वर्ष 2023 में इवेंट होरिजन टेलीस्कोप (ई.एच.टी.) द्वारा हमारी नज़दीकी निहारिका M87 में स्थित ब्लैक होल की पहली तस्वीर प्राप्त हुई थी। तस्वीर के बीच में एक गहरा काला धब्बा था, और उसके चारों ओर प्रकाश का चमकीला छल्ला नज़र आ रहा था।
अब, ई.एच.टी. द्वारा ली गई इसी निहारिका की ताज़ा छवियों में ऐसा ही साया दिख रहा है, जो इस निहारिका में शक्तिशाली ब्लैक होल होने की पुष्टि करता है। यह ब्लैक होल सूर्य से तकरीबन 6.5 अरब गुना वज़नी है। लेकिन एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिज़िक्स में प्रकाशित ताज़ा छवियों में साए के चारों ओर का चमकदार छल्ला थोड़ा घूमा हुआ नज़र आ रहा है, जो संभवत: यह बताता है कि गैसें ब्लैक होल के चारों ओर कैसे घूमती हैं। नई और पुरानी छवियों के विश्लेषण में यह भी देखा गया है कि दोनों ही तस्वीरों में कैद छायादार केंद्र का दायरा एक बराबर ही है, जिससे पुष्टि होती है कि वहां वास्तव में कोई ब्लैक होल है। ब्लैक होल का द्रव्यमान एक साल में उल्लेखनीय रूप से नहीं बढ़ा होगा, इसलिए तस्वीरों की तुलना इस विचार का भी समर्थन करती है कि ब्लैकहोल की साइज़ सिर्फ उसके द्रव्यमान से निर्धारित होती है।
हालांकि, ताज़ा तस्वीरों में ब्लैक होल के चारों ओर के छल्ले का सबसे चमकीला हिस्सा घड़ी की उल्टी दिशा में लगभग 30 डिग्री घूमा नज़र आ रहा है। ऐसा ब्लैक होल की विषुवत रेखा के चारों ओर के पदार्थ के बेतरतीब मथे जाने के कारण हो सकता है। ऐसा ब्लैक होल के ध्रुवों से निकलने वाली ज़ोरदार फुहारों में कमी-बेशी के कारण भी हो सकता है – इससे ऐसा लगता है कि ये फुहारें ब्लैक होल की धुरी की सीध में नहीं होती हैं, बल्कि इसके चारों ओर डोलती रहती हैं।
ब्लैक होल को देखने के लिए हमारी दूरबीन इनसे होने वाले रेडियो उत्सर्जन पर निर्भर हैं। वास्तव में ई.एच.टी. दूरबीन में आठ रेडियो टेलिस्कोप हैं जो पृथ्वी पर एक-दूसरे से दूर-दूर ऊंचे स्थानों पर स्थापित हैं। एक मायने में यह पृथ्वी के बराबर की दूरबीन है। इन्हीं के मिले-जुले डैटा से छवियां बनाई जाती है।
लेकिन ब्लैक होल के और बारीक अवलोकन एवं स्पष्ट तस्वीरों और दूर स्थित ब्लैक होल के अवलोकन के लिए शोधकर्ता दूरबीनों के इस नेटवर्क में और अधिक दूरबीनें जोड़ना चाहते हैं: चार स्थानों – व्योमिंग, कैनरी द्वीप, चिली और मैक्सिको में 9-9 मीटर की रेडियो डिश और एमआईटी स्थित हेस्टैक वेधशाला में 37 मीटर की डिश। डैटा प्रोसेसिंग को तेज़ करने के लिए नए हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर की भी ज़रूरत है, ताकि वर्षों की बजाय कुछ ही दिनों में परिणाम हासिल किए जा सकें। इसके लिए तकरीबन 7.3 करोड़ डॉलर की आवश्कता होगी।
अवलोकन में सटीकता और विश्लेषण में तेज़ी लाने से यह समझने में मदद मिलेगी कि ब्लैक होल का धुरी पर घूर्णन, उसका चुंबकीय क्षेत्र और पदार्थ की घूमती हुई डिस्क मिलकर किस तरह सुदूर अंतरिक्ष में कणों की फुहार फेंकते हैं।
ब्लैक होल के इर्द-गिर्द बने प्रकाशमान छल्लों के सूक्ष्म अवलोकन के लिए पृथ्वी से भी बड़ी एक आभासी रेडियो डिश की ज़रूरत है। क्योंकि पृथ्वी बराबर दूरबीन से अवलोकन की सीमा आ चुकी है। (स्रोत फीचर्स)
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टीकमगढ़ ज़िले (मध्य प्रदेश) के नदिया गांव में रहने वाली भारती अहरवार को जब पता चला कि एक संस्था, सृजन, क्षेत्र की कुछ महिलाओं को बकरियों को रोग-मुक्त रखने व उनके इलाज के लिए प्रशिक्षण दे रही है तो उसने ‘सृजन’ और ‘दी गोट ट्रस्ट’ नामक संस्था द्वारा सह-आयोजित प्रशिक्षण पहले क्षेत्रीय स्तर पर व फिर लखनऊ स्तर पर लिया।
इस प्रशिक्षण से भारती को एक नया आत्म-विश्वास मिला। अब उसे ‘पशु-सखी’ या बकरियों की पैरा डाक्टर के रूप में नई पहचान मिली, मान्यता मिली, दवा व वैक्सीन मिले। लेकिन जब वह अपनी पशु-सखी की युनिफार्म में इलाज के लिए निकलती तो कुछ लोग मज़ाक उड़ाते, फब्तियां कसते। पर इसकी परवाह न करते हुए भारती ने अपना कार्य पूरी निष्ठा से जारी रखा व अधिक दक्षता प्राप्त करती रही। उसने बकरी स्वास्थ्य के लिए विशेष शिविरों का आयोजन भी किया।
धीरे-धीरे गांव के लोग उसके कार्य का महत्व समझने लगे। बकरी में बीमारी होने पर संक्रमण तेज़ी से फैलता है। पी.पी.आर. और एफ.एम.डी. बीमारियों से बचाव व डीवर्मिंग ज़रूरी है। यदि इस सबके लिए गांव में ही ‘पशु-सखी’ की सेवाएं मिल जाएं तो इधर-उधर भटकना नहीं पडे़गा। गांववासियों की नज़रों में स्वीकृति व सम्मान बढ़ने के साथ भारती का कार्य भी बढ़ा व आय भी।
टीकमगढ़ ज़िले की माया घोष एक वरिष्ठ पशु-सखी हैं जिनकी गिनती इस कार्यक्षेत्र में सबसे पहले आने वाली महिलाओं में होती है। माया घोष ने अपने स्थानीय व लखनऊ के प्रशिक्षण के बाद अपने गांव बिजरावन में बकरी पालन का सर्वेक्षण किया। इससे स्पष्ट हुआ कि थोड़े से प्रवासी मज़दूरों जैसे अपवाद को छोड़ दिया जाए तो अन्यथा लगभग सभी घरों में औसतन 5 से 10 बकरियां हैं। कांटी गांव की ‘पशु-सखी’ हीरा देवी ने बताया कि प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद जब उन्होंने कार्य आरंभ किया तो आसपास के कुछ लोगों ने उनकी योग्यता पर संदेह प्रकट किया। इस स्थिति में उन्होंने एक बीमार बकरी को खरीद लिया और उसे अपने इलाज से पूरी तरह ठीक कर दिया। इसके बाद लोग उनके पास बकरियों के इलाज के लिए पहुंचने लगे और यह सिलसिला अभी तक चल रहा है।
सृजन के सहयोग से किसानों का एक उत्पादक संगठन बना है जिसके द्वारा बकरियों के लिए स्वस्थ आहार बनाया जाता है जिसमें अनेक पौष्टिक तत्त्व मिले होते हैं। वैसे बकरी खुले में चर कर अपना पेट भरती है, पर कुछ अतिरिक्त पौष्टिक आहार मिलने से उनका स्वास्थ्य और सुधर जाता है। इस पौष्टिक आहार की बिक्री भी पशु-सखी द्वारा की जाती है। दवाएं उपलब्ध करवाने में भी किसान उत्पादक संगठन की सहायता मिलती है।
लगभग 10 पशु सखियों के प्रशिक्षण से शुरू हुए इस प्रयास से आज इस जिले में 76 प्रशिक्षित पशु-सखियां हैं जो अपना जीविकोपार्जन बढ़ाने का कार्य बहुत आत्मविश्वास से कर रही हैं और गांव-समुदाय के लिए बहुत सहायक भी सिद्ध हो रही हैं। यहां के अधिकांश गांवों में लगभग तीन-चौथाई परिवारों के पास बकरियां हैं, पर अचानक फैली बीमारियों में अनेक बकरियों के समय-समय पर मर जाने से लोग परेशान थे। अब पशु-सखियों के कारण यह समस्या कम हुई है व स्वस्थ बकरी विकास की संभावना बढ़ी है।
इसी तरह का कार्य कुछ अन्य क्षेत्रों में भी हो रहा है। एक उत्साहवर्धक स्थिति यह बनी है कि कुछ सरकारी अधिकारियों ने इस सफलता को नज़दीकी स्तर पर देखने के बाद इसे अपने-अपने स्तर पर भी आगे बढ़ाने के लिए कहा है। उन्होंने माना है कि यह एक उल्लेखनीय सफलता है जिसे आगे बढ़ना चाहिए।
इसके अलावा, व्यापारियों द्वारा बकरी पालकों को पहले कम कीमत देकर ठगा जाता था पर अब इस मामले में भी सुधार हो रहा है ताकि बकरी पालक को उचित मूल्य मिले। सरकार की, विशेषकर दलितों व आदिवासियों के लिए, बकरियों को बहुत कम कीमत पर उपलब्ध वाली योजनाएं हैं व उनसे भी समुचित सहायता प्राप्त की जा सकती है।
जहां बकरियों को मुख्य रूप से बिक्री के लिए पाला जाता है, वहां इनसे, अपेक्षाकृत कम मात्रा में ही सही, विशिष्ट पौष्टिक गुणों वाला दूध भी प्राप्त हो जाता है तथा बकरियों से खाद भी उच्च गुणवत्ता की प्राप्त होती है। अपेक्षाकृत निर्धन परिवारों के लिए पशु पालन की सबसे सहज आजीविका बकरी पालन के रूप में ही है व पशु-सखियों ने स्वस्थ बकरीपालन विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। यह एक अनुकरणीय मॉडल है जो अन्य स्थानों पर भी बकरी पालन को बेहतर बना सकता है। (स्रोत फीचर्स)
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विज्ञान जगत की प्रतिष्ठित शोध पत्रिका नेचर ने साल 2023 के टॉप टेन व्यक्तियों की सूची जारी की है। इस सूची में वे लोग हैं जिन्होंने विदा हो चुके साल में अदभुत अनुसंधान किया है या अहम वैज्ञानिक मुद्दों की ओर ध्यान खींचा है। गौरतलब है कि टॉप टेन व्यक्तियों का चयन पुरस्कार देने के लिए नहीं किया गया है वरन इसका उद्देश्य बीते साल में विज्ञान से जुड़े उन चुनिंदा व्यक्तियों के विलक्षण योगदान को रेखांकित करना है, जिनका समाज के हितों से सरोकार रहा है या जिनका सामाजिक जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा है।
इस साल नेचर ने पहली बार टॉप टेन लोगों के अलावा आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का भी चयन किया है। तो मिलिए साल 2023 के टॉप टेन व्यक्तियों से।
कल्पना कलाहस्ती
टॉप टेन की सूची में भारतीय महिला वैज्ञानिक कल्पना कलाहस्ती प्रथम स्थान पर हैं। उन्होंने पिछले साल चंद्रयान-3 के चंद्रमा के दक्षिण ध्रुव पर सफलतापूर्वक अवतरण में अहम भूमिका निभाई है। उन्होंने चंद्रयान-3 में एसोसिएट प्रोजेक्ट डायरेक्टर के रूप में काम किया। कलाहस्ती के सामने दो बड़ी चुनौतियां थीं। पहली, चंद्रयान-3 का कुल वज़न कम करना और दूसरी, उपलब्ध बजट में चंद्रयान-3 का निर्माण करना। चंद्रयान-2 की असफलता से सबक लेते हुए उन्होंने अपनी टीम के साथ पूरी लगन से चंद्रयान-3 का निर्माण किया। इसके बाद चंद्रयान-3 के कई परीक्षण एवं इसरो के एक दर्जन केंद्रों के साथ उसके परिणामों का समन्वय किया। यह काम ऐसा था मानो पांच-छह उपग्रहों का एक साथ निर्माण!
कलाहस्ती को प्रोजेक्ट मैनेजमेंट एवं सिस्टम्स इंजीनियर का व्यापक तर्जुबा है। उन्होंने इसके पहले कई पृथ्वी-प्रेक्षण उपग्रहों के विकास में नेतृत्व की भूमिका निभाई है।
मरीना सिल्वा: अमेज़ॉन संरक्षक
ब्राज़ील की पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्री मरीना सिल्वा ने अमेज़ॉन वनों के विनाश को रोकने में अहम और पुरज़ोर भूमिका निभाई है। उन्होंने 3 अगस्त को अपने संबोधन में बताया था कि वन विनाश सम्बंधी चेतावनियों में 43 फीसदी कमी आई है। ये चेतावनियां उपग्रह चित्रों के आधार पर चेतावनी जारी की जाती है।
कात्सुहिको हयाशी: दो पिता की संतान का जनन
कात्सुहिको हयाशी ओसाका युनिवर्सिटी में डेवलपमेंट बायोलॉजिस्ट हैं, जिन्हें पहली बार बिना मादा के दो नर चूहों से एक चुहिया पैदा करने में कामयाबी मिली है। आम तौर पर किसी भी जीव में प्रजनन के लिए नर और मादा दोनों की ज़रूरत होती है।
इस कामयाबी से भविष्य में विलुप्तप्राय प्रजातियों को बचाना संभव हो सकेगा। हालांकि कात्सुहिको हयाशी की इस अभिनव सफलता से यह सवाल भी उठा है कि क्या लैंगिक प्रजनन विज्ञान के नियमों को फिर से परिभाषित करना पड़ेगा।
अपने अध्ययन के लिए हयाशी ने नर चूहे की पूंछ से कोशिकाएं निकालीं, जिनमें ‘एक्स’ और ‘वाय’ सेक्स गुणसूत्र मौजूद थे। फिर इन कोशिकाओं को स्टेम कोशिकाओं में बदल दिया। इस प्रक्रिया में तीन फीसदी कोशिकाओं में स्वत: ही ‘वाय’ गुणसूत्र नष्ट हो गया। ‘वाय’ गुणसूत्र रहित कोशिकाओं को पृथक कर एक ऐसे रसायन से उपचारित किया, जो कोशिका विभाजन के दौरान त्रुटियां पैदा करता है। कुछ त्रुटियां ऐसी हुई थीं जिनके कारण ऐसी कोशिकाओं का निर्माण हुआ, जिनमें दो ‘एक्स’ गुणसूत्र थे यानी एक मायने में वे मादा कोशिकाएं बन चुकी थीं। अनुसंधान टीम ने इन कोशिकाओं को अंडों में परिवर्तित किया और अंडों को निषेचित करके भ्रूण को मादा चुहिया के गर्भाशय में प्रत्यारोपित कर दिया। 630 प्रत्यारोपित भ्रूणों में से 7 ही विकसित होकर चूहे बने।
एनी क्रिचर: नाभिकीय संलयन
साल 2023 में नाभिकीय साइंस की अध्येता एनी क्रिचर ने नाभिकीय संलयन के क्षेत्र में बड़ी सफलता हासिल की। क्रिचर का अपने शोध दल के साथ पहली बार कैलिर्फोनिया स्थित लॉरेंस लिवरमोर नेशनल लेबोरेटरी में हाइड्रोजन के भारी आइसोटोप्स के नाभिकीय संलयन का प्रयोग सफल रहा। इसमें जितनी ऊर्जा दी गई थी उससे अधिक ऊर्जा पैदा की गई। उनका यह प्रयोग साफ-सुथरी ऊर्जा उत्पादन की दिशा में गेमचेंजर की तरह देखा जा रहा है।
एलेनी मायरिविली: ऊष्मा अधिकारी
एलेनी मायरिविली राष्ट्र संघ की प्रथम ऊष्मा अधिकारी हैं, जिन्होंने जलवायु परिवर्तन की गंभीर चुनौतियों का सामना करने के लिए पुरज़ोर पहल करते हुए अपनी अलग पहचान बनाई है। उन्हें जुलाई 2021 में एथेंस सरकार द्वारा मुख्य ग्रीष्म लहर अधिकारी नियुक्त किया गया था। उनका विचार है कि ग्रीष्म लहर या लू को गंभीरता से लेने के साथ ही लोगों को संवेदनशील और जागरूक बनाने की ज़रूरत है। उन्होंने इस पद पर रहते हुए एक ऐसी कार्य योजना बनाई जिसमें स्वास्थ्य, बीमारी और मृत्यु दर के डैटा और मौसम सम्बंधी डैटा को एक साथ प्रस्तुत किया गया है। उनका मानना है कि लू से बचाव के लिए छायादार सार्वजनिक स्थानों के निर्माण की ज़रूरत है। उन्होंने भीषण गर्मी की चुनौतियों का सामना करने के लिए डिजिटल समाधान अपनाने का सुझाव भी दिया है।
मायरिविली ने अपने करियर की शुरुआत सांस्कृतिक मानव विज्ञानी के रूप में की थी। उन्होंने अपना पूरा ध्यान ग्रीष्म लहर के अध्ययन पर केंद्रित किया। साल 2007 में उनके जीवन में नया मोड़ आया। उन्होंने ग्रीष्म लहरों के बारे में सूचनाओं के अभाव से नाराज़ और असंतुष्ट होने के बाद राजनीति में प्रवेश करने का फैसला किया। उन्हें दिसंबर 2023 में दुबई में आयोजित कॉप-28 में भाग लेने के लिए न्यौता केवल इसलिए दिया गया था, क्योंकि उन्होंने वैश्विक तापमान बढ़ोतरी में एयर कंडीशनिंग को दोषी मानते हुए इस उपकरण का बहिष्कार किया।
इल्या सटस्केवर: चैट-जीपीटी के प्रथम अन्वेषक
वैज्ञानिक और ओपन एआई कंपनी के सह-संस्थापक इल्या सटस्केवर ने चैट-जीपीटी सहित संवाद करने वाली कृत्रिम बुद्धि प्रणालियों के विकास में मुख्य भूमिका निभाई है। वर्ष 2022 में इल्या सटस्केवर द्वारा सृजित चैट-जीपीटी एक साल के भीतर ही लोकप्रियता के चरम पर पहुंच गया था। इल्या सटस्केवर डीप लर्निंग और लार्ज लैंग्वेज मॉडल अनुसंधान में अग्रणी रहे हैं।
1986 में सोवियत संघ में पैदा हुए सटस्केवर ने इस्रायल में विश्वविद्यालय स्तर पर कोडिंग विषय पढ़ाया है। उन्होंने कृत्रिम बुद्धि के समाज पर पड़ने वाले प्रभावों पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। उन्होंने इस प्रौद्योगिकी के खतरों और भविष्य को लेकर भी बड़ी चिंता जताई है। उन्होंने 2022 में यह घोषणा कर दी थी कि कृत्रिम बुद्धि में ‘मामूली चेतना’ आ चुकी है। सटस्केवर ने अल्फागो के विकास में भी मदद की है। उन्हें 2018 में जीपीटी के प्रथम अवतार के बाद जनरेटिव प्री-ट्रेन्ड ट्रांसफॉर्मर (जीपीटी) के विकास और संवारने में अत्यधिक योगदान का श्रेय जाता है।
जेम्स हेमलिन: अतिचालकता शोध में फर्ज़ीवाड़े का भंडाफोड़
भौतिक शास्त्री जेम्स हेमलिन ने साल 2023 में अतिचालकता सम्बंधी एक शोध पत्र में धोखाधड़ी का भंडाफोड़ करने में बड़ी सफलता प्राप्त की है। जेम्स हेमलिन भौतिकी के प्राध्यापक हैं तथा उच्च दाब प्रयोग करते हैं और अतिचालकता के विशेषज्ञ हैं।
दरअसल, मार्च 2023 में नेचर में रोचेस्टर युनिवर्सिटी के शोधकर्ता रंगा डायस की रिपोर्ट छपी थी, जिसमें उन्होंने कमरे के तापमान पर अतिचालकता हासिल करने का दावा किया था। हेमलिन ने नेचर पत्रिका के संपादकीय विभाग से संपर्क किया और इस शोध पत्र में फर्ज़ीवाड़े की आशंका जताई। नवंबर में इस शोध पत्र को हटा दिया गया था।
स्वेतलाना मोजसोव: गुमनाम औषधि अन्वेषक
नेचर ने मधुमेह और वज़न घटाने वाली औषधियों की अनुसंधानकर्ता स्वेतलाना मोजसोव को टॉप टेन में शामिल किया है, जबकि साइंस ने वर्ष 2023 की उपलब्धियों में प्रथम स्थान पर रखा है। उन्होंने ग्लूकॉन-लाइक पेप्टाइड-1 (जीएलपी-1) हारमोन की खोज में योगदान दिया है। यह हारमोन भूख का दमन करता है। यही हारमोन ओज़ेम्पिक और वीगोवी जैसी वज़न घटाने वाली औषधियों का प्रमुख घटक है। दरअसल, स्वेतलाना मोजसोव उन गुमनाम व्यक्तियों में शामिल हैं, जिन्हें नई औषधि खोजने के बावजूद लंबे समय तक यथोचित मान्यता और शोहरत नहीं मिली।
स्वेतलाना मोजसोव ने दशकों तक रॉकफेलर युनिवर्सिटी में संश्लेषित पेप्टाइड्स और प्रोटीनों पर काम किया है। उन्होंने बोस्टन स्थित मेसाचूसेट्स जनरल हॉस्पिटल में संश्लेषित प्रोटीनों पर अनुसंधानकर्ताओं का मार्गदर्शन करने के साथ उन्हें रिसर्च टूल्स भी उपलब्ध करवाए थे। मोजसोव ने चूहों पर प्रयोग किए थे और जीएलपी-1 की जैविक सक्रियता को उजागर किया था।
मोजसोव ने लंबे अंतराल के बाद साल 2023 में अपनी उपेक्षा को देखते हुए मुखर होने का मार्ग चुना और जीएलपी-1 हारमोन पर अपना शोध पत्र सेल और नेचर पत्रिका को भेजा। ये शोध पत्र इन दोनों पत्रिकाओं के अलावा साइंस में भी प्रकाशित हुए।
हलीदू टिन्टो: मलेरिया योद्धा
मलेरिया योद्धा के रूप में पहचान स्थापित कर चुके हलीदू टिन्टो ने लंबे शोध प्रयासों के बाद मलेरिया से लड़ने के लिए टीका बनाने में बड़ी सफलता प्राप्त की है। अब मलेरिया रोग से लड़ने के लिए दो टीके उपलब्ध हैं। एक ‘आरटीएस,एस’ है, जिसे ग्लैैक्सोस्मिथक्लाइन ने विकसित किया है। दूसरा ‘आर-21’ बुर्किना फासो स्थित क्लीनिकल रिसर्च युनिट ऑफ नैनोरो ने विकसित किया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार मलेरिया से लड़ने में दोनों ही टीके कारगर साबित हुए हैं। हलीदू टिन्टो ने टीके बनाकर अफ्रीका महाद्वीप में लाखों लोगों का जीवन बचाने में असाधारण भूमिका निभाई है। टिन्टो के अनुसार अफ्रीका के विकास में अनुसंधान की भूमिका को समझने का यह सबसे अच्छा उदाहरण है। इन दिनों टिन्टो आर-21 टीके पर और अधिक अनुसंधान कार्य में जुटे हुए हैं। उम्मीद की जा रही है कि यह टीका 2024 के मध्य तक पूरे अफ्रीका महाद्वीप में उपलब्ध हो जाएगा।
थॉमस पॉवेल्स: कैंसर अध्येता
चिकित्सा वैज्ञानिक थॉमस पॉवेल्स ने घातक ब्लैडर कैंसर की दिशा में बड़ी उपलब्धि हासिल की है। वस्तुत: उन्होंने आने वाले दिनों में इस रोग पर विजय पाने के लिए इम्युनोथैराप्युटिक ड्रग्ज़ का मार्ग प्रशस्त किया है।
प्रोफेसर थॉमस पॉवेल्स आरंभ में हृदय रोग चिकित्सक थे। उन्होंने बाद में ब्लैडर कैंसर की चपेट में आ चुके लोगों के क्लीनिकल परीक्षणों पर ध्यान केंद्रित किया। उन्होंने दो नई दवाओं के मिश्रण से एक नई दवा तैयार की और इसका क्लीनिकल परीक्षण किया। इस दवा के इस्तेमाल से पीड़ित व्यक्तियों का जीवनकाल सोलह माह से लेकर ढाई वर्ष तक बढ़ गया। इस परीक्षण को लगभग चार दशकों के बाद घातक ब्लैडर कैंसर के इलाज में बड़ी सफलता के रूप देखा गया है।
थॉमस पॉवेल्स के अनुसंधान से प्रेरणा लेकर युवा अनुसंधानकर्ताओं ने आगे कदम बढ़ाए और एंटीबॉडी ड्रग कांजुगेट्स (एडीसी) उपचार विकसित कर लिया। दरअसल एडीसी में कैंसर-रोधी औषधि होती है, जिसे एंटीबॉडी से जोड़ा गया होता है। एंटीबॉडी औषधि को सही लक्ष्य पर पहुंचने में मदद करती है। अमेरिका के खाद्य एवं औषधि प्रशासन ने साल 2023 के आरंभ में ही इस ड्रग को मंज़ूरी दे दी थी।
टॉप टेन में चैट-जीपीटी क्यों?
नेचर ने पहली बार टॉप टेन की लिस्ट में चैट-जीपीटी को भी शामिल किया है। बीते वर्ष 2023 में चैटजीपीटी का विज्ञान और समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ा है। यह वैज्ञानिक शोध पत्र लिख सकता है, व्याख्यानों के प्रस्तुतीकरण की रूपरेखा बना सकता है, अनुदान हेतु प्रस्ताव तैयार कर सकता है। चैटजीपीटी एक विशाल भाषा मॉडल (लार्ज लैंग्वेज मॉडल) है, जिसे जटिल जिज्ञासाओं का उत्तर देने में सक्षम बनाया गया है। इसके ज़रिए गणित के सूत्रों को समझा जा सकता है, राजनीतिक टीका-टिप्पणी की जा सकती है। यह मनोरंजन कर सकता है। चिकित्सा सम्बंधी अनुमान लगा सकता है। इसके उपयोगों की सूची दिन-ब-दिन लंबी होती जा रही है। (स्रोत फीचर्स)
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मिट्टी के कुल्हड़ में अदरक और इलाइची वाली मीठी, गाढ़ी, सुनहरी चाय और साथ में बिस्कुट जैसा मज़ा शायद ही कहीं मिलता हो। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपको कौन-सा बिस्कुट पसंद है: परतदार, मक्खन वाला, क्रस्टी, सादा, ज़ीरे वाला, मीठा, नमकीन, मीठा-नमकीन, क्रीम वाली या चीनी बुरका हुआ। चाय और बिस्कुट की शुद्ध देसी जोड़ी सभी को लुभाती है। लेकिन आज से सौ साल पहले तक ऐसा नहीं था। उस समय बिस्कुट कई भारतीयों के लिए घृणा और यहां तक कि शत्रुता का विषय था।
वैसे तो भारतीय कई सदियों से किसी न किसी रूप में बिस्कुट बनाते और खाते आ रहे हैं। अरब, फारस और युरोप से लोगों के आगमन के साथ इनको बनाने की तकनीक, स्वाद और बनावट में काफी परिवर्तन आया है। अलबत्ता आजकल भारतीय घरों में प्रचलित चाय-बिस्कुट को अंग्रेज़ों ने शुरू किया और लोकप्रिय बनाया। खाद्य इतिहासकार लिज़ी कोलिंगहैम ने अपनी पुस्तक दी बिस्किट: दी हिस्ट्री ऑफ ए वेरी ब्रिटिश इंडल्जेंस में लिखा है कि जिस समय गोवा और पांडिचेरी के बेकर्स ने पुर्तगाली कर्ड टार्ट और फ्रेंच क्रॉइसां बनाना शुरू किया, उसी समय तरह-तरह के अंग्रेज़ी केक और बिस्कुट कलकत्ता, मद्रास और बंबई जैसे प्रेसीडेंसी शहरों की ब्रिटिश बेकरियों में नज़र आने लगे। हंटले एंड पामर्स जैसी मशहूर कंपनियां औद्योगिकीकृत हो रहे ब्रिटेन से भारत में बड़े पैमाने पर बिस्कुट आयात करती थीं हालांकि यहां इनका बाज़ार सीमित था। शुरुआत में तो बिस्कुट श्रमिक वर्गों की पहुंच से दूर विशिष्ट वर्ग का नाश्ता (स्नैक) हुआ करता था। और उच्च जाति के हिंदुओं के लिए यह वर्जित था।
हिंदू समाज में, भोजन को लेकर शुद्ध-अशुद्ध की धारणाओं के आधार पर धार्मिक और नैतिक मूल्य आरोपित किए जाते हैं जो जाति व्यवस्था के लगभग सभी पहलुओं का आधार हैं। इसका मतलब यह है कि भले ही भारतीय भोजन का इतिहास आदान-प्रदान और आत्मसात करने का रहा हो लेकिन नए खाद्य पदार्थों को हमेशा प्रतिरोध का सामना करना पड़ा है। 19वीं शताब्दी का कोई रूढ़िवादी हिंदू बिस्कुट को स्वाभाविक रूप से संदेह की नज़र से देखता और इसे म्लेच्छों (विदेशियों, बहिष्कृत समाजों और आक्रमणकारियों के लिए समान रूप से इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द) द्वारा खाया जाने वाला एक अपरिचित भोजन मानता। जाति के विचित्र नियमों के अधीन वे ब्रेड, मुर्गी, लेमोनेड (नींबू पानी) और बर्फ जैसी खाद्य वस्तुओं को अशुद्ध मानकर अस्वीकार करते थे। इनके प्रलोभन के आगे झुकने वाले व्यक्ति को जाति से बहिष्कृत तक कर दिया जाता था।
बंगाली स्वतंत्रता सेनानी, लेखक और अध्यापक बिपिन चंद्र पाल ने अपने संस्मरण सत्तर बरस में पूर्वी बंगाल के कछार ज़िले में बिस्कुट को लेकर हिंदुओं के बीच हंगामे के बारे में लिखा है। पाल लिखते हैं कि जब नव अंग्रेज़ी-शिक्षित मध्यम वर्ग ने अपने ड्राइंग रूम में चाय के साथ बिस्कुट का सेवन शुरू किया तो यह खबर कछार से लेकर सिलहट तक फैल गई। इस हंगामे के चलते कठोर प्रायश्चित के बाद ही बागी लोग बहिष्कार से बच सके।
अस्वीकार्य व्यवहार
बिस्कुट इतना कलंकित था कि उच्च जाति के हिंदुओं ने बेकरियों में काम करने से इन्कार कर दिया था। वी. ए. परमार ने मह्यावंशी: दी सक्सेस स्टोरी ऑफ ए शेड्यूल्ड कास्ट में लिखा है कि भरूच, जहां अंग्रेजों ने 1623 में पहली बेकरी स्थापित की थी और सूरत में कोई भी हिंदू सवर्ण इनमें इस आधार पर काम करने के लिए तैयार नहीं था कि यहां ताड़ी और अंडे का इस्तेमाल किया जाता था जिनको वे अशुद्ध मानते थे। आगे चलकर जब मुसलमानों और निचली जाति के हिंदुओं ने यहां नौकरियां स्वीकार कर लीं, तब भी ये बेकरियां ऊंची जातियों के लिए स्वीकार्य नहीं रही। बल्कि अब तो उनके लिए बिस्कुट से परहेज़ करने का एक और कारण मिल गया था क्योंकि जाति के नियमों के अनुसार पदानुक्रम में निचले स्थान के लोगों से भोजन या पेय पदार्थ स्वीकार करना भी वर्जित है। यदि कोई भी इस नियम को तोड़ता तो वह अपनी धार्मिक शुद्धता और जाति का दर्जा खो देता।
उन्हें बेकरी का मालिक बनने की भी अनुमति नहीं थी। परमार ने मूलशंकर वेनीराम व्यास नाम के एक उच्च जाति के व्यक्ति के बारे में बताया है जिसने एक युरोपीय बटलर से बिस्कुट बनाने की कला सीखी और रामजिनी पोल स्थित अपने घर में एक बेकरी की शुरुआत की। इसके नतीजे में उनकी जाति के लोगों ने उनका बहिष्कार करके तुरंत दंडित किया।
19वीं सदी के ब्रिटिश पत्रकार अरनॉल्ड राइट ने लिखा था कि “जातिगत पूर्वाग्रहों के कारण भारत में कई उद्योग बहुत गंभीर रूप से प्रभावित हुए लेकिन इसका सबसे अधिक असर खाद्य पदार्थों के निर्माण या उसकी तैयारी से सम्बंधित उद्योगों पर रहा।” ऐसी तमाम सामाजिक जटिलताओं के परिणामस्वरूप, देश की अधिकांश बेकरियां युरोपीय या पारसी समुदाय के स्वामित्व में थीं।
जैसा कि अक्सर होता है, जब रूढ़िवादिता उत्पीड़न में बदल जाती है, तो लोग इसके खिलाफ विद्रोह के तरीके ढूंढ लेते हैं। 19वीं सदी के भारत में भी कुछ लोगों ने पश्चिमी विचारों और जीवन शैली को प्रगति और आधुनिकता के रूप में अपनाकर पुरानी व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह किया। उनके लिए, एक अदना-सा बिस्कुट सिर्फ खाद्य सामग्री ही नहीं बल्कि घातक जाति व्यवस्था के विरोध का प्रतीक था। उदाहरण के लिए, बंगाली बुद्धिजीवी राजनारायण बोस ने शेरी (एक किस्म की शराब) और बिस्कुट खाकर ब्रह्म समाज में अपने शामिल होने का जश्न मनाया था।
ये बागी बहादुरी से इस निषिद्ध फल (यानी बिस्कुट) को खाते थे, यह अच्छी तरह से जानते हुए कि उन्हें आलोचकों से सामाजिक फटकार का सामना करना पड़ेगा जो इस भोजन को गैर-हिंदू और उसे विस्तार देते हुए गैर-भारतीय मानते थे। राष्ट्रवादी सोच में बिस्कुट को अंग्रेज़ीयत और औपनिवेशिकता का प्रतीक माना जाता था। बंगाली नाटककार अमृतलाल बसु का नाटक कालापानी या हिंदुमोते समुद्रजात्रा एक गीत के साथ शुरू होता था जिसमें इंगो-बंग या अंग्रेज़ीकृत बंगालियों का वर्णन किया गया था:
हमारे लोगों जैसा कोई भक्त नहीं,
हिंदू नियमों के अनुसार साहिब में बदलते, आमीन।
विदेशी बिस्कुट उन्हें पसंद हैं,
हे भगवान एक निवाला लो
भावपूर्ण दैनिक प्रसाद,
हमारे पवित्र घरों में।
उत्सा रे अपनी किताब कलिनरी कल्चर ऑफ कोलोनियल इंडिया में लिखती हैं कि “दुर्गाचरण रॉय के 19वीं सदी के सामाजिक व्यंग्य देबगनेर मॉर्तये अगोमोन (देवगणों का मृत्युलोक पर आगमन) में कहा था पृथ्वी की यात्रा पर निकले देवता इस बात से आश्चर्यचकित हैं कि कैसे कलकत्ता के ब्राह्मणों को पवित्र जनेऊ धारण करने के साथ मुस्लिम नानबाइयों द्वारा तैयार किए गए बिस्कुट और ब्रेड खाने में कोई परेशानी नहीं होती थी।” इसका तात्पर्य यह था कि “यह पवित्र धागा बस एक मुखौटा था जो अभी भी समाज की व्यवस्था को कायम रखे था, अन्यथा मध्यम वर्ग पूरी तरह पतित हो चुका था।”
वास्तव में बिस्कुट पर प्रतिबंध ने ही अंतत: इसे लोकप्रिय बना दिया। जैसा कि रे लिखती हैं, “निषिद्ध भोजन का लेबल लगाए जाने के चलते बिस्कुट अत्यधिक आकर्षक हो गया और इसका महत्व बढ़ गया।” युरोपीय लोगों की ज़रूरतें पूरा करने वाली दुकानों में सजे बिस्कुट के डिब्बे भारतीय मध्यम वर्ग की आकांक्षा बन गए। ऑक्सफोर्ड हैंडबुक ऑफ फूड हिस्ट्री में प्रकाशित निबंध फूड एंड एम्पायर में जयिता शर्मा लिखती हैं कि “युवा लोग इस आकर्षक वस्तु की तलाश में काफी रचनात्मक थे। धार्मिक कानूनों से बचने के लिए ऊंची जाति के हिंदू स्कूली बच्चे अपने मुस्लिम सहपाठियों को यह ‘अवैध स्वाद’ लाने के लिए राज़ी कर लिया करते थे।“
19वीं सदी के अंत तक देश भर में स्वदेशी बिस्कुट कारखाने खुलने लगे थे। मिस्र में तैनात ब्रिटिश सैनिकों के लिए बर्मा से दूध, चाय और ब्रेड भेजने वाले व्यवसायी मम्बली बापू ने 1880 में केरल स्थित थालास्सेरी में रॉयल बिस्कुट फैक्ट्री की शुरुआत की। इसके बाद पूर्वी भारत में ब्रिटानिया ने 1892 में कलकत्ता के एक छोटे से कमरे में ‘स्वीट एंड फैंसी बिस्किट्स’ का निर्माण शुरू किया। खाद्य इतिहासकार के. टी. अचया की पुस्तक फूड इंडस्ट्रीज़ ऑफ ब्रिटिश इंडिया के अनुसार प्रथम विश्व युद्ध तक भारत के बड़े शहरों में कम से कम आठ प्रमुख बिस्कुट कारखाने और देश भर में कई छोटी बेकरियां थीं।
जिव्हा का आनंद
अलबत्ता, उच्च जाति के हिंदुओं के लिए बिस्कुट को स्वीकार्य बनाना अभी भी आसान नहीं था। ज़ाहिर है, उन धार्मिक नियमों की उपेक्षा नहीं की जा सकती थी जिसने उनके और उनके पूर्वजों के जीवन को निर्धारित किया है। अंतत: इस समस्या का समाधान लाला राधा मोहन ने किया।
मोहन ने 1898 में दिल्ली में हिंदू बिस्कुट कंपनी की शुरुआत की। दो दशकों के भीतर इस बेकरी में कैंटीन, केबिन, इंपीरियल, कोरोनेशन जैसे नामों के 55 प्रकार के बिस्कुट और 30 से अधिक प्रकार के केक का उत्पादन होने लगा। मोहन के उत्पादों ने कई पुरस्कार जीते और कलकत्ता के विल्सन होटल (बाद में दी ग्रेट ईस्टर्न होटल) के साथ उनकी कंपनी प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सैनिकों को सैन्य-ग्रेड बिस्कुट प्रदान करने वाली मुख्य कंपनी बन गई।
सैनिकों के लिए आपूर्ति के अलावा, हिंदू बिस्कुट कंपनी की योजना जाति-जागरूक हिंदुओं के बीच बिस्कुट को लोकप्रिय बनाने की थी। इसके लिए कंपनी ने केवल ब्राह्मणों और उच्च जाति के हिंदुओं को नियुक्त किया ताकि उसके उत्पाद रूढ़िवादी हिंदुओं की नज़र में असंदूषित और स्वीकार्य हों। 1898 में प्रकाशित कंपनी के एक विज्ञापन में घोषणा की गई थी कि बिस्कुट के निर्माण से लेकर पैकेजिंग की पूरी प्रक्रिया के दौरान बिस्कुट को केवल उच्च जाति के हिंदू ही छूते हैं तथा इसे केवल दूध से तैयार किया जाता है और पानी का उपयोग नहीं किया जाता।
हिंदू बिस्कुट कंपनी की बढ़ती लोकप्रियता ने कई अन्य भारतीय कारखानों को हिंदू बिस्कुट के जेनेरिक नाम के साथ अपने उत्पाद बेचने के लिए प्रेरित किया। उनका विचार खरीदार को भ्रमित करना था और उनका यह तरीका काम भी कर गया। राइट की रिपोर्ट के अनुसार कई लोगों ने इस धारणा के साथ बिस्कुट खरीदे कि वे हिंदू बिस्कुट कंपनी द्वारा निर्मित किए गए हैं। आखिरकार त्रस्त होकर प्रबंधन को अपनी कंपनी का नाम बदलकर दिल्ली बिस्कुट कंपनी करने के लिए मजबूर होना पड़ा। इसको एक अवसर के रूप में देखते हुए ब्रिटानिया (उस समय गुप्ता एंड कंपनी) ने भी पश्चिमी शैली के बिस्कुट बनाने की ओर रुख किया जिसे उन्होंने हिंदू बिस्कुट के रूप में बेचा। आखिरकार, 1951 में दिल्ली बिस्कुट कंपनी का ब्रिटानिया में विलय हो गया और दिल्ली बिस्कुट कंपनी ब्रिटानिया की दिल्ली फैक्ट्री बन गई।
इस अवधि में, हिंदू बिस्कुट का नुस्खा दूर-दूर तक फैल गया। 1917 में अमेरिकी साप्ताहिक पत्रिका कोलियर में प्रकाशित एक लेख में, फ्रांसीसी शहर फ़्लर्स डी ल’ऑर्न की मैडम लुईस बोके ने हिंदू बिस्कुट का एक नुस्खा साझा किया था, जिसे उन्होंने एक हिंदू अधिकारी से प्राप्त किया था (इस नुस्खे में एक-एक आउंस आटा, मक्खन और बारीक पनीर की ज़रूरत होती थी)। हिंदू बिस्कुट के प्रसार को एक लोक सेवक अतुल चंद्र चटर्जी ने अपनी 1908 की पुस्तक नोट्स ऑन दी इंडस्ट्रीज़ ऑफ दी युनाइटेड प्रोविंसेज़ में कुछ इस तरह बयान किया है: “मैंने पश्चिमी ज़िलों के रेलवे प्लेटफार्मों और बड़े-बड़े बाज़ारों में भी दिल्ली बिस्कुट बिकते देखे। भारतीयों में बिस्कुट का शौक बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है। मुसलमानों को इससे कोई आपत्ति नहीं है और मेरे ख्याल से हिंदुओं का एक बड़ा हिस्सा भी ‘हिंदू’ बिस्कुट खा रहा है। यह रेल यात्रा में काफी सुविधाजनक है और बच्चों व अक्षम लोगों में भी इसकी काफी मांग है।”
अचया के अनुसार इस बदलाव का कारण 1905 का स्वदेशी आंदोलन था जिसमें स्वदेशी उत्पादों के अधिक उपयोग के आग्रह के चलते बिस्कुट उद्योग को काफी प्रोत्साहन मिला और चाय की दुकानों ने स्वदेशी बिस्कुट स्टॉक करना और परोसना शुरू कर दिया। आत्मनिर्भर बनने का प्रयास करने वाले लोगों के लिए बिस्कुट कारखाने महत्वपूर्ण एजेंसियां बन गए: उन्होंने रोज़गार पैदा किए, स्वदेशी उत्पाद बनाए और उन्हें सस्ती कीमतों पर बेचा। इससे नज़रिया तेज़ी से बदला और आख्यान में भी परिवर्तन होने लगा। जेबी मंघाराम बिस्कुट फैक्ट्री 1919 में सुक्कुर (वर्तमान पाकिस्तान में) में खोली गई थी, और बाद में पारले ने अपने ग्लूकोज़ बिस्कुट को बच्चों, जो देश का भविष्य हैं, के लिए शक्तिवर्धक ऊर्जावान भोजन के रूप में पेश किया। वर्षों की अस्वीकृति के बाद, बिस्कुट कंपनियां नव स्वतंत्र भारत में राष्ट्र-निर्माण में हितधारकों के रूप में उभरीं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://scroll.in/magazine/1055346/the-story-of-how-hindus-stopped-distrusting-biscuits-and-began-eating-them?utm_source=pocket-newtab-en-intl
नन्हें टार्डिग्रेड्स की खासियत है कि वे अति दुर्गम परिस्थितियों – निर्वात से लेकर परम शून्य के तापमान – में जीवित रह सकते हैं। अब वैज्ञानिकों ने टार्डिग्रेड्स में इस खासियत के कारण की पहचान कर ली है – यह एक प्रकार का आणविक स्विच है जो दुर्गम परिस्थितियों में सुप्तावस्था को शुरू करता है।
दरअसल जब मार्शल युनिवर्सिटी के रसायनज्ञ डेरिक कोलिंग ने एक ऐसी मशीन, जो ‘मुक्त मूलकों’ या अयुग्मित इलेक्ट्रॉन से लैस परमाणुओं का पता लगाती है, में टार्डिग्रेड को डाला तो उन्होंने टार्डिग्रेड में मुक्त मूलक उत्पन्न होते देखे। हालांकि टार्डिग्रेड में मुक्त मूलक दिखना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी क्योंकि जीवों की सामान्य चयापचय प्रक्रिया और धुआं व अन्य प्रदूषक जैसे पर्यावरणीय तनाव के कारण कोशिकाओं में मुक्त मूलक बनते ही हैं।
जब बहुत सारे मुक्त मूलक जमा हो जाते हैं तो स्थिरता प्राप्त करने के लिए वे अपने आसपास से इलेक्ट्रॉनों को हड़प लेते हैं। इस प्रक्रिया में, ये मुक्त मूलक कोशिकाओं और डीएनए एवं प्रोटीन जैसे यौगिकों को नुकसान पहुंचाते हैं। लेकिन यदि यही मुक्त मूलक कम मात्रा में मौजूद हो तो ये संकेतक की तरह काम कर सकते हैं।
दूसरी ओर, रसायनशास्त्री लेसली हिक्स अपने अध्ययन में देख रही थीं कि जब इन मूलकों को विभिन्न प्रकार के प्रोटीन के साथ जोड़ा और हटाया जाता है तो ये कोशिका के व्यवहार को किस तरह प्रभावित करते हैं।
टार्डिग्रेड में मुक्त मूलक के कोलिंग के अवलोकन ने हिक्स को यह जानने की दिशा में मोड़ा कि क्या दुर्गम परिस्थितियों में ऐसे ही मुक्त मूलक टार्डिग्रेड को जीवित रहने में मदद करते हैं? इसके लिए शोधकर्ताओं ने टार्डिग्रेड के लिए एक अस्थायी दुर्गम, तनावपूर्ण और मुक्त मूलक बनाने वाला वातावरण बनाया। और टार्डिग्रेड पर नज़र रखी कि क्या इन परिस्थितियों में टार्डिग्रेड्स ने सुरक्षात्मक स्थिति में प्रवेश किया, और यदि किया तो क्या जीवन परिस्थितियां बहाल होने पर वे वापस सामान्य स्थिति में लौट सके और अपनी सामान्य गतिविधि शुरू कर सके?
साथ ही देखा कि क्या मुक्त मूलकों और सिस्टीन (प्रोटीन का एक अमीनो अम्ल) के बीच संकेतन तंत्र निष्क्रियता में भूमिका निभाता है? यह देखने के लिए शोधकर्ताओं ने टार्डिग्रेड का ऐसे विभिन्न प्रकार के अणुओं से संपर्क कराया जो सिस्टीन ऑक्सीकरण को अवरुद्ध करते हैं। उन्होंने पाया कि तनावपूर्ण परिस्थितियों में जब मुक्त कणों के लिए सिस्टीन मौजूद नहीं था तब टार्डिग्रेड निष्क्रिय नहीं हो सके।
ये नतीजे पूर्व अध्ययन के नतीजों को समर्थन देते हैं जो बताते हैं कि निर्जलीकरण सहनशील कीट मिज में सिस्टीन ऑक्सीकरण की भूमिका है। इससे लगता है कि दूभर स्थितियों में निष्क्रिय होने या ऐसे ही अन्य अवस्थाओं में जाने के लिए जीवों में एक साझा ट्रिगर हो सकता है।
बहरहाल, टार्डिग्रेड्स में मुक्त मूलकों के कार्य को समझने के लिए अधिक अध्ययन की ज़रूरत है। वहीं दूभर स्थिति से निपटने में निष्क्रिय हो जाने के अलावा अन्य रणनीतियों पर भी गहन अध्ययन की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में, कैलिफोर्निया की चिकित्सक डॉ. नोहा एबोलेटा के नेतृत्व में एक समूह ने पल्स ऑक्सीमीटर की बिक्री को चुनौती दी है। पाया गया है कि ये उपकरण अश्वेत त्वचा वाले व्यक्तियों में रक्त-ऑक्सीजन का स्तर गलत बताते हैं। डॉ. एबोलेटा के नेतृत्व में रूट्स कम्यूनिटी हेल्थ सेंटर द्वारा ऑक्सीमीटर की बिक्री को तब तक रोकने की मांग की जा रही है जब तक कि इन उपकरणों में आवश्यक सुधार नहीं कर लिए जाते या उनकी सीमाओं के बारे में चेतावनी लेबल नहीं लगा दिया जाता।
गौरतलब है कि पल्स ऑक्सीमीटर आम तौर पर उंगली के सिरे पर लगाए जाते हैं और ये त्वचा के माध्यम से अंदर प्रकाश चमकाकर रक्त में ऑक्सीजन के स्तर का आकलन करते हैं। लेकिन ये आकलन त्वचा में उपस्थित मेलेनिन नामक रंजक से प्रभावित होते हैं जो अश्वेत त्वचा में अधिक होता है।
दशकों चले अध्ययनों में सामने आया है कि ये उपकरण अश्वेत त्वचा वाले व्यक्तियों में ऑक्सीजन का स्तर अधिक बताते हैं, जो स्वास्थ्य सम्बंधी निर्णयों को प्रभावित करता है। इस मुद्दे को कोविड-19 महामारी के दौरान अधिक प्रमुखता मिली जब सटीक ऑक्सीजन स्तर का आकलन करना अति आवश्यक था। चूंकि यह ऑक्सीमीटर अश्वेत व्यक्तियों के खून में वास्तविकता से अधिक ऑक्सीजन बताता था, इसलिए उन्हें सही चिकित्सा नहीं मिल पाती थी या देर से मिलती थी।
लेकिन चिकित्सा उपकरण उद्योग और अमेरिकी सरकार इस समस्या को लेकर काफी धीमी गति से काम कर रही है। इन उपकरणों को मुख्य रूप से श्वेत आबादी के हिसाब से तैयार किया गया है व परखा गया है। यह अश्वेत लोगों के निदान में अशुद्धियों का प्रमुख कारण है।
कैलिफोर्निया काउंटी अदालत में दायर किया गया मुकदमा काफी महत्वपूर्ण है। यह सभी के लिए इस समस्या से निपटने का एक अनूठा अवसर प्रदान करता है और इस मुद्दे को प्रमुखता से सार्वजनिक मंच पर रखता है।
इस संदर्भ में मेडट्रॉनिक और मासिमो जैसे दिग्गज चिकित्सा-उपकरण निर्माता तो खाद्य व औषधि प्रशासन (एफडीए) के दिशानिर्देशों के पालन का हवाला देते हुए अपनी प्रौद्योगिकियों का बचाव कर रहे हैं। इस मामले में आलोचकों का तर्क है कि इन दावों का समर्थन करने वाले अध्ययन अक्सर प्रयोगशाला में किए गए हैं, जबकि वास्तविक दुनिया के परिदृश्य विभिन्न चुनौतियां पेश करते हैं।
इस मामले में महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब 2020 के एक अध्ययन में कोविड-19 से ग्रसित लोगों में पल्स ऑक्सीमीटर की रीडिंग में महत्वपूर्ण विसंगतियां सामने आईं। इन विसंगतियों में विशेष रूप से अश्वेत रोगी सबसे अधिक प्रभावित पाए गए। नतीजतन सीनेटरों से कार्रवाई की मांग के बाद 2022 में एफडीए की बैठक हुई जिसमें इन उपकरणों की सीमाओं को स्वीकार किया गया। फरवरी में एक और बैठक की संभावना है। (स्रोत फीचर्स)
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अस्सी की उम्र पार कर गए मुझ जैसे कई वरिष्ठ नागरिक अक्सर उन लोगों को भूल जाते हैं जिन्हें वे पहले मिल चुके होते हैं या बहुत अच्छी तरह से जानते थे। अक्सर वे ऐसी स्थिति में हैरान या शर्मिंदा हो जाते हैं जब उनकी मुलाकात ऐसे किसी व्यक्ति से हो जाती है और वे पूछ बैठते हैं कि “अंकल आप कैसे हैं?”, “अंकल, क्या आपको याद है मैं आपके घर आया था?” या, “हैलो मेरे दोस्त, कितने अरसे बाद मिले हो; कैसे हो तुम?”
इस प्रकार के अस्थायी ब्लैकआउट आम बात हैं। इस बारे में मेरे युवा सहकर्मी डॉ. दुर्गादास कस्बेकर ने कुछ प्रासंगिक और मज़ेदार उद्धरण सुनाए।
उनमें से एक सर नॉर्मन विसडम का है, जो लिखते हैं: “जैसे-जैसे आप बूढ़े होते हैं, तीन चीज़ें घटित होती हैं। पहली कि आपकी याददाश्त जाने लगती है, और बाकी दो मुझे याद नहीं हैं।”
ऐसा ही कुछ अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन ने भी लिखा था: “मैं जितना बूढ़ा होता जाता हूं, उतने ही अच्छे से मुझे वे चीज़ें याद रहती हैं (या याद आती हैं) जो पहले कभी हुई ही नहीं थीं!
विपरीत स्थिति
इसके एकदम विपरीत कई बहुत बूढ़े व्यक्ति ऐसे होते हैं, जिन्हें अपने जीवन में घटी हर घटना और हर वह शख्स याद रहता है जिससे वे मिले थे। इसका एक बेहतरीन उदाहरण डॉ. एम. एस. स्वामीनाथन हैं, जिनका हाल ही में 98 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्होंने अपने प्रयासों से 50 वर्षों के भीतर भारत को खाद्य-आयात करने वाले देश से खाद्य-निर्यात करने वाले देश में बदल दिया। डॉ. स्वामीनाथन की स्मृति अद्भुत थी, उन्हें लोग और घटनाएं बहुत अच्छे से याद रहती थीं। निश्चित ही वे नॉर्मन विसडम और मार्क ट्वेन के कथनों के जवाब थे!
ऐसी ही एक और मिसाल बेहतरीन क्रिकेट खिलाड़ी सी. डी. गोपीनाथ की है, जिन्होंने 1951-52 में क्रिकेट में पदार्पण किया था और अब वे 93 वर्ष के हैं।
लेकिन प्रत्येक वरिष्ठ नागरिक इतना खुशनसीब नहीं होता। तो हम भूलने की बीमारी से कैसे निपट सकते हैं? कुछ युक्तियां इस नए कौशल को सीखने में उपयोगी हो सकती हैं; नियमित दिनचर्या अपनाएं; कार्यों की योजना बनाएं, कामों की सूची बनाएं, और कैलेंडर एवं नोट्स जैसे मेमोरी टूल का उपयोग करें; अपना बटुआ, चाबियां, फोन और चश्मा हर दिन नियत जगह पर ही रखें; ऐसी गतिविधियां करें जिनमें दिमाग और शरीर दोनों व्यस्त रहते हैं; स्मृति ह्रास से निपटने के लिए अपने समुदाय में कोई काम स्वैच्छिक तौर पर करें – जैसे किसी स्कूल में या किसी इबादतगाह में; परिवार और दोस्तों के साथ समय बिताएं; पर्याप्त नींद लें – सामान्यत: हर रात सात-आठ घंटे की; व्यायाम करें और अच्छा खाएं; उच्च रक्तचाप से बचें या नियंत्रित रखें; शराब पीने से बचें या कम कर दें; और यदि आप लगातार कई हफ्तों से मायूसी (अवसाद) महसूस कर रहे हैं तो डॉक्टर से परामर्श लें। व्यक्तिगत रूप से, मैंने इन सभी युक्तियों को अपनाने का प्रयास किया है, और इन्हें बहुत उपयोगी पाया है।
स्मृति ह्रास को धीमा करने और दिमाग को चुस्त और सक्रिय रखने के अन्य विभिन्न तरीके क्या हैं? आश्चर्य होगा कि आज के कंप्यूटर वीडियो गेम के ज़माने में स्मृति ह्रास को धीमा रखने के मामले में वर्ग पहेली ने कंप्यूटर गेम्स को मात दे दी है। यह रिपोर्ट कोलंबिया युनिवर्सिटी के डॉ. डी. पी. देवानंद और ड्यूक युनिवर्सिटी के मुरली दोरईस्वामी द्वारा हाल ही में 107 लोगों के साथ किए गए एक कंट्रोलशुदा रैंडम परीक्षण की है।
व्यक्तिगत तौर पर, मुझे वर्ग पहेलियां भरना, पांच, छह और सात अक्षरों के गड्ड-मड्ड मिश्रण से सार्थक शब्द बनाना (sufmao से famous) और सुडोकू हल करना बहुत उपयोगी लगता है। अन्य वरिष्ठ नागरिक अखबारों में छपे ऐसे और अन्य तरह के खेल, पहेलियां आज़मा सकते हैं। तो, मेरे बुज़ुर्ग मित्रों, स्मृति ह्रास को धीमा करने के लिए उपरोक्त सभी 11 युक्तियां अपनाएं और जो पहेलियां हल करना पसंद हो उन्हें हल करें!(स्रोत फीचर्स)
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इस लेख में पहेलियां हल करने का सुझाव दिया गया है। ऐसी ही एक पहेली सुडोकु है। करके देखिए। नियम तो आपको पता ही होंगे – हरेक छोटे चौखाने में 1 से 9 तक के अंक भरने हैं, लेकिन प्रत्येक आड़ी और खड़ी पंक्ति और प्रत्येक बड़े चौखाने में कोई अंक दोहराया नहीं जाएगा।
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static01.nyt.com/images/2022/07/19/well/05Well-BetterMemory/05Well-BetterMemory-superJumbo.jpg
वर्ष 2024 विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में अभूतपूर्व विकास देखने के लिए तैयार है। उन्नत एआई, चंद्रमा मिशन और अल्ट्राफास्ट सुपर कंप्यूटर इस वर्ष के अनुसंधान को एक नया आकार देने वाले प्रमुख अनुसंधान होंगे। इस वर्ष अपेक्षित प्रमुख घटनाओं की एक झलक…
कृत्रिम बुद्धि (एआई)
वर्ष 2023 में चैटजीपीटी के विकास का विज्ञान पर गहरा प्रभाव पड़ा है। ओपनएआई द्वारा निर्मित इस एआई चैटबॉट का सबसे उन्नत मॉडल वर्तमान में जीपीटी-4 है और इस वर्ष के अंत तक अधिक उन्नत जीपीटी-5 जारी होने की उम्मीद है। इसके अलावा, जीपीटी-4 के गूगल द्वारा विकसित प्रतिस्पर्धी जेमिनी के रोल-आउट की भी उम्मीद है। यह विशाल भाषा मॉडल टेक्स्ट, कंप्यूटर कोड, चित्र, ऑडियो और वीडियो सहित कई प्रकार के इनपुट को संसाधित करने में सक्षम है।
इसी वर्ष गूगल डीपमाइंड के एआई टूल अल्फाफोल्ड का एक नया संस्करण भी जारी होने की अपेक्षा है; अल्फाफोल्ड का उपयोग शोधकर्ता प्रोटीन के 3डी आकार का अनुमान लगाने के लिए कर चुके हैं। यह एआई तकनीक परमाणु स्तर पर प्रोटीन, न्यूक्लिक एसिड और अन्य अणुओं के बीच परस्पर सम्बंध का मॉडलिंग करने में सक्षम होगा। हालांकि, इसमें एक बड़ा सवाल नियामक चिंताओं से जुड़ा है। कृत्रिम बुद्धि पर संयुक्त राष्ट्र की उच्च-स्तरीय सलाहकार संस्था 2024 के मध्य में अपनी अंतिम रिपोर्ट साझा करेगी, जिसमें एआई के अंतर्राष्ट्रीय विनियमन के लिए दिशानिर्देश दिए जाएंगे।
ब्रह्मांड पर नज़र
ब्रह्मांड की खोज जारी रखते हुए चिली स्थित वेरा सी. रुबिन वेधशाला 2024 के अंत तक संचालन शुरू करने के लिए तैयार है। 8.4 मीटर की दूरबीन और 3200 मेगापिक्सल के शक्तिशाली कैमरे से लैस होकर वैज्ञानिक दक्षिणी गोलार्ध के आकाश का अपना नियोजित दस-वर्षीय सर्वेक्षण समय से पूर्व शुरू कर पाएंगे। उन्हें नई क्षणिक घटनाओं को उजागर करने और पृथ्वी के निकट क्षुद्रग्रहों की पहचान करने की उम्मीद है।
इसके साथ ही, 2024 के मध्य में चिली के अटाकामा रेगिस्तान स्थित साइमंस वेधशाला के पूरा होने की भी संभावना है। इसका उद्देश्य ब्रह्मांडीय माइक्रोवेव पृष्ठभूमि में बिग बैंग के अवशेषों यानी आदिम गुरुत्वाकर्षण तरंगों की उपस्थिति का पता लगाना है। 50,000 प्रकाश-संग्राहक डिटेक्टरों से सुसज्जित और मौजूदा परियोजनाओं से दस गुना अधिक उन्नत यह वेधशाला ब्रह्मांड के शुरुआती क्षणों की महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करने में सक्षम है।
अलबत्ता, खगोलविद कृत्रिम चमकदार उपग्रहों की बढ़ती भीड़ से चिंतित हैं जो रात के आकाश में प्रकाश प्रदूषण फैलाकर ज़मीन-आधारित टेलीस्कोप डैटा को अनुपयोगी बना सकते हैं।
हथियारबंद मच्छर
विश्व मच्छर कार्यक्रम इस वर्ष ब्राज़ील स्थित एक फैक्टरी में रोग से लड़ने वाले मच्छरों का उत्पादन शुरू करेगा। इन मच्छरों को एक ऐसे बैक्टीरिया स्ट्रेन से संक्रमित किया जाएगा जो उन्हें रोगजनक वायरसों को फैलाने से रोकता है। उम्मीद है कि इस तकनीक से 7 करोड़ लोगों को डेंगू और ज़ीका जैसी बीमारियों से बचाया सकेगा। यह गैर-मुनाफा संगठन अगले कुछ दशकों मे प्रति वर्ष पांच अरब बैक्टीरिया-संक्रमित मच्छरों का उत्पादन करेगा।
महामारी से आगे
कोविड-19 संकट के बाद से अमेरिकी सरकार तीन उन्नत टीकों के परीक्षणों में निवेश कर रही है। इनमें से दो श्वसन मार्ग आधारित टीके हैं जिनका उद्देश्य श्वसन मार्ग के ऊतकों में प्रतिरक्षा उत्पन्न करके संक्रमण को रोकना है, जबकि तीसरा एमआरएनए वैक्सीन है जो एंटीबॉडी और टी-सेल प्रतिक्रियाओं को बढ़ाते हुए संभवत: सार्स-कोव-2 वेरिएंट की एक विस्तृत शृंखला के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करेगा।
इसके साथ ही, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) मई में 77वीं विश्व स्वास्थ्य सभा के दौरान एक महामारी संधि के अंतिम मसौदे का खुलासा करने जा रहा है। इस संधि का उद्देश्य भविष्य में महामारी की रोकथाम और प्रबंधन के लिए वैश्विक स्तर पर सरकारों को बेहतर ढंग से तैयार करना है। डब्ल्यूएचओ के 194 सदस्य देशों द्वारा इस समझौते की शर्तों को निर्धारित किया जाएगा जिसमें इस बात पर भी चर्चा होगी कि क्या इसका कोई प्रावधान कानूनी रूप से बाध्यकारी होगा। इस बातचीत में टीके, डैटा और विशेषज्ञता सहित आवश्यक उपकरणों तक उचित पहुंच सुनिश्चित करने पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा जो भविष्य की महामारी को रोकने के लिए महत्वपूर्ण है।
चंद्रमा मिशन
इस वर्ष नासा एक महत्वपूर्ण मानव युक्त चंद्र मिशन, आर्टेमिस-II पर काम कर रहा है। 1970 के दशक के बाद यह नासा का पहला चंद्र मिशन है जिसमें चालक दल भेजा जाएगा। तीन पुरुषों और एक महिला चालक दल वाले इस दस-दिवसीय मिशन को नवंबर में लॉन्च करने की उम्मीद है। यह एक फ्लायबाय मिशन होगा यानी यह चांद का चक्कर लगाकर लौट आएगा। यह आर्टेमिस-III के लिए आधार तैयार करेगा। गौरतलब है कि आर्टेमिस-III का लक्ष्य चांद की सतह पर पहली महिला और उसके बाद दूसरे पुरुष को उतारना है। इसी दौरान, चीन चांग’ई-6 चंद्र मिशन के लिए तैयारी कर रहा है, जिसका लक्ष्य चंद्रमा के दूरस्थ हिस्से से नमूने एकत्र करना है।
इसके अलावा बाहरी सौर मंडल के चंद्रमाओं की खोजबीन के भी आसार हैं। इसमें नासा का क्लिपर क्राफ्ट अक्टूबर में बृहस्पति के चंद्रमा युरोपा के लिए एक मिशन की तैयारी कर रहा है। इसका उद्देश्य युरोपा के भूमिगत समंदर में जीवन की संभावना की तलाश करना है। इसके अलावा, 2024 के लिए प्रस्तावित जापान का मार्शियन मून्स एक्सप्लोरेशन (एमएमएक्स) मिशन, मंगल के चंद्रमाओं फोबोस और डेमोस की पड़ताल करेगा। मिशन की योजना फोबोस की सतह के नमूने एकत्र करके 2029 तक पृथ्वी पर वापस लौटना है।
डार्क मैटर का रहस्य
उम्मीद है कि इस वर्ष सूर्य द्वारा उत्सर्जित रहस्यमयी डार्क-मैटर कण, एक्सियॉन का पता लगाने के उद्देश्य से किए गए प्रयोग के परिणाम सामने आ सकते हैं। डार्क मैटर को समझने की दृष्टि से महत्वपूर्ण एक्सियॉन का निरीक्षण अब तक उसके छोटे आकार तथा संवेदनशील उपकरणों और एक मज़बूत चुंबकीय क्षेत्र के अभाव के चलते नहीं हो पाया है। इसके लिए हैम्बर्ग स्थित जर्मन इलेक्ट्रॉन सिंक्रोट्रॉन में प्रतिदिन 12 घंटे तक सूर्य के केंद्र को ट्रैक करने के लिए एक सौर दूरबीन में 10 मीटर लंबे चुंबक और अति-संवेदनशील, शोर-मुक्त एक्स-रे डिटेक्टरों का उपयोग किया जाता है ताकि एक्सियॉन के फोटॉन में रूपांतरण को देखा जा सके।
इसके अतिरिक्त, 2024 में कण भौतिकी के स्टैण्डर्ड मॉडल में सबसे रहस्यमय कण न्यूट्रिनो का द्रव्यमान ज्ञात करने में सफलता मिल सकती है। 2022 में कार्लस्रुहे ट्रिटियम न्यूट्रिनो प्रयोग से न्यूट्रिनो का द्रव्यमान अधिकतम 0.8 इलेक्ट्रॉन वोल्ट आंका गया था। शोधकर्ताओं की अपेक्षा है कि 2024 में डैटा संग्रह का कार्य पूरा करके न्यूट्रिनो के द्रव्यमान के एक निश्चित मान का निर्धारण किया जा सकेगा।
चेतना की बहस: दूसरा दौर
इस वर्ष चेतना की तंत्रिका उत्पत्ति पर नई जानकारी मिलने की उम्मीद है। उम्मीद है कि कुछ परस्पर विपरीत प्रयोगों के माध्यम से चेतना के दो सिद्धांतों (दर्शन बनाम तंत्रिका विज्ञान) का परीक्षण करने वाली एक परियोजना के दूसरे चरण के परिणाम 2024 के अंत तक सामने आ सकते हैं। प्रथम दौर में दोनों सिद्धांत पूरी तरह से मस्तिष्क-इमेजिंग डैटा की व्याख्या करने में विफल रहे थे। इसके चलते, इन दो सिद्धांतों के बीच 25 वर्ष पुरानी एक शर्त दर्शनशास्त्र के पक्ष में झुक गई थी। हो सकता है कि दूसरा दौर तंत्रिका विज्ञान को व्यक्तिपरक अनुभव के रहस्यों को उजागर करने के करीब ले आए।
ग्रह संरक्षण
इस वर्ष उत्तरार्ध में हेग स्थित अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय जलवायु परिवर्तन सम्बंधी राष्ट्रों के कानूनी दायित्वों पर अपनी राय दे सकता है और जलवायु को नुकसान पहुंचाने वालों के लिए परिणामों पर भी फैसला दे सकता है। हालांकि, यह फैसला कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं होगा, लेकिन अदालत की साख देशों को अपने जलवायु सम्बंधी लक्ष्यों को सुदृढ़ करने का दबाव बना सकती है और घरेलू स्तर पर कानूनी कार्रवाई में इसका हवाला दिया सकेगा।
प्लास्टिक प्रदूषण से निपटने के लिए अंतर्राष्ट्रीय समझौते के लिए संयुक्त राष्ट्र प्लास्टिक संधि की बातचीत इस वर्ष पूरी होने की उम्मीद है। शोधकर्ताओं के बीच इस बात को लेकर चिंताएं बढ़ रही हैं कि पिछले साल शुरू हुई संयुक्त राष्ट्र की ये वार्ताएं बहुत धीमी गति से आगे बढ़ रही हैं। गौरतलब है कि पूरा विश्व 7 अरब टन से अधिक प्लास्टिक कचरे से जूझ रहा है जिसके कारण महासागरों और वन्यजीवों को काफी नुकसान हो रहा है।
सुपरफास्ट सुपरकंप्यूटर्स
इस वर्ष की शुरुआत में शोधकर्ता युरोप के पहले एक्सास्केल सुपरकंप्यूटर जूपिटर का उपयोग शुरू कर सकते हैं। यह विशाल मशीन प्रत्येक सेकंड एक क्विंटिलियन (एक अरब अरब) गणनाएं करने में सक्षम है। इसका उपयोग चिकित्सा उद्देश्यों के लिए मानव हृदय और मस्तिष्क के डिजिटल जुड़वां मॉडल बनाने और पृथ्वी की जलवायु की उच्च-विभेदन अनुकृतियों चलाने के लिए किया जाएगा।
यूएस के शोधकर्ता भी दो एक्सास्केल मशीनें स्थापित करेंगे: ऑरोरा, और एल कैपिटन। ऑरोरा का उपयोग मस्तिष्क के तंत्रिका सर्किट के मानचित्रण के लिए किया जाएगा जबकि एल कैपिटन का उपयोग परमाणु हथियार विस्फोटों के प्रभावों की अनुकृति तैयार करने के लिए किया जाएगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw1024/magazine-assets/d41586-023-04044-9/d41586-023-04044-9_26539082.jpg
पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ते हुए वर्ष 2023 अब तक का सबसे गर्म साल रहा है। कॉपरनिकस जलवायु परिवर्तन सर्विस की हालिया रिपोर्ट में औसत सतही तापमान में लगभग 0.2 डिग्री सेल्सियस की अतिरिक्त वृद्धि दर्ज की गई है। 2023 का तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.48 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा। यह झुलसा देने वाली गर्मी उस जलवायु से चिंताजनक प्रस्थान का संकेत देती है जिसमें हमारी सभ्यता विकसित हुई।
यह तो स्थापित है कि इस दीर्घकालिक वार्मिंग के प्रमुख दोषी जीवाश्म ईंधन हैं। लेकिन 2023 में हुई अतिरिक्त वृद्धि से वैज्ञानिक असमंजस में हैं। इस अतिरिक्त वृद्धि को मात्र जीवाश्म ईंधन दहन के आधार पर नहीं समझा जा सकता।
लगता है कि वैश्विक तापमान में वृद्धि का एक कारक दो जलवायु पैटर्न के बीच अंतर है। 2020 से 2022 तक ला-नीना जलवायु पैटर्न रहा। इसके तहत प्रशांत महासागर की गहराइयों का ठंडा पानी सतह पर आ जाता है और वातावरण को ठंडा रखता है। लेकिन 2023 में ला नीना समाप्त हो गया और उसके स्थान पर एक अन्य पैटर्न एल नीनो प्रभावी हो गया जिसने प्रशांत महासागर पर गर्म पानी की चादर फैला दी और वातावरण गर्म होने लगा। आम तौर पर एल नीनो अपनी शुरुआत के एक वर्ष बाद वैश्विक तापमान पर असर दिखाता है। लेकिन इस बार 2023 में एल नीनो शुरू हुआ और इसी वर्ष असर दिखाने लगा। और तो और, प्रभाव एल नीनो क्षेत्र से दूर तक हुआ है – उत्तरी अटलांटिक और प्रशांत महासागरों से ऊपर तक।
2022 में हुए हुंगा टोंगा-हुंगा हपाई ज्वालामुखी विस्फोट को तापमान में वृद्धि का प्रमुख ज़िम्मेदार माना जा रहा था। यह दक्षिणी प्रशांत क्षेत्र में स्थित है। यह माना गया था कि इस विस्फोट ने समताप मंडल में भारी मात्रा में जलवाष्प छोड़ी जिसकी वजह से वातावरण गर्म हुआ। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि विस्फोट के साथ सल्फेट कण भी बिखरे होंगे और इन कणों ने प्रकाश को परावर्तित कर दिया होगा जिसके चलते वातावरण ठंडा हुआ होगा। गणनाओं के अनुसार इन सल्फेट कणों ने जलवाष्प द्वारा उत्पन्न वार्मिंग प्रभाव को काफी हद तक कम किया होगा। गणनाएं यह भी बताती हैं कि इन दो विपरीत घटनाओं के प्रभाव के चलते यह विस्फोट तापमान वृद्धि की दृष्टि से उदासीन ही रहा होगा।
2023 में अतिरिक्त तापमान वृद्धि की सर्वोत्तम व्याख्या शायद यह है कि वातावरण में प्रकाश अवरोधी प्रदूषण का स्तर कम हो गया है। इसका प्रमुख कारण स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों का बढ़ता उपयोग है।
नासा के गोडार्ड स्पेस फ्लाइट सेंटर के वायुमंडलीय भौतिक विज्ञानी तियानले युआन के अनुसार प्रदूषण में कमी, विशेषत: जहाजों द्वारा उत्सर्जित सल्फर कणों में कमी, ने अनजाने में प्रकाश को वापिस अंतरिक्ष में परावर्तित करने वाले बादलों को कम किया है। उपग्रह अवलोकनों से पता चला है कि 2022 के बाद से इन बादलों में कमी आई है। सिर्फ इन बादलों का कम होना पिछले दशक में हुई तापमान वृद्धि का महत्वपूर्ण कारण हो सकता है।
प्रसिद्ध जलवायु वैज्ञानिक जेम्स हेन्सन द्वारा नवंबर 2023 में प्रकाशित शोधपत्र के अनुसार प्रदूषण में कमी से तापमान में 0.27 डिग्री सेल्सियस प्रति दशक की वृद्धि हुई है, जबकि 1970 और 2010 के बीच प्रति दशक वृद्धि 0.18 डिग्री सेल्सियस ही रही थी। यह वृद्धि अभी तक गहरे समुद्र के तापमान में नहीं देखी गई है। इसकी मदद से दीर्घकालिक रुझानों की अधिक सटीक जानकारी मिल सकती है।
बहरहाल, पिछले वर्ष की इन गुत्थियों ने भविष्य के अनुमानों पर अनिश्चितता पैदा की है। इसके साथ ही एल नीनो अस्थायी रूप से वैश्विक तापमान को पेरिस समझौते में निर्धारित 1.5 डिग्री सेल्सियस से आगे बढ़ा सकता है। लेकिन इस इन्तहाई गर्मी का उत्तरी महासागरों के तापमान में वृद्धि का रूप लेने में समय लगेगा और तभी पूरे विश्व के स्तर पर पेरिस सीमा का उल्लंघन होगा। फिर भी, दीर्घकालिक वार्मिंग पैटर्न की निरंतरता तब तक जारी रहेगी जब तक जीवाश्म ईंधन जलाना बंद नहीं हो जाता। यह निष्कर्ष कार्रवाई की ज़रूरत का आह्वान है। (स्रोत फीचर्स)
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प्रकृति से प्रेरणा लेते हुए वैज्ञानिकों द्वारा पानी पर तैरने वाले कीटों की अद्भुत क्षमताओं का उपयोग अब उन्नत जलीय रोबोट विकसित करने में किया जा रहा है। रिपल बग और व्हर्लिगिग बीटल नामक दो प्रजातियों की पानी पर अनोखी चपलता और गति ने एक जलीय रोबोट की एक नई तकनीक की प्रेरणा दी है।
इस खोज के लिए युनिवर्सिटी ऑफ मैन के जीवविज्ञानी विक्टर ओर्टेगा जिमेनेज़ ने रैगोवेलिया वॉटर स्ट्राइडर्स, जिसे रिपल बग भी कहा जाता है, की चाल-ढाल को समझने का प्रयास किया। जब ये छोटे कीट पानी की सतह पर तेज़ी से गुज़रते हैं तो पक्षियों जैसे प्रतीत होते हैं और इतनी तेज़ रफ्तार से मुड़ते हैं मानो हवा में उड़ रहे हों। जांच से पता चला कि कीट की बीच वाली टांगों के सिरों पर पंखे होते हैं। मुड़ते समय ये कीट अपने शरीर के एक तरफ के पंखे फैलाते हैं, जिससे शरीर के एक ओर रुकावट पैदा होती है जबकि दूसरी ओर की टांगें सामान्य ढंग से फिसलती रहती हैं। इस स्थिति में ये 50 मिलीसेकंड से भी कम समय में तेज़ी से 180° मुड़ जाते हैं। इस प्रक्रिया के दौरान वे न्यूनतम ऊर्जा खर्च करते हुए लंबे समय तक ज़िगज़ैग मार्ग अपनाकर आगे बढ़ते हैं।
यह काफी आश्चर्य की बात है कि जब शोधकर्ताओं ने मृत स्ट्राइडर्स को पानी में डाला, तब भी उनके पंखे खुले क्योंकि उनके पैर सतह से नीचे डूबे थे। इससे यह पता चलता है कि पंखे खोलने के लिए मांसपेशियों की आवश्यकता नहीं होती है। इस तरह मुड़ने के लिए रिपल बग को केवल अपने शरीर को थोड़ा एक ओर झुकाने की ज़रूरत होती है, जिससे पंखे डूबकर खुल जाते हैं और एक तरफ रुकावट बढ़ जाती है।
रिपल बग
एजू विश्वविद्यालय के मेकेनिकल इंजीनियर किम डोंगजिन ने जिमेनेज़ के साथ मिलकर एक रैगो-बॉट का निर्माण किया जो रिपल बग की नकल करता है। हालांकि, इस रोबोट ने शांत पानी में काफी अच्छा प्रदर्शन किया है लेकिन व्यापक रोबोटिक अनुप्रयोगों के लिए जटिल पंखे तैयार करना चुनौतीपूर्ण है।
इसी प्रकार के एक अन्य अध्ययन में, कॉर्नेल युनिवर्सिटी के इंजीनियर क्रिस रोह ने एक छोटे कीट व्हर्लिगिग बीटल की जलीय कलाबाज़ियों का पता लगाया। इन प्राणियों ने प्रति सेकंड अपने शरीर से 100 गुना दूरी तेज़ गति से तय की। पूर्व धारणाओं के विपरीत, शोधदल ने पाया कि कीट ने यह गति पानी के माध्यम से अपने पैरों को पतवार की तरह सीधे पीछे धकेलकर नहीं बल्कि अपने पैरों को नीचे की ओर तथा शरीर के आर-पार ले जाकर हासिल की है। इस अनूठी गति ने हेलीकॉप्टर ब्लेड के समान एक लिफ्ट बल उत्पन्न किया, जिसने बीटल की गति में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
पानी में भंवर बनाने में व्हर्लिगिग बीटल और रिपल बग के बीच समानताओं को देखते हुए जिमेनेज़ ने बीटल की गति में लिफ्ट की भूमिका को निर्धारित करने के लिए द्रव गतिकी में अधिक गहन जांच की आवश्यकता पर ज़ोर दिया है।
ये अध्ययन जलीय रोबोटिक्स के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकते हैं। और जीव विज्ञानियों, भौतिकविदों और इंजीनियरों के बीच सहयोग बायोमिमिक्री को सशक्त करेगा, जिसमें प्रकृति के जटिल तंत्र नवीन टेक्नॉलॉजीगत समाधानों की प्रेरणा बनते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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