कोस्टा रिका और पनामा के वर्षा वनों में वॉटर एनोल (Anolis aquaticus) नामक एक छोटी, अर्ध-जलीय छिपकली में जान बचाने के लिए अनोखी रणनीति विकसित हुई है। यह पानी के अंदर हवा के बुलबुले (air bubbles) बनाकर उन्हें ऑक्सीजन टैंक (oxygen tank) की तरह इस्तेमाल करती है। इस तकनीक से छिपकली लंबे समय तक पानी में छिपकर पक्षियों और सांप (predators like birds and snakes) जैसे शिकारियों से स्वयं को सुरक्षित रखती है।
गौरतलब है कि वैज्ञानिक लंबे समय से इन छिपकलियों को हवा के बुलबुले बनाते हुए देखते आए हैं। बुलबुले पानी में गोता लगाने के दौरान छिपकलियों के नथुने से चिपके रहते हैं, इन बुलबुलों की हवा का उपयोग कर वे लगभग 16 मिनट तक पानी के नीचे रह सकती हैं। यह समय किसी भी अन्य छिपकली की तुलना में अधिक है। लेकिन शोधकर्ताओं को यह स्पष्ट नहीं था कि ये बुलबुले वास्तव में उन्हें पानी में लंबे समय तक गोता लगाने में मदद करते हैं या यह एक संयोग मात्र है।
इसे समझने के लिए जीवविज्ञानियों (biologists) ने प्राकृतिक स्थिति में रह रही कुछ वाॉटर एनोल के थूथन पर मॉइश्चराइज़र (moisturizer) लगाया ताकि उन्हें बुलबुले बनाने से रोका जा सके और फिर यह देखा कि छिपकलियां कितने समय तक पानी में डूबी रह सकती हैं। बुलबुले बनाने वाली छिपकलियां, बुलबुले न बनाने वाली छिपकलियों की तुलना में एक मिनट से ज़्यादा समय तक पानी के नीचे रहीं। शोधकर्ताओं के अनुसार गोता लगाने के समय (dive time) को बढ़ाने की क्षमता उनके अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण हो सकती है, क्योंकि यह उन्हें शिकारियों से छिपने के समय में बढ़त देती है।
इस अध्ययन से कुछ नए सवाल भी उठते हैं। जैसे ये बुलबुले कैसे काम कर रहे होंगे। शोधकर्ता फिलहाल यह देखना चाहते हैं कि क्या बुलबुले आसपास के पानी के साथ गैस का आदान-प्रदान (gas exchange) भी करते हैं। यदि छिपकलियां अतिरिक्त ऑक्सीजन लेकर कार्बन डाईऑक्साइड बाहर निकालती हैं तो यह बुलबुला और भी अधिक कुशल हो सकता है।
अपनी अनोखी रणनीति से परे, जल एनोल मानव प्रौद्योगिकी के लिए प्रेरणा हो सकते हैं। इन छिपकलियों तथा कीटों (aquatic insects) जैसे अन्य जलीय जीवों द्वारा बुलबुले का उपयोग करने के तरीके का अध्ययन करके, इंजीनियर (engineers) ऐसी नई सामग्री विकसित कर सकते हैं जो पानी के नीचे हवा को कैद करके रख सकती है, साफ रह सकती है या तरल पदार्थों में अधिक आसानी से घूम सकती है। (स्रोत फीचर्स)
छिपकली को बुलबुला बनाते हुए देखने के लिए लिंक – https://www.science.org/content/article/these-lizards-blow-bubbles-underwater-and-use-them-scuba-tanks)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://c02.purpledshub.com/uploads/sites/62/2024/09/Water-anole.jpg?w=1029&webp=1
कई दशकों से वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन (climate change) और उसके प्रभावों (climate change impacts) की चेतावनी देते आए हैं। ये प्रभाव अब हर जगह दिखने लगे हैं। पिछले कुछ वर्षों में समुद्र स्तर (sea level rise) में हो रही वृद्धि और भीषण गर्मी (extreme heat) ने मानव जीवन और पर्यावरण को बुरी तरह प्रभावित किया है। पृथ्वी का तापमान बढ़ने के साथ समुद्र तल में वृद्धि हो रही है और तटीय क्षेत्रों में बाढ़ (flood risk) और कटाव का खतरा बढ़ता जा रहा है। दूसरी ओर शहरों में अत्यधिक गर्मी (urban heat) जानलेवा साबित हो रही है। इससे निपटने का सबसे उचित तरीका तो कार्बन उत्सर्जन (carbon emissions) को सीमित करना और अपनी खपत को कम करना है लेकिन इसके साथ ही बदलती जलवायु के प्रति अनुकूलन (climate adaptation) भी महत्वपूर्ण है।
इसके लिए, नए-नए तरीकों और नवाचारों (innovation in climate adaptation) पर काम किया जा रहा है। बढ़ते समुद्र स्तर से निपटने के लिए तैरते शहरों (floating cities) और उभयचर घरों (amphibious homes) जैसी अवधारणाएं प्रस्तुत की गई हैं, वहीं भीषण गर्मी से राहत के लिए सुपरकूल सामग्री (supercooling materials) और कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए नई एयर कंडीशनिंग तकनीकें (energy-efficient air conditioning) विकसित की जा रही हैं। इन उपायों का उद्देश्य उन्नत तकनीकों की मदद से आबादी को बाढ़ और अत्यधिक गर्मी जैसे खतरों से सुरक्षित करना है। आइए ऐसे कुछ नवाचारों और समाधानों पर चर्चा करें।
तटों की सुरक्षा और जलवायु अनुकूलन
वैज्ञानिक गणनाओं के अनुसार वर्तमान उत्सर्जन की स्थिति में वर्ष 2100 तक समुद्र स्तर में एक मीटर से भी अधिक की वृद्धि (sea level rise prediction) हो सकती है, जिससे निचले तटीय क्षेत्रों की आबादी प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होगी। इस समस्या से निपटने के लिए ‘क्लायमेटोपिया’ (Climatopia concept) का विचार काफी प्रासंगिक हो गया है। क्लायमेटोपिया शब्द दरअसल युटोपिया का रूपांतरण है जिसका मतलब होता है सबके लिए आदर्श कल्पनालोक। इन बस्तियों की कल्पना विशेष रूप से उन क्षेत्रों के लिए की जा रही है, जो कुछ वर्षों में जलमग्न हो सकते हैं। उच्च तकनीकी परियोजनाओं के जरिए इन बस्तियों में बाढ़ के प्रभावों को कम करने और ऊर्जा दक्षता (energy efficiency) बढ़ाने के उपाय के रूप में देखा जा रहा है।
ऐसे विचारों में पानी पर आवास (water-based housing) या तैरते घर (floating homes), गेड़ियों (स्टिल्ट्स) पर बने घर और उभयचर आवास शामिल हैं। देखा जाए तो इनमें से कोई भी विचार नया नहीं है। जैसे पूर्व में पेरू की टिटिकाका झील में कृत्रिम द्वीप (artificial islands) और वियतनाम तथा नाइजीरिया में स्टिल्ट हाउस (stilt houses) बनाए गए हैं। उत्तर-पूर्वी भारत में ऐसे घर बहुतायत में बनते हैं। तैरते घरों के रूप में डल झील के शिकारे तो मशहूर हैं ही। एम्स्टर्डम के आइबर्ग क्षेत्र में उभयचर घरों की परियोजना काफी सफल रही है। फर्क इतना है कि आधुनिक क्लायमेटोपिया उच्च तकनीक वाले शहरों के रूप में उभर रहे हैं, जिनमें सौर पैनल (solar panels), स्वास्थ्य सेवाएं (health services), स्कूल और अन्य सुविधाएं शामिल हैं। हालांकि, इन डिज़ाइनों में भी चुनौतियां मौजूद हैं, और इन्हें लागू करते समय स्थानीय परिस्थितियों को ध्यान में रखना होगा।
क्लायमेटोपिया को तीन मुख्य श्रेणियों में बांटा गया है:
1. पुनर्निर्मित भूमि (reclaimed land): तटीय क्षेत्रों में रेत और मिट्टी जमा करके नई भूमि बनाई जाती है। चीन में ओशियन फ्लावर आइलैंड (Ocean Flower Island) इसका एक उदाहरण है, लेकिन आवश्यक निवेश आकर्षित करने के बावजूद इस प्रकार की परियोजनाएं पर्यावरणीय प्रभाव (environmental impact) और स्थानीय समुदायों पर संभावित व्यवधान (local community disruption) के कारण विवादास्पद हो सकती हैं।
2. उभयचर घर (amphibious homes): ये घर ज़मीन पर टिके होते हैं, लेकिन जल स्तर बढ़ने पर तैर सकते हैं। हालांकि, इसका एक नकारात्मक पहलू यह है कि ऐसी परियोजनाएं लोगों को उच्च जोखिम वाले बाढ़ क्षेत्रों (flood-prone areas) में रहने के लिए प्रोत्साहित करेंगी।
3. तैरते शहर (floating cities): ये शहर पूरी तरह से समुद्र या लैगून पर स्थित होते हैं और इन्हें इंटरलॉकिंग मॉड्यूलर प्रणाली (modular interlocking system) के साथ डिज़ाइन किया जाता है। मालदीव में 20,000 लोगों के निवास के लिए डिज़ाइन की गई फ्लोटिंग सिटी इसका एक उदाहरण है, लेकिन बड़े तूफानों (storm resilience) की स्थिति में इन शहरों की दीर्घकालिक स्थिरता पर सवाल उठते हैं।
चुनौतियां
क्लायमेटोपिया परियोजनाओं की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वे कितनी प्रभावी और सुरक्षित (effective and safe urban design) हैं। पुनर्निर्मित द्वीप (reclaimed islands) सबसे महंगे होते हैं और इनके निर्माण में समय भी अधिक लगता है। वहीं, उभयचर घरों की लागत अपेक्षाकृत कम होती है और वे आवश्यक सेवाओं तक आसान पहुंच प्रदान करते हैं। लेकिन समुद्री तूफानों और सुनामी (tsunamis) जैसी आपदाओं के दौरान इन डिज़ाइनों की स्थिरता पर संदेह बना रहता है। इसलिए सरकारों और योजनाकारों को इन परियोजनाओं की दीर्घकालिक व्यवहार्यता (long-term sustainability) का मूल्यांकन करना होगा।
इसके अलावा, इनके निर्माण से समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र पर गहरा असर पड़ सकता है तथा भारी मात्रा में सामग्रियों के निष्कर्षण और परिवहन से कार्बन उत्सर्जन (carbon emissions) होता है। पुनर्निर्मित द्वीप जैव विविधता (biodiversity loss) को नुकसान पहुंचा सकते हैं, जबकि तैरते शहर मौसम के पैटर्न (climate change) को बदल सकते हैं और समुद्री जीवों को प्रभावित कर सकते हैं। इन प्रभावों को कम करने के लिए सरकारों और शोधकर्ताओं को सतत विकास (sustainable development) प्रक्रियाओं का पालन करना और पारिस्थितिकीय आकलन को प्राथमिकता देनी होगी।
इन परियोजनाओं के सामाजिक और आर्थिक प्रभावों पर भी ध्यान देना आवश्यक है। उदाहरण के लिए, क्लायमेटोपिया जैसी परियोजनाएं मुख्यतः अमीर लोगों को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं, जिससे गरीब समुदायों के लिए इनका लाभ सीमित हो जाता है। इसके अतिरिक्त, इन परियोजनाओं के चलते पारंपरिक मछली पकड़ने और अन्य स्थानीय गतिविधियों पर भी नकारात्मक असर पड़ सकता है। इसलिए, इन नवाचारों को सफल और न्यायसंगत बनाने के लिए सरकारों को सामाजिक न्याय (social justice) को प्राथमिकता देते हुए किफायती आवास (affordable housing) और जीवन-यापन के साधनों को भी इन परियोजनाओं का हिस्सा बनाना चाहिए।
गर्मी से निपटना
वैश्विक तापमान (global warming) में वृद्धि के कारण शहरों में अत्यधिक गर्मी महसूस की जा रही है, जिससे पानी की कमी (water scarcity), फसलों को नुकसान, और स्वास्थ्य समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। इस समस्या का समाधान करने के लिए, वैज्ञानिक नए-नए तरीकों पर काम कर रहे हैं जो बिजली की कम से कम खपत (energy efficiency) के साथ ठंडक प्रदान कर सकते हैं। इसमें अधिक कुशल एयर कंडीशनर (air conditioning) और विशेष सामग्री शामिल हैं जो बिना बिजली का उपयोग किए सतहों को ठंडा रख सकती हैं।
शीतलकों में परिवर्तन पारंपरिक एयर कंडीशनर (traditional air conditioner) इमारत के अंदर से गर्मी को बाहर की ओर ले जाने के लिए एक गैसीय पदार्थ को संपीड़ित करते हैं। इस प्रक्रिया में बहुत अधिक ऊर्जा का उपयोग तो होता ही है, ग्रीनहाउस गैसों (greenhouse gases) का भी उत्सर्जन होता है। इन्हें ऊर्जा-कुशल (energy efficient) बनाने के लिए, शोधकर्ता एक नई तकनीक ‘इलेक्ट्रोकैलोरिक’ कूलिंग (electrocaloric cooling) पर काम कर रहे हैं। इस प्रक्रिया में, कुछ विशेष सिरेमिक सामग्री (ceramic material) का उपयोग किया जाता है। इन सामग्रियों में विद्युत क्षेत्र आरोपित करने पर पदार्थ का तापमान बढ़ जाता है। इसके बाद एक द्रव की मदद से उस गर्मी को बाहर ले जाया जाता है ताकि सिरेमिक पदार्थ का तापमान कम हो जाए यह एक ऐसा परिवर्तन है जिसका उपयोग शीतलन उद्देश्यों (cooling purposes) के लिए किया जा सकता है।
सुपरकूल सामग्री सुपरकूल सामग्री दरअसल बिजली का उपयोग किए बिना सतहों को ठंडा रखती है। वैसे तो अधिकांश सामग्री सूर्य की रोशनी (sunlight reflection) को परावर्तित करती हैं और इंफ्रारेड विकिरण (infrared radiation) का उत्सर्जन करती हैं। लेकिन सूपरकूल सामग्री ये दोनों ही कार्य अत्यंत कुशलता से करती हैं। आम तौर पर हर सतह इंफ्रारेड तरंगें उत्सर्जित करती है जिन्हें वातावरण में मौजूद कार्बन डाईऑक्साइड (carbon dioxide) और जलवाष्प वगैरह सोख लेते हैं और वातावरण गर्म हो जाता है। सुपरकूल पदार्थ भी ऐसा ही करते हैं लेकिन वे जो इंफ्रारेड तरंगें छोड़ते हैं उनकी तरंग लंबाई उस परास में होती है जिन्हें वायुमंडल में सोखा नहीं जाता और वे अंतरिक्ष (space) में चली जाती हैं। लिहाज़ा वातावरण ठंडा रहता है। यह तकनीक शहरों में हवा के तापमान (urban temperature) को कम करने में भी मदद कर सकती है, जिससे शहरी क्षेत्र अधिक आरामदायक और एयर कंडीशनिंग पर कम निर्भर हो सकते हैं।
गौरतलब है कि पिछले कई वर्षों से वैज्ञानिक प्लास्टिक, धातुओं से लेकर पेंट और यहां तक कि लकड़ी को सुपरकूल सामग्री (supercool material) के रूप में विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन हाल ही में सैल्मन मछली के शुक्राणुओं के डीएनए और जिलेटिन से बना एक सुपरकूल एरोजेल (supercool aerogel) तैयार किया गया है जो हवा के तापमान की तुलना में सतहों को 16 डिग्री सेल्सियस तक ठंडा रख सकता है। इस सामग्री को तैयार करने में बायोडिग्रेडेबल सामग्री (biodegradable material) का उपयोग किया गया है इसलिए यह पर्यावरण के अनुकूल (eco-friendly) भी है।
इमारतों की ठंडी सतह
सतहों को ठंडा रखने के लिए वैज्ञानिक सुपरकूल सामग्री से आगे बढ़कर कूल सामग्री (cool material) पर प्रयोग कर रहे हैं। ‘कूल सामग्री’ का उत्पादन आसान है और ये प्रभावी भी हैं। इन्हें भारी मात्रा में सूर्य के प्रकाश को परावर्तित (reflect sunlight) करने के लिए डिज़ाइन किया गया है। सुपरकूल सामग्रियों के विपरीत, कूल सामग्री को अत्यधिक परावर्तक (highly reflective) होना चाहिए, किसी विशिष्ट तरंग लंबाई का उत्सर्जन करने की चिंता नहीं की जाती है।
शोधकर्ता इमारतों की खड़ी सतहों (भवनों के अग्रभाग) (building facades) के लिए ऐसी सामग्री विकसित कर रहे हैं। यह एक मुश्किल काम है क्योंकि खड़ी सतहें आकाश और ज़मीन दोनों की ओर उन्मुख होती हैं। इस वजह से ये गर्मियों में धरती से निकलने वाली गर्मी को सोख लेती हैं और ठंड में गर्मी को आकाश में बिखेर देती हैं। इसका समाधान भौतिक संरचना में मिला है। एक विशेष कोटिंग गर्मियों में आकाश की ओर गर्मी को बिखेरकर दीवारों को ठंडा कर सकती है, जबकि सर्दियों में यह धरती की ओर कम गर्मी बिखेरती है।
एक अन्य तरीका है इमारत की दीवारों के विशिष्ट हिस्सों पर सुपरकूल पेंट (supercool paint) का उपयोग करना है। इसमें खड़ी सतह को लहरदार बनाया जाता है। इस लहरदार (यानी कोरुगेटेड) सतह के आकाश की ओर उन्मुख हिस्सों पर परावर्तक पेंट (reflective paint) लगाया जाता है। जमीन की ओर उन्मुख सतहों पर ऐसी धातु का लेप किया जाता है जो गर्मी को कम सोखे। इस संयोजन से दीवार आसपास की हवा की तुलना में 2-3 डिग्री सेल्सियस ठंडी रही।
इसके अलावा, धरती को ठंडा रखने के तरीकों पर भी विचार किया गया है। एक प्रयोग में, शोधकर्ताओं ने एरिज़ोना में शॉपिंग सेंटर की पार्किंग में एक परावर्तक ‘ठंडा फुटपाथ’ (cool pavement) बनाया। यह हल्के रंग का फुटपाथ आसपास के गहरे रंग के फुटपाथ से 8 डिग्री सेल्सियस ठंडा था, और इसके ऊपर की हवा लगभग 1 डिग्री सेल्सियस ठंडी थी।
आकार बदलने वाली सामग्री
ऑस्ट्रेलिया में, इंजीनियर प्रावस्था-बदल स्याही (‘फेज-चेंजिंग इंक’ / phase-changing ink) विकसित कर रहे हैं, जिसे तापमान के आधार पर इमारतों को ठंडा या गर्म रखने के लिए उपयोग किया जा सकता है। इस स्याही में नैनोकण (nanoparticles) होते हैं जो तापमान के साथ प्रावस्था बदलते हैं। ऊंचे तापमान पर इन कणों का संयोजन धातु की तरह व्यवहार करता है और गर्मी को परावर्तित (reflect heat) करता है। कम तापमान पर इनका संयोजन एक सुपरकंडक्टर की तरह व्यवहार करता है और गर्मी अपने अंदर आने देता है।
प्रयोगशाला से बाज़ार तक
हालांकि ये प्रौद्योगिकियां (technologies) काफी आशाजनक हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश विकास के शुरुआती चरणों (early stages) में हैं। कुछ का परीक्षण केवल प्रयोगशालाओं या छोटे पैमाने पर किया गया है, इसलिए उनकी उपयोगिता को समझने के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता है।
यह भी सवाल है कि ये प्रौद्योगिकियां अलग-अलग जलवायु (different climates) में कितनी अच्छी तरह काम करेंगी। उदाहरण के लिए, सुपरकूल सामग्री आर्द्र या बादल वाले वातावरण (humid environments) में कम प्रभावी हो सकती है, जहां वातावरण अधिक गर्मी को कैद करता है। इन चुनौतियों के बावजूद, शोधकर्ता आशावादी हैं। भले ही ये सामग्री हवा को अपेक्षा के अनुसार ठंडा न कर सकें, लेकिन वे इसे गर्म करने में भी योगदान नहीं देंगी।
इसमें एक बड़ी चुनौती लोगों को इन नई तकनीकों को अपनाने के लिए प्रेरित करना है। हल्की, अधिक परावर्तक छतों का उपयोग करने जैसे सरल परिवर्तन स्पष्ट लाभ प्रदान करने के बावजूद अभी तक व्यापक नहीं हुए हैं। फिर भी लॉस एंजेल्स सहित कई शहरों ने ठंडे फुटपाथ और अन्य शीतलन रणनीतियों (cooling strategies) को लागू करना शुरू कर दिया है।
ऑस्ट्रेलिया में सिडनी की एक टीम ने दुनिया भर में 300 से अधिक परियोजनाओं में शीतलन सामग्री (cooling materials) का उपयोग किया है, जिसमें सऊदी अरब के रियाद में एक प्रमुख पहल भी शामिल है।
इसका उद्देश्य शहर के तापमान को 4.5 डिग्री सेल्सियस तक कम करना है। यह परियोजना अधिक आरामदायक शहरी वातावरण (urban environment) बनाने के लिए ठंडी और सुपरकूल सामग्रियों के संयोजन के साथ-साथ अधिक हरियाली का उपयोग करती है। ज़्यादा से ज़्यादा शहरों में इन नवाचारों के प्रयोग से हम यह समझ पाएंगे कि भीषण गर्मी से खुद को बचाने का सबसे बेहतर तरीका कौन-सा है।
जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन (climate change) का प्रभाव बढ़ रहा है, चुनौतियों का सामना करने के लिए नवाचारों की आवश्यकता है। तैरते शहर, उभयचर घर और सुपरकूल सामग्री जैसे समाधान हमें जलवायु परिवर्तन के खतरों से सुरक्षित रख सकते हैं, लेकिन इन्हें सावधानीपूर्वक और टिकाऊ विकास (sustainable development) के सिद्धांतों के तहत लागू करना आवश्यक है। इन तकनीकों को लागू करने में सामाजिक न्याय और समानता (social justice and equity) पर भी ध्यान देना होगा, ताकि समाज के सभी वर्गों को इनका लाभ मिल सके। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://ru.unilumin.com/media/upload/LargeFile/%E8%B0%83-2.jpg
भारत में ई-कचरे (इलेक्ट्रॉनिक कचरा यानी पुराने लैपटॉप (old laptops) और सेल फोन (mobile phones), कैमरा और एसी (AC), टीवी और एलईडी लैंप (LED lamps) वगैरह) के प्रबंधन की तेज़ी से बढ़ती चुनौती से जुड़े पर्यावरणीय कानूनों (environmental laws) को मज़बूती प्रदान करने के लिए राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (नेशनल ग्रीन ट्रायबूनल, NGT) प्रतिबद्ध है। हाल ही में अध्यक्ष न्यायमूर्ति प्रकाश श्रीवास्तव के नेतृत्व में एनजीटी ने ई-कचरा प्रबंधन रिपोर्टिंग की वर्तमान स्थिति पर गहरा असंतोष व्यक्त किया है। एनजीटी ने अपने पूर्व आदेशों का पालन न करने का दावा करने वाली एक याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) को राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा इलेक्ट्रॉनिक कचरे (electronic waste) के उत्पादन और निस्तारण पर एक नई रिपोर्ट पेश करने के निर्देश दिए हैं। वहीं ई-कचरा (प्रबंधन) नियमों का पालन न करने वाले राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के खिलाफ की गई कार्रवाई का भी उल्लेख करने को कहा है।
यह पहल ई-कचरे से निपटने की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित करती है, जो सार्वजनिक स्वास्थ्य (public health) और पारिस्थितिक अखंडता के लिए एक महत्वपूर्ण पर्यावरणीय मुद्दा (environmental issue) है।
देश में ई-कचरा प्रबंधन से जुड़े नियमों को लागू कराने में सीपीसीबी की भूमिका अहम है। ई-कचरा (प्रबंधन) नियमों के पालन की निगरानी के साथ-साथ ई-कचरा प्रबंधन और निपटारा सम्बंधी जागरूकता कार्यक्रमों हेतु भी सक्रिय पहल करने की ज़िम्मेदारी सीपीसीबी की है। एनजीटी ने सीपीसीबी को यह नई रिपोर्ट तैयार करने और प्रस्तुत करने के लिए 12 दिसंबर तक का वक्त दिया है, जिसमें समस्त राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में ई-कचरे के उत्पादन (e-waste production), उपचार सुविधाओं, और मौजूदा खामियों पर विस्तृत डैटा (detailed data) शामिल होना चाहिए।
देश में बढ़ते ई-कचरे पर एनजीटी ने 7 नवंबर, 2022 को निर्देश दिए थे कि ई-कचरे के मामले में सभी राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (State Pollution Control Board) और प्रदूषण नियंत्रण समितियां, सीपीसीबी द्वारा जारी रिपोर्ट का पालन करें। लेकिन तमाम ज़िम्मेदार संस्थाओं द्वारा इन निर्देशों का अनुपालन ठीक से न करने पर एनजीटी ने असंतोष व्यक्त किया है।
ई-कचरा जहां पर्यावरण (environment) के लिए खतरनाक होता है, वहीं मानव स्वास्थ्य को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है। ई-कचरे के निपटान और तोड़फोड़ से पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है। इनसे निकलने वाले तरल और रसायन सतही जल (surface water), भूजल (groundwater), मिट्टी और हवा में मिल सकते हैं। इनके ज़रिए ये जानवरों और फसलों में प्रवेश कर सकते हैं। ऐसी फसलों के इस्तेमाल से मानव शरीर में घातक रसायन (hazardous chemicals) पहुंचने का खतरा होता है। इलेक्ट्रॉनिक सामान में लेड (lead), कैडमियम (cadmium), बैरियम (barium), भारी धातुएं व अन्य घातक रसायन होते हैं।
सीपीसीबी द्वारा दिसंबर, 2020 में जारी एक रिपोर्ट बताती है कि 2019-20 में भारत में 10,00,000 लाख टन से अधिक इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा हुआ था। 2017-18 में यह 25,325 टन और 2018-19 में 78,281 टन था। एक तथ्य यह भी है कि 2018 में केवल 3 फीसदी ई-कचरा एकत्र किया गया था, जबकि 2019 में यह आंकड़ा 10 फीसदी था। मतलब साफ है कि देश में ई-कचरे को री-सायकल (recycle) करना तो दूर, इस कचरे की एक बड़ी मात्रा एकत्र ही नहीं की जा रही है। एक अन्य रिपोर्ट के आंकड़े दर्शाते हैं कि देश में 2022 के दौरान 413.7 करोड़ किलोग्राम इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा हुआ था।
भारत में अभी तक राज्य सरकारों द्वारा मान्यता प्राप्त व पंजीकृत ई-कचरा री-सायक्लर 178 ही हैं। लेकिन भारत के ज़्यादातर ई-कचरा री-सायक्लर (e-waste recycler) ई-कचरे का रीसायक्लिंग नहीं कर पा रहे हैं और कुछ तो इसे खतरनाक तरीके से संग्रहित कर रहे हैं। इनमें से कई री-सायक्लर के पास ई-कचरा प्रबंधन की क्षमता भी नहीं है।
आंकड़े बताते हैं कि खतरनाक ई-कचरे को सुरक्षित रूप से संसाधित करने के लिए नए नियम (new regulations) आने के बावजूद, लगभग 80 प्रतिशत ई-कचरा अनौपचारिक सेक्टर (informal sector) द्वारा गलत तरीके से निपटान किया जा रहा है, जिससे प्रदूषण और स्वास्थ्य सम्बंधी खतरे कई गुना बढ़ने की आशंका है। इतना ही नहीं इससे भूजल और मिट्टी भी प्रदूषित हो रही है।
गौरतलब है कि दुनिया भर में प्रति वर्ष 2 से 5 करोड़ टन ई-कचरा पैदा होता है। जबकि वर्तमान में सिर्फ 12.5 फीसदी ई-कचरा रीसायकल हो रहा है। मोबाइल फोन (mobile phones) और अन्य इलेक्ट्रॉनिक सामान में बड़ी मात्रा में सोना (gold) या चांदी जैसी कीमती धातुएं होती हैं। अमेरिका में प्रति वर्ष फेंके गए मोबाइल फोन में 3.82 अरब रुपए का सोना या चांदी होता है। ई-कचरे के रीसायक्लिंग (e-waste recycling) से ये धातुएं प्राप्त की जा सकती हैं। 10 लाख लैपटॉप के रीसायक्लिंग से अमेरिका के 3657 घरों में प्रयोग होने वाली बिजली जितनी ऊर्जा (energy) मिलती है।
विश्व भर में ई-कचरे का वार्षिक उत्पादन 2.6 करोड़ टन प्रति वर्ष की दर से बढ़ रहा है, जो 2030 तक 8.2 करोड़ टन तक पहुंच जाएगा। रीसायक्लिंग की कमी वैश्विक इलेक्ट्रॉनिक उद्योग (electronics industry) पर भारी पड़ती है, और जैसे-जैसे उपकरण अधिक संख्या में, छोटे और अधिक जटिल होते जाते हैं, समस्या बढ़ती जाती है। वर्तमान में, कुछ प्रकार के ई-कचरे का रीसायक्लिंग और धातुओं को पुनर्प्राप्त करना एक महंगी प्रक्रिया है।
हमें इस बढ़ती समस्या के बारे में गंभीरता से सोचना होगा। इससे निपटने के लिए सबके साथ की आवश्यकता है। राष्ट्रीय प्राधिकरणों, प्रवर्तन एजेंसियों (enforcement agencies), उपकरण निर्माताओं (device manufacturers), रीसायक्लिंग में जुटे लोगों, शोधकर्ताओं के साथ उपभोक्ताओं को भी इनके प्रबंधन और रीसायक्लिंग में योगदान देने की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://lawbhoomi.com/wp-content/uploads/2020/10/Environmental-law-1.jpg
ततैया की तकरीबन 200 प्रजातियां परजीवी हैं। इनकी मादाएं अपने अंडे किसी अकशेरुकी जीव के अंदर देती हैं। अंडों से निकलने के बाद ततैया के लार्वा अपने मेजबान को अपना भोजन बनाते हैं, और अंतत: उसे काल के हवाले कर खुद उसके शरीर से बाहर निकल आते हैं।
अंडे देने के लिए अधिकतर ततैया की पहली पसंद फलमक्खियों (ड्रॉसोफिला) (fruit flies) के जीवित लार्वा-प्यूपा होते हैं। लार्वा या प्यूपा को चुनने का एक कारण यह होता है कि ये छोटे होते हैं, आसानी से पकड़ में आ जाते हैं और शिकार बन जाते हैं; वयस्क मेजबान एक तो आकार में बड़े होते हैं, ऊपर से उनके पास मुकाबला करने, डराने या बच निकलने की क्षमताएं भी होती हैं। इसलिए वयस्कों में अंडे देना ज़रा मुश्किल काम है। (कितना मुश्किल है इसका अंदाज़ा इस वीडियो (parasitoid wasps attack video) को देखकर लगाया जा सकता है:
बहरहाल, हाल ही में जीवविज्ञानियों (biologists) ने एक ऐसी ततैया पहचानी है जो वयस्क फलमक्खियों को अपना शिकार बनाती है और उनमें अंडे देती हैं।
इस ततैया को शोधकर्ताओं ने सिनट्रेटस पर्लमैनी (Syntretus perlmani) नाम दिया है। इस नई ततैया को यह नाम परजीवियों (parasites research) पर भरपूर शोध करने वाले स्टीव पर्लमैन के नाम पर दिया है।
दरअसल शोधकर्ता मिसिसिपी स्थित अपनी प्रयोगशाला (Mississippi lab research) के कैंपस में फैलाए गए जाल में फंसी फलमक्खियों में कृमि संक्रमण की पड़ताल कर रहे थे। इसी दौरान उन्हें ऐसी वयस्क नर फलमक्खी मिली जिसके अंदर ततैया का लार्वा था। अब शोधकर्ता जानना चाहते थे कि एस. पर्लमैनी ततैया वास्तव में कितनी वयस्क फलमक्खियों को शिकार बनाती हैं। इसके लिए शोधकर्ताओं ने करीब 6000 नर फलमक्खियां और करीब 500 मादा फल मक्खियों की पड़ताल की।
अंडे देने के 7 से 18 दिन के बाद, बिना किसी चीरफाड़ के नर फलमक्खी में तो आसानी से दिख जाता है कि किनके अंदर ततैया का लार्वा है और किनके अंदर नहीं। दूसरी ओर, मादा फलमक्खी में लार्वा होने की पुष्टि चीरफाड़ करके ही की जा सकी।
विश्लेषण में पाया गया कि एस. पर्लमेनी ततैया हर साल 0.5-3 प्रतिशत तक वयस्क नर मक्खियों को अपना मेज़बान बनाती है। इसके विपरीत मात्र एक मादा फलमक्खी में ततैया के लार्वा मिले।
शोधकर्ताओं का विचार है कि संभवत: वयस्क मक्खी को शिकार बनाने के कुछ फायदे होंगे। जैसे लार्वा-प्यूपा की तुलना में वयस्क फलमक्खी ततैयों के लार्वा की सुरक्षा (wasp larvae protection) कर सकते हैं; यह भी संभव है कि वयस्क फलमक्खियों की प्रतिरक्षा प्रणाली लार्वा की तुलना में कम प्रभावी हो और इसके चलते लार्वा को बाहर धकेले जाने का खतरा कम होता हो। और वयस्कों को मेज़बान बनाने से लार्वा-प्यूपा के लिए प्रतिस्पर्धा कम हो जाती होगी।
नेचर (Nature journal) में प्रकाशित ये नतीजे ततैया के व्यवहार में विविधता को उजागर करते हैं और आगे के अध्ययन के लिए ज़मीन बनाते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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घात लगाकर हमला करने वाले शिकारी जंतु (predator animals) शिकार को पकड़ने के लिए अनेक प्रकार की रणनीतियां (hunting strategies) अपनाते हैं। विशेषकर मकड़ियों (spiders) के पास शिकार पकड़ने की अद्भुत रणनीतियां होती हैं, जिनमें महज़ घात लगाने से लेकर रेशमी जाले (silk webs) में फांसने तक के जटिल तरीके अपनाए जाते हैं। उदाहरण के लिए बोलस मकड़ी (Bolas spider) प्रजाति-विशेष के नर पतंगों (male moths) को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए रेशमी धागे के अंतिम छोर पर चिपचिपी और फेरोमोन्स युक्त बूंद लटका देती है। नर पतंगें उसे मादा समझकर चिपक जाते हैं और मकड़ी के शिकार बन जाते हैं।
कुछ पायरेट मकड़ियां (pirate spiders) अन्य मकड़ियों के जालों में इस प्रकार के कंपन उत्पन्न करती हैं जिससे मेज़बान को यह विश्वास हो जाए कि जाल में कोई कीट (insect) फंसकर छटपटा रहा है। जैसे ही मेज़बान मकड़ी पास आती है, पायरेट मकड़ी उसे अपना शिकार बना लेती है।
फूलों पर पाई जाने वाली क्रेब मकड़ी (crab spider) लंबे समय तक बिना हिले-डुले फूलों पर घात लगाकर बैठी रहती है। जैसे ही फूलों का मकरंद लेने के लिए कोई कीट आता है वे तुरंत आक्रमण करके उसका शिकार कर लेती हैं।
लाल चींटों जैसी दिखने वाली एमिशिया मकड़ी (ant-mimicking spider) चींटों जैसी बनावट और व्यवहार अपना लेती है तथा अपनी पहचान छुपा कर रहती है, और फिर उनका ही शिकार करती हैं।
सिंगापुर राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में जीवविज्ञानी दाईकिन ली, हुआझोंग कृषि विश्वविद्यालय में जीवविज्ञानी शिन्हुआ फू और साथियों ने हाल ही में करंट बायोलॉजी (Current Biology) में मकड़ी पर एक शोध पत्र प्रकाशित किया है। शोध में यह देखा गया कि मकड़ियां नर जुगनू (male fireflies) को मादा जुगनू की तरह जगमगाने पर मजबूर करती हैं जिससे बड़ी संख्या में नर जुगनू आकर्षित होते हैं तथा मकड़ी को अधिक शिकार मिलते हैं।
प्रायः सभी वैज्ञानिक खोजों में अवलोकन की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। चीन के वुहान शहर में अपनी फील्ड ट्रिप के दौरान जीव विज्ञानी शिन्हुआ फू को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि कई मकड़ियों के जाले ऐसे थे जिनमें केवल नर जुगनू शिकार हुए थे। सवाल था कि क्या मकड़ियां कोई ऐसी जुगत या तरकीब लगा रही हैं जिससे वे नर जुगनू को आकर्षित करके शिकार कर रही हों।
जुगनू की प्रणय लीला (Mating Behavior of Fireflies)
प्रत्येक जंतु में विपरीत लिंग को प्रजनन के लिए आकर्षित करने के तरीके भिन्न-भिन्न होते हैं। जुगनुओं में यह कार्य उदर में उपस्थित विशेष अंगों से उत्पन्न प्रकाश को चमकाकर (light signals) किया जाता है। सूर्यास्त होते ही नर जुगनू उदर से एक निश्चित क्रम में प्रकाश-चमक के संकेतों से मादाओं को आकर्षित करते हैं। घास में नीचे बैठी मादा जुगनू अपनी प्रजाति के नरों की चमक के पैटर्न को देखकर अपनी प्रजाति के साथी को पहचान जाती है। अब मादा प्रत्युत्तर में रोशनी चमकाकर चयनित नर को आकर्षित करती हैं। संभोग के बाद, मादा गीली मिट्टी में 500 तक अंडे देती है।
उष्णकटिबंधीय एशियाई जुगनू प्रजाति एब्सकॉन्डिटा टर्मिनेलिस में, नर और मादा, दोनों ही प्रणय के लिए साथी तलाशने के लिए चमक फेंकते हैं। लेकिन उनकी चमक एक जैसी नहीं होती। मादाएं अपने उदर में एकल प्रकाश स्रोत से धीमे-धीमे टिमटिमाती हैं, जबकि नर अपने उदर के दो प्रकाश स्रोतों से उतने ही समय में अधिक बार टिमटिमाते हैं।
मकड़ियों की चालाकी (Spider’s Deception)
एरेनियस वेंट्रिकोसस (Araneus ventricosus) नामक मकड़ी निशाचर होती है और कार के पहिए के आकार के बड़े और गोलाकार जाले बुनती है। जाला बुनने वाली मकड़ियों की देखने की क्षमता जाला न बुनने वाली मकड़ियों की तुलना में कमज़ोर होती है। उन्हें वस्तुएं केवल तभी दिखाई देती हैं जब वे अपेक्षाकृत उनके करीब होती हैं। इन मकड़ियों के जाले में जब नर जुगनू फंस जाता है तो उसकी चमक से मकड़ी नर को पहचान जाती है और उसे जाले में लपेटते हुए अनेक बार विष दंतों से काट कर उसे मादा जुगनू जैसे प्रकाश संकेत निकालने पर मजबूर कर देती है। बंदी नर जुगनू विष के प्रभाव से मादा जैसे टिमटिमाने लगता है, जिससे कई नर भ्रमित होकर ‘मादा’ से संभोग की उम्मीद में मकड़ी के जाल में प्रवेश करते हैं और शिकार हो जाते हैं। इस प्रकार नर जुगनू मकड़ी के जाले में फंसे देखे जा सकते हैं।
शोध के निष्कर्ष बताते हैं कि कुछ जंतु विशेष प्रकार के जंतुओं का शिकार करने के लिए शिकार के तरीके में हेरफेर करने में सक्षम होते हैं तथा शिकार को छद्म संकेत (false signals) उत्पन्न करने को विवश कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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युनिसेफ ने 21 मार्च के दिन को विश्व कविता दिवस (World Poetry Day) के रूप में घोषित किया है। विश्व कविता दिवस मनाने का उद्देश्य काव्यात्मक अभिव्यक्ति (poetic expression) के माध्यम से भाषाई विविधता को बढ़ावा देना है। हर साल इस दिन के लिए कोई एक थीम (theme) चुनी जाती है। वर्ष 2022 में इस दिन की थीम ‘पर्यावरण’ रखी गई थी। 2023 की थीम थी, ‘सदैव कवि, गद्य में भी (Always a poet, even in prose)’ और इस साल की थीम है ‘दिग्गजों के अनुभव पर बढ़ना (Standing on the shoulders of giants)’।
कविता का उपयोग भावनाएं जगाने के लिए, बिंब रचने के लिए, और विचारों को सुगठित और कल्पनाशील तरीके से व्यक्त करने के लिए किया जाता है। इसमें लय होती है, छंद या मीटर (meter) होता है, भावनात्मक अनुनाद होता है। पाठक या गायक कवि की भावना को महसूस करते हैं और यह उनके दिल-ओ-दिमाग में प्रभावी ढंग से उतर जाती हैं। इसमें किफायत, अलंकरण (embellishment) और लय की समझ होती है। ये अक्सर गाई जा सकती हैं। जैसे, हमारा राष्ट्रगान ‘जन गण मन’; यह रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा लिखी गई एक कविता है, जिसे हम सभी जोश-ओ-खरोश से गाते हैं। वहीं, हममें से कई अपनी भाषा में दुख-दर्द भरे नगमे भी गुनगुनाते हैं, गाते हैं, सुनते हैं।
वर्ष 2022 का विश्व कविता दिवस लुप्तप्राय भाषाओं (endangered languages), इन भाषाओं में कविताओं, गद्य और गीतों पर केंद्रित था। दुनिया भर में, 7000 से अधिक भाषाएं लुप्तप्राय हैं। यूनेस्को के अनुसार भारत में, 42 भाषाएं लुप्तप्राय (10-10 हज़ार से कम लोगों द्वारा बोली जाने वाली) हैं। 2013 से, भारत ने अपनी लुप्तप्राय भाषाओं के बचाव और संरक्षण (preservation) के लिए एक योजना शुरू की है। वेबसाइट ‘Endangered languages in India (भारत में लुप्तप्राय भाषाएं)’ पर इन लुप्तप्राय भाषाओं की सूची दी गई है। इस सूची में ‘ग्रेट अंडमानी’, लद्दाख में बोली जाने वाली ‘तिब्बती बलती’ और झारखंड की ‘असुर’ भाषाएं शामिल हैं। मैसूर स्थित स्कीम फॉर प्रोटेक्शन एंड प्रिवेंशन ऑफ एन्डेंजर्ड लैंग्वैज (SPPEL) इस क्षेत्र में सक्रिय रूप से कार्यरत है।
2023 में विश्व कविता दिवस की थीम थी: ‘Always a poet, even in prose’। शेक्सपियर इसका एक बेहतरीन उदाहरण हैं। उनके गद्य (prose) में भी काव्यात्मक लय थी। यहां कुछ उदाहरण दिए गए हैं: ‘Brevity is the soul of wit’; और ‘my words fly up, but my thoughts remain below’। हिंदी, उर्दू और तमिल में कई विद्वानों ने इसी तरह की कविताएं/बातें लिखी हैं।
जब हम गद्य में अपने मन की बात कह सकते हैं तो कविता क्यों लिखना? जहां गद्य में प्रयुक्त भाषा स्वाभाविक और व्याकरण-सम्मत होती है, वहीं काव्यात्मक भाषा आलंकारिक (figurative) और प्रतीकात्मक होती है। ऑक्सफोर्ड स्कोलेस्टिका एकेडमी बताती है कि कविता साहित्यिक अभिव्यक्ति का एक ऐसा रूप है जिसमें भाषा का उपयोग होता है। और एनसायक्लोपीडिया ब्रिटानिका (Encyclopedia Britannica) कहता है, कविता में आप भाषा (के शब्दों) को अर्थ, ध्वनि और लय के मुताबिक काफी सोच-समझकर चुनते और जमाते हैं। कविता पढ़ते या सुनते समय, आपके मस्तिष्क का ‘आनंद केंद्र’ (pleasure center) सक्रियता से बिंबों का अर्थ खोजने और रूपकों की व्याख्या करने में तल्लीन हो जाता है।
वैज्ञानिक और कविता
‘Scientists take on poetry (साइंटिस्ट टेक ऑन पोएट्री)’ नामक साइट बताती है कि गणितज्ञ एडा लवलेस, रसायनज्ञ हम्फ्री डेवी और भौतिक विज्ञानी जेम्स मैक्सवेल ने अपने काम के बारे में कविताएं लिखी हैं। भारत में, वैज्ञानिक एस. एस. भटनागर ने हिंदी में कविताएं लिखीं। वैसे सी. वी. रमन कवि तो नहीं थे, लेकिन वायलिन की संगीतमय ध्वनियों (musical tones) का वैज्ञानिक आधार जानने में उनकी रुचि थी और उन्होंने ‘Experiment with mechanically played violin (यांत्रिक तरीके से बजाए जाने वाले वायलिन के साथ प्रयोग)’ शीर्षक से एक शोधपत्र लिखा था, जो 1920 में प्रोसिडिंग्स ऑफ दी इंडियन एसोसिएशन फॉर दी कल्टीवेशन ऑफ साइंस में प्रकाशित हुआ था। उन्होंने भारतीय आघात वाद्य यंत्रों (percussion instruments) की विशिष्टता का भी अध्ययन किया। तबला और मृदंग की ध्वनियों की हारमोनिक प्रकृति का उनका विश्लेषण भारतीय ताल वाद्यों पर पहला वैज्ञानिक अध्ययन था।
इसी तरह, भौतिक विज्ञानी एस. एन. बोस तंतु वाद्य एसराज बजाया करते थे। बर्डमैन ऑफ इंडिया के नाम से मशहूर प्रकृतिविद सालिम अली ने भारत के पक्षियों पर कई किताबें लिखीं। और इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियर श्रीराम रंगराजन (जिनका तखल्लुस ‘सुजाता’ है) ने तमिल में बेहतरीन किताबें और लेख लिखे, जिन्हें उनके भाषा कौशल (language proficiency) के कारण हर जगह सराहा जाता है। क्या ऐसे और वैज्ञानिक नहीं होने चाहिए जो संगीत पर कविताएं और निबंध लिखें? (स्रोत फीचर्स)
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यह तो हम जानते हैं कि कई जीव-जंतुओं में शिकारियों (predators) से अपने बचाव के लिए कई तरीके विकसित हुए हैं। कुछ का रंग-रूप या काया आसपास के पर्यावरण (environment) से घुल-मिल जाती है, तो कोई किसी दूसरे खतरनाक जीव सी काया धर लेता है। या गुलाब जैसे पौधों या साही जैसे जीवों में कांटे विकसित हुए हैं कि शिकारी उनसे दूर ही रहें। ये तो हुए शिकार बनने से बचने के तरीके, लेकिन शिकार बन जाएं तब क्या?
कार्टून वगैरह में तो ऐसा बहुत देखा होगा कि हीरो चरित्र शिकारी के पेट में गुदगुदी करके, उछल-कूद मचाकर या ऐसे ही किसी तरीके से उसे परेशान करके उसके पेट से सलामत बाहर निकल आता है। हाल ही में, ऐसा ही कुछ मामला हकीकत में होता दिखा है। करंट बायोलॉजी (Current Biology) में प्रकाशित अध्ययन का एक्स-रे वीडियो (X-ray video) खुलासा करता है कि जापानी ईल (Anguilla japonica) अपने शिकारी मछली के पेट से कैसे बाहर निकल जाती है।
दरअसल, पूर्व में नागासाकी यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने पाया था कि जापानी ईल अपने शिकारी के पेट से गलफड़ों (gills) के रास्ते बाहर निकल आती है। लेकिन वह ऐसा करती कैसे है यह उन्हें ठीक-ठीक नहीं मालूम था।
इस बात को समझने के लिए शोधकर्ताओं ने 32 शिशु ईल में एक ऐसा पदार्थ (barium sulfate) डाला जो एक्स-रे की नज़र की पकड़ में आ जाए। फिर उन्होंने ईल को डार्क स्लीपर (Odontobutis obscura) नामक एक शिकारी मछली के साथ छोटे टैंक (tank) में रखा।
जब ये ईल शिकार बने तो उन सभी ईल ने शिकारी के पेट से भागने की कोशिश की। एक्स-रे की मदद से पता चल पाया कि इनमें से कुछ ईल ने बाहर का रास्ता तलाशने के लिए शिकारी के पेट में चक्कर लगाया। लेकिन सभी ईल भागने में सफल नहीं हो पाई। सिर्फ 9 ईल ही बाहर निकल पाईं। जो बाहर निकलने में सफल हो पाईं, वे तैरकर वापिस शिकारी की ग्रासनली (esophagus) में गईं और फिर गलफड़ों के ज़रिए सरसराते हुए पूंछ को पहले बाहर निकालते हुए पूरी की पूरी सलामत बाहर निकलने में सफल हो गईं। (स्रोत फीचर्स)
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पेड़ों का अस्तित्व धरती पर लगभग 40 करोड़ वर्षों से है। तब से पेड़ कई प्राकृतिक आपदाओं का सामना कर चुके हैं। चाहे वह उल्का की टक्कर हो या शीत युग, पेड़ धरती पर टिके रहे। लेकिन अब उन्हें खतरा इंसानों से है। कृषि (agriculture) के आगमन के बाद से, खेती और मवेशियों के लिए जगह बनाने के लिए बड़ी संख्या में जंगलों (forests) का सफाया किया गया है। पिछले 300 वर्षों में, लगभग 1.5 अरब हैक्टर जंगलों को नष्ट किया जा चुका है जो आज के कुल वन क्षेत्र का 37 प्रतिशत है।
आम तौर पर यह माना जाता है कि जंगलों की क्षतिपूर्ति वृक्षारोपण (tree plantation) करके की जा सकती है, और इसे सबसे सरल और सटीक समाधान के तौर पर देखा जाता है। पिछले कुछ दशकों में यह धारणा भी बनी है कि जलवायु परिवर्तन (climate change) को कम करने में पेड़ महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। परंतु, यह बात भी उतनी ही सच है कि बिना किसी ठोस योजना और जानकारी के सिर्फ पेड़ लगाना कई बार पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem) को नुकसान पहुंचा सकता है।
गौरतलब है कि कई वृक्षारोपण परियोजनाओं में सिर्फ एक प्रजाति के पेड़ लगाए जाते हैं, जिसे मोनोकल्चर (monoculture) कहा जाता है। यह पद्धति जैव विविधता (biodiversity) को कम करती है, क्योंकि इस प्रक्रिया में सिर्फ एक प्रजाति के पौधे और उससे जुड़े वन्यजीव और सूक्ष्मजीव ही पनप पाते हैं। एक ही प्रजाति के पेड़ बीमारियों के प्रति संवेदनशील होते हैं, जिससे कोई बीमारी फैलने पर पूरे जंगल का सफाया हो सकता है। इसके अलावा, कई बार ऐसे पेड़ भी लगाए जाते हैं जो उस क्षेत्र के लिए उपयुक्त नहीं होते, जिससे स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र असंतुलित हो जाता है।
वनों की बहाली में एक समग्र दृष्टिकोण की ज़रूरत है। जैक रॉबिन्सन अपनी किताब ट्रीवाइल्डिंग (Treewilding) में बताते हैं कि जंगलों की बहाली के लिए सिर्फ पेड़ लगाना पर्याप्त नहीं है, बल्कि उनका जीवित रहना और वृद्धि करना भी ज़रूरी है। इसके लिए यह समझना भी आवश्यक है कि कौन-सी प्रजातियां किस क्षेत्र के लिए उपयुक्त हैं, और वे स्थानीय समुदायों (local communities) और वन्यजीवों से किस प्रकार जुड़ी हुई हैं। हलांकि वनों की कटाई को पूरी तरह रोकना संभव नहीं है, लेकिन इसे कम करने और पौधारोपण को सही दिशा में ले जाने के लिए गहन शोध (research) और नियोजन ज़रूरी है।
रॉबिन्सन यह भी कहते हैं कि वृक्षारोपण परियोजनाओं को स्थानीय ज्ञान (local knowledge) के आधार पर संचालित किया जाना चाहिए, जिससे न केवल पेड़ लगाए जाएं बल्कि उनकी देखभाल पर भी ध्यान दिया जाए। ऐसा करने से ही युवा पेड़ सही तरीके से बढ़ सकेंगे और दीर्घकालिक लाभ दे सकेंगे। इसमें एक विशेष बात यह है कि प्राकृतिक पुनर्जनन (natural regeneration) यानी किसी वन को अपने आप पुनः विकसित होने देना, जंगलों को बहाल करने का सबसे प्रभावी तरीका है।
ग्रेट ग्रीन वॉल (Great Green Wall) जैसी कुछ वन बहाली परियोजनाएं काफी उपयोगी रही हैं। इस परियोजना में सहारा रेगिस्तान के दक्षिण में 8000 किलोमीटर लंबी और 15 किलोमीटर चौड़ी पेड़ों की एक दीवार बनाने का प्रयास किया गया है। इसका उद्देश्य रेगिस्तान के फैलाव को रोकना, भूमि की गुणवत्ता सुधारना, और जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद करना है। इस परियोजना में अब तक लाखों पेड़ लगाए जा चुके हैं, लेकिन धन की कमी एक बड़ी चुनौती है।
इसी प्रकार, पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया की गोंडवाना लिंक परियोजना (Gondwana Link project) 1000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में पुराने जंगलों के बिखरे हुए टुकड़ों को फिर से जोड़ने का प्रयास कर रही है। इसका उद्देश्य उन प्रजातियों की रक्षा करना है जो जंगलों के इन छोटे-छोटे हिस्सों में फंसी हुई हैं और विलुप्त होने की कगार पर हैं। जब अलग-अलग क्षेत्रों की प्रजातियां एक-दूसरे के साथ संपर्क में आती हैं, तो उनकी जेनेटिक विविधता (genetic diversity) में सुधार होता है, जो उन्हें पर्यावरणीय चुनौतियों से निपटने में मदद करता है। इस परियोजना के तहत 14,500 हैक्टर भूमि पर पेड़ लगाए जा चुके हैं, और इसे कार्बन क्रेडिट (carbon credit) या कर छूट के रूप में निवेशकों से वित्तीय सहायता प्राप्त हो रही है।
रॉबिन्सन अपने काम में पारिस्थितिकी (ecology) को समझने के लिए एक नई तकनीक का भी उपयोग कर रहे हैं, जिसे इकोएकूस्टिक्स (ecoacoustics) कहा जाता है। यह विधि वन्यजीवों और पक्षियों की ध्वनियों का उपयोग करके जंगलों की संरचना और उसमें हो रहे परिवर्तनों को समझने का प्रयास करती है। उन्होंने पाया कि जैसे-जैसे जंगल पुनर्जीवित होते हैं, मिट्टी में छिपे हुए अकशेरुकी जीवों (invertebrates) की संख्या बढ़ती है, जिससे ‘जीवन की एक छिपी हुई ध्वनि’ उत्पन्न होती है।
रॉबिन्सन की किताब ट्रीवाइल्डिंग पर्यावरण और वन पुनर्स्थापना (forest restoration) पर एक अद्भुत अध्ययन है। यह पाठकों को सोचने पर मजबूर करती है कि जंगलों के संरक्षण (conservation) के लिए सिर्फ पेड़ लगाना पर्याप्त नहीं है, बल्कि एक समग्र दृष्टिकोण की ज़रूरत है जो पारिस्थितिकी, स्थानीय समुदायों, और विज्ञान के गहरे परस्पर सम्बंधों को समझ सके। (स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में हुए एक अध्ययन ने चमगादड़ों की संख्या और शिशु मृत्यु दर (infant mortality) के बीच एक अप्रत्याशित सम्बंध का खुलासा किया है – शिशु मृत्यु दर में वृद्धि चमगादड़ों की घटती संख्या से जुड़ी है।
दरअसल, वर्ष 2006 में न्यू इंग्लैंड क्षेत्र में खतरनाक फंगल बीमारी, व्हाइट नोज़ सिंड्रोम (White Nose Syndrome) के कारण बड़े पैमाने पर चमगादड़ों की मौत हो गई थी। चमगादड़ों की आबादी में आई कमी के कारण कीटों (insects) की संख्या में वृद्धि हुई, जिससे किसानों ने अधिक मात्रा में कीटनाशकों (pesticides) का उपयोग किया। साइंस पत्रिका (Science Journal) में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, कीटनाशक उपयोग में हुई 31 प्रतिशत की वृद्धि से प्रभावित इलाकों में शिशु मृत्यु दर 8 प्रतिशत बढ़ गई।
गौरतलब है कि चमगादड़ प्राकृतिक कीट नियंत्रक (natural pest control) के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं; ये हर रात बड़ी संख्या में कीटों का शिकार करते हैं। कुछ प्रजातियां तो हर रात अपने शरीर के वज़न के 40 प्रतिशत के बराबर कीटों को खा जाती हैं। इस सेवा का मूल्य लगाया जाए तो इतनी मात्रा में कीटों का सफाया करने में प्रति वर्ष 300 अरब से 4000 अरब रुपए का खर्चा बैठता है।
जब कीटों को खाने वाले चमगादड़ कम हो गए तो कीट बढ़ गए और किसानों को कीटनाशकों का सहारा लेना पड़ा। पूर्व अध्ययनों में देखा गया है कि कुछ कीटनाशक, खासकर तंत्रिका तंत्र (nervous system) को प्रभावित करने वाले, बच्चों और शिशुओं के लिए गंभीर खतरे का कारण बनते हैं। अध्ययन का दावा है कि कीटनाशकों के बढ़ते उपयोग का इंसानों (human health), विशेषकर शिशुओं की सेहत पर बुरा असर पड़ा।
इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने चमगादड़-विहीन क्षेत्रों (bat-free areas) की तुलना चमगादड़-बहुल इलाकों (bat-rich areas) से की। उन्होंने पाया कि जिन क्षेत्रों में चमगादड़ खत्म हो गए थे, वहां कीटनाशकों का उपयोग अधिक था और शिशुओं की बीमारियों तथा जन्मजात विकृतियों (birth defects) के कारण मृत्यु दर में वृद्धि पाई गई। हालांकि, अन्य कारणों से होने वाली मौतों में वृद्धि नहीं देखी गई, जो इस अध्ययन के निष्कर्षों को और भी पुष्ट करते हैं।
हालांकि, उन इलाकों में कीटनाशकों का उपयोग सरकारी नियंत्रण में किया जाता है। फिर भी ये हवा या पानी (air or water contamination) के ज़रिए फैलकर असर कर सकते हैं।
यह अध्ययन इस बात पर ज़ोर देता है और चेताता है कि वन्यजीवों की कमी इंसानों की सेहत (human health) को भी प्रभावित कर सकती है। हालांकि इस मुद्दे पर और शोध की ज़रूरत है।
फिलहाल, चमगादड़ों की संख्या को बढ़ाने के लिए संरक्षण प्रयास जारी हैं, लेकिन इसमें कई दशकों का समय लग सकता है। इस बीच, बीमारी अमरीका के अधिक कृषि क्षेत्रों में भी फैल रही है, जिससे कृषि (agriculture) और मानव स्वास्थ्य पर खतरा मंडरा रहा है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.zu56w28/full/_20240905_on_white_nose_bat-1725576038307.jpg
जानवरों के विपरीत, पेड़-पौधे अपने शिकारियों से बचने के लिए भाग नहीं सकते – वे बस एक ही जगह जड़ खड़े रहते हैं। इसलिए पेड़ों ने अपनी सुरक्षा के लिए खुद को असंख्य रासायनिक ‘हथियारों’ (chemical weapons) से लैस किया है।
वैसे तो अपनी जगह से हिल-डुल न पाने के कारण समूचे पेड़-पौधे ही अपने शिकारियों से असुरक्षित होते हैं लेकिन पेड़-पौधों के वे हिस्से जो ज़मीन के नीचे होते हैं, हमलावरों से विशेष रूप से असुरक्षित होते हैं (underground threats). इनके भूमिगत खतरों की सूची लंबी है – बैक्टीरिया, कवक, कृमि, इल्लियां, घोंघे, चूहे आदि इस सूची में शामिल हैं (soil threats). अचरज न होगा कि सुरक्षा के लिए प्याज़ और लहसुन जैसे पौधों ने हर संभव तरह के सुरक्षा रसायनों से खुद को लैस किया है (onion and garlic, protective chemicals)। ये अपनी भूमिगत गाँठों (बल्बों) में भावी विकास के लिए भोजन (पोषण) संग्रहित करते हैं (bulbs, nutrition storage)।
तेईस सौ रसायन (2300 Chemicals)
हाल ही में, बहुत ही सूक्ष्म रासायनिक विश्लेषण करने वाले उपकरणों की मदद से पड़ताल करने पर पता चला है कि लहसुन की कलियों (या फांकों) में 2300 से अधिक रसायनों की ‘आणविक फौज’ (molecular arsenal) मौजूद होती है। इनमें से अधिकांश रसायनों की उपस्थिति का कारण हम अब तक समझ नहीं पाए हैं। इनमें से बमुश्किल 70 रसायन ही वर्तमान के पोषण चार्ट में शामिल हैं (nutritional chart). लहसुन इनमें से तीन पोषक तत्वों से मुख्य रूप से लबरेज़ है: मैंग्नीज़, सेलेनियम और विटामिन बी-6 (manganese, selenium, vitamin B6)।
लहसुन के कई अन्य घटक – जैसे थायोसल्फिनेट्स, लेक्टिन, सैपोनिन और फ्लेवोनॉइड्स – मनुष्यों में सुरक्षात्मक भूमिका निभा सकते हैं (thyiosulfates, lectins, saponins, flavonoids, protective role)। आश्चर्य की बात नहीं है कि मनुष्यों ने लंबे समय से अपने आहार में लहसुन को शामिल किया है (historical use of garlic)। 4000 साल पुरानी सुमेरियन मृदा तख्तियों में लहसुन के व्यंजनों का उल्लेख मिलता है (Sumerian tablets, garlic recipes)। और कई संस्कृतियों में लहसुन का उपयोग, पौष्टिक महत्व से परे, औषधीय गुणों के चलते किया जाता है (medicinal properties of garlic)।
भारत में (In India)
आयुर्वेद में, लहसुन वाला गर्म दूध (लहसुन क्षीरपाक) सांस सम्बंधी समस्याओं – जैसे दमा, खांसी, सर्दी-ज़ुकाम – में फायदेमंद माना जाता है (Ayurveda, garlic milk benefits)। साथ ही यह शक्तिवर्धक भी माना जाता है। इसी तरह, लहसुनी पानी का उपयोग टॉनिक के रूप में किया जाता है: यह पाचन सम्बंधी एंज़ाइमों के स्राव को उकसा कर पाचन में सुधार करता है, और इसके वातहारी गुण गैस बनने की समस्या को कम करते हैं (digestive tonic, garlic water benefits)।
लहसुन एवं सम्बंधित प्रजातियों के अन्य मसालों की खासियत है इनकी तीखी महक (pungent odor). यह महक इनमें सल्फर युक्त यौगिक से आती है (sulfur compounds)। लहसुन की खास महक एलिसिन (Allicin) नामक रसायन से आती है। लेकिन साबुत लहसुन या उसकी साबुत कली में एलिसिन मौजूद नहीं होता है (allicin formation). एलिसिन तो लहसुन में तब बनता है जब उसमें मौजूद एलिनेज़ (Alliinase) नामक एंज़ाइम गंधहीन एलीन (Alliin) से क्रिया करता है (enzyme reaction, alliin). जब हम लहसुन को काटते, कूटते, कुचलते या चबाते हैं तब ये दोनों (एलिनेज़ और एलीन) संपर्क में आते हैं और उनकी परस्पर क्रिया के फलस्वरूप एलिसिन बनता है (garlic preparation).
एलिसिन, ट्राइजेमिनल (trigeminal) तंत्रिका में संवेदी न्यूरॉन्स पर पाए जाने वाले ग्राहियों के साथ जुड़ता है (sensory neurons). ये ग्राही मुंह और नाक की संवेदनाओं को ग्रहण करते हैं (sensory receptors)। लहसुन की तीखी महक ग्राहियों से इसी जुड़ाव का नतीजा है (pungent sensation)।
एलिसिन और लहसुन के अन्य घटक जैसे डायलिल डाईसल्फाइड शोथ को प्रभावित करते हैं (diallyl disulfide, inflammation). इसके लाभकारी प्रभावों में रक्तचाप का नियंत्रण और हृदय सम्बंधी स्वास्थ्य का ख्याल रखना शामिल हैं (blood pressure control, heart health)। एक अन्य घटक, फ्लेवोनॉइड ल्यूटिओलिन, एमिलॉयड बीटा प्लाक के बनने को और उसके एक जगह जुटने को रोकता है (flavonoid luteolin, amyloid beta plaque); एमिलॉयड बीटा प्लाक का जमघट अल्ज़ाइमर रोग की प्रमुख निशानी है (Alzheimer’s disease).
लहसुन पर केंद्रित शोध भविष्य में लहसुन में पाए जाने वाले कई अन्य रसायनों की भूमिकाओं को उजागर कर सकते हैं (future research, garlic chemicals)। संभव है कि इनमें से कुछ रसायन, अकेले ही या किसी अन्य रसायन के साथ, मानव स्वास्थ्य की बेहतरी में योगदान देते हों (health benefits). लेकिन वर्तमान में हमें यह मालूम है कि लाभ के लिए हमारे आहार में लहसुन का संतुलित मात्रा में उपयोग महत्वपूर्ण है (balanced consumption). ताकि इसकी अति के चलते होने वाले सीने में जलन और दस्त जैसे दुष्प्रभावों से बचा जा सके (side effects, heartburn, diarrhea)। कुछ चिकित्सकों का कहना है कि हर दिन चार ग्राम सही मात्रा है (recommended dosage, 4 grams daily)।
भारत, लहसुन का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है (India, second largest producer of garlic)। लहसुन की बढ़िया किस्में (जैसे रियावन लहसुन) मध्य प्रदेश के नीमच और रतलाम से आती हैं (Riyavan garlic, Neemuch, Ratlam); मध्य प्रदेश लहसुन का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है (largest producer state)। दक्षिण भारत में, कर्नाटक के गदग की लहसुन की स्थानीय किस्में अपने तेज़, और तीखे स्वाद और सुगंध के कारण खूब बिकती हैं (Gadag garlic, Karnataka). और फिर कई कश्मीरी किस्में भी हैं (Kashmiri varieties).
आप चाहें जिस भी किस्म के लहसुन इस्तेमाल करें, थोड़ा सा लहसुन ज़ायका बढ़ा सकता है और आपको सेहतमंद रखने में मदद कर सकता है (garlic benefits, enhance taste). (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://th-i.thgim.com/public/latest-news/k9c810/article68591155.ece/alternates/FREE_1200/Garlic.jpg