धरती के तापमान में वृद्धि (ग्लोबल
वार्मिंग) में योगदान के लिए उड्डयन उद्योग को जि़म्मेदार ठहराया जाता रहा है, खास तौर से विमानों
से निकलने वाली कार्बन डाईऑक्साइड के कारण। लेकिन हालिया शोध बताते हैं कि उड़ते
विमान के पीछे जो एक लंबी सफेद लकीर नज़र आती है, वह भी तापमान को
बढ़ाने में खासी भूमिका निभाती है।
अक्सर ऊंचाई पर उड़ान भरने के दौरान या कई अन्य
परिस्थितियों में विमान ऐसी लकीर छोड़ते हैं। जिस ऊंचाई पर ये विमान उड़ते हैं
वहां की हवा ठंडी और विरल होती है। जब इंजन में से कार्बन के कण निकलते हैं तो
बाहर की ठंडी हवा में उपस्थित वाष्प इन कणों पर संघनित हो जाती है। यह एक किस्म का
बादल होता है जो लकीर के रूप में नज़र आता है। इसे संघनन लकीर कहते हैं। ये बादल
कुछ मिनटों से लेकर कई घंटों तक टिके रह सकते हैं। ये बादल इतने झीने होते हैं कि
सूर्य के प्रकाश को परावर्तित तो नहीं कर पाते किंतु इनमें मौजूद बर्फ के कण ऊष्मा
को कैद कर लेते हैं। इसकी वजह से तापमान में वृद्धि होती है। इस शोध के मुताबिक
साल 2050 तक संघनन लकीरों के कारण होने वाली तापमान वृद्धि तीन गुना हो जाएगी।
साल 2011 में हुए एक शोध के मुताबिक
विमान-जनित बादलों का कुल प्रभाव,
विमानोंद्वारा छोड़ी गई कार्बन डाईऑक्साईड की तुलना में
तापमान वृद्धि में अधिक योगदान देता है। अनुमान यह है कि 2050 तक उड़ानों की
संख्या चौगुनी हो जाएगी और परिणाम स्वरूप तापमान में और अधिक बढ़ोतरी होगी।
उक्त अध्ययन में शामिल जर्मन एयरोस्पेस
सेंटर की उलरिके बुर्खार्ट जानना चाहती थीं कि भविष्य में ये विमान-जनित बादल
जलावयु को किस तरह प्रभावित करेंगे। इसके लिए उन्होंने अपने साथियों के साथ एक
बिलकुल नया पर्यावरण मॉडल बनाया जिसमें विमान-जनित बादलों को सामान्य बादलों से
अलग श्रेणी में रखा गया था। शोधकर्ताओं ने साल 2006 के लिए विश्व स्तर पर
विमान-जनित बादलों का मॉडल तैयार किया क्योंकि सटीक डैटा इसी वर्ष के लिए उपलब्ध
था। फिर उन अनुमानों को देखा कि भविष्य में उड़ानें कितनी बढ़ेंगी और उनके कारण
कितना उत्सर्जन होगा। इसके आधार पर 2050 की स्थिति की गणना की। एटमॉस्फेरिक
केमेस्ट्री एंड फिजि़क्स पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट में उन्होंने बताया है कि
साल 2050 तक विमान-जनित बादलों के कारण तापमान में होने वाली वृद्धि तीन गुना हो
जाएगी।
इसके बाद उन्होंने 2050 में एक अलग परिस्थिति के लिए मॉडल बनाया जिसमें उन्होंने यह माना कि विमानों से होने वाले कार्बन कण उत्सर्जन में 50 प्रतिशत कमी की जाएगी और उसके प्रभाव को देखा। उन्होंने पाया कि इतनी कमी करने पर इन बादलों के कारण होने वाली तापमान वृद्धि में बस 15 प्रतिशत की कमी आती है। बुर्खार्ट का कहना है कि कार्बन कणों में 90 प्रतिशत कमी करने पर भी हम 2006 के स्तर पर नहीं पहुंच पाएंगे। वैसे बहुत संदेह है कि इस दिशा में कोई कार्य होगा क्योंकि आज भी हम कार्बन डाईऑक्साइड पर ही ध्यान दे रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/1127588194-1280×720.jpg?itok=FclbRZio https://insideclimatenews.org/sites/default/files/styles/icn_full_wrap_wide/public/article_images/contrails-germany-900_nicolas-armer-afp-getty%20.jpg?itok=-Z65PHF1
एजेंसी
फ्रांस प्रेस के अनुसार 19 जुलाई को चीनी अंतरिक्ष स्टेशन तियांगोंग-2 अपनी कक्षा
छोड़ धरती पर गिर गया। लेकिन पिछली बार के विपरीत,
इस दौरान पूरे समय इस पर चीन के अंतरिक्ष वैज्ञानिकों का
नियंत्रण रहा।
चीनी
राष्ट्रीय अंतरिक्ष प्रशासन (CNSA)
पहले ही यह बता चुका था कि चीन का दूसरा प्रायोगिक अंतरिक्ष स्टेशन तियांगोंग-2
अपनी कक्षा छोड़ने वाला है और पृथ्वी के वायुमंडल में पुन: प्रवेश करने वाला है।
प्रशासन के अनुसार पुन: प्रवेश के दौरान तियांगोंग-2 वायुमंडल में पूरी तरह जल
जाएगा और यदि कुछ बचा तो वह प्रशांत महासागर के पाइंट नेमो नामक इलाके में गिरेगा।
लेकिन यह स्थिति चीन के पहले अंतरिक्ष स्टेशन तियांगोंग-1 से भिन्न है। उसने भी अप्रैल
2018 में अपनी कक्षा छोड़ दी थी और पृथ्वी पर अनियंत्रित तरीके से आ गिरा था।
लेकिन तियांगोंग-1 पर कोई नियंत्रण नहीं रह गया था। हालांकि संयोग से तियांगोंग-1
भी प्रशांत महासागर के इसी इलाके में गिरा था।
तियांगोंग-2 उत्तरी बॉटलनोज़ व्हेल से थोड़ा बड़ा, 10 मीटर लंबा और 8600 किलोग्राम वज़नी था। इस अंतरिक्ष स्टेशन में 18 मीटर लंबे सौलर पैनल थे जिससे यह अजीब-सी व्हेल मछली की तरह दिखता था।
अंतरिक्ष प्रशासन के अधिकारियों का कहना है कि तियांगोंग-2 ने अपने सारे प्रयोग पूरे कर लिए थे। और इसने अपनी 2 साल की तयशुदा उम्र से एक साल अधिक कार्य किया। स्पेस डॉटकॉम के मुताबिक इस दौरान तियांगोंग-2 ने एक बार (अक्टूबर-नवंबर 2016 में) दो अंतरिक्ष यात्रियों और कई रोबोटिक मिशन की मेज़बानी की थी। (स्रोत फीचर्स)
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पृथ्वी की संरचना विभिन्न
परतों से बनी है। सतह से चलें तो एक के बाद एक कई परत पार करने के बाद धरती के
केंद्र में अत्यधिक गर्म क्षेत्र है जिसे कोर कहा जाता है। कई दशकों से
वैज्ञानिकों में इस सवाल पर मतभेद रहा है कि क्या कोर और पृथ्वी की अन्य परतों
(खासकर मैंटल) के बीच पदार्थ का आदान-प्रदान होता है या नहीं। हालिया अध्ययन से
मालूम चला है कि कोर से कुछ रिसाव मैंटल में हो रहा है। इसका कुछ हिस्सा पृथ्वी की
सतह पर भी पहुंच रहा है।
दी कंवर्सेशन में प्रकाशित
अध्ययन के अनुसार यह रिसाव लगभग 2.5 अरब वर्षों से हो रहा है। इस निष्कर्ष तक
पहुंचने में मुख्य भूमिका टंगस्टन (W) नामक तत्व की रही। खास तौर पर टंगस्टन के दो समस्थानिक मददगार रहे – W-182 और W-184। गौरतलब है कि
किसी भी तत्व के समस्थानिक उन्हें कहते हैं जिनकी परमाणु संख्या तो एक ही होती है
किंतु परमाणु भार अलग-अलग होते हैं।
टंगस्टन धातु सिडरोफाइल है
यानी यह लौहे से आकर्षित होती है। पृथ्वी का कोर मुख्य रूप से लोहे और निकल से बना
है, इसलिए इसमें कोई अचरज की बात नहीं है कि उसमें काफी मात्रा
में टंगस्टन पाया जाता है।
एक अन्य तत्व, हाफनियम (Hf), जो लिथोफाइल है यानी चट्टानों से आकर्षित होता है, पृथ्वी के सिलिकेट-समृद्ध मैंटल में ज़्यादा मात्रा में पाया जाता है।
हाफनियम का एक समस्थानिक Hf-182 है। यह रेडियोसक्रिय होता है और टूटकर W-182 में बदलता रहता है। इसके हिसाब से वैज्ञानिकों ने
अनुमान लगाया कि कोर की तुलना में मैंटल में W-182:W-184 अनुपात अधिक
होना चाहिए क्योंकि मैंटल में Hf-182 टूट-टूटकर W-182 में बदलता रहा होगा।
पृथ्वी की उम्र के साथ
समुद्री द्वीपों के बैसाल्ट (एक प्रकार की आग्नेय चट्टान) में 182W/184W के अनुपात में अंतर
से कोर और मैंटल के बीच रासायनिक आदान-प्रदान का पता लगाया जा सकता है। लेकिन यह
अंतर बहुत कम होने की संभावना था।
एक मुश्किल और थी। कोर लगभग
2900 किलोमीटर की गहराई पर शुरू होता है, जबकि हम अभी तक 12.3 कि.मी.
गहराई तक ही खोद पाए हैं।
इसलिए शोधकर्ताओं ने उन
चट्टानों का अध्ययन किया जो पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के पिलबारा क्रेटन, हिंद महासागर स्थित रियूनियन द्वीप और केग्र्यूलन द्वीपसमूह में गहरे मैंटल से
पृथ्वी की सतह तक पहुंची थीं।
पृथ्वी के जीवनकाल की
अलग-अलग अवधियों में, मैंटल में टंगस्टन के समस्थानिकों का अनुपात
बदलता रहा है। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से मालूम चला कि आधुनिक चट्टानों की तुलना में
पृथ्वी की सबसे पुरानी चट्टानों में W-182 का अनुपात अधिक है। इसका मतलब यही हो सकता है कि कोर में से टंगस्टन
निकलकर मैंटल में पहुंचा है। चूंकि कोर में W-182 कम और W-184 अधिक होता है
इसलिए यदि वहां से टंगस्टन रिसकर मैंटल में पहुंचेगा तो मैंटल में भी W-182 का अनुपात कम होता जाएगा।
उपरोक्त अध्ययन में टंगस्टन के समस्थानिकों के अनुपात में अंतर करीब 2.5 अरब वर्ष पूर्व की चट्टानों में दिखे हैं, उससे पहले की चट्टानों में नहीं। यानी माना जा सकता है कि कोर से मैंटल में रिसाव 2.5 अरब वर्ष पूर्व ही शुरू हुआ है। (स्रोत फीचर्स)
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लॉस एंजेल्स,
कैलिफोर्निया के अधिकारी जल्द ही एक सौदा करने वाले हैं जो
सौर ऊर्जा को पहले से कहीं अधिक सस्ता कर देगा और उसकी एक प्रमुख खामी से भी
निपटेगा – सौर ऊर्जा तभी उपलब्ध होती है जब सूरज चमक रहा हो। इस सौदे के तहत एक
विशाल सौर फार्म स्थापित किया जाएगा जहां दुनिया की एक सबसे बड़ी बैटरी का
इस्तेमाल किया जाएगा। 2023 तक यह शहर को 7 प्रतिशत बिजली प्रदान करेगा। इसकी लागत
होगी बैटरी के लिए 1.3 सेंट प्रति युनिट और सौर ऊर्जा के लिए 1.997 सेंट प्रति
किलोवाट घंटा। यह किसी भी जीवाश्म र्इंधन से उत्पन्न उर्जा से सस्ता है।
स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी,
कैलिफोर्निया के वायुमंडलीय वैज्ञानिक मार्क जैकबसन के
अनुसार बड़े पैमाने पर उत्पादन के चलते नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन और बैटरियों की
कीमतें नीचे आती रहती हैं।
बैटरी भंडारण के मूल्य में
तेज़ी से गिरावट के चलते नवीकरण को प्रोत्साहन मिला है। मार्च में ब्लूमबर्ग न्यू
एनर्जी फाइनेंस द्वारा 7000 से अधिक वैश्विक भंडारण परियोजनाओं के विश्लेषण से
मालूम चला है कि 2012 के बाद से लीथियम बैटरी की लागत में 76 प्रतिशत की कमी आई और
पिछले 18 महीनों में 35 प्रतिशत कम होकर 187 डॉलर प्रति मेगावाट-घंटा हो गई। एक
अन्य अध्ययन के अनुसार 2030 तक इसकी कीमतें आधी होने का अनुमान है जो 8-मिनट सोलर
एनर्जी नामक कंपनी के अनुमान से भी कम है।
यही कंपनी नवीन
सौर-प्लस-स्टोरेज कैलिफोर्निया में तैयार करने जा रही है। इस परियोजना से प्रतिदिन
400 मेगावाट सौर संयंत्रों का जाल बनाया जाएगा, जिससे सालाना लगभग 8,76,000 मेगावॉट घंटे (MWh) बिजली पैदा होगी।
यह दिन के समय 65,000 से अधिक घरों के लिए पर्याप्त होगी। इसकी 800 मेगावॉट घंटे
की बैटरी सूरज डूबने के बाद बिजली भंडार करके रखेगी, जिससे प्राकृतिक गैस जनरेटर की ज़रूरत कम हो जाएगी।
बड़े पैमाने पर बैटरी भंडारण आम
तौर पर लीथियम आयन बैटरी पर निर्भर करता है। लेकिन बैटरी ऊर्जा भंडारण आम तौर पर
केवल कुछ घंटों के लिए बिजली प्रदान करते हैं। इसको बादल आच्छादित मौसम या
सर्दियों की स्थिति में लंबे समय तक चलने के लिए विकसित करने की आवश्यकता है।
100 प्रतिशत नवीकरणीय वस्तुओं
पर जाने के साथ-साथ साथ स्थानीय कंपनियां भी ग्रिड बैटरियों की ओर तेज़ी से बढ़ा
रही हैं। जैकबसन के अनुसार, 54 देशों और आठ अमेरिकी राज्यों को 100 प्रतिशत नवीकरणीय बिजली की ओर जाने की
आवश्यकता है।
लॉस एंजेल्स परियोजना वैसे तो सस्ती लगती है, लेकिन ग्रिड को पूरी तरह से नवीकरणीय संसाधनों से उर्जा प्रदान करने से लागत बढ़ सकती है। पिछले महीने ऊर्जा अनुसंधान कंपनी वुड मैकेंज़ी ने अनुमान लगाया था कि इसके लिए अकेले यूएस ग्रिड के लिए 4.5 ट्रिलियन डॉलर की लागत होगी, जिसमें से लगभग आधी लागत 900 बिलियन वॉट या 900 गीगावॉट (GW) बैटरी और अन्य ऊर्जा भंडारण प्रौद्योगिकियों के स्थापित करने के लिए उपयोग हो जाएगी। ( स्रोत फीचर्स)
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इस साल जून में यदि आपने अत्यधिक गर्मी का अहसास किया है तो आपका एहसास एकदम
सही है। वास्तव में जून 2019 पृथ्वी पर अब तक का सर्वाधिक गर्म जून रहा है। साथ ही
यह लगातार दूसरा महीना था जब अधिक तापमान के कारण अंटार्कटिक सागर में सबसे कम
बर्फ की चादर दर्ज की गई।
नेशनल ओशिएनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन के नेशनल सेंटर फॉर एनवॉयरमेंटल
इंफरमेशन के अनुसार विगत जून में भूमि और सागर का औसत तापमान वैश्विक औसत तापमान
(15.5 डिग्री सेल्सियस) से 0.95 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा। यह पिछले 140 वर्षों
में जून माह में दजऱ् किए गए तापमान में सर्वाधिक था। 10 में से 9 सबसे गर्म जून
माह तो साल 2010 के बाद रिकॉर्ड किए गए हैं।
उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों, मेक्सिको खाड़ी के देशों, युरोप,
ऑस्ट्रिया, हंगरी और जर्मनी में इस वर्ष का
जून सर्वाधिक गर्म जून रहा। वहीं स्विटज़रलैंड में दूसरा सर्वाधिक गर्म जून रहा।
यही हाल यूएस के अलास्का में भी रहा। यहां भी 1925 के बाद से अब तक का दूसरा सबसे
गर्म जून दर्ज किया गया।
जून में पूरी पृथ्वी का हाल ऐसा था जैसे इसने गर्म कंबल ओढ़ रखा हो। इतनी अधिक
गर्मी के कारण ध्रुवों पर बर्फ पिघलने
लगी। जून 2019 लगातार ऐसा बीसवां जून रहा जब आर्कटिक में औसत से भी कम बर्फ दर्ज
की गई है। और अंटार्कटिक में लगातार चौथा ऐसा जून रहा जब वहां औसत से भी कम बर्फ
आच्छादन रहा। अंटार्कटिक में पिछले 41 सालों में सबसे कम बर्फ देखा गया। यह 2002
में दर्ज सबसे कम बर्फ आच्छादन (1,60,580 वर्ग किलोमीटर) से भी कम था।
क्या इतना अधिक तापमान ग्लोबल वार्मिंग का नतीजा है? जी हां।
युनिवर्सिटी ऑफ पीट्सबर्ग के जोसेफ वर्न बताते हैं कि कई सालों में लंबी अवधि के
मौसम का औसत जलवायु कहलाती है। कोई एक गर्म या ठंडे साल का पूरी जलवायु पर बहुत कम
असर पड़ता है। लेकिन जब ठंडे या गर्म वर्ष का दोहराव बार-बार होने लगता है तो यह
जलवायु परिवर्तन है।
पूरी पृथ्वी पर अत्यधिक गर्म हवाएं (लू) अधिक चलने लगी हैं। पृथ्वी का तापमान भी लगातार बढ़ता जा रहा है, ऐसे में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को नज़रअंदाज करना मुश्किल है। नेचर क्लाईमेट चेंज पत्रिका के जून अंक के अनुसार यदि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम नहीं किया गया तो हर साल झुलसा देने वाली गर्मी बढ़ती जाएगी। (स्रोत फीचर्स)
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यह
आलेख डॉ. सी. सत्यमाला के ब्लॉग डेपो-प्रॉवेरा एंड एच.आई.वी. ट्रांसमिशन: दी
ज्यूरी इस स्टिल आउट का अनुवाद है। मूल आलेख को निम्नलिखित लिंक पर पढ़ा जा सकता
है: https://issblog.nl/2019/07/23/depo-provera-and-hiv-transmission-the-jurys-still-out-by-c-sathyamala/
एड्स वायरस (एच.आई.वी.) के प्रसार और डेपो-प्रॉवेरा नामक एक गर्भनिरोधक
इंजेक्शन के बीच सम्बंध की संभावना ने कई चिंताओं को जन्म दिया है। एक प्रमुख
चिंता यह है कि यदि इस गर्भनिरोधक इंजेक्शन के इस्तेमाल से एच.आई.वी. संक्रमण का
खतरा बढ़ता है तो क्या उन इलाकों में इसका उपयोग किया जाना चाहिए जहां एच.आई.वी.
का प्रकोप ज़्यादा है। जुलाई के अंत में विश्व स्वास्थ्य संगठन इस संदर्भ में
दिशानिर्देश विकसित करने के लिए एक समूह का गठन करने जा रहा है ताकि हाल ही में
सम्पन्न एक अध्ययन के परिणामों पर विचार करके डेपो-प्रॉवेरा की स्थिति की समीक्षा
की जा सके। अलबत्ता, जिस अध्ययन के आधार पर यह समीक्षा करने का प्रस्ताव है, उसके अपने नतीजे स्पष्ट नहीं हैं। इसलिए ज़रूरी होगा कि जल्दबाज़ी न करते हुए
विशेषज्ञों,
सम्बंधित देशों के स्वास्थ्य अधिकारियों और सामाजिक संगठनों
के प्रतिनिधियों को अपनी राय व्यक्त करने हेतु पर्याप्त समय दिया जाए।
जुलाई 29-31 को विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) एक दिशानिर्देश विकास समूह का गठन
करने जा रहा है जो “एच.आई.वी. का उच्च जोखिम झेल रही” महिलाओं के लिए गर्भनिरोधक
विधियों के बारे में मौजूदा सिफारिशों की समीक्षा करेगा। इस समीक्षा में खास तौर
से एक रैंडमाइज़्ड क्लीनिकल ट्रायल के नतीजों पर ध्यान दिया जाएगा। एविडेंस फॉर
कॉन्ट्रासेप्टिव ऑप्शन्स एंड एच.आई.वी. आउटकम्स (गर्भनिरोधक के विकल्प और
एच.आई.वी. सम्बंधी परिणाम, ECHO) नामक इस अध्ययन के परिणाम
पिछले महीने लैन्सेट नामक पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं। ECHO ट्रायल चार अफ्रीकी
देशों (दक्षिण अफ्रीका, केन्या, स्वाज़ीलैंड और ज़ाम्बिया) में
किया गया था। इसका मकसद लंबे समय से चले आ रहे उस विवाद का पटाक्षेप करना था कि
डेपो-प्रॉवेरा इंजेक्शन लेने से महिलाओं में एच.आई.वी. प्रसार की संभावना बढ़ती
है। गौरतलब है कि डेपो-प्रॉवेरा एक गर्भनिरोधक इंजेक्शन है जो महिला को तीन महीने
में एक बार लेना होता है।
डेपो-प्रॉवेरा कोई नया गर्भनिरोधक नहीं है। 1960 के दशक में अमरीकी दवा कंपनी
अपजॉन ने गर्भनिरोधक के रूप में इसके उपयोग का लायसेंस प्राप्त करने के लिए आवेदन
किया था। तब से ही यह विवादों से घिरा रहा है। डेपो-प्रॉवेरा को खतरनाक माना जाता
है क्योंकि इसके कैंसरकारी, भ्रूण-विकृतिकारी और
उत्परिवर्तनकारी असर होते हैं।
अलबत्ता,
1992 में मंज़ूरी मिलने के बाद इस बात के प्रमाण मिलने लगे
थे कि इसका उपयोग करने वाली महिलाओं में एच.आई.वी. संक्रमण की आशंका बढ़ जाती है।
2012 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेतावनी जारी की थी कि इसका उपयोग करने वाली
महिलाओं को “स्पष्ट सलाह दी जानी चाहिए कि वे हमेशा कंडोम का उपयोग भी करें।”
अवलोकन आधारित अध्ययनों के परिणामों में अनिश्चितताओं को देखते हुए एक रैंडमाइज़्ड
ट्रायल डिज़ाइन करने हेतु 2012 में ECHO संघ का गठन किया गया। रैंडमाइज़ का मतलब
होता है सहभागियों को दिए जाने उपचार का चयन पूरी तरह बेतरतीबी से किया जाता है।
चूंकि इस ट्रायल में तीन अलग-अलग गर्भनिरोधकों का उपयोग किया जाना था, इसलिए रैंडमाइज़ का अर्थ होगा कि बेतरतीब तरीके से प्रत्येक महिला के लिए
इनमें से कोई तरीका निर्धारित कर दिया जाएगा।
शुरू से ही इस ट्रायल लेकर कई आशंकाएं भी ज़ाहिर की गर्इं। जैसे यह कहा गया कि
रैंडमाइज़ेशन समस्यामूलक है क्योंकि इसके ज़रिए कुछ सहभागियों को एक ऐसे
गर्भनिरोधक का इस्तेमाल करवाया जाएगा जो एच.आई.वी. संक्रमण की संभावना को बढ़ा
सकता है। ऐसी सारी शंकाओं के बावजूद कक्क्तग्र् संघ ने 2015 में ट्रायल का काम
किया। अपेक्षाओं के विपरीत, पर्याप्त संख्या में महिलाएं इस
अध्ययन में शामिल हो गर्इं और उन्होंने स्वीकार कर लिया कि उन्हें बेतरतीबी से तीन
में से किसी एक गर्भनिरोधक इस्तेमाल करने वाले समूह में रख दिया जाएगा। ये तीन
गर्भनिरोधक थे: डेपो-प्रॉवेरा, लेवोनोजेस्ट्रल युक्त त्वचा के
नीचे लगाया जाने वाला एक इम्प्लांट और कॉपर-टी जैसा कोई गर्भाशय में रखा जाने वाला
गर्भनिरोधक साधन। पूरा अध्ययन डेपो-प्रॉवेरा के बारे में तो निष्कर्ष निकालने के
लिए था। शेष दो गर्भनिरोधक इसलिए रखे गए थे ताकि एच.आई.वी. प्रसार के साथ
डेपो-प्रॉवेरा के सम्बंधों की तुलना की जा सके। कई लोगों ने कहा है कि इतनी संख्या
में महिलाओं को अध्ययन में भर्ती कर पाना और उन्हें बेतरतीबी से विभिन्न
गर्भनिरोधक समूहों में बांट पाना इसलिए संभव हुआ है क्योंकि उन पर दबाव डाला गया
था और ट्रायल के वास्तविक मकसद को छिपाया गया था। इस दृष्टि से ECHO ट्रायल ने विश्व
चिकित्सा संघ के हेलसिंकी घोषणा पत्र के एक प्रमुख बिंदु का उल्लंघन किया है।
हेलसिंकी घोषणा पत्र में स्पष्ट कहा गया है कि “यह सही है कि चिकित्सा अनुसंधान का
मुख्य उद्देश्य नए ज्ञान का सृजन करना है किंतु यह लक्ष्य कभी भी अध्ययन के
सहभागियों के अधिकारों व हितों के ऊपर नहीं हो सकता।” स्पष्ट है कि संघ ने महिलाओं
को पूरी जानकारी न देकर अपने मकसद को उनके अधिकारों व हितों से ऊपर रखा।
एक महत्वपूर्ण बात यह है कि इस अध्ययन में सैम्पल साइज़ (यानी उसमें कितनी
महिलाओं को शामिल किया जाए) का निर्धारण यह जानने के हिसाब से किया गया था कि क्या
डेपो-प्रॉवेरा के उपयोग से एच.आई.वी. के प्रसार के जोखिम में 30 प्रतिशत से
ज़्यादा की वृद्धि होती है। जोखिम में इससे कम वृद्धि को पहचानने की क्षमता इस
अध्ययन में नहीं रखी गई थी। इसका मतलब है कि यदि त्वचा के नीचे लगाए जाने वाले
इम्प्लांट के मुकाबले डेपो-प्रॉवेरा के इस्तेमाल से एच.आई.वी. प्रसार की दर 23-29
प्रतिशत तक अधिक होती है, तो उसे यह कहकर नज़रअंदाज़ कर
दिया जाएगा कि वह सांख्यिकीय दृष्टि से उल्लेखनीय नहीं है। जो महिला डेपो-प्रॉवेरा
का इस्तेमाल करती है या ट्रायल के दौरान जिसे डेपो-प्रॉवेरा समूह में रखा जाएगा, उसकी दृष्टि से यह सीमा-रेखा बेमानी है। यह सीमा-रेखा सार्वजनिक स्वास्थ्य
सम्बंधी निर्णयों की दृष्टि से भी निरर्थक है।
विभिन्न परिदृश्यों को समझने के लिए मॉडल विकसित करने के एक प्रयास में देखा
गया है कि यदि डेपो-प्रॉवेरा के इस्तेमाल से एच.आई.वी. का प्रसार बढ़कर 1.2 गुना
भी हो जाए,
तो इसकी वजह से प्रति वर्ष एच.आई.वी. संक्रमण के 27,000 नए
मामले सामने आएंगे। इसकी तुलना प्राय: गर्भ निरोधक के रूप में डेपो-प्रॉवेरा के
इस्तेमाल से मातृत्व सम्बंधी कारणों से होने वाली मौतों में संभावित कमी से की
जाती है। डेपो-प्रॉवेरा के इस्तेमाल से मातृत्व सम्बंधी मृत्यु दर में जितनी कमी
आने की संभावना है, उससे कहीं ज़्यादा महिलाएं तो इस गर्भनिरोधक का उपयोग करने
की वजह से एच.आई.वी. से संक्रमित हो जाएंगी। ऐसा नहीं है कि कक्क्तग्र् टीम इस बात
से अनभिज्ञ थी। उन्होंने माना है कि उनकी ट्रायल में 30 प्रतिशत से कम जोखिम पता
करने की शक्ति नहीं है।
पूरे अध्ययन का एक और पहलू अत्यधिक चिंताजनक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का
कहना है कि डेपो-प्रॉवेरा के उपयोग से एच.आई.वी. संक्रमण का खतरा बढ़ने के कुछ
प्रमाण हैं। संगठन का मत है कि जिन महिलाओं को एच.आई.वी. संक्रमण का खतरा अधिक है
वे इसका उपयोग कर सकती हैं क्योंकि गर्भनिरोध के रूप में जो फायदे इससे मिलेंगे वे
एच.आई.वी. के बढ़े हुए जोखिम से कहीं अधिक हैं। साफ है कि इस ट्रायल में शामिल
एक-तिहाई महिलाओं को जानते-बूझते इस बढ़े हुए जोखिम को झेलना होगा। दवा सम्बंधी
अधिकांश ट्रायल में जो लोग भाग लेते हैं उन्हें कोई बीमारी होती है जिसके लिए
विकसित दवा का परीक्षण किया जा रहा होता है। मगर गर्भनिरोध का मामला बिलकुल भिन्न
है। गर्भनिरोधकों का परीक्षण स्वस्थ महिलाओं पर किया जाता है। बीमार व्यक्ति को एक
आशा होती है कि बीमारी का इलाज इस परीक्षण से मिल सकेगा लेकिन इन महिलाओं को तो
मात्र जोखिम ही झेलना है।
इसी संदर्भ में ECHO ट्रायल की एक और खासियत है। इस अध्ययन का एक जानलेवा
अंजाम ही यह है कि शायद वह महिला एच.आई.वी. से संक्रमित हो जाएगी। यही जांचने के
लिए तो अध्ययन हो रहा है कि क्या डेपो-प्रॉवेरा के उपयोग से एच.आई.वी. संक्रमित
होने की संभावना बढ़ती है। यह शायद क्लीनिकल ट्रायल के इतिहास में पहली बार है कि
कुछ स्वस्थ महिलाओं को जान-बूझकर एक गर्भनिरोधक दिया जा रहा है जिसका मकसद यह
जानना नहीं है कि वह गर्भनिरोधक गर्भावस्था को रोकने/टालने में कितना कारगर है
बल्कि यह जानना है कि उसका उपयोग खतरनाक या जानलेवा है या नहीं। यानी ट्रायल के
दौरान कुछ स्वस्थ शरीरों को बीमार शरीरों में बदल दिया जाएगा।
इस सबके बावजूद मीडिया में भ्रामक जानकारी का एक अभियान छेड़ दिया गया है। इस अभियान को स्वयं विश्व स्वास्थ्य संगठन के इस वक्तव्य से हवा मिली है कि ट्रायल में इस्तेमाल की गई गर्भनिरोधक विधियों और एच.आई.वी. प्रसार का कोई सम्बंध नहीं देखा गया है। इससे तो लगता है कि डेपो-प्रॉवेरा को उच्च जोखिम वाली आबादी में उपयोग के लिए सुरक्षित घोषित करने का निर्णय पहले ही लिया जा चुका है। हकीकत यह है कि ECHO ट्रायल ने मुद्दे का पटाक्षेप करने की बजाय नई अनिश्चितताएं उत्पन्न कर दी हैं। लिहाज़ा, यह ज़रूरी है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन का दिशानिर्देश विकास समूह जल्दबाज़ी में कोई निर्णय न करे। बेहतर यह होगा कि विशेषज्ञों, सम्बंधित देशों के स्वास्थ्य अधिकारियों और सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधियों को समय दिया जाए कि वे कक्क्तग्र् और इसके नीतिगत निहितार्थों को उजागर कर सकें। तभी एक ऐसे मुद्दे पर जानकारी-आधारित निर्णय हो सकेगा जो करोड़ों महिलाओं को प्रभावित करने वाला है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.bmj.com/sites/default/files/sites/defautl/files/attachments/bmj-article/2019/07/depo-provera-injection.jpg
अपोलो 11 यान के चांद पर उतरने की आधी शताब्दी के बाद भी कई
लोग इस घटना को झूठा मानते हैं। आम तौर पर कहा जाता रहा है कि फिल्म निर्देशक
स्टेनली कुब्रिक ने चांद पर उतरने के छह ऐतिहासिक झूठे फुटेज तैयार करने में नासा
की मदद की।
लेकिन क्या वास्तव में उस समय की उपलब्ध
तकनीक से ऐसा कर पाना संभव था? एमए-फिल्म और टेलीविज़न प्रोडक्शन के
प्रमुख हॉवर्ड बैरी का कहना है कि एक फिल्म निर्माता के रूप में वह यह तो नहीं बता
सकते कि नासा का यान 1969 में चांद पर कैसे पहुंचा था लेकिन दावे के साथ कह सकते
हैं कि इन ऐतिहासिक फुटेज का झूठा होना असंभव है। उन्होंने इस सम्बंध में कुछ आम
मान्यताओं और सवालों का जवाब दिया है।
आम तौर इस घटना को एक स्टूडियो में फिल्माए
जाने की बातें कही गई हैं। गौरतलब है कि चलती छवियों को कैमरे में कैद करने के दो
तरीके होते हैं। एक तो फोटोग्राफिक सामग्री का उपयोग करके और दूसरा चुम्बकीय टेप
का उपयोग करके इलेक्ट्रॉनिक तरीके से। एक मानक मोशन पिक्चर फिल्म 24 फ्रेम प्रति
सेकंड से छवियों को रिकॉर्ड करती है, जबकि प्रसारण टेलीविज़न आम तौर पर 25 से 30
फ्रेम प्रति सेकंड का होता है। यदि हम यह मान भी लें कि चंद्रमा पर उतरना टीवी
स्टूडियो में फिल्माया गया था तो वीडियो उस समय के मानक 30 फ्रेम प्रति सेकंड का
होना चाहिए था। हम जानते हैं कि चंद्रमा पर प्रथम अवतरण को स्लो स्कैन टेलीविज़न
(एसएसटीवी) के विशेष कैमरे से 10 फ्रेम प्रति सेकंड पर रिकॉर्ड किया गया था।
एक बात यह भी कही जाती है कि वीडियो फुटेज
को किसी स्टूडियो में विशेष अपोलो कैमरा पर रिकॉर्ड करके स्लो मोशन में प्रस्तुत
किया गया ताकि यह भ्रम पैदा किया जा सके कि पूरी घटना कम गुरुत्वाकर्षण के परिवेश
में फिल्माई गई है। गौरतलब है कि फिल्म को धीमा करने के लिए ऐसे कैमरे की ज़रूरत
होती है जो प्रति सेकंड सामान्य से अधिक फ्रेम रिकॉर्ड करने में सक्षम हो। इसे
ओवरक्रैंकिंग कहा जाता है। जब ऐसी फिल्म को सामान्य फ्रेम दर पर चलाया जाता है तो
यह लंबे समय तक चलती है। यदि आप अपने कैमरे को ओवरक्रैंक नहीं कर सकते हैं तो
सामान्य फ्रेम दर पर रिकॉर्ड करके कृत्रिम रूप से फुटेज को धीमा कर सकते हैं।
लेकिन उसके लिए आपको अतिरिक्त फ्रेम उत्पन्न करने की तकनीक की आवश्यकता होगी
अन्यथा बीच-बीच में खाली जगह छूटेगी।
अपोलो अवतरण के ज़माने में स्लो मोशन को
रिकॉर्ड करने में सक्षम चुंबकीय रिकॉर्डर कुल 30 सेकंड का ही फुटेज रिकॉर्ड कर
सकते थे। इसे 90 सेकंड के स्लो मोशन वीडियो के रूप में चलाया जा सकता था। लेकिन
यदि आपको 143 मिनट का स्लो मोशन फुटेज चाहिए तो वास्तविक घटना का 47 मिनट का
रिकॉर्डिंग करना होता। यह उस समय असंभव था।
यह भी शंका व्यक्त की गई है कि नासा के पास
उन्नत स्टोरेज रिकॉर्डर था। लोग मानते हैं कि नासा के पास अत्यधिक उन्नत
टेक्नॉलॉजी सबसे पहले आ जाती है। बैरी कहते हैं कि हो सकता है कि नासा के पास उस
समय कोई गुप्त एडवांस स्टोरेज रिकॉर्डर रहा हो लेकिन वह सार्वजनिक रूप से उपलब्ध
रिकॉर्डर से 3000 गुना अधिक उन्नत रहा होगा,
जो संभव नहीं
है।
कुछ लोग यह भी कहते हैं कि नासा ने पहले
साधारण फोटोग्राफिक फिल्म पर रिकॉर्डिंग किया और फिर उसे धीमा करके चलाया और टीवी
पर प्रदर्शन के लिए परिवर्तित कर लिया। फिल्म तो जितनी चाहे उपलब्ध हो सकती थी!
थोड़ी गणना करते हैं। 24 फ्रेम प्रति सेकंड
पर चलने वाली 35 मि.मी. फिल्म की एक रील 11 मिनट तक चलती है और उसकी लम्बाई लगभग
1,000 फुट होती है। अगर हम इसे 12 फ्रेम प्रति सेकंड की फिल्म पर लागू करें तो
अपोलो-11 के 143 मिनट के फुटेज के लिए कुल साढ़े छह रीलों की आवश्यकता होगी।
फिर शूटिंग के बाद इन्हें एक साथ जोड़ना
पड़ता। जोड़ने के निशान, नेगेटिव्स के स्थानांतरण और प्रिंट निकालने के अलावा संभावित धूल, कचरा या खरोंचों के निशान सारा सच बयान कर
देते। लेकिन अपोलो-11 अवतरण की फिल्म में ऐसा कुछ नज़र नहीं आता। मतलब साफ है कि
इसे फोटोग्राफिक फिल्म पर शूट नहीं किया गया था।
यह भी कहा गया है कि चांद पर तो हवा है
नहीं, फिर अमेरिका का झंडा हवा से फहरा क्यों रहा है? ज़रूर
यह स्टूडियो में लगे पंखे का कमाल है। सच्चाई यह है कि एक बार लगाए जाने के बाद
पूरे फुटेज में कहीं भी झंडा हिलता हुआ नज़र नहीं आ रहा है, फहराने
की तो बात ही जाने दें।
कुछ लोगों को लगता है कि फुटेज में स्पष्ट
रूप से स्पॉटलाइट का प्रकाश नज़र आ रहा है। इस पर बैरी कटाक्ष करते हुए कहते हैं
कि सही है। वह प्रकाश 15 करोड़ किलोमीटर दूर स्थित एक स्पॉटलाइट से आ रहा है, जिसे
हम सूरज कहते हैं। उनका कहना है कि यदि स्पॉटलाइट नज़दीक होता तो छाया एक
केन्द्रीय बिंदु से उत्पन्न होती, लेकिन रुाोत इतनी दूर है कि परछाइयां
अधिकांशत: समानांतर हैं।
अंत में बैरी का कहना है कि जो लोग मानते हैं कि इसे स्टेनली कुब्रिक ने फिल्माया था तो उन्हें यह बता दें कुब्रिक इतने परफेक्शनिस्ट (सटीकतावादी) थे कि वे इस फिल्म को लोकेशन यानी चांद पर ही शूट करने पर ज़ोर देते। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.abc.net.au/news/image/4166712-3×2-700×467.jpg
अभी कुछ समय पहले, 2014 में गुरुत्वाकर्षण तरंगों का पता
लगाया गया और इस वर्ष ब्लैक होल की पहली तस्वीर ली गई। दोनों ही खोजें आइंस्टाइन
के सापेक्षता के सामान्य सिद्धांत की भविष्यवाणी के प्रभावशाली प्रमाण हैं। ये
दोनों घटनाएं वर्ष 2015 के दोनों ओर घटी हैं जो आइंस्टाइन के युगांतरकारी शोध पत्र
के प्रकाशन का शताब्दी वर्ष था। सौ वर्षों के इस अंतराल में काफी बहसें और चर्चाएं
तो होती रही हैं साथ ही साथ प्रकृति को लेकर इस महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि ने हमें
अचंभित भी किया है।
इस सिद्धांत का पहला भाग, विशिष्ट
सिद्धांत, 1905 में प्रकाशित हुआ था। इसमें उच्च वेगों पर वस्तुओं के
व्यवहार तथा द्रव्यमान और ऊर्जा की आपसी तुल्यता की बात की गई थी।
दूसरा भाग,
सामान्य सापेक्षता, गुरुत्वाकर्षण
पर विचार करता है और ऐसे प्रभावों के बारे में चर्चा करता है जो ब्राहृांड के स्तर
पर नज़र आते हैं। ये वो चीज़ें हैं जिनको हम रोज़मर्रा की ज़िंदगी में नहीं देखते
हैं। लेकिन सामान्य सापेक्षता को असाधारण सटीकता के साथ सत्यापित किया गया है और
यह प्रकृति का एक निर्विवाद हिस्सा है। प्रकृति के नियमों को समझने का काम इसी के
मार्गदर्शन में करना होगा।
इन आविष्कारों के महत्व और विशिष्ट प्रकृति, दोनों
को देखते हुए आइंस्टाइन ने स्वयं उन पाठकों,
जो पेशेवर वैज्ञानिक
नहीं थे, के लिए एक स्पष्ट और सरल,
लेकिन सैद्धांतिक रूप
से गहन विवरण प्रस्तुत करने का काम हाथ में लिया। परिणामस्वरूप 1917 के वसंत में
उन्होंने जर्मन भाषा में एक पुस्तिका का प्रकाशन किया था: ‘रिलेटिविटी: दी स्पेशल
एंड दी जनरल थ्योरी (ए पॉपुलर अकाउंट)’। इसकी शताब्दी के अवसर पर प्रिंसटन
युनिवर्सिटी ने हिब्रू विश्वविद्यालय, यरुशलम के साथ मिलकर 1960 में किए गए इसके
अंग्रेज़ी अनुवाद को फिर से प्रकाशित किया है। इसमें बाद में जोड़े गए परिशिष्ट भी
शामिल किए गए हैं और साथ ही एक रीडिंग कम्पेनियन,
टिप्पणियां और अन्य
अनुवादों पर नोट्स तथा अन्य स्मृतियां भी शामिल की गई हैं।
मूल पुस्तक तो केवल 132 पृष्ठों की है
जिसमें 32 अध्याय हैं। बहुत सारे अध्याय हैं,
नहीं? जी
हां, आइंस्टाइन ने सापेक्षता की अपनी पहली पुस्तक को छोटे-छोटे
हिस्सों में विभाजित किया था। एक अध्याय तो केवल एक पृष्ठ लंबा है। सहजता और
स्पष्टता तथा गणित के कम से कम उपयोग के साथ,
उन्होंने इस सिद्धांत
के मूल विचार को विकसित करने के लिए सिर्फ आवश्यक चीज़ों को ही प्रस्तुत किया है।
जैसा कि वे प्रस्तावना में कहते हैं, “यह पुस्तिका उन पाठकों के लिए है जो एक
सामान्य वैज्ञानिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से सिद्धांत में रुचि तो रखते हैं, लेकिन
सैद्धांतिक भौतिकी के गणितीय औज़ारों से परिचित नहीं हैं।”
आइंस्टाइन पहले पारंपरिक विचार का परिचय
देते हैं। उसके अनुसार यदि अवलोकन के दो प्रेक्षण मंच एक-दूसरे के सापेक्ष एकरूप
गति से चल रहे हैं, तब दोनों मंचों की सापेक्ष गतियों को जोड़कर-घटाकर एक-दूसरे
में परिवर्तित किया जा सकता है। कोई भी प्रेक्षक यह नहीं बता सकता है कि वह एक ऐसे
मंच पर है जो ‘स्थिर’ है या एकरूप गति से चलायमान है क्योंकि भौतिकी के नियम एकरूप
सापेक्ष गति में प्रेक्षकों के किसी भी जोड़े के लिए एक जैसे होते हैं। इस
अभिन्नता को आइंस्टाइन ने सापेक्षता का नियम कहा।
सिर्फ प्रकाश की गति एक अपवाद है। प्रकाश
के मामले में होता यह है कि प्रकाश का स्रोत या प्रेक्षण करने वाला उपकरण किसी भी
वेग से चले, प्रकाश का वेग हमेशा 3,00,000 कि.मी. प्रति सेकंड (निर्वात
में) होता है। यह सापेक्षता के उपरोक्त नियम के विरुद्ध है। चूंकि प्रकाश के वेग
के स्थिर होने की बात को एच.ए. लॉरेंट्ज़ ने विद्युत चुंबकत्व के सिद्धांतों के
आधार पर प्रतिपादित किया था, इसलिए लगता था कि इस मामले में सापेक्षता
के नियम को तिलांजलि दे दी जाए, हालांकि इस नियम के विरुद्ध कोई सबूत नहीं
था।
यहीं पर सापेक्षता के विशेष सिद्धांत का
प्रवेश होता है। विशेष सिद्धांत में लॉरेंट्ज़ के काम का उपयोग करते हुए स्थान और
समय की प्रकृति की पुन: व्याख्या की गई है। यह पुन:व्याख्या उक्त विरोधाभास का
समाधान कर देती है – इसके अनुसार एक-दूसरे के सापेक्ष गति कर रहे दोनों मंचों के
लिए प्रकाश का वेग तो समान रहता है, लेकिन गतिशील ताने-बाने के संदर्भ में मापन
किया जाए तो लंबाई और समय के अंतराल ही सिकुड़ या फैल जाते हैं।
इस पुनव्र्याख्या का एक और निष्कर्ष यह है
कि किसी कण की गति की ऊर्जा न केवल उसके स्थिर द्रव्यमान और चाल पर निर्भर करती है, बल्कि
द्रव्यमान और एक ऐसे कारक पर भी निर्भर करती है,
जिसका मान चाल के साथ
बढ़ता है। यह कारक चाल के वर्ग को प्रकाश के वेग के वर्ग से विभाजित करने पर
प्राप्त होता है। इसलिए द्रव्यमान में यह वृद्धि नगण्य रहती है, सिवाय
उस स्थिति के जब वस्तु का वेग बहुत अधिक हो। हालांकि ऊर्जा के इस समीकरण से हमें
किसी स्थिर कण की आंतरिक ऊर्जा का मान मिलता है जो E = mc2 के रूप में मशहूर
है।
सामान्य सिद्धांत
उपरोक्त विचार एकरूप सापेक्ष गति पर चलने
वाले प्लेटफार्मों के बारे में हैं। इसके बाद आइंस्टाइन एक ऐसे मामले पर विचार
करते हैं जहां एक प्लेटफार्म को त्वरण प्रदान किया जाता है यानी उसकी चाल बदलती
जाती है। इस स्थिति में दो मंचों की परस्पर सापेक्ष गति लगातार बदलती रहती है।
त्वरणशील प्लेटफॉर्म पर प्रेक्षक त्वरण की विपरीत दिशा में एक बल का अनुभव करेगा, और
उसे सभी स्वतंत्र वस्तुएं इसी विपरीत दिशा में गिरती हुई प्रतीत होंगी। और इस
प्रेक्षक के पास गुरुत्वाकर्षण बल और त्वरण के कारण लग रहे बल के बीच अंतर जानने
का कोई तरीका नहीं होगा। आइंस्टाइन का मत है कि वास्तव में इनके बीच कोई अंतर है
भी नहीं। इस आधार पर उन्होंने सापेक्षता के नियम को सामान्य रूप से गुरुत्वाकर्षण
क्षेत्र में स्थित मंच अथवा त्वरणशील मंच दोनों पर लागू करने का सुझाव दिया था।
यहां स्थिति यह हो जाती है कि प्रकाश किरण
का मार्ग, जो एक प्लेटफॉर्म पर सरल रेखा में दिखाई देता है, वह
त्वरणशील गति या गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में स्थित मंच से एक वक्र के रूप में दिखाई
देगा। तो इसका मतलब यह होगा कि सापेक्षता का नियम सामान्य रूप से लागू नहीं होता
है? आइंस्टाइन इस सवाल से निपटने के लिए कुछ परिमापों के रूप
में घटनाओं के निर्धारण का एक नया तरीका विकसित करते हैं – जैसे किसी स्थिर बिंदु
से दूरी व दिशा, और समय के माप।
किसी समतल सतह पर किसी बिंदु की स्थिति
बताने का सामान्य तरीका दो लंबवत रेखाओं से उसकी दूरी बताने का है (यह ग्राफ का
तरीका है)। इस तरह दर्शाने के बाद दो बिंदुओं के बीच की दूरी निकाली जा सकती है।
किंतु यदि जिस सतह पर रेखाएं खींची जाएं वह समतल न होते हुए गोलाई लिए हो (जैसे
पृथ्वी) तो बिंदुओं के बीच की दूरी समतल सतह के समान नहीं होगी। गणित का उपयोग किए
बगैर, इस तरह के तर्क का उपयोग करते हुए,
आइंस्टाइन ने एक
गोलाईदार स्थान का विचार विकसित किया जो एक गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र की उपस्थिति से
मेल खाता है। इसकी मदद से उन्होंने साबित किया कि गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में
प्रकाश की वक्र मार्ग पर चलती किरण अभी भी उसी चाल से चल रही है!
इस विचार ने ब्राहृांड की एक नई प्रणाली का
मार्ग प्रशस्त किया। यह प्रणाली ब्राहृांड पर लागू होती है, जहां
विशाल द्रव्यमान के पिंड और गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र हैं। यह प्रणाली न्यूटन की उस
प्रणाली से अलग है जो 17वीं शताब्दी से सौर मंडल का वर्णन करने में काफी
प्रभावशाली साबित हुई थी। द्रव्यमान ‘कम’,
यानी तुलनात्मक रूप
से कम हो, तो आइंस्टाइन की प्रणाली न्यूटन प्रणाली का ही रूप ले लेती
है।
इसलिए न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत
में एक सन्निकटन था। यह उस स्थिति में काफी अच्छे परिणाम देती थी जब मापन पर्याप्त
रूप से सटीक नहीं थे। न्यूटन द्वारा प्रतिपादित व्युत्क्रम वर्ग का नियम (जो कहता
है कि दो पिंडों के बीच लगने वाला गुरुत्वाकर्षण बल उनके बीच की दूरी के वर्ग के
व्युत्क्रमानुपाती होता है) भी एक सन्निकटन ही है। आइंस्टाइन के सामान्य सापेक्षता
सिद्धांत के आने के बाद तथ्यों की व्याख्या के लिए इस नियम को अलग से कहने की
ज़रूरत नहीं रह जाती क्योंकि कम द्रव्यमान पर वह आइंस्टाइन के सामान्य सापेक्षता
सिद्धांत का एक सीमित रूप ही है।
आइंस्टाइन पारंपरिक ब्राहृांड विज्ञान में अन्य विसंगतियों का जि़क्र भी करते हैं, जिन्हें सामान्य सापेक्षता के सिद्धांत ने सुलझाया है। बुध की कक्षा के अग्रगमन (या पुरस्सरण, प्रेसेशन) की अवधि की गणना करना इस सिद्धांत की एक प्रमुख सफलता रही। न्यूटोनियन यांत्रिकी के तहत, ग्रहों की कक्षाएं दीर्घवृत्ताकार हैं और ये दीर्घवृत्त परिवर्तनशील नहीं हैं। और बुध (सूर्य का सबसे करीब ग्रह) के अलावा शेष सभी ग्रहों के लिए यह बात सही पाई गई थी। बुध के मामले में दीर्घवृत्ताकार कक्षा स्वयं भी घूमती है। यह गति काफी धीमी है, हर सदी में केवल 43 सेकंड (ध्यान दें कि 1 सेकंड डिग्री का 3600वां भाग होता है)। न्यूटोनियन यांत्रिकी इसको समझाने में असमर्थ थी। लेकिन सामान्य सापेक्षता सिद्धांत की मदद से, आइंस्टाइन ने यह दर्शा दिया कि सभी ग्रहों की कक्षाएं घूमती हैं, और बुध के मामले में उन्होंने एक सदी में 43 सेकंड के अग्रगमन की गणना भी की! (स्रोत फीचर्स)
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व्यक्तिगत, सामाजिक,
आर्थिक और राष्ट्रीय
विकास के लिए ईमानदारी अनिवार्य है। लेकिन आजकल हम देखते हैं कि कैसे लोग, कंपनियां
और सरकार अपने मतलब और फायदे के लिए धोखाधड़ी कर रहे हैं। क्या दुनिया के सभी 205
देशों में ऐसा ही होता है? क्या लोग व्यक्तिगत लेन-देन में ईमानदारी
को तवज़्जो देते हैं? यही सवाल ए. कोह्न और उनके साथियों के शोध पत्र का विषय था
(कोह्न और उनके साथी जानकारी संग्रहण और विश्लेषण,
अर्थशास्त्र और
प्रबंधन विषयों के विशेषज्ञ हैं)। उनका शोध पत्र “civic honesty around the globe” साइंस पत्रिका के जून अंक में
प्रकाशित हुआ है। यह अध्ययन उन्होंने 40 देशों के 355 शहरों में लगभग 17,000 लोगों
के साथ किया, जिसमें उन्होंने लोगों में ईमानदारी और खुदगर्ज़ी के बीच
संतुलन को जांचा। इस अध्ययन के नतीजे काफी दिलचस्प रहे। अध्ययन में उन्होंने पाया
कि लोग व्यक्तिगत स्तर पर वास्तव में उससे ज़्यादा ईमानदार होते हैं जितना वे खुद
अपने बारे में सोचते हैं।
यह प्रयोग उन्होंने कैसे किया। शोधकर्ताओं
ने कुछ वालन्टियर चुने जो किसी बैंक, पुलिस स्टेशन या होटल के पास एक बटुआ गिरा
देते थे। हर बटुए के एक तरफ एक पारदर्शी कवर लगा था,
जिसके अंदर एक कार्ड
रखा होता था। इस कार्ड पर बटुए के मालिक का नाम और उससे संपर्क सम्बंधी जानकारी
होती थी। कार्ड के साथ घर के लिए खरीदने के कुछ सामान (जैसे दूध, ब्रोड, दवाई
वगैरह) की एक सूची भी होती थी। इस जानकारी के साथ बटुओं के अलग-अलग सेट बनाए गए।
जैसे, कुछ बटुए बिना रुपयों के थे,
कुछ बटुओं में
थोड़े-से रुपए (14 डॉलर या उस देश के उतने ही मूल्य की नगदी) और कुछ में अधिक (95
डॉलर या समान मूल्य की नगदी) रखे गए। अर्थात बटुओं के 5 अलग-अलग सेट थे। पहले सेट
में नगदी नहीं थी, दूसरे सेट में मामूली रकम थी,
तीसरे सेट में अधिक
रकम थी, चौथे सेट में नगदी नहीं लेकिन एक चाबी रखी गई थी, और
पांचवे सेट में नगदी के साथ एक चाबी रखी थी।
वालन्टियर्स ने इन बटुओं को किसी सार्वजनिक
स्थल (जैसे पुलिस स्टेशन, होटल या बैंक के पास) पर गिराया और इस बात
पर नज़र रखी कि जब बटुआ किसी व्यक्ति को मिलता है तो वह उसके साथ क्या करता है।
क्या वह नज़दीकी सहायता काउंटर पर जाकर सम्बंधित व्यक्ति तक बटुआ वापस पहुंचाने को
कहता है? अध्ययन के नतीजे क्या रहे?
अध्ययन में उन्होंने पाया कि उन बटुओं को
लोगों ने अधिक लौटाया जिनमें पैसे थे, बजाए बिना पैसों वाले बटुओं के। सभी 40
देशों में उन्हें इसी तरह के नतीजे मिले।
और यदि बटुओं में बहुत अधिक रुपए रहे हों, तो? क्या
वे बटुआ लौटाने के पहले उसमें से थोड़े या सारे रुपए निकाल लेते? क्या
उन्होंने सिर्फ सज़ा के डर से बटुए लौटाए?
या इनाम मिलने की
उम्मीद में लोगों ने पूरे रुपयों सहित बटुआ लौटाया?
या ऐसा सिर्फ परोपकार
की मंशा से किया गया था? यह वाला प्रयोग उन्होंने तीन देशों (यूके, यूएस
और पोलैंड) में किया, जिसके नतीजे काफी उल्लेखनीय रहे। 98 प्रतिशत से अधिक लोगों
ने अधिक रुपयों से भरा बटुआ भी लौटाया। (यह अध्ययन उन देशों में करना काफी दिलचस्प
होगा जो आर्थिक रूप से सम्पन्न नहीं हैं।)
अपने अगले प्रयोग में उन्होंने बटुओं के
तीन सेट बनाए। पहले सेट में बटुए में सिर्फ थोड़े रुपए रखे, दूसरे
सेट में बटुए में थोड़ी-सी रकम और एक चाबी रखी,
और तीसरे सेट में
बटुए में काफी सारे रुपए और चाबी दोनों रखे। इस अध्ययन में देखा गया कि बिना चाबी
वाले बटुओं की तुलना में चाबी वाले बटुओं को अधिक लोगों ने लौटाया। इन नतीजों को
देखकर लगता है कि लोग बटुए के मालिक को परेशानी में नहीं देखना चाहते। इसी तरह के
नतीजे सभी देशों में देखने को मिले।
भारतीय शहर
इस अध्ययन में हमारे लिए दिलचस्प बात यह है
कि शोधकर्ताओं ने भारत के दिल्ली, बैंगलुरू,
मुंबई, अहमदाबाद, कोयम्बटूर
और कोलकाता शहर में लगभग 400 लोगों के साथ यह अध्ययन किया। इन शहरों के नतीजे अन्य
जगहों के समान ही रहे। एशिया के थाईलैंड, मलेशिया और चीन,
और केन्या और साउथ
अफ्रीका के शहरों में भी इसी तरह के परिणाम मिले।
शोधकर्ताओं के अनुसार “हमने यह जानने के
लिए 40 देशों में प्रयोग किया कि क्या लोग तब ज़्यादा बेईमान होते हैं जब प्रलोभन
बड़ा हो, लेकिन नतीजे इसके विपरीत रहे। ज़्यादा नगदी से भरे बटुओं को
अधिक लोगों द्वारा लौटाया गया। यह व्यवहार समस्त देशों और संस्थानों में मज़बूती
से देखने को मिला, तब भी जब बटुओं में बेईमानी उकसाने के लिए पर्याप्त रकम थी।
हमारे अध्ययन के नतीजे उन सैद्धांतिक मॉडल्स से मेल खाते हैं जिनमें परोपकार और
आत्म-छवि को स्थान दिया जाता है, साथ ही यह भी दर्शाते हैं कि बेईमानी करने
पर मिलने वाले भौतिक लाभ के साथ गैर-आर्थिक प्रेरणाओं का भी प्रत्यक्ष योगदान होता
है। जब बेईमानी करने पर बड़ा लाभ मिलता है तो बेईमानी करने या धोखा देने की इच्छा
बढ़ती है, लेकिन अपने आप को चोर के रूप में देखने की कल्पना इस इच्छा
पर हावी हो जाती है। …तुलनात्मक अध्ययन इस बात की ओर इशारा करता है कि आर्थिक
रूप से अनुकूल भौगोलिक परिवेश, समावेशी राजनैतिक संस्थान, राष्ट्रीय
शिक्षा और नैतिक मानदंडों पर ज़ोर देने वाले सांस्कृतिक मूल्यों का सीधा सम्बंध
नागरिक ईमानदारी से है।”
ऐसे अध्ययन भारत के विभिन्न स्थानों, गांवों (गरीब और सम्पन्न दोनों), कस्बों, नगरों, शहरों और आदिवासी इलाकों में करना चाहिए और देखना चाहिए कि यहां के नतीजे उपरोक्त अध्ययन से निकले सामान्य निष्कर्षों से मेल खाते हैं या नहीं। भारत उन 40 देशों का प्रतिनिधित्व करता है जो आर्थिक और सामाजिक आदर्शों, मूल्यों और विश्वासों को साझा करते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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पाकिस्तान के तट के समीप 6 साल पहले भूकंप के कारण अस्तित्व
में आया एक छोटा-सा द्वीप हाल ही में लहरों में समा गया है।
दरअसल साल 2013 में पाकिस्तान में आए तीव्र
भूकंप के कारण तट के नज़दीक समुद्र में एक द्वीप बन गया था। रिक्टर पैमाने पर 7.7
की तीव्रता के इस प्रलयंकारी भूकंप में लगभग 320 लोग मारे गए थे और हज़ारों लोग
बेघर हो गए थे। अरेबियन टेक्टॉनिक प्लेट के युरेशियन प्लेट पर रगड़ने के कारण नीचे
दबी मिट्टी ज्वालामुखी से बाहर निकलने लगी। ऐसे ज्वालामुखी जो आग और लावा की बजाय
कीचड़ उगलते हैं, उन्हें मड वॉल्केनो या पंक ज्वालामुखी कहते हैं। यह इतनी
तेज़ी से बाहर निकली कि इसके साथ चट्टान और चिकने पत्थर भी ऊपर आ गए और इस द्वीप
की सतह पर जमा हो गए। यह द्वीप 20 मीटर ऊंचा,
90 मीटर चौड़ा और 40
मीटर लंबा था। इस पंक ज्वालामुखी विस्फोट से निकले मलबे से बने इस द्वीप को
ज़लज़ला कोह नाम दिया गया था।
इस दौरान लिए गए उपग्रह चित्रों से पता चलता है कि समय के साथ यह द्वीप किनारों से धीरे-धीरे खत्म होता गया और 27 अप्रैल के चित्रों में यह पूरी तरह ओझल हो गया। लेकिन ज़लज़ला कोह अभी पूरी तरह गायब नहीं हुआ है। द्वीप के स्थान के आसपास इस द्वीप के पदार्थ मंडरा रहे हैं। नासा के अनुसार इस क्षेत्र में पंक ज्वालामुखी विस्फोटों से द्वीपों के बनने और गायब हो जाने का लंबा इतिहास रहा है। तेज़ी से जमा हुई गाद से बने इस ज़लज़ला कोह द्वीप की लंबे समय तक रहने की संभावना वैसे भी नहीं थी। नासा के अनुसार इन दरारों से भविष्य में और भी द्वीप बनने की संभावना है। (स्रोत फीचर्स)
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