तैयारशुदा दवा मिश्रणों (एफडीसी) पर प्रतिबंध क्यों?

एस. श्रीनिवासन

केंद्र सरकार ने हाल ही में 156 नियत खुराक संयोजनों (फिक्स्ड डोज़ कॉम्बिनेशन ड्रग्स या एफडीसी) के उत्पादन, विपणन और वितरण पर प्रतिबंध लगाया है। विशेषज्ञ समितियों के मुताबिक ये एफडीसी बेतुके हैं या चिकित्सा की दृष्टि से इनका कोई औचित्य नहीं हैं (medical necessity)। 

लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। जून 2023 में केंद्र सरकार ने 14 एफडीसी औषधियों पर प्रतिबंध लगाया था (drug bans)। और 2016 से अब तक लगभग 500 एफडीसी औषधियों पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है। ये प्रतिबंध क्यों? 

लेकिन पहले यह देखते हैं कि एफडीसी औषधियां या नियत खुराक संयोजन क्या हैं? नियत खुराक संयोजन (एफडीसी) ऐसी औषधियां होती हैं जिसमें एक गोली, कैप्सूल, या शॉट में दो या दो से अधिक औषधियां या दवाएं एक साथ होती हैं (fixed dose combinations)। उदाहरण के लिए, पैरासिटामॉल और इबुप्रोफेन। यदि पैरासिटामॉल और इबुप्रोफेन को मिलाते हैं तो यह एक एफडीसी है, यह संयोजन कॉम्बिफ्लेम में होता है (Combiflam)। किसी समय में हमारे यहां एक-एक एफडीसी में 10-10 दवाओं का मिश्रण हुआ करता था और आज भी ऐसी दवाइयां प्रचलन में है, जिनकी वास्तव में कोई ज़रूरत न तब थी और न आज है (medicinal needs)। 

एक सवाल यह उठता है कि सिर्फ भारत में इतने बेतुके दवा संयोजन देखने को क्यों मिलते हैं? दरअसल 70, 80 और 90 के दशक में, भारत विश्व के (कम से कम विकासशील विश्व के) लिए ‘दवा सप्लायर’ बनने की राह पर था और आज भी है और खूब प्रगति कर रहा था (pharmaceutical supplier)। उस समय देश में औषधि निर्माण के कायदे-कानून इतने सख्त नहीं थे जितने सख्त होने चाहिए थे। दवा निर्माताओं ने इसका फायदा उठाया। कैसे? 

भारत में नई दवा को बाज़ार में लाने की सामान्य प्रक्रिया यह है कि किसी भी नई औषधि के लिए आवेदन और ज़रूरी जानकारी केंद्र सरकार के संगठन, सेंट्रल ड्रग स्टैंडर्ड्स कंट्रोल ऑर्गनाइज़ेशन (CDSCO), को दिया जाता है (CDSCO approval)। CDSCO की विशेषज्ञ समिति इस पर विचार करके इसे मंज़ूर (या नामंज़ूर) करती है। CDSCO से मंज़ूरी मिल जाने के बाद, दवा निर्माता को इस दवा निर्माण के लिए राज्य लायसेंसिंग अधिकारी से लायसेंस प्राप्त करना होता है (state licensing authority)। लायसेंस मिलने के बाद ही उसका उत्पादन शुरू किया जा सकता है।

अब, 70-80-90 के दशक में हुआ यह कि कई निर्माता केंद्रीय प्राधिकरणों से इनकी जांच-परख कराने और मंज़ूरी लेने की ज़हमत उठाने की बजाय लाइसेंस के लिए सीधे लायसेंसिंग प्राधिकरण के पास चले जाते थे (regulatory authorities)। वास्तव में, राज्य लायसेंसिंग प्राधिकरण को पूछना चाहिए था कि क्या आपको केंद्रीय प्राधिकरण से मंज़ूरी मिल गई है (central approval)? लेकिन वे नहीं पूछते थे। तो, निर्माताओं ने इस ढीले-ढाले रवैये का फायदा उठाया और अपनी मनचाही औषधियों का निर्माण किया (manufacturing practices)। और इस तरह जांच-परख के अभाव में कई बेतुकी और बिना किसी औचित्य की दवाएं बाज़ार में आ गईं (market regulations)। 

चूंकि तब भारतीय फार्मा उद्योग खूब फल-फूल रहा था, जो अभी भी उत्तरोत्तर बढ़ ही रहा है (Indian pharmaceutical industry), इसलिए इतनी सारी औषधियां बाज़ार में लाने को एक जश्न की तरह देखा गया। और इस तरह दवा निर्माता अधिकाधिक औषधियां बाज़ार में लाते गए (market expansion)। 

वे सिर्फ शॉर्टकट से अत्यधिक औषधियां नहीं लाए, बल्कि उन्होंने कई विवादास्पद दावे भी किए। जैसे एफडीसी में आपको एक से अधिक ऐसी दवाइयां मिलेंगी जो आपके लिए बेहतर है (product claims)। लेकिन किसी ने उन दावों पर सवाल नहीं उठाए। और तो और, (कुछ भले लोगों को छोड़कर) डॉक्टरों, चिकित्सा पेशेवरों, इंडियन मेडिकल एसोसिएशन जैसे ज़िम्मेदार समूहों तक ने इन पर सवाल नहीं उठाए (medical professionals, Indian Medical Association)। 

बाज़ार में एफडीसी की बाढ़ लाने में एक कारण कीमत भी है (drug pricing)। दरअसल, एफडीसी औषधियां बनाकर निर्माता (एकल) औषधियों के लिए सरकार द्वारा निर्धारित अधिकतम मूल्य से बच निकलते हैं (price control regulations)। फिलहाल, भारत में राष्ट्रीय ज़रूरी दवा सूची (NLEM) में शामिल 384 दवाइयां मूल्य नियंत्रण के दायरे में हैं (NLEM list)। लेकिन 80-90 के दशक में, बहुत कम औषधियां मूल्य नियंत्रण के अधीन थीं; बाज़ार में मौजूद कुल औषधियों में से लगभग 5-10 प्रतिशत। आज भी यह अधिक से अधिक 20 प्रतिशत है (market share, drug pricing controls)। 

अब यदि निर्माता NLEM में शामिल औषधि के मूल्य नियंत्रण से बचना चाहते हैं तो रास्ता आसान है; औषधि में कैफीन जैसी कोई चीज़ जोड़कर इसके निर्माण के लिए अनुमोदन ले लिया जाए (exemptions from price control)। यह मिश्रण दवा मूल्य नियंत्रण से बाहर हो जाएगी (price control exemptions)। 

इसके अलावा, यदि पैरासिटामॉल की 500 मि.ग्रा. की गोली NLEM सूची में है, तो निर्माता इसका पैरासिटामॉल 501 मि.ग्रा. संस्करण बनाकर मूल्य नियंत्रण से बाहर निकल सकते हैं (dosage variations)। क्योंकि मूल्य नियंत्रण सिर्फ औषधियों की विशेष शक्ति पर लागू होता है। इसका वास्तविक उदाहरण है बाज़ार में मौजूद पैरासिटामॉल 1000 मि.ग्रा. (high dosage forms)। पैरासिटामॉल का यह अनुचित डोज़ है, लेकिन इसे मंज़ूरी मिली हुई है, बाज़ार में उपलब्ध है और यह मूल्य नियंत्रण से बाहर है (market availability, price control). तो, बस खुराक बदलकर, या एक या अधिक सामग्री जोड़कर निर्माता इसे एक नई दवा कहते हैं और मूल्य नियंत्रण से बच निकलते हैं (regulatory loopholes, price control evasion)।

सिर्फ इतना ही नहीं, दवा निर्माता अपनी महंगी दवाइयों को खरीदने के लिए लोगों को बेतुके तर्क देकर बरगलाते भी हैं (marketing tactics)। जैसे वे इन महंगी दवाओं को यह कहकर बेचते हैं कि हम आपको एक से अधिक समस्याओं के लिए एक साथ दो दवाएं दे रहे हैं (product benefits, combination drugs)। 

सवाल उठता है कि आखिर क्या एफडीसी कभी उपयुक्त भी होते हैं या हमेशा बेतुके होते हैं (appropriateness of FDCs)? ऐसा नहीं हैं। कुछ मामलों में एफडीसी उपयोगी होते हैं। जैसे तब जब उनमें उपस्थित घटक लगभग हमेशा साथ-साथ देना ज़रूरी होता है (functional combinations)। जीवन रक्षक घोल (ओआरएस) एक उदाहरण है (ORS solution)। इसमें मिलाए गए घटक डीहायड्रेशन कम करने, दस्त की रोकथाम वगैरह में ज़रूरी हैं। इसके अलावा, कई घटक एक-दूसरे की क्रिया में मददगार होते हैं। इस स्थिति में इन्हें सिनर्जिस्टिक कहते हैं (synergistic effects)। यदि किसी एफडीसी के घटक सिनर्जिस्टिक हैं तो उसे तर्कसंगत कहा जा सकता है (rational use of FDCs)। 

फिर, एफडीसी के घटकों की जैव-उपलब्धता (bioavailability) पर विचार करना होगा। यानी यदि दो या दो से अधिक औषधियां सम्मिलित रूप में परोसी जा रही हैं तो उन्हें लगभग एक ही समय में रक्त में चरम पर होना चाहिए (pharmacokinetics)। लेकिन अधिकांश एफडीसी में शामिल दवाइयों के साथ ऐसा नहीं है। इसलिए, ऐसे मिश्रण तर्कहीन हैं (inappropriate combinations)। 

वास्तव में, NLEM, 2022 में तकरीबन 384 ज़रूरी दवाइयों में से केवल 22 एफडीसी ही इस सूची में है (essential medicines list, NLEM)। चूंकि ये NLEM में है, इसलिए इन 22 एफडीसी को तर्कसंगत माना जा सकता है (approved FDCs)। 

एक अनुमान है कि लगभग 800-900 अणु औषधीय उपयोग के लिए उपलब्ध हैं (drug molecules)। इनमें से कई औषधियों के निर्माण आदि सम्बंधी जानकारी एवं इनकी गुणवत्ता की जांच के तरीके भारतीय फार्माकोपिया व अन्य बेहतर नियंत्रित देशों के फार्माकोपिया में वर्णित हैं (pharmacopoeia standards)। एकल घटक औषधियों की गुणवत्ता या कारगरता परख के लिए अधिकतम 20 मानदंड हैं जिन पर खरा उतरना आवश्यक है। लेकिन यदि दो या अधिक घटकों का संयोजन कर दिया जाता है, तो हमारे पास इन संयोजनों की गुणवत्ता या कारगरता को जांचने-परखने के कोई मानक मानदंड नहीं है (combination standards, quality assessment)। क्योंकि इनका फार्माकोपिया में कोई उल्लेख नहीं है। नतीजा, एफडीसी के निर्माता ही हमें संयोजन के परीक्षण के तरीके बताते हैं (manufacturer claims)। इन पर निगरानी रखने वाले विशेषज्ञों के पास इन तरीकों को जांचने के लिए न तो समय होता है और न ही सुविधा (regulatory oversight)। नतीजतन, इन एफडीसी औषधियों की गुणवत्ता और कारगरता के बारे में कुछ कहना जटिल मामला हो जाता है (complexity in assessment)। और फिर, किसी ने इन पर पर्याप्त शोध भी नहीं किए हैं। NLEM में शामिल 22 संयोजनों पर ही पर्याप्त शोध हुए हैं (research gaps, studies on FDCs)।

उपरोक्त कारणों से बाज़ार में तर्कहीन एफडीसी की भरमार है (excess of irrational FDCs)। इनमें एंटीबायोटिक्स, दर्दनिवारक या मधुमेह-रोधी इत्यादि के संयोजन भी मौजूद हैं (antibiotic combinations, painkillers, antidiabetic drugs)। जैसे, एंटीबायोटिक और दर्दनिवारक, एंटीबायोटिक और एंटी-कोलेस्ट्रॉल, एंटीबायोटिक और एंटी-ब्लडप्रेशर, इत्यादि (antibiotic and painkiller, antibiotic and anti-cholesterol, antibiotic and anti-hypertension)। ये एफडीसी अलग-अलग उपचारात्मक वर्ग की औषधियों के मिश्रण हैं (therapeutic classes of drugs).

होता यह है कि (एफडीसी की भरमार के कारण) कई बार कोई रोगी दो, तीन या दस दवाओं के संयोजन वाली औषधि खा रहा होता है, जबकि उसे सिर्फ एक ही औषधि की ज़रूरत थी (excessive drug combinations)। जैसे, लोग दर्द के लिए कॉम्बिफ्लेम (पैरासिटामॉल और इबुप्रोफेन का संयोजन) लेते हैं (Combiflam, paracetamol and ibuprofen combination)। जबकि दर्द के लिए आपको सिर्फ पैरासिटामॉल की ज़रूरत है, इबुप्रोफेन की नहीं है (need for only paracetamol)। इसलिए, जब आप दर्द में कॉम्बिफ्लेम ले रहे हैं, तो आपको इबुप्रोफेन के प्रतिकूल प्रभाव होते हैं (adverse effects of ibuprofen)। इसी तरह, जब आप एफडीसी के चलते बेवजह पैरासिटामॉल खाते हैं तो लीवर की क्षति और अन्य समस्याएं हो सकती हैं (liver damage, unnecessary paracetamol intake)। अनावश्यक रूप से ज़्यादा दवाएं खा लेने के अपने साइड-इफेक्ट और प्रतिकूल प्रभाव होते हैं (side effects, adverse reactions)। इसलिए एफडीसी रोगी के जीवन को जटिल बना रही हैं (complications from FDCs)।

अब थोड़ा बाज़ार में इनकी बिक्री की स्थिति देखते हैं। एक आंकड़ा है कि भारत में दवाओं की कुल बिक्री का लगभग 50 प्रतिशत एफडीसी हैं और 50 प्रतिशत एकल घटक दवाएं हैं (market share of FDCs and single ingredient drugs)। ऐसा पाया गया है कि इस 50 प्रतिशत एफडीसी में से आधी बिक्री तो तर्कसंगत एफडीसी की है और शेष तर्कहीन एफडीसी की (rational vs irrational FDCs)। यानी बाज़ार में कम से कम 25 प्रतिशत तर्कहीन एफडीसी बिक रही हैं (percentage of irrational FDCs)。

वर्तमान में, भारत में औषधियों का बाज़ार लगभग 2 लाख करोड़ (2 ट्रिलियन) रुपए का है (pharmaceutical market size, 2 trillion INR)। इसमें से 25 प्रतिशत यानी 50,000 करोड़ रुपये तर्कहीन एफडीसी की खपत से आते हैं (market value of irrational FDCs)। यदि इन्हें बाज़ार से हटा दिया तो ज़ाहिर है, दवा की बिक्री में भारी गिरावट आएगी (impact on market sales)। बाज़ार तो इन दवाओं के हटाने तो तैयार नहीं होगा, न ही शेयरधारक क्योंकि उन्हें अपने निवेश पर रिटर्न चाहिए (shareholder interests, market resistance)。

तर्कहीन एफडीसी को बाज़ार से हटाने के लिए ज़रूरत है सरकार के स्तर पर उचित कार्रवाई की, उचित प्रक्रिया अपनाने की और सख्त नियम-कानून लागू करने की और उल्लंघन पर सख्त कार्रवाई की (government intervention, regulatory measures, strict enforcement)। यदि पहले से ही दवाओं का निर्माण उचित मंज़ूरी प्रक्रिया से गुज़रा होता और ऐसा न होने पर कंपनियों पर सख्त दंड लगाया गया होता तो यह नौबत न होती (approval process, penalties for non-compliance)। बस कुछ-कुछ समय के अंतराल में तर्कहीन दवाएं ढूंढकर उन पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है (ban on irrational drugs, periodic monitoring)। होता यह है कि दवा कंपनियां इन प्रतिबंधों को निरस्त करवाने या स्थगन आदेश के लिए न्यायालय जाती हैं और न्यायालय की कार्रवाई में सालों-साल बीत जाते हैं (legal battles, court delays)। तब तक ये बेतुकी दवाइयां बाज़ार में बिकती रहती हैं (availability of irrational drugs in the market)। दरअसल, इस मामले में औषधि नियामकों और दवा उद्योग, दोनों को दोषी माना जाना चाहिए (responsibility of regulators and pharmaceutical industry)।

ऐसा ही मार्च 2016 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा नियुक्त कोकते कमेटी द्वारा 344 एफडीसी पर लगाए गए प्रतिबंध का मामले में हुआ था (March 2016, Kokate Committee). कोकते समिति ने करीब 6000 एफडीसी की जांच की थी (review of 6000 FDCs)। समिति ने इन एफडीसी को चार श्रेणियों में डाला था (categories of FDCs)। पहली श्रेणी में 344 एफडीसी थीं जो निश्चित रूप से तर्कहीन थीं और इन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने को कहा गया था (irrational FDCs, complete ban)।

दूसरी श्रेणी में ऐसी औषधियां थीं जिन पर अधिक डैटा की आवश्यकता थी (more data required)। और कंपनियों को इन पर अधिक डैटा प्रस्तुत करने के लिए समय दिया गया (extended deadline for data submission)। तीसरी श्रेणी तर्कसंगत एफडीसी की थी (rational FDCs)। वे उचित कागज़ी कार्रवाई के बाद इनका निर्माण विपणन जारी रख सकती थीं (market approval with proper documentation)। और चौथी श्रेणी में, वे एफडीसी थीं जिनकी तर्कसंगतता के बारे में कुछ कहने से पहले विपणन-पश्चात निगरानी, परीक्षण आदि की आवश्यकता थी (post-marketing surveillance required)।

लेकिन कंपनियां एकदम तर्कहीन 344 एफडीसी के मामले में तुरंत न्यायालय चली गईं (court cases against irrational FDCs)। न्यायालय ने सरकार को दोबारा जांच समिति बनाने का निर्देश दिया ताकि दवा उद्योग की राय पर फिर से विचार किया जा सके (court directives for re-evaluation)। डॉ. नीलिमा क्षीरसागर की अध्यक्षता में गठित इस समिति ने भी सितंबर 2018 में प्रतिबंध को जायज़ ठहराया (September 2018, Dr. Neelima Kshirsagar Committee)। लेकिन कंपनियां फिर से अदालत पहुंच गईं (legal challenges by companies)। कंपनियां झुकने को तैयार नहीं होती हैं, भले ही उन्हें पता होता है कि दवाओं पर जो प्रतिबंध लगे हैं वे एकदम सही हैं (resistance to bans, valid restrictions)। कुछ को लगता है तर्कहीन एफडीसी से अच्छा मुनाफा मिलता है इसे हाथ क्यों जाने दें, इसलिए केस लड़ती हैं (profit from irrational FDCs, legal battles)। साथ में वकीलों को लाभ होता है (benefits to lawyers)। मुकदमा चलता रहता है और प्रतिबंधित एफडीसी बाज़ार में बिकती रहती हैं (market availability of banned FDCs)। प्रसंगवश यह बताया जा सकता है कि 2016 में हाई कोर्ट और 2018 में सुप्रीम कोर्ट में इन कंपनियों की पैरवी देश के नामी-गिरामी वकीलों ने की थी (notable lawyers in High Court and Supreme Court cases)। ताज़ा आदेश के सिलसिले में भी कंपनियां कोर्ट से कुछ राहत पाने में सफल रही हैं (recent court relief).

कुल मिलाकर स्थिति यह है कि भारत में निगरानी व्यवस्था अपर्याप्त है, और जो कुछ है उसका पालन घटिया दर्जे का है (insufficient regulatory oversight, poor enforcement)। और इसलिए कंपनियां जो चाहें कर रही हैं (industry malpractices)। वर्तमान में देखें तो हमारे पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश के पास एक अच्छी दवा नीति है, जो उन्होंने 1982 में लागू की थी (Bangladesh drug policy, 1982)। उन्होंने बहुत सी तर्कहीन दवाइयों को हटा दिया था (removal of irrational drugs in Bangladesh)। वहां सामान्यत: केवल तर्कसंगत एकल घटक वाली दवाइयां ही उपलब्ध होती हैं (availability of rational single-ingredient drugs)। तो, जहां चाह है, वहां राह है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://economictimes.indiatimes.com/thumb/msid-51433877,width-1200,height-900,resizemode-4,imgsize-104148/move-to-ban-fixed-dose-combinations-a-culmination-of-efforts-to-free-market-from-irrational-drugs.jpg?from=mdr

परजीवी कृमियों की क्रूर करतूतें

एक सूक्ष्म चपटा कृमि है जो क्लोनिंग (cloning) के ज़रिए हज़ारों कृमियों की फौज बना लेता है। हैप्लोर्किस प्यूमिलियो (Haplorchis pumilio) नामक ये कृमि घोंघे को संक्रमित (infect) करते हैं और उसके प्रजनन अंगों की दावत उड़ाते हैं। अंतत: वह घोंघा वंध्या हो जाता है। ये चपटे कृमि दो-चार हफ्ते नहीं, सालों तक वहां बने रहते हैं और घोंघे के खून में से पोषण चूसते रहते हैं और अपने क्लोन बनाते रहते हैं। यानी यह घोंघा परजीवी-निर्माण कारखाना (parasite factory) बनकर रह जाता है। 

और क्रूरता यहीं समाप्त नहीं होती। जहां अधिकांश कृमि प्रजनन के बाद अपने लार्वा (larvae) को झीलों या नदी-नालों (ponds or rivers) में छोड़ देते हैं ताकि वे नए शिकार तलाश सकें, वहीं इस परजीवी के कुछ लार्वा प्रजनन के अयोग्य होते हैं और पानी में जाने की बजाय वहीं बने रहते हैं। ये सैनिकों (soldiers) के रूप में भूमिका निभाते हैं और इनके गले बड़े-बड़े होते हैं। 

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज़ (Proceedings of the National Academy of Sciences) में शोधकर्ताओं (researchers) ने बताया है कि ये अन्य प्रतिस्पर्धी परजीवियों के शरीर में छेद कर देते हैं और उनकी आंतों को चूस लेते हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक यह इन कृमियों में सामाजिक व्यवस्था (social structure) का द्योतक है। वैसे तो मधुमक्खियों और चींटियों जैसे जंतुओं में सामाजिक विभेदन देखने को मिलता है लेकिन ट्रेमेटोडा वर्ग (Trematoda class) के कृमियों में यह पहली बार देखा गया है। पहले के शोधकर्ताओं का विचार था कि ये सैनिक कृमि जीवन में कभी ना कभी प्रजनन करते होंगे। 

हैप्लोर्किस प्यूमिलियो को लेकर यह खोज संयोग और सोच-समझकर किए गए प्रयोगों (experiments) का मिला-जुला परिणाम है। एक झील के पास टहलते हुए परजीवी वैज्ञानिक (parasitologist) डैन मेट्ज़ की नज़र एक अजीब से घोंघे पर पड़ी। उन्होंने इसे पहचान लिया – यह मलेशिया मूल का ट्रम्पेट घोंघा (Melanoides tuberculata) था। वे इसे प्रयोगशाला (laboratory) में ले आए। वहां जब उसे सूक्ष्मदर्शी के नीचे एक तश्तरी में रखा तो देखा कि उसमें से परजीवी निकल-निकल कर आसपास तैर रहे हैं। 

मेट्ज़ ने पहचान कर ली कि ये परजीवी एच. प्यूमिलियो हैं। जांच करने पर पता चला कि कृमि के अंदर बच्चे भरे हुए हैं। खुद कृमि लगभग 1 मिली मीटर लंबा था। कुछ छोटे कृमि भी थे जो सामान्य साइज़ का मात्र 5 प्रतिशत थे यानी 1 मिलीमीटर का बीसवां भाग। लेकिन छोटे होने के बावजूद उनके मांसल गले विशाल थे – पूरे शरीर का लगभग एक-चौथाई। मेट्ज़ का विचार था कि ये सैनिक होंगे। 

अगला कदम था परजीवियों की कुश्ती। मेट्ज़ ने एच. प्यूमिलियो के सैनिकों को अन्य परजीवी कृमि प्रजातियों (parasite species) के साथ रखा। वे प्रजातियां भी आम तौर पर घोंघों को संक्रमित करती हैं। सैनिक इन पराए कृमियों के पास गए, अपना मुंह उनसे चिपकाया और गले को फुलाया। इसकी वजह से निर्वात उत्पन्न हुआ जिसके चलते बड़े परजीवियों के शरीर में छेद हो गए। इस छेद के ज़रिए सैनिकों ने उस परजीवी की आंतों को चूसकर बाहर निकाला और खा गए। लेकिन अजीबोगरीब बात यह देखी गई कि जब इन सैनिकों को उन्हीं की प्रजाति के अन्य सदस्यों के साथ रखा गया तो उन्होंने अपने प्रजननक्षम सहोदरों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। 

इन सैनिकों में प्रजनन अंग (reproductive organs) भी नहीं पाए जाते और आजीवन वे वंध्या अवस्था में ही रहते हैं। यानी ये इसी रक्षात्मक भूमिका (defensive role) के लिए तैयार हुए हैं। इसके आधार पर मेट्ज़ का विचार है कि यह वास्तविक सामाजिक व्यवस्था का लक्षण है जैसी कि मधुमक्खियों, चींटियों, दीमकों वगैरह में पाई जाती है। 

एच. प्यूमिलियो का यह फौजी जमावड़ा (military group) काफी मददगार साबित होता है। 2021 में मेट्ज़ और उनके साथियों मे 3164 एम. ट्यूबरकुलेटा घोंघों का सर्वेक्षण किया था। उन्होंने देखा कि एच. प्यूमिलियो ने घोंघों पर पूरा कब्ज़ा कर लिया था। ऐसे मामले बिरले ही थे जहां घोंघों को किन्हीं अन्य प्रजातियों ने संक्रमित किया हो। और तो और, जिन मामलों में अन्य प्रजातियों ने घोंघों को संक्रमित किया था, उनमें भी एच. प्यूमिलियो का ही वर्चस्व (dominance) दिखा।  लड़ाइयों में एच. प्यूमिलियो सैनिक कभी नहीं मारे गए, बल्कि वे ही हमेशा किसी और को मारते दिखे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.zngo9b5/abs/_20240729_on_soldier-parasite_v2.jpg

अंतरिक्ष में विकलांगता को पछाड़ने का अवसर

सुबोध जोशी

अंतरिक्ष का यात्रा का अवसर मिलना एक दुर्लभ घटना है। दुनिया के अरबों लोगों में से अब तक सिर्फ 600 व्यक्तियों को ही अंतरिक्ष यात्रा (space travel) का मौका मिला है। इसकी शुरुआत 12 अप्रैल 1961 को रूस के यूरी गागरिन की अंतरिक्ष यात्रा के साथ हुई थी। पिछले 63 सालों से कुछ ज़्यादा की अवधि में मोटे तौर पर दुनिया भर के सिर्फ 600 व्यक्तियों को ही यह मौका मिला है। ये 600 व्यक्ति भी गिने-चुने देशों के रहे हैं। अब तक दुनिया के सिर्फ तीन देश रूस, अमेरिका और चीन ही मानव सहित अंतरिक्ष यान (manned spacecraft) भेज सके हैं। 

अंतरिक्ष यात्रा एक दुर्लभ क्षेत्र है और अंतरिक्ष यात्री (astronaut) के रूप में उन्हीं का चयन होता आया है जो अन्य योग्यताएं पूर्ण करने के साथ-साथ शारीरिक रूप से फिट हों। ऐसा इसलिए क्योंकि अंतरिक्ष में स्वास्थ्य सम्बंधी अनेक खतरों की संभावना रहती है। वहां सूक्ष्म गुरुत्वाकर्षण और भारहीनता (microgravity, weightlessness) की स्थितियों में रहना पड़ता है जिनके कारण शरीर में बदलाव आ जाते हैं। इनके प्रभाव पृथ्वी पर लौट आने के बाद भी काफी समय तक बने रहते हैं। कमज़ोर शरीर या स्वास्थ्य वाले व्यक्ति के लिए अंतरिक्ष यात्रा के स्वास्थ्य सम्बंधी खतरे घातक हो सकते हैं। अच्छी शारीरिक स्थिति और अच्छे स्वास्थ्य वाले व्यक्तियों को भी अंतरिक्ष यात्रा के लिए चुने जाने के बाद गहन परीक्षणों और अनुकूलन प्रशिक्षण (adaptation training) से गुज़रना होता है। 

इन सब कारणों से अब तक किसी विकलांग व्यक्ति को अंतरिक्ष यात्रा पर भेजने पर विचार तक नहीं किया गया था। 

अब युरोपियन स्पेस एजेंसी (European Space Agency) ने एक अनोखी पहल करते हुए एक ब्रिटिश डॉक्टर और पैरालिंपियन जॉन मैकफॉल का चयन दुनिया के पहले पैरा-एस्ट्रोनॉट (parastronaut) के रूप में किया है। अंतरिक्ष यात्रा के लिए वे दुनिया के पहले विकलांग उम्मीदवार (disabled astronaut) हैं। 

सेना में करियर बनाने के इच्छुक जॉन मैकफॉल 19 साल की उम्र में थाईलैंड यात्रा के दौरान एक मोटरसाइकिल दुर्घटना का शिकार हो गए थे जिसके कारण उनका दायां पैर घुटने के ऊपर से काटना पड़ा। उन्हें कृत्रिम पैर (prosthetic leg) लगाया गया था। 

रोहेम्पटन हॉस्पिटल की विकलांग पुनर्वास विंग में ‘अवसर’ शीर्षक से उन्होंने एक कविता लिखी थी जिसका समापन उन्होंने इन पंक्तियों के साथ किया था: 

“जो आंसू इस पन्ने को भिगो रहे हैं, 

वे मायूसी के नहीं हैं 

और न ही हताशा या अपराधबोध के हैं, 

अपितु इस बात को नज़रअंदाज़ करने का पागलपन है 

कि मेरा दिल अब भी धड़क रहा है 

और मैं जिस दरवाज़े की ओर कदम बढ़ा रहा हूं 

उसके पीछे एक अवसर (opportunity) खुलने को है।” 

जॉन मैकफॉल अपनी कविता में आपदा में अवसर की बात कर रहे थे। लेकिन सामान्य तौर पर भी विकलांग व्यक्तियों के जीवन में यह शब्द ‘अवसर’ अत्यंत महत्वपूर्ण है। विकसित पश्चिमी देशों और पिछड़े एवं विकासशील देशों के विकलांग व्यक्तियों के जीवन की गुणवत्ता के बीच सारा अंतर सामाजिक दृष्टि से ‘अवसर’ के अंतर के कारण है। विकलांग व्यक्तियों के प्रति समाज में स्वीकार्यता और सकारात्मक रवैया हो और साथ ही समाज में उन्हें गैर-विकलांग व्यक्तियों के समान अवसर (equal opportunity) मिलें और उनकी भागीदारी सुनिश्चित हो तो वे न सिर्फ अपनी क्षमताओं का उपयोग करते हुए समाज के उपयोगी सदस्य बन सकते हैं बल्कि ऐसे कार्य भी कर सकते हैं जिनसे सारे समाज को लाभ मिले। समाज में समानता और समावेशन (inclusion) उनका अधिकार है।

जॉन मैकफॉल ने अपने बुरे दौर में खेलों में भाग लेना शुरू किया था। पैर खोने के आठ साल बाद उन्होंने 2008 के बीजिंग ओलंपिक (Beijing Olympics) में भाग लिया और 100 मीटर रेस में कांस्य पदक (bronze medal) जीता। इसके बाद अपनी पढ़ाई जारी रखते हुए उन्होंने कार्डिफ यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ मेडिसिन (Cardiff University, School of Medicine) से एमबीबीएस (MBBS) की डिग्री हासिल की और ऑर्थोपेडिक सर्जन (orthopedic surgeon) बने। आगे उन्होंने विज्ञान, चिकित्सा विज्ञान (medical science), खेल आदि कई विषयों में और पढ़ाई की। बीजिंग ओलंपिक के अलावा भी उन्होंने अनेक अंतर्राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में भाग लिया और पदक जीते। दौड़ के अलावा कई साहसिक खेलों (adventure sports) में भी वे भाग लेते रहे। विज्ञान में शिक्षा और खेलों से मिली फिटनेस (fitness) ने उन्हें पैरा-एस्ट्रोनॉट के रूप में चयन का पात्र बनाया। 

बीजिंग ओलंपिक के बाद क्रिसमस पर उनके पिता ने उन्हें एक एटलस भेंट किया था, जिसमें उन्होंने लिखा था: “बेटा, हमेशा अतिरिक्त प्रयास करो। जीवन तुम्हें पुरस्कृत करेगा।” यह जॉन मैकफॉल का ‘अचेतन मंत्र’ बन गया। 

“पैरा-एस्ट्रोनॉट फिज़िबिलिटी प्रोग्राम” (Parastronaut Feasibility Program) में जॉन मैकफॉल को कक्षा में आपातकालीन प्रक्रियाएं पूरी करने की क्षमता और सूक्ष्म-गुरुत्व (microgravity) में अपने आप को स्थिर रखने की क्षमता के बारे में कई महीनों का कठोर प्रशिक्षण प्रदान किया गया है। यदि उन्हें अंतरिक्ष यात्रा (space mission) पर भेजा जाता है तो वे चालक दल (crew) के अन्य गैर-विकलांग सदस्यों के समान ही अपने कर्तव्यों का पालन करेंगे। साथ ही अंतरिक्ष यात्रा का उनकी विकलांगता और उनके कृत्रिम अंग (prosthetic limb) पर पड़ने वाले प्रभावों का भी परीक्षण किया जाएगा। चूंकि वे चालक दल के अन्य गैर-विकलांग सदस्यों के समान ही अपने कर्तव्यों का पालन करेंगे, इसीलिए वे स्वयं को “पैरा-एस्ट्रोनॉट” की बजाय “एस्ट्रोनॉट” (astronaut) संबोधित किए जाने की वकालत करते हैं। उनका तर्क है कि वे एक “पैरा-सर्जन” और “पैरा-डैड” नहीं बल्कि एक सामान्य चिकित्सक (सर्जन) और सामान्य पिता हैं। 

युरोपियन स्पेस एजेंसी (ESA) ने पैरा-एस्ट्रोनॉट के रूप में जॉन मैकफॉल का चयन गहन वैज्ञानिक परीक्षण (scientific evaluation) के उद्देश्य से किया है। साथ ही ऐसा करके युरोपियन स्पेस एजेंसी ने सामाजिक दृष्टि से एक क्रांतिकारी कदम उठाया है। एक ओर दुनिया के अधिकांश देशों में जहां विकलांग व्यक्ति समाज में स्वीकार्यता, समानता (equality), अवसर, भागीदारी और समावेश के लिए आज भी संघर्ष कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर, विकसित यूरोपीय देश, अमेरिका और जापान समावेशी समाज निर्मित करने की दिशा में काफी आगे बढ़ चुके हैं। युरोपियन स्पेस एजेंसी में 22 सदस्य देश (member countries) हैं। एजेंसी द्वारा अंतरिक्ष यात्रा के लिए विकलांग व्यक्ति का चयन करने का अर्थ है ये 22 देश विकलांग व्यक्तियों के प्रति शेष दुनिया से ज़्यादा संवेदनशील, सकारात्मक रवैये वाले और समावेशी समाज (inclusive society) निर्मित करने के प्रति ईमानदार हैं। ये देश न सिर्फ धरती पर बल्कि अंतरिक्ष में भी समावेशन की दिशा में कदम उठा रहे हैं। वैज्ञानिक उन्नति (scientific progress) के लिए किए जा रहे प्रयासों के साथ इस सामाजिक आयाम का समावेशन इस पहल को और अधिक महत्वपूर्ण बनाता है। शेष दुनिया को इससे प्रेरणा लेते हुए कम से कम अपनी धरती पर समावेशी समाज निर्मित करने के प्रति गंभीर हो जाना चाहिए। 

जॉन मैकफॉल की अंतरिक्ष की उड़ान सचमुच हौसलों की उड़ान (flight of courage) होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दक्षिण भारत में भी है फूलों की घाटी

डॉ. ओ. पी. जोशी

उत्तराखंड राज्य के चमौली ज़िले में गोविंदघाट के पास स्थित फूलों की घाटी विश्व प्रसिद्ध है। इसे अब नंदादेवी राष्ट्रीय उद्यान के नाम से जाना जाता है। इसी प्रकार एक दूसरी सुंदर फूलों की घाटी सह्याद्री पर्वत माला के 900 से 1200 मीटर की ऊंचाई पर स्थित पठार के एक भाग में है। लाल लेटेराइट मिट्टी से बना यह पठार 1792 हैक्टर में फैला है एवं कास नामक गांव की बस्ती होने से इसे कास पठार (Kaas Plateau) कहा जाता है। कास पठार महाराष्ट्र के सतारा ज़िले से 23 किलोमीटर की दूरी पर एवं समुद्रतल से 1200 से 1240 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। जुलाई 2012 में इसे यूनेस्को के विश्व धरोहर स्थलों (UNESCO World Heritage Site) में शामिल किया गया था।

इस पठार पर 570 हैक्टर का क्षेत्र फूलों की अधिकता वाला है जिसे वन विभाग ने चार भागों में बांट रखा है। प्रत्येक भाग में लगभग एक वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में पर्यटक नज़दीक जाकर फूलों को देख सकते हैं। पठार पर मिट्टी की सतह पतली होने से ज़्यादातर पौधे शाकीय प्रकृति के छोटे होते हैं। प्रत्येक भाग के चारों तरफ तारों की बागड़ है तथा वन विभाग के कर्मचारी सुरक्षा गार्ड की भूमिका निभाते हैं। मानसून (Monsoon Season) आने के साथ ही जुलाई में फूल खिलना प्रारम्भ हो जाते हैं। जुलाई से लेकर मध्य अक्टूबर तक बारिश एवं धूप जैसे मौसमी हालात के अनुसार फूल खिलने का क्रम आगे बढ़ता रहता है। सामान्यतः 15 से 20 दिनों में फूलों का रंग बदल जाता है एवं जिस रंग के फूल खिलते हैं उससे ऐसा लगता है मानो पठार पर प्रकृति ने रंगीन चादर फैलाई हो। सितंबर 10 से 25 तक का समय कास पठार की सुंदरता निहारने हेतु श्रेष्ठ बताया गया है (Best time to visit Kaas Plateau)।

एक अध्ययन अनुसार यहां पुष्पीय पौधों की 850 प्रजातियां पाई जाती हैं जिनमें से 450 में जुलाई से सितंबर/अक्टूबर तक अलग-अलग समय पर भिन्न-भिन्न रंगों के फूल खिलते हैं। गुलाबी, नीला-बैंगनी तथा पीला रंग क्रमशः बालसम (Balsam Flowers), कर्वी या कुरिंजी तथा स्मीथिया प्रजातियों के पौधों में फूल खिलने से पठार उन्हीं रंगों का नज़र आता है। अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN – International Union for Conservation of Nature) ने यहां 624 प्रजातियों की सूची बनाई है जिनमें 39 स्थानिक (Endemic Species) हैं अर्थात यहीं पाई जाती हैं। संघ ने 32 प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा बताया है जिनमें जलीय पौधा रोटेला तथा शाकीय सरपोज़िया मुख्य है। कोल्हापुर स्थित शिवाजी विश्वविद्यालय के वनस्पति शास्त्र विभाग के एक दल ने प्रो. एस. आर. यादव के नेतृत्व में 1792 हैक्टर में फैले पूरे कास पठार का लंबे समय तक सभी मौसम में अध्ययन कर बताया था कि वनस्पतियों (पुष्पीय व अन्य पौधे) की 4000 प्रजातियां यहां है। इसमें से 1700 ऐसी हैं जो यहां के अलावा दुनिया में कहीं और नहीं पाई जाती हैं। जून के महीने में खिलने वाला गुलाबी फूल का पौधा एपोनोजेटान सतारेंसिस (Aponogeton satarensis) मात्र यहीं पाया जाता है। कुरिंजी (Kurinji Flowers) की दो किस्में यहां ऐसी हैं जिनमें 7 वर्ष में एक बार फूल खिलते हैं। कीटभक्षी पौधे ड्रॉसेरा (Drosera) तथा यूट्रीकुलेरीया (Utricularia) भी यहां पाए जाते हैं।

कास पठार पर बसी इस फूलों की घाटी की प्रसिद्धि बढ़ने से मौसमी पर्यटकों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। इसे नियंत्रित करने हेतु प्रतिदिन 3000 दर्शकों को निर्धारित शुल्क लेकर प्रवेश की अनुमति दी जाती है (Tourist Regulations)। इको टायलेट्स बनाए गए हैं तथा प्लास्टिक उपयोग पर भी रोक है। पौधों पर वायु प्रदूषण के प्रभाव को नियंत्रित करने हेतु पेट्रोल-डीज़ल वाहनों के स्थान पर इलेक्ट्रिक वाहन (Electric Vehicles) बढ़ाए जा रहे हैं। आसपास के गांवों हेतु अलग से मार्ग बनाए जा रहे हैं तथा ग्रामीणों को गैस के सिलेंडर एवं धुआं रहित चूल्हे भी दिए गए हैं। यह विश्व धरोहर सस्ते पर्यटन स्थल में न बदले इस हेतु फार्म हाउस, होटल, बाज़ार, ऊर्जा निर्माण घर एवं पशुओं द्वारा चराई आदि को नियंत्रित या प्रतिबंधित करने के प्रयास भी जारी है। भारत दुनिया के उन 12 देशों में शामिल है जहां जैव विविधता (Biodiversity Hotspot) भरपूर है एवं इसमें उत्तर तथा दक्षिण दोनों स्थानों की फूलों की घाटियों का बड़ा योगदान है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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धरती की जीवनदायिनी क्षमता की रक्षा प्राथमिकता बने

भारत डोगरा

यह स्पष्ट होता जा रहा है कि अब तो धरती की जीवनदायिनी क्षमता ही खतरे में है। लाखों वर्षों तक धरती पर बहुत विविधतापूर्ण जीवन पनपने का आधार ही गंभीर संकट में है। धरती की जीवनदायिनी क्षमता के संकटग्रस्त होने के अनेक कारण हैं – जलवायु बदलाव (climate change) व अनेक अन्य गंभीर पर्यावरणीय समस्याएं (environmental issues), परमाणु हथियार (nuclear weapons) व अन्य महाविनाशक हथियार आदि। 

वर्ष 1992 में विश्व के 1575 वैज्ञानिकों ने (जिनमें उस समय जीवित नोबल पुरस्कार (Nobel Prize) सम्मानित वैज्ञानिकों में से लगभग आधे शामिल थे) एक बयान जारी किया था। इसमें उन्होंने कहा था, “हम मानवता को इस बारे में चेतावनी देना चाहते हैं कि भविष्य में क्या हो सकता है? पृथ्वी और उसके जीवन की व्यवस्था जिस तरह हो रही है उसमें एक व्यापक बदलाव की ज़रूरत है अन्यथा दुख-दर्द बहुत बढ़ेंगे और हम सबका घर यह पृथ्वी इस कदर तहस-नहस हो जाएगी कि फिर उसे बचाया नहीं जा सकेगा।” 

आगे इन वैज्ञानिकों ने कहा था कि वायुमंडल (atmosphere), समुद्र, मिट्टी, वन और जीवन के विभिन्न रूपों पर तबाह हो रहे पर्यावरण का बहुत दबाव पड़ रहा है और वर्ष 2100 तक पृथ्वी के विभिन्न जीवन रूपों (life forms) में से एक तिहाई लुप्त हो सकते हैं। मनुष्य की वर्तमान जीवन-पद्धति के कई तौर-तरीके भविष्य में सुरक्षित जीवन की संभावनाओं को नष्ट कर रहे हैं और इस जीती-जागती दुनिया को इतना बदल सकते हैं कि जिस रूप में जीवन को हमने जाना है, उसका अस्तित्व ही दूभर हो जाए। प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों ने ज़ोर देकर कहा था कि प्रकृति की इस तबाही को रोकने के लिए बुनियादी बदलाव ज़रूरी है। 

वर्ष 1992 की चेतावनी के 25 वर्ष पूरा होने पर एक बार फिर विश्व के कई जाने-माने वैज्ञानिकों ने 2017 में एक नई अपील जारी की थी। इस पर 180 देशों के 13,524 वैज्ञानिकों व अन्य प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने हस्ताक्षर किए थे। इस अपील में कहा गया था कि जिन गंभीर समस्याओं की ओर वर्ष 1992 में ध्यान दिलाया गया था उनमें से अधिकांश समस्याएं पहले से अधिक विकट हुई हैं या उनको सुलझाने के प्रयास में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं है। केवल ओज़ोन परत (ozone layer) सम्बंधी समस्या में कुछ उल्लेखनीय सफलता मिली है। अस्तित्व को संकट में डालने वाली अन्य समस्याएं पहले की तरह गंभीर स्थिति में मौजूद हैं या फिर उनकी स्थिति और विकट हुई है। 

स्टॉकहोम रेसिलिएंस सेंटर (Stockholm Resilience Center) के वैज्ञानिकों के अनुसंधान ने हाल के समय में धरती के सबसे बड़े संकटों की ओर ध्यान केंद्रित करने का प्रयास किया है। इस बहुचर्चित अनुसंधान में धरती पर जीवन की सुरक्षा के लिए नौ विशिष्ट सीमा-रेखाओं की पहचान की गई है जिनका उल्लंघन मनुष्य की क्रियाओं को नहीं करना चाहिए। गहरी चिंता की बात है कि इन नौ में से तीन सीमाओं का उल्लंघन आरंभ हो चुका है। ये तीन सीमाएं हैं – जलवायु बदलाव (climate change), जैव-विविधता का ह्रास व भूमंडलीय नाइट्रोजन चक्र में बदलाव। 

इसके अतिरिक्त चार अन्य सीमाओं के उल्लंघन की संभावना निकट भविष्य में है। ये चार क्षेत्र हैं – भूमंडलीय फॉस्फोरस चक्र (phosphorus cycle), भूमंडलीय जल उपयोग, समुद्रों का अम्लीकरण व वैश्विक स्तर पर भूमि उपयोग में बदलाव। 

ये विभिन्न संकट परस्पर सम्बंधित हैं व एक सीमा पार करने (जिसे टिपिंग पॉइंट (tipping point) कहा जाता है) पर धरती की जीवनदायिनी क्षमता की इतनी क्षति हो सकती है कि बहाली कठिन होगी। 

इक्कीसवीं शताब्दी में पहले से कहीं गंभीर चुनौतियां मानवता के सामने हैं। एक वाक्य में कहें, तो यह धरती पर जीवन के अस्तित्व (existence of life) मात्र के लिए संकट उत्पन्न होने की शताब्दी है। धरती पर कई छोटे-मोटे बदलाव तो होते ही रहे हैं, पर धरती पर मानव के पदार्पण के बाद ऐसे हालात पहली बार इक्कीसवीं शताब्दी में ही निर्मित हुए हैं; मानव निर्मित कारणों से हर तरह के जीवन को संकट में डालने वाली स्थिति उत्पन्न हुई है। 

इस संकट के तीन पक्ष हैं। पहला है पर्यावरणीय संकट। पर्यावरणीय संकट के भी अनेक पहलू हैं जैसे, जलवायु परिवर्तन (climate change), जल संकट, वायु प्रदूषण, समुद्र प्रदूषण, जैव विविधता का तेज़ ह्रास, फॉस्फोरस व नाइट्रोजन चक्र (phosphorus and nitrogen cycle) में बदलाव, अनेक खतरनाक नए रसायनों व उत्पादों का बिना पर्याप्त जानकारी के प्रसार, ओज़ोन परत में बदलाव (ozone depletion) आदि। 

दूसरा पक्ष है, महाविनाशक हथियार (weapons of mass destruction), विशेषकर परमाणु, रासायनिक व जैविक तथा रोबोट हथियार। इनमें रासायनिक व जैविक हथियार प्रतिबंधित हैं तथा रोबोट हथियार अभी विकास की आरंभिक स्थिति में है। इसके बावजूद परमाणु हथियारों के साथ ये अन्य हथियार भी जीवन को संकट में डाल सकते हैं। 

तीसरा पक्ष है, कुछ तकनीकों का एक सीमा से आगे विकास। जैसे जेनेटिक इंजीनियरिंग (genetic engineering) व रोबोटिक्स। अस्तित्व का संकट उत्पन्न करने वाले खतरों को तीन या अधिक श्रेणियों में विभाजित करने से उनकी समझ बेहतर बन सकती है पर इसका अर्थ यह नहीं है कि ये संकट हमें अलग-अलग प्रभावित करेंगे। इनमें से कई संकट साथ-साथ बढ़ रहे हैं व हमें इनके मिले-जुले असर को ही सहना होगा। जलवायु बदलाव का असर जल-संकट, समुद्रों में आ रहे बदलावों, जैव विविधता के ह्रास आदि से नज़दीकी तौर पर जुड़ा हुआ है। दूसरी ओर, यदि परमाणु हथियारों का उपयोग वास्तव में होता है तो उसके बाद एक बड़े क्षेत्र में जो बदलाव आएंगे वे विभिन्न अन्य पर्यावरणीय संकटों के साथ मिलकर धरती की जीवनदायिनी क्षमता को प्रभावित करेंगे। 

इसी तरह रोबोट तकनीक के नागरिक उपयोग से उसके सैन्य उपयोग की संभावनाएं बढ़ेंगी। कृषि व स्वास्थ्य में जेनेटिक इंजीनियरिंग के उपयोग से नए जैविक हथियारों की संभावनाएं खुलने लगती हैं। अर्थात ये विभिन्न खतरे एक-दूसरे से विभिन्न स्तरों पर जुड़े हुए हैं। 

यह जानकारी कई दशकों से उपलब्ध है कि धरती पर ऐसे मानव-निर्मित खतरे उत्पन्न हो चुके हैं जो जीवन के अस्तित्व मात्र के लिए संकट उत्पन्न कर सकते हैं। पर अफसोस कि ऐसे संकटों की गंभीर व प्रमाणिक चेतावनियां मिलने के बावजूद, विश्व नेतृत्व की इन खतरों को कम करने की कोई असरदार व टिकाऊ सफलता सामने नहीं आई है। ओज़ोन परत पर मॉन्ट्रियल समझौता (Montreal Protocol) को इस दिशा में सबसे उल्लेखनीय सफलता बताया जाता है, पर ऐसे कुछ छिट-पुट प्रयासों से समग्र स्थिति नहीं बदलने वाली है। ज़ाहिर है, विफलताओं की फेहरिस्त बहुत लंबी है, और सफलताओं की सूची बहुत छोटी है। 

अतः स्पष्ट है कि धरती की जीवनदायिनी क्षमता को खतरे में डालने वाली समस्याएं एक ऐसे अति संवेदनशील दौर में पहुंच रही हैं कि आगामी दशक बहुत निर्णायक सिद्ध होगा, संभवतः मानव इतिहास का सबसे निर्णायक दशक। अतः 2025-2035 के दशक को विश्व स्तर पर धरती की रक्षा के दशक के रूप में घोषित करना चाहिए। इस दशक में एक अभियान की ज़रूरत है ताकि धरती पर जीवन की रक्षा के प्रयासों को बल मिले। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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डायनासौर का सफाया करने वाला पिंड कहां से आया?

ज़ुबैर सिद्दिकी

शोधकर्ता यह पता लगाने में सफल रहे हैं कि पृथ्वी से टकराकर उथल-पुथल मचाने वाली चट्टान कहां से आई थी और किस प्रकार की थी। यह तो आम जानकारी का विषय है कि लगभग साढ़े 6 करोड़ वर्ष पूर्व एक उल्का (meteor impact) पृथ्वी से टकराई थी जिसने डायनासौर (dinosaur extinction) समेत उस समय उपस्थित 75 प्रतिशत प्रजातियों का सफाया कर दिया था। 

दरअसल, वर्ष 2016 में उल्कापिंड की टक्कर से बने गड्ढे, जो मेक्सिको के चिक्सुलब (Chicxulub crater) गांव के निकट समुद्र के पेंदे में दफन है, की ड्रिलिंग के दौरान शोधकर्ताओं को चट्टान का एक टुकड़ा मिला था। वह टुकड़ा कार्बनयुक्त कॉन्ड्राइट (carbonaceous chondrite) था। कार्बनयुक्त कॉन्ड्राइट एक किस्म की उल्काएं होती हैं जिनमें काफी मात्रा में कार्बन पाया जाता है। उस समय लुईस व वाल्टर अल्वारेज़ ने यह विचार प्रस्तुत किया था कि करोड़ों वर्ष पूर्व कोई विशाल उल्का पृथ्वी से टकराई थी जिसके चलते यहां कयामत आ गई थी। 

1980 के बाद अल्वारेज़ द्वय ने यह दर्शाया था कि दुनिया भर में क्रेटेशियस और पेलिओजीन युगों (Cretaceous-Paleogene boundary) के संगम स्थल की परतों में इरिडियम (iridium element) की मात्रा पृथ्वी पर निर्मित चट्टानों से ज़्यादा होती है। यह इस बात का प्रमाण था कि इन परतों के बनने में पृथ्वी से बाहर के पदार्थ का योगदान था। आगे चलकर यह भी पता चला था कि क्रेटेशियस-पेलियोजीन संगम परतों में क्रोमियम (chromium concentration) की मात्रा भी ज़्यादा है लेकिन कहा गया था कि क्रोमियम तो आसपास से घुलकर भी पहुंच सकता है।

अब साइन्स (Science journal) पत्रिका में प्रकाशित एक शोध पत्र में बताया गया है कि दुनिया भर में उस टक्कर से उत्पन्न मलबे (meteor debris) का विश्लेषण करने पर स्पष्ट हुआ है कि साढ़े 6 करोड़ वर्ष पूर्व टकराई उल्का कार्बनयुक्त कॉन्ड्राइट ही थी। कोलोन विश्वविद्यालय के मारियो फिशर-गोडे और उनके साथियों ने दुनिया भर में ऐसे मलबे में रुथेनियम (ruthenium isotope) नामक दुर्लभ धातु के विश्लेषण में पाया है कि उनमें समस्थानिकों का अनुपात वही है जो कार्बनयुक्त कॉन्ड्राइट्स में पाया जाता है। पृथ्वी से बाहर की चट्टानों में रुथेनियम की मात्रा स्थानीय चट्टानों से 100 गुना ज़्यादा होती है। लिहाज़ा यह पहचान का बेहतर साधन है।

जब फिशर-गोडे की टीम ने क्रेटेशियस-पेलियोजीन संगम परतों के पांच नमूनों में रुथेनियम के सात टिकाऊ समस्थानिकों (stable isotopes) की जांच की तो पता चला कि उनका अनुपात सर्वत्र एक ही है। इसका मतलब हुआ कि ये सारे नमूने एक ही पिंड के अंश हैं। इसके अलावा जाने-माने कार्बनयुक्त कॉन्ड्राइट्स में देखे गए रुथेनियम समस्थानिक अनुपात भी लगभग इनके बराबर ही पाए गए। उन्होंने 3.6 करोड़ और 4.7 करोड़ वर्ष पूर्व की टक्कर से बने गड्ढों (impact craters) के नमूनों में भी जांच की। यहां पता चला कि उनमें रुथेनियम की मात्रा सिलिकायुक्त उल्काओं (silicate meteorites) के समान हैं। ये उल्काएं सूर्य के अपेक्षाकृत नज़दीक बनती हैं।

तो इतना तो स्पष्ट हो गया कि साढ़े 6 करोड़ वर्ष पूर्व पृथ्वी का नसीब बदल देने वाली उल्का कार्बनयुक्त कॉन्ड्राइट (carbonaceous impactor) थी। इनमें भरपूर मात्रा में पानी, कार्बन तथा अन्य वाष्पशील अणु होते हैं। यानी इनका उद्गम सूर्य से बहुत दूर हुआ होगा क्योंकि पास हुआ होता तो ये पदार्थ भाप बनकर उड़ चुके होते।

ये सौर मंडल के शुरुआती दौर में (solar system formation) बनी थीं। माना जाता है कि इनके साथ पृथ्वी पर पानी (water origin) और कार्बनिक अणु आए थे जिन्होंने जीवन के पनपने में मदद की थी। लेकिन ऐसे कार्बनयुक्त कॉन्ड्राइट तो पृथ्वी से शुरुआती एकाध अरब वर्षों में टकराया करते थे। आजकल टकराने वाली उल्काओं में महज़ 5 प्रतिशत ही कार्बनयुक्त कॉन्ड्राइट होते हैं।

लेकिन चिक्सुलब इम्पैक्टर तो अभी हाल के इतिहास में टकराया था। तो यह कहां से टपक पड़ा? ऐसा माना जाता है कि ये किसी वजह से मंगल और बृहस्पति के बीच स्थिति क्षुद्र ग्रह पट्टी (asteroid belt) में खिंच गए थे। कभी-कभार ये वहां से मुक्त होकर अंदरुनी सौर मंडल (inner solar system) में प्रवेश कर जाते हैं। संभवत: 10 किलोमीटर व्यास का चिक्सुलब इम्पैक्टर भी वहां से निकल धरती से टकरा गया था। यह इतना विनाशकारी इसीलिए साबित हुआ था क्योंकि यह कार्बनयुक्त था। इस वजह से जब यह जला होगा तो इसने गहरा धुआं (dark cloud formation) पैदा किया होगा जिसने सूरज की रोशनी को पृथ्वी पर पहुंचने से रोक दिया होगा जिसके चलते टक्कर के प्रत्यक्ष प्रभावों के अलावा भी असर हुए होंगे।(स्रोत फीचर्स)

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सायबर अपराधों पर राष्ट्र संघ की संधि

हाल ही में राष्ट्र संघ ने पहली अंतर्राष्ट्रीय सायबर अपराध (cyber crime) संधि को मंज़ूरी दे दी है। जैसा कि सर्वविदित है, आजकल काफी सारा कामकाज इंटरनेट (internet) के माध्यम से होता है और इसका दुरुपयोग करके कई अवैध कार्यों को अंजाम दिया जा रहा है। जहां एक ओर, इंटरनेट ने आर्थिक लेन-देन को सुगम बनाया है, वहीं इसने ऐसी गुंजाइश पैदा की है कि कुछ लोग अपने गलत इरादों को कार्यरूप दे सकें। इसी के चलते सायबर अपराधों की रोकथाम एक प्रमुख सरोकार के रूप में उभरा है और राष्ट्र संघ संधि इसी को संबोधित करने का एक साधन है।

राष्ट्र संघ ने 2017 में इस संधि को अंतिम रूप देने के लिए एक समिति का गठन किया था। तीन साल के विचार-विमर्श और न्यूयॉर्क में दो सप्ताह लंबे सत्र के बाद अंतत: सदस्यों ने सर्व सम्मति से राष्ट्र संघ सायबर अपराध निरोधक संधि को मंज़ूरी दे दी। अब इसे अनुमोदन के लिए आम सभा के समक्ष पेश किया जाएगा। ऐसा माना जा रहा है कि अनुमोदन के बाद यह संधि सायबर अपराधों से ज़्यादा कारगर ढंग से निपटने में मदद करेगी, खास तौर से मनी लॉन्ड्रिंग (money laundering) और बच्चों के विरूद्ध यौन अपराध (child exploitation) जैसे मामलों में।

आम तौर पर देशों ने इस संधि का स्वागत किया है। खास तौर से उन देशों के लिए यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव है जिनके पास अपना सायबर इंफ्रास्ट्रक्चर (cyber infrastructure) बहुत विकसित नहीं है क्योंकि संधि में ऐसे देशों के लिए तकनीकी मदद का प्रावधान है। लेकिन कई संगठन संधि के आलोचक भी हैं। इनमें मानव अधिकार संगठन और बड़ी टेक कंपनियां (tech companies) प्रमुख हैं।

विरोधियों का मत है कि इस संधि का दायरा बहुत व्यापक है और यह सरकारों को निगरानी (surveillance) को सख्त करने की छूट देने जैसा है। जैसे, संधि में यह व्यवस्था है कि यदि कोई अपराध होता है, जिसके लिए किसी देश के कानून में चार साल से अधिक कारावास का प्रावधान है, तो वह देश किसी अन्य देश के अधिकारियों से मांग कर सकता है कि वे उस अपराध से जुड़े इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य (electronic evidence) उपलब्ध कराएं। वह इंटरनेट सर्विस प्रदाताओं (internet service providers) से भी डेटा की मांग कर सकता है।

मानव अधिकार संगठन ह्यूमैन राइट्स वॉच ने कहा है कि यह निगरानी का एक बहुपक्षीय औज़ार है और एक मायने में दमन का कानूनी साधन है। इसका उपयोग पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, एलजीबीटी (LGBT) लोगों, स्वतंत्र चिंतकों वगैरह के खिलाफ राष्ट्रीय सरहदों के आर-पार हो सकता है। टेक कंपनियों के प्रतिनिधियों का कहना है कि यह संधि डिजिटल कामकाज (digital operations) और मानव अधिकारों के लिहाज़ से हानिकारक होगी।

दूसरी ओर, कई देशों का मत है कि इस संधि में मानव अधिकारों की सुरक्षा के लिए ज़रूरत से ज़्यादा प्रावधान जोड़े गए हैं। उदाहरण के लिए, रूस जो ऐतिहासिक रूप से इस मसौदे के लेखन का हिमायती रहा है, उसने कुछ दिन पहले यह शिकायत की है कि मसौदा मानव अधिकार सुरक्षा के प्रावधानों से लबरेज़ है। इसी तरह, अंतिम दौर में इरान ने कुछ ऐसी धाराओं को हटवाने का प्रयास किया जो ‘निहित रूप से गलत’ हैं। ऐसा एक पैरा था जिसमें यह कहा गया था कि “इस संधि की किसी भी बात की व्याख्या इस रूप में नहीं की जाएगी जिससे मानव अधिकारों तथा बुनियादी स्वतंत्रता के दमन” का आशय प्रकट हो। जैसे “अभिव्यक्ति, अंतरात्मा, मत, धर्म या आस्थाओं की आज़ादी”। विलोपन के इस प्रस्ताव के पक्ष में रूस, भारत, सूडान, वेनेज़ुएला, सीरिया, उत्तर कोरिया, लीबिया सहित 32 वोट पड़े जबकि विरोध में 102 वोट पड़े। 26 देशों ने मतदान में भाग नहीं लिया था। बहरहाल इस संधि को सर्व-सम्मति से पारित कर दिया गया। (स्रोत फीचर्स)

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दुनिया की आधी आबादी को स्वच्छ पेयजल मयस्सर नहीं

हाल ही में साइंस पत्रिका में प्रकाशित एक नए अध्ययन का निष्कर्ष है कि दुनिया भर के लगभग 4.4 अरब लोग असुरक्षित पानी (unsafe drinking water) पीते हैं। यह संख्या पूर्व अनुमानों से लगभग दुगनी है। अनुमानों में अंतर का कारण संभवत: परिभाषाओं में है और सवाल यह है कि किस अनुमान को यथार्थ का आईना माना जाए हालांकि कोई भी आंकड़ा सही हो, स्थिति चिंताजनक और शर्मसार करने वाली तो है ही।

दरअसल, राष्ट्र संघ 2015 से इस बात का आकलन करता आया है कि कितने लोगों को सुरक्षित ढंग से प्रबंधित पेयजल (safe drinking water) उपलब्ध है। इससे पहले राष्ट्र संघ सिर्फ इस बात की रिपोर्ट देता था कि क्या वैश्विक जल स्रोत उन्नत हुए हैं। इसका मतलब शायद इतना ही था कि क्या पेयजल के स्रोतों को कुओं, पाइपों और वर्षाजल संग्रह (rainwater harvesting) जैसे तरीकों से बाहरी अपमिश्रण से बचाने की व्यवस्था की गई है। इस मानक के आधार पर लगता था कि दुनिया की 90 प्रतिशत आबादी के लिए ठीक-ठाक पेयजल की व्यवस्था है। लेकिन इसमें इस बात को लेकर जानकारी ना के बराबर होती थी कि क्या जो पानी मिल रहा है वह सचमुच स्वच्छ है (clean drinking water)।

2015 में ऱाष्ट्र संघ ने टिकाऊ विकास के लक्ष्य (sustainable development goals) निर्धारित किए थे। इनमें से एक लक्ष्य था: वर्ष 2030 तक “सबके लिए स्वच्छ व किफायती पेयजल (affordable drinking water) की सार्वभौमिक तथा समतामूलक पहुंच सुनिश्चित करना।” राष्ट्र संघ ने इसी के साथ सुरक्षित रूप से प्रबंधित पेयजल स्रोतों (safely managed water sources) के मापदंडों को भी फिर से निर्धारित किया: जल स्रोत बेहतर होने चाहिए, लगातार उपलब्ध होने चाहिए, व्यक्ति के निवास स्थान पर पहुंच में होने चाहिए और संदूषण-मुक्त होने चाहिए।

इस नई परिभाषा को लेकर जॉइन्ट मॉनीटरिंग प्रोग्राम फॉर वॉटर सप्लाई, सेनिटेशन एंड हायजीन (JMP) ने 2020 में अनुमान लगाया था कि दुनिया भर में ऐसे 2.2 अरब लोग हैं जिन्हें स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं है। जेएमपी (Joint Monitoring Program) विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और युनिसेफ का संयुक्त अनुसंधान कार्यक्रम है। इस अनुमान तक पहुंचने के लिए कार्यक्रम ने देशों की जनगणना, नियामक संस्थाओं व सेवा प्रदाताओं की रिपोर्ट्स और पारिवारिक सर्वेक्षणों से प्राप्त आंकड़ों को आधार बनाया था।

लेकिन जेएमपी का तरीका स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ एक्वेटिक साइंस एंड टेक्नॉलॉजी की शोधकर्ता एस्थर ग्रीनवुड के तरीके से अलग था। जेएमपी ने किसी भी स्थान की स्थिति के आकलन के लिए चार में से कम से कम तीन मापदंडों को देखा था और फिर सबसे कम मूल्य को उस स्थान के पेयजल की समग्र गुणवत्ता का द्योतक माना था। उदाहरण के लिए, यदि किसी शहर के लिए इस बाबत कोई डैटा नहीं है कि क्या जल स्रोत लगातार उपलब्ध हैं लेकिन यह पता है कि वहां की 40 प्रतिशत आबादी को साफ पानी (clean water) उपलब्ध है, 50 प्रतिशत के पास उन्नत जल स्रोत (improved water sources) हैं और 20 प्रतिशत को घर पर ही पानी पहुंच में है तो जेएमपी का आकलन होगा कि उस शहर में 20 प्रतिशत लोगों को सुरक्षित ढंग से प्रबंधित पेयजल (safely managed drinking water) मिलता है। इसके बाद इस आंकड़े से सरल गणितीय तरीके का उपयोग करके पूरे देश के बारे में आकलन कर लिया जाता था।

दूसरी ओर, साइंस में प्रकाशित अध्ययन में 27 निम्न व मध्यम आमदनी वाले देशों में 2016 से 2020 के बीच किए गए सर्वेक्षणों को आधार बनाया गया है। इन सर्वेक्षणों में उन्हीं चार मापदंडों का इस्तेमाल करते हुए 64,723 परिवारों से जानकारी जुटाई गई थी। यदि किस परिवार के संदर्भ में 4 में से एक भी मापदंड पूरा नहीं होता था तो माना गया कि उसे स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं है। इसके बाद टीम ने एक मशीन लर्निंग एल्गोरिद्म (machine learning algorithm) को प्रशिक्षित किया व कई अन्य क्षेत्रीय कारक (औसत तापमान, जलवैज्ञानिक हालात, भूसंरचना और आबादी के घनत्व) भी जोड़े। इस आधार पर उनका अनुमान है कि दुनिया में 4.4 अरब लोगों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं है। और इनमें से भी आधे लोग जो पानी पीते हैं उसमें रोगजनक बैक्टीरिया ई. कोली (E. coli bacteria) पाया जाता है।

वैसे यह तय करना मुश्किल है कि इनमें से कौन-सा यथार्थ के ज़्यादा करीब है लेकिन इतना स्पष्ट है कि वैश्विक आबादी के एक बड़े हिस्से को स्वच्छ पेयजल जैसी बुनियादी सुविधा (basic water facility) भी उपलब्ध नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जानवरों द्वारा स्वयं उपचार के तरीके: ज़ुओफार्मेकोग्नॉसी

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

मई, 2024 में नेचर पत्रिका में एक लेख प्रकाशित हुआ था जिसका शीर्षक था: ‘सुमात्रा के एक नर ओरांगुटान द्वारा जैविक रूप से सक्रिय पौधे से चेहरे के घाव का सायास स्व-उपचार’ (‘Active self-treatment of a facial wound with a biologically active plant by a male Sumatran orangutan’)। 

इस शोधपत्र में मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट ऑफ एनिमल बिहेवियर [Animal Behavior Research] की इसाबेल लॉमर और उनके साथियों ने बताया था कि इंडोनेशिया में इस प्रायमेट जंतु [Primates in Indonesia] ने किस तरह एक स्थानीय पौधे फाइब्रौरिया टिंक्टोरिया का लुग्दीनुमा लेप बनाया और इसे अपने चेहरे के घाव पर लगाकर घाव का इलाज किया। 

इसी तरह 2012 में नेचर पत्रिका में मैट कापलान ने एक लेख प्रकाशित किया था जिसका शीर्षक था: ‘(स्वस्थ रहने के लिए) निएंडरथल हरी पत्तेदार सब्ज़ियां खाते हैं’ (Neanderthals ate their greens)। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने उत्तरी स्पेन के कुछ निएंडरथलों के दांतों के प्लाक का विश्लेषण किया और पाया कि वे संक्रमण वगैरह से निजात पाने और सामान्य स्वास्थ्य के लिए येरो (संभवत: सहस्रपर्णी) और कैमोमाइल जैसे पौधों का इस्तेमाल करते थे। 

ऐसे कई पौधों का इस्तेमाल दुनिया भर के लोगों द्वारा पारंपरिक चिकित्सा [Traditional Medicine] में, संक्रमण से उबरने के लिए और स्वस्थ रहने के लिए किया जाता है। मार्च 2009 के रेज़ोनेंस के अंक में आर. रमन और एस. कंदुला की एक विस्तृत समीक्षा प्रकाशित हुई थी, जो बताती है कि पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय के पारिस्थितिकीविद डी. एच. जैनज़ेन ने एक शब्द गढ़ा था ‘ज़ुओफार्मेकोग्नॉसी’। (यानी जंतुओं द्वारा औषधीय गुणों वाली वनस्पतियों, कीटों या मिट्टी से स्वयं का उपचार करने का व्यवहार)। डी. एच. जैनज़ेन वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने उन जंतुओं की सूची तैयार की थी जो विशिष्ट पौधों, मिट्टी या कीटों को खाकर या उनका लेप लगाकर खुद का उपचार कर लेते हैं। 

ब्राज़ील के बाहिया के डॉ. ई. एम. कोस्टा-नेटो ने 2012 में एनवायरमेंटल साइंस, बायोलॉजी [Environmental Science, Biology] में ‘ज़ुओफार्मेकोग्नॉसी: जानवरों का स्व-उपचार का व्यवहार’ (Zoopharmacognosy: the self-medication behaviour of animals)’ शीर्षक से, और बाल्टीमोर के जोएल शर्किन ने प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में कई ऐसे पौधों और उनकी जड़ों, पत्तियों और फलों की सूची प्रकाशित की है जिन्हें वानर, बंदर, बारहसिंगा, भालू और कुछ पक्षी (स्टारलिंग) स्वस्थ रहने के लिए खाते हैं। कुत्ते पेट के संक्रमण से छुटकारा पाने के लिए घास खाकर और उसे उल्टी करके खुद को ठीक करते हैं। गर्भवती लीमर दूध बनने में सहायता के लिए इमली के पत्ते  कुतरती हैं, और केन्या में गर्भवती हथिनी प्रसव को शुरू करने के लिए बोरागिनेसी कुल के कुछ पौधों की पत्तियां खाती हैं। 

रोमन प्रकृतिविद प्लिनी ने 2000 वर्ष पहले बताया था कि कई जानवरों ने कुछ पौधों के चिकित्सीय/औषधीय गुण [Medicinal Properties] खोजे थे, जो स्थानीय लोगों के लिए उपयोगी ज्ञान बन गया। इनमें से कई औषधीय पौधों के बारे में अफ्रीका, मिस्र, मध्य पूर्व, भारत और चीन में 3000 से अधिक वर्ष पहले से पता है, और आज भी इनका उपयोग किया जाता है।

पारंपरिक दवाएं 

सुमात्रा के ओरांगुटान द्वारा घाव भरने में इस्तेमाल किए जाने वाले औषधीय पौधे फाइब्रौरिया टिंक्टोरिया में शोथ-रोधी अणु बर्बेराइन होता है। इस पौधे का स्थानीय नाम ‘अकर कुन्यी’ है, और इसका उपयोग वहां की पारंपरिक चिकित्सा [Traditional Medicine in Sumatra] में किया जाता है। दक्षिणी उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में, इसी पौधे जैसा कनेर (ओलिएंडर) पौधा मिलता है, जिसका उपयोग पीलिया के उपचार [Jaundice Treatment] में किया जाता है। भारत में और एशिया व अफ्रीका के कई हिस्सों में पाई जाने वाले ग्वारपाठा (एलो वेरा) में रोगाणु-रोधी, शोध-रोधी और घाव भरने वाले गुण होते हैं। 

कई सभ्यताओं ने हज़ारों वर्षों से प्राकृतिक चिकित्सा प्रणालियों [Natural Medicine Systems] को समझा है/दर्ज किया है और उनका उपयोग किया है। चीन में पिछले 5000 वर्षों से झोंग्यी प्रणाली है, अरेबिया 4000 वर्षों से है और भारतीय आयुर्वेदिक चिकित्सा प्रणाली 5000 वर्षों से है। इन सभी में उपचार के लिए विभिन्न पौधों, फलों और जड़ों का उपयोग किया जाता है। जैसे सर्पगंधा (Rauwolfina serpentina), तुलसी, एलो वेरा, जंगली लहसुन, प्याज़, अजवायन, आर्टिचोक, कपूर, नारियल और अरंडी का तेल। च्यवनप्राश भारत में लोकप्रिय है; इसको बनाने का एक नुस्खा लगभग 700 ईसा पूर्व से चरक संहिता में दर्ज है। अब हम नए प्राकृतिक उत्पाद अणुओं के बारे में बताने के लिए जैव रसायनज्ञों और दवा कंपनियों [Biochemists and Pharmaceutical Companies] से उम्मीद रखते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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डेढ़ सौ से ज़्यादा औषधि मिश्रणों पर प्रतिबंध

डॉ. सुशील जोशी

पिछले सप्ताह भारत सरकार ने 156 औषधि के नियत खुराक संयोजनों यानी फिक्स्ड डोज़ कॉम्बिनेशन्स (Fixed Dose Combinations – FDCs) के उत्पादन, विपणन और वितरण पर प्रतिबंध लगा दिया। इनमें आम तौर पर इस्तेमाल किए जाने वाले एंटीबायोटिक्स (Antibiotics), दर्द-निवारक (Painkillers), एलर्जी-रोधी दवाइयां तथा मल्टीविटामिन्स (Multivitamins) शामिल हैं। 

यह निर्णय केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त एक विशेषज्ञ समिति तथा औषधि तकनीकी सलाहकार बोर्ड (Drug Technical Advisory Board – DTAB) की अनुशंसा के आधार पर लिया गया है। प्रतिबंध की अधिसूचना (21 अगस्त 2024) में इन FDC पर प्रतिबंध के मूलत: दो कारण दिए गए हैं: 

1. सम्बंधित FDC में मिलाए गए अवयवों का मिश्रण तर्कहीन है। इन अवयवों का कोई चिकित्सकीय औचित्य नहीं है। 

2. सम्बंधित FDC के उपयोग से मनुष्यों को जोखिम होने की संभावना है जबकि उक्त औषधियों के सुरक्षित विकल्प (Safer Alternatives) उपलब्ध हैं।

वैसे तो FDC के मामले में देश के चिकित्सा संगठन कई वर्षों से चिंता व्यक्त करते आए हैं। इस विषय पर विचार के लिए केंद्र सरकार के स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा 2013 में सी. के. कोकाटे की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया था। समिति ने FDC के मुद्दे पर विस्तृत विचार-विमर्श के बाद कई FDC को बेतुका घोषित किया था। 

उस दौरान चले विचार-विमर्श का सार कई वर्षों पूर्व लोकॉस्ट नामक संस्था द्वारा प्रकाशित पुस्तक आम लोगों के लिए दवाइयों की किताब में प्रस्तुत हुआ था। आगे की चर्चा उसी पुस्तक के अंशों पर आधारित है। 

विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization – WHO) की विशेषज्ञ समिति के अनुसार सामान्यतः मिश्रित दवाइयों का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। इनका उपयोग तभी किया जाना चाहिए जब वैकल्पिक इकहरी दवाइयां (Single Drug Alternatives) किफायती न हों। FDC से “साइड प्रभावों का खतरा बढ़ता है और अनावश्यक रूप से लागत भी बढ़ती है तथा तुक्केबाज़ीनुमा बेतुकी चिकित्सा को बढ़ावा मिलता है।” जब FDC का उपयोग किया जाता है, तब प्रतिकूल प्रतिक्रिया का खतरा अधिक होता है और यह पता करना मुश्किल होता है कि प्रतिक्रिया किस अवयव की वजह से हुई है। FDC इसलिए भी बेतुकी हैं कि उनकी स्थिरता (Stability) संदिग्ध है। लिहाज़ा कई मामलों में समय के साथ इनका प्रभाव कम हो जाता है।

जैसे, स्ट्रेप्टोमायसिन (टी.बी. की दवाई) और पेनिसिलीन के मिश्रित इंजेक्शन (अब प्रतिबंधित) का उपयोग बुखार, संक्रमणों और छोटी-मोटी बीमारियों के लिए बहुतायत से किया गया है। यह गलत है क्योंकि इसकी वजह से टी.बी. छिपी रह जाती है। इसके अलावा, हर छोटी-मोटी बीमारी में स्ट्रेप्टोमायसिन के उपयोग का एक परिणाम यह होता है कि टी.बी. का बैक्टीरिया (Mycobacterium Tuberculosis) इस दवाई का प्रतिरोधी हो जाता है। इसी प्रकार से स्ट्रेप्टोमायसिन और क्लोरेम्फिनेकॉल के मिश्रण का उपयोग (दुरुपयोग) दस्त के लिए काफी किया जाता था। इस पर रोक लगाने के प्रयासों का दवा कंपनियों ने काफी विरोध किया था मगर 1988 में अंततः इस पर रोक लग गई थी। दरअसल यह मिश्रण निरी बरबादी था क्योंकि दस्त के 60 प्रतिशत मामले तो वायरस की वजह से होते हैं और मात्र जीवन रक्षक घोल (Oral Rehydration Solution – ORS) से इन पर काबू पाया जा सकता है, बैक्टीरिया-रोधी दवाइयों की कोई ज़रूरत नहीं होती। क्लोरेम्फिनेकॉल का अंधाधुंध उपयोग भी खतरनाक है क्योंकि इससे एग्रेनुलोसायटोसिस जैसे जानलेवा रक्त दोष पैदा हो सकते हैं। जब इसका उपयोग मिश्रण के रूप में किया जाता है, तो टायफॉइड बैक्टीरिया इसका प्रतिरोधी होने लगता है। 

कई अन्य FDC को चिकित्सकीय दृष्टि से बेतुका पाया गया है। जैसे, विभिन्न एंटीबायोटिक्स के मिश्रण या उनके साथ कार्टिकोस्टीरॉइड्स या विटामिन जैसे पदार्थों के मिश्रण; बुखार और दर्दनिवारकों के मिश्रण जैसे इबुप्रोफेन+पेरासिटेमॉल (Ibuprofen+Paracetamol), एस्पिरिन+पेरासिटेमॉल (Aspirin+Paracetamol), डिक्लोफेनेक+पेरासिटेमॉल (Diclofenac+Paracetamol); दर्द निवारकों के साथ लौह, विटामिन्स या अल्कोहल के मिश्रण; कोडीन (Codeine) (जिसकी लत लगती है) के अन्य दवाइयों के साथ मिश्रण।

FDC के उपयोग के खिलाफ कुछ तर्क और भी हैं। एक है कि कई बार ऐसे मिश्रणों में दो एक-सी दवाइयों को मिलाकर बेचा जाता है जिसका कोई औचित्य नहीं है। इसके विपरीत कुछ FDC में दो विपरीत असर वाली औषधियों को मिला दिया जाता है। 

FDC अलग-अलग औषधियों की मात्रा के स्वतंत्र निर्धारण की गुंजाइश नहीं देती। कई बार ऐसा भी देखा गया है कि FDC में मिलाई गई दवाइयों के सेवन का क्रम भिन्न-भिन्न होता है (जैसे एक दवाई दिन में दो बार लेनी है, तो दूसरी दवाई दिन में तीन बार)। ऐसे में मरीज़ को अनावश्यक रूप से दोनों दवाइयां एक साथ एक ही क्रम में लेना होती है। 

WHO के अनुसार FDC को निम्नलिखित स्थितियों में ही स्वीकार किया जा सकता है: 

1. जब चिकित्सा साहित्य में एक साथ एक से अधिक दवाइयों के उपयोग को उचित बताया गया हो। 

2. जब मिश्रण के रूप में उन दवाइयों का सम्मिलित असर अलग-अलग दवाइयों से अधिक देखा गया हो। 

3. जब मिश्रण की कीमत अलग-अलग दवाइयों की कीमतों के योग से कम हो। 

4. जब मिश्रण के उपयोग से मरीज़ द्वारा अनुपालन में सुधार हो (जैसे टी.बी. मरीज़ को एक से अधिक दवाइयां लेनी पड़ती हैं, और वे एकाध दवाई लेना भूल जाते हैं)। 

भारत में वर्तमान में जो FDC बेचे जाते हैं उनमें से ज़्यादातर तर्कसंगत नहीं हैं क्योंकि उनके चिकित्सकीय फायदे संदिग्ध हैं। उदाहरण से तौर पर निमेसुलाइड के नुस्खों की भरमार का प्रकरण देखा जा सकता है। सन 2003 में फार्माबिज़ (Pharmabiz) के संपादकीय में पी.ए. फ्रांसिस ने लिखा था: 

“…देश में निमेसुलाइड के 200 नुस्खे भारतीय औषधि महानियंत्रक (Drug Controller General of India – DCGI) की अनुमति के बगैर बेचे जा रहे हैं। इन 200 नुस्खों में से 70 तो निमेसुलाइड के सस्पेंशन हैं जबकि शेष 130 विभिन्न अन्य दवाइयों के साथ निमेसुलाइड के मिश्रण हैं। इस समूह में सबसे ज़्यादा तो निमेसुलाइड और पेरासिटेमॉल के मिश्रण हैं जिनकी संख्या 50 है। निमेसुलाइड और मांसपेशियों को शिथिल करने वाली दो दवाइयों (टिज़ेनिडीन और सेराशियोपेप्टिडेज़) के मिश्रण भी काफी प्रचलित हैं, इनके 52 ब्रांड्स उपलब्ध हैं। हैरत की बात यह है कि निमेसुलाइड के इतने सारे बेतुके मिश्रण देश में बेचे जा रहे हैं जबकि स्वयं निमेसुलाइड की सुरक्षा सवालों के घेरे में है…” 

कुल मिलाकर, FDC पर रोक का निर्णय स्वास्थ्य के क्षेत्र में सही दिशा में एक कदम है हालांकि स्वास्थ्य क्षेत्र के कई कार्यकर्ता और जानकारी मिलने तक कोई टिप्पणी नहीं करना चाहते। वर्तमान निर्णय के साथ एक दिक्कत यह है कि प्रत्येक FDC को लेकर विशिष्ट रूप से कोई विवरण नहीं दिया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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