दिमाग की कोशिकाएं अपने जीन बदलती रहती हैं

हाल के एक अध्ययन से पता चला है कि दिमाग की तंत्रिका कोशिकाओं में मूल जेनेटिक बनावट को लगातार बदला जाता है और तमाम किस्म के नए-नए संस्करण बनते रहते हैं। इस अध्ययन से जुड़े वैज्ञानिकों का मत है कि संभवत: यह प्रक्रिया अल्ज़ाइमर रोग के मूल में हो सकती है।

यह बात तो 1970 के दशक में पता चल गई थी कि कुछ कोशिकाएं अपने डीएनए को उलट-पलट कर सकती हैं, उसमें परिवर्तन कर सकती हैं। जैसे, प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाएं उन जीन्स को हटा देती हैं जो किसी रोगजनक को पहचानकर उससे लड़ने के लिए प्रोटीन बनाने का काम करते हैं। इन जीन्स को हटाने के बाद शेष डीएनए को जोड़कर वापिस साबुत कर दिया जाता है। जीन्स के इस तरह के पुनर्मिश्रण को कायिक पुनर्मिश्रण कहते हैं।

इस बात के कई सुराग मिले हैं कि ऐसा कायिक पुनर्मिश्रण दिमाग में चलता रहता है। देखा गया है कि तंत्रिकाएं प्राय: एक-दूसरे से काफी अलग-अलग जेनेटिक बनावट रखती हैं। लेकिन इस प्रक्रिया के प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं थे। अब सैनफोर्ड बर्नहैम प्रीबाइस मेडिकल डिस्कवरी इंस्टीट्यूट के तंत्रिका वैज्ञानिक जेरॉल्ड चुन और उनके साथियों ने छ: स्वस्थ बुज़ुर्ग व्यक्तियों द्वारा दान किए गए दिमागों तथा सात अल्ज़ाइमर रोगियों के दिमागों की तंत्रिकाओं का विश्लेषण करके उक्त प्रक्रिया का प्रमाण जुटाने का प्रयास किया है। अल्ज़ाइमर रोगी गैर-वंशानुगत अल्ज़ाइमर से पीड़ित थे।

शोधकर्ताओं ने उक्त व्यक्तियों के मस्तिष्क में एक खास जीन में परिवर्तनों का अध्ययन किया। यह जीन एमिलॉइड पूर्ववर्ती प्रोटीन (एपीपी) बनाने का निर्देश देता है। यही प्रोटीन अल्ज़ाइमर रोगियों में प्लाक बनने का कारण होता है। शोधकर्ता देखना चाहते थे कि क्या अल्ज़ाइमर रोगियों में एपीपी जीन के विभिन्न संस्करण पाए जाते हैं।

नेचर नामक शोध पत्रिका में उन्होंने रिपोर्ट किया है कि तंत्रिकाओं में एपीपी जीन के एक-दो नहीं बल्कि हज़ारों परिवर्तित रूप मौजूद थे। कुछ रूपांतरण तो डीएनए में मात्र एक क्षार इकाई में परिवर्तन के फलस्वरूप हुए थे जबकि कुछ मामलों में डीएनए के बड़े-बड़े खंडों को हटा दिया गया था और शेष बचे डीएनए को सिल दिया गया था। चुन व उनके साथियों ने पाया कि अल्ज़ाइमर रोगियों में रूपांतरित जीन्स की संख्या सामान्य लोगों से छ: गुना ज़्यादा थी। वैसे शोधकर्ताओं ने स्पष्ट किया है कि एपीपी जीन के इतने संस्करणों का होना कुछ मामलों में लाभप्रद भी हो सकता है। मगर कुछ लोगों में इस प्रक्रिया से एपीपी जीन के हानिकारक रूप बन जाते हैं जो अल्ज़ाइमर जैसे रोगों के लिए ज़िम्मेदार होते हैं।

शोधकर्ताओं ने इस तरह के रूपांतरण की क्रियाविधि का भी अनुमान लगाने की कोशिश की है। कोशिकाओं में डीएनए के किसी खंड (जीन) से प्रोटीन बनाने के लिए उस हिस्से की आरएनए प्रतिलिपि बनाई जाती है। कभी-कभी एक एंज़ाइम की सक्रियता के चलते इस आरएनए की पुन: प्रतिलिपि बनाई जाती है जो डीएनए के रूप में होती है। यह डीएनए जाकर जीनोम में जुड़ जाता है। आरएनए से डीएनए बनाने की प्रक्रिया में ज़्यादा त्रुटियां होती हैं, इसलिए जो नया डीएनए बनता है वह प्राय: मूल डीएनए से भिन्न होता है। ऐसे डीएनए के जुड़ने से नए-नए संस्करण प्रकट होते रहते हैं।

एक सुझाव यह है कि आरएनए से वापिस डीएनए बनने की प्रक्रिया को रोककर अल्ज़ाइमर की रोकथाम संभव है। एड्स वायरस पर नियंत्रण के लिए इस तकनीक का सहारा लिया जाता है। बहरहाल, यह तकनीक अपनाने से पहले काफी सावधानीपूर्वक पूरे मामले का अध्ययन ज़रूरी होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नकली चांद की चांदनी से रोशन होगा चीन! – प्रदीप

चांद मानव कल्पना को हमेशा से रोमांचित करता रहा है। भला चांद की चाहत किसे नहीं है? विश्व की लगभग सभी भाषाओं के कवियों ने चंद्रमा के मनोहरी रूप पर काव्यसृष्टि की है।  मगर नकली चांद? इस लेख का शीर्षक  पढ़कर आप हैरान रह गए होंगे। मगर यदि चीन की आर्टिफिशियल मून यानी मानव निर्मित चांद बनाने की योजना सफल हो जाती है, तो चीन के आसमान में 2020 तक यह चांद चमकने लगेगा। यह नकली चांद चेंगडू शहर की सड़कों पर रोशनी फैलाएगा और इसके बाद स्ट्रीटलैंप की ज़रूरत नहीं रहेगी।  

चीन इससे अंतरिक्ष में बड़ी ऊंचाई पर पहुंचने की तैयारी में है। वह इस प्रोजेक्ट को 2020 तक लॉन्च करना चाहता है। इस प्रोजेक्ट पर चेंगडू एयरोस्पेस साइंस एंड टेक्नॉलॉजी माइक्रोइलेक्ट्रॉनिक्स सिस्टम रिसर्च इंस्टीट्यूट कॉर्पोरेशन नामक एक निजी संस्थान पिछले कुछ वर्षों से काम कर रहा है। चीन के अखबार पीपुल्स डेली के अनुसार अब यह प्रोजेक्ट अपने अंतिम चरण में है। चाइना डेली अखबार ने चेंगड़ू एयरोस्पेस कार्पोरेशन के निदेशक  वु चेन्फुंग के हवाले से लिखा है कि चीन सड़कों और गलियों को रोशन करने वाले बिजली खर्च को घटाना चाहता है। नकली चांद से 50 वर्ग कि.मी. के इलाके में रोशनी करने से हर साल बिजली में आने वाले खर्च में से 17.3 करोड़ डॉलर बचाए जा सकते हैं। और आपदा या संकट से जूझ रहे इलाकों में ब्लैकआउट की स्थिति में राहत के कामों में भी सहायता मिलेगी। वु कहते हैं कि अगर पहला प्रोजेक्ट सफल हुआ तो साल 2022 तक चीन ऐसे तीन और चांद आसमान में स्थापित सकता है।

सवाल उठता है कि यह नकली चांद काम कैसे करेगा? चेंगडू एयरोस्पेस के अधिकारियों के मुताबिक यह नकली चांद एक शीशे की तरह काम करेगा, जो सूर्य की रोशनी को परावर्तित कर पृथ्वी पर भेजेगा। यह चांद हूबहू पूर्णिमा के चांद जैसा ही होगा मगर, इसकी रोशनी असली चांद से आठ गुना अधिक होगी। नकली चांद की रोशनी को नियंत्रित किया जा सकेगा। यह पृथ्वी से 500 कि.मी. की दूरी पर स्थित होगा। जबकि असली चांद की पृथ्वी से दूरी 3,80,000 कि.मी. है।

चीन अपने अंतरिक्ष कार्यक्रम से अमेरिका और रूस की बराबरी करना चाहता है और इसके लिए उसने ऐसी कई महत्वाकांक्षी परियोजनाएं बनाई है। हालांकि चीन पहला ऐसा देश नहीं है जो नकली चांद बनाने की कोशिश में जुटा है, इससे पहले नब्बे के दशक में रूस और अमेरिका नकली चांद बनाने की असफल कोशिश कर चुके हैं लेकिन नकली चांद स्थापित करने की राह अभी भी इतनी आसान नहीं है क्योंकि पृथ्वी के एक खास इलाके में रोशनी करने के लिए इस मानव निर्मित चांद को बिलकुल निश्चित जगह पर रखना होगा, जो इतना आसान नहीं है।

चीन के इस प्रोजेक्ट पर पर्यावरणविदों ने सवाल उठाने शुरू किए हैं। उनका कहना है कि इस प्रोजेक्ट से पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। दिन को सूरज और रात को नकली चांद के कारण वन्य प्राणियों का जीना दूभर हो जाएगा और वे खतरे में पड़ जाएंगे। पेड़पौधों पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा और प्रकाश प्रदूषण भी बढ़ेगा। कवियों को भी ऐसे चांद से परेशानी हो सकती है क्योंकि तब सवाल यह उठेगा कि बात असली चांद की जगह नकली की तो नहीं की जा रही है! (स्रोत फीचर्स)

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गर्भाशय में भ्रूण की सुरक्षा

र्भावस्था जीव विज्ञान की एक पेचीदा पहेली रही है। गर्भावस्था के दौरान आश्चर्यजनक बात यह होती है कि मां का प्रतिरक्षा तंत्र भ्रूण को नष्ट नहीं करता जबकि भ्रूण में तमाम पराए पदार्थ भरे होते हैं। आम तौर पर प्रतिरक्षा तंत्र किसी भी पराई वस्तु पर हमला करके उसे नष्ट करने की कोशिश करता ही है। तो गर्भावस्था में ऐसा क्या होता है कि प्रतिरक्षा तंत्र शिथिल हो जाता है और प्रसव तक शिथिल रहता है?

कैम्ब्रिज के वेलकम सैंगर इंस्टीट्यूट की सारा टाइचमैन इसी पहलू का अध्ययन करती रही हैं। उनका कहना है कि जच्चाबच्चा का संपर्क काफी पेचीदा होता है और हम इसे भलीभांति समझते भी नहीं हैं किंतु एक सफल गर्भावस्था के लिए यह निर्णायक होता है।

इसी संपर्क की क्रियाविधि को समझने के लिए टाइचमैन और उनके साथियों मां और भ्रूण की एकएक कोशिका के बीच परस्पर क्रिया को समझने का रास्ता अपनाया। उन्होंने 70,000 सफेद रक्त कोशिकाओं तथा आंवल और गर्भाशय में बने अस्तर की कोशिकाओं को देखा। ये कोशिकाएं उन्हें ऐसी महिलाओं से प्राप्त हुई थीं जिन्होंने अपना गर्भ 6-14 सप्ताह में समाप्त कर दिया था। आधुनिक तकनीक का उपयोग करते हुए उन्होंने प्रत्येक कोशिका की जीनसक्रियता का आकलन किया और पता लगाया कि उसमें कौनकौन से प्रोटीन उपस्थित हैं और इसके आधार पर तय किया कि वह कोशिका किस किस्म की है।

इस तरह से उन्हें 35 किस्म की कोशिकाओं का पता चला। इनमें से कुछ पहले से ज्ञात थीं। इनमें से कुछ ऐसी भ्रूणीय कोशिकाएं थीं जो मां के ऊतकों में प्रवेश करके रक्त नलियों का विकास शुरू करवाती हैं जिनके माध्यम से मां और भ्रूण का सम्बंध बनता है। उन्हें अपनी खोज में कुछ ऐसी प्रतिरक्षा कोशिकाएं भी मिली जिन्हें नेचुरल किलर सेल कहते हैं। ये आम तौर पर संक्रमित कोशिकाओं और कैंसर कोशिकाओं को नष्ट करती हैं।

जब इन अलगअलग कोशिकाओं की परस्पर क्रिया को देखा गया तो पता चला कि कुछ घुसपैठी भ्रूणीय कोशिकाएं मां की कोशिकाओं को ऐसी प्रतिरक्षा कोशिकाएं बनाने को उकसाती हैं जो प्रतिरक्षा तंत्र की शेष कोशिकाओं पर अंकुश का काम करती हैं। टाइचमैन की टीम ने नेचर शोध पत्रिका में रिपोर्ट किया है कि मां की कुछ नेचुरल किलर सेल शांति सेना का काम करती हैं और अन्य प्रतिरक्षा कोशिकाओं को भ्रूण पर हमला करने से रोकती हैं। ये ऐसे रसायन भी बनाती हैं जो भ्रूण के विकास में मदद करते हैं और रक्त नलिकाओं के जुड़ाव बनवाते हैं।

शोधकर्ताओं का मत है कि अभी उन्होंने मां और भ्रूण की कोशिकाओं की सारी अंतर्क्रियाओं का अध्ययन नहीं किया है और न ही यह एक टीम के बस की बात है। लिहाज़ा उन्होंने एक ऑनलाइन डैटाबेस स्थापित किया है ताकि समस्त शोधकर्ता इस दिशा में काम को आगे बढ़ा सकें। (स्रोत फीचर्स)

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मस्तिष्क को भी प्रभावित करता है वायु प्रदूषण – डॉ. विजय कुमार उपाध्याय

मारे जीवन के लिए वायु की उपलब्धता अत्यन्त आवश्यक है। इसके बिना हम कुछ क्षण से अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकते। परन्तु यह भी ज़रूरी है कि जिस हवा को हम सांस द्वारा ग्रहण करते हैं वह शुद्ध हो। विभिन्न प्रकार के प्रदूषकों से युक्त हवा हमारे स्वास्थ्य के लिए कई तरह से हानिकारक साबित होती है। आज औद्योगिक विकास के दौर में समयसमय पर नएनए कारखाने स्थापित किए जा रहे हैं जिनकी चिमनियों से निकलने वाले धुएं से हमारा वायुमंडल निरन्तर प्रदूषित होता जा रहा है। साथ ही स्वचालित वाहनों की बढ़ती संख्या ने वायुमंडल को प्रदूषित करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इस प्रकार से प्रदूषित वायु में रहने के कारण लोग कई रोगों से ग्रस्त हो रहे हैं।

पहले लोगों की धारणा थी वायु प्रदूषण के कारण सिर्फ हमारे फेफड़ों और हृदय को ही नुकसान पहुंचता है। परन्तु हाल में किए गए अध्ययनों एवं अनुसंधानों का निष्कर्ष है कि वायु प्रदूषण फेफड़ों और हृदय के अतिरिक्त हमारे मस्तिष्क को भी बुरी तरह प्रभावित करता है। ऐसा ही एक अध्ययन संयुक्त राज्य अमेरिका के येल विश्वविद्यालय तथा चीन के बेजिंग विश्वविद्यालय में कार्यरत शोधकर्ताओं द्वारा हाल ही में किया गया है। इस अध्ययन से सम्बंधित एक शोध पत्र कुछ ही समय पूर्व नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस के जर्नल में प्रकाशित हुआ था। इसमें बताया गया है कि यदि कोई व्यक्ति लंबे समय तक प्रदूषित वायु में रहता है तो उसके संज्ञान या अनुभूति ग्रहण करने की क्षमता बुरी तरह प्रभावित होती है। विशेष कर बुज़ुर्ग लोग वायु प्रदूषण से ज़्यादा प्रभावित होते हैं। बहुत से बुज़ुर्ग तो बोलने में काफी कठिनाई अनुभव करते हैं।

वॉशिंगटन स्थित इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टिट्यूट में कार्यरत वैज्ञानिकों के अनुसार जो लोग बहुत लंबे समय तक वायु प्रदूषण की चपेट में रहते हैं उनकी बोलने और गणितीय आकलन की क्षमता बहुत अधिक घट जाती है। इस प्रकार का प्रतिकूल प्रभाव महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों पर अधिक देखा गया है। इस अध्ययन में चीन में सन 2010 से 2014 के बीच 32,000 लोगों पर सर्वेक्षण किया गया था। उन पर अल्पकालीन और दीर्घकालीन प्रभावों का अध्ययन किया गया।

अब एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि उपरोक्त अध्ययन से निकाला गया निष्कर्ष क्या सिर्फ चीन पर लागू होता है? ग्रीनपीस इंडिया में कार्यरत सुनील दहिया के मुताबिक उपरोक्त अध्ययन से निकाला गया निष्कर्ष भारत पर भी पूरी तरह लागू होता है क्योंकि चीन और भारत दोनों ही देशों में वायुप्रदूषण का स्तर लगभग एक समान है। भारत में सन 2015 में लगभग 25 लाख लोगों की मृत्यु वायु प्रदूषण के कारण उत्पन्न समस्याओं की वजह से हुई थी। भारत में 14 वर्ष से कम उम्र के लगभग 28 प्रतिशत बच्चे वायु प्रदूषण से प्रभावित हैं। गर्भ में पल रहे बच्चों पर भी वायु प्रदूषण  का काफी बुरा प्रभाव पड़ता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा संकलित आंकड़ों के अनुसार विश्व स्तर पर लगभग 90 प्रतिशत लोग किसी न किसी रूप में वायु प्रदूषण से उत्पन्न गम्भीर समस्याओं से जूझ रहे हैं।

भारत के विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र (सीएसई) ने नवम्बर 2017 में एक अध्ययन के आघार पर निष्कर्ष निकाला था कि अपने देश में रोगों के कारण होने वाली 30 प्रतिशत असमय मौतों का मुख्य कारण वायु प्रदूषण ही है। भारत में वायु प्रदूषण की समस्या काफी चिंताजनक स्थिति में पहुंच चुकी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा किए गए एक आकलन के अनुसार संसार के सर्वाधिक वायु प्रदूषित 15 शहरो में से 14 शहर सिर्फ भारत में हैं तथा देश के अधिकांश क्षेत्रों में वायु की गुणवत्ता निरंतर घटती जा रही है, वायु प्रदूषण में वृद्धि लगातार जारी है। यह समस्या अब सिर्फ नगरों या उद्योग प्रधान शहरों तक ही सीमित नहीं रह गई है। महानगरों से बहुत पीछे माने जाने वाले नगरों में भी वायु प्रदूषण का स्तर साल के अधिकांश समय खतरे की सीमा को पार कर जाता है। उदाहरण के तौर पर पटना में सन 2017 में हवा में लंबित घातक सूक्ष्म कणों (पीएम 2.5) की मात्रा निगरानी के कुल 311 दिनों में से सिर्फ 81 दिन ही स्वास्थ्य सुरक्षा की निर्धारित सीमा के भीतर पाई गई। पटना में पिछले वर्ष कुछ दिन तो ऐसे रहे जब पीएम 2.5 की हवा में उपस्थिति 600 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से ज़्यादा थी। प्रदूषण का यह स्तर भारत सरकार द्वारा निर्धारित सुरक्षा मानक से 15 गुना अधिक है।

बढ़ती बीमारियों पर होने वाले खर्च को कम करने के दृष्टिकोण से वायु प्रदूषण को रोकने के लिए सरकार को कुछ प्रभावी कदम उठाने पड़ेंगे। विज्ञान व पर्यावरण केंद्र ने सन 2017 में तैयार किए गए अपने प्रतिवेदन में ध्यान दिलाया था कि पर्यावरणीय कारणों से उत्पन्न होने वाले खतरों की पहचान और उससे निपटने के उपाय किए बिना भारत गैर संक्रामक रोगों (जैसे हृदय रोग, सांस रोग, मधुमेह और कैंसर इत्यादि) की वृद्धि पर अंकुश लगाने में बिलकुल कामयाब नहीं हो सकता। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने गैर संक्रामक रोगों की वृद्धि के मुख्य कारक के तौर पर शराब, तम्बाकू, कम गुणवत्ता वाले आहार तथा शारीरिक परिश्रम की कमी की पहचान की है और इसके लिए प्रति व्यक्ति 1-3 डॉलर के खर्च को आवश्यक माना है। परन्तु विज्ञान व पर्यावरण केंद्र ने अपने प्रतिवेदन में कहा था कि भारत में गैर संक्रामक रोगों की वृद्धि के कारकों में पर्यावरणीय जोखिम (जैसे वायु प्रदूषण) का भी आकलन आवश्यक है। साथ ही, स्वास्थ्य सुरक्षा और आर्थिक विकास की नीतियां भी पर्यावरणीय जोखिम को ध्यान में रखकर बनाई जानी चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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बिच्छू का ज़हर निकालने वाला रोबोट – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

चपन से ही माउद मकमल को पालतू जानवर के रूप में सांप और बिच्छू पालने का शौक था। बड़े होतेहोते यह शौक परवान चढ़ा। शोध के लिए उन्होंने बिच्छुओं को चुना। मकमल अब मोरक्को के किंगहसन केसाब्लांका विश्वविद्यालय में बिच्छू के ज़हर पर शोध कर रहे हैं। हाल ही में उन्होंने बिच्छू का ज़हर निकालने के लिए एक रोबोट बनाया है। रोबोट बनाने का विचार इसलिए आया क्योंकि चिकित्सकीय महत्व के कारण अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में एक ग्राम बिच्छू के ज़हर की कीमत 4.5-5.50 लाख रुपए होती है। यानी यह दुनिया के सबसे महंगे द्रवों में से एक है।

बिच्छू मकड़ियों के नज़दीकी रिश्तेदार हैं। इनका शरीर खंडों वाला, टांगें जोड़ वाली तथा शरीर का बाह्य भाग कठोर आवरण से ढंका रहता है। कठोर आवरण कवच का कार्य करता है तथा रेगिस्तानी बिच्छुओं को असहनीय गर्मी तथा शत्रुओं के हमले से बचाता है।

बिच्छुओं में शिकार को ज़हर से मारने के लिए टेलसन होता है। टेलसन बिच्छू के पूंछ का छोटे रोमों से आच्छादित अंतिम सिरा होता है। डंक के साथ टेलसन में दो विष ग्रंथिया भी होती हैं। बिच्छू का ज़हर विभिन्न प्रकार के प्रोटीन का मिश्रण होता है। प्रत्येक बिच्छू प्रजाति में प्रोटीन अलग प्रकार के होते हैं। बिच्छू शिकार के अनुसार ज़हर में प्रोटीनों की मात्रा तथा प्रकार बदल भी सकते हैं। मतलब एक चूहे या टिड्डे को मारने के लिए ज़हर की मात्रा एवं प्रकार में बदलाव किया जा सकता है। बिच्छू की अधिक ज़हरीली प्रजातियों में अल्फा तथा बीटा स्कॉर्पियान नामक दो प्रोटीन ज्ञात किए गए हैं। ये दोनों प्रोटीन संवेदनशील सोडियम एवं पोटेशियम चैनलों को अवरूद्ध कर तंत्रिका तंत्र को आघात पहुंचाते हैं।

बिच्छू को पालना बेहद आसान है पर बिच्छू का ज़हर निकालना बेहद ही कठिन है। ज़हर निकालने के लिए बिच्छू को चिमटे से पकड़कर टेबल पर टेप से चिपका दिया जाता है। टेलसन के अंतिम सिरे पर उपस्थित डंक को एक छोटी टयूब में रखा जाता है और इलेक्ट्रोड से 12 वोल्ट का करंट दिया जाता है। उत्तेजना में डंक से ज़हर की बूंदें निकलती हैं। टयूब में आई बूंदों को तुरंत ही फ्रीज़ कर दिया जाता है।

मकमल की टीम ने बिच्छू से ज़हर निकालने के लिए लेब या फील्ड में उपयोग में लाए जा सकने वाले हल्के व वहनीय रोबोट VE.4 का निर्माण किया है। रोबोट की बनावट ऐसी है कि बिच्छू से ज़हर निकालते समय उसे चोट भी नही पहुंचती। VE.4 रोबोट में बिच्छू का एक चेम्बर होता है तथा पूंछ वाले हिस्से को दबाए रखने के लिए दो क्लिप की सहायता ली जाती है। चेम्बर के दरवाज़े से केवल पूंछ बाहर आ सकती है बिच्छू नहीं। पूंछ के अंतिम सिरे टेलसन के नीचे एक ट्यूब में ज़हर को एकत्रित किया जा सकता है। चेम्बर के ऊपर एक ख्र्कक़् स्क्रीन होती है जो बिच्छू की लंबाई के अनुसार चेम्बर तथा पूंछ के प्लेटफार्म को लंबा या छोटा कर सकती है। रिमोट कंट्रोल से कार्य करने के लिए एक इन्फ्रारेड सेन्सर भी होता है। जैसे ही बिच्छू को चेम्बर में डालकर पूंछ को सीधा किया जाता है, रिमोट कंट्रोल का बटन दबाने से दो क्लिप में करंट से बिच्छू का ज़हर ट्यूब में आ जाता है।

बिच्छू के ज़हर का उपयोग लूपस एवं रूमेटाइड ऑर्थराइटिस जैसे असाध्य रोगों में किया जाता है। कई वैज्ञानिक ज़हर का उपयोग इम्यूनोसप्रेसेन्ट्स, एंटीमलेरियल दवाई और कैंसर रिसर्च में कर रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

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मनुष्य का शिशु असहाय क्यों? – गंगानंद झा

कुछ ऐसे सवाल हमारे अवचेतन में बने रहते हैं, जिनके जवाब हमें नहीं मालूम। फिर भी हम परेशान नहीं रहते। कोई किताब पढ़ते वक्त या लोगों की बात सुनते वक्त जब इन सवालों के जवाब उभर आते हैं तो हम चमत्कृत हो उठते हैं।

करीब 30 साल पहले छात्रों के साथ विकासवाद और प्राकृतिक वरण की चर्चा के दौरान एक सवाल उठा। सारे स्तनधारियों के शिशु मां का दूध पीना छोड़ने के बाद जल्दी ही अपने भोजन के लिए खुदमुख्तार हो जाते हैं, लेकिन मनुष्य के शिशु मां का दूध छोड़ने के बाद भी कई सालों तक भोजन तथा सुरक्षा के लिए मां-बाप पर निर्भर बने रहते हैं। इस अवधि में उनकी परवरिश न हो तो उनके जीवित रहने की संभावना बहुत ही कम रहती है। मानव शिशु अपने हाथ पांव पर नियंत्रण हासिल करने में ही साल भर से अधिक वक्त लगाता है। उसके बाद भी उसे देखभाल, प्रशिक्षण, शिक्षा और परवरिश के लिए दो दशकों से अधिक की अवधि की दरकार होती है। देखा जाए, तो मानव शिशु असहाय होता है।

क्या यह अटपटा नहीं लगता? इसको कैसे समझा जा सकता है? अपने विद्यार्थियों, साथियों और सहकर्मियों से पूछा पर कोई सुराग नहीं मिला। अनेक सवालों की तरह यह भी खो गया।

मानव जीवन का एक और प्रमुख लक्षण है: लगभग सभी जीवों की आयु उनकी प्रजनन-आयु के समाप्त होने के साथ ही समाप्त हो जाती है, किंतु मनुष्य इसके बाद भी काफी समय तक जीवित रहता है।

अगली पीढ़ी में अपने जीन्स का स्थानांतरण किसी भी जीव की अभिप्रेरणा होती है। अगली पीढ़ी में अपने जीन्स का संचरण प्रजनन सफलता कहलाती है। माता-पिता द्वारा संतान की सघन परवरिश अगली पीढ़ी में उन संतानों के जीन्स के स्थानांतरण और सुरक्षा को सुनिश्चित करती है। ऐसी परवरिश अतिरिक्त उत्तरजीविता संभव बनाती है। मनुष्य ने यह गुण प्राकृतिक वरण की प्रक्रिया में पाया है।

कई साल बीत गए। मैं सेवानिवृत्त हो गया। फिर एक किताब पढ़ने को मिली – जेरेड डायमंड लिखित दी थर्ड चिम्पैंज़ी (The Third Chimpanzee)। इस किताब में और मुद्दों के साथ-साथ इस सवाल पर भी चर्चा की गई है। इसमें एक सुझाव दिया गया है कि मानव शिशु की असहायता ने मानव परिवार और समाज की उत्पति एवं विकास की बुनियाद रखी।

शिशु के जीवित रहने में परवरिश की भूमिका निर्णायक होती है। लंबी अवधि तक चौबीस घंटे निगरानी की ज़रूरत के कारण मां-बाप के बीच सहयोग अनिवार्य हो जाता है। परवरिश में मां के साथ भागीदारी के ज़रिए संतान का पिता अपने जीन्स का अगली पीढ़ी में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करता है। मां तो जानती है कि वह अपनी ही संतान की परवरिश कर रही है, लेकिन पिता को अपनी मादा के साथ घनिष्ठ भागीदारी के ज़रिए ही यह आश्वस्ति मिल सकती है। अन्यथा वह किसी अन्य पुरुष के जीन्स की पहरेदारी करता रह जाएगा। इस ज़रूरत ने परिवार नामक संस्था की नींव रखी। संतान की परवरिश में लंबे समय तक पुरुष-स्त्री के बीच भागीदारी ने इनके बीच श्रम विभाजन को ज़रूरी बनाया। परिवार के बाद कबीला, कबीले के बाद समाज के विकास के साथ तब्दीलियों का सिलसिला चलता जा रहा है।

लेकिन अभी भी एक गुत्थी बनी हुई थी। प्राकृतिक वरण की प्रक्रिया में ऐसा क्यों हुआ? मानव शिशु असहाय क्यों होता है? जवाब नहीं मिल रहा था।

कई सालों के बाद एक किताब देखी – युवाल नोआ हरारी लिखित सैपिएंस  (Sapiens) जिसमें जवाब मिला।

प्राकृतिक वरण की प्रक्रिया में चौपाया प्राइमेट पूर्वज से दो पांवों पर चलने वाले मनुष्य का विकास हुआ। इन चौपाया पूर्वजों के सिर तुलनात्मक रूप से छोटे हुआ करते थे। इनके लिए दो पांवों पर सीधे खड़ी स्थिति में अनुकूलित होना काफी कठिन चुनौती थी, खासकर तब जबकि धड़ पर अपेक्षाकृत काफी बड़ा सिर ढोना हो।

दो पांवों पर खड़े होने से मनुष्य को अधिक दूर तक देखने और अपने लिए भोजन जुगाड़ करने की सुविधा हासिल हुई लेकिन विकास के इस कदम की कीमत मनुष्य को चुकानी पड़ी है। अकड़ी हुई गर्दन और पीठ में दर्द की संभावना के साथ रहने को बाध्य हुआ है वह।

औरतों को और भी अधिक झेलना पड़ा है। सीधी खड़ी मुद्रा के कारण उनके नितम्ब संकरे हुए। इसके नतीजे में प्रसव मार्ग संकरा हुआ। दूसरी ओर, शिशु के सिर के आकार बढ़ते जा रहे थे। फलस्वरूप प्रसव के दौरान मौत का जोखिम औरतों की नियति हो गई। यदि प्रसव समय से थोड़ा पहले होता,जब बच्चे का सिर छोटा और लचीला रहता है, तो प्रसव के दौरान मृत्यु का खतरा तुलनात्मक रूप से कम होता था। जिसे हम आजकल निर्धारित समय पर प्रसव कहते हैं वह वास्तव में जीव वैज्ञानिक दृष्टि से समय-पूर्व ही है। बच जाने वाली औरतें और बच्चे प्रसव कर पातीं। फलस्वरूप प्राकृतिक वरण में समय पूर्व प्रसव को प्राथमिकता मिली। हकीकत है कि दूसरे जानवरों की तुलना में मनुष्य का जन्म उसके शरीर की अनेक महत्वपूर्ण प्रणालियों के पूर्ण विकसित होने के पहले ही होता है। बछड़ा जन्म के तुरंत बाद उछल-कूद कर सकता है, बिल्ली का बच्चा कुछ ही सप्ताह में मां को छोड़कर अपने भोजन का इंतज़ाम करने निकल पड़ता है। लेकिन मनुष्य का बच्चा भोजन, देखभाल, हिफाज़त और प्रशिक्षण के लिए अपने से बड़ों पर सालों तक निर्भर रहता है। गर्भ से बाहर आने के बाद भी उसे सुरक्षा की ज़रूरत रहती है।

एक शिशु को मनुष्य बनाने में पूरे समाज का सहयोग रहता है। चूंकि मनुष्य जन्म से अविकसित होता है, उसे शिक्षित करना, दूसरे जानवरों की तुलना में अधिक सहज है। उसे सिखाया जा सकता है कि अन्य जीवों के साथ कैसे सम्पर्क बनाया जाए।

यह तथ्य मनुष्य की असामान्य सामाजिक और सांस्कृतिक क्षमता की बुनियाद में है। उसकी अनोखी समस्याओं के लिए भी यही तथ्य ज़िम्मेदार है।(स्रोत फीचर्स)

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यौन हिंसा के खिलाफ आवाज़ों को मिला सम्मान – जाहिद खान

नोबेल समिति ने इस साल के नोबेल शांति पुरस्कार के लिए इराक की यजीदी मूल की नौजवान लड़की नादिया मुराद और कांगो के डॉ. डेनिस मुकवेगे को चुना है। इन दोनों बेमिसाल शख्सियतों को यौन हिंसा के खिलाफ प्रभावी मुहिम चलाने और महिला अधिकारों के लिए उत्कृष्ट कार्य करने के लिए यह प्रतिष्ठित पुरस्कार दिया जा रहा है। दोनों ने अपने-अपने कामों से दुनिया में अमन और लैंगिक समानता बढ़ाने की बेजोड़ कोशिश की और यौन उत्पीड़न के खिलाफ आवाज़ बुलंद की है।

नोबेल समिति की अध्यक्ष बेरिट रेइस एंडरसन ने पत्रकार वार्ता में इन नामों का ऐलान करते हुए कहा कि दोनों ही विजेताओं ने युद्ध क्षेत्र में यौन हिंसा को हथियार की तरह इस्तेमाल करने की मानसिकता के खिलाफ सराहनीय काम किया है। दोनों इस वैश्विक अभिशाप के खिलाफ संघर्ष की एक मिसाल हैं। एक शांतिपूर्ण दुनिया केवल तभी हासिल की जा सकती है, जब महिलाओं और उनके मौलिक अधिकारों एवं सुरक्षा को युद्ध में पहचाना और संरक्षित किया जाए। मुकवेगे और मुराद दोनों एक वैश्विक संकट के खिलाफ संघर्ष की नुमाइंदगी करते आए हैं, जो कि किसी भी संघर्ष से परे है, जिसे बढ़ते हुए ‘मी टू’ आंदोलन ने भी दिखाया है। उन्होंने कहा कि यौन हिंसा के खिलाफ इनके महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए इन्हें नोबेल शांति सम्मान दिया जा रहा है।

पाकिस्तान की मलाला युसुफजई के बाद नादिया मुराद दूसरी ऐसी महिला हैं, जिन्हें इतनी कम उम्र में शांति का नोबेल पुरस्कार मिला है। एक ऐसे वक्त में जब दुनिया में महिलाओं के साथ कई तरह की यौन हिंसा की घटनाएं सामने आ रही हों, तमाम काशिशों के बाद भी उनका यौन उत्पीड़न रुका नहीं हो, पुरुष आज भी उन्हें अपनी यौन दासी के अलावा कुछ न समझते हों, नादिया मुराद और डॉ. डेनिस मुकवेगे का सम्मानित होना यह आश्वस्ति प्रदान करता है कि यौन हिंसा पीड़िताओं की सिसकियां अनसुनी नहीं है। कोई न सिर्फ उनकी आवाज़ सुन रहा है, बल्कि उसे सारी दुनिया के सामने भी ला रहा है। उनके ज़ख्मों पर अपने कामों से मरहम लगा रहा है। आईएस के आतंक से ग्रस्त इराक में नादिया मुराद और गृहयुद्ध में घिरे कांगो में डेनिस मुकवेगे ने यौन हिंसा की पीड़िताओं के मानवाधिकार की रक्षा के लिए अपनी जान तक दांव पर लगा दी है। नोबेल शांति पुरस्कार इन दोनों के साहस को मान्यता प्रदान करना है।

नादिया मुराद बसी ताहा का जन्म इराक के कोजो शहर में साल 1993 में हुआ था। वे इराक की यजीदी मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। मुराद ‘नादिया अभियान’ की संस्थापक हैं। यह संस्था नरसंहार, सामूहिक अत्याचार और मानव तस्करी के पीड़ित महिलाओं और बच्चों की मदद करती है। संस्था उन्हें अपनी ज़िंदगी दोबारा जीने और उन बुरी यादों से उबरने में मदद करती है।

नादिया यौन पीड़िताओं की मददगार और दुनिया भर में उनकी आवाज़ क्यों बनी? इसकी कहानी भी बड़ी हैरतअंगेज़ है। नादिया उन 3,000 यजीदी लड़कियों और महिलाओं में से एक है, जिन्हें साल 2014 में इस्लामिक स्टेट (आईएस) के आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया था और उनके साथ लगातार बलात्कार और दुर्व्यवहार किया था। वे करीब तीन महीने तक आईएस के आतंकियों के कब्जे में रहीं, जहां उनके साथ दिन-रात बलात्कार किया गया। वह कई बार खरीदी और बेची गई। किसी तरह से वहां से वह अपनी जान बचाकर निकली। उनके चंगुल से छूटने के बाद, उन्होंने यौन हिंसा की शिकार महिलाओं के लिए काम करना शुरू कर दिया। इस वक्त वे पूरी दुनिया में महिलाओं को यौन हिंसा के खिलाफ जागरूक करने का काम कर रही हैं। नादिया मानव तस्करी के पीड़ितों के लिए संयुक्त राष्ट्र की गुडविल एंबेसडर भी हैं। नादिया मुराद ने अपने अनुभवों पर एक किताब भी लिखी है, जिसका नाम ‘दी लॉस्ट गर्ल : माई स्टोरी ऑफ कैप्टिविटी एंड माई फाइट अगेंस्ट द इस्लामिक स्टेट’ है। इस किताब में  आईएस आतंकियों की हैवानियत के किस्से भरे पड़े हैं।

नादिया मुराद की तरह डॉ. डेनिस मुकवेगे भी यौन हिंसा के खिलाफ अभियान चला रहे हैं। वे पेशे से स्त्री रोग विशेषज्ञ हैं और यौन हिंसा की शिकार महिलाओं के लिए लंबे समय से काम कर रहे हैं। ‘दी ग्लोब एंड मॉल’ के मुताबिक डॉ. मुकवेगे, बलात्कार की चोटों को ठीक करने के मामले में दुनिया के अग्रणी विशेषज्ञ हैं। डॉ. मुकवेगे को उनके द्वारा युद्धग्रस्त पूर्वी डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो में महिलाओं को हिंसा, बलात्कार और यौन हिंसा के सदमे से बाहर निकालने में दो दशकों तक किए गए काम के लिए मान्यता मिली है। मुकवेगे कांगो में डॉक्टर चमत्कार के रूप में जाने जाते हैं। कांगो ही नहीं, अन्य अफ्रीकी देशों की महिलाएं भी उन्हें एक रहनुमा की तरह देखती हैं। मुकवेगे ने अपने द्वारा 1999 में स्थापित पांजी अस्पताल में बलात्कार के हज़ारों पीड़ितों का इलाज किया है। साल 2015 में उनके जीवन पर आधारित फिल्म ‘दी मैन हू मेंड्स विमन’ आई थी। मुकवेगे ने फ्रांसीसी में अपनी आत्मकथा ‘प्ली फॉर लाइफ’ भी लिखी है जिसमें उन्होंने ऐसे तमाम हादसों का ज़िक्र किया है, जिन्होंने उन्हें कांगो में पांजी अस्पताल खोलने को मजबूर किया। अस्पताल में वे संयुक्त राष्ट्र शांति सैनिकों की हिफाज़त का काम करते हैं। डॉ. मुकवेगे युद्ध के दौरान महिलाओं के दुरुपयोग के एक मुखर आलोचक हैं। उन्होंने अपने भाषणों में कई बार बलात्कार को सामूहिक विनाश का हथियार बताया है। मुकवेगे ने अपना नोबेल शांति पुरस्कार दुष्कर्म और यौन हिंसा से प्रभावित सभी महिलाओं को समर्पित किया है।

शांति का नोबेल पुरस्कार किसी ऐसे शख्स या संस्था को दिया जाता है, जो दो देशों के बीच भाईचारे को बढ़ावा देते हैं या फिर समाज के लिए अच्छा काम करते हैं, जिससे लोगों को नई जिंदगी-नई राह मिलती है। नादिया मुराद और डॉ. डेनिस मुकवेगे के नाम सुनकर पहली बार ज़रूर सबको हैरानी हुई, लेकिन बाद में जब इनके काम सामने आए, तो सभी ने इनकी जी भरकर तारीफ की। पूरी दुनिया में घरों से लेकर कार्यस्थलों तक और जंग के मैदान एवं गृहयुद्ध की मार झेल रहे देशों में यौन उत्पीड़न को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। इससे न सिर्फ महिलाएं प्रभावित हैं, बल्कि मासूम बच्चियों को भी यौन हिंसा का सामना करना पड़ रहा है। यहां तक कि कई युद्धग्रस्त देशों में काम कर रहे संयुक्त राष्ट्र शांति सैनिकों पर भी महिलाओं के यौन उत्पीड़न के गंभीर आरोप लगे हैं।

एक तरफ हम महिलाओं के लिए लैंगिक समानता और बराबरी की बात करते हैं, तो दूसरी ओर लगातर उनका यौन उत्पीड़न और उनके साथ यौन हिंसा हो रही है। तमाम बड़े-बड़े दावों और कानूनों के बाद भी उनके खिलाफ यौन उत्पीड़न, यौन हिंसा में कोई कमी नहीं आई है। विकसित देश हों या विकासशील देश, दुनिया के सभी देशों में महिलाओं की स्थिति कमोबेश एक जैसी है। उन्हें अपनी ज़िंदगी में कभी न कभी यौन उत्पीड़न या यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है। यह वाकई चिंता का विषय है कि दुनिया की आधी आबादी के प्रति हमारा नज़रिया आज भी नहीं बदला है। हम आज भी उन्हें यौन गुड़िया से ज़्यादा नहीं समझते। यह सोचे बिना उनके साथ शारीरिक या मानसिक यौन हिंसा करते हैं कि इससे उनकी भावी ज़िंदगी पर क्या असर पड़ेगा। कहीं इससे उनकी कार्यक्षमता पर तो गलत प्रभाव नहीं पड़ेगा? महिलाओं को यौन उत्पीडन से मुक्ति दिलाकर ही एक समृद्ध एवं सुन्दर दुनिया बनाई जा सकती है। दोनों पुरस्कार विजेता इसी दिशा में काम कर रहे हैं और हमें उनका खुलकर और सक्रिय समर्थन करना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पर्यावरण शिक्षा का एक अनोखा कार्यक्रम – डॉ. सुशील जोशी

पिछले दिनों लंबे अनशन के बाद डॉ. गुरुदास अग्रवाल का निधन हो गया। डॉ. अग्रवाल ने पर्यावरण संरक्षण, प्रदूषण नियंत्रण तथा गंगा की सुरक्षा के अलावा पर्यावरण शिक्षा के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया था। यहां प्रस्तुत रिपोर्ट डॉ. अग्रवाल के मार्गदर्शन एवं प्रेरणा से किशोर भारती एवं एकलव्य नामक दो संस्थाओं द्वारा 1987 में चलाए गए एक अनोखे पर्यावरण शिक्षा कार्यक्रम की बानगी प्रस्तुत करती है। एक ओर यह कार्यक्रम समाज के महत्वपूर्ण मुद्दों को शिक्षा में स्थान देने का एक प्रयास था, वहीं यह पर्यावरण के वैज्ञानिक अध्ययन की भी एक मिसाल है।

रासिया के लोग पेंच स्टाफ क्लब में एक विशेष जलसे में शामिल होने आए हैं। तीन बजे दोपहर का समय है। यह जलसा अजीब सा ही होने वाला है। परासिया और आसपास के क्षेत्र के पानी की गुणवत्ता पर रिपोर्ट पढ़ी जानी है। यानी पानी पीने के लिए व अन्य उपयोगों के लिए कितना उपयुक्त है। साथ ही साथ पेंच नदी की स्थिति पर भी एक रिपोर्ट पेश होगी। यह रिपोर्ट कोई सरकारी विभाग की ओर से नहीं बल्कि इस इलाके की उच्चतर माध्यमिक शालाओं और महाविद्यालय के विद्यार्थियों द्वारा प्रस्तुत होनी है। वे बताने वाले हैं कि परासिया, चांदामेटा, न्यूटन आदि के कुओं, झिरियों, हैंड-पम्पों आदि का पानी कैसा है?पीने योग्य है या नहीं?इस जलसे के शुरू होने से पहले सुबह से ही एक पोस्टर प्रदर्शनी पेंच स्टाफ क्लब के बरामदे में लगा दी गई थी जिसमें इस इलाके के पानी के बारे में मोटी-मोटी बातें चित्रित थीं। आखिर इन विद्यार्थियों को ये बातें पता कैसे चलीं? इसी बात का उत्तर हम यहां देने की कोशिश करेंगे।

इनमें से अधिकांश विद्यार्थी विज्ञान विषय लेकर 11 वीं कक्षा में पढ़ रहे थे। इनके सामने एक प्रस्ताव रखा गया। प्रस्ताव यह था कि ये अपने इलाके के पर्यावरण का वैज्ञानिक अध्ययन करें।

इसके लिए इन्हें ट्रेनिंग दी जाएगी। परन्तु पर्यावरण कोई छोटी-मोटी चीज़ तो है नहीं। वह तो बहुत बड़ी बात है और हमारे आसपास जो कुछ भी है या घटता है या उन चीज़ों के, घटनाओं के आपसी सम्बंध, सभी कुछ तो इसमें समाया हुआ है। इसलिए सोचा कि पर्यावरण के एक छोटे से हिस्से – पानी – से शुरुआत की जाए। दूसरी बात यह थी कि पानी का महत्व बहुत है। तीसरी बात यह थी कि पानी का अध्ययन करना आसान है बजाय किसी और चीज़ के, जैसे हवा या मिट्टी। शुरुआत तो हमेशा आसान से ही करते हैं।

यह प्रस्ताव देने वाली दो संस्थाएं थीं – बनखेड़ी की किशोर भारती और पिपरिया की एकलव्य। संभवत: पाठक इन दोनों ही संस्थाओं से वाकिफ हैं। मुख्य बात यह है कि दोनों ही शिक्षा के क्षेत्र में बदलाव के लिए काम करती हैं। इन्होंने प्रस्ताव क्यों दिया?

पर्यावरण का आजकल बहुत हल्ला है और पर्यावरण शिक्षा का शोर भी शुरू हो चला है। देखा यह जा रहा है कि पर्यावरण के विषय में कोई कुछ भी कह दे, चल जाता है क्योंकि इसके व्यवस्थित अध्ययन की बात तो होती ही नहीं। कोई कह दे पेड़ कटने से बारिश नहीं हो रही तो भी ठीक और कोई कह दे शेर को बचाना पर्यावरण है तो भी ठीक। आखिर निर्णय के मापदंड क्या हों? होता यह है कि आम लोगों के सामने मात्र निष्कर्ष नारों के रूप में आते हैं, उनकी विधियां नहीं। निर्णय तो विधियों से होता है। इसलिए विधियां जाने बिना सिर्फ निष्कर्ष देखा जाए तो नारेबाज़ी ही होगी। इन विद्यार्थियों के सामने प्रस्ताव रखने का एक कारण तो यही था कि ये अध्ययन की इन विधियों को समझें।

दूसरा कारण। विज्ञान विषय पढ़ते हुए और प्रयोग करते हुए ऐसा होता है कि भई‘कोर्स’ में है तो करना है। अपने जीवन से कुछ जुड़ता नहीं। वही टाइट्रेशन, वही सूचक घोल, वही फिनॉफ्थलीन, वही ब्यूरेट, पिपेट कैसे उपयोगी काम में लग सकते हैं, यह भी इस प्रस्ताव की भावना थी।

तीसरा कारण था कि पर्यावरण शिक्षा की बातें खूब हो रही हैं। इसमें मुख्य उद्देश्य यह रहता है कि अन्य विषयों के समान पर्यावरण पर कुछ भाषण बच्चे सुनें। प्रस्ताव में यह निहित ही था कि पर्यावरण शिक्षा का एक वैकल्पिक मॉडल विकसित हो। इसके पीछे मान्यता यह थी कि पर्यावरण समझने के लिए पर्यावरण से मेल-जोल करना ज़रूरी है।

खैर, ये सब तो सैद्धांतिक बातें थीं और इन्हें कोई भी झाड़ सकता है। अब कुछ ठोस बात। सबसे पहले तो प्रशिक्षण। दिसंबर में इन विद्यार्थियों को एक सप्ताह का प्रशिक्षण दिया गया। इस दौरान इन्हें पानी के लगभग 10 परीक्षण सिखाए जाते थे। परीक्षणों की सूची बॉक्स में है। कुछ नमूने कृत्रिम रूप से तैयार किए गए ताकि परिणामों की जांच हो सके और कुछ प्राकृतिक नमूने लाए गए। कौन से परीक्षण सिखाए जाएं इसका निर्णय विभिन्न आधारों पर हुआ। उच्चतर माध्यमिक शालाओं के विद्यार्थी इन्हें कर पाएं, महत्वपूर्ण हों, रसायन एवं उपकरण वगैरह आसानी से उपलब्ध कराए जा सकें, प्रमुख रहे।

हरेक विद्यालय से 5 विद्यार्थी चुने गए और एक या दो अध्यापक प्रभारी बने। प्रत्येक विद्यार्थी को अपने क्षेत्र के पानी के दो स्रोतों से नमूने लाने थे। इनमें से एक स्रोत भूमिगत हो और दूसरा कोई अन्य। यह हर महीने हुआ। परन्तु सभी विद्यार्थी दसों परीक्षण नहीं करते थे। सभी विद्यार्थी अपने नमूने लाकर बेंच पर जमा देते थे। अब हरेक को दो-दो परीक्षण की ज़िम्मेदारी दी गई थी। हर विद्यार्थी सभी नमूनों पर उसे दिए गए दो परीक्षण करता था हालांकि उसको ट्रेनिंग सभी परीक्षणों के लिए दी गई थी। ऐसा इसलिए किया गया था कि हर विद्यार्थी का हाथ दो परीक्षणों पर जम जाए और आंकड़े ज़्यादा विश्वसनीय हों। इस तरह से 6 महीनों तक लगातार परीक्षण का काम चला। ये मुख्यत: रासायनिक परीक्षण थे।

इसके साथ-साथ कॉलेज के दो छात्रों द्वारा दो तरह के परीक्षण और किए गए। पहला, पेंच नदी का जैविक अध्ययन और पानी के कुछ नमूनों का बैक्टीरिया परीक्षण। वैसे अच्छा होता यदि बैक्टीरिया परीक्षण सभी नमूनों का हो पाता। परन्तु यह थोड़ा मुश्किल परीक्षण है।

इस तरह से क्षेत्र के जल रुाोतों के बारे में रासायनिक व जैविक जानकारी एकत्रित हुई। पर एक और आयाम इसमें जुड़ना अभी बाकी था। इस जानकारी की लोगों के दैनिक अनुभवों से तुलना। यह देखना ज़रूरी था कि इस वैज्ञानिक जानकारी का लोगों के अनुभवों से क्या तालमेल है। इसके लिए एक सर्वेक्षण किया गया। ऐसे दस-दस परिवारों से जानकारी प्राप्त की गई जो इन जल रुाोतों का उपयोग करते हैं।

अब आगे बढ़ने से पहले थोड़ा सा उस इलाके की परिस्थिति को समझ लें जहां यह काम हुआ। परासिया, चांदामेटा और न्यूटन ये तीन पड़ोसी शहर छिंदवाड़ा ज़िले में हैं और पेंच नदी की घाटी में बसे हुए हैं। आसपास पश्चिम कोयला क्षेत्र की कोयला खदानें हैं। काफी पुरानी खदानें हैं। इस क्षेत्र में खेती न के बराबर होती है। खदानों के कारण यहां का पानी समस्या मूलक है और खदान व यातायात के कारण हवा की हालत भी अच्छी नहीं है। जाड़े के दिनों में सुबह-सुबह यदि परासिया की पहाड़ी से न्यूटन शहर ऊपर से देखा जाए तो धुएं से बना एक मैदान नजर आता है जिस पर एक मित्र का कहना है कि इस ‘मैदान’ पर उनकी जीप चलाने की इच्छा कई बार हुई।

ये जानकारी इकट्ठी होने के साथ-साथ एक और बात हो रही थी। ये विद्यार्थी पानी को ध्यान से देख रहे थे, उसके ‘सम्पर्क’ में आ रहे थे, प्रश्न कर रहे थे और धीरे-धीरे पर्यावरण के अन्य अंगों पर भी सोच रहे थे। यही तो थी पर्यावरण जागरूकता! खैर, जब 6 महीने यह काम चल चुका तो ज़रूरत थी इसे व्यवस्थित करने की, समेकित करने की और लोगों के बीच प्रस्तुत करने की। इसके लिए एक कार्यशाला आयोजित की गई किशोर भारती में। कार्यक्रम में जुड़े सारे विद्यार्थी, प्रभारी शिक्षक और पर्यावरण से जुड़े कुछ कार्यकर्ता इस सात दिवसीय कार्यशाला में शामिल हुए।

किए गए परीक्षण

1. पी.एच.

2. अम्लीयता

3. क्षारीयता

4. कठोरता – ज्यादा कठोरता होने से साबुन के साथ झाग नहीं बनते और दाल पकने में परेशानी होती है।

5. क्लोराइड – पानी के स्वाद पर असर पड़ता है।

6. फ्लोराइड – पानी में फ्लोराइड कम होने से हड्डियों का विकास ठीक से नहीं हो पाता, ज्यादा फ्लोराइड होने पर फ्लोरोसिस बीमारी हो सकती है।

7. लौह – ज्यादा होने पर पाचन क्रिया पर प्रतिकूल असर पड़ता है।

8. घुलित आक्सीजन – इसससे पानी के कई अन्य गुणों का पता चलता है।

9. परमेंग्नेट मांग – इससे पानी में कार्बनिक अशुद्धियों का पता चलता है।

10. कोलीफार्म परीक्षण- कोलीफार्म एक प्रकार के बैक्टीरिया होते हैं, जो मनुष्य की आंत में पाए जाते है। पानी के प्राकृतिक रुाोत में इनका पाया जाना यह सूचित करता है कि यह स्रोत मल द्वारा प्रदूषित है।

 

इस कार्यशाला में पहला काम तो यह हुआ कि सारी जानकारी व आंकड़ों के आधार पर रिपोर्ट तैयार की गई। रिपोर्ट, पांच भागों में तैयार हुई। दूसरा काम हुआ कि रिपोर्ट के आधार पर पोस्टर प्रदर्शनी बनाई गई। इसके अलावा विभिन्न विषयों पर चर्चाएं हुर्इं। इनमें पर्यावरण की समझ, जंगल, जल चक्र, पानी व हवा प्रदूषण, उद्योगों से स्वास्थ्य का रिश्ता, भोपाल गैस कांड आदि प्रमुख थे। ऐसे भाषण तो यहां-वहां सुनने को मिल ही जाते हैं। इन विषयों पर कोई भी कुछ भी कह सकता है। फिर यहां क्या खास हुआ?खास यह हुआ कि सुनने वाले स्वयं का कुछ अनुभव लेकर बैठे थे। कोई बात सुनकर वे चुप नहीं रहते थे। वे पूछते थे कि कैसे पता किया, किस आधार पर कह रहे हैं, यदि अमुक बात सही है तो उससे जोड़कर देखते थे कि और क्या-क्या बातें सही होंगी। यही तो महत्वपूर्ण है। कोई कुछ भी कहे, आपके पास वह हुनर हो जिससे आप दूध को दूध, पानी को पानी पहचान सकें।

अब हम चलें वापिस 12 जुलाई पर। प्रदर्शनी सुबह से ही लगा दी गई थी। विद्यार्थी भाग-भागकर अपना काम आंगतुकों को समझा रहे थे। कितना अच्छा लग रहा था। विद्यार्थी अपनी प्रयोगशाला के निष्कर्षों को आम लोगों को बता रहे थे। आम लोग शायद पहली बार उत्सुक थे कि उनके बच्चों ने स्कूल की प्रयोगशाला में क्या किया। एक और बात वहां हो रही थी। पहले से ही शहर में यह घोषणा कर दी गई थी कि लोग यदि चाहें तो अपने साथ पानी का नमूना लेते आएं, उसकी जांच करके परिणाम तुरंत दे दिए जाएंगे। कई लोग शीशियों में पानी भरकर लाए थे। प्रदर्शनी के बीच में सब तामझाम जमा था। सामने ही विद्यार्थी प्रयोग करके बता रहे थे – पानी कितना कठोर है, उसमें कितना क्लोराइड है आदि। साथ ही यह भी कि क्या करना होगा। विज्ञान की विधियां सार्वजनिक हो रहीं थीं।

तीन बजे आम सभा हुई। बाकी तो भाषण वगैरह होते ही हैं। सभा में कई प्रमुख व्यक्तियों ने भाग लिया। सबसे प्रभावशाली हिस्सा था विद्यार्थियों द्वारा रिपोर्ट पढ़ी जाना। आशा बन रही थी कि अपने इलाके के पर्यावरण की नियमित जांच उस इलाके की शैक्षणिक संस्थाएं कर सकती हैं। यह काम उन्हीं प्रयोगशालाओं में हो सकता है जहां सामान्यतया ऊपर से निरर्थक, अप्रासंगिक से दिखने वाले प्रयोग किए जाते हैं। क्या यही पर्यावरण शिक्षा का एक मॉडल नहीं हो सकता?

खैर, जहां तक किशोर भारती और एकलव्य के प्रस्ताव का सवाल था वह तो यहीं खत्म हुआ। परन्तु एक बार शुरू होने पर ऐसी प्रक्रियाएं रुकती हैं क्या? इन शिक्षकों और विद्यार्थियों में कुछ बदल गया था। कुछ और करने की इच्छा बन चुकी थी। क्या करें? इन लोगों ने मिलकर एक समूह की स्थापना की है –‘नीर’! इस नाम का सम्बंध इस समूह की उत्पत्ति से है, न कि आगे की योजनाओं से। आगे की योजनाएं तो अभी बन रही हैं। पूरे कार्यक्रम की बात तो हो गई पर यह तो बताया ही नहीं कि विद्यार्थियों की रिपोर्टों से क्या निष्कर्ष निकला। वास्तव में वह उतना महत्वपूर्ण भी नहीं है। वह ज़रूर महत्वपूर्ण है परासिया क्षेत्र के लोगों के लिए। परन्तु कार्यक्रम की मूल भावना वे रिपोर्ट बनाना नहीं बल्कि विद्यार्थियों और अन्य लोगों मे पर्यावरण के प्रति सजगता पैदा करना है। साथ ही साथ यह बात बताना भी कि ये सारे निष्कर्ष कुछ विधियों पर आधारित होते हैं और इनकों जांचा जा सकता है।(स्रोत फीचर्स)

किए गए परीक्षण

1. पी.एच.

2. अम्लीयता

3. क्षारीयता

4. कठोरता ज्यादा कठोरता होने से साबुन के साथ झाग नहीं बनते और दाल पकने में परेशानी होती है।

5. क्लोराइड पानी के स्वाद पर असर पड़ता है।

6. फ्लोराइड पानी में फ्लोराइड कम होने से हड्डियों का विकास ठीक से नहीं हो पाता, ज्यादा फ्लोराइड होने पर फ्लोरोसिस बीमारी हो सकती है।

7. लौह ज्यादा होने पर पाचन क्रिया पर प्रतिकूल असर पड़ता है।

8. घुलित आक्सीजन इसससे पानी के कई अन्य गुणों का पता चलता है।

9. परमेंग्नेट मांग इससे पानी में कार्बनिक अशुद्धियों का पता चलता है।

10. कोलीफार्म परीक्षणकोलीफार्म एक प्रकार के बैक्टीरिया होते हैं, जो मनुष्य की आंत में पाए जाते है। पानी के प्राकृतिक रुाोत में इनका पाया जाना यह सूचित करता है कि यह स्रोत मल द्वारा प्रदूषित है।

 नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक दशक में प्रति व्यक्ति शराब खपत दुगनी हुई – भरत डोगरा

र्ष 2005 से 2016 के बीच भारत में प्रति व्यक्ति शराब उपभोग दुगने से भी ज़्यादा हो गया है। 2005 में भारत में प्रति व्यक्ति अल्कोहल उपभोग 2.4 लीटर था जबकि वर्ष 2016 में यह बढ़कर 5.7 लीटर हो गया। यह तथ्य विश्व स्वास्थ्य संगठन की वर्ष 2018 की रिपोर्ट में सामने आया है।

भारत की गिनती अब उन देशों में हो रही है जहां शराब की खपत बहुत तेज़ी से बढ़ रही है। ये आंकड़े बहुत दुखद हैं, पर उनके लिए बहुत आश्चर्यजनक नहीं हैं जो वर्षों से दूरदूर के गांवों में भी शराब के ठेके खोलने की सरकार की नीति के विरुद्ध आवाज़ उठाते रहे हैं। यह बहुत दुखद स्थिति है कि गुजरात, बिहार व उत्तरपूर्व के कुछ राज्यों को छोड़ दें तो शेष देश में सरकारों की अपनी नीतियों ने शराब की खपत को बढ़ाया है। शराब उद्योग व व्यापार से जुड़े व्यक्तियों को बहुत शक्तिशाली व धनी बनने दिया गया है और शराब उद्योगपतियों व व्यापारियों के राजनीति में सम्पर्क व सक्रियता तेज़ी से बढ़ी है। शराब उद्योग भ्रष्टाचार का एक बड़ा स्रोत है।

इतना ही नहीं, मौजूदा प्रवृत्तियों को देखते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि वर्ष 2025 तक भारत में प्रति व्यक्ति अल्कोहल की खपत में 2.2 लीटर वृद्धि और हो जाएगी। ये आंकड़े 15 वर्ष से अधिक आयु की जनसंख्या के संदर्भ में एकत्र किए गए हैं। संगठन ने विश्व स्तर की स्थिति पर चिंता प्रकट करते हुए बताया है कि इस समय विश्व में 230 करोड़ व्यक्ति शराब पीते हैं। जिसमें 15.5 करोड़ युवा 15-19 आयु वर्ग के हैं, जो कि इस आयु वर्ग के 27 प्रतिशत हैं।(स्रोत फीचर्स)

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स्पाइनल क्षति से ग्रस्त लोगों के लिए आशा की किरण

लाखों लोग दुर्घटना या हिंसा की वजह से पंगु हो जाते हैं। इनमें से कई लोगों के मेरु रज्जु में क्षति होती है जिसकी वजह से मांसपेशियां ठीकठाक रहते हुए भी वे चलनेफिरने में अशक्त हो जाते हैं। मेरु रज्जु यानी स्पाइनल कॉर्ड हज़ारों तंत्रिकाओें को गूंथकर बनी एक रस्सी जैसा होता है और रीढ़ की हड्डी में से गुज़रता है। यह मस्तिष्क से जुड़ा होता है तथा मांसपेशियों से संकेत प्राप्त करता है और उन्हें काम करने के संदेश देता है। 

हाल ही में नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक शोध पत्र के मुताबिक इस तरह की क्षति से ग्रस्त लोगों को चलनेफिरने में मदद की जा सकती है। वैसे तो कई शोधकर्ता स्पाइनल क्षति से लकवाग्रस्त लोगों के लिए कोई उपचार ढूंढने हेतु जंतुओं पर प्रयोग करते रहे हैं। लेकिन जंतु प्रयोगों के परिणाम मनुष्यों के लिए उपयोगी साबित नहीं हुए हैं। उदाहरण के लिए, मेरु रज्जु में बाहर से विद्युत संदेश देकर चूहों तथा कुछ अन्य जंतुओं में चलनेफिरने की क्षमता बहाल करने में सफलता मिली है लेकिन मनुष्यों में यह तकनीक कारगर नहीं रही है।

ताज़ा शोध में भी विद्युतीय संकेतों का उपयोग किया गया है किंतु एक प्रमुख अंतर यह रहा कि लगातार विद्युत संकेत देने की बजाय टांगों की अलगअलग मांसपेशियों को एक विशेष क्रम में विद्युत उद्दीपन प्रदान किए गए। कोशिश यह रही है कि चलने के दौरान हर कदम उठाने में काम आने वाली मांसपेशियों को क्रमबद्ध ढंग से उत्तेजित किया जाए।

इस तरह से तीन गंभीर रूप से पीड़ित व्यक्तियों में चलनेफिरने की क्षमता बहाल की जा सकी। ये तीन लोग सिर्फ प्रयोगशाला में नहीं, बल्कि सामान्य परिस्थितियों में भी चहलकदमी कर पाए। और तो और, कुछ दिनों के बाद बाहरी विद्युत संकेत बंद कर देने के बाद भी वे चलफिर पाए।

वैसे शोधकर्ताओं का कहना है कि उन्होंने जो कुछ हासिल किया है उसे मात्र एक उदाहरण के रूप में, अवधारणा के एक प्रमाण के रूप में देखा जाना चाहिए। स्पाइनल क्षति में बहुत विविधता होती है। इसलिए हर व्यक्ति के लिए विद्युतीय उद्दीपनों का क्रम अलगअलग होगा और उसका निर्धारण व्यक्तिविशेष पर प्रयोग करके ही करना होगा। अर्थात अभी इस तकनीक के इस्तेमाल के लिए विशेष सुविधाओं की ज़रूरत होगी और इसके चलते यह काफी महंगी साबित हो सकती है। इसके अलावा, फिलहाल यह थोड़े से लोगों को ही उपलब्ध हो पाएगी। किंतु, महंगा ही सही, एक रास्ता तो मिला है और आगे बढ़ने की संभावना नज़र आ रही है।(स्रोत फीचर्स)

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