मलेरिया परजीवी को जल्दी पकड़ने की कोशिश

हाल ही में सैन डिएगो स्थित युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया की शोधकर्ता एलिज़ाबेथ विनज़ेलर और उनकी टीम ने ऐसे रसायनों की पहचान कर ली है जो मलेरिया परजीवी का लीवर में ही सफाया कर देंगे।

होता यह है कि जब एक संक्रमित मच्छर मनुष्य को काटता है, तो मलेरिया के लिए ज़िम्मेदार प्लाज़्मोडियम परजीवी स्पोरोज़ाइट अवस्था में शरीर में प्रवेश करते हैं। लीवर में पहुंच कर ये अपनी प्रतियां बनाते और वृद्धि करते हैं। इसके बाद ये रक्तप्रवाह में प्रवेश करते हैं। मलेरिया के लक्षण तब ही दिखाई पड़ते हैं जब ये परजीवी रक्त प्रवाह में प्रवेश कर जाते है और संख्या में वृद्धि करने लगते हैं। आम तौर पर मलेरिया के लक्षणों से निपटने के लिए ही दवाएं दीं जाती हैं।

लेकिन शोधकर्ता चाहते थे कि मलेरिया के परजीवी को लीवर में ही खत्म कर दिया जाए। इसके लिए शोधकर्ताओं ने लगभग 5 लाख मच्छरों से स्पोरोज़ाइट अवस्था में प्लाज़्मोडियम परजीवी को अलग किया। हरेक परजीवी पर उन्होंने लुसीफरेज़ एंज़ाइम जोड़ा, जो जुगनू में चमक पैदा करने के लिए ज़िम्मेदार होता है, ताकि परजीवी पर नज़र रखी जा सके। इसके बाद हरेक परजीवी पर एक प्रकार का रसायन डाला। और फिर उन्हें लीवर कोशिकाओं के साथ कल्चर किया। इस तरह उन्होंने लगभग 5 लाख रसायनों का अलग-अलग अध्ययन किया।

उन्होंने पाया कि लगभग 6,000 रसायनों ने परजीवियों की वृद्धि को कुशलतापूर्वक रोक कर दिया। जिसमें से ज़्यादातर रसायनों ने लीवर कोशिकाओं को कोई गंभीर क्षति नहीं पहुंचाई। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इनमें से कितने रसायन दवा के रूप में काम आ सकते हैं। शोधकर्ताओं ने इन रसायनों का कोई पेटेंट नहीं लिया है ताकि अन्य लोग भी इन पर काम कर सकें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्रकृति की तकनीकी की नकल यानी बायोनिक्स – डॉ. दीपक कोहली

प्रकृति में पाई जाने वाली प्रणालियों एवं जैव वैज्ञानिक विधियों का अध्ययन करके एवं इनका उपयोग करके इंजीनियरी तंत्रों को डिजाइन एवं विकसित करना बायोनिक्स कहलाता है।

जब हम बायोनिक्स के बारे में सोचते हैं तो साधारणत: ऐसी कृत्रिम बांह व टांग के बारे में सोचते हैं जो मानव शरीर में बाहर से लगाई जा सके। बायोनिक्स पद्धति के तहत जीवन की अनिवार्य जीवन प्रक्रियाओं को संवेदनशील उपकरणों से शक्ति मिलती है। ये मानव के क्षतिग्रस्त अंगों से कुछ संदेश मस्तिष्क को भेजते हैं ताकि मनुष्य अपने कार्य कुछ हद तक स्वयं कर सके।

दुर्भाग्यवश जब किसी व्यक्ति के शरीर का कोई हिस्सा क्षतिग्रस्त हो जाए अथवा पूरी तरह से निष्क्रिय हो जाए तो उसके पास क्या उपाय रह जाएगा? हमारे पास छिपकली या स्टार फिश जैसी क्षमताएं तो हैं नहीं कि हम दोबारा बांह, टांग आदि विकसित कर सकें तथा उसे पुराने रूप में ला सकें। स्टेम सेल के क्षेत्र में किया जा रहा अनुसंधान इसका उपाय हो सकता है। पर अभी इस पद्धति का पर्याप्त विकास नहीं हुआ है। तब सिर्फ कृत्रिम अंग ही आशा की किरण हो सकते हैं और यहीं पर बायोनिक्स का पदार्पण होता है।

बायोनिक्स का इतिहास प्राचीन है। मिस्र की पौराणिक कथाओं में उल्लेख है कि सिपाही अपने क्षतिग्रस्त अंगों के बदले लोहे के अंग लगा कर रणभूमि में युद्ध करने चले जाया करते थे। परंतु आज के परिप्रेक्ष्य में बहुत सारी विधाओं और तकनीकों का संयोजन हो गया है; जैसे कि रोबोटिक्स, बायो-इंजीनियरिंग व गणित जिससे कृत्रिम अंगों की रचना में छोटी-छोटी बातों को ध्यान में रखा जा सकता है तथा वह मानव कोशिकाओं के साथ अपना कार्य कर सकता है।

चिकित्सा और इलेक्ट्रॉनिकी दोनों ही क्षेत्रों में लघु रूप विद्युत अंगों, परिष्कृत सूक्ष्म चिप्स और विकसित कंप्यूटर योजनाओं के रूप में भी निर्बल मानव शरीर को सबल मानव शरीर में परिवर्तित करने में वैज्ञानिकों ने सफलता प्राप्त की है। इसे ‘बायोनिक शरीर’ कह सकते हैं और इसने शारीरिक अक्षमताओं वाले इंसानों के लिए कृत्रिम अंगों, कृत्रिम मांसपेशियों और दूसरे कृत्रिम अंगों द्वारा एक बेहतर ज़िंदगी जीने की संभावना उत्पन्न की है।

हारवर्ड विश्वविद्यालय, अमेरिका के शोधकर्ता जॉन पेजारी ने आर्गस 2 रेटिनल प्रोस्थेसिस सिस्टम नाम से बायोनिक आंख विकसित की है, जो प्रकाश के मूवमेंट और उसके आकार को समझने में मदद करेगी। आर्गस 2 में इलेक्ट्रोड लगे होते हैं। यह उन लोगों के लिए मददगार साबित होगा, जो पहले देख सकते थे, लेकिन बाद में किन्हीं कारणों से उनकी आंख की रोशनी चली गई।

मस्तिष्क के किसी हिस्से को बदलना शरीर के किसी अंग को बदलने की तरह आसान नहीं है, लेकिन भविष्य में मस्तिष्क के किसी हिस्से को बदलना मुश्किल नहीं होगा। दक्षिणी कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर थियोडोर बर्जर ने एक ऐसी चिप तैयार की है जो दिमाग के एक खास हिस्से (हिप्पोकैंपस) का स्थान लेगी। हिप्पोकैंपस दिमाग का वह हिस्सा होता है, जो कि अल्प समय की यादों और उनको पहचानने की समझ को नियंत्रित करता है। यह कृत्रिम दिमाग अल्ज़ाइमर और पक्षाघात से ग्रसित लोगों के लिए वरदान होगा। इसे कुछ वैज्ञानिकों द्वारा ‘सुपर ब्रेन’ की संज्ञा दी गई है।

किडनी फेल होने के बाद उस समस्या से निपटने के लिए सामान्यत: दो ही विकल्प अपनाए जाते हैं। एक तो किसी अन्य व्यक्ति से किडनी ली जाए या लंबे समय तक डायलिसिस पर रखा जाए। दोनों ही प्रक्रियाएं खासी जटिल हैं। जहां किडनी मिलना आसान नहीं होता, वहां डायलिसिस प्रक्रिया भी जटिल होती है। शोधकर्ताओं ने इस समस्या का हल ढूंढ लिया है। मार्टिन रॉबर्टस और डेविड ली ने ऐसी किडनी डिज़ाइन की है जो डायलिसिस से काफी बेहतर होगी, क्योंकि इसे 24 घंटे, सातों दिन इस्तेमाल किया जा सकेगा। यह असली किडनी की तरह काम करेगी। यह किडनी पोर्टेबल होगी और हल्की इतनी कि आपके बेल्ट में आराम से फिट हो जाए। इसे बदला भी जा सकेगा। इसके छोटे आकार और ऑटोमेटिक होने के कारण इसे ‘ऑटोमेटेड वेयरेबल आर्टिफिशियल किडनी’ नाम दिया गया है।

कई कारणों से लोगों को घुटने बदलने की सलाह दी जाती है। लेकिन यह आसान काम नहीं है। वर्तमान में बायोनिक शोधकर्ताओं हैरी और वाइकेनफेल्ड ने ऐसे घुटने बनाए हैं, जो बिल्कुल असली घुटनों की तरह काम करेंगे। इन घुटनों में लगे सेंसर इस बात की जांच करेंगे और सीखेंगे कि इन्हें इस्तेमाल करने वाला कैसे चलता है और चलते वक्त वह अपने शरीर का इस्तेमाल कैसे करता है जिससे इन कृत्रिम घुटनों के सहारे चलना बेहद आसान होगा।

बांह रहित लोग अपनी कृत्रिम बांह का इस्तेमाल बिल्कुल असली बांह की तरह अपने विचारों की शक्ति द्वारा कर सकेंगे। रिहेबिलिटेशन इंस्टीट्यूट ऑफ शिकागो के डॉ. टॉड कुकिन ने यह कारनामा संभव कर दिखाया है। उन्होंने बायोनिक बांह को दिमाग से स्वस्थ मोटर कोशिकाओं द्वारा जोड़ दिया, जिनका इस्तेमाल रोगी के बेकार हो चुके अंग के लिए किया जाता था।

कुछ वैज्ञानिक कृत्रिम पैंक्रियाज़ बनाने में लगे हैं। कुछ ही वर्षों में ऐसे पैंक्रियाज़ तैयार हो जाएंगे, जो व्यक्ति के खून की मात्रा को नापने और साथ ही उसके शरीर के अनुरूप इंसुलिन की मात्रा में बदलाव करने में सक्षम होंगे। जुवेनाइल डाइबिटीज़ रिसर्च फांउडेशन के स्टे्रटेजिक रिसर्च प्रोजेक्ट के निदेशक ऑरीन कोवालस्की ने ऐसी डिवाइस तैयार की है जो वर्तमान में तकनीकों का मिश्रण है। इसमें एक इंसुलिन पंप और एक ग्लूकोज़ मीटर है। इसकी सहायता से डायबिटीज़ को नियंत्रण में लाया जा सकेगा और ब्लड शुगर के साइड इफेक्ट कम किए जा सकेंगे।

अक्सर ऐसा होता है कि आपके शरीर के जिस हिस्से में दर्द हो रहा होता है, उसे सही करने के लिए उस पूरे हिस्से के लिए दवाई दी जाती है। लेकिन कभी-कभी वह उस हिस्से के इंफेक्शन को पूर्ण तौर से सही कर पाने में सक्षम नहीं होती है। पेनसिलवेनिया विश्वविद्यालय, अमेरिका के बायोइंजीनियरिंग प्रोफेसर डेनियल हैमर ने इसके लिए बेहतर तरीका खोज निकाला है। पॉलीमर से बनी कृत्रिम कोशिकाओं को सफेद रक्त कोशिकाओं से मिला दिया जाएगा। इन कृत्रिम कोशिकाओं को ‘सी’ नाम दिया गया है। ये कृत्रिम कोशिकाएं दवाई को सीधे उस हिस्से में ले जाएंगी, जहां उसकी आवश्यकता है। यह बेहद आसान और सुरिक्षत तरीका होगा। इससे कैंसर सहित कई भयावह बीमारियों का मुकाबला किया जा सकेगा। दक्षिणी कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में शोधकर्ता  डॉ. जेराल्ड लीएब अपनी टीम के साथ बायोन नामक एक ऐसी तकनीक पर कार्य कर रहे हैं, जिसका उद्देश्य लकवाग्रस्त मांसपेशियों में जान फूंकना है। बायोन ऐसे विद्युत उपकरण हैं जिन्हें मानव शरीर में उसी जगह एक सुई की मदद से इंजेक्ट किया जा सकता है जहां पर इसकी ज़रूरत हो। इसकी शक्ति का स्रोत रेडियो तरंगें हैं।

मानव मस्तिष्क एक बहुत ही जटिल यंत्र है जिसे समझने के लिए शोध चल रहे हैं। अगर किसी अपंग व्यक्ति के कुछ अंग कार्य करना बंद कर दें, परन्तु दिमाग कार्यशील रहे तो यह यंत्र उस मनुष्य को तंत्रिका संकेतों द्वारा मदद कर सकता है। ब्रेनगेट एक ऐसी तकनीक है जिसके द्वारा एक लघु चिप दिमाग में लगा दी जाती है जो मनुष्य के विचार एक कंप्यूटर पर भेज देती है और उन्हीं वैचारिक संकेतों द्वारा कंप्यूटर पर ई-मेल भेजा जा सकता है और कंप्यूटर पर गेम भी खेले जा सकते हैं, सिर्फ सोचने मात्र से ही।

शोधकर्ताओं ने सौर ऊर्जा को तरल र्इंधन में परिवर्तित करने के क्रम में सूरज की रोशनी का उपयोग करने वाली बायोनिक पत्ती का आविष्कार किया है। जीवाणु रैल्सटोनिया यूट्रोफा इस काम को अंजाम देता है और कार्बन डाईऑक्साइड के साथ-साथ हाइड्रोजन का रूपांतरण सीधे उपयोग में आने वाले तरल र्इंधन (आइसोप्रोपेनॉल) में कर देता है। शोधकर्ताओं का यह कदम ऊर्जा से भरपूर दुनिया बनाने की दिशा में मील का पत्थर है।

बायोनिक्स पर काम करने वाले लोग जीव विज्ञानियों, इंजीनियरों, आर्किटेक्ट्स, रसायन शास्त्रियों, भौतिक विज्ञानियों से लेकर धातु विज्ञानियों के साथ मिलकर काम करते हैं। जर्मन वैज्ञानिक इस समय बीटल नाम के कीड़े के पंखों से प्रेरणा लेकर बेहद हल्की निर्माण सामग्री बना रहे हैं। प्रकृति अभी भी सबसे अच्छी इंजीनियर है। वह हड्डियों और सींग जैसी हल्की लेकिन ठोस संरचना बनाती है और भौंरे के जैसे हल्के पंख भी।

बायोनिक वैज्ञानिक प्रकृति से प्रेरणा लेकर हल्के विमान बनाने की तैयारी में लगे हैं। विक्टोरिया वॉटर लिली की पत्ती जितनी नाज़ुक दिखती है उतनी ही मज़बूत भी होती है। उदाहरण के तौर पर, विक्टोरिया वॉटल लिली की पत्ती बड़ी आसानी से एक छोटे बच्चे का भार उठा सकती है। इससे बड़े आकार की पत्ती व्यस्क का भार भी उठा सकती है। एरोस्पेस इंजीनियरों ने पहले त्रि-आयामी स्कैनर की सहायता से इस पत्ती की नाज़ुक संरचना को स्कैन किया। फिर इस डाटा को कंप्यूटर प्रोग्राम में डाला। कंप्यूटर इसका आकलन करता है कि भार को संभालने के लिए संरचना कैसी होनी चाहिए। वॉटर लिली की पत्तियों की निचली सतह पर तना मोटा और सघन होता है। यह वह हिस्सा है जहां वाटर लिली पर ज़्यादा दबाव पड़ता है। जिन हिस्सों पर कम दबाव होता है वहां तनों के बीच ज़्यादा दूरी होती है और तने पतले भी होते हैं। इस सिद्धांत से प्रेरणा लेकर हल्के विमान का एयरप्लेन स्पॉयलर तैयार किया गया है। यह बेहद हल्की लेकिन बड़े काम की संरचना है जिसे किसी और तरीके से बनाना शायद संभव न होता। बायोनिक्स की तकनीक अपनाकर वैज्ञानिकों ने इसे संभव कर दिखाया है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि बायोनिक्स प्रकृति की तकनीक को आम जिंदगी में अमल में लाने की विधा है। जिसके उपयोग से मानव ज़िंदगी को और बेहतर एवं सुविधाजनक बनाया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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स्कूल में भूत का नज़ारा – संतोष शर्मा

स्कूल के शौचालय में जाने के बाद 10वीं कक्षा की छात्रा शम्पा कुंडू दौड़ती हुई क्लास रूम में लौटी और भूत-भूत कहती हुई बेहोश होकर फर्श पर गिर गई। शम्पा की ऐसी डरी हुई हरकत देख क्लास की अन्य छात्राएं भी डर गर्इं। यह बात तुरंत क्लास टीचर को बताई गई। टीचर क्लास रूम में पहुंचा। एक छात्रा ने शम्पा के चेहरे पर पानी के छींटे मारे और पंखे से हवा दी। कुछ देर बाद शम्पा होश में आई और खामोश बड़ी-बड़ी आंखें कर देखने लगी।

टीचर ने पूछा, “शम्पा तुम यूं भूत-भूत क्यों चीख रही थी?”

एक बोतल से दो घूंट पानी पीने के बाद डरी-सहमी सी शम्पा ने धीमी आवाज में कहा, “स्कूल के शौचालय में भूत है! एक लड़के का भूत है। मैंने अपनी आंखों से भूत देखा। वो मुझे घूर रहा था! ”

“देखो, भूत-प्रेत कुछ नहीं होता। तुम्हें वहम हुआ होगा। शायद तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है। तुम अभी घर जाकर आराम करो।” टीचर ने शम्पा को घर भेज दिया।

शम्पा को स्कूल से जल्दी घर लौटते देख मां ने पूछा, “स्कूल की इतनी जल्दी छुट्टी हो गई?” जवाब दिए बिना ही शम्पा अपने कमरे में चली गई। काफी देर बाद भी वह कमरे से बाहर नही निकली तो मां उसके कमरे में गई। देखा शम्पा बिस्तर पर लेटी हुई थी।

बेटी के सिर पर प्यार भरे हाथ रखकर मां ने पूछा, “क्या हुआ, तू इतनी थकी हुई क्यों लग रही है? तेरी तबियत अचानक बिगड़ी हुई क्यों लग रही है? स्कूल में कुछ गड़बड़ी हुई है क्या?”

इतने सारे सवालों का उत्तर देने के बजाय शम्पा मां से लिपट कर रोने लगी। यह देख मां ने पूछा, “अरे क्या हुआ, तू रो क्यों रही है?” आंखों के आंसू पोछते हुए शम्पा ने कहा, “मैंने स्कूल के शौचालय में एक लड़के का भूत देखा। वो मुझे घूर रहा था और अपनी ओर बुला रहा था। मै डर गई, मुझे अब भी डर लग रहा है।”

यह सुनकर मां बहुत घबरा गई। मां ने कहा, “डरने की बात नहीं है बेटी। चल, तुझे ओझा के पास ले जाती हूं। वह झाड़-फूंक कर देगा।”

मां बेटी को इलाज के लिए अस्पताल या किसी डॉक्टर पास ले जाने की बजाय वासुदेवपुर गांव में रहने वाले ओझा दंपत्ति शीतल बाग और शिखा बाग के घर पर ले गई। ओझा दंपति ने शम्पा की कुछ देर तक झाड़-फूंक की। इसके बाद शीतल ओझा ने कहा, “मुझे पहले से ही जिस बात का डर था वही हुआ। तुम्हारी किस्मत अच्छी थी। नहीं तो वह आज तुम्हारी जान ज़रूर ले लेता।”

घबराई हुई शम्पा की मां ने पूछा, “कौन मेरी बेटी की जान ले लेता? आपको किस बात का डर था? ”

“संजय सांतरा की अतृप्त आत्मा स्कूल में भटक रही है”, ओझा ने कहा, “संजय एक होनहार छात्र था। न जाने क्यों उसने आत्महत्या कर ली। उसका स्कूल से बहुत लगाव था। मरने के बाद भी उसकी आत्मा को मुक्ति नहीं मिली। नतीजा, संजय की अतृप्त आत्मा स्कूल में आज भी भटक रही है।”

शीतल ने आगे और कहा, “अरूप मंडल नामक एक अन्य युवक की हादसे में मौत हो गई थी। संजय और अरूप इन दोनों की अतृप्त आत्माएं स्कूल में अब भी भटक रही हैं। इन दोनों के अलावा भी और कई अतृप्त आत्माएं भूत के रूप में स्कूल के आसपास, शौचालय आदि में दिखती हैं। ये भटकती आत्माएं स्कूल की किसी न किसी छात्रा को अपने वश में लाने की पूरी कोशिश कर रही हैं। और यही हुआ है। एक अतृप्त आत्मा ने शम्पा को काबू कर लिया था। किन्तु किस्मत अच्छी थी कि वह तुम्हें क्षति नहीं पहुंचा पाया।”

ओझा ने कहा, “मैंने शम्पा पर सवार भूत को भगा दिया है लेकिन चिंता तो स्कूल के अन्य छात्रों को लेकर हो रही है क्योंकि ये अतृप्त आत्माएं आज नहीं तो कल किसी-न-किसी को अपना शिकार ज़रूर बनाएंगी।”

शम्पा की मां ने पूछा, “क्या इससे मुक्ति का कोई उपाय नहीं है? ”

शिखा ओझा ने कहा, “ऐसी आत्माओं से मुक्त करने के लिए मैंने स्कूल में तंत्र-मंत्र व झाड़-फूंक करने की बात कही थी लेकिन किसी ने मेरी एक नहीं सुनी और आज इसका खमियाजा स्कूली छात्राओं को भुगतना पड़ रहा है।”

“मुझे डर है कि ये आत्माएं किसी की जान न ले लें!” यह कहते हुए ओझा ने माथे का पसीना पोंछा।

शम्पा की बार्इं बांह पर लाल धागे में पिरोकर एक तावीज बांधते हुए शिखा ओझा ने कहा, “यह तावीज अपने से दूर नहीं करना। भूत तुम्हारा अब कुछ भी बिगाड़ नहीं पाएगा।”

शम्पा को कुछ जड़ी बूटियां दीं और ओझा दंपत्ति ने सुझाव दिया, “इसे गंगा जल के साथ पीसकर पी लेना। तू ठीक हो जाएगी।”

दूसरे दिन शम्पा स्कूल गई तो क्लास की सहपाठी पूछने लगी, “शम्पा, कल तुम्हें क्या हुआ था? तुम्हारी तबियत अभी ठीक है न?”

इस पर शम्पा ने बाग ओझा दंपत्ति के यहां जाने की बात बताई और कहा, “स्कूल के शौचालय में भूतों का डेरा बना हुआ है। स्कूल में एक नहीं, कई अतृप्त आत्माएं मंडरा रही हैं। ये भूत हमें शिकार बनाना चाहते हैं। एक भूत मुझ पर सवार हो गया था। ओझा ने झाड़-फूंक कर उसे भगा दिया।”

कुछ ही देर में यह बात पूरे स्कूल में लगभग सभी छात्र-छात्राओं के कानों में पहुंच गई कि स्कूल के शौचालय में भूत है!

इसके बाद तो स्कूल में शौचालय जाने वाली छात्राएं एक के बाद एक अजीबो-गरीब हरकत करने लगी, भूत-भूत कहकर छात्राएं बेहोश होने लगीं। देखते ही देखते लगभग दो दर्जन छात्राओं की तबियत काफी बिगड़ गई। स्कूल में अफरा-तफरी फैल गई। शौचालय में भूत होने की अफवाह स्कूल के आसपास के इलाकों में भी जंगल की आग की तरह फैल गई। छात्राओं के परिजन भागते हुए स्कूल पहुंचने लगे। इलाज के लिए कई छात्राओं को स्थानीय अस्पताल में भर्ती भी करवाना पड़ा।

यह भुतही घटना पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा ज़िले के कोतुलपुर थाना अंतर्गत मिर्ज़ापुर हाईस्कूल की है। स्कूल के कार्यवाहक प्रधान शिक्षक महानंद कुंडू ने कहा, “शौचालय से लौटने के बाद कई छात्राओं की तबियत अचानक बिगड़ गई। दस-बारह छात्राएं बेहोश भी हो गर्इं। किसी के सीने में तो किसी के सिर में दर्द की भी शिकायत थी।”

घटना की सूचना मिलने पर कोतुलपुर ग्रामीण अस्पताल से एक मेडिकल टीम स्कूल पहुंची। कोतुलपुर ब्लॉक स्वास्थ्य केंद्र के चिकित्सक पलाश दास और मनोरोग विशेषज्ञ पृथा मुखोपाध्याय भी स्कूल पर पहुंचे। भुतही अफवाह के चलते अस्वस्थ हुई छात्राओं का प्राथमिक उपचार किया गया जबकि चिंताजनक हालत में कई छात्राओं को इलाज के लिए कोतुलपुर ग्रामीण अस्पताल में भर्ती कराया गया।

मनोरोग विशेषज्ञ पृथा मुखोपाध्याय ने कहा, “ज़्यादातर छात्राएं खाली पेट या थोड़ा-सा कुछ खाकर स्कूल आती हैं। जिसके कारण वे शारीरिक रूप से कमजोर होती हैं। ऐसी ही छात्राएं भूत की अफवाह के कारण मानसिक रूप से अस्वस्थ हुर्इं।”

इस स्कूल में छात्र-संख्या लगभग 800 है। अधिकांश छात्र-छात्राएं स्कूल के आसपास रायबागिनी, झोड़ा मुराहाट, हजारपुकुर, जलजला, हरिहरचाका, हेयाबनी गांवों के गरीब परिवारों से हैं। ज़्यादातर अपने घरों से सुबह चूड़ा व मूड़ी खाकर आते हैं और दोपहर को मध्यान्ह भोजन योजना में मिलने वाले भोजन से किसी तरह से पेट भरा करते हैं। स्कूल में ऐसी कई छात्राएं हैं जो शारीरिक रूप से अस्वस्थ भी हैं, जिनका विभिन्न अस्पतालों में नियमित रूप से इलाज भी चल रहा है।

मिर्ज़ापुर हाईस्कूल के शौचालय में भूत की अफवाह के चलते इलाके में भुतहा आतंक सामूहिक हिस्टीरिया की तरह फैल गया। अभिभावकों ने अपने बच्चों को स्कूल जाने से रोक दिया। स्कूल में पढ़ाई-लिखाई खटाई में पड़ गई। शाम ढलने के बाद स्कूल से अजीबो-गरीब डरावनी आवाज़ आने की भी बात सुनाई पड़ने लगी।

आसपास गांव में रहने वाले लोग कहने लगे, “जब ओझा ने पहले ही कहा था कि स्कूल में भूत है, अतृप्त आत्माएं भटक रही हैं, तब स्कूल में तंत्र-मंत्र या झाड़-फूंक करने में क्या दिक्कत है। अगर वक्त रहते अतृप्त आत्माओं को स्कूल से मुक्त नहीं किया गया तो बड़ी आफत आने का डर है।”

भूत की अफवाह से उत्पन्न हालात से स्कूल प्रशासन चिंता में पड़ गया। इस समस्या से शीघ्र स्कूल को मुक्त करने के लिए स्कूल के कार्यवाहक प्रधान शिक्षक महानंद कुंडू और स्थानीय प्रशासन ने शिक्षकों और प्रशासनिक अधिकारियों के साथ आपात बैठक की। बैठक में काफी विचार-विमर्श के बाद फैसला लिया गया कि स्कूल में पैदा हुई भुतही समस्या के समाधान के लिए भारतीय विज्ञान व युक्तिवादी समिति के कार्यकर्ताओं को स्कूल में बुलाया जाए। तब स्कूल की ओर से युक्तिवादी समिति के अध्यक्ष प्रबीर घोष से संपर्क किया गया। एक पत्रकार के रूप में मैंने प्रबीर जी से संपर्क किया और उन्हें स्कूल में फैली भुतही अफवाह के समाधान को लेकर विस्तार से बात की। प्रबीर जी ने कहा, “युक्तिवादी समिति की बांकुड़ा जिला शाखा के रामकृष्ण चंद्र समेत कई कार्यकर्ताओं को मिर्ज़ापुर हाईस्कूल का दौरा करने का निर्देश दिया गया है।”

बांकुड़ा से युक्तिवादी समिति की ओर से एक टीम हाईस्कूल पहुंची। टीम में शामिल कार्यकर्ताओं ने स्कूल के शौचालय समेत पूरे स्कूल का निरीक्षण किया। साथ ही भूत देखने वाली छात्राओं, उनके अभिभावकों, स्कूल के शिक्षकों और आसपास गांव के लोगों से बातें की। इसके बाद समिति की ओर से स्कूल परिसर में एक मंच बनाकर अंधविश्वास विरोधी “अलौकिक नहीं, लौकिक” कार्यक्रम का आयोजन किया गया।

कार्यक्रम में स्कूल के शिक्षक, कोतुलपुर थाना प्रभारी, कोतुलपुर के बीडीओ गौतम बाग, मिर्ज़ापुर ग्राम पंचायत की प्रधान नमिता पाल और सर्व शिक्षा मिशन के अधिकारी, स्कूली छात्र-छात्राएं और आसपास के गांवों के अनेक लोग भी उपस्थित हुए।

कार्यक्रम मंच पर एक टेबल पर दूध से भरा हुआ कांच का एक गिलास और एक इंसानी खोपड़ी रखते हुए एक तर्कवादी कार्यकर्ता ने कहा, “हमें सुनने को मिला है कि यह स्कूल भूतों का डेरा बन गया है। यदि यहां वाकई में भूत है तो हम किसी एक भूत को इस मंच पर बुला कर उसे दूध पिलाएंगे।” अपने बाएं हाथ में इंसानी खोपड़ी को लेकर कुछ देर तक तंत्र-मंत्र नुमा कोई मंत्र पढ़ा। इसके बाद दूध से भरा हुआ गिलास खोपड़ी के सामने लाया गया। आश्चर्य! गिलास का दूध धीरे-धीरे कम होता गया। देखने से ऐसा लगा कि खोपड़ी में घुसे भूत ने दूध पी लिया हो!

इसके बाद एक कार्यकर्ता ने कपूर का एक छोटा सा टुकड़ा टेबल पर रखा। उसे माचिस की एक तीली से जला दिया। फिर जलते हुए टुकड़े को अपनी हथेली पर रख लिया। इसके बाद उसे अपनी जीभ पर रखा और आग को खा गया। एक कार्यकर्ता ने मुंह से एक घड़ा उठा कर दिखाया। इसी क्रम में बिना माचिस के ही एक यज्ञ कुंड में आग लगा कर दिखाई गई।

एक के बाद एक ‘चमत्कारी’ कारनामे देख उपस्थित छात्र-छात्राएं और लोग तालियां बजाने लगे। दर्शकों से पूछा गया, “आप में से कोई यह बता सकता है कि गिलास का दूध कौन पी गया?” भीड़ में बैठे एक छात्र ने कहा, “शौचालय में छिपा हुआ भूत आकर दूध पी गया! ”

एक छात्रा ने कहा, “शायद आप लोग कोई जादूगर हो। आप लोगों के पास तंत्र-मंत्र या भूत-प्रेत की शक्ति है।”

इस पर चंद्र ने कहा, “हम तर्कवादी हैं। हम तो चमत्कारी शक्ति का दावा करने वालों की पोल खोला करते हैं। हमने ये कारनामे सिर्फ जादुई तरकीब से दिखाए हैं। हमारे पास कोई तंत्र-मंत्र या भूत-प्रेत की शक्ति नही हैं। भूत-प्रेत सिर्फ, और सिर्फ, कल्पना और अंधविश्वास हैं।”

कार्यक्रम देख रही एक छात्रा ने कहा, “स्कूल के शौचालय में भूत है। शौचालय में उस भूत को देखकर सबसे पहले शम्पा और फिर कई छात्राएं अस्वस्थ हो गई थीं। गांव के ओझा दंपत्ति ने भी स्कूल में भूत होने की बात कही है।”

इस पर स्कूल के शौचालय में भूत देखने वाली छात्रा शम्पा को कार्यक्रम मंच पर बुलाकर तर्कवादियों ने पूछा, “आपने अपनी आंखों से भूत देखा था? क्या आपको लगता है कि वाकई में भूत-प्रेत होते हैं? ”

छात्रा ने कहा, “हां, मैंने अपनी आंखों से भूत को देखा था।”

“तब तो उस भूत की स्मार्ट फोन से फोटो खींची जा सकती है?”

यह सुन वह इधर-उधर देखने लगी और अन्य छात्राएं मुस्कराने लगीं। तर्कवादी ने समझाया, “धार्मिक मान्यताओं के अनुसार आत्मा का अर्थ चिन्ता, चेतना, चैतन्य या मन है। आज आधुनिक विज्ञान ने साबित किया है कि मस्तिष्क की स्नायु कोशिकाओं की क्रिया-प्रतिक्रिया का फल ही मन या चिंता है। मस्तिष्क की कोशिकाओं के बिना चिंता, मन या आत्मा का अस्तित्व असंभव है।”

“शरीर की मौत के साथ ही मस्तिष्क की कोशिकाओं का भी अंत हो जाता है। ऐसे में इन कोशिकाओं की क्रिया-प्रतिक्रिया भी बंद हो जाती है। यानी मन रूपी आत्मा की भी मृत्यु हो जाती है। कुल मिलाकर शरीर की तरह आत्मा नष्ट हो जाती है। इसलिए अतृप्त आत्माओं या भूतप्रेत का वजूद ही नहीं होता है।”

एक छात्रा ने पूछा, “यदि भूत-प्रेत नहीं है तो शम्पा या अन्य छात्राओं को भूत क्यों दिखाई दिया?”

जवाब में तर्कवादी ने कहा, “हमारी दादी-नानी हमें बचपन में भूत-प्रेत की कहानियां सुनाया करती हैं। ये कहानियां हमारे बचपन के कच्चे मन-मस्तिष्क में इस कदर बैठ जाती हैं कि जब हम पढ़-लिख कर बड़े हो जाते हैं तो भी बचपन में सुनी हुर्इं भूत-प्रेत की काल्पनिक कहानियां सच लगने लगती हैं। इसके अलावा, आजकल विभिन्न टीवी चैनलों पर भूत-प्रेत पर आधारित धारावाहिकों का प्रसारण किया जाता है। इन धारावाहिकों का बच्चों के मन-मस्तिष्क पर अंधविश्वासपूर्ण प्रभाव पड़ता है।”

चंद्र ने कहा, “भूत-प्रेत पर विश्वास करने के कारण शम्पा जब शौचालय में गई तो उसे भूत जैसी किसी चीज का भ्रम हुआ। भ्रम के कारण उसे भूत जैसा कुछ दिखाई दिया होगा लेकिन जब उसे ओझा के पास ले जाया गया तो ओझा ने भूत होने का दावा किया और इलाज के नाम पर झाड़-फूंक की। ओझा के कहने पर शम्पा ने जब स्कूल के शौचालय में भूत होने की बात कही तो वह अफवाह की तरह अन्य छात्राओं में फैल गई। इसके बाद से जब भी कोई छात्रा शौचालय से लौटती है तो वह भूत-भूत कहकर बेहोश हो जाती है। नतीजा, स्कूल में भूत होने की अफवाह सामूहिक हिस्टीरिया की तरह फैल गयी। हिस्टीरिया का काउंसलिंग द्वारा इलाज संभव है। भूत-प्रेत देखना सिर्फ व्यक्तिगत अनुभव या इंद्रिय जनित भ्रम के अलावा कुछ नहीं है। जब हमारी इंद्रियां भ्रम की अवस्था में होती है तब ऐसी घटनाएं व्यक्ति महसूस करता है। भूत शौचालय में नहीं बल्कि मन में अंधविशावास के रूप में बसा हुआ है।”

तर्कवादी ने आगे कहा, “स्कूल में भूत की अफवाह के कारण अस्वस्थ हुई अधिकांश छात्राएं ग्रामीण इलाकों की हैं। ये छात्राएं ज़्यादातर गरीब, किसान परिवार से हैं। कुछ लड़कियां शारीरिक कमज़ोरी, कुपोषण की शिकार भी होती हैं। उनमें स्वास्थ्य आदि की जागरूकता की भी कमी होती है। ये लोग भूत-प्रेत, झाड़-फूंक, ओझा आदि पर विश्वास करते हैं। ऐसी स्थिति में जब कोई लड़की ऐसी कोई हरकत करती है जिसका वैज्ञानिक कारण पता नहीं होने के कारण उनके माता-पिता उन्हें इलाज के लिए ओझा के पास ले जाते हैं। मानसिक तनाव, दिमागी दबाव आदि कारणों से लोग अक्सर मानसिक बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं जिन्हें वे भूत-प्रेत अथवा जादू-टोने का असर समझ बैठते हैं। मनोरोग को भूत-प्रेत का साया मानकर झाड़-फूंक के चक्कर में पड़ जाते हैं। मनोरोग भी अन्य बीमारियों की तरह ही होता है, जिसका उचित काउंसलिंग और दवा के ज़रिए आसानी से इलाज किया जा सकता है।”

युक्तिवादी समिति के कार्यकर्ताओं ने कहा, “अब यदि कोई दावा करता है कि स्कूल में भूत है तो भूत दिखाने वालों को 50 लाख रुपए की चुनौती देता हूं।”

अंधविश्वास से मुक्त होने के लिए वैज्ञानिक सोच को अपनाने की सलाह देते हुए तर्कवादी कार्यकताओं ने कहा, “किसी भी बीमारी का इलाज सरकारी अस्पताल में, डॉक्टर के हाथों करवाना चाहिए। यदि किसी पर भूत बाधा होने जैसी समस्या हो तो ओझा के हाथों झाड़-फूंक करवाने की बजाय उसे मनोचिकित्सक के पास ले जाएं। मनोचिकित्सा से आप पूर्ण रूप से स्वस्थ हो जाएंगे।” आगे यह भी बताया गया, “भारतीय कानून में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि तावीज, कवच, ग्रह रत्न, तंत्र-मंत्र, झाड़-फूंक, चमत्कार, दैवी औषधि आदि द्वारा किसी भी समस्या या बीमारी से छुटकारा दिलवाने का दावा तक करना जुर्म है। तंत्र-मंत्र, चमत्कार के नाम पर आम जनता को लूटने वाले ओझा, तांत्रिक जैसे पाखंडियों को कानून की मदद से जेल की हवा तक खिलाई जा सकती है। ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट, 1940 के तहत किसी भी बीमारी से छुटकारा दिलवाने के नाम पर दिए जाने वाले तावीज, कवच, झाड़-फूंक, मंत्र युक्त जल, तंत्र-मंत्र आदि को औषधि के रूप में स्वीकार होगा। बिना लाइसेंस के तावीज, कवच इत्यादि द्वारा बीमारी से छुटकारा नहीं मिलने पर या मरीज़ की मृत्यु होने पर भारतीय दंड संहिता की धारा 320 के तहत दोषी को सज़ा होगी। इस कानून का उल्लंघन करने वाले को 10 वर्ष से लेकर आजीवन कारावास और 10 लाख रुपये तक का जुर्माना हो सकता है। इसके अलावा, ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडीज़ (आबजक्शनेबल एडवर्टाइज़मेंट) एक्ट, 1954 के तहत तंत्र-मंत्र, गंडे, तावीज आदि तरीकों से चमत्कारिक रूप से बीमारियों के उपचार या निदान आदि दण्डनीय अपराध हैं।”

अंधविश्वास विरोधी कार्यक्रम देखने के बाद छात्राओं ने कहा, “ओझा दंपति के कहने पर हमारे में मन में भूत-प्रेत को लेकर जो डर पैदा हुआ था वह दूर हो गया है। अब आगे यदि ऐसी भुतही घटना होती है तो हम उस पर ध्यान ही नहीं देंगे। यदि कोई छात्र या छात्रा भूत के नाम पर अस्वस्थ हो जाता है तो उसे इलाज के लिए डॉक्टर के पास ले जाएंगे। भूत-प्रेत के नाम पर किसी भी अफवाह पर अब ध्यान नहीं देंगे।”

बीडीओ गौतम बाग ने कहा, “विज्ञान के इस युग में आज जहां लड़कियां भी चांद पर पहुंच रही हैं, शर्म की बात यह है कि ऐसी स्थिति में एक स्कूल में भुतही अफवाह को दूर करने के लिए अंधविश्वास विरोधी कार्यक्रम भी करना पड़ रहा है। आप सभी को भूत-प्रेत जैसी किसी भी अफवाह पर कान नहीं देना चाहिए। यदि ऐसी अफवाह फैलती है तो उसके पीछे तर्कपूर्ण कारण का पता लगाना होगा आप लोगों को। तभी जाकर समस्या का समाधान करना संभव होगा।”

प्रधान शिक्षक महानंद कुंडू ने कहा, “युक्तिवादी समिति के कार्यकर्ताओं ने स्कूल में कार्यक्रम कर छात्राओं के मन से भूत का डर दूर किया है, इसके लिए उन्हें धन्यवाद देना चाहूंगा।”

बता दें, तर्कवादी कार्यकर्ताओं ने स्कूल पहुंचने से पहले जब ओझा बाग दंपत्ति से मुलाकात की थी तो ओझा ने बल देते हुए कहा था कि उसने ही छात्रा पर से भूत भगाने के लिए झाड़-फूंक की। स्कूल में भुतही अफवाह फैलाने के पीछे ओझा का धंधा जुड़ा हुआ था। ओझा चाहता था कि स्कूल में यदि भूत की अफवाह के कारण छात्र अस्वस्थ हो जाते हैं, तो उन्हें इलाज के लिए उसके पास ले जाया जाएगा। उन्हें झाड़-फूंक करने और तावीज़-कवच देने के बदले में उनके परिजनों से पैसा भी लूटा जाएगा। लेकिन युक्तिवादी समिति के कार्यकर्ताओं ने स्कूल परिसर में अंधविश्वास विरोधी कार्यक्रम कर ओझा दंपत्ति की सारी पोल खोल कर रख दी।

युक्तिवादी समिति की ओर से प्रधान शिक्षक महानंद कुंडू को सुझाव दिया गया, “ऐसी डरावनी अफवाह फैलाने वाले ओझा और अन्य लोगों के खिलाफ थाने में शिकायत दर्ज करें।”

तर्कवादियों के सुझाव के बाद स्कूल प्रबंधन ने जिला प्रशासन को ओझा द्वारा फैलाई गई भूत की अफवाह के बारे में अवगत कराया गया और कोतुलपुर थाने में ओझा शिखा बाग और शीतल बाग के खिलाफ लिखित शिकायत दर्ज की गई। पुलिस ने आरोपी ओझा दंपति को उनके घर से गिरफ्तार कर लिया। उन्हें विष्णुपुर महकमा अदालत में पेश किया गया। न्यायाधीश ने उन्हें हिरासत में भेजने का निर्देश दे दिया। अभियुक्त ओझा दंपत्ति के खिलाफ धारा 420 के तहत धोखाधड़ी और ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडीज़ (आबजेक्शनेबल एडवर्टाइज़मेंट) एक्ट, 1954 की धारा 7 के तहत मामला दायर किया गया। पुलिस को जांच में पता चला कि स्कूल में भूत होने की अफवाह फैलाने के पीछे ओझा बाग दंपति ही मुख्य आरोप है।

प्रधान शिक्षक महानंद कुंडू ने बताया, “स्कूल के शौचालय में भूत की अफवाह फैलाने वाले ओझा दंपति की गिरफ्तारी के बाद स्कूल में शिक्षण कार्य सामान्य हो गया है। भूत के डर से मुक्त होकर छात्र-छात्राओं का स्कूल में आना भी शुरू हो गया है।”(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जंतु प्रजातियां अभूतपूर्व खतरे के दौर में – भरत डोगरा

विश्व में रीढ़धारी जीवों की संख्या में वर्ष 1970 और 2014 के बीच के 44 वर्षों में 60 प्रतिशत की कमी हो गई। यह जानकारी देते हुए हाल ही में जारी लिविंग प्लेनेट रिपोर्ट (2018) में बताया गया है कि कई शताब्दी पहले की दुनिया से तुलना करें तो विभिन्न जीवों की प्रजातियों के लुप्त होने की दर 100 से 1000 गुना बढ़ गई है।

हारवर्ड के जीव वैज्ञानिक एडवर्ड विल्सन ने कुछ समय पहले विभिन्न अध्ययनों के निचोड़ के आधार पर बताया था कि मनुष्य के आगमन से पहले की स्थिति से तुलना करें तो विश्व में ज़मीन पर रहने वाले जीवों के लुप्त होने की गति 100 गुना बढ़ गई है। इस तरह अनेक वैज्ञानिकों के अलगअलग अध्ययनों का परिणाम यही है कि विभिन्न प्रजातियों के लुप्त होने की गति बहुत बढ़ गई है और यह काफी हद तक मानवनिर्मित कारणों से हुआ है।

जीवन का आधार खिसकने की चेतावनी देने वाले अनुसंधान केंद्रों में स्टाकहोम रेसिलिएंस सेंटर का नाम बहुत चर्चित है। यहां के निदेशक जोहन रॉकस्ट्रॉम की टीम ने एक अनुसंधान पत्र लिखा है जिसमें धरती के लिए सुरक्षित सीमा रेखाएं निर्धारित करने का प्रयास किया गया है। इसके अनुसार धरती की 25 प्रतिशत प्रजातियों पर लुप्त होने का संकट है। कुछ वर्ष पहले तक अधिकतर प्रजातियां केवल समुद्रों के बीच के टापुओं पर लुप्त हो रही थीं, पर बीसतीस वर्ष पहले से मुख्य भूमि पर बहुत प्रजातियां लुप्त हो रही हैं। इसका मुख्य कारण है जलवायु बदलाव, भूमि उपयोग में बड़े बदलाव (जैसे वन कटान) तथा बाहरी या नई प्रजातियों का प्रवेश। अनुसंधान पत्र में यह बताया गया है कि विभिन्न प्रजातियों के लुप्त होने का प्रतिकूल असर धरती की अन्य जीवनदायी प्रक्रियाओं पर भी पड़ता है।

डॉ. गैरार्डो सेबेलोस, डॉ. पॉल एहलरिच व अन्य शीर्ष वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक अध्ययन में कहा गया है कि यदि 100 वर्ष में प्रति 10,000 प्रजातियों में से दो प्रजातियां लुप्त हो जाएं तो इसे सामान्य स्थिति माना जा सकता है। पर यदि वर्ष 1900 के बाद की वास्तविक स्थिति को देखें तो इस दौरान सामान्य स्थिति की अपेक्षा रीढ़धारी प्रजातियों के लुप्त होने की गति 100 गुना तक बढ़ गई। इस तरह जलवायु बदलाव, वन विनाश व प्रदूषण बहुत बढ़ जाने से प्रजातियों का लुप्त होना असहनीय हद तक बढ़ गया है।

अध्ययन में बताया गया है कि यह अनुमान वास्तविकता से कम ही हो सकता है। दूसरे शब्दों में, वास्तविक स्थिति इससे भी अधिक गंभीर हो सकती है। मात्र एक प्रजाति के लुप्त होने से ऐसी द्यांृखलाबद्ध प्रक्रियाएं शुरू हो सकती हैं जिससे आगे कई प्रजातियां खतरे में पड़ जाएं। कई प्रजातियां लुप्त होने से मनुष्य के अपने जीवन की तमाम कठिनाइयां अप्रत्याशित ढंग से बढ़ सकती हैं क्योंकि सब तरह के जीवन एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।

जीवजंतुओं की रक्षा के लिए अधिक व्यापक स्तर पर पर्यावरण की रक्षा बहुत ज़रूरी है। नदियों व वनों की रक्षा होगी तभी यहां रहने वाले जीव भी बचेंगे। समुद्रों के जीवन की रक्षा के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अधिक व्यापक प्रयास ज़रूरी हैं। हमारे देश में समुद्रों और तटीय क्षेत्रों के पर्यावरण पर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है, जबकि इनकी रक्षा बहुत ज़रूरी है। विभिन्न जीवजंतुओं की रक्षा के लिए स्कूल व परिवार के स्तर पर संवेदनाओं को मजबूत करना भी ज़रूरी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कैंसर को चुनौती के नए आयाम – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

कैंसर, आनुवंशिक या किसी बाहरी कारक (जैसे धूम्रपान, हानिकारक विकिरण वगैरह) के कारण क्षतिग्रस्त हुई कोशिकाओं की अनियंत्रित वृद्धि और विभाजन है। समान्यतः कोशिकाएं एक निश्चित संख्या तक विभाजित होती हैं और वृद्धि करती हैं। किंतु कैंसर कोशिकाएं, जिनका डीएनए किन्हीं कारणों से क्षतिग्रस्त होकर परिवर्तित हो गया है, वे लगातार वृद्धि करती रहती हैं। जिसके कारण गठान (ट्यूमर) बन जाती है, जो शरीर कमज़ोर करती है और मौत तक हो सकती है।

कैंसर का उपचार और उसे ठीक करना एक बड़ी चुनौती रही है। कैंसर चिकित्सा विज्ञानी और लेखक सिद्धार्थ मुखर्जी ने इसे एकदम सही उपमा दी है बिमारियों का शहंशाह।

बीमारियों के शहंशाह कैंसर पर विजय पाने के कई तरीके रहे हैं। एक तरीका है कैंसर गठानों को सर्जरी करके निकाल देना। मगर इस तरीके में कैंसर के दोबारा होने की सम्भावना रहती है क्योंकि सर्जरी में इस बात की गारंटी नहीं रहती कि सभी कैंसर कोशिकाएं निकाल दी गई हैं। यदि चंद कैंसर कोशिकाएं भी छूट जाएं तो कैंसर दोबारा सिर उठा सकता है। यदि कैंसर होने के असल कारण से नहीं निपटा जाए, तो भी कैंसर दोबारा उभर सकता है। इसके अलावा अति शक्तिशाली गामा किरणों की रेडिएशन थेरपी से भी उपचार में सीमित सफलता ही मिली है।

सिसप्लेटिन या कार्बोप्लेटिन,5-फ्लोरोयूरेसिल, डॉक्सीरोबिसिन जैसी कई कैंसररोधी दवाएं भी उपयोग की गई हैं। कई चिकित्सकों ने दवा के साथ गामा रेडिएशन से उपचार का तरीका भी अपनाया, मगर इस उपचार के साथ मुश्किल यह है कि इसे लंबे समय तक जारी रखना होता है।

प्रतिरक्षा का तरीका

इसी संदर्भ में कुछ तरह के कैंसर का उपचार प्रतिरक्षा के तरीके से करने की कोशिश हुई है। इसमें शरीर प्रतिरक्षा तंत्र की मदद ली जाती है। इस तरीके में मुख्य भूमिका श्वेत रक्त कोशिकाओं की होती है। श्वेत रक्त कोशिकाओं का एक प्रकार होता है बीकोशिकाएं। ये बीकोशिकाएं हमलावर कोशिकाओं (चाहे वह किसी सूक्ष्मजीव की कोशिका हो या कैंसर कोशिका) की बाहरी सतह पर उपस्थित कुछ उभारों की आकृति (जिन्हें बॉयोमैट्रिक आईडी कह सकते हैं) की पहचान करती हैं, और इम्यूनोग्लोबुलिन नामक प्रोटीन संश्लेषित करती हैं जो हमलावर कोशिकाओं की सतह पर फिट हो जाता है और इस तरह हमलावर कोशिकाओं को हटाती हैं। खास बात यह है कि हमलावरों की आकृति को पहचान कर यादरखा जाता है ताकि यदि वही हमलावर दोबारा हमला करे तो बीकोशिकाएं उससे निपटने के लिए तैयार रहें। आत्मरक्षा का यही तरीका बचपन में किए जाने वाले टीकाकरण का आधार भी है।

सतह की पहचान से सम्बंधित टैगएंटीजन कहलाता है और उससे लड़ने वाला प्रोटीन एंटीबॉडी। कैंसर कोशिकाओं की भी बॉयोमैट्रिक आईडी (पहचान) होती है, जिसे नियोएंटीजन कहते हैं। कैंसररोधी वैक्सीन इन नियोएंटीजन के खिलाफ तैयार की गई एंटीबॉडीज़ के सिद्धांत पर आधारित है। कैंसर के खिलाफ कुछ जानीमानी दवाएं जैसे बिवेसिज़ुमेब और रिटक्सीमेब व अन्य एंटीबॉडीज़ काफी इस्तेमाल की जाती हैं। (इन दवाओं के नाम के अंत में मेब का मतलब है मोनोक्लोनल एंटीबॉडी।)

कैंसर उपचार के एक और नए तरीके में, कैंसर चिकित्सक रोगी के शरीर से कैंसर ऊतक को अलग करके आणविक जैव विश्लेषकों की मदद से कैंसर कोशिका के नियोएंटीजन की पहचान करते हैं। फिर प्रतिरक्षा विज्ञानियों की मदद से इन नियोएंटीजन के लिए एंटीबॉडी तैयार करते हैं, जिसे रोगी के शरीर में प्रवेश कराया जाता है ताकि कैंसर दोबारा ना उभर सके। इस मायने में यह वैक्सीन उपचार के लिए है, ना कि अन्य वैक्सीन (हैपेटाइटिस या खसरा वगैरह) की तरह रोकथाम के लिए। इस तरह के कुछ कैंसर वैक्सीन बाज़ार में उपलब्ध भी हो चुके हैं। जैसे ब्रोस्ट कैंसर के लिए HER-2, कैंसर के लिए रेवेंज और मेलोनेमा के लिए T-VEC

कैंसर उपचार में नोबेल

इस साल का चिकित्सा नोबेल पुरस्कार कैंसर उपचार के लिए मिला है। इस उपचार में जो तरीका अपनाया है वो इन तरीकों से अलग है। इसमें शोधकर्ताओं ने बीलिम्फोसाइट पर ध्यान देने की बजाय टीकोशिकाओं पर ध्यान दिया। टीकोशिकाएं ऐसे रसायन छोड़ती हैं जो हमलावर कोशिकाओं को खुदकुशी के लिए मजबूर करते हैं। इस प्रक्रिया को एपोप्टोसिस कहते हैं। प्रत्येक टीकोशिका की सतह पर पंजानुमा ग्राही होते हैं जो बाहरी या असामान्य एंटीजन के साथ जुड़ जाते हैं। मगर इसके लिए इन्हें एक प्रोटीन द्वारा सक्रिय करने की ज़रूरत होती है। साथ ही कुछ अन्य प्रोटीन भी होते हैं जो टीकोशिकाओं द्वारा सर्वनाश मचाने पर अंकुश रखते हैं। इन प्रोटीन को ब्रेकया चेक पाइंट प्रोटीनकहते हैं।

टेक्सास युनिवर्सिटी के एंडरसन कैंसर सेंटर के एमडी डॉ. जेम्स एलिसन ऐसे एक ब्रोक या चेक पॉइंट, CTLA-4, प्रोटीन पर साल 1990 से काम कर रहे थे। CTLA-4 प्रोटीन टीकोशिकाओं की प्रतिरक्षा प्रक्रिया को नियंत्रित करने का काम करता है। वे ऐसे प्रोटीन का पता लगाना चाहते थे जो CTLA-4 के इस अंकुश को हटा सके। 1994-95 तक उनके साथियों ने antiCTLA4 नामक एक ऐसे रसायन का पता लगा लिया जो कैंसर ग्रस्त चूहों को देने पर  ट्यूमर रोधी गतिविधी शुरू कर देता था और चूहों के कैंसर का इलाज कर देता था। नोबेल समिति के मुताबिक दवा कंपनियों की अनिच्छा के बावजूद, एलिसन ने इस तरीके पर काम जारी रखा। साल 2010 में उम्मीद के मुताबिक नतीजे मिले, जिसमें एक तरह के त्वचा कैंसर, मेलानोमा में रोगी में काफी सुधार दिखा। कई रोगियो में बचेखुचे कैंसर के संकेत भी गायब हो गए। ऐसे रोगियों में इससे पहले कभी इतना सुधार नहीं देखा गया था।

यहीं दूसरे नोबेल विजेता तासुकु होन्जो के काम का पदार्पण होता है। तासुकु होन्जो वर्तमान में क्योतो युनिवर्सिटी जापान में काम कर रहे हैं। उन्होंने एलिसन से भी पहले 1992 में यह पता लगा लिया था कि प्रोटीन पीडी-1, टीकोशिकाओं की सतह पर अभिव्यक्त होता है। लगातार इस पर काम करते रहने पर उन्होंने पाया कि पीडी-1 एक चेकपॉइंट प्रोटीन भी है। यदि हम इसे प्रविष्ट कराएं, तो टीकोशिकाएं ट्यूमररोधी गतिविधी शुरु कर देती हैं। इससे उन्होंने एंटीबॉडी anti-PD1 बनाई जिसे किसी भी तरह के कैंसर से ग्रस्त रोगी के शरीर में देने पर नतीजे काफी नाटकीय मिले। एलिसन और होन्जो, दोनों के ही तरीकों में उन्होंने ऐसे रसायन पहचाने जो ब्रोक या चेकपॉइंट को हटा देते हैं, और कैंसर रोधी गतिविधि को अंजाम देते हैं। उम्मीद के मुताबिक चेकपॉइंट अवरोधकों पर अब कई शोध किए जा रहे हैं। लगभग 1100 से ज़्यादा PD1से सम्बंधित ट्रायल किए जा रहे हैं। ट्यूमर के इलाज में आज इम्यूनोथेरपी काफी चर्चित और लोकप्रिय है। अगले 5 से 10 सालों में इससे कैंसर उपचार किए जाएंगे। एलिसन और होन्जो के काम से लगता है कि बीमारियों के शहंशाह का अंत नज़दीक है। (स्रोत फीचर्स)

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डेढ़ सौ साल जी सकते हैं मनुष्य – संध्या राय चौधरी

लंबी उम्र सभी चाहते हैं। महात्मा गांधी ने 125 साल तक जीने की कामना की थी। उनकी इस कामना के पीछे उनके अनगिनत उद्देश्य थे, जिन्हें वे जीते जी पूरा करना चाहते थे। अब औसत आयु लगातार बढ़ रही है और वैज्ञानिक भी उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को धीमा करने के प्रयास में जुटे हैं। विज्ञान की एक नई शाखा के तौर पर उभरा है जरा विज्ञान यानी जेरोंटोलॉजी। इसके तहत करोड़ों डॉलर खर्च कर ऐसे जीन तलाशे जा रहे हैं, जो उम्र को नियंत्रित करते हैं।

वैज्ञानिकों ने एज-1, एज-2, क्लोफ-2 जैसे जींस का पता भी लगा लिया है। वैज्ञानिकों ने युवा और अधेड़ लोगों के लाखों जीनोम को स्कैन कर पता लगाने की कोशिश की है कि शरीर पर कब उम्र का असर दिखने लगता है। सेल्फिश जीन किताब के लेखक ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रिचर्ड डॉकिंस कहते हैं कि 2050 तक उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को धीमा करने का सूत्र हमारे पास होगा। स्टेम सेल, दी ह्यूमन बॉडी शॉप और जीन थेरपी के ज़रिए इंसान की उम्र को 150 साल से भी अधिक बढ़ाना संभव होगा। एस्टेलास ग्लोबल रीजनरेटिव मेडिसिन के अमेरिकी वैज्ञानिक रॉबर्ट लेंज़ा भी ऐसा मानने वालों में से हैं।        

अपना देश आयुष्मान भव, चिरंजीवी भव, जीते रहो जैसे आशीर्वादों से भरा पड़ा है। पता नहीं ऐसे आशीर्वादों के कारण या किसी और कारण से औसत आयु लगातार बढ़ रही है। 1990 में दुनिया की औसत आयु 65.33 साल थी जो आज बढ़कर 71.5 साल हो गई है। इस दौरान पुरुषों की औसत आयु 5.8 जबकि महिलाओं की 6.6 साल बढ़ी। जब औसत आयु बढ़ रही है तो  100 पार लोगों की संख्या भी बढ़ रही है। शतायु होना अब अपवाद नहीं है।

संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट की मानें तो भारत में 12 हज़ार से अधिक ऐसे लोग हैं जिनकी उम्र 100 के पार है और 2050 तक ऐसे लोगों की तादाद छह लाख तक हो जाएगी। जापान इस मोर्चे पर दुनिया का सबसे अव्वल देश है। वहां के गांवों में दोचार शतायु लोगों का मिलना आम बात है। जापान के सरकारी स्वास्थ्य विभाग के मुताबिक 2014 में 58,820 लोग 100 से अधिक उम्र वाले थे। ऐसा नहीं कि जापान पहले से ही ऐसे बूढ़ों का देश रहा है। 1963 में जब वहां इस तरह की गणना शुरू हुई थी, केवल 153 लोग ही ऐसे मिले थे।

दुनिया भर में बढ़ रही औसत आयु और 100 पार के बूढ़ों की तादाद साफसाफ इशारा करती है कि जीवन प्रत्याशा के मोर्चे पर हम आगे बढ़ रहे हैं। इसका सर्वाधिक श्रेय जाता है स्वास्थ्य़ सुविधाओं में बढ़ोतरी और सेहत के प्रति लोगों की बढ़ती जागरूकता को। अभी अपने देश में पुरुषों की औसत उम्र 64 और महिलाओं की 68 वर्ष है। पिछले 40 सालों में पुरुषों और महिलाओं की औसत उम्र क्रमश: 15 18 साल बढ़ी है। जीवन प्रत्याशा को लेकर गौरतलब बात है कि पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं ज़्यादा साल तक जीती हैं। यह रुझान बना रहा तो 2050 तक 100 के पार जीने वालों में महिलापुरुष अनुपात 54:46 का होगा। यकीनन जीने के मोर्चे पर महिलाओं की जैविक क्षमता पुरुषों से अधिक है।

ढलती उम्र में सक्रियता

रिटायरमेंट की उम्र के बाद ज़्यादातर लोगों की शारीरिक क्षमता का ग्राफ तेज़ी से नीचे गिरता है। वैसे अब देखने को मिल रहा है कि रिटायरमेंट के बाद लोगों ने नए सिरे से खुद को किसी काम से जोड़ा। दरअसल रिटायर होने के बाद भी करीब 20-25 साल का जीवन लोगों के पास होता है। इस दौरान खुद को काम से जोड़े रखना जीवन के प्रति न्याय ही है। ऑस्ट्रेलिया जैसे देश ने तो बढ़ती उम्र की सक्रियता को समझकर मई 2014 में एक कानून पारित कर दिया जिसके मुताबिक 2035 से रिटायरमेंट की उम्र 70 साल हो जाएगी। वहां की सरकार बुज़ुर्गों को काम पर रखने के लिए प्रोत्साहन और आर्थिक लाभ देती है। भारत और चीन जैसे देश को अभी से इस दिशा में सोचना होगा, क्योंकि आज ये युवाओं के देश हैं, लेकिन 20-25 साल के बाद ये बूढ़ों के देश होंगे।

कुछ अनुमानित नुस्खे

उम्र को बढ़ाने वाले खाद्य पदार्थ पर अगर सबसे ज्यादा गंभीरता से रिसर्च हो रहा है तो वह है गेटो नामक पौधा। जापान के ओकिनावा क्षेत्र में सबसे ज़्यादा शतकवीर रहते हैं। यही इस रिसर्च का आधार बना है। ओकिनावा के रियूक्यूस विश्वविद्यालय में कृषि विज्ञान के प्रोफेसर शिंकिची तवाडा ने दक्षिणी जापान के लोगों की अधिक उम्र का राज़ एक खास पौधे गेटो (AlphiniaZerumbet) को बताया है। गहरे पीलेभूरे रंग के इस पौधे के अर्क से इंसान की उम्र 20 प्रतिशत तक बढ़ सकती है। तवाडा पिछले 20 साल से अदरक वंश के इस पौधे पर अध्ययन कर रहे हैं। तवाडा ने कीड़ों पर एक प्रयोग में पाया कि गेटो के अर्क की खुराक से उनकी उम्र 22 प्रतिशत बढ़ गई। बड़ी हरी पत्तियों, लाल फलों और सफेद फूलों वाला गेटो का पौधा सदियों से ओकिनावा के लोगों के भोजन का आधार रहा है। अन्य एंटी ऑक्सीडेंट की तुलना में गेटो ज़्यादा प्रभावी पाया गया। अब यह जानने की कोशिश की जा रही है कि क्या गेटो का प्रयोग दुनिया के अन्य हिस्सों के भिन्न परिस्थितियों के लोगों पर करने पर भी इसका परिणाम पहले जैसा रहेगा।

कहां सबसे अधिक बुज़ुर्ग

चीन के हैनान प्रांत के चेंगमाई गांव में दुनिया के सबसे ज्यादा बुज़ुर्ग रहते हैं। यहां 200 लोग ऐसे हैं जो उम्र का शतक लगा चुके हैं। यहां संतरों की खेती खूब होती है। गांव सामान्य गांवों से बड़ा है। यहां की 5,60,00 की आबादी में 200 लोगों ने पूरी सदी देखी है। यहां तीन सुपर बुज़ुर्ग भी हैं। सुपर बुज़ुर्ग यानी 110 वर्ष से अधिक उम्र वाले। दुनिया भर में ऐसे सिर्फ 400 लोग हैं। ब्रिटेन में रहने वाले भारतीय मूल के पतिपत्नी ने अपनी शादी की 90वीं सालगिरह मनाई है। उनके आठ बच्चे, 27 पोतेपोतियां और 23 परपोतेपोतियां हैं। यह बुज़ुर्ग जोड़ा अपने सबसे छोटे बेटे पाल व उसकी पत्नी के साथ रहता है। पाल की मानें तो उनकी इतनी लंबी उम्र का प्रमुख राज़ तनाव मुक्त रहना है। वे कहते हैं कि मैंने उन्हें कभी बहस करते हुए नहीं देखा है। गौर करने वाली बात है कि वे दोनों खानेपीने की बंदिशों पर ज़्यादा ध्यान नहीं देते। वे हर चीज खाते हैं। बस मात्रा थोड़ी कम होती है। रेड वाइन पतिपत्नी ज़रूर रोज़ाना पीते हैं।

औसत उम्र के मामले में सबसे अव्वल देश के तौर पर जेहन में जापान का नाम आता है। लेकिन इससे भी आगे है मोनैको। यहां की औसत आयु 89.63 साल है। यहां के लोगों की सबसे खास बात यह है कि वे खानपान के प्रति लापरवाह नहीं होते और तनाव बिलकुल नहीं पालते। हरी सब्ज़ी, सूखे मेवे और रेड वाइन का सेवन यहां सबसे ज़्यादा होता है।

जापान में युवा से अधिक बुज़ुर्ग हैं। यहां की औसत आयु 85 के आसपास है। यहां मछली और खास तरह के कंद का सेवन बहुत ही आम है। तेल का प्रयोग बहुत कम है। स्टीम्ड फूड प्रचलन में है। ग्रीन टी के बिना जापानियों की सुबह नहीं होती। रेड मीट, मक्खन, डेयरी उत्पाद के सेवन से बचते हैं।

सिंगापुर दुनिया के सबसे बड़े पर्यटन स्थलों में से है। पर्यटक वहां की चमक दमक देख दंग रह जाते हैं। वहां का खानपान और ज़िंदादिली और पर्यावरणीय चिंता भी ध्यान देने लायक है। वहां के लोग स्वच्छ और स्वस्थ रहने में विश्वास करते हैं। तनावमुक्त जीवन और अच्छे खानपान के कारण ही यहां के लोगों की औसत आयु 84.07 साल है।

फ्रांस के लोग बहुत तंदुरुस्त होते हैं, औसत आयु 81.56 साल है। यहां के लोग कम मात्रा में रेड वाइन का सेवन करते हैं जो कथित रूप से दिल के लिए अच्छी होती है। साथ ही यहां के लोग नियमित रूप से पैदल चलते हैं और तनाव से दूर रहते हैं। इस फैशनपरस्त देश के लोगों की ज़िंदादिली भी मशहूर है। इटली की तरह यहां के आहार में भी ऑलिव ऑयल का भरपूर प्रयोग होता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ब्लैक विडो मकड़ी – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

वैसे तो मकड़ी नाम ही डराने के लिए काफी है लेकिन अगर मकड़ी ब्लैक विडो हो तो चिंता होना स्वाभाविक है। वास्तव में तो ये बेहद शालीन होती हैं और एक कोने में दुबककर बैठ जाती हैं पर अनजाने में यदि काट लें तो तेज़ दर्द के साथ पेशियों में ऐंठन और घबराहट होती है तथा डायफ्राम के शिथिल होने के कारण सांस लेने में भी परेशानी होने लगती है। फिर भी काटने के अधिकांश मामलों में विशेष चिकित्सकीय उपचार की आवश्यकता नहीं होती।

यूं तो ब्लैक विडो मकड़ी का वैज्ञानिक नाम लेट्रोडेक्टस है लेकिन इसके अभिलक्षण के आधार पर इसको कई नामों से जाना जाता है। जैसे पीठ पर लाल पट्टी के कारण रेडबैक मकड़ी, बेतरतीब जाले के कारण टेंगल्ड वेब मकड़ी, और कंघेनुमा टांगों के कारण कॉम्ब फूटेड मकड़ी कहा जाता है। कई बार अपने साथी नर को मैथुन के पश्चात खा जाने के कारण इसे आम तौर पर ब्लैक विडो कहा जाता है। लेट्रोडेक्टस मकड़ियां थेरिडिडी कुल से सम्बंधित हैं। इस बड़े कुल में 100 वंशों की लगभग 2200 प्रजातियां सम्मिलित हैं। ये ऊनी रेशम की बजाय चिपचिपे रेशम के द्वारा शिकार को पकड़ती हैं। ब्लैक विडो का विष चिकित्सकीय अध्ययन के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इनके द्वारा स्रावित रेशमी धागे की रासायनिक संरचना का अध्ययन और इसकी उपयोगिता भी वैज्ञानिक शोध के आकर्षक क्षेत्र हैं। इनकी लैंगिक स्वजाति भक्षण की प्रवृति भी रहस्यमय है और शोध का आमंत्रण देती है। अत: ब्लैक विडो वैज्ञानिक शोध के लिए प्रयोगशाला के आदर्श जीव हैं।

मेरी प्रयोगशाला में तीन साल पहले कुल 45 वयस्क ब्लैक विडो थीं जिनमें 30 मादा और 15 नर थे। नर की कम संख्या का कारण उनकी आयु कम होना तथा प्रजनन के बाद उनका शहीद हो जाना है। पालने के लिए हमने लैब में प्लास्टिक की पारदर्शी पानी की बोतल में इनका घर बनाया। ढक्कन के ऊपर छोटेछोटे छेद श्वसन के लिए और बोतल में पानी में भीगा रूई का फाहा पानी पीने के लिए रखा जाता है। सभी मकड़ियां परभक्षी होती हैं, इसलिए खुराक में उन्हें तीन दिन में एक बार दो घरेलू मक्खियां या एक टिड्डा दिया जाता है। ब्लैक विडो मकड़ियां जाला बनाकर रहती हैं और वे शिकार करने के लिए पूर्णत: जाले पर ही निर्भर रहती हैं।

बोतल में छोड़ने के बाद ये मकड़ियां सामान्यत: रात में बोतल में उपलब्ध जगह के अनुसार जाला बनाती हैं। कम जगह में छोटा जाला और खुली जगह या प्राकृतिक निवास में बड़ा जाला बनाया जाता है। जाला जितना बड़ा होता है, शिकार की उसमें फंसने की सम्भावनाएं भी उतनी ही अधिक प्रबल होती हैं। दिखने में यह जाला भले ही भद्दा और बेतरतीब हो परंतु शिकार को फांसने में बेजोड़ होता है।

जाले को सतह से जोड़ने के लिए 10-15 आधारतन्तु होते हैं। आधारतन्तु आसपास की जगह जैसे चट्टान, टहनियों आदि से जुड़े रहते हैं। इन तन्तुओं पर ब्लैक विडो मचान बनाती है। मचान से ऊपर एवं नीचे जाने के लिए एक रास्ता भी होता है। मचान के नीचे मकड़ी उल्टी लटकी रहती है। आधारतन्तु के सतह से जुड़ने वाले भाग पर रेशम की अत्यधिक चिपचिपी बूंदें देखी जा सकती हैं। इन्हें गम बूटकहते हैं। रेशमी जाल का प्रत्येक तन्तु प्रोटीन से बनता है। अत: जाल बनाने में सभी मकड़ियों को भारी मात्रा में अपने शरीर का प्रोटीन खर्च करना पड़ता है। मकड़ियों का जाला इस प्रकार से बना होता है कि इस जाले पर आने वाले शिकार की हलचल की तरंगें मकड़ी तक निर्बाध पहुंच सकें और दुश्मनों से बचने में भी मदद मिल सके।

सामान्यत: मकड़ियों में आठ आंखें होती हैं। अधिकांश जाला बनाने वाली मकड़ियों में देखने की क्षमता अल्पविकसित होती है। ब्लैक विडो तथा अन्य जाला बुनने वाली मकड़ियों में आंखें केवल दिन एवं रात का ज्ञान या प्रकाश अवधि का अनुभव करने के लिए विकसित हुई हैं। वे शिकार, प्रजनन व अन्य कार्यों के लिए स्पर्श, स्पंदन एवं रासायनिक अणुओं का उपयोग अधिक करती हैं।

 

शिकार करने का तरीका

जैसे ही शिकार जाले में आता है उससे उत्पन्न तरंगें ब्लैक विडो को सचेत कर देती हैं। विडो तेज़ीसे उस स्थान पर पहुंचकर अपने पिछले सबसे लंबे पैरों के सिरों पर उपस्थित कंघेनुमा बालों की संरचना से रेशम ग्रंथी से निकले धागों को खींच कर शिकार पर लपेटने लगती है। दोनों पैर लगातार एवं एक निश्चित क्रम में इतनी जल्दी लपेटने का कार्य करते हैं कि कुछ ही पलों में शिकार को जकड़ लिया जाता है, वह हिल भी नहीं पाता। विडो तुरन्त शिकार के पास पहुंचकर शिकार के पैरों में ज़हरीले विषदंत चुभा देती है। 

इस मकड़ी का विष लेट्रोटॉक्सिन कहलाता है जो रेटल स्नेक के विष से भी 15 गुना ज़्यादा ज़हरीला होता है। यह मुख्यत: तंत्रिका तंत्र को बुरी तरह प्रभावित करता है और कुछ ही पलों में शिकार के प्राण हर लेता है। ब्लैक विडो शिकार को जगहजगह काट कर अपने पाचक एंज़ाइम युक्त विष को भारी मात्रा में शिकार के शरीर में डाल देती है। इससे शिकार के अंग गलकर चूसने लायक हो जाते हैं। ब्लैक विडो के विष में 75 विभिन्न प्रकार के प्रोटीन पाए जाते हैं। शिकार के शरीर को नष्ट करने के लिए सभी प्रोटीन सम्मिलित रूप से काम करते हैं। विष प्रोटीन में सबसे महत्वपूर्ण 7 लेट्रोटॉक्सिन अणु होते हैं। इनमें से पांच अकशेरुकी प्राणी, जैसे कीट पतंगों पर विशेष रूप से काम करते हैं किंतु शेष दो में से एक अल्फा लेट्रोटॉक्सिन अणु रीढ़धारियों पर भी प्रभावशील होता है। इस अणु पर ही सबसे ज़्यादा अध्ययन किया गया है। लेट्रोटॉक्सिन का एक अणु तो विशेषत: केवल क्रस्टेशियंस (केंकड़े, झींगे आदि) को मारने के लिए ही विकसित हुआ है। लेट्रोटॉक्सिन तंत्रिकाओं के सिरों से न्यूरोट्रांसमीटर और कैल्शियम आयन को बाहर निकाल देता है। इससे तंत्रिकाएं डिपोलेराइज़्ड हो जाती हैं तथा संदेश वहन नहीं कर पातीं। परिणामस्वरूप शिकार तुरंत लकवाग्रस्त हो जाता है।

भोजन

जाला बनाने वाली सभी मकड़ियों को रोज़ शिकार करने की ज़रूरत नहीं होती। एक अच्छा शिकार मिलने पर ये उसका बहुत सारा रस चूस लेती हैं। मकड़ियों का उदर गुब्बारे की तरह खूब फैल सकता है। भरपेट भोजन के बाद ये कई दिनों तक न खाएं तो भी इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। लैब में पाली हुई मकड़ियों को भी हम खाने के लिए टिड्डे, ड्रैगनफ्लाय, डेमसलफ्लाय, फूलगोभी तथा मटर की फलियों से प्राप्त इल्ली, छिपकली के बच्चे, कॉकरोच और मक्खी देते हैं।

एगसेक से निकले ढेर सारे नवजात बच्चों को खाना खिलाना थोड़ा मुश्किल काम है क्योंकि एक एगसेक से एक बार में लगभग 200 बच्चे निकलते हैं। एगसेक से बच्चे निकलने के दो दिन पहले एगसेक को एक बड़ी बोतल में अलग से रख देते हैं। बेहद छोटे स्पाइडरलिंग (नवजात शिशु) को खिलाने के लिए विशेष तौर पर ड्रॉसोफिला यानी फ्रूटफ्लाई को कल्चर किया जाता। इन्हें पालना मुश्किल नहीं है। जैसे ही स्पाइडरलिंग को खिलाने के लिए ड्रॉसोफिला को बॉटल में छोड़ते हैं, वह जाले में फंसकर छटपटाती है। जाले में शिकार से उत्पन्न तरंगों से ब्लैक विडो के बच्चे ड्रॉसोफिला को घेर कर शिकार करते हैं। कुछ बच्चे इस प्रक्रिया में फंसकर अन्य बच्चों का शिकार भी बनते हैं। लगभग एक महीने बाद 30 प्रतिशत बच्चे ही जीवित बचते हैं। जब ये स्वयं शिकार करने लायक हो जाते हैं तब उन्हें अलगअलग बोतलों में पाला जाता है।

प्रजनन

स्पाइडरलिंग जैसेजैसे बड़े होते हैं, अपनी पुरानी त्वचा को छोड़ देते हैं। यह सांप की केंचुली निकालने जैसा ही है। पुरानी त्वचा त्यागते समय कुछ देर के लिए स्पाइडरलिंग अपंग हो जाते हैं। इस समय शिकारी के आक्रमण करने पर ये बचाव में असमर्थ होते हैं। वयस्क होने तक नर ब्लैक विडो 7 बार एवं मादा 9 बार अपनी पुरानी त्वचा बदलते हैं। अंतिम बार त्वचा त्यागने के बाद ही नर में, मादा जननांग में वीर्य डालने के लिए फूले हुए पेडीपेल्प विकसित होते हैं। नर मादा से आकार में छोटे और वज़न में हल्के होते हैं। नर का शरीर पूर्णत: काला होने की बजाय सफेद एवं काले रंग की धारियों वाला होता है। इस प्रकार से नर एवं मादा ब्लैक विडो में स्पष्ट लैंगिक द्विरूपता दिखाई देती है। नर तीन महीनों में वयस्क हो जाते हैं किंतु मादा को वयस्क होने में छ: महीने लगते हैं।  

मादा ब्लैक विडो को पृथक करने के लिए बड़ी बॉटल में स्थानांतरित करने के तीन दिन बाद नर को उस बॉटल में छोड़ा जाता है। तीन दिनों में मादा पहले से बोतल में रखी एक सूखी लकड़ी के साथ रात को जाला बना लेती है। जैसे ही नर को बोतल में छोड़ा जाता है, नर को तुरंत पता चल जाता है कि उसे किसी वर्जिन मादा के जाल में छोड़ा गया है। मादा ब्लैक विडो अनभिज्ञ दिखती है तथा चुपचाप बैठी रहती है परंतु वह जानती है कि जाल में शिकार नहीं, नर आया है। स्कैनिंग इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप से पता लगाया जा सकता है कि रेशमी धागे को पकड़ने वाले उसके पैरों के टारसस (पैर का सबसे निचला भाग) वाले भाग में पाए जाने वाले बाल वास्तव में धागों पर उपस्थित रसायनों को पहचानने वाले संवेदना ग्राही होते हैं।

नर ब्लैक विडो भी जाले में मादा की उपस्थिति को भांपकर जाले के धागों को गिटार के समान बजाने लगता है। इन कंपनों को केवल उसकी प्रजाति की मादाएं ही समझ सकती हैं। नर पेट को लगातार दोनों तरफ हिलाता है तथा मादा के समीप पहुंचने के लिए कुछ धागों को तोड़ता है। इससे मादा जाले में एक ही जगह तक सीमित हो जाती है। इस तरह मादा द्वारा नर को खाए जाने के जोखिम को कम किया जाता है। नर मादा के ऊपर भी अपने रेशमी धागों को लपेटकर उसे कैद कर लेते हैं। रेशमी धागों में लगे रसायन मादा को शांत रखते हैं तथा नर को मादा के आक्रमण से बचाए रखने का उपाय भी हैं। इस दौरान नर एक भी गलती करे, तो मादा उसे शिकार समझती है और नर को मौत की सज़ा मिलती है।

स्वजातिभक्षण

जाला बनाने वाली मकड़ियों में समागम भी अनोखे प्रकार का होता है। नर अपने जननांग से वीर्य की एक बूंद जाल के धागे पर डाल देता है और अपने पिचकारी के समान काम करने वाले पेडीपेल्प में वीर्य को भरकर मादा जननांगों में छोड़ देता है। पेडीपेल्प में किरेटिन से बनी कुण्डलित नली मादा के जननांग में वीर्य को पहुंचाने में इस्तेमाल होती है। पूरी प्रक्रिया में नर उल्टी लटकी हुई मादा के पेट पर लेटकर एक पेडीपेल्प का उपयोग करता है। आधे घण्टे बाद यही प्रक्रिया दूसरे पेडीपेल्प से की जाती है। कुण्डलित नली को मादा जननांग से निकालते समय नर 180 डिग्री की कलाबाज़ी करके पलटता है। इस समय नर का उदर मादा के मुंह के समीप आ जाता है। समागम के समय नर का हिलता हुआ उदर मादा को उसे खाने के लिए उकसाता है। इस प्रकार 30 प्रतिशत समागम के मामलों में मादा नर को खा जाती है तथा विधवा बन जाती है। इसलिए इन मादाओं को ब्लैक विडो नाम दिया गया है।

प्राणि जगत में कई प्रजातियों में प्रजनन के बाद नर को खाने का स्वभाव देखा गया है। मादा को अधिक पोषण प्राप्त हो सके, यह इसका एक कारण हो सकता है। परन्तु पेट भरी हुई ब्लैक विडो भी यह कृत्य करती है। इसलिए कुछ वैज्ञानिक नर के इस व्यवहार को  प्रकृति प्रदत्त तथा जानबूझकर किया बलिदान का कार्य बताते हैं। वे कहते हैं कि इसके लिए नर में उदर की खांच का विकसित होना एक अनुकूली लक्षण है। पर मुझे ऐसा नहीं लगता। आपको क्या लगता है?

ब्लैक विडो को आप भी पालें और इन रहस्यों से पर्दा उठाएं। महाराष्ट्र, गुजरात एवं मध्यप्रदेश की सरहद के बहुतसे बीहड़ों और जंगलों में ब्लैक विडो मिलती हैं। मुझे भी इन्हीं इलाकों में ऐसे ही मिली थीं।(स्रोत फीचर्स)

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मकड़ी का रेशम स्टील से 5 गुना मज़बूत

क्सर मकड़ी का जाला देखकर या उससे टकराने पर भी हमें उसकी ताकत का अंदाज़ा नहीं लगता। लेकिन मकड़ी का जाला मानव के बराबर हो तो वह एक हवाई जहाज़ को जकड़ने की क्षमता रखता है। हाल ही में वैज्ञानिकों ने इन रेशमी तारों की मज़बूती का कारण पता लगाया है।

मकड़ी के रेशम की स्टील से भी अधिक मज़बूती का पता लगाने के लिए वैज्ञानिकों ने परमाणु बल सूक्ष्मदर्शी की मदद से विषैली ब्राउन मकड़ियों के रेशम का विश्लेषण किया। इस रेशम का उपयोग वे ज़मीन पर अपना जाला बनाने और अपने अंडों को संभाल कर रखने के लिए करती हैं। एसीएस मैक्रो लेटर्स में प्रकाशित रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने बताया है कि जाले का प्रत्येक तार मानव बाल से 1000 गुना पतला है और हज़ारों नैनो तंतुओं से मिलकर बना है। और प्रत्येक तार का व्यास मिलीमीटर के 2 करोड़वें भाग के बराबर है। एक छोटे से केबल की तरह, प्रत्येक रेशम फाइबर पूरी तरह से समांतर नैनो तंतुओं से बना होता है। इस फाइबर की लंबाई करीब 1 माइक्रॉन होती है। यह बहुत लंबा मालूम नहीं होता लेकिन नैनोस्केल पर देखा जाए तो यह फाइबर के व्यास का कम से कम 50 गुना है। शोधकर्ताओं का ऐसा मानना है कि वे इसे और अधिक खींच सकते हैं।

वैसे पहले भी यह मत आए थे कि मकड़ी का रेशम नैनोफाइबर से बना है, लेकिन अब तक इस बात का कोई सबूत नहीं था। टीम का मुख्य औज़ार था ब्राउन रीक्ल्यूस स्पाइडर का अनूठा रेशम जिसके रेशे बेलनाकार न होकर चपटे रिबन आकार के होते हैं। इस आकार के कारण इसे शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी लेंस के नीचे जांचना काफी आसान हो जाता है।

यह नई खोज पिछले साल की एक खोज पर आधारित है जिसमें यह बताया गया था कि किस प्रकार ब्राउन रीक्ल्यूस स्पाइडर छल्ले बनाने की एक विशेष तकनीक से रेशम तंतुओं को मज़बूत करती है। एक छोटीसी सिलाई मशीन की बदौलत यह मकड़ी रेशम के प्रत्येक मिलीमीटर में लगभग 20 छल्ले बनाती है, जो उनके चिपचिपे स्पूल को अधिक मज़बूती देती है और इसे पिचकने से रोकती है।

शोधकर्ताओं का मत है कि भले चपटे रिबन और छल्ला तकनीक सभी मकड़ियों में नहीं पाई जाती, किंतु रीक्ल्यूस रेशम का अध्ययन अन्य प्रजातियों के रेशों पर शोध का एक रास्ता हो सकता है। ऐसे अध्ययन से मेडिसिन और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में नई सामग्री बनाने के रास्ते बनाए जा सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)

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अरावली पहाड़ियां बची रहीं, तो पर्यावरण भी बचा रहेगा – जाहिद खान

शीर्ष अदालत ने हाल ही में दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में वायु प्रदूषण से उत्पन्न स्थिति से सम्बंधित एक मामले की सुनवाई करते हुए, जिस तरह से राजस्थान सरकार को 48 घंटे के अंदर राज्य के 115.34 हैक्टर क्षेत्र में गैरकानूनी खनन बंद करने का सख्त आदेश दिया है, उसका स्वागत किया जाना चाहिए। अदालत के इस आदेश से न सिर्फ राजस्थान के पर्यावरण की रक्षा होगी, बल्कि दिल्ली के पर्यावरण में भी सुधार आएगा, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में प्रदूषण का स्तर कम होगा। लोगों को प्रदूषण और उससे होने वाले नुकसान से निजात मिलेगी।

जस्टिस मदन बी. लोकुर और जस्टिस दीपक गुप्ता की पीठ का इस बारे में कहना था कि यद्यपि राजस्थान को अरावली में खनन गतिविधियों से करीब पांच हज़ार करोड़ रुपए की रॉयल्टी मिलती है, लेकिन वह दिल्ली में रहने वाले लाखों लोगों की ज़िंदगी ख़तरे में नहीं डाल सकती। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में प्रदूषण का स्तर बढ़ने की एक बड़ी वजह अरावली पहाड़ियों का गायब होना भी हो सकता है। अदालत ने यह आदेश सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति की उस रिपोर्ट के आधार पर दिया है, जिसमें कहा गया है कि पिछले 50 सालों में अरावली पर्वत शृंखला की 128 पहाड़ियों में से 31 पहाड़ियां गायब हो गई हैं।

केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति के वकील ने सर्वोच्च न्यायालय से अनुरोध किया था कि अरावली क्षेत्र में गैरकानूनी खनन गतिविधियां रोकने के लिए कठोर से कठोर कदम उठाने चाहिए, क्योंकि राज्य सरकार इन गतिविधियों के खिलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं कर रही है। सुनवाई के दौरान जब अदालत ने राजस्थान सरकार से इस बारे में पूछा कि अरावली क्षेत्र में अवैध खनन रोकने के लिए उसने क्या कदम उठाए हैं, तो सरकार की दलील थी कि उनके यहां के सभी विभाग गैरकानूनी खनन रोकने के लिए अपनाअपना कामकर रहे हैं। सरकार ने इस सम्बंध में कारण बताओ नोटिस जारी करने के अलावा कई प्राथमिकी भी दर्ज की हैं। लेकिन अदालत सरकार की इन दलीलों से संतुष्ट नहीं हुई। पीठ ने नाराज होते हुए कहा कि वह राज्य सरकार की स्टेटस रिपोर्ट से बिल्कुल भी इत्तेफाक नहीं रखती, क्योंकि अधिकांश ब्यौरे में सारा दोष भारतीय वन सर्वेक्षण यानी एफएसआई पर मढ़ दिया गया है। सरकार अरावली पहाड़ियों को गैरकानूनी खनन से बचाने में पूरी तरह से नाकाम रही है। उसने इस मामले को बेहद हल्के में लिया है। जिसके चलते समस्या बढ़ती जा रही है। अदालत ने इसके साथ ही राजस्थान के मुख्य सचिव को अपने आदेशों की पूर्ति के संदर्भ में एक हलफनामा दायर करने का निर्देश दिया। बहरहाल अब इस मामले में अगली सुनवाई 29 अक्टूबर को होगी।

राजस्थान, हरियाणा, गुजरात और दिल्ली में फैली अरावली पर्वत शृंखला सैकड़ों सालों से गंगा के मैदान के ऊपरी हिस्से की आबोहवा तय करती आई है, जिसमें वर्षा, तापमान, भूजल रिचार्ज से लेकर भूसंरक्षण तक शामिल है। ये पहाड़ियां दिल्ली, हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश को धूल, आंधी, तूफान और बाढ़ से बचाती रही हैं। लेकिन हाल का एक अध्ययन बतलाता है कि अरावली में जारी खनन से थार रेगिस्तान की रेत दिल्ली की ओर लगातार खिसकती जा रही है। राजस्थान से लेकर हरियाणा तक एक विशाल इलाके में अवैध खनन से ज़मीन की उर्वरता खत्म हो रही है। इससे हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सूखा और राजस्थान के रेतीले इलाके में बाढ़ के हालात बनने लगे हैं। प्रदूषण से मानसून का पैटर्न बदला है। मानसून के इस असंतुलन से इन इलाकों के रहवासियों को काफी नुकसान उठाना पड़ रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने साल 2002 में इस क्षेत्र के पर्यावरण को बचाने के लिए खनन पर पाबंदी लगा दी थी। बावजूद इसके खनन नहीं रुका है। सरकार की आंखों के सामने गैरकानूनी तरीके से खनन होता रहता है और वह तमाशा देखती रहती है। राजस्थान सरकार ने खुद अदालत में यह बात मानी है कि उसकी लाख कोशिशों के बाद भी राज्य में अवैध खनन जारी है।आज हालत यह है कि राज्य के 15 ज़िलों में सबसे ज़्यादा अवैध खनन हो रहा है। अवैध खनन की वजह इस इलाके में कॉपर, लेड, ज़िंक, सिल्वर, आयरन, ग्रेनाइट, लाइम स्टोन, मार्बल, चुनाई पत्थर जैसे खनिज पाए जाना है। प्रदेश के कुल खनिजों में से 90 फीसदी खनिज अरावली पर्वत शृंखला और उसके आसपास हैं। नियमों के मुताबिक अरावली पर्वत शृंखला की एक कि.मी. परिधि में खनन नहीं हो सकता, लेकिन वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने नियमों में संशोधन कर राजस्थान के कई ऐसे भूभाग शामिल कर लिए हैं, जो इनके नज़दीक है।

तमाम अदालती आदेशों के बाद भी अवैध खनन के खिलाफ न तो राजस्थान सरकार और प्रशासन ने कोई प्रभावी कार्रवाई की है और न ही केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय इस पर लगाम लगा पाया है। सरकार की लापरवाही और उदासीनता का ही नतीजा है कि खनन माफिया बेखौफ होकर अरावली की पहाड़ियों को खोखला कर रहा है। लेखा परीक्षक और नियंत्रक की एक रिपोर्ट कहती है कि राजस्थान के अंदर अरावली पर्वत शृंखला क्षेत्र में नियमों को ताक में रखकर खनन के खूब पट्टे जारी किए गए, उनका नवीनीकरण किया गया या उन्हें आगे बढ़ाया गया। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने भी इसके लिए अपनी मंज़ूरियां दीं। नतीजा यह है कि अरावली पर्वत शृंखला की पहाड़ियां एक के बाद एक गायब होती जा रही हैं। कुछ लोगों के स्वार्थ के चलते लाखों लोगों को नुकसान उठाना पड़ रहा है। यदि सरकार अब भी इसे बचाने के लिए नहीं जागी, तो इस क्षेत्र का पूरा पर्यावरण खतरे में पड़ जाएगा। अरावली पर्वत शृंखला बची रहेगी, तो इस क्षेत्र का पर्यावरण भी बचा रहेगा। (स्रोत फीचर्स)

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बिना इंजन के विमान ने भरी उड़ान

वैज्ञानिकों ने एक ऐसा हवाई जहाज़ तैयार किया है जिसमें कोई भी हिस्सा हिलताडुलता या घूमता नहीं है। आम तौर पर हवाई जहाज़ों में या तो पंखे घूमते हैं या जेट इंजिन की मोटर घूमती है। यह नए किस्म का हवाई जहाज़ जिस तकनीक से उड़ेगा उसे इलेक्ट्रोएयरोडाएनेमिक्स (ईएडी) कहते हैं।

वैसे तो इंजीनियर काफी समय से आश्वस्त थे कि ईएडी की मदद से हवाई जहाज़ उड़ाए जा सकते हैं किंतु किसी ने इसका कामकाजी मॉडल तैयार नहीं किया था। वैसे नासा अपने अंतरिक्ष यानों में इस तकनीक का उपयोग करता रहा है।

ईएडी तकनीक में किया यह जाता है कि ज़ोरदार वोल्टेज लगाकर गैस को आयन में परिवर्तित किया जाता है। इन आयनों में काफी गतिज ऊर्जा होती है और ये आसपास की हवा को पीछे की ओर धकेलते हैं। हवा की इस गति के प्रतिक्रियास्वरूप हवाई जहाज़ आगे बढ़ता है।

पूरे सात साल के प्रयासों के बाद कैम्ब्रिज स्थित मेसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के इंजीनियर स्टीवन बैरेट की टीम इस तकनीक से हवाई जहाज़ को उड़ाने में सफल हुई है। वैसे यह हवाई जहाज़ बहुत छोटा सा था और इसे तकनीक का प्रदर्शन मात्र माना जा सकता है किंतु कई टेक्नॉलॉजीविदों का मत है कि यह भविष्य की दिशा तय कर सकता है।

बैरेट की टीम ने जो हवाई जहाज़ बनाया वह मात्र 2.45 कि.ग्रा. का है। इसके डैने करीब 5 मीटर के हैं। डैनों के ऊपर इलेक्ट्रोड लगे हैं जिनके बीच वायु के अणुओं का आयनीकरण होता है। इलेक्ट्रोड्स के बीच वोल्टेज का मान 40,000 वोल्ट होता है। टीम ने इस हवाई जहाज़ का परीक्षण अपने संस्थान के जिम्नेशियम में किया। कई बार की कोशिशों के बाद अंतत: उनका हवाई जहाज़ ज़मीन से आधा मीटर ऊपर 6 मीटर प्रति सेकंड की रफ्तार से 60 मीटर तक उड़ा।

इस पैमाने पर तकनीक को लागू कर लेने के बाद सवाल आएगा इसे बड़े हवाई जहाज़ों के साथ कर पाने का। सभी लोग सहमत हैं कि वह एक बड़ी समस्या होने वाली है क्योंकि जैसेजैसे यान का आकार बढ़ेगा, उसका वज़न भी बढ़ेगा और उसे हवा में ऊपर उठाने तथा आगे बढ़ाने के लिए जितनी शक्ति लगेगी उसके लिए इलेक्ट्रोड तथा बिजली की व्यवस्था आसान नहीं होगी। फिलहाल बैरेट और उनकी टीम इस तकनीक का इस्तेमाल ड्रोन जैसे छोटे यानों में करने पर विचार कर रही है किंतु उन्हें उम्मीद है कि एक दिन वे इसका उपयोग यातायात के क्षेत्र में कर पाएंगे। इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि इसमें शोर बिलकुल नहीं होता। किंतु यह भी सोचने का विषय होगा कि इतने बड़े पैमाने पर वायु का आयनीकरण करना पर्यावरण को कैसे प्रभावित करेगा। (स्रोत फीचर्स)

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