खेती के लिए सौर फीडर से बिजली – अश्विन गंभीर और शांतनु दीक्षित

भारत में कुल सींचित क्षेत्र में से दो तिहाई भूजल के पंपिंग पर आश्रित है। इसके लिए 2 करोड़ पंप को बिजली से तथा 75 लाख पंप को डीज़ल से ऊर्जा मिलती है। भूजल की उपलब्धता मूलत: विश्वसनीय और किफायती बिजली आपूर्ति पर निर्भर होती है। यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है क्योंकि इसका सम्बंध ग्रामीण गरीबों की आजीविका और खाद्य सुरक्षा से है। कृषि क्षेत्र बिजली का एक प्रमुख उपभोक्ता है। कई राज्यों में कुल बिजली खपत में से एक-चौथाई से लेकर एक-तिहाई तक कृषि में जाती है।

1970 के दशक से कई राज्यों में खेती के लिए बिजली या तो निशुल्क या बहुत कम कीमत पर मिल रही है। अधिकांश कृषि सप्लाई का मीटरिंग नहीं किया जाता। कम कीमत और राजस्व वसूली की खस्ता हालत के चलते कृषि को दी गई बिजली को वितरण कंपनियों के वित्तीय घाटे का प्रमुख कारण माना जाता है। इस घाटे की कुछ भरपाई तो अन्य उपभोक्ताओं (जैसे औद्योगिक व व्यावसायिक) पर अधिक शुल्क लगाकर की जाती है। इसे क्रॉस सबसिडी कहते हैं। शेष घाटे की पूर्ति सरकार द्वारा सीधे सबसिडी देकर की जाती है।

चूंकि कृषि को बिजली सप्लाई की दृष्टि से घाटे का क्षेत्र माना जाता है, इसलिए खेती को अक्सर घटिया गुणवत्ता की सप्लाई मिलती है। इसकी वजह से पंप का बार-बार जलना और बिजली न मिलने जैसे समस्याएं पैदा होती हैं। सप्लाई को बहाल करने में बहुत समय लगता है। इसके अलावा नए कनेक्शन मिलने में काफी समय लगता है। और तो और, सप्लाई अविश्वसनीय होती है और प्राय: देर रात में ही मिल पाती है। इन सब कारणों से किसानों में वितरण कंपनियों को लेकर अविश्वास पनपा है।

अगले 10 वर्षों में खेती में बिजली की मांग दुगनी होने की संभावना है। सप्लाई की लागत बढ़ने के साथ-साथ कृषि सबसिडी की समस्या भी विकराल होती जाएगी। यदि इस मामले में नए विचार नहीं आज़माए गए तो खेती में बिजली सप्लाई की स्थिति बिगड़ती जाएगी। समाधान कुछ भी हो किंतु उसमें सबसे पहले किसानों को दिन के समय पर्याप्त बिजली की विश्वसनीय सप्लाई उचित दरों पर सुनिश्चित करनी होगी। इससे किसानों और वितरण कंपनियों के बीच परस्पर विश्वास बढ़ेगा। यदि ऐसे किसी समाधान को राष्ट्र के स्तर पर कारगर बनाना है तो इसमें सबसिडी की मात्रा भी कम की जानी चाहिए।

इस संदर्भ में तीन ऐसे विकास हुए हैं जो सर्वथा नई उत्साहवर्धक संभावनाएं प्रस्तुत करते हैं। पहला, सौर ऊर्जा से सस्ती दरों पर बिजली की उपलब्धता – चूंकि इसमें र्इंधन की कोई लागत नहीं है इसलिए यह बिजली स्थिर कीमत के अनुबंध के आधार पर अगले 25 वर्षों तक 2.75 से लेकर 3.00 रुपए प्रति युनिट की दर से मिल सकती है। दूसरा, सौर ऊर्जा के उपयोग में वृद्धि का राष्ट्रीय लक्ष्य पूरा करने के लिए राज्यों को सौर ऊर्जा की खरीद में तेज़ी से वृद्धि करनी होगी। तीसरा और अंतिम, कि भारत में ग्रिड हर गांव में पहुंच चुकी है तथा कृषि फीडर्स को अलग करने का काम भी काफी तेज़ी से आगे बढ़ा है। फीडर पृथक्करण के ज़रिए पंप को मिलने वाली बिजली और गांव को मिलने वाली बिजली को भौतिक रूप से अलग कर दिया जाता है। फीडर पृथक्करण का दो-तिहाई लक्ष्य हासिल कर लिया गया है।

इन तीन चीज़ों का फायदा उठाते हुए महाराष्ट्र में मुख्य मंत्री सौर कृषि फीडर कार्यक्रम के तत्वाधान में एक नवाचारी कार्यक्रम शुरू किया गया है। सौर कृषि फीडर मूलत: 1-10 मेगावॉट का समुदाय स्तर का सौर फोटो-वोल्टेइक संयंत्र होता है जिसे 33/11 केवी सबस्टेशन से जोड़ा जाता है। एक मेगावॉट क्षमता का सौर संयंत्र 5-5 हॉर्स पॉवर के करीब 350 पंप को संभाल सकता है और इसे लगाने के लिए लगभग 5 एकड़ ज़मीन की ज़रूरत होती है। संयंत्र को लगाने में कुछ महीने लगते हैं और किसानों को अपने छोर पर कोई परिवर्तन नहीं करने पड़ते। उन्हें इसकी स्थापना और संचालन की ज़िम्मेदारी भी नहीं उठानी पड़ती। पृथक्कृत कृषि फीडर से जुड़े सारे पंप्स को दिन के समय (सुबह 8 से शाम 6 बजे तक) 8-10 घंटे विश्वसनीय बिजली मिलेगी। जब सौर बिजली का उत्पादन कम होगा तब शेष बिजली वितरण कंपनी से ली जा सकती है। दूसरी ओर, जब पंपिंग की मांग कम है (जैसे बरसात के मौसम में) तब अतिरिक्त बिजली वितरण कंपनी को दी जा सकती है। इसके चलते संयंत्र का यथेष्ट आकार निर्धारित किया जा सकता है। प्रोजेक्ट डेवलपर्स का चयन प्रतिस्पर्धी नीलामी के द्वारा होता है और संयंत्र से बनने वाली सारी बिजली को वितरण कंपनी 25 साल के अनुबंध के ज़रिए खरीद लेगी। इसके एवज में वितरण कंपनी सम्बंधित फीडर से जुड़े किसानों को बिजली देती रहेगी।

किसानों को दिन के समय विश्वसनीय बिजली मिलने के अलावा इस तरीके का एक फायदा यह है कि इसके लिए सरकार की ओर से किसी पूंजीगत सबसिडी की ज़रूरत नहीं होगी। दरअसल यह तरीका लागत-क्षम है और इससे सबसिडी में कमी आएगी। एक फायदा यह भी है कि इसके लिए कोई नई ट्रांसमिशन लाइन डालने की ज़रूरत नहीं है। नई ट्रांसमिशन लाइन डालने का काम कई बड़े पैमाने के पवन व सौर ऊर्जा की निविदाओं के संदर्भ में प्रमुख अवरोध बन गया है। ऐसे सौर फीडर स्थापित करना वर्तमान नियामक व्यवस्था के तहत संभव है और यह बिजली उत्पादन कंपनियों के नवीकरणीय ऊर्जा खरीद दायित्व (आरपीओ) की पात्रता रखता है। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस तरीके में स्थानीय युवाओं को संयंत्र के निर्माण, संचालन व रख-रखाव के कार्य में स्थानीय स्तर पर रोज़गार के रास्ते भी खुलेंगे। इस तरीके के लाभों का प्रदर्शन करने के बाद ऐसे सौर फीडर्स को आपस में जोड़ा सकता है। इससे अनाधिकृत उपयोग/कनेक्शंस कम किए जा सकेंगे, मीटरिंग व शुल्क वसूली को बेहतर बनाया जा सकेगा। ऊर्जा-क्षम पंप तथा पानी की बचत के कार्यक्रम लागू किए जा सकेंगे।

फिलहाल महाराष्ट्र में इस योजना के तहत कुल लगभग 2-3 हज़ार मेगावॉट के सौर संयंत्र निविदा और क्रियांवयन के विभिन्न चरणों में हैं। यह करीब 7.5 लाख पंप यानी महाराष्ट्र के कुल पंप्स में 20 प्रतिशत को सौर बिजली सप्लाई करने के बराबर है। दिसंबर 2018 तक लगभग 10 हज़ार किसानों को इस योजना के तहत दिन के समय विश्वसनीय बिजली सप्लाई मिलने भी लगी है। और तो और, वितरण कंपनी अगले तीन से पांच सालों में इसे 7.5 लाख पंप के शुरुआती लक्ष्य से आगे ले जाने पर विचार कर रही है। राज्य वितरण कंपनी द्वारा बिजली सप्लाई की लागत करीब 5 रुपए प्रति युनिट है (और बढ़ती जा रही है), वहीं सौर बिजली की कीमत अगले 25 वर्षों के लिए 3 रुपए प्रति युनिट पर स्थिर रहेगी। 2 रुपए प्रति युनिट की यह बचत 5 हॉर्स पॉवर के एक पंप के लिए सालाना 10,000 रुपए होती है। किसी फीडर पर 500 पंप हों तो अगले 20 वर्षों में यह बचत 4.5 करोड़ रुपए होगी। भारत सरकार ने इसी तरह की एक योजना राष्ट्रीय स्तर पर भी घोषित की है। कुसुम नामक इस योजना का लक्ष्य 10,000 मेगावॉट है।

देश के हर गांव में बिजली ग्रिड की उपस्थिति तथा साथ में राष्ट्रीय फीडर पृथक्करण कार्यक्रम मिलकर इस लागत-क्षम व आसानी से बड़े पैमाने पर लागू किए जा सकने वाले इस तरीके को समूचे राष्ट्र में व्यावहारिक बना देते हैं। कृषि क्षेत्र के लिए दिन के समय किफायती व विश्वसनीय बिजली उपलब्ध कराने का लक्ष्य इस तरीके को अनिवार्य बना देता है। यह किसान, सरकार व वितरण कंपनियों तीनों के लिए लाभ का सौदा है और यह बिजली क्षेत्र के लिए किसान-केंद्रित रास्ता खोलता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आंत के सूक्ष्मजीव मनोदशा को प्रभावित करते हैं

व्यक्ति की आंत व अन्य ऊतकों में बैक्टीरिया का संसार स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकता है। लेकिन मस्तिष्क पर इसके प्रभाव सबसे अधिक हो सकते हैं। युरोप के दो बड़े जनसमूहों के एक अध्ययन में पाया गया है कि अवसादग्रस्त लोगों की आंत में बैक्टीरिया की कई प्रजातियां मौजूद नहीं होती हैं। बैक्टीरिया की अनुपस्थिति किसी बीमारी की वजह से हो या यह अनुपस्थिति किसी बीमारी को जन्म देती हो लेकिन तथ्य यह है कि आंत के कई बैक्टीरिया द्वारा बनाए गए पदार्थ तंत्रिकाओं के कार्य और मिज़ाज को प्रभावित करते हैं। 

पूर्व में किए गए कुछ छोटे-छोटे अध्ययनों में पाया गया था कि अवसाद की दशा में आंत के बैक्टीरिया की स्थिति में बदलाव आता है। इस अध्ययन को बड़े समूह पर करने के लिए कैथोलिक विश्वविद्यालय, बेल्जियम के सूक्ष्मजीव विज्ञानी जीरोन रेस और उनके सहयोगियों ने सामान्य सूक्ष्मजीव संसार के आकलन के लिए 1054 बेल्जियम नागरिकों को चुना। इनमें 173 लोग अवसाद से ग्रसित रहे थे या जीवन की गुणवत्ता के सर्वेक्षण में उनकी हालत घटिया पाई गई थी। इसके बाद टीम ने अन्य प्रतिभागियों से इनके सूक्ष्मजीव संसार की तुलना की। इस अध्ययन में स्वस्थ लोगों की तुलना में अवसाद ग्रस्त लोगों के सूक्ष्मजीव संसार में दो प्रकार के बैक्टीरिया (कोप्रोकॉकस और डायलिस्टर) नहीं पाए गए। शोधकर्ताओं ने अवसादग्रस्त लोगों में क्रोह्न रोग के लिए ज़िम्मेदार माने जाने वाले बैक्टीरिया की वृद्धि भी देखी।

अक्सर एक आबादी में सूक्ष्मजीव संसार सम्बंधी परिणाम अन्य समूहों से मेल नहीं खाते हैं। इसके लिए टीम ने 1064 डच लोगों के सूक्ष्मजीव संसार के आंकड़ों पर भी गौर किया। वहां भी अवसादग्रस्त लोगों में वही दो बैक्टीरिया प्रजातियां नदारद थीं।

बैक्टीरिया को मनोदशा से जोड़ने की कड़ी को समझने के लिए रेस और उनके सहयोगियों ने तंत्रिका तंत्र कार्य के लिए महत्वपूर्ण 56 पदार्थों की एक सूची तैयार की, जिनका उत्पादन या विघटन आंत के बैक्टीरिया करते हैं। उन्होंने पाया कि कोप्रोकोकस डोपामाइन नामक रसायन जैसा मार्ग अपनाते हैं जो अवसाद का एक प्रमुख मस्तिष्क संकेत है। यह वही बैक्टीरिया है जो ब्यूटिरेट नामक एक सूजन उत्तेजक पदार्थ भी बनाता है, और सूजन का सम्बंध अवसाद से देखा गया है।

बैक्टीरिया की अनुपस्थिति और अवसाद का सम्बंध तो समझ में आता है लेकिन आंत में सूक्ष्मजीवों द्वारा बनाए गए यौगिक कैसे असर डालते हैं यह समझना मुश्किल है। इसका एक संभव रास्ता वेगस तंत्रिका है, जो आंत और मस्तिष्क को जोड़ती है।

कुछ चिकित्सक और कंपनियां पहले से ही अवसाद के लिए विशिष्ट प्रोबायोटिक्स की खोज कर कर रहे हैं लेकिन वे आम तौर से इस नए अध्ययन में पहचाने गए बैक्टीरिया समूह को शामिल नहीं करते हैं। बेसल विश्वविद्यालय, स्विट्जरलैंड में मल-प्रत्यारोपण के एक परीक्षण की योजना बनाई जा रही है, जो अवसादग्रस्त लोगों में आंतों के सूक्ष्मजीव संसार को ठीक कर सकता है। कई लोग और अध्ययन करने का सुझाव देते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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उन्नीसवीं सदी की रिकार्डेड आवाज़ सुनी गई – ज़ुबैर

आजकल आवाज़/ऑडियो रिकॉर्ड करना और उसको दोबारा सुनना काफी आसान हो गया है। बस अपने सेलफोन में एक ऐप इंस्टाल कीजिए और मन चाहे तब आप कुछ भी रिकॉर्ड कीजिए और जब मन चाहे उसको सुन भी लीजिए। लेकिन क्या आवाज़ रिकॉर्ड करना और उसको बार-बार सुनना हमेशा से इतना आसान था या फिर काफी तकनीकी मशक्कत के बाद हम इस स्तर पर पहुंचे हैं।

ऑडियो रिकॉर्डिंग के इतिहास को देखा जाए तो इस क्षेत्र में सबसे पहला प्रयास थॉमस एडिसन ने किया था। उन्होंने 1877 में टिन की पन्नी के फोनोग्राफ का आविष्कार करके 1878 में इसे बेचना शुरू किया था। तो वे कौन से उपकरण और प्रणाली थी जिसकी मदद से सबसे पहली रिकार्डिंग की गई? सबसे पहले क्या रिकॉर्ड किया गया? और क्या सबसे पहली रिकार्डिंग अभी भी कहीं मौजूद है?

आज से कुछ साल पहले स्मिथसोनियन संग्रहालय से एक ऐसी टिन की पन्नी मिली जिसमें ऑडियो संग्रह था। अब समस्या थी कि इस टिन की पन्नी को चलाने के लिए वह उपकरण मौजूद नहीं था जिसकी मदद से इसको दोबारा सुना जा सके। और अगर ऐसा कोई उपकरण होता भी तो इस टिन पन्नी की हालत इतनी खराब थी कि अगर इसे चलाया जाता तो इसके बरबाद हो जाने की आशंका काफी अधिक थी।

इसी दौरान लॉरेंस बर्कले नेशनल लेबोरेटरी, कैलिफोर्निया में भौतिक विज्ञानी कार्ल हैबर और उनकी टीम पन्नी का त्रि-आयामी चित्र तैयार करने में कामयाब रहे। इसकी स्थलाकृति को ध्वनि में परिवर्तित करने के लिए गणितीय विश्लेषण और मॉडलिंग की तकनीकों का उपयोग किया गया। इससे यह पता चला कि यदि सुई उस पन्नी पर चलती तो किस प्रकार ध्वनि की ध्वनि पैदा होती। और यह सारा पन्नी को छुए बिना किया गया क्योंकि यह पन्नी इतनी पुरानी, नाज़ुक और टूटी-फूटी थी कि इसको आज के आधुनिक तरीकों से चलाना असंभव था।

पन्नी पर यह रिकॉर्डिंग मूलत: फोनोग्राफ द्वारा बनाई गई थी, जिसकी सुई पन्नी पर ऊपर-नीचे चलती थी जिससे ध्वनि तरंगों को रिकॉर्ड किया जाता था। इसमें एक सिलेंडर भी था जिसको हाथ से घुमाया जाता था। आवाज़ को दोबारा सुनने के लिए सुई उससे जुड़े पर्दे को कंपन प्रदान करती जिससे ध्वनि तरंगें उत्पन्न होती। यह पर्दा लाउडस्पीकर से जुड़ा रहता था जिसके माध्यम से आवाज़ को सीधे या इयरफोन के माध्यम से सुना जा सकता था।

लेकिन कई बार उपयोग करने के बाद सुई पन्नी को चीरफाड़ देती, जिसके बाद लोग इन्हें कबाड़ी को बेच देते थे या स्मृति चिन्ह के रूप में भेंट कर देते थे। दरअसल यह पन्नी प्राचीन वस्तुएं संग्रह करने वाले एक व्यक्ति की पुत्री ने उपलब्ध कराई थी। कार्ल हैबर द्वारा इसको स्कैन और साफ करने के बाद भी रिकॉर्डिंग में जो शोरगुल सुनाई दे रहा है वह संभवत: पन्नी को मोड़कर रखने के कारण पड़ी सिलवटों के कारण है। इस रिकॉर्डिंग में एक व्यक्ति के हंसने की आवाज़ है और ‘मैरी हैड ए लिटिल लैम्ब’ और ‘ओल्ड मदर हबर्ड’ गीतों पाठ भी सुनाई दिया। माना जाता है कि यह पहली बार था जब 1878 में सेंट लुइस में थॉमस एडिसन के फोनोग्राफ द्वारा रिकॉर्ड की गई आवाज़ को न्यू यॉर्क स्थित जी. ई. थियेटर में सार्वजनिक रूप से सुनाया गया था।

कार्ल हैबर के पास वह उपकरण नहीं था जिससे इस आवाज़ को सुना जा सके लेकिन उन्होंने मॉडलिंग और सिमुलेशन पर आधारित एक तकनीक का इस्तेमाल किया है जिसकी मदद से किसी भी प्रकार की रिकॉर्डिंग को दोबारा जीवंत किया जा सकता है। उनके अनुसार यह अमेरिका ही नहीं दुनिया में कहीं भी की गई सबसे पुरानी रिकॉर्डिंग है।

इस लेख में जिस रिकॉर्डिंग की चर्चा की गई है उसे इस लिंक पर जाकर सुना जा सकता है: https://www.theatlantic.com/technology/archive/2012/10/scientists-recover-the-sounds-of-19th-century-music-and-laughter-from-the-oldest-playable-american-recording/264147/

रिकॉर्डिग में लगता है कि स्वयं एडिसन की आवाज़ है लेकिन इसे लेकर विवाद है। स्मिथसोनियन संग्रहालय के निरीक्षक क्रिस हंटर का मानना है कि यह आवाज एक अखबारी व्यंग्य लेखक थॉमस मेसन की है, जो अपने उपनाम आई.एक्स. पेक (अंग्रेज़ी में ‘I expect’) का उपयोग करते थे। कहते हैं थॉमस एडिसन थोड़ा ऊंचा सुनते थे और उनका उच्चारण भी काफी अलग था। एडिसन की पहली रिकॉर्डिंग अब मौजूद नहीं है, और यदि मौजूद है भी तो कोई नहीं जानता कि कहां है।

इन पन्नियों में एडिसन की आवाज़ है या नहीं यह बहस का विषय हो सकता है लेकिन एक बात तो सच है कि रिकॉर्डिंग तकनीक ने जीवन के कई पहलुओं को आकार दिया है। रिकॉर्डेड ध्वनि ने संगीत उद्योग को जन्म दिया मगर साथ ही जनजातीय अनुसंधान, मैदानी रिकॉर्डिंग, पत्रकारिता के साक्षात्कार, ऐतिहासिक शोध में नई क्षमताएं पैदा कीं। इन सबकी शुरुआत की तलाश की जाए तो खोज एडिसन और उनकी पन्नियों पर जाकर खत्म होगी। एडिसन ने अपने इस आविष्कार की मदद से वास्तव में दुनिया को बदलकर रख दिया। (स्रोत फीचर्स)

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पंख के जीवाश्म से डायनासौर की उड़ान पता चला

वैज्ञानिक काफी लंबे समय से यह तो जानते हैं कि कई शुरुआती डायनासौर, जो आज के पक्षियों के पूर्वज हैं, पंखों से ढंके हुए थे। पंखों का यह आवरण गर्मी प्रदान करने के अलावा प्रजनन साथियों को आकर्षित करने में भी उपयोगी था। लेकिन अभी तक यह नहीं पता था कि कब और कैसे इन पंखों का इस्तेमाल उड़ने के लिए किया जाने लगा।

अब पंख वाले डायनासौर के पंख के जीवाश्म के आणविक विश्लेषण से पता चला है कि पंख में प्रयुक्त प्रमुख प्रोटीन किस तरह समय के साथ हल्के और अधिक लचीले हुए जिसके चलते डायनासौर उड़ने में सक्षम हुए और अंतत: पक्षियों में विकसित हुए।

ज़मीन पर चलने वाले सभी रीढ़धारी जीवों में किरेटिन नाम का एक प्रोटीन होता है जो नाखूनों से लेकर चोंच, पंख, शल्क वगैरह बनाता है। मनुष्यों और अन्य स्तनधारियों में, अल्फा किरेटिन 10 नैनोमीटर चौड़ा तंतु बनाता है जिससे बाल, त्वचा और नाखून बनते हैं। मगरमच्छों, कछुओं, छिपकलियों और पक्षियों में बीटा किरेटिन और भी पतला व अधिक कठोर तंतु बनाता है जिससे पंजे, चोंच और पंख बनते हैं।

वैज्ञानिकों ने पिछले एक दशक में दर्जनों जीवित पक्षियों, मगरमच्छों, कछुओं और अन्य रेंगने वाले जीवों के जीनोम की मदद से समय के साथ उनके  बीटा किरेटिन में बदलाव के आधार पर एक वंशवृक्ष तैयार किया है। उनके अनुसार आधुनिक पक्षियों ने अधिकांश अल्फा किरेटिन तो गंवा दिया, लेकिन उनके पंखों में बीटा किरेटिन अधिक लचीला हो गया। इनमें ग्लाइसिन और टायरोसिन अमीनो एसिड्स की एक लड़ी का अभाव होता है जो पंजे और चोंच को कठोर बनाती है। इससे पता चला कि उड़ान के लिए ये दोनों परिवर्तन आवश्यक हैं।

इन दोनों परिवर्तनों को एक साथ देखने के लिए शोधकर्ताओं ने चीन और मंगोलिया के असाधारण जीवाश्मों में अल्फा और बीटा किरेटिन का विश्लेषण किया। पुराजीव वैज्ञानिक पान यानहोंग और मैरी श्वाइट्ज़र ने 16 से 7.5 करोड़ वर्ष पूर्व की पांच प्रजातियों किरेटिन का विश्लेषण किया।

उन्होंने प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में बताया है कि 16 करोड़ साल पहले के एक कौए के आकार के एनचीओर्निस डायनासौर के पंखों में कुछ मात्रा में आधुनिक पक्षियों के समान अभावग्रस्त बीटा किरेटिन पाया गया। लेकिन सबसे प्राचीन ज्ञात पक्षी आर्कियोप्टेरिक्स से 10 करोड़ वर्ष पूर्व के डायनासौर में अधिक अल्फा किरेटिन पाया गया, जो आज के पक्षियों के पंखों में कमोबेश अनुपस्थित है।

इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि एनचीओर्निस के पंख उड़ान भरने के लिए सक्षम तो नहीं थे लेकिन उड़ान की ओर विकास में एक मध्यवर्ती चरण को दर्शाते हैं।

इसी प्रकार 13 करोड़ वर्ष पुराने एक छोटे उड़ानहीन डायनासौर शुवुइया से प्राप्त पंखों से पता चलता है कि आधुनिक पक्षियों की तरह, इसमें अल्फा किरेटिन की कमी तो थी लेकिन एनचीओर्निस के विपरीत, इसके पंख अधिक कठोर बीटा किरेटिन से बने थे।

आधुनिक आनुवंशिक सबूतों के आधार पर यह कह पाना संभव है कि विकास के दौरान, कुछ डायनासौर के जीनोम में अल्फा किरेटिन जीन की कई प्रतिलिपियां बन गई। फिर इन ढेर सारी प्रतियों में काट-छांट के चलते ये बीटा किरेटिन के ग्लायसीन व टायरोसीन रहित लचीले किरेटिन का निर्माण करने लगे। इस दोहरे परिवर्तन ने डायनासौर को उड़ने में सक्षम बनाया और इसी के फलस्वरूप पक्षी विकसित हुए। (स्रोत फीचर्स)

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ई-कचरे के विरुद्ध शुरू हुआ सार्थक अभियान – प्रमोद भार्गव

दुनिया भर में उपयोग करो और फेंको संस्कृति, जो कई टन कचरे को जन्म देती है, के विरुद्ध शंखनाद हो गया है। दरअसल पूरी दुनिया में इलेक्ट्रॉनिक कचरा (ई-कचरा) बड़ी एवं घातक समस्या बन गया है। इससे निजात पाने के लिए युरोपीय संघ और अमेरिका के पर्यावरण संगठनों ने इलेक्ट्रॉनिक उपकरण बनाने वाली कंपनियों की मनमानी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। वे राइट-टु-रिपेयर यानी मरम्मत का अधिकार की मांग कर रहे हैं। इस अभियान के भारत समेत पूरी दुनिया में फैलने की उम्मीद है। भारत को तो विकसित देशों ने ई-कचरा का डंपिंग ग्राउंड माना हुआ है। इस कचरे को नष्ट करने के जैविक उपाय भी तलाशे जा रहे हैं, लेकिन इसमें अभी बड़ी सफलता नहीं मिली है।

अमेरिका एवं युरोप के कई देशों के पर्यावरण मंत्री कंपनियों को यह सुझा चुके हैं कि वे ऐसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरण बनाएं, जो लंबे समय तक चलें और खराब होने पर उनकी मरम्मत की जा सके। भारत में भी कई गैर-सरकारी संगठनों ने आवाज़ बुलंद की है।

दुनिया के विकसित देश अपना ज़्यादातर कचरा भारतीय समुद्र में खराब हो चुके जहाज़ों में लादकर बंदरगाहों के निकट छोड़ जाते हैं। इससे भारतीय तटवर्ती समुद्रों में कचरे का अंबार लग गया है। इस ई-कचरे में कंप्यूटर, टीवी स्क्रीन, स्मार्टफोन, टैबलेट, फ्रिज, वॉशिंग मशीन, इंडक्शन कुकर, एसी और बैटरियां होते हैं। इस अभियान के बाद अमेरिका में 18 राज्य राइट-टु-रिपेयर कानून बनाने पर विचार कर रहे हैं।

एक शोध के मुताबिक 2004 में घरेलू कामकाज की 3.5 फीसदी इलेक्ट्रॉनिक मशीनें पांच साल बाद खराब हो रही थीं। 2012 में इनका अनुपात बढ़कर 8.3 प्रतिशत हो गया। रिसाइÏक्लग केंद्रों पर दस फीसदी से ज़्यादा ऐसे उपकरण आए, जो पांच साल से पहले ही खराब हो गए थे। कंप्यूटर, लेपटॉप, टैबलेट और मोबाइल के निरंतर नए-नए मॉडल आने और उनमें नई सुविधाएं उपलब्ध होने से भी ये उपकरण अच्छी हालत में होने के बावजूद उपयोग के लायक नहीं रह जाते। लिहाज़ा ई-कचरे की मात्रा लगातार बढ़ रही है। एक अनुमान के मुताबिक 2018 में दुनिया भर में पांच करोड़ टन ई-कचरा इकट्ठा हुआ। इस कचरे को एक जगह जमा किया जाए तो माउंट एवरेस्ट से भी ऊंचा पर्वत बन जाएगा अथवा 4500 एफिल टावर बन जाएंगे। ई-कचरा पैदा करने में भारत दुनिया का पांचवां बड़ा देश है। भारतीय शहरों में पैदा होने वाले ई-कचरे में सबसे ज़्यादा कंप्यूटर और उसके सहायक यंत्र होते हैं। ऐसे कचरे में 40 प्रतिशत सीसा और 70 प्रतिशत भारी धातुएं होती हैं। कई लोग इन्हें निकालकर आजीविका भी चला रहे हैं।       

आज ई-कचरा, जिसमें बड़ी मात्रा में प्लास्टिक के उपकरण भी शामिल हैं, नष्ट करना भारत व अन्य देशों के लिए मुश्किल हो रहा है। इसे जैविक रूप से नष्ट करने के उपाय तलाशे जा रहे हैं। इस कचरे का एक सकारात्मक पहलू सोना व अन्य उपयोगी धातुओं की उपस्थिति है। हाल ही में ऐपल कंपनी ने बेकार हो चुके कचरे को पुनर्चक्रित करके ई-कचरे से 264 करोड़ का सोना निकाला  है। इसके अलावा करीब 580 करोड़ का इस्पात, एल्यूमिनियम, ग्लास और अन्य धातुई तत्व निकालने में कामयाबी हासिल की है। ऐपल के इस रचनात्मक खुलासे के बाद अच्छा होगा कि हमारी सरकारें युवाओं को ई-कचरे से सोना एवं अन्य धातुएं निकालने का प्रशिक्षण दें और स्टार्टअप के तहत इस तरह के संयंत्र लगाने को प्रोत्साहित करें। इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के उत्पादन और उनके नष्ट होने की प्रक्रिया निरंतर चलने वाली है, इसलिए यदि ये संयंत्र देश के कोने-कोने में लग जाते हैं तो इनके संचालन में कठिनाई आने वाली नहीं है। बेकार हो चुके उपकरणों के रूप में कच्चा माल स्थानीय स्तर पर ही मिल जाएगा और पुनर्चक्रण के बाद जो सोना-चांदी, इस्पात, जस्ता, तांबा, पीतल, एल्यूमीनियम आदि धातुएं निकलेंगी उनके खरीददार भी स्थानीय स्तर पर ही मिल जाएंगे। वैसे भी ये धातुएं और इनसे बनी वस्तुएं रोज़मर्रा के जीवन में इतनी जरूरी हो गई हैं कि इनकी आवश्यकता बनी ही रहती है। इन संयंत्रों के लगने से धरती व जल प्रदूषित होने से बचेंगे। यदि कचरा बिना कोई उपचार किए धरती में गड्ढे खोदकर दफना दिया जाता है तो इससे खतरनाक गैसें निकलती हैं जो धरती और मानव स्वास्थ्य के लिए तो हानिकारक हैं ही, इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के लिए भी हानिकारक है।

इलेक्ट्रॉनिक उपकरण विशेषज्ञों का मानना है कि औसतन एक स्मार्टफोन में 30 मिलीग्राम सोना होता है। साफ है, समस्या बने ई-कचरा पुनर्चक्रण में बड़े पैमाने पर युवाओं को रोज़गार मिलेगा और देश बड़े स्तर पर इस कचरे को नष्ट करने के झंझट से भी मुक्त होगा। इसलिए इस कचरे को रोज़गार उपलब्ध कराने वाले संसाधन के रूप में देखने की ज़रूरत है।

औसतन एक टन ई-कचरे के टुकड़े करके उसे यांत्रिक तरीके से पुनर्चक्रित किया जाए तो लगभग 40 किलो धूल या राख जैसा पदार्थ तैयार होता है। इसमें अनेक कीमती धातुएं रहती हैं। इन धातुओं के पृथक्करण की प्रक्रिया में हाथों से छंटाई, चुंबक से पृथक्करण, विद्युत-विच्छेदन, सेंट्रीफ्यूज और उलट परासरण जैसी तकनीकें शामिल हैं। लेकिन ये तरीके मानव शरीर और पर्यावरण को हानि पहुंचाने वाले हैं, इसलिए इस हेतु बायो-हाइड्रो मेटलर्जिकल तकनीक कहीं बेहतर है। इस तकनीक को अमल में लाते वक्त सबसे पहले बैक्टीरियल लीचिंग प्रोसेस का प्रयोग करते हैं। इसके लिए ई-कचरे को बारीक पीसकर उसे जीवाणुओं के साथ रखा जाता है। बैक्टीरिया में मौजूद एंज़ाइम कचरे में उपस्थित धातुओं को घुलनशील यौगिकों में बदल देते हैं। बायो-लीचिंग की विधि में जीवाणु कुछ विशेष धातुओं को अलग करने में मदद करते हैं। हालांकि ऐपल द्वारा ई-कचरे से सोना निकालने की जानकारी आने के पहले से ही कई प्रकार के जीवाणुओं और फफूंद का उपयोग प्रिटेंड सर्किट बोर्ड से सीसा, तांबा और टिन को अलग करने के लिए किया जाता रहा है।

यदि ई-कचरे को छीलन में बदलकर 5-10 ग्राम प्रति लीटर की सांद्रता में घोलकर कुछ खास बैक्टीरिया के साथ रखा जाए तो कुछ तांबा, जस्ता, निकल और एल्यूमीनियम 90 प्रतिशत से अधिक निकाले जा सकते हैं। इसी प्रकार से कुछ फफूंदों की मदद से 65 प्रतिशत तक तांबा और टिन अलग किए जा सकते हैं। इसके अलावा कचरे की छीलन की सांद्रता 100 ग्राम प्रति लीटर रखी जाए तो यही फफूंदें एल्यूमीनियम, निकल, सीसा और जस्ते में से भी 95 प्रतिशत धातु को अलग करने में सक्षम सिद्ध होती हैं। ये सभी उपयोगी धातुएं हैं।

पुनर्चक्रण के लिए भौतिक-रासायनिक और ऊष्मा आधारित तकनीकें भी उपलब्ध हैं, किंतु जैविक तकनीक की तुलना में इनकी सफलता कम आंकी गई है। हालांकि भारत में ई-कचरे के पुनर्चक्रण के संयंत्र दिल्ली, मेरठ, बैंगलुरू, मुबंई, चैन्नई और फिरोज़ाबाद में लगे हुए हैं, लेकिन जिस पैमाने पर ई-कचरा पैदा होता है, उसे देखते हुए ये संयंत्र ऊंट के मुंह में ज़ीरे के समान हैं। इसलिए ई-कचरे के पुनर्चक्रण संयंत्र लगाने की जबावदेही ई-कचरा उत्पादन कंपनियों को भी सौंपने की ज़रूरत है। यदि पुनर्चक्रण के ये संयंत्र स्थान-स्थान पर स्थापित कर दिए जाते हैं तो कचरे का निपटारा तो होगा ही, कच्चे माल की कीमत कम होने से वस्तुओं के दाम भी कमोबेश सस्ते होंगे। साथ ही पृथ्वी, जल और वायु प्रदूषण मुक्त रहेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मधुमक्खियां जोड़-घटा भी सकती हैं

वैज्ञानिक यह तो पता कर चुके हैं कि मधुमक्खियां 4 तक गिन सकती हैं और शून्य को समझती हैं। लेकिन हाल ही में साइंस एडवांसेस पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन बताता है कि मधुमक्खियां जोड़ना-घटाना भी कर सकती हैं। अंतर इतना है कि इसके लिए वे धन-ऋण के चिंहों की जगह अलग-अलग रंगों का उपयोग करती हैं।

जीव-जगत में गिनना या अलग-अलग मात्राओं की पहचान करना कोई अनसुनी बात नहीं है। ये क्षमता मेंढकों, मकड़ियों और यहां तक कि मछलियों में भी देखने को मिलती है। लेकिन प्रतीकों की मदद से समीकरण को हल कर पाने की क्षमता दुर्लभ है। अब तक ये क्षमता सिर्फ चिम्पैंज़ी और अफ्रिकन भूरे तोते में देखी गई है।

शोधकर्ता जानना चाहते थे कि मधुमक्खियों (Apis mellifera) का छोटा-सा दिमाग गिनने के अलावा और क्या-क्या कर सकता है। शोघकर्ताओं ने पहले तो मधुमक्खियों को नीले और पीले रंग का सम्बंध जोड़ने और घटाने की क्रिया से बनाने के लिए प्रशिक्षित किया। उन्होंने 14 मधुमक्खियों को Y-आकृति की भूलभुलैया में प्रवेश यानी Y-आकृति की निचली भुजा (जहां से दो में से एक रास्ते का चुनाव करना होता था) में रखा और वहां उन्हें नीले और पीले रंग की वस्तुएं दिखाई गर्इं। जब उन्हें नीले रंग की कुछ वस्तुएं दिखाई जातीं और मधुमक्खियां उस ओर जातीं जहां दिखाई गई वस्तु से एक अधिक वस्तु है तो उन्हें इनाम मिलता था। Y-आकार की दूसरी भुजा के अंत में एक कम वस्तु होती थी। पीले रंग की वस्तुएं दिखाने पर यदि मक्खियां एक कम वस्तु वाली भुजा की तरफ जातीं तो उन्हें इनाम मिलता था।

इसके बाद उन्हें जांचा गया। मधुमक्खियों ने 63-72 प्रतिशत मामलों में सही जवाब दिए। पीला रंग दिखाने पर उन्होंने एक वस्तु ‘घटाई’ या नीला रंग दिखाने पर एक वस्तु ‘जोड़ी’ तब माना गया कि उन्होंने सही जवाब दिया है। यह प्रयोग मात्र 14 मधुमक्खियों पर किया गया है किंतु शोधकर्ताओं का मत है कि मनुष्य की तुलना में बीस हज़ार गुना छोटे दिमाग के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि है। (स्रोत फीचर्स)

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पृथ्वी की प्राचीन चट्टान चांद पर मिली

पृथ्वी की सबसे पुरानी चट्टानों में से एक चांद पर मिली है। अपोलो के अंतरिक्ष यात्रियों द्वारा प्राप्त की गई एक विशाल चट्टान में 2 से.मी. की किरच धंसी हुई मिली है जो आश्चर्यजनक रूप से हमारी अपनी धरती की 4 अरब वर्ष पुरानी चट्टान का टुकड़ा है। फ्लोरिडा स्टेट विश्वविद्यालय के खगोल-रसायनज्ञ मुनीर हुमायूं का कहना है कि यह अत्यंत चौंकाने वाला निष्कर्ष है मगर सत्य हो सकता है।

इस खोज के बाद हमें पृथ्वी के प्रारंभिक इतिहास और उस पर होने वाली आकाशीय ‘बमबारी’ के बारे नए ढंग से सोचने में मदद मिलेगी। चांद पर मिले इस पत्थर की जानकारी हाल ही में अर्थ एंड प्लेनेटरी साइंस लेटर्स में प्रकाशित हुई है। इस शोध में शामिल चंद्र-भूगर्भ विशेषज्ञ डेविड किं्रग का कहना है कि चट्टान के बनने के बाद एक उल्का की टक्कर के कारण वह अंतरिक्ष में बिखर गई होगी और चांद पर पहुंच गई होगी। गौरतलब है कि उस समय चांद पृथ्वी के बहुत निकट था – आज के मुकाबले एक-तिहाई दूरी पर ही था। किसी तरह से यह टुकड़ा चांद की किसी चट्टान में समाहित हो गया और अंतत: 1971 में अपोलो 14 के अंतरिक्ष यात्री इसे वापिस पृथ्वी पर ले आए। यह पहली बार है कि चांद से मिली किसी चट्टान को पृथ्वी की मूल निवासी बताया गया है।

दरअसल, कई वर्ष पहले क्रिंग और उनके साथियों को इसी तरह की चांद की चट्टान में उल्काओं के टुकड़े मिले थे। इस आधार पर ही वे वहां पृथ्वी के टुकड़ों की खोज कर रहे थे। उक्त चट्टान के खनिज का विश्लेषण करने पर उसकी उत्पत्ति का सुराग मिल गया। जैसे, चट्टान में उपस्थित युरेनियम तथा उसके विखंडन से बने तत्वों के विश्लेषण से चट्टान के निर्माण का समय पता चला और टाइटेनियम की मात्रा के आधार पर उस समय के तापमान और दबाव का अंदाज़ लग गया।

क्रिंग के मुताबिक इस विश्लेषण के परिणामों से स्पष्ट हो गया कि इस चट्टान का निर्माण ऐसे स्थान पर हुआ था जहां पानी प्रचुर मात्रा में मौजूद था। निर्माण के समय के तापमान और दबाव से संकेत मिलता था कि यह चट्टान या तो पृथ्वी पर 19 कि.मी. की गहराई पर अथवा चांद पर 170 कि.मी. की गहराई पर बनी होगी। चूंकि 170 कि.मी. की गहराई की बात अजीब लगती है, इसलिए ज़्यादा संभावना यही है कि इसकी उत्पत्ति पृथ्वी पर हुई है।

यदि यह चट्टान वास्तव में पृथ्वी की है तो इसमें उस प्राचीन काल के सुराग मौजूद होंगे जिसे हैडियन कहते हैं। इसका यह भी मतलब होगा कि उस काल में पृथ्वी पर उल्काओं की ऐसी ज़ोरदार बारिश हुआ करती थी कि कोई टुकड़ा उछलकर चांद तक पहुंच सकता था। चांद से अलग-अलग यानों द्वारा कुल मिलाकर 382 कि.ग्रा. पत्थर लाए जा चुके हैं। ज़ाहिर है अब वैज्ञानिक इनकी छानबीन में जुट जाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

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नई कोयला खदान खोलने पर रोक

हाल ही में ऑस्ट्रेलिया की अदालत ने कोयला खदानों के कारण बढ़ रहे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और ग्लोबल वार्मिंग के मद्देनज़र कोयला खनन कंपनी की नई खुली खदान लगाने की अर्जी खारिज कर दी है।

ऑस्ट्रेलिया विश्व का सबसे बड़ा कोयला निर्यातक देश है। कोयला खनन कंपनी, ग्लॉसेस्टर रिसोर्सेस, हंटर घाटी के ग्लॉसेस्टर शहर के पास एक खुली कोयला खदान शुरू करना चाहती थी। इसके पहले पर्यावरणीय कारणों से न्यू साउथ वेल्स की भूमि व पर्यावरण अदालत ने कंपनी की अर्जी खारिज कर दी थी। कंपनी ने खदान लगाने के लिए दोबारा अर्जी दी थी। ऑस्ट्रेलिया में ऐसा पहली बार हुआ है कि नई कोयला खदान के लिए अनुमति ना मिली हो।

चीफ जज ब्रायन प्रेस्टन ने अपने आदेश में कहा है कि इस कोयला खनन परियोजना को इसलिए अस्वीकृत किया जा रहा है क्योंकि कोयला खदानों और उनके उत्पादों से निकलने वाली ग्रीनहाउस गैसें विश्व स्तर पर पर्यावरण को प्रभावित करती हैं और इस समय पर्यावरण सम्बंधी लक्ष्यों को हासिल करने के लिए इन गैसों के उत्सर्जन को बहुत कम करने की ज़रूरत है।

दुनिया भर में पर्यावरण बदलाव के प्रभाव नज़र आ रहे हैं। विगत जनवरी का महीना ऑस्ट्रेलिया के अब तक के सबसे गर्म महीनों में दर्ज हुआ। इसी दौरान बिगड़े मौसम के कारण ऑस्ट्रेलिया के कई हिस्सों में भारी नुकसान हुए हैं। तस्मानिया का लगभग तीन प्रतिशत हिस्सा दावानल की चपेट में आया, उत्तरी क्वींसलैंड ने भारी बारिश के कारण बाढ़ का सामना किया। और अनुमान है कि दुनिया के कई हिस्सों में पर्यावरण बदलाव के कारण मौसम सम्बंधी अप्रत्याशित घटनाओं का सामना करना पड़ सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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कितने समय से पांडा सिर्फ बांस खाकर ज़िन्दा है

रीर पर बड़े-काले धब्बे वाले पांडा (Ailuropoda melanoleuca) चीन के बांस के जंगलों में रहते हैं और उनका भोजन सिर्फ बांस है। लेकिन सवाल यह है कि कब से पांडा ने सिर्फ बांस को अपना भोजन बना लिया। हमेशा से बांस पांडा का भोजन नहीं रहा है और ना ही पूर्व में उनका आवास स्थान बांस के जंगल था, उनमें काफी विविधता थी। पूर्व में हुए शोध के आधार पर वैज्ञानिकों का मानना था कि पांडा ने लाखों साल पहले ही बांस को अपना भोजन बना लिया था। लेकिन हाल का एक अध्ययन बताता है कि ऐसा नहीं है। करंट बायोलॉजी पत्रिका में प्रकाशित शोध के अनुसार पांडा ने लाखों साल पहले नहीं बल्कि कुछ हज़ार साल (5-7 हज़ार साल) पहले ही बांस को अपना एकमेव भोजन बनाया है।

पांडा के भोजन और आवास में परिवर्तन कब आए, यह जानने के लिए चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइंस के संरक्षण जीव विज्ञानी फुवेन वेई और उनके साथियों ने प्राचीन और आधुनिक पांडा की हड्डियों और दांतों में मौजूद स्थिर समस्थानिकों (तत्वों के ऐसे समस्थानिक जो समय के साथ क्षय नहीं होते) के अनुपात की तुलना की।

कोई भी जीव जो भोजन खाता है, उस भोजन की रासायनिक पहचान उसके शरीर में आ जाती है। वैज्ञानिक शरीर के अलग-अलग ऊतकों की जांच करके यह पता कर सकते हैं कि किसी जीव के जीवन काल के अलग-अलग समय पर उसका भोजन कैसा रहा होगा। हड्डियों में मौजूद समस्थानिकों की मदद से पता किया जा सकता है कि जीवन के अंतिम कुछ सालों में किसी जीव का भोजन कैसा रहा होगा। दांतों के नमूने से यह पता किया जा सकता है कि किसी जीव के शुरुआती जीवन में उसका भोजन कैसा रहा होगा।

शोधकर्ताओं की टीम ने तकरीबन 5000 साल पूर्व के पांडा जीवाश्म और आधुनिक मृत पांडा के दांतों और हड्डियों के समस्थानिकों की मात्रा तुलना की। अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया कि पांडा के पूर्वजों का भोजन आधुनिक पांडा से बहुत अलग था और वे ऊष्ण कटिबंधीय जंगलों में रहते थे। हालांकि विश्लेषण में इस बात का पता नहीं चला है कि पांडा के पूर्वजों का भोजन क्या था।

पांडा के पूर्वज असल में खाते क्या थे, यह जानने के लिए यह पता करना होगा कि पांडा के पूर्वजों के पेट में क्या पहुंचता था। लेकिन यह पता करना आसान नहीं है। जीवाश्मों में उनका भोजन मिलना मुश्किल है। मगर इस तरह के अध्ययनों से इस बात के संकेत तो मिल ही सकते हैं कि क्यों पांडा सिर्फ बांस को ही अपना भोजन बनाने को मजबूर हुए, और उनका आवास स्थान इतना सीमित कैसे हो गया। यदि इन कारणों का पता लग जाए तो हम वर्तमान में बचे हुए पांडा का संरक्षण कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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माजूफल: फल दिखता है, फल होता नहीं – डॉ. किशोर पंवार

माजूफल, जायफल, और कायफल भारत तथा एशिया के कई देशों में घरेलू चिकित्सा के महत्वपूर्ण हिस्से हैं। पहले तो ये तीनों अपने मूल स्वरूप में हर घर में मिलते थे परंतु अब इनके उत्पाद मिलते हैं पावडर या कैप्सूल के रूप में। आइए देखते हैं कि ये फल वास्तव में कितने फल है।

पहले बात करते हैं जायफल की। अंग्रेज़ी में इसे नटमेग कहते हैं। वनस्पति विज्ञानी इसे मायरिस्टिका फ्रेगरेंस नाम से जानते हैं। नाम से ही पता चलता है कि यह कोई सुगंधित वस्तु है। संस्कृत साहित्य में इसे जाति फलम कहा गया है। इसके पेड़ जावा, सुमात्रा, सिंगापुर, लंका तथा वेस्ट इंडीज़ में अधिक पाए जाते हैं। हमारे यहां तमिलनाडु और केरल में इसके पेड़ लगाए गए हैं। जायफल का वृक्ष सदाबहार होता है। फूल सफेद और फल छोटे-छोटे, लगभग अंडाकार लाल-पीले होते हैं जो पकने पर दो भागों में फट जाते हैं। फटने पर सूखे हुए बीज को घेरे हुए सुर्ख लाल रंग की एक जाल सी रचना नज़र आती है। यह भूरा, अंडाकार तथा लगभग 2-5 सेंटीमीटर का बीज ही जायफल है।

फल का उपयोग सुगंध, उत्तेजक, मुख दुर्गंध नाशक और वेदनाहर के रूप में किया जाता है।

अब जरा जावित्री की बात कर लेते हैं। यह लाल नारंगी रंग की मोटी जाल समान रचना है जो टुकड़ों के रूप में बाज़ार में मिलती है। जावित्री दरअसल जायफल के बीज पर लगी एक विशेष रचना है, जो सुगंधित और तीखी होती है। इसमें मुख्य रूप से वाष्पशील तेल, वसा और गोंद होते हैं। इसके गुण भी जायफल की तरह होते हैं इसे हम बीज का तीसरा छिलका या विज्ञान की भाषा में एरील कहते हैं।

अब बात करें कायफल की। वनस्पति शास्त्र में मिरिका एस्कूलेंटा नाम से ज्ञात यह पेड़ हिमालय के उष्ण प्रदेशों में खासी पहाड़ियों में पाया जाता है। सिंगापुर में भी मिलता है। चीन तथा जापान में इसकी खेती की जाती है। इसके मध्यम ऊंचाई के वृक्ष सदाबहार होते हैं, छाल बादामी-धूसर और सुगंधित होती है। फल लगभग आधा इंच लंबे अंडाकार दानेदार बादामी होते हैं। यद्यपि वृक्ष का नाम कायफल है, तब भी औषधि के रूप में इसकी छाल का ही प्रयोग कायफल के नाम से किया जाता है। अत: यह फल नहीं, एक पेड़ की छाल है। इसकी छाल को सूंघने से छींक आती है, तथा पानी में डालने पर लाल हो जाती है। 

अब बात एक बिलकुल ही नकली फल – माजूफल – की। यह नकली फल क्वेर्कस इनफेक्टोरिया नामक एक ओक प्रजाति का है और गाल्स के रूप में बनता है। सदियों से एशिया महाद्वीप में पारंपरिक चिकित्सा पद्धति में इन गाल्स का उपयोग किया जाता रहा है। मलेशिया में इसे मंजाकानी कहते हैं। इसका उपयोग चमड़े को मुलायम करने और काले रंग की स्याही बनाने में वर्षो से हो रहा है। भारत में इसे माजूफल कहते हैं। 

क्वेर्कस इनफेक्टोरिया एक छोटा पेड़ है, जो एशिया माइनर का मूल निवासी है। पत्तियां चिकनी और चमकदार हरी होती हैं। जब ततैया शाखाओं पर छेद कर उनमें अपने अंडे देती है तो इन अंडों से निकलने वाले लार्वा और तने की कोशिकाओं के बीच रासायनिक अभिक्रिया होती है जिसके फलस्वरूप शाखाओं पर फल जैसी गोल-गोल कठोर रचनाएं बन जाती है, जो दिखने में खुरदरी होती हैं। इन्हें गाल कहते हैं और यही माजूफल है। 

इस गाल में अन्य रसायनों के अलावा टैनिन काफी मात्रा में पाया जाता है। भारत में माजूफल का उपयोग दंत मंजन बनाने, दांत के दर्द और पायरिया के उपचार में किया जाता है। इस गाल से मिलने वाला टैनिक एसिड गोल्ड सॉल बनाने के काम आता है। गोल्ड सॉल का उपयोग इम्यूनोसाइटोकेमेस्ट्री में मार्कर के रूप में किया जाता है। वर्तमान में इसका उपयोग खाद्य पदार्थों, दवा उद्योग, स्याही बनाने और धातु कर्म में बड़े पैमाने पर किया जाता है। माजूफल का उपयोग प्रसव के बाद गर्भाशय को पूर्व स्थिति में लाने के लिए भी किया जाता है।

तो हमने देखा कि ये तीन विचित्र चीज़ें हैं, जिनका उपयोग फल कहकर किया जाता है। इनमें से एक (जायफल) तो फल नहीं बीज है। दूसरा (कायफल) छाल है जबकि तीसरा (माजूफल) तो फलनुमा दिखने के बावजूद गाल नामक एक विशेष संरचना है। (स्रोत फीचर्स)

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