साल 2024 का रसायन नोबेल पुरस्कार (Nobel Prize) डेविड बेकर, डेमिस हस्साबिस और जॉन जम्पर को संयुक्त रूप से दिया गया है। तीनों वैज्ञानिकों ने प्रोटीन की संरचना (Protein Structure) अथवा बनावट समझने और पूर्वानुमान के लिए कंप्यूटर टूल्स (Computer Tools) और कृत्रिम बुद्धि (Artificial Intelligence – AI) तकनीकों का उपयोग किया है।
गूगल डीप माइंड (Google DeepMind) के डेमिस हस्साबिस और जॉन जम्पर ने एआई मॉडल अल्फाफोल्ड (AlphaFold AI Model) के विकास में उल्लेखनीय योगदान किया है, जिसकी सहायता से प्रोटीन की त्रि-आयामी संरचना (3D Protein Structure) की भविष्यवाणी की जा सकती है। पुरस्कार की आधी राशि इन दोनों वैज्ञानिक को दी जाएगी। पुरस्कार की शेष आधी राशि डेविड बेकर को मिलेगी। बेकर ने कंप्यूटेशनल रिसर्च (Computational Research) के ज़रिए बिलकुल नए प्रकार के प्रोटीन डिज़ाइन किए हैं। इनका उपयोग टीकों (Vaccines), नैनो पदार्थ (Nanomaterials), सूक्ष्म संवेदकों और औषधियों (Drugs) में संभव है।
1976 में जन्मे हस्साबिस ने युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है। उन्हें अल्फाफोल्ड मॉडल पर शोध के लिए ‘ब्रेकथ्रू’ पुरस्कार (Breakthrough Prize) सहित अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कार मिल चुके हैं।
1985 में जन्मे जॉन जम्पर ने 2017 में शिकागो युनिवर्सिटी से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है। उन्हें विज्ञान जगत की प्रतिष्ठित पत्रिका *नेचर* ने साल 2021 में टॉप टेन व्यक्तियों की सूची में सम्मिलित किया था।
डेमिस हस्साबिस और जॉन जम्पर दोनों ही लंदन स्थित एक ही कंपनी गूगल डीप माइंड से जुड़े हुए हैं।
डेविड बेकर को पुरस्कार नए प्रोटीन (New Protein Design) के निर्माण की असंभव लगने वाली उपलब्धि के लिए दिया गया है। डेमिस हस्साबिस और जॉन जम्पर को अल्फाफोल्ड नाम के एआई मॉडल (AI Model for Protein Structure) का विकास और उसका उपयोग करके प्रोटीन की जटिल संरचनाओं की भविष्यवाणी करने की आधी सदी पुरानी समस्या के समाधान के लिए दिया गया है।
किसी प्रोटीन की त्रि-आयामी संरचना को निर्धारित करने के जटिल व लंबी अवधि तक चलने वाले प्रयोगों की आवश्यकता होती थी। प्रोटीन का कार्य उसकी त्रि-आयामी रचना से ही निर्धारित होता है।
प्रोटीन दरअसल अमीनो अम्लों (Amino Acids) की एक लंबी शृंखला से बने होते हैं। पहला काम होता है किसी प्रोटीन में इन अमीनो अम्लों का अनुक्रम (Amino Acid Sequence) पता करना। किसी प्रोटीन में अमीनो अम्ल के अनुक्रम के बारे में जान जाने के बाद भी वह शृंखला विभिन्न ढंग से तह होकर कई आकृतियां ग्रहण कर सकती है। प्रोटीन की इस तह की हुई त्रि-आयामी संरचना का निर्धारण अत्यधिक चुनौतीपूर्ण होता है।
मिसाल के तौर पर अगर किसी प्रोटीन में केवल 100 अमीनो अम्ल हों, तो वह कम-से-कम 1047 विभिन्न त्रि-आयामी संरचनाएं ग्रहण कर सकता है। कुछ वर्षों पहले तक मनुष्यों में पाए जाने वाले करीब 20,000 प्रोटीनों में से केवल एक-तिहाई की संरचना ही प्रयोगशाला के स्तर पर आंशिक रूप से निर्धारित की गई थी।
अल्फाफोल्ड (AlphaFold) ने अब तक लगभग दस लाख प्रजातियों में लगभग 20 करोड़ प्रोटीन (Proteins) की त्रि-आयामी संरचनाओं की भविष्यवाणी की है।
2018 में हस्साबिस और जम्पर ने प्रोटीन संरचना के पूर्वानुमान में 60 प्रतिशत की सटीकता प्राप्त कर ली थी। सन 2020 में एआई मॉडल के प्रदर्शन की तुलना एक्स-रे क्रिस्टेलोग्रॉफी (X-Ray Crystallography) से की गई थी। एक्स-रे क्रिस्टेलोग्राफी प्रोटीन संरचना पता करने की एक और विधि है। हालांकि यह एआई मॉडल अभी भी पूरी तरह मुकम्मल नहीं है, परन्तु यह इस बात का अनुमान लगाता है कि जो संरचना प्रस्तावित की गई है, वह कितनी सही है।
वर्ष 2021 से अल्फाफोल्ड मॉडल का कोड (AlphaFold Code) सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध है। इस एआई उपकरण का उपयोग 190 देशों के बीस लाख से अधिक शोधकर्ताओं द्वारा किया गया है।
बेकर ने अमीनो अम्ल के अनुक्रमों के आधार पर प्रोटीन की संरचना की भविष्यवाणी करने की बजाय नई प्रोटीन संरचनाओं (New Protein Structures) का सृजन किया। उन्होंने अपने कंप्यूटर सॉफ्टवेयर रोसेटा (Rosetta Software) का उपयोग ऐसे नए प्रोटीनों का निर्माण करने के लिए किया, जो प्रकृति में नहीं पाए जाते। बेकर ने ज्ञात प्रोटीन संरचनाओं के डैटाबेस की खोज और समानता वाले प्रोटीनों के छोटे टुकड़ों की तलाश करके अमीनो अम्ल का अनुक्रम निर्धारित करने में रोसेटा का उपयोग किया है।
प्रोटीन सजीवों में होने वाली सभी प्रकार की रासायनिक अभिक्रियाओं को नियंत्रित और संचालित करते हैं। प्रोटीन अणु, हारमोन्स (Hormones), एंटीबॉडीज़ (Antibodies) और विभिन्न ऊतकों में बिल्डिंग ब्लॉक (Building Blocks) की भूमिका भी निभाते हैं। प्रोटीन आकृति में फीते की तरह होते हैं और अमीनो अम्लों की लंबी शृंखला से बने होते हैं। सामान्य तौर पर प्रोटीन 20 अलग-अलग प्रकार के अमीनो अम्लों से बनते हैं। प्रोटीन की लंबी शृंखला को तह करके त्रि-आयामी संरचना बनाई जा सकती है।
सन् 1970 से वैज्ञानिक प्रोटीन की त्रि-आयामी संरचना (3D Protein Structure) की भविष्यवाणी पर अनुसंधान कर रहे हैं। इस विषय पर शोधकार्य की रफ्तार बेहद धीमी रही है। लेकिन साल 2020 में अनुसंधानकर्ताओं को बड़ी सफलता मिली जब प्रोफेसर हस्साबिस और जॉन जम्पर ने कृत्रिम बुद्धि (AI) की सहायता से अल्फाफोल्ड-2 (AlphaFold-2) के विकास की घोषणा की थी। प्रोफेसर जॉन जम्पर ने संवाददाताओं के सवालों का उत्तर देते हुए बताया कि डीप लर्निंग मॉडल (Deep Learning Model) ने जीव विज्ञान की जटिलताओं के समाधान में सही डैटा (Data) उपलब्ध कराया है। उन्होंने बताया कि अल्फाफोल्ड-2 का विभिन्न तरह से उपयोग किया गया है। इनमें बीमारियों के हमले से मुकाबला करने की क्षमता और प्लास्टिक के विघटन में भूमिका निभाने वाले एंजाइम (Enzymes) शामिल हैं।
हस्साबिस का कहना है कि अल्फाफोल्ड मॉडल की खोज को एआई की विपुल संभावनाओं (AI Potential) के प्रमाण के तौर पर देखना चाहिए। इससे न केवल वैज्ञानिक अनुसंधान की रफ्तार तेज़ होगी, बल्कि समाज को भी लाभ मिलेगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.hindustantimes.com/ht-img/img/2024/10/09/1600×900/Nobel_Prize_in_Chemistry_2024_1728467654120_1728467681716.jpg
क्या आप जानते हैं कि आपके टूथब्रश (Toothbrush) और शॉवरहेड (Showerhead) में सैकड़ों वायरस (Viruses) हो सकते हैं? लेकिन घबराने की कोई ज़रूरत नहीं! बैक्टीरियोफेज (Bacteriophages) नामक ये वायरस सिर्फ बैक्टीरिया (Bacteria) को संक्रमित करते हैं, इंसानों को इससे कोई खतरा नहीं हैं। उल्टा ये वायरस हमें खतरनाक, दवा-प्रतिरोधी बैक्टीरिया (Drug-Resistant Bacteria) से लड़ने के नए तरीके खोजने में मदद कर सकते हैं।
नॉर्थवेस्टर्न युनिवर्सिटी की एरिका हार्टमैन के नेतृत्व में शोधकर्ताओं ने आम घरेलू सतहों पर वायरस की अदृश्य दुनिया की अधिक जानकारी के लिए अमेरिकी घरों से 92 शॉवरहेड और 36 टूथब्रश का अध्ययन किया। उन्नत डीएनए अनुक्रमण तकनीकों (DNA Sequencing) का उपयोग करके, इन नमूनों में उन्होंने 600 से अधिक विभिन्न प्रकार के बैक्टीरियोफेज (Phages) पाए। इनमें से ज़्यादातर वायरस टूथब्रश में पाए गए और वहां मिले कई वायरस तो विज्ञान के लिए सर्वथा नए थे।
बैक्टीरियोफेज आम तौर पर दो में से किसी एक तरीके से कार्य करते हैं: वे या तो बैक्टीरिया की मशीनरी को हाईजैक (Hijack Bacterial Machinery) कर लेते हैं और अपनी प्रतियां बनाकर अंतत: मेज़बान बैक्टीरिया को नष्ट कर देते हैं, या वे बैक्टीरिया के जीनोम (Bacterial Genome) में एकीकृत हो जाते हैं और बैक्टीरिया के व्यवहार को बदल देते हैं। ये वायरस संभवत: हमारे घरों में रसोई के सिंक (Kitchen Sink) या रेफ्रिजरेटर जैसी अन्य नम सतहों पर भी मौजूद होते हैं।
यह अध्ययन इस बात पर प्रकाश डालता है कि बैक्टीरियोफेज रोज़मर्रा के वातावरण (Everyday Environment) में कैसे काम करते हैं, जिससे शोधकर्ताओं को आसपास छिपी हुई सूक्ष्मजीवी दुनिया (Microbial World) को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलती है। सैन डिएगो स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के जैक गिल्बर्ट इसे एक ‘आकर्षक संसाधन’ के रूप में देखते हैं जो हमारे घरों के अंदर फेज गतिविधि (Phage Activity) के बारे में मूल्यवान जानकारी प्रदान करता है।
इस शोध की एक दिलचस्प संभावना यह भी है कि दवा-प्रतिरोधी बैक्टीरिया (Antibiotic-Resistant Bacteria) से निपटने के लिए नए खोजे गए बैक्टीरियोफेज का उपयोग किया जा सकता है। जब एंटीबायोटिक्स विफल हो जाते हैं, तो इंजीनियर्ड बैक्टीरियोफेज (Engineered Phages) का उपयोग कभी-कभी इन सुपरबग्स (Superbugs) को मारने के लिए किया जा सकता है। यह उपचार के लिए एक आशाजनक विकल्प प्रदान करता है।
सारत: साधारण-सा दिखने वाला टूथब्रश अदृश्य वायरसों (Invisible Viruses) से भरा और चिकित्सा में उपयोगी हो सकता है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.everydayhealth.com/images/news/viruses-teeming-on-toothbrush-showerhead-1440×810.jpg
जलवायु परिवर्तन (Climate Change) के विरुद्ध वैश्विक जंग में, वायुमंडल से कार्बन डाईऑक्साइड (CO2 Removal) को हटाने की तकनीकों पर ध्यान बढ़ रहा है। लेकिन उभरते शोध से पता चलता है कि इन तकनीकों पर अत्यधिक निर्भरता हमारे ग्रह (Planetary Health) को गंभीर और स्थायी नुकसान से बचाने के लिए पर्याप्त नहीं है।
वर्ष 2015 में पेरिस समझौते (Paris Agreement) में वैश्विक तापमान वृद्धि (Global Warming) को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने और यथासंभव 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के प्रयासों को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया गया था। अधिकांश जलवायु मॉडल (Climate Models) का अनुमान है कि कार्बन हटाने की विभिन्न तकनीकों से तापमान कम तो होगा लेकिन पूर्व निर्धारित सीमा को पार कर जाएगा।
अब बड़ा सवाल यह है कि इस सीमापार (1.5 डिग्री से अधिक) अवधि के दौरान क्या हो सकता है? नेचर (Nature Journal) में प्रकाशित कार्ल-फ्रेडरिक श्लूसनर के नेतृत्व में किया गया एक नया अध्ययन संभावित परिणामों पर प्रकाश डालता है। यदि हम तापमान (Global Temperature) को वापस नीचे लाने में सफल हो भी जाएं, तब भी 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान के प्रभाव गंभीर और दीर्घकालिक होंगे, जिससे आने वाले दशकों तक लोगों और पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystems) दोनों पर असर पड़ेगा।
तापमान में वृद्धि का खतरा (Temperature Rise Risks)
तापमान में वृद्धि का मतलब है कि अस्थायी रूप से 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान सीमा (Temperature Threshold) को पार करना और फिर बाद में वैश्विक तापमान को कम करना। श्लूसनर के शोध में चेतावनी दी गई है कि इस तरह की वृद्धि से भीषण तूफान (Extreme Weather Events) और लू जैसी चरम मौसमी घटनाएं हो सकती हैं तथा जंगल और कोरल रीफ (Coral Reefs) जैसे महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्रों का विनाश हो सकता है।
इसके अलावा, तापमान वृद्धि से पृथ्वी के जलवायु तंत्र (Climate Systems) का नाकाबिले-पलट बिंदु तक पहुंचने का जोखिम बढ़ सकता है। मसलन, उच्च तापमान ग्रीनलैंड की बर्फीली चादर (Greenland Ice Sheet) का ढहना या अमेज़ॉन वर्षावन (Amazon Rainforest) के अपरिवर्तनीय पतन शुरू कर सकता है। भले ही हम बाद में वैश्विक तापमान कम करने में कामयाब हो जाएं लेकिन उससे पहले ही काफी स्थायी नुकसान हो चुका होगा।
कार्बन हटाना: आसान काम नहीं (Carbon Removal Challenges)
हालांकि, पेड़ लगाना या कार्बन कैप्चर (Carbon Capture) जैसे तरीके समाधान का हिस्सा हैं, लेकिन ये अपने आप में पर्याप्त नहीं हैं। श्लूसनर की टीम के अनुसार 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को पूरा करने के लिए हमें वर्ष 2100 तक वायुमंडल से 400 गीगाटन कार्बन डाईऑक्साइड (Gigaton CO2) हटाना होगा जो कि एक कठिन चुनौती होगी।
यदि बड़े पैमाने पर कार्बन हटाना (Carbon Sequestration) संभव हो जाए, तो भी तापमान में अत्यधिक वृद्धि के कारण होने वाले कुछ बदलाव स्थायी हो सकते हैं। बढ़ता समुद्र स्तर (Sea Level Rise), जलवायु क्षेत्रों में बदलाव और पारिस्थितिकी तंत्र में व्यवधान जारी रह सकते हैं, जिससे कृषि जैसे कारोबरों के लिए अनुकूलन करना कठिन हो जाएगा।
नैतिक चिंताएं (Ethical Concerns)
अध्ययन में उठाया गया एक और मुद्दा नैतिकता का है। एक बड़ा सवाल यह है कि तापमान में वृद्धि (Temperature Increase) के दौरान और उसके बाद जलवायु प्रभावों का खामियाजा कौन भुगतेगा। जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे कम ज़िम्मेदार कम आय वाले देश (Low-Income Nations) सबसे अधिक प्रभावित होंगे। ये क्षेत्र पहले से ही इंतहाई मौसम और पर्यावरणीय क्षति के प्रति अधिक संवेदनशील हैं, और तापमान में वृद्धि से उनकी स्थिति और खराब हो जाएगी।
उत्सर्जन रोकना आवश्यक है (Emission Reduction Necessary)
लक्ष्य से अधिक तापमान बढ़ने से रोकने के लिए कार्बन उत्सर्जन (Carbon Emission) को कम करने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए, न कि उत्सर्जन करने के बाद कार्बन डाईऑक्साइड हटाने पर। विशेषज्ञ सरकारों (Government Policies) और उद्योगों द्वारा उत्सर्जन में भारी कटौती करने की तत्काल आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं।
यू.के. ने हाल ही में अपने अंतिम कोयला-चालित बिजली संयंत्र (Coal Plants) को बंद किया है और अगले 25 वर्षों में कार्बन कैप्चर और भंडारण प्रौद्योगिकियों (Carbon Capture and Storage) में 22 अरब पाउंड (करीब 230 अरब रुपए) का निवेश करने की घोषणा की है। आर्थिक रूप से वंचित क्षेत्रों में लागू किए जा रहे इन प्रयासों का उद्देश्य जलवायु चुनौतियों का समाधान करते हुए रोजगार और स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं को बढ़ाना है।
अलबत्ता, ये केवल शुरुआती प्रयास हैं। वैश्विक नेताओं को, विशेष रूप से आगामी कोप 29 (COP29) शिखर सम्मेलन में, 1.5 डिग्री सेल्सियस लक्ष्य के लिए उत्सर्जन में कटौती (Emission Reduction Targets) को प्राथमिकता देनी चाहिए। कार्रवाई में देरी करना और भविष्य में कार्बन हटाने पर निर्भर रहना एक जोखिम भरी रणनीति है जो लोगों और ग्रह दोनों के लिए विनाशकारी हो सकती है।(स्रोत फीचर्स)
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क्या कोविड-19 जैसी महामारी फिर से आ सकती है? इस बारे में वैज्ञानिकों का मत है कि महामारी का उभरना संयोगवश होने वाली एक घटना है, और यह कहीं भी और कभी भी घट सकती है। महामारी की संभावनाएं विशेषकर वहां ज्यादा होती है जहां लोग पालतू या जंगली जानवरों के निकट संपर्क में रहते हैं। लिहाज़ा, आगामी महामारी से बचाव के लिए ला जोला इंस्टीट्यूट फॉर इम्यूनोलॉजी (La Jolla Institute for Immunology) के वैज्ञानिकों ने कोविड-19 महामारी (COVID-19 pandemic) से सबक सीखकर एक नया औज़ार विकसित किया है। उन्होंने मानवीकृत (humanized) चूहों की छह प्रजातियां विकसित की हैं, जो कोविड-19 के मामलों के अध्ययन (COVID-19 research) के लिए मूल्यवान मॉडल के रूप में काम कर सकती हैं।
क्या हैं मानवकृत चूहे?
मानवीकृत चूहा (humanized mouse) एक ऐसा चूहा है जिसमें किसी मनुष्य का डीएनए, कोई ऊतक, ट्यूमर, या माइक्रोबायोम (microbiome) प्रत्यारोपित किया गया हो। ऐसे मानवकृत चूहों में पूर्ण विकसित कार्यकारी मानव प्रतिरक्षा प्रणाली (immune system) विकसित हो जाती है। इनमें लसिका ग्रंथियां, थायमस और मानव ‘टी’ और ‘बी’ प्रतिरक्षी कोशिकाएं सम्मिलित हैं। मानवीकृत चूहों का उपयोग मनुष्यों को होने वाले रोगों जैसे कैंसर (cancer), संक्रामक रोगों (infectious diseases) और एलर्जी (allergies) आदि का अध्ययन करने के लिए किया जाता है। मानवीकृत चूहे मानव शरीर के अधिक उपयुक्त अनुसंधान मॉडल हो सकते हैं। वे शोधकर्ताओं को मानव विकास और बीमारी को बेहतर ढंग से समझने में मदद कर सकते हैं, और अंतत: हम सामान्य चिकित्सा के बजाय पिन-पॉइंटेड व्यक्तिगत चिकित्सा की ओर बढ़ सकते हैं।
उदाहरण के लिए एक प्रचलित मानवीकृत चूहा है PDX (Patient Derived Xenograft)। यह ऐसा चूहा है जिसमें मानव ट्यूमर (human tumor) प्रत्यारोपित किया जाता है। इस प्रकार के चूहे कैंसर के फैलाव (cancer spread) और नई कैंसर दवाओं के प्रारंभिक परीक्षण (cancer drug trials) करने के लिए प्रयुक्त होते हैं।
इस प्रक्रिया में वैज्ञानिक किसी मरीज़ से ट्यूमर निकाल कर उसे टुकड़ों में काट सकते हैं और प्रत्येक टुकड़े को कई भिन्न-भिन्न चूहों में डाल सकते हैं। प्रत्येक टुकड़ा एक-एक नया ट्यूमर बनता है और फिर उसे विभाजित करके अनेक चूहों में डाला जा सकता है। इस प्रक्रिया द्वारा, दर्जनों मानवीकृत (humanized) चूहे बनाए जाते हैं, जिनका ट्यूमर (tumor) मूल मानव रोगी के ट्यूमर के लगभग समान होता है। वैज्ञानिक ऐसे PDX चूहों (PDX mice) के विभिन्न समूहों का वैकल्पिक दवाओं, दवा के विभिन्न संयोजनों और अनुक्रमों के साथ इलाज कर सकते हैं। इससे उन्हें यह निर्धारित करने में मदद मिलती है कि किसी विशेष ट्यूमर को खत्म करने के लिए कौन सी दवा (drug) या उसका संयोजन सबसे अच्छा काम करता है।
महामारी अनुसंधान में महत्ता
मानवीकृत चूहों के नए मॉडल इस बात पर प्रकाश डालने में मदद कर सकते हैं कि SARS-CoV-2 शरीर में कैसे फैलता है और अलग-अलग लोगों को कोविड-19 (COVID-19) के भिन्न-भिन्न लक्षण क्यों होते हैं।
ईबायोमेडिसिन पत्रिका (eBioMedicine journal) में प्रकाशित शोध पत्र में वैज्ञानिकों ने बताया है कि ये चूहा मॉडल कोविड-19 अनुसंधान (COVID-19 research) में इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि उनकी कोशिकाओं को इस तरह इंजीनियर किया गया था कि उनमें ऐसे दो महत्वपूर्ण अणु (molecules) बनते थे जो मानव कोशिकाओं में SARS-CoV-2 संक्रमण (SARS-CoV-2 infection) में भूमिका निभाते हैं। इन मानवीकृत चूहों को प्रतिरक्षा तंत्र (immune system) की दो अलग-अलग व्यवस्थाओं के तहत तैयार किया गया था।
इन चूहा मॉडल्स की मदद से हम महामारी की दृष्टि से प्रासंगिक SARS-CoV-2 संक्रमण और टीकाकरण (vaccination) के परिदृश्य को मॉडल कर सकते हैं, और हम संक्रमण और टीकाकरण के बाद विभिन्न समयों पर मात्र रक्त नहीं बल्कि विभिन्न प्रासंगिक ऊतकों का अध्ययन कर सकते हैं।
इन मॉडल्स की मदद से वैज्ञानिक यह जांच पहले ही कर चुके हैं कि SARS-CoV-2 का संक्रमण मनुष्यों को कैसे प्रभावित करता है। आगे वैज्ञानिक यह जांच कर सकते हैं कि उपरोक्त में से प्रत्येक अणु किस तरह से अलग-अलग SARS-CoV-2 संस्करणों (SARS-CoV-2 variants) को संक्रमण में मदद करता है। वे यह अध्ययन भी कर सकते हैं कि मेज़बान की आनुवंशिक पृष्ठभूमि (genetic background) किस तरह से विभिन्न संस्करणों के संक्रमण के बाद रोग की प्रगति और प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को प्रभावित कर सकती है।
शोधकर्ताओं ने बारीकी से इस बात का अवलोकन किया है कि ये जंतु-मॉडल वास्तविक SARS-CoV-2 संक्रमण पर कैसे प्रतिक्रिया देते हैं। वैज्ञानिकों ने SARS-CoV-2 के संपर्क में आए विभिन्न चूहा स्ट्रेन (mouse strains) से ऊतक के नमूने लिए। फिर उन्होंने ऊतक के नमूनों की जांच की और उनकी तुलना कोविड-19 से पीड़ित मनुष्यों के पैथोलॉजिकल निष्कर्षों से की। वैज्ञानिको के विश्लेषण से फेफड़ों (lungs) में SARS-CoV-2 संक्रमण के लक्षण दिखाई दिए, जो मनुष्यों में SARS-CoV-2 संक्रमण के लिए सबसे कमज़ोर ऊतक भी है। अनुसंधान समूह ने माउस की प्रतिरक्षा कोशिकाओं (immune cells) को संक्रमण के प्रति लगभग उसी तरह से प्रतिक्रिया करते हुए भी देखा जो मानव प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया भी दर्शाती थी।
नए चूहा मॉडल में इन प्रतिक्रियाओं को पहचानकर, शोधकर्ताओं ने SARS-CoV-2-प्रेरित रोग की प्रतिरक्षा विविधता (immune diversity) या प्रतिरक्षा प्रतिक्रियाओं की विस्तृत शृंखला को समझने के लिए एक आधार स्थापित किया है। नए चूहा मॉडल्स उभरते SARS-CoV-2 संस्करण (emerging SARS-CoV-2 variants) और महामारी पैदा करने की क्षमता वाले भावी कोरोनावायरस (coronavirus) की प्रतिक्रियाओं का अध्ययन करने के लिए मूल्यवान साबित हो सकते हैं।
इन नए चूहा मॉडल्स ने वैज्ञानिकों को यह स्पष्ट तस्वीर खींचने में मदद की है कि SARS-CoV-2 मनुष्यों को कैसे प्रभावित करता है। ये माउस मॉडल कोविड-19 अनुसंधान समुदाय (COVID-19 research community) के सभी शोधकर्ताओं के लिए भी उपलब्ध हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.springernature.com/lw685/springer-static/image/art%3A10.1186%2Fs12977-021-00557-1/MediaObjects/12977_2021_557_Figa_HTML.png?as=webp
2024 का लास्कर-डीबेकी पुरस्कार (Lasker-DeBakey Award 2024) तीन वैज्ञानिकों को दिया गया है – मैसाचुसेट्स जनरल हॉस्पिटल के जील हेबनर (Joel Habener), रॉकफेलर विश्वविद्यालय की स्वेतलाना मोजसोव (Svetlana Mojsov) और नोवो लॉरडिस्क की लोटे ब्येरो नडसन (Lotte Bjerre Knudsen)। इन्होंने जीएलपी-1 (GLP-1 hormone) नामक हॉर्मोन के सक्रिय रूप को पहचाना और उसे वज़न घटाने की औषधि (weight loss medication) के रूप में विकसित किया।
दुनिया भर में अनुमानित 90 करोड़ वयस्क मोटापे से ग्रस्त हैं। मोटापा कई घातक रोगों का कारण बनता है। पूर्व में मोटापे से निपटने के लिए कारगर औषधियों के विकास को ज़्यादा सफलता नहीं मिली थी। उक्त तीन वैज्ञानिकों ने जीएलपी-1 आधारित औषधियों का मार्ग प्रशस्त किया जो काफी उम्मीदें जगाता है।
एक नया हॉर्मोन
1970 के दशक में मैसाचुसेट्स जनरल हॉस्पिटल में कार्यरत एंडोक्रायनोलॉजिस्ट हेबनर का ध्यान डायबिटीज़ ने आकर्षिक किया था। आम तौर पर ग्लूकोज़ की उपस्थिति अग्न्याशय (pancreas) को इंसुलिन स्रावित करने के लिए प्रेरित करती है। यह इंसुलिन शर्करा को रक्त प्रवाह में से हटाकर कोशिकाओं में पहुंचाता है।
डायबिटीज़(diabetes) में होता यह है कि इंसुलिन की कमी के चलते रक्त प्रवाह में ग्लूकोज़ की मात्रा अधिक बनी रहती है जबकि कोशिकाएं भूखी मरती हैं। इंसुलिन की आपूर्ति करना डायबिटीज़ के एक उपचार के रूप में उभरा था लेकिन वैकल्पिक चिकित्सा की तलाश जारी रही। पैंक्रियास द्वारा स्रावित एक अन्य हॉर्मोन – ग्लूकागोन – रक्त में शर्करा की मात्रा को बढ़ाता है। तो एक विचार यह आया कि यदि ग्लूकागोन को बाधित कर दिया जाए तो डायबिटीज़ रोगियों को मदद मिलेगी।
हेबनर ने सोचा कि वे ग्लूकागोन का जीन पृथक करेंगे। लेकिन उस समय नियमों के तहत यूएस में स्तनधारी जीन्स के साथ छेड़छाड़ की अनुमति नहीं थी। तो हेबन ने एंगलरफिश का सहारा लिया। एंगलरफिश के इस्तेमाल का एक फायदा यह भी था कि इसमें एक विशिष्ट अंग होता है जो भरपूर मात्रा में ग्लूकागोन बनाता है।
वैज्ञानिक यह तो जानते थे कि पेप्टाइड हॉर्मोन बड़े प्रोटीन अणुओं में से बनते हैं, जब एंज़ाइम उन्हें विशिष्ट स्थानों पर काट देते हैं। 1982 में हेबनर ने रिपोर्ट किया कि एंगलरफिश का ग्लूकागोन जीन एक ऐसे पूर्ववर्ती प्रोटीन का निर्माण करवाता है जिसमें ग्लूकागोन के अलावा एक और पेप्टाइड होता है जो ग्लूकागोन जैसा ही है। इस प्रोटीन में दो अमीनो अम्ल – लायसीन-आर्जिनीन – जोड़ियां कई स्थानों पर पाई जाती हैं। यह वही जोड़ी है जो कई हॉर्मोन के पूर्ववर्ती प्रोटीन्स में कटान स्थल दर्शाती हैं। विचार यह बना कि इन स्थलों पर काटने से ग्लूकागोन भी मुक्त होगा और वह दूसरा पेप्टाइड भी।
इसके अगले वर्ष चिरॉन कॉर्पोरेशन (Chiron Corporation) के ग्रेम बेल ने पाया कि हैमस्टर का ग्लूकागोन जीन भी फिश पेप्टाइड के एक अन्य संस्करण को कोड करता है – इसे उन्होंने नाम दिया ग्लूकागोन-लाइक पेप्टाइड-1 (GLP-1)। आगे चलकर मनुष्यों तथा अन्य स्तनधारियों में भी ऐसे ही परिणाम मिले।
एक उपेक्षित चरण
स्वेतलाना मोजसोव ने ग्लूकागोन की क्रियाविधि का अध्ययन करने के लिए बड़ी मात्रा में इसके निर्माण के प्रयास में इस हॉर्मोन की संरचना का विस्तृत अध्ययन किया था। उन्होंने प्रोटीन संश्लेषण की एक नई विधि का उपयोग किया जो शुद्ध पदार्थ की पर्याप्त मात्रा बनाने के लिए पसंदीदा विधि बन चुकी थी।
1983 के आसपास मोजसोव ने मैसाचुसेट्स जनरल हॉस्पिटल में जीएलपी-1 के काम को आगे बढ़ाया। 1990 के दशक की शुरुआत में वैज्ञानिकों ने सुझाया था कि आंतों में उपस्थित कतिपय पदार्थ पैंक्रियास को यह हॉर्मोन बनाने को उकसाते हैं। 1964 में किए गए प्रयोगों में यह देखा गया था कि यदि ग्लूकोज़ को मुंह से लिया जाए तो वह ज़्यादा इंसुलिन उत्पादन को प्रेरित करता है बनिस्बत उसे इंजेक्शन के माध्यम से लेने पर। निष्कर्ष यह था कि आंतों में उपस्थित कोई चीज़ इंसुलिन स्राव को प्रेरित करती है। इन पदार्थों को इंक्रेटिन कहते हैं। उस समय तक ऐसे इंक्रेटिन्स की पहचान नहीं हो पाई थी। अब जीएलपी-1 एक उम्मीदवार के रूप में उभरा क्योंकि यह एक ऐसे हॉर्मोन (glucagon) से मेल खाता है जो रक्त-शर्करा के स्तर को प्रभावित करता है।
जीएलपी-1 के लिए 37 अमीनो अम्लों (amino acids) की शृंखला सुझाई गई थी और उन अमीनो अम्लों के अनुक्रम की भविष्यवाणी भी कर दी गई थी। यदि अलग-अलग प्रोटीन्स में एक से अमीनो अम्ल एक-से स्थानों पर पाए जाएं, तो माना जाता है कि वे कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभाते होंगे। लेकिन जीएलपी-1 की शृंखला की शुरुआत में ऐसे अमीनो अम्ल पाए गए थे जो ग्लूकागोन में नहीं पाए जाते। जीएलपी-1 में पोज़ीशन 6 पर आर्जिनीन था। आर्जिनीन को जाने-माने मानव एंज़ाइमों द्वारा काटा जाता है। यदि इन प्रथम 6 अमीनो अम्लों को काटकर अलग कर दिया जाए तो शेष पेप्टाइड 37 नहीं बल्कि 31 अमीनो अम्ल लंबा होगा और यह ग्लूकागोन कुल के सदस्यों से पूरी तरह मेल खाएगा। मोजसोव ने यह पता करने के प्रयास शुरू कर दिए कि क्या जीएलपी-1 का लघु संस्करण [GLP-1 (7-37)] जीएलपी-1 के लंबे संस्करण [GLP-1 (1-37)] से मुक्त होकर उस अज्ञात इंक्रेटिन की भूमिका निभा सकेगा। इसके लिए उन्होंने दोनों शुद्ध पेप्टाइड का बड़ी मात्रा में संश्लेषण एक ही मिश्रण में किया। उन्होंने ऐसी एंटीबॉडीज़ भी बनाईं जो एक साझा स्थान पर इन दोनों पेप्टाइड्स से जुड़ें – अर्थात वे दोनों संस्करणों को पहचानने में मददगार थीं। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि उन्होंने मिश्रण में से GLP-1 (1-37) और GLP-1 (7-37) को अलग-अलग करने का तरीका भी खोज निकाला। अंतत: वे सक्रिय पेप्टाइड को पहचान पाईं।
इसके बाद मोजसोव ने पेप्टाइड्स(peptides) को रेडियोधर्मी (radioactive) परमाणुओं से चिंहित किया और फिर जीएलपी-1 एंटीबॉडीज़ की मदद से यह पता किया कि क्या जीएलपी-1 जंतुओं में दिखाई देता है। इसके बाद उन्होंने पेप्टाइड्स को अलग-अलग करके यह स्थापित किया कि लघु संस्करण [GLP-1 (7-37)] ही प्रमुख अंश है। यही आंतों में पाया जाता है।
मोजसोव और हेबनर द्वारा चूहों पर किए गए प्रयोगों से स्पष्ट हो गया कि लघु संस्करण GLP-1 (7-37) ही कार्यिकीय रूप से प्रासंगिक पेप्टाइड है।
तब हेबनर और मोजसोव ने मनुष्यों पर अध्ययन शुरू किए। पाया गया कि GLP-1 (7-37) इंसुलिन स्राव को उकसाता है और रक्त शर्करा का स्तर कम करता है। इसके डायबिटीज़ में उपयोग का रास्ता खुल गया।
वसा अम्ल (fatty acid), मोटापे में संभावनाएं
डायबिटीज़ के अलावा मोटापे से निपटने में जीएलपी-1 की भूमिका को लेकर नडसन पहले से सोच रहे थे। 1996 में एक शोध पत्र में बताया गया था कि चूहों के मस्तिष्क में जीएलपी-1 का इंजेक्शन लगाने पर उनका भोजन लेना एकदम से कम हो गया। शोध पत्र का निष्कर्ष था कि यह पेप्टाइड तृप्ति का संदेश देता है।
दिक्कत यह थी कि इंसानों में रक्त संचार में प्रवेश करने के मिनटों के अंदर जीएलपी-1 गायब हो जाता है। एक एंज़ाइम डीपीपी-4 इसे नष्ट कर देता है। बाकी बचे जीएलपी-1 को गुर्दे बाहर निकाल देते हैं। एक औषधि के रूप में इस्तेमाल करने के लिए इसे इन प्रक्रियाओं से बचाना होगा।
अंतत: रणनीति यह बनी कि जीएलपी-1 के साथ वसा अम्ल जोड़ दिए जाएं। ये वसा अम्ल रक्त संचार में काफी मात्रा में उपस्थित एलब्यूमिन नामक प्रोटीन से कुदरती रूप से जुड़ जाते हैं। एलब्यूमिन पदार्थों को पूरे शरीर में पहुंचाता है। नडसन का विचार था कि एलब्यूमिन जीएलपी-1 को रक्त संचार में ढोएगा और उसे डीपीपी-4 द्वारा विनाश से तथा गुर्दों द्वारा निष्कासन से भी बचाकर रखेगा।
नडसन की टीम ने कई सारे अलग-अलग जीएलपी-1 समरूप बनाए। अंतत: वे लिराग्लुटाइड नामक एक पदार्थ तक पहुंचे। इसका अर्ध जीवन काल 1.2 घंटे से बढ़ाकर 13 घंटे किया जा सका और 2010 में 1300 डायबिटीज़ टाइप-2 मरीज़ों के एक क्लीनिकल परीक्षण में इसका प्रदर्शन अच्छा रहा और साइड प्रभाव न्यूनतम रहे। 2009 में युरोपियन मेडिसिन एजेंसी और 2010 में यूएस खाद्य व औषधि प्रशासन ने लिराग्लूटाइड को अनुमति दे दी।
इसी दौरान इस बात के प्रमाण भी मिलने लगे थे कि जीएलपी-1 भूख कम करता है और वज़न घटाता है। एक महत्वपूर्ण अध्ययन में देखा गया कि डायबिटीज़-मुक्त लेकिन मोटे व अधिक वज़न वाले लोगों में लिराग्लूटाइड देने पर एक वर्ष में साढ़े पांच किलोग्राम तक वज़न कम हुआ। अंतत: इसे भी मंज़ूरी मिल गई। कोशिश यह चल रही थी कि दवा शरीर में ज़्यादा देर तक बनी रहे ताकि प्रतिदिन एक गोली की बजाय कम बार लेनी पड़े।
काफी मशक्कत के बाद एक ऐसा अणु मिल गया जो शरीर में पूरे 165 घंटे तक बना रहता था। इसे नाम मिला सेमाग्लूटाइड। इसे 2017 में डायबिटीज़ के उपचार के लिए तथा 2021 में मोटापे के इलाज के लिए अनुमति मिली। लिराग्लूटाइड के मुकाबले सेमाग्लूटाइड का असर लगभग दुगना होता है। परीक्षण के दौरान 16 महीने में प्रतिभागियों के वज़न में 12 किलोग्राम की कमी देखी गई और साइड प्रभाव न के बराबर देखे गए। लिराग्लूटाइड और सेमाग्लूटाइड ने नई दवाइयों का मार्ग प्रशस्त किया है।
मज़ेदार बात यह है कि जीएलपी-1 का डायबिटीज़ सम्बंधी असर तो पैंक्रियास पर होता है लेकिन भूख कम करने के असर को मस्तिष्क में देखा जा सकता है। इस असर की क्रियाविधि को समझने के प्रयास जारी हैं। यह भी बताया जा रहा है कि शायद यह औषधि कई अन्य बीमारियों में भी कारगर हो सकती है। जैसे जीर्ण गुर्दा रोग, फैटी लीवर रोग, अल्ज़ाइमर व पार्किंसन रोग तथा व्यसन सम्बंधी दिक्कतें। (स्रोत फीचर्स)
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हालिया अध्ययन में सदियों पुरानी हड्डियों (bones) का सूक्ष्म विश्लेषण कर धूम्रपान (smoking) करने वालों की पहचान की गई है। ये नतीजे इंग्लैंड (England) में 18वीं और 19वीं शताब्दी के दौरान तम्बाकू सेवन की आश्चर्यजनक जानकारी देते हैं कि न केवल पुरुष, बल्कि महिलाएं और समाज के सभी वर्गों के लोग तम्बाकू (tobacco) सेवन किया करते थे।
ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में यह उल्लेख तो मिलता था कि 18वीं शताब्दी में इंग्लैंड में धूम्रपान एक आम आदत थी – हर वर्ग के पुरुष तम्बाकूपान (tobacco consumption) करते थे। यहां तक कि मांग को पूरा करने के लिए अमेरिका (America) से भारी मात्रा में तम्बाकू आयात होती थी। लेकिन धूम्रपान के पुरातात्विक साक्ष्य दुर्लभ हैं। क्योंकि पहचान के पारंपरिक तरीके दांतों के घिसाव (teeth wear) और मिट्टी के पाइप जैसे सुरागों पर निर्भर थे, लेकिन खुदाई में सलामत बत्तीसी वाले कंकाल और पाइप बहुत ही कम मिले हैं। और कंकाल से फेफड़ों की क्षति का भी पता नहीं चलता। फिर, यह भी ज़रूरी नहीं कि हर व्यक्ति धूम्रपान करके ही तम्बाकू सेवन करता हो, नसवार या खैनी भी तम्बाकू सेवन का माध्यम हो सकते हैं।
इसलिए साइंस एडवांसेस (Science Advances) में प्रकाशित इस अध्ययन में मानव हड्डियों में तम्बाकू के रासायनिक हस्ताक्षर (chemical signatures) पता लगाने के लिए मेटाबोलोमिक्स (metabolomics) का उपयोग किया गया। मेटाबोलोमिक्स का मतलब होता है कि शरीर में भोजन, दवाइयों व अन्य पदार्थों के पाचन से उत्पन्न पदार्थों का विश्लेषण। शोधकर्ताओं ने तरल क्रोमेटोग्राफी (liquid chromatography) की मदद से हड्डियों से चयापचय पदार्थ अलग किए। ये रासायनिक उप-उत्पाद (chemical byproducts) हैं और तम्बाकू जैसे पदार्थों को पचाने के बाद शरीर में बने रहते हैं। फिर उन्होंने इंग्लैंड में तम्बाकू के आने से पहले की हड्डियों और बाद की हड्डियों की तुलना करके रासायनिक अंतरों से उन लोगों की पहचान की जिन्होंने तम्बाकू सेवन किया था। विश्लेषण किए गए 323 से अधिक कंकालों में से आधे से अधिक नमूनों में लंबे समय तक तम्बाकू सेवन के प्रमाण मिले हैं। ये आंकड़े वर्तमान ब्रिटेन (Britain) में धूम्रपान दर से चार गुना अधिक हैं।
हालांकि ऐतिहासिक दस्तावेज़ बताते हैं कि विक्टोरिया युग (1830 से 1900) में धूम्रपान मुख्यत: पुरुष करते थे, इसमें बहुत कम महिलाओं का उल्लेख मिलता है। लेकिन यह अध्ययन स्पष्ट करता है कि विक्टोरियन महिलाएं (Victorian women), यहां तक कि अमीर घरानों की महिलाएं, भी अक्सर धूम्रपान करती थीं। गरीब महिलाएं धूम्रपान के लिए सस्ते मिट्टी के पाइप का इस्तेमाल करती थीं जिससे उनके दांतों में गड्ढे बन जाते थे, वहीं अमीर महिलाएं एम्बर, लकड़ी या हड्डी से बने पाइप का इस्तेमाल करती थीं। ऐसे पाइप दांतों पर कोई स्पष्ट निशान नहीं छोड़ते। इससे यह समझा जा सकता है कि पिछले अध्ययनों में महिलाओं की धूम्रपान आदतें क्यों अनदेखी रहीं। शोध से स्पष्ट है कि तम्बाकू सेवन सभी सामाजिक वर्गों में आम था।
चूंकि ये चयापचय जनित पदार्थ लाखों वर्षों तक हड्डियों में बने रह सकते हैं, यह तकनीक प्राचीन मनुष्यों के व्यवहार (behavior) जैसे उनके आहार, मादक सेवन या तपेदिक जैसी बीमारियों को उजागर करने में मदद कर सकती है। (स्रोत फीचर्स)
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पिछले कुछ वर्षों से देश की राशन दुकानों (ration shops) पर और आंगनवाड़ियों (Anganwadis) में जो चावल मिलता है उसमें कई पोषक तत्व मिलाए जाते हैं। इसे फोर्टिफाइड चावल (fortified rice) कहते हैं। इनमें एक पोषक तत्व लौह (iron) भी होता है। वर्ष 2022 में शुरू की गई इस योजना के संदर्भ में 2023 में सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गई थी। याचिका में चिंता व्यक्त की गई थी कि थैलेसीमिया (thalassemia) और सिकल सेल एनीमिया (sickle cell anemia) जैसे हीमोग्लोबीन सम्बंधी कुछ रोगों के रोगियों के लिए लौह का अतिरिक्त सेवन नुकसानदायक हो सकता है। तब फैसला यह हुआ था कि भारतीय खाद्य सुरक्षा व मानक प्राधिकरण (Food Safety and Standards Authority of India, FSSAI) ऐसे फोर्टिफाइड चावल के पैकेट्स पर यह चेतावनी चस्पा करेगा कि थैलेसीमिया और सिकल सेल एनीमिया से पीड़ित लोग इस चावल का सेवन न करें। दरअसल, खाद्य सुरक्षा व मानक (खाद्य पदार्थों का समृद्धिकरण) नियमन 2018 के मुताबिक ऐसे लोगों के लिए लौह का सेवन प्रतिबंधित है। विश्व भर से प्राप्त प्रमाण भी इस प्रतिबंध का समर्थन करते हैं।
थैलेसीमिया और सिकल सेल एनीमिया (sickle cell anemia) से पीड़ित लोगों को अतिरिक्त लौह के सेवन से लिवर सिरोसिस (liver cirrhosis), कार्डियोमायोपैथी (cardiomyopathy), हृदय की नाकामी (heart failure), हायपोगोनेडिज़्म (hypogonadism), डायबिटीज़ (diabetes) और विलंबित यौवनारंभ जैसी दिक्कतों का जोखिम होता है। ऑनलाइन याचिका में लौह के अतिरेक से होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं (health risks) को लेकर किए गए वैज्ञानिक अध्ययनों का ज़िक्र भी किया गया है।
फिलहाल लौह-फोर्टिफाइड चावल पर यह चेतावनी होती है कि ‘लौह-फोर्टिफाइड खाद्य पदार्थ का सेवन थैलेसीमिया पीड़ित (thalassemia patients) व्यक्तियों को चिकित्सकीय देखरेख के तहत और सिकल सेल एनीमिया पीड़ितों को नहीं करना चाहिए।’ अब प्रस्ताव यह आया है कि यह चेतावनी हटा दी जाए। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (Indian Council of Medical Research, ICMR) की एक समिति ने इसकी सिफारिश की है और भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण ने खाद्य सुरक्षा एवं मानक (खाद्य पदार्थों का फोर्टिफिकेशन) नियमन में संशोधन हेतु 18 सितंबर को एक मसौदा भी जारी किया है।
इस प्रस्ताव ने व्यापक स्तर पर स्वास्थ्य सम्बंधी चिंताओं (health concerns) को जन्म दिया है। इस प्रस्ताव के विरुद्ध एक ऑनलाइन अभियान (online campaign) शुरू किया गया है। ऑनलाइन याचिका के मुताबिक यह चेतावनी व्यापक वैज्ञानिक विचार-विमर्श के उपरांत शामिल की गई थी। याचिका कहती है कि यह वैधानिक परामर्श सर्वप्रथम 2018 में काफी वैज्ञानिक विचार-विमर्श के बाद जोड़ा गया था।
याचिका में स्पष्ट कहा गया है कि सामान्य परिस्थिति में भी कुपोषण (malnutrition) की समस्या के इलाज के रूप में फोर्टिफिकेशन (fortification) को बढ़ावा देना प्रमाण सम्मत नहीं है। एनीमिया (anemia) के प्रबंधन में लौह-फोर्टिफिकेशन अनावश्यक है और असरहीन है। कारण यह है कि एनीमिया सिर्फ लौह तत्व की कमी (iron deficiency) से नहीं होता, इसके कई अन्य कारण भी हैं। जैसे, फोलेट, विटामिन बी-12 (vitamin B12) की कमी, संक्रमण (infections) वगैरह।
कोक्रेन अध्ययन (Cochrane studies) जैसे विश्वसनीय अध्ययनों का भी निष्कर्ष है कि सामान्य फोर्टिफिकेशन के लाभ अनिश्चित व अस्पष्ट हैं। स्वयं भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद द्वारा किए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष था कि ‘एनीमिया में सुधार की दृष्टि से लौह-फोर्टिफाइड चावल और मध्यान्ह भोजन बराबर प्रभावी थे।’
इन निष्कर्षों के प्रकाश में उन लोगों को लौह फोर्टिफाइड चावल देना कदापि उचित नहीं कहा जा सकता, जिनमें इसकी वजह से दिक्कतें पैदा हो सकती हैं। जैसे सिकल सेल एनीमिया या थैलेसीमिया पीड़ित लोगों में अतिरिक्त लौह तत्व का सेवन न सिर्फ डायबिटीज़ का ज़ोखिम बढ़ा सकता है बल्कि अन-अवशोषित लौह की वजह से आंतों में सूक्ष्मजीवी असंतुलन (gut microbiota imbalance) को भी जन्म दे सकता है।
भारत सरकार के खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण विभाग (Department of Food and Public Distribution) का एक अध्ययन भी बताता है कि कभी-कभी खाद्य पदार्थों में लौह का फोर्टिफिकेशन हीमोक्रोमेटोसिस (hemochromatosis) पीड़ित व्यक्तियों में लौह-अतिरेक पैदा कर सकता है। इसलिए लौह के अतिरिक्त सेवन की निगरानी किसी भी फोर्टिफिकेशन कार्यक्रम का अभिन्न अंग होना चाहिए। विभिन्न देशों में किए गए अध्ययन भी ऐसे ही परिणाम दर्शाते हैं।
वैसे, भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद की जिस समिति को स्वास्थ्य चेतावनी पर सलाह देने के लिए गठित किया गया था, उसका कहना है कि अन्य देशों में भी ऐसी चेतावनी नहीं होती और विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization, WHO) भी ऐसी किसी चेतावनी का समर्थन नहीं करता। लेकिन याचिका में स्पष्ट किया गया है कि अन्य देशों में भी उपयुक्त लेबल (labeling) लगाए जाते हैं ताकि मरीज़ सोच-समझकर निर्णय कर सकें। (स्रोत फीचर्स)
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2024 के लिए बुनियादी चिकित्सा अल्बर्ट लास्कर पुरस्कार (Albert Lasker Award) टेक्सास विश्वविद्यालय (University of Texas) के साउथवेस्टर्न मेडिकल सेंटर के ज़िजियान ‘जेम्स’ चेन को दिया गया है। चेन ने अपने प्रयोगों से इस बाबत बुनियादी समझ विकसित की है कि आसपास फैले रोगजनक (pathogens) के बीच हमारा शरीर सुरक्षित कैसे रहता है। इस समझ के औषधीय महत्व जो भी हों, लेकिन इसने प्रतिरक्षा (immune system) को समझने में बहुत मदद की है।
उन्होंने इस बात का खुलासा किया है कि आनुवंशिक पदार्थ डीऑक्सी रायबोन्यूक्लिक एसिड (DNA) प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया (immune response) और शोथ (inflammation) को कैसे उकसाता है। उन्होंने दर्शाया है कि cGAS एंजाइम (cGAS enzyme) उस क्रियाविधि का प्रमुख घटक होता है जिसका उपयोग स्तनधारी प्राणी सूक्ष्मजीवी घुसपैठियों से निपटने में करते हैं और यही एंज़ाइम ट्यूमर-रोधी प्रतिरक्षा (anti-tumor immunity) को भी बढ़ावा देता है। अलबत्ता, कभी-कभी cGAS की अनुपयुक्त सक्रियता स्व-प्रतिरक्षा एवं शोथ सम्बंधी समस्याओं को भी जन्म देती है।
डीएनए की विविध भूमिकाएं
वैसे तो पाठ्यपुस्तकों में बताया जाता है कि डीएनए (DNA) जेनेटिक सूचनाओं का वाहक होता है। लेकिन सच्चाई यह है कि यही डीएनए कई अन्य कार्यों को भी अंजाम देता है। सामान्यत: जंतुओं में डीएनए उनकी कोशिकाओं के केंद्रकों (nucleus) या माइटोकॉण्ड्रिया (mitochondria) में बंद होता है। जब डीएनए इन कोशिकांगों के बाहर – यानी कोशिका द्रव्य में – मिले तो वह एक चेतावनी होती है कि या तो कोई सूक्ष्मजीवी मेहमान (microbial invader) कोशिका में पहुंच गया है या दुर्दम (malignant) कोशिकाएं उपस्थित हैं या कोई अन्य रोग-सम्बंधी स्थिति बन रही है।
जैसे, 1908 में नोबेल विजेता इल्या मेक्निकोव ने कहा था कि डीएनए सूक्ष्मजीवों को दूर रखने के लिए ‘भक्षी कोशिकाओं’ (phagocytes) की रक्षात्मक फौज तैनात कर लेता है। लेकिन यह कोई नहीं जानता था कि यह काम होता कैसे है। इस कोशिकीय फौज में मूलत: जन्मजात (innate) प्रतिरक्षा तंत्र के घटक होते हैं। ये रोगजनक (pathogen) को देखते ही उसे निपटा देते हैं। साथ ही साथ ये अनुकूली प्रतिरक्षा तंत्र की बी कोशिकाएं (B cells) व टी कोशिकाएं (T cells) को सक्रिय कर देते हैं जो आगे की कार्रवाई करती हैं और जो कुछ देखती हैं उसे ‘याद’ रखती हैं।
2006 में शोधकर्ताओं ने दर्शाया कि यदि स्तनधारी कोशिकाओं के कोशिका द्रव्य में दोहरे सूत्र वाला यानी डबल स्ट्रेंडेड डीएनए (dsDNA) [double-stranded DNA] प्रविष्ट कराया जाए, तो उनमें जन्मजात प्रतिरक्षा तंत्र [innate immune system] के घटकों की मात्रा में खूब वृद्धि हो जाती है। इन अणुओं में टाइप-1 इंटरफेरॉन (जैसे इंटरफेरॉन-β) शामिल होते हैं।
इस खोज के साथ ही कोशिका द्रव्य में dsDNA की शिनाख्त करके टाइप-1 इंटरफेरॉन [type-1 interferon] का निर्माण शुरू करवाने वाले अणु की खोज शुरू हो गई। 2008 में अंततः दो शोधकर्ताओं ने स्वतंत्र रूप से इंटरफेरॉन उत्पादन मार्ग [interferon pathway] के एक प्रमुख अणु की खोज कर ली। इस प्रोटीन को स्टिम्यूलेटर ऑफ इंटरफेरॉन जीन्स (स्टिंग) [STING – Stimulator of Interferon Genes] नाम दिया गया। अगले ही वर्ष पता चला कि इस प्रक्रिया की शुरुआत डीएनए करवाता है। एक दिक्कत यह थी कि पूरी प्रक्रिया में महत्वपूर्ण होते हुए भी स्टिंग स्वयं dsDNA से नहीं जुड़ता।
इसके बाद शुरू हुई अत्यंत कल्पनाशील प्रयोगों की एक शृंखला – ज़िजियान ‘जेम्स’ चेन के नेतृत्व में। चेन ने इस काम में जो तरीका अपनाया उसकी खासियत थी कि वे संभावित ग्राही [receptor] की पहचान या गुणों को लेकर कोई मान्यता लेकर नहीं चले थे। वे तो सिर्फ एक ऐसे अणु की खोज में लगे थे जो वांछित कार्य – स्टिंग को सक्रिय करना [activating STING] – को अंजाम देता हो।
सबसे पहले तो उन्होंने कुछ चूहों की कोशिकाओं में स्टिंग को समाप्त कर दिया ताकि वे मात्र उसको सक्रिय करने वाले अणुओं को देख सकें, उसके बाद बनने वाले अणुओं को नहीं। dsDNA को इन स्टिंग-रहित कोशिकाओं [STING-deficient cells] में डाला गया और उसमें उपस्थित पदार्थों की जांच की। इस पदार्थ को उन्होंने अन्य कोशिकाओं में डाला और उनमें स्टिंग-सक्रियता [STING activation] का मापन किया। मापन के लिए उन्होंने एक ऐसे प्रोटीन की स्थिति को देखा जो स्टिंग के द्वारा निर्मित किया जाता है – IRF3 जो इंटरफेरॉन-β नियमनकर्ता है।
उन कोशिकाओं से प्राप्त पदार्थ ने IRF3 का निर्माण करवाया। इससे चेन व साथियों को समझ में आ गया कि वे जिस पदार्थ की खोज कर रहे हैं, वह स्टिंग-रहित कोशिकाओं [STING-deficient cells] से प्राप्त मिश्रण में मौजूद है। उन्होंने इस मिश्रण के घटकों को अलग-अलग किया। पृथक्करण से उन्हें मनचाहा रसायन मिल ही गया।
आगे विश्लेषण से इस पदार्थ की पहचान हो गई – यह सायक्लिक GMP-AMP (cGAMP) [cyclic GMP-AMP] किस्म का यौगिक था। इस तरह के अणु स्तनधारी कोशिकाओं में पहले कभी नहीं देखे गए थे। इस अणु में दो न्यूक्लिओटाइड [nucleotides] (गुआनोसीन मोनो फॉस्फेट – GMP और एडिनोसीन मोनो फॉस्फेट- AMP) आपस में एक वृत्त के रूप में जुड़ जाते हैं। चेन ने यह खोज 2012 में प्रकाशित की थी और बताया था कि cGAMP में स्टिंग को सक्रिय करने के लिए समुचित गुण होते हैं। इस अणु का एक संश्लेषित संस्करण संवर्धित स्तनधारी कोशिकाओं में इंटरफेरॉन-β के निर्माण को प्रेरित करता है। यह भी देखा गया कि cGAMP का उत्पादन तभी बढ़ता है जब स्तनधारी कोशिका में किसी डीएनए वायरस [DNA virus] का संक्रमण हुआ हो, जबकि आरएनए वायरस [RNA virus] संक्रमित कोशिकाओं में ऐसा नहीं होता। इन प्रयोगों के आधार पर चेन का निष्कर्ष था कि कोशिका द्रव्य में डीएनए की उपस्थिति से एक प्रक्रिया शुरू होती है – cGAMP प्रकट होता है जो स्टिंग को उकसाता है, स्टिंग IRF3 को टाइप-1 इंटरफेरॉन व सम्बंधित जीन्स को सक्रिय करने को धकेलता है।
इतना हो जाने के बाद चेन यह जानना चाहते थे कि वह कौन-सा एंज़ाइम है जो cGAMP का निर्माण करवाता है। इसके लिए उन्होंने ऐसी कोशिकाएं लीं जो डीएनए [DNA] के उकसावे पर cGAMP बनाती हों। इनका चूर्ण बनाकर उनके घटकों को अलग-अलग कर लिया। फिर हर नमूने का परीक्षण किया कि क्या वह डीएनए की उपस्थिति में cGAMP बनवा सकता है। ऐसा कई बार करने के बाद चेन को तीन ऐसे प्रोटीन मिले जिनकी मात्रा उन नमूनों में अधिक होती थी जिनमें एंज़ाइम की सक्रियता भी सबसे अधिक दिखती थी।
इन तीन प्रोटीन में से एक का अनुमानित अमीनो अम्ल अनुक्रम खास तौर से रोमांचक था। यह एक अन्य एंज़ाइम 2´-5´-ओलिगोएडिनायलेट सिंथेज़ से मिलता-जुलता था। यह एंज़ाइम सायक्लिक AMP [cyclic AMP] का निर्माण करवाता है। गौरतलब है कि सायक्लिक AMP एक संकेतक अणु है। चेन का तर्क था कि यह नया-नया खोजा गया प्रोटीन लगभग एडिनायलेट सायक्लेज़ [adenylate cyclase] के समान का काम करेगा; अंतर सिर्फ इतना होगा कि यह दो ATP को जोड़ने की बजाय एक GTP और एक ATP को जोड़कर cGAMP का निर्माण करवाएगा।
तब चेन ने इस प्रोटीन के लिए ज़िम्मेदार जीन पृथक किया जिसे उन्होंने नाम दिया है – GMP-AMP सिंथेज़ (cGAS) [GMP-AMP synthase]. वे यह भी दर्शा पाए कि cGAS का अति-उत्पादन उन कोशिकाओं में इंटरफेरॉन-β [interferon-beta] के निर्माण को प्रेरित करता है जिनमें स्टिंग [STING] उपस्थित हो। लेकिन स्टिंग न हो तो इसका कोई असर नहीं होता। यह भी देखा गया है कि इसके उन हिस्सों को बदल दिया जाए जो उत्प्रेरण के लिए महत्वपूर्ण हैं तो यह अपनी क्षमता गंवा देता है।
तरह-तरह से चेन ने दर्शाया है कि मानव तथा चूहा कोशिकाओं के कोशिका द्रव्य में डीएनए या वायरल डीएनए [viral DNA] से संपर्क होने पर cGAMP के निर्माण तथा इंटरफेरॉन-β को उकसाने के लिए cGAS की उपस्थिति अनिवार्य है। वे यह भी पता लगा पाए हैं कि cGAS डीएनए से जुड़ जाता है और आगे की क्रियाएं संपन्न करवाता है।
कोशिका द्रव्य में डीएनए कई स्रोतों से आ सकता है। जैसे किसी सूक्ष्मजीव [microorganism] के साथ या केंद्रक अथवा माइटोकॉण्ड्रिया [mitochondria] में से रिसाव के कारण। कोशिका द्रव्य में उपस्थित डीएनए cGAS से जुड़ जाता है और cGAMP का उत्पादन शुरू करवा देता है। यह cGAMP स्टिंग के ज़रिए TANK-बाइंडिंग काइनेज़ (TBK1) तथा IκB काइनेज़ नामक एंज़ाइमों को सक्रिय कर देता है। इसके बाद दो अन्य एंज़ाइम सक्रिय हो जाते हैं और दोनों केंद्रक में पहुंचकर शोथ को बढ़ावा देने वाले जीन्स को सक्रिय कर देते हैं। इनमें टाइप-1 इंटरफेरॉन [type-1 interferon] का जीन भी होता है जो जन्मजात प्रतिरक्षा प्रणाली [innate immune system] को उकसाता है। यह प्रतिक्रिया रोगजनक सूक्ष्मजीवों [pathogens] से तो बचाव करती है लेकिन कुछ मामलों में स्व-प्रतिरक्षा तकलीफों और शोथ सम्बंधी गड़बड़ियों का भी कारण बन सकती है।
चेन के इस काम ने एक नया अनुसंधान क्षेत्र खोल दिया। कुछ ही महीनों में चेन व अन्य वैज्ञानिकों ने cGAS की संरचना का खुलासा किया और यह भी पता कर लिया कि डीएनए उसे सक्रिय कैसे करता है। यह भी स्पष्ट हुआ कि cGAMP कैसे स्टिंग को सक्रिय कर देता है।
अपने काम को आगे बढ़ाते हुए चेन ने यह भी स्पष्ट किया कि cGAS→cGAMP→STING क्रियामार्ग सिर्फ डीएनए वायरसों [DNA viruses] को ही नहीं ताड़ता बल्कि एच.आई.वी. [HIV] जैसे रिट्रोवायरसों को भी ताड़ लेता है। रिट्रोवायरसों की जेनेटिक सामग्री डीएनए [DNA] के रूप में नहीं बल्कि आरएनए [RNA] के रूप में होती है। मेज़बान कोशिका में प्रवेश के बाद वायरस के आरएनए को डीएनए में बदला जाता है। वैसे तो ये रिट्रोवायरस जन्मजात प्रतिरक्षा तंत्र को चकमा देने के लिए बदनाम हैं लेकिन कुछ फेरबदल एच.आई.वी. को इस तरह बदल सकते हैं कि वह टाइप-1 इंटरफेरॉन [type-1 interferon] व अन्य सम्बंधित अणुओं की हलचल पैदा कर सकता है। इनमें एक तरीका यह है कि वायरस के आवरण (कैप्सिड) को कमज़ोर बना दिया जाए। चेन ने दर्शाया कि कतिपय परिस्थितियों में cGAS एच.आई.वी. व अन्य रिट्रोवायरसों को भी ताड़ सकता है। इससे यह आशा पैदा हुई है कि cGAMP के उपयोग से एच.आई.वी. द्वारा प्रतिरक्षा तंत्र को चकमा देने की समस्या से बचाव संभव होगा।
चेन ने इन प्रयोगों को परखनलियों के अलावा वास्तविक जंतुओं में भी करके देखा। पता चला कि डीएनए वायरस [DNA viruses] से संक्रमित करने पर cGAS-रहित कृंतकों में इंटरफेरॉन [interferon] आधारित प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया निहायत कमज़ोर रही और अधिकांश मारे गए जबकि जिन चूहों में cGAS सामान्य मात्रा में था, उनकी प्रतिरक्षा अधिक सुदृढ़ रही। cGAMP इंजेक्शन [cGAMP injection] ने भी अच्छा असर दिखाया। इसका अर्थ है कि यह अणु एंटीबॉडी [antibodies] और टी-कोशिका प्रतिक्रिया [T-cell response] को सुदृढ़ करता है।
धीरे-धीरे स्पष्ट हुआ है कि cGAS जंतुओं में डीएनए वायरस को ताड़कर जन्मजात प्रतिरक्षा को शुरू करवाता है। इस समझ के आधार पर न सिर्फ सूक्ष्मजीवी संक्रमण [microbial infections] के खिलाफ लड़ाई के रास्ते खुले हैं बल्कि कैंसर से रक्षा [cancer protection] की आशा भी जगी है।
शोथ को बढ़ावा
यह सही है कि जन्मजात प्रतिरक्षा तंत्र [innate immune system] घुसपैठियों से निपटकर फायदा पहुंचाती है लेकिन इसका एक नकारात्मक पक्ष तब सामने आता है जब शरीर स्वयं पर आक्रमण करने लगता है। वैज्ञानिकों का अनुमान था कि इसका कारण एक एंज़ाइम Trex1 में गड़बड़ी से है। यह एंज़ाइम कोशिका द्रव्य में पाए गए डीएनए को नष्ट कर देता है। इन्हें स्व-प्रतिरक्षी रोग [autoimmune diseases] कहते हैं। इन रोगों में इंटरफेरॉन-प्रेरित जीन्स [interferon-induced genes] की अति सक्रियता देखी गई है।
इन अध्ययनों से पता चलता था कि कोशिका द्रव्य में पाए गए डीएनए को नष्ट करने में असमर्थता इंटरफेरॉन क्रियामार्ग [interferon pathway] को सक्रिय कर देती है। जिन चूहों में Trex1 जीन नहीं होता उनमें इंटरफेरॉन-प्रेरित जीन अति-उत्तेजित हो जाता है और वे गंभीर शोथ के कारण जल्दी मर जाते हैं।
इस मामले में चेन ने 2015 में दर्शाया कि Trex1 विहीन चूहों में cGAS एंज़ाइम को हटा देने पर Trex1 की अनुपस्थिति के जानलेवा असर समाप्त हो जाते हैं। इससे स्पष्ट हुआ कि Trex1 की अनुपस्थिति में cGAS एंज़ाइम ही जानलेवा असर का पैदा करता है और यदि cGAS को रोक दिया जाए तो कुछ स्व-प्रतिरक्षा रोगों से बचाव हो सकता है।
स्व-प्रतिरक्षा तकलीफों के अलावा cGAS को शोथ सम्बंधी बीमारियों [inflammatory diseases] में भी लिप्त पाया गया है। इनमें उम्र के साथ आंखों में मैक्यूलर ह्रास [macular degeneration], पार्किंसन [Parkinson’s], अल्ज़ाइमर [Alzheimer’s], और एमायोट्रॉफिक लेटरल स्क्लेरोसिस (ALS) जैसे रोग शामिल हैं। लिहाज़ा, cGAS→cGAMP→STING क्रियामार्ग को बाधित करके संभवत: इन रोगों पर काबू पाया जा सकेगा।
इन संभावनाओं के मद्देनज़र कई दवा कंपनियां cGAS को बाधित करने के लिए दवाइयों की खोज में जुट गई हैं। लेकिन इस पक्ष पर भी ध्यान देना ज़रूरी है कि cGAS ही प्रतिरक्षा की प्रथम पंक्ति को तैनात करवाता है एवं ट्यूमर-रोधी प्रतिरक्षा [tumor immunity] में भी योगदान देता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.pnas.org/cms/10.1073/pnas.2415810121/asset/ee6cd1ce-017e-431b-93dd-457bc37f3ef5/assets/images/large/pnas.2415810121unfig01.jpg
अपने सुंदर समुद्र तटों के लिए लोकप्रिय भूमध्य सागर (Mediterranean Sea) लगभग 60 लाख वर्ष पूर्व पूरी तरह से सूख गया था। ‘भूमध्यसागर लवणीयता संकट’ (Mediterranean salinity crisis) के रूप मशहूर इस घटना ने इस क्षेत्र में लगभग सभी समुद्री जीवन (marine life) को मिटा दिया और नमक की एक मोटी परत छोड़ दी। इसके परिणामस्वरूप क्षेत्र की जैव विविधता (biodiversity) गंभीर रूप से प्रभावित हुई।
इस घटना के साक्ष्य पहली बार 1970 के दशक में उजागर हुए जब भूवैज्ञानिकों (geologists) ने समुद्र तल की खुदाई में बड़े पैमाने पर नमक जमा पाया। विशेषज्ञों के अनुसार, 60 लाख वर्ष पूर्व पृथ्वी की महाद्वीपीय प्लेटें खिसकने के कारण भूमध्य सागर अटलांटिक महासागर (Atlantic Ocean) से अलग हो गया, जिसके बाद लगभग 6 लाख वर्षों में समुद्र सूख गया। नतीजतन, कोरल रीफ (coral reef) और मछली प्रजातियों से संपन्न पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem) लगभग नमक का बंजर रेगिस्तान बन गया। इस संकट ने समुद्री जीवन को काफी प्रभावित किया, भूमध्य सागर की जैव विविधता को हमेशा के लिए बदल डाला।
भूविज्ञानी कॉन्स्टेन्टिना अगियादी और उनकी टीम द्वारा हाल ही में किए गए अध्ययन ने इस विलुप्ति की घटना और उसके बाद की बहाली के बारे में नई जानकारी प्रदान की है। उन्होंने संग्रहालयों में उपलब्ध 1.2 करोड़ से 35 लाख वर्ष पुराने 23,000 से अधिक जीवाश्मों (fossils) का विश्लेषण किया, जिससे 1755 वंशों (genera) की 4903 प्रजातियों का पता चला जो कभी भूमध्य सागर में निवास करती थीं। इस शोध से एक गंभीर तस्वीर सामने आई है: जीवंत कोरल रीफ सहित लगभग 800 प्रजातियां (species) पूरी तरह से विलुप्त हो गईं। केवल सार्डीन और मैनेटिज़ (sardines and manatees) जैसी समुद्री स्तनधारियों (marine mammals) की केवल 86 प्रजातियां इस आपदा से बच पाईं।
लगभग 50,000 वर्षों के बाद, टेक्टोनिक प्लेटों (tectonic plates) के विचरण ने भूमध्य सागर को अटलांटिक से फिर से जोड़ दिया और समुद्र का पानी सूखे हुए बेसिन में वापस बहने लगा। लगभग 2700 प्रजातियां इस क्षेत्र में पुनः आबाद हो गईं। हालांकि, वे सभी प्रजातियां वापस नहीं पनप सकीं जो पहले यहां रहा करती थीं। आजकल की प्रजातियों में नई प्रजातियां अधिक हैं, जैसे ग्रेट व्हाइट शार्क (great white shark), डॉल्फिन (dolphin) वगैरह।
इस घटना ने जैव विविधता पैटर्न (biodiversity patterns) में भी दीर्घकालिक बदलाव किया। इस संकट से पहले, भूमध्य सागर के पूर्वी भाग में (आधुनिक लेबनान के पास) जैव विविधता सबसे अधिक थी। लेकिन पानी फिर से भर जाने के बाद जैव विविधता का केंद्र पश्चिमी छोर बन गया, जो आज भी कायम है। जैव विविधता के केंद्र में परिवर्तन के कारण अभी स्पष्ट नहीं हैं।
बहरहाल, यह संकट एक केस स्टडी है जिससे यह समझा जा सकता है कि कैसे पारिस्थितिकी तंत्र चरम पर्यावरणीय परिवर्तनों (extreme environmental changes) के बाद ढहते और बहाल होते हैं। उम्मीद है कि यह अध्ययन दुनिया भर के ऐसे क्षेत्रों पर और अधिक अध्ययनों को प्रेरित करेगा। विशेष रूप से मध्य यूरोप और मेक्सिको की खाड़ी (Gulf of Mexico) में यह समझने में मदद मिलेगी कि पिछले पर्यावरणीय बदलावों ने वैश्विक स्तर पर जैव विविधता को कैसे प्रभावित किया था। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.zklyp9i/full/_20240924_nid_salinity-1727287207300.jpg
वैसे तो इस बात पर आम सहमति है कि ग्लोबल वार्मिंग (global warming) से निपटने के लिए कार्बन डाईऑक्साइड (carbon dioxide) का उत्सर्जन कम करना सर्वोत्तम तरीका है, लेकिन कई लोग मानते हैं कि सिर्फ उत्सर्जन कम करने से बात नहीं बनेगी। कार्बन डाईऑक्साइड को वायुमंडल (atmosphere) से हटाकर भंडारित करना भी ज़रूरी होगा।
इसी सिलसिले में कनाडा में 3775 साल पुराने संरक्षित लाल देवदार (red cedar) के लट्ठे की खोज ने जलवायु परिवर्तन (climate change) से निपटने के एक नए तरीके में रुचि उत्पन्न की है: लकड़ी की तिज़ोरियां (wood vaults)। इस तकनीक में लकड़ी को इस तरह दफनाया जाता है कि वह सड़कर वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड न छोड़े। गौरतलब है कि कार्बन डाईऑक्साइड ग्लोबल वार्मिंग में एक प्रमुख योगदानकर्ता है।
यह विचार मैरीलैंड विश्वविद्यालय (University of Maryland) के जलवायु वैज्ञानिक निंग ज़ेंग (Ning Zeng) का है, जिनके अनुसार मिट्टी की परतों (soil layers) के नीचे दबा हुआ यह प्राचीन लट्ठा दर्शाता है कि कैसे लकड़ी को कम ऑक्सीजन (low oxygen) वाले वातावरण में रखा जाए तो उसका कार्बन अक्षुण्ण रहता है। ज़मीन के ऊपर पड़ी लकड़ियां जल्दी से सड़ जाती हैं, और कार्बन डाईऑक्साइड मुक्त होती है। लेकिन जब उसी लकड़ी को मिट्टी या कीचड़ के नीचे दफनाया जाता है, जहां ऑक्सीजन उपलब्ध नहीं होती, तो वह बहुत धीरे-धीरे विघटित होती है और कार्बन सदियों तक कैद रहता है।
ज़ेंग और उनके सहयोगियों का अनुमान है कि दुनिया भर में एक-दो बार इस्तेमाल की जा चुकी लकड़ी के 4.5 प्रतिशत बायोमास (biomass) को इस तरह दफनाने से वायुमंडल से सालाना 10 गीगाटन (gigaton) तक कार्बन डाईऑक्साइड को हटाया जा सकता है।
अलबत्ता, इस उपाय की प्रभाविता पर कुछ विशेषज्ञों को चिंता है। इस रणनीति की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि दबी हुई लकड़ी में कार्बन सदियों तक कैद रहता है या नहीं। अब तक, समुद्री मिट्टी (marine soil) के नीचे क्यूबेक लॉग का संरक्षण वैज्ञानिकों को उम्मीद देता है कि इसी तरह के परिणाम बड़े पैमाने पर प्राप्त किए जा सकते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या अन्य किस्म की मिट्टियां भी ऐसी सुरक्षात्मक परिस्थितियां प्रदान कर सकती हैं।
एक चिंता यह है कि कहीं यह तकनीक जंगलों को काटने की प्रेरणा न बन जाए, क्योंकि वह जैव विविधता (biodiversity) के लिए खतरे की घंटी होगी। एक और चुनौती पेड़ों को दफनाने की व्यावहारिकता और अर्थशास्त्र (economics) है। लकड़ी का उपयोग निर्माण कार्य, कागज़ और फर्नीचर (construction, paper, furniture) बनाने में किया जाता है, और इसे दफनाने से वनों की कटाई और जैव विविधता के नुकसान सम्बंधित चिंताएं बढ़ सकती हैं। हालांकि, ज़ेंग का सुझाव है कि इन जोखिमों से बचने के लिए केवल बेकार लकड़ी को दफनाया जा सकता है। ज़ेंग के अनुसार, बेकार लकड़ी के ढेर आग का खतरा भी बन सकते हैं, इसलिए उन्हें दफनाने से कई लाभ मिलेंगे।
अभी के लिए, काष्ठ तिज़ोरियां जलवायु परिवर्तन के खिलाफ व्यापक लड़ाई में एक आशाजनक रणनीति दिख रही हैं। यद्यपि पर्यावरण सम्बंधी चिताओं के मद्देनज़र इस पर और शोध की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.zgs228d/full/_20240926_on_carbon_burial_lede-1727373612393.jpg