। रोग, जलवायु परिवर्तन और जंगल में लगी आग ने पंडो पर बहुत ही बुरा प्रभाव डाला है। परंतु गिरावट का मूल कारण बहुत ही आश्चर्यजनक है। बहुत सारे शाकाहारी जानवर (खच्चर, हिरण, एल्क) पंडो के बीच घूमते रहते हैं। परन्तु इनकी बढ़ती जनसंख्या सबसे बड़ा खतरा बन गई है। इन जानवरों ने नई निकल रही कोपलों तथा युवा तनों को तेज़ी से खाना प्रारंभ कर दिया है, जिसके कारण नए क्लोनों की संख्या घट रही है। पंडो पर शोध करने वाले रॉजर्स कहते हैं कि पुराने पेड़ के लगभग 47,000 तने लगभग 70 प्रतिशत मृत हैं या तेज़ी से अपने अंत के करीब हैं। अमेरिकी वन सेवा के निकोलस मास्टो कहते हैं कि पंडो के नए तने खच्चर, हिरण एवं एल्क के लिए स्वादिष्ट भोजन हैं। पंडो के पास अपना सुरक्षा तंत्र भी है – यदि पंडो खुद को खतरे में पाता है तो वह अपने रसायनों को बदल सकता है और अधिक अंकुरण कर सकता है। विपरीत परिस्थितियों में एस्पेन एक रसायन का उत्पादन करने में सक्षम होते हैं जो हिरणों के लिए अपने तनों के स्वाद को खराब करते हैं जो चराई के खिलाफ एक सुरक्षा है। शाकाहारी जानवरों से पंडो की सुरक्षा के लिए 2013 में अमरीकी वन विभाग के सहयोग से तथा संरक्षण प्रेमियों के एक गैर-मुनाफा संगठन की मदद से पंडो की 108 एकड़ जगह को तार से घेरा गया है। वैज्ञानिक आशावादी थे, पर कुछ कशमकश में थे कि शाकाहारी जानवरों के आक्रमण से बचाव के बाद पंडो के नए अंकुरों तथा युवा क्लोनों का क्या होगा? क्या पंडो नए क्लोनों को तेज़ी बनाने में सक्षम होंगे या फिर इनके मरने के और भी कारण है। खुशी की बात यह है कि फेंसिंग के कुछ साल बाद नए क्लोनों की कोपलें सुरक्षित हैं और युवा क्लोन तेज़ी से बढ़ रहे है। आशा है कि पृथ्वी का यह विशालतम जीव सुरक्षित रहेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मधुमक्खियों में दूर तक संवाद

बेशक मधुमक्खियां हमारी तरह बोल नहीं सकतीं लेकिन हाल ही में शोधकर्ताओं ने पाया है कि उनमें भी लंबी दूरी का और बड़े पैमाने पर संवाद होता है। मधुमक्खियां आपस में मिलकर रसायनों की गंध के माध्यम से दूर-दूर मौजूद अपने अन्य साथियों को रानी मधुमक्खी की स्थिति के बारे में जानकारी देती हैं।

मधुमक्खियां फेरोमोन नामक रसायनों की मदद से आपस में संवाद करती हैं, जिसे वे अपने एंटीना के माध्यम से पहचानती हैं। रानी मधुमक्खी फेरोमोन्स जारी करके श्रमिक मधुमक्खियों को अपने पास बुलाती है। लेकिन फेरोमोन्स हवा में सीमित दूरी तक ही पहुंचते हैं। तो रानी का संदेश दूर के श्रमिकों तक कैसे पहुंचता है?

रानी मधुमक्खी के आसपास मंडराने वाली श्रमिक मधुमक्खियां भी नेसानोव नामक फेरोमोन जारी कर अन्यत्र मौजूद अपने साथियों को बुला सकती हैं। नेसानोव की गंध छोड़ने के लिए वे अपने पेट को थोड़ा ऊंचा उठाती हैं ताकि फेरोमोन स्रावित करने वाली ग्रंथियां हवा के संपर्क में आ जाएं। फिर अपने पंखों को फड़फड़ाकर वे गंध को पीछे की ओर भेजती हैं।

इस प्रक्रिया का खुलासा करने के लिए कोलेरैडो विश्वविद्यालय के कंप्यूटर विज्ञानी डियू माय गुयेन और उनके साथियों ने अध्ययन के लिए आम तौर पर पाई जाने वाली मधुमक्खियों (एपिस मेलिफेरा) की एक कॉलोनी को चुना। अध्ययन के लिए उन्होंने पिज़्ज़ा के डिब्बे के आकार का समतल क्षेत्र तैयार किया जिसकी छत पारदर्शी थी। इसमें मधुमक्खियां सिर्फ चल सकती थीं, उड़ नहीं सकती थीं। इसके एक कोने पर उन्होंने रानी मधुमक्खी को कैद कर दिया और दूसरी तरफ से श्रमिक मधुमक्खियों को छोड़ा और उनकी गतिविधियां कैमरे में रिकॉर्ड की। फिर कृत्रिम बुद्धि सॉफ्टवेयर की मदद से नेसानोव फेरोमोन जारी करने वाली मधुमक्खियों को ट्रैक किया।

शोधकर्ताओं ने पाया कि किसी श्रमिक मधुमक्खी द्वारा रानी की स्थिति पता कर लेने के बाद उन्होंने रानी मधुमक्खी के पास से एक-दूसरे को एक-समान दूरी पर व्यवस्थित रूप से कतारबद्ध करना शुरू कर दिया था, हरेक मधुमक्खी अपने पंख फड़फड़ा कर अपने पड़ोसी मधुमक्खी तक नेसानोव पहुंचाकर उसे ठीक से कतार में लगवा रही थी। प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में शोधकर्ता बताते हैं कि इस तरह के सामूहिक संवाद का अवलोकन पहली बार मधुमक्खियों में किया गया है। यह संवाद मधुमक्खियों को रानी मधुमक्खी तक वापस पहुंचने में मदद करता है – जो एक अकेली मधुमक्खी द्वारा संभव नहीं है। देखा गया है कि मधुमक्खियां गंध की इस  शृंखला के द्वारा एक-दूसरे के बीच लगभग 6 सेंटीमीटर की दूरी रखती हैं। इससे लगता है कि किसी मधुमक्खी को फेरोमोन की एक निश्चित मात्रा प्राप्त होते ही वह अपना सारा काम छोड़कर खुद फेरोमोन स्रावित करने लगती है।

अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि यह अध्ययन समतल स्थान में किया गया है जबकि वास्तव में मधुमक्खियां आगे-पीछे, ऊपर-नीचे कहीं भी हो सकती हैं। और तो और, अक्सर हवा और बारिश जैसे कारक उन्हें प्रभावित करते हैं, जो उनके संचार को और अधिक जटिल बनाते हैं। हालांकि सरलीकृत मॉडल से यह पता चलता है कि मधुमक्खियां कैसे खुद व्यवस्थित होती हैं, झुंड बनाती हैं। बहरहाल मधुमक्खियों के प्राकृतिक झुंडों का निरीक्षण करके देखना चाहिए कि क्या वास्तव में वे ऐसा करती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वन्यजीवों से कोरोनावायरस फैलने की अधिक संभावना

कोविड महामारी के स्रोत का पता लगाने के प्रयास लगातार जारी हैं। हाल ही में सीएनएन द्वारा प्रसारित साक्षात्कार में एक प्रमुख वैज्ञानिक सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल के पूर्व निदेशक और वायरोलॉजिस्ट रॉबर्ट रेडफील्ड ने बिना किसी प्रमाण के दावा किया कि सार्स-कोव-2 वुहान की प्रयोगशाला से निकला है। साथ ही उन्होंने कहा कि यह मात्र एक निजी राय है। इसके दो दिन बाद कुछ अन्य लोगों (डबल्यूएचओ और चीन सरकार की टीम) ने वायरस के वन्यजीवों से फैलने की बात कही जिसकी शुरुआत चमगादड़ों से हुई है। इसमें भी कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं दिया गया।

गौरतलब है कि वुहान की प्रयोगशाला में किसी को भी ऐसा कोरोनावायरस नहीं मिला है जिसे बदलकर ज़्यादा फैलने वाला बनाया गया हो और फिर उसने बदलते-बदलते सार्स-कोव-2 जैसा रूप लेकर वहां किसी कर्मचारी को संक्रमित कर दिया हो। इसी तरह किसी को जंगली जीवों में कोरोनावायरस के प्रमाण भी नहीं मिले हैं जो एक से दूसरे जंतु में आगे बढ़ते-बढ़ते उत्परिवर्तित होकर सार्स-कोव-2 के समान हो गया हो और फिर मनुष्यों में प्रवेश कर गया हो।

अभी तक ये दोनों ही विचार प्रमाण-विहीन हैं और दोनों ही संभव हैं।

फिर भी इन दोनों विचारों के सही होने की संभावना बराबर नहीं है। देखा जाए तो प्रयोगशाला से वायरस के निकलने की कोई एक या शायद कुछ मुट्ठी भर घटनाएं हो सकती हैं जबकि वन्यजीवों से वायरस के फैलने के अनेकों अवसर होंगे।

रेडफील्ड की अटकल है कि किसी भी वायरस के लिए इतने कम समय में जीवों से मनुष्यों में प्रवेश करने की कुशलता हासिल करना बिना प्रयोगशाला के संभव नहीं है। लेकिन एक बार में इतनी बड़ी छलांग बहुत बड़ी बात होगी। स्वयं रेडफील्ड ने कहा है कि यह वायरस हमारी जानकारी में आने के कई महीनों पहले से प्रसारित हो रहा था। यानी मनुष्यों तक पहुंचने से पहले एक लंबी अवधि रही होगी जो इस वायरस के वन्यजीवों से फैलने का संकेत देती है।

वन्यजीवों से वायरस के फैलने का विचार इस बात पर टिका है कि चीन में करोड़ों चमगादड़ हैं और उनका मनुष्यों समेत अन्य जीवों से खूब संपर्क होता है। अत:, वायरस के मनुष्यों में प्रवेश करने के कई मौके हो सकते हैं। मूल रूप में तो यह वायरस मनुष्यों में खुद की प्रतिलिपि तैयार करने में अक्षम होता है। लेकिन मनुष्यों को संक्रमित करने के पहले इसे विकसित होने के लाखों मौके मिले होंगे। गौरतलब है कि चमगादड़ अक्सर कई जीवों जैसे पैंगोलिन, बैजर, सूअर, एवं अन्य के संपर्क में आते हैं जिससे ये मौकापरस्त वायरस इन प्रजातियों को आसानी से संक्रमित कर देते हैं। चमगादड़ कॉलोनियों में रहते हैं इसलिए विभिन्न प्रकार के कोरोनावायरस के मिश्रण की संभावना होती है और उन्हें अपने जींस को पुनर्मिश्रित करने का पूरा मौका मिलता है। यहां तक कि एक अकेले चमगादड़ में भी विभिन्न कोरोनावायरस देखे गए हैं।

इन वायरसों को मेज़बानों के बीच छलांग लगाने के लिए कई महीनों का समय मिलता है। इसी दौरान वे उत्परिवर्तित भी होते रहते हैं। एक बार मनुष्यों में प्रवेश करने पर उन वायरस संस्करणों को वरीयता मिलती है जो मानव कोशिकाओं को संक्रमित करके अपनी प्रतिलिपियां बनाने की क्षमता रखते हैं। जल्द ही वे कोशिकाओं को इस स्तर तक संक्रमित कर देते हैं कि लोग बीमार होने लगते हैं। तब जाकर एक नई बीमारी प्रकट होती है। यह वही अवधि होती है जिसे रेडफील्ड ने माना है कि वायरस प्रसारित होता रहा है।

वास्तव में हम कोरोनावायरस के विकास में यह घटनाक्रम देख भी रहे हैं। इसमें काफी तेज़ी से उत्परिवर्तन हो रहे हैं (E484K और 501Y जैसे) जो वायरस को और अधिक संक्रामक बनाते हैं। युनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन के वायरोलॉजिस्ट एडम लौरिंग के अनुसार ये परिवर्तन प्राकृतिक रूप से हो रहे हैं। जिसका कारण यह है कि वायरस को लाखों संक्रमित व्यक्तियों में उत्परिवर्तन के लाखों अवसर मिल रहे हैं।

तो किसे सही माना जाए? रेडफील्ड की प्रयोगशाला से रिसाव की परिकल्पना को जो मात्र एक संयोग पर निर्भर है? या फिर वन्यजीवों से प्रसारित होने की परिकल्पना को जिसे लाखों अवसर मिल रहे हैं? हालांकि दोनों ही संभव हैं लेकिन एक की संभावना अधिक मालूम होती है। इसीलिए, अधिकांश वैज्ञानिकों को वन्यजीवों के माध्यम से इस वायरस के फैलने के आशंका अधिक विश्वसनीय लगती है।

वायरस की उत्पत्ति का सवाल महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे किसी महामारी के शुरू होने की जानकारी मिल सकती है ताकि भविष्य में इस तरह की स्थितियों को रोका जा सके। आज भी कई रोग पैदा करने वाले वायरस हमारे बीच मौजूद हैं जो महामारी का रूप ले सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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क्या ऑक्टोपस सपने देखते हैं?

क्टोपस सपने देखते हैं या नहीं, यह तो अभी पता नहीं चल पाया है लेकिन वैज्ञानिक इस गुत्थी को सुलझाने की ओर बढ़े हैं। आईसाइंस (iScience) में प्रकाशित हालिया अध्ययन बताता है कि मनुष्यों की तरह ऑक्टोपस भी नींद की दो अवस्थाओं का अनुभव करते हैं -सक्रिय नींद और शांत नींद। लेकिन मनुष्यों और ऑक्टोपस, दोनों में इस दो अवस्था वाली नींद का विकास स्वतंत्र रूप से हुआ होगा, क्योंकि ये दोनों जैव-विकास में लगभग 50 करोड़ वर्ष पूर्व अलग-अलग हो चुके थे।

फेडरल युनिवर्सिटी ऑफ रियो ग्रांड डो नोर्टे के सिडार्टा रिबेलियो और उनके साथियों ने इस अध्ययन में ऑक्टोपस इंसुलेरिस (Octopus insularis) प्रजाति के चार ऑक्टोपस का प्रयोगशाला के टैंक में सोते समय वीडियो बनाया। यह जांचने के लिए कि ऑक्टोपस सो रहे हैं या जाग रहे हैं, शोधकर्ताओं ने ऑक्टोपस को टैंक के बाहर से स्क्रीन पर जीवित केकड़ों का वीडियो दिखाया या रबर के हथौड़े से टैंक की दीवार पर हल्के से ठोंका और देखा कि क्या ऑक्टोपस में प्रतिक्रिया स्वरूप कोई हलचल हुई। देखा गया कि ‘शांत’ नींद के दौरान ऑक्टोपस की त्वचा की रंगत पीली थी, पुतलियां सिकुड़ गर्इं थी, वे शांत थे और उनके चूषक व भुजाओं के छोर हल्के-हल्के हिल रहे थे। लेकिन ‘सक्रिय नींद’ के दौरान उनकी त्वचा गहरे रंग की और कसी हुई थी, उन्होंने अपनी आंखें घुमाई और मांसपेशीय ऐंठन ने उनके चूषकों और शरीर को सिकोड़ दिया था।

ऑक्टोपस में लगभग 40 सेकंड लंबी सक्रिय नींद सामान्यत: एक लंबी शांत नींद के बाद आती है। हर 30-40 मिनट की शांत नींद के बाद उनमें सक्रिय नींद देखी गई। ऑक्टोपस में नींद की ये दो अवस्थाएं स्तनधारियों की नींद की दो प्रमुख अवस्थाओं के समान दिखती हैं। पहली, तीव्र नेत्र गति (या रेपिड आई मूवमेंट, REM) नींद। इस अवस्था में आंखें तेज़ी से घूमती हैं और सपने आते हैं। और दूसरी है ‘मंद-तरंग’ नींद। इस अवस्था में पूरे मस्तिष्क में विद्युत गतिविधि एक समान लय में चलती हैं। नींद की यह अवस्था मस्तिष्क में स्मृतियों को सहेजने और फालतू जानकारी हटाने में अहम मानी जाती है।

फिर भी, शोधकर्ता मनुष्यों और ऑक्टोपस की नींद में समानता देखने मे सावधानी बरत रहे हैं क्योंकि ऑक्टोपस और स्तनधारियों के मस्तिष्क की बनावट बहुत अलग-अलग है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि मनुष्यों में सपने आम तौर पर REM नींद के दौरान आते हैं, लेकिन ऑक्टोपस से तो यह नहीं पूछा जा सकता कि क्या वे सपने देख रहे हैं। फिर भी शोधकर्ताओं का अनुमान है कि जागते हुए जब वे कोई नई बात सीखते हैं तब उनकी त्वचा की रंगत और विभिन्न अवस्थाओं में सोते हुए त्वचा की रंगत की तुलना करके पता लगाया जा सकता है कि वे सपने देख रहे हैं या नहीं। यदि सपने नहीं भी देखते, तो भी यह तो माना जा सकता है कि वे इस दौरान कुछ तो अनुभव करते हैं। ऑक्टोपस कठिन चुनौतियां हल करने के लिए जाने जाते हैं – मर्तबान का ढक्कन हटाना या छद्मावरण बनाना। तो उनमें इस बात की जांच की जा सकती है कि नींद (या नींद में कमी) उनकी सीखने की क्षमता को कैसे प्रभावित करती है, जो उनकी स्मृतियों को ठीक से सहेजने में नींद की भूमिका स्पष्ट करेगी।

उनके मस्तिष्क में चलने वाली हलचल को इलेक्ट्रोड की मदद से मापा जाना चाहिए लेकिन यह मुश्किल होगा, क्योंकि वे शरीर पर लगी हर चीज़ को निकाल फेंकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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