जय निंबकर और वर्षा केलकर-माने

इरावती: यह नाम जितना अनोखा है, उतना ही असाधारण उनका जीवन भी था। 1905 में बर्मा (Burma) में जन्मी इरावती का नाम वहां बहने वाली इरावती नदी (Irrawaddy river) पर रखा गया था। उनके पिता हरि गणेश करमाकर वहां इंजीनियर थे। सात साल की उम्र में उन्हें पढ़ाई के लिए पुणे स्थित हुज़ूर पागा बोर्डिंग स्कूल भेजा गया, जो महाराष्ट्र में लड़कियों के पहले-पहले स्कूलों (girls’ schools) में से एक था।
वहां उनकी दोस्ती शकुंतला परांजपे से हुई जो एक साईस (अश्वपाल) आर. पी. परांजपे की बेटी थी। शकुंतला की मां ने इरावती को अपने परिवार के साथ रहने के लिए आमंत्रित किया। इसने इरावती के जीवन की दिशा ही बदल दी। इस परिवार के बौद्धिक, कलात्मक माहौल (intellectual environment) ने इरावती को किताबों और लोगों से जोड़ा। उनमें से एक थे न्यायाधीश बालकराम। न्यायाधीश बालकराम ने उनमें मानवशास्त्र (anthropology) के प्रति रुचि जगाई; आगे चलकर वे इसी विषय में काम करके अपनी छाप छोड़ने वाली थीं। यहीं उनकी मुलाकात दिनकर कर्वे से हुई, जो फर्ग्यूसन कॉलेज (Fergusson College) में रसायनशास्त्र के प्रोफेसर थे। वे महर्षि धोंडो केशव कर्वे के बेटे थे जिन्होंने देश में महिला शिक्षा (women education) व विधवा पुनर्विवाह (widow remarriage) के कार्य में अग्रणि भूमिका निभाई थी। बाद में इरावती ने दिनकर कर्वे से विवाह किया।
फर्ग्यूसन कॉलेज से बीए करने के बाद इरावती ने बॉम्बे विश्वविद्यालय (University of Bombay) में समाजशास्त्र विभाग के संस्थापक डॉ. जी. एस. घुर्ये, के मार्गदर्शन में समाजशास्त्र में एम.ए. किया। उनके पति ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और सुझाव दिया कि वे विदेश जाकर अपनी संभावनाओं को साकार करें। इस उद्देश्य से उन्होंने बर्लिन जाकर मानवशास्त्र में पीएच.डी. के लिए दाखिला लिया। वहां कैसर विल्हेम इंस्टीट्यूट फॉर एंथ्रोपोलॉजी, यूजीनिक्स एंड ह्यूमन हेरेडिटी (Kaiser Wilhelm Institute for Anthropology, Eugenics and Human Heredity) के निदेशक प्रोफेसर यूजेन फिशर के मार्गदर्शन में पीएच.डी. करने के बाद वे 1930 में भारत लौटीं।
भारत लौटने के बाद इरावती ने पुणे के एस.एन.डी.टी. कॉलेज (SNDT College) में कुछ समय के लिए रजिस्ट्रार के रूप में काम किया। लेकिन उनका असली रुझान प्रशासनिक कामों में नहीं, बल्कि वैज्ञानिक शोध और शिक्षा के क्षेत्र में था। उन्होंने बाद में डेक्कन कॉलेज पोस्ट-ग्रेजुएट रिसर्च इंस्टीट्यूट (Deccan College Post-Graduate Research Institute) में एक पद स्वीकार किया और अपना पूरा पेशेवर जीवन इसी संस्थान में अपने चुने हुए क्षेत्र में काम करते हुए बिताया।
उनके शोध का मुख्य उद्देश्य यह समझना था: “हम भारतीय कौन हैं और हम जैसे हैं, वैसे क्यों हैं?” उन्होंने जो लक्ष्य तय किए थे वे मानवशास्त्र के व्यापक उद्देश्यों के अनुरूप थे। उन्होंने जिन विशिष्ट सवालों के जवाब खोजने की कोशिश की इनमें कुछ मुख्य सवाल इस प्रकार थे:
1. क्या भारत में लोगों के ऐतिहासिक (historical) और प्रागैतिहासिक (prehistoric) आवागमन के आधार पर अधिक विस्तृत सांस्कृतिक और भौतिक बनावट की पहचान की जा सकती है?
2. जिन लोगों ने समूचे भारत के ऐतिहासिक और प्रागैतिहासिक स्थलों (historical sites) का निर्माण किया, उनके शारीरिक गुणधर्म क्या थे? जाति क्या है?
इन सवालों के जवाब खोजने के लिए उन्होंने एक एथ्नो-ऐतिहासिक दृष्टिकोण (ethno-historical approach) अपनाया, जो संभवत: बर्लिन में मिली उनकी ट्रेनिंग का नतीजा था। उन्होंने चार बहुविषयी क्षेत्रों में एक साथ काम शुरू किया: पुरा-मानवशास्त्र (पैलियो-एंथ्रोपोलॉजी – (paleo-anthropology)), भारत अध्ययन (इंडोलॉजिकल स्टडीज़ – Indological studies), महाकाव्य और मौखिक परंपराएं(epics and oral traditions), विभिन्न क्षेत्रों में व्यवस्थित भौतिक मानवशास्त्रीय (physical anthropology) और भाषाई क्षेत्रों में विस्तृत समाजशास्त्रीय अध्ययन(sociological study)।
इरावती कर्वे का मानना था कि पूरे भारत में बेतरतीब ढंग से लोगों के आंकड़े इकट्ठा करने की बजाय, किसी एक सीमित क्षेत्र के लोगों का व्यवस्थित अध्ययन (systematic study) करना अधिक उपयोगी होगा और किसी सांस्कृतिक क्षेत्र की नस्लीय संरचना (racial structure) को समझा जा सकेगा। वे आदिम समूहों या जनजातीय समूहों के सामान्य माप लेने के पक्ष में नहीं थीं। उदाहरण के लिए, उनका कहना था कि महाराष्ट्र के 100 ब्राह्मणों का नमूना, 12 अंतर्विवाही उपजातियों (सब-कास्ट – sub-casts) के जीन पूल (gene pool) का सही अंदाज़ा नहीं दे सकता।
उन्होंने यह भी बताया कि ब्राह्मणों की दो प्रमुख उपजातियां, चितपावन और देशस्थ ऋग्वेदी, काफी अलग-अलग हैं, और देशस्थ ऋग्वेदी मराठों (Marathas) के अधिक करीब हैं। इसी कारण उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि भारतीय आबादी का नमूना जाति स्तर पर लिया जाना चाहिए, न कि जाति समूह स्तर पर। जाति को अध्ययन की एक इकाई और शोध के उपकरण के रूप में उपयोग करने की उनकी इस सोच ने भारतीय मानवशास्त्र (Indian anthropology) में एक क्रांति ला दी।
डॉ. कर्वे ने ऋग्वेद, अथर्ववेद और महाभारत (Mahabharata) में पारिवारिक संगठन (family organization) और सम्बंधों का भी अध्ययन किया। उन्होंने गुजरात, कर्नाटक, ओडिशा, केरल, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश से आंकड़े एकत्र किए। इन अध्ययनों को उन्होंने अपनी किताब ‘किनशिप ऑर्गेनाइज़ेशन इन इंडिया’ (1953) (Kinship Organization in India) में संकलित किया है। यह किताब, जिसे तीन भागों में प्रकाशित किया गया था, सांस्कृतिक मानवशास्त्र में एक क्लासिक मानी जाती है और इस क्षेत्र में काम करने वाले विद्वानों के लिए एक मूल स्रोत है।
उनके काम ने उन्हें देश-विदेश में पहचान दिलाई। 1947 में, उन्हें भारतीय विज्ञान कांग्रेस (Indian Science Congress) के मानवशास्त्र विभाग की अध्यक्ष चुना गया और लंदन विश्वविद्यालय (University of London) के स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज़ (School of Oriental and African Studies) में व्याख्याता पद स्वीकार करने का प्रस्ताव मिला।
उनके महत्वपूर्ण योगदान में कई किताबें शामिल हैं, जैसे हिंदू सोसाइटी: एन इंटरप्रिटेशन (Hindu Society: An Interpretation), जिसमें उन्होंने जाति संरचना पर एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया, किनशिप ऑर्गेनाइज़ेशन इन इंडिया और महाराष्ट्र: लैंड एंड पीपुल (Maharashtra: Land and People)। उन्होंने मराठी में महाभारत पर आधारित आलोचनात्मक किताब युगांत भी लिखी, जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार (Sahitya Akademi Award) मिला। उनके गैर-परंपरागत दृष्टिकोण ने कुछ परंपरावादियों की भावनाओं को आहत किया, लेकिन इसके बावजूद यह किताब काफी लोकप्रिय हुई। इसे कई भारतीय भाषाओं और अंग्रेज़ी में अनुदित किया गया है और 1970 में उनकी मृत्यु के तीस साल बाद भी इसके नए संस्करण प्रकाशित हो रहे हैं।
इरावती कर्वे का निधन 11 अगस्त 1970 को 65 वर्ष की आयु में नींद के दौरान हो गया। उन्होंने अपनी विद्वता में बौद्धिक ईमानदारी (intellectual honesty), ज़बरदस्त मानसिक ऊर्जा (mental energy) और विभिन्न प्रकार के लोगों से जुड़ने की क्षमता को जोड़ा और आधुनिक भारत के ज्ञान और साहित्य पर एक स्थायी छाप छोड़ी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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