जंगली खाद्य पदार्थों का सेवन – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

जकल जैव विविधता की अवधारणा पर बहुत जोर दिया जाता है। अधिकांश सरकारों के नीतिगत ढांचे में जैव विविधता के संरक्षण के महत्व को स्वीकार किया गया है। लेकिन विडंबना यह है कि विश्व भर के लोगों के भोजन में विविधता बेहद कम हो गई है। हम अपने कुल कैलोरी सेवन का 50 प्रतिशत से अधिक हिस्सा चावल, गेहूं, मक्का और चीनी से लेते हैं।

हमारे सुपरमार्केट के ताज़ा सब्ज़ियों वाले हिस्सों में भी यह प्रवृत्ति झलकती है, जहां हमेशा वही दो-चार तरह की सब्ज़ियां रखी होती हैं।

‘आहार विविधता’ में यह कमी हमारे आहार की गुणवत्ता को प्रभावित करती है। कई अलग-अलग खाद्य समूहों से चुनकर भोजन करने से अच्छा पोषण मिलता है। लेकिन मोनोकल्चर खेती करने – भूमि के बड़े हिस्से पर एक ही तरह की फसल या सब्ज़ी उगाने – से न केवल ‘कृषि जैव विविधता’ कम होती है बल्कि दूसरे खाद्य विकल्पों की उपलब्धता के लिए दूर-दराज के क्षेत्रों से खाद्यान्नों को मंगाना उनकी कीमत बढ़ाता है और पर्यावरण पर भारी पड़ता है।

तरहतरह की किस्में

छोटी जोत वाले किसान, चारागाह पर चरवाहे और कृषि वानिकी करने वाले आदिवासी हमारे देश की पोषण विविधता में प्रमुख योगदान देते हैं। जब हम स्थानीय किस्मों की बात करते हैं, तो हम आम तौर पर उन सब्ज़ियों और फसलों के पैदावार की बात कर रहे होते हैं जो इन लोगों द्वारा छोटे पैमाने पर उगाई जाती हैं। क्षेत्र-दर-क्षेत्र इनका चुनाव काफी अलग-अलग और निराला हो सकता है। दक्षिण भारत में, हम हरी पत्तेदार सब्ज़ियां उगाते हैं जो आयरन और कैल्शियम से भरपूर होती हैं; जैसे जंगली चौलई (तमिल में कुप्पी कीराई) और ल्यूकस (तमिल में थंबई; संस्कृत में द्रोण पुष्पी)। कुछ मंडयुक्त कंद उगाते हैं, जैसे त्योखर या पूर्वी भारतीय अरारोट (तमिल में कुवा), जिनके कंद का पावडर पौष्टिक होता है और विशेष रूप से पेट के लिए अच्छा होता है।

हर जगह मिलने वाला विटामिन सी का भंडार भारतीय आंवला (तमिल में नेल्ली) है। मध्य भारत में, महुआ (तमिल में इलुपाई) होता है जिसके फूल खाने योग्य होते हैं, और बीजों से तेल निकाला जा सकता है। राजस्थान के राज्य वृक्ष खेजड़ी (तमिल में परंबई) से खाने योग्य फलियां मिलती हैं जिनसे स्वादिष्ट सिघरी भाजी बनती है, साथ ही यह वृक्ष मरुस्थलीकरण को भी रोकता है। हम सभी की शायद कोई न कोई ‘जंगली’ सब्ज़ी, फल, बेरी या कंद पसंद होगा, जो बहुत कम मिलता है।

झूम खेती

पूर्वोत्तर भारत के स्थानीय लोग झूम खेती करते थे, जिसमें भूमि के एक ही हिस्से पर लगभग 20 अलग-अलग तरह की खाद्य फसलें उगाई जाती थीं। खेती का यह रूप आधुनिक कृषि पद्धतियों के सर्वथा विपरीत है, लेकिन उनके आहार में काफी विविधता प्रदान करता है। अफसोस की बात है कि खेती का यह रूप अपनी जड़़ें छोड़ता जा रहा है। अरुणाचल प्रदेश के पासीघाट में केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने वर्ष 2022 में फूड सिक्योरिटी पत्रिका में बताया है कि अकेले पश्चिमी गारो ज़िले में झूम खेती का क्षेत्र वर्ष 2000 में 1328 वर्ग कि.मी. था जो घटकर मात्र 112 वर्ग कि.मी. रह गया था। 2015 में सुपारी, काली मिर्च और रबर इस भूमि पर पसंदीदा फसलें बन गईं थी।

उपभोक्ता और उनके खाने की पसंद विभिन्न प्रकार की जंगली किस्मों की उपलब्धता को प्रभावित करते हैं। कवीट या केथा और जामुन को अपने आहार में शामिल करने से आपके पोषण आहार की गुणवत्ता में तो वृद्धि होगी ही, साथ ही साथ छोटे उत्पादकों को मदद मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पारदर्शी लकड़ी की मज़बूती

तीन दशक पूर्व एक जर्मन वनस्पतिशास्त्री सिगफ्राइड फिंक ने पौधों के प्राकृतिक स्वरूप को बाधित किए बिना उनकी आंतरिक कार्यप्रणाली का निरीक्षण करने की एक सरल इच्छा के साथ काम शुरू किया था। इसके लिए उन्होंने पौधों की कोशिकाओं के रंजक को ब्लीच करके पारदर्शी लकड़ी बनाई थी। अलबत्ता, उनकी यह खोज काफी समय तक अनदेखी रही। हाल ही में स्वीडन स्थित केटीएच रॉयल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के पदार्थ विज्ञानी लार्स बर्गलुंड इस अध्ययन को एक बार फिर चर्चा में लाए हैं।

फिंक के अध्ययन से प्रेरित बर्गलुंड ने वनस्पति शास्त्र के परे इसे पारदर्शी प्लास्टिक के एक अधिक मज़बूत विकल्प के रूप में देखा। वहीं, मैरीलैंड विश्वविद्यालय के शोधकर्ता भी काफी समय से लकड़ी की शक्ति का उपयोग अपरंपरागत उपयोगों के लिए करने का प्रयास करते रहे थे।

इन दोनों समूहों द्वारा कई वर्षों के प्रयोगों से अब कुछ रोमांचक संभावनाएं उत्पन्न हो रही हैं। और इसमें अत्यंत-मज़बूत स्मार्टफोन स्क्रीन से लेकर नरम, चमकदार प्रकाश उपकरण और रंग बदलने वाली खिड़कियां बनाने की संभावना दिख रही है।

पारदर्शी लकड़ी के निर्माण में काष्‍ठ अपद्रव्य को संशोधित किया जाता है। यह गोंदनुमा पदार्थ लकड़ी की कोशिकाओं को एक साथ जोड़े रखता है। इस पदार्थ को हटाने या ब्लीच करने से खोखली कोशिकाओं का एक दूधिया-सफेद ढांचा बना रहता है। इस परिणामी ढांचे की कोशिका दीवारों और खाली जगहों से हुए प्रकाश अपवर्तन में फर्क के कारण यह अपारदर्शी रहता है। इन खाली जगहों में एपॉक्सी रेज़िन जैसे पदार्थ डालने से लकड़ी पारदर्शी हो जाती है।

इससे प्राप्त एक मिलीमीटर से लेकर एक सेंटीमीटर से भी कम पतला उत्पाद मधुमक्खी के छत्ते जैसे एक मज़बूत ढांचे का निर्माण करता है। इसमें लकड़ी के छोटे फाइबर की मज़बूती सबसे बेहतरीन कार्बन फाइबर से भी अधिक होती है। इस पर किए गए परीक्षणों से पता चला है कि रेज़िन के मिश्रण से पारदर्शी लकड़ी प्लास्टिक और कांच से बेहतर प्रदर्शन करती है। इसमें प्लेक्सीग्लास की तुलना में तीन गुना अधिक ताकत और कांच की तुलना में दस गुना अधिक कठोरता होती है।

अलबत्ता, मोटाई बढ़ने पर पारदर्शिता कम हो जाती है। इसकी पतली चादरें 80 से 90 प्रतिशत प्रकाश को पार जाने देती हैं जबकि लगभग एक सेंटीमीटर मोटी लकड़ी केवल 40 प्रतिशत प्रकाश को आर-पार जाने देती है।

गौरतलब है कि इस शोध का मुख्य उद्देश्य पारदर्शी लकड़ी के वास्तुशिल्प अनुप्रयोगों पर केंद्रित है जो विशेष रूप से खिड़कियों के लिए उपयोगी माना जा रहा है। इसके साथ ही कांच की तुलना में यह बेहतर इन्सुलेशन दे सकता है। इसके अतिरिक्त, लकड़ी के ऐसे संस्करण कांच की तुलना में ऊष्मा के बेहतर कुचालक भी होते हैं।

हालांकि पारदर्शी लकड़ी की खिड़कियां मज़बूती और बेहतर तापमान नियंत्रण प्रदान करती हैं लेकिन घिसे हुए कांच की तुलना में काफी धुंधली होती हैं। फिर भी यह कम रोशनी चाहने वालों के लिए काफी उपयोगी है। इसके अलावा मोटी लकड़ी की वहन क्षमता को देखते हुए इसे आंशिक भार वहन करने वाले प्रकाश स्रोत के रूप में उपयोग किया जा सकता है। यह कमरे में नैसर्गिक रोशनी प्रदान करने में काफी उपयोगी हो सकती है।

वर्तमान शोध में पारदर्शी लकड़ी की कार्यक्षमता को बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है। उदाहरण के लिए, इस लकड़ी को स्मार्ट खिड़कियों में परिवर्तित किया जा सकता है जो विद्युत प्रवाह देने पर पारदर्शी से रंगीन हो सकती हैं।

पर्यावरण के दृष्टिकोण से यह नई खोज ज़हरीले रसायनों और जीवाश्म-आधारित पॉलीमर को सीमित कर सकती है। हालांकि इस नई खोज के बावजूद वर्तमान विश्लेषणों से संकेत मिलता है कि पारदर्शी लकड़ी की तुलना में कांच का पर्यावरणीय प्रभाव कम होता है। फिलहाल एक टिकाऊ सामग्री के रूप में इसकी क्षमता को देखते हुए, पारदर्शी लकड़ी को बाज़ार में लाने के लिए हरित उत्पादन और बड़े पैमाने पर उत्पादन की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

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जलवायु परिवर्तन से कुछ जीव निशाचर बन रहे हैं

लवायु परिवर्तन के कारण कुछ जीवों के व्यवहार में परिवर्तन हो रहा है। निरंतर बढ़ते तापमान की स्थिति में जीवित रहने के लिए वे निशाचर बन रहे हैं। हाल ही में ब्राज़ील के पेंटानल वेटलैंड्स में पाए जाने वाले सफेद होंठ वाले पेकेरी (Tayassu pecari) पर अध्ययन ने यह चौंकाने वाला खुलासा किया है। शोधकर्ताओं के अनुसार आम तौर पर दिन के समय सक्रिय रहने वाला यह जीव अत्यधिक गर्मी के दौरान रात के समय अधिक गतिविधि करता पाया गया है।

बायोट्रॉपिका में प्रकाशित अध्ययन की सहलेखक मिशेला पीटरसन ने जलवायु परिवर्तन से जूझ रही प्रजातियों के लिए अनुकूलन विधि के रूप में इस प्रकार के व्यवहारिक लचीलेपन पर प्रकाश डाला है। अध्ययन से पता चलता है कि लगभग 27 डिग्री सेल्सियस से कम तापमान में पेकेरी दोपहर के समय सबसे अधिक सक्रिय थे। लेकिन जैसे-जैसे तापमान बढ़ा, उनकी गतिविधि सुबह के समय होने लगी, और दिन का तापमान 34 डिग्री सेल्सियस से अधिक होने पर, उनकी चरम सक्रियता सूर्यास्त के बाद देखी गई।

शोधकर्ताओं ने विशाल एंट-ईटर और चीतों जैसी अन्य प्रजातियों के व्यवहार में भी इसी तरह के बदलाव देखे हैं, जो जीवों के व्यवहार में व्यापक परिवर्तन का संकेत देते हैं। दूसरी ओर, लीडेन विश्वविद्यालय के पारिस्थितिकी विज्ञानी माइकल वेल्डुई के अनुसार इन परिवर्तनों के दीर्घकालिक प्रभाव पर अभी भी अनिश्चितता है तथा और अधिक शोध की आवश्यकता बनी हुई है।

गौरतलब है कि जीवों का निशाचर व्यवहार दिन की गर्मी से राहत देता है लेकिन यह प्यूमा जैसे निशाचर शिकारियों का शिकार बनने का जोखिम भी पैदा करता है। इसके अतिरिक्त, रात की गतिविधि में परिवर्तन इन जीवों को भोजन स्रोतों का पता लगाने में भी मुश्किल पैदा कर सकता है। हालांकि, शोधकर्ता अभी भी इस व्यवहारिक समायोजन को एक स्थायी बदलाव के रूप में नहीं देख रहे हैं। उनका मानना है कि संभवत: ये जीव अभी भी दिन की गतिविधि को प्राथमिकता दे रहे हों और केवल अत्यधिक गर्मी के दौरान रात में भोजन की तलाश का विकल्प अपना रहे हों।

कुछ विशेषज्ञों का सुझाव है कि दिन के उजाले के आदी जीव संभव होने पर रात की गतिविधि से परहेज़ कर सकते हैं। पेकेरी की सुबह की गतिविधि में प्रारंभिक बदलाव इस ओर संकेत देता है कि वे रात की स्थितियों की तुलना में अधिक उपलब्ध रोशनी के साथ ठंडे तापमान को प्राथमिकता देते हैं।

इस दिशा में चल रहे अध्ययन जलवायु परिवर्तन की स्थिति में जीवों के अनुकूलन की जटिलता पर ज़ोर देते हैं। यह वन्यजीवों के बदलते आवासों में बढ़ते तापमान से निपटने के लिए लचीलापन और संभावित चुनौतियों का भी संकेत देते हैं।(स्रोत फीचर्स)

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प्राचीन जीवों की त्वचा के रंग की पहचान

ह तो हम जानते हैं कि हर जीव की त्वचा का खास रंग होता है जो उसे कई तरह से मदद करता है। जैसे छिपने, शरीर का तापमान नियंत्रित रखने वगैरह में। वर्तमान जीवों की तरह प्राचीन काल के जीव-जंतु भी तरह-तरह के रंगों के हुआ करते थे – इंद्रधनुषी पंखों वाले डायनासौर से लेकर भक्क काले रंग के स्किवड तक। लेकिन प्रचीन समय के जीवों की त्वचा का रंग भांपना एक बड़ी चुनौती है क्योंकि जीवों की त्वचा, फर और पंखों को रंगने वाले रंजक वगैरह अश्मीभूत होने के दौरान अक्सर नष्ट हो जाते हैं। विशेषज्ञों ने काले और भूरे जैसे गहरे रंगों की बनावट और रंजकों का पता लगाने के तरीके तो ढूंढ लिए हैं लेकिन पीले, लाल, नारंगी जैसे हल्के रंगों को पहचान पाना अब भी एक चुनौती है। ये रंग फिओमेलेनिन के कारण दिखते हैं, जो कि आसानी से पकड़ न आने वाला रंजक है।

हाल ही में नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित एक अध्ययन में वैज्ञानिकों ने एक ऐसे तरीके का वर्णन किया है जो जीवाश्मों की त्वचा में फिओमेलेनिन से बनने वाले अदरक के रंग सरीखे इन रंगों को पहचानने में मदद कर सकता है।

देखा जाए तो इन रंगों को पहचानने का यह पहला प्रयास नहीं है। पूर्व में हुए अध्ययनों ने भी जीवाश्मों में फिओमेलेनिन से बनने वाले रंग पहचानने की कोशिश की थी लेकिन उनके परिणाम काफी हद तक अनिर्णायक ही रहे थे। उदाहरण के लिए, वैज्ञानिकों ने बोरीलोपेल्टा डायनासौर के जीवाश्म में लाल रंग की पहचान की थी। लेकिन वे यह भेद नहीं कर पाए थे कि यह जो फिओमेलेनिन उन्हें मिला है वह त्वचा के मूल रंजक का है या डायनासौर की मृत्यु के बाद हुए संदूषण का है।

इस फर्क को पहचानने के लिए युनिवर्सिटी कॉलेज कॉर्क की जीवाश्म विज्ञानी टिफैनी स्लेटर और साथियों ने एक परीक्षण तैयार किया, जो त्वचा, पंखों वगैरह के अदरक सदृश रंगों के मूल रंजक से छूटी छाप और संदूषण के कारण मिले रंजक से छूटी छाप में फर्क कर पाया। उन्होंने जीवों के अश्मीभूत होने के दौरान जैविक यौगिकों के टूटने की प्रक्रिया की नकल करने के लिए विभिन्न आधुनिक पक्षियों के पंखों को ओवन में तपाया। फिर तपाए हुए पंखों का सूक्ष्मदर्शी से अवलोकन किया और विभिन्न प्रकार के मेलेनिन की पहचान के लिए रासायनिक परीक्षण किए। उन्होंने पाया कि जैविक रंजक जीवाश्मों में एक विशिष्ट एवं पहचानने योग्य छाप छोड़ते हैं। इसके बाद शोधकर्ताओं ने विभिन्न जीवाश्मों पर रंजकों की रासायनिक छाप पहचानने का प्रयास किया, और उन्हें करीब 1 करोड़ वर्ष पुराने एक मेंढक, कन्फ्यूशियसॉर्निस नामक पक्षी और सायनोर्निथोसॉरस डायनासौर में ये रंजक मिले।

उम्मीद है कि अब जीवाश्म की त्वचा के रंगों का अधिक सटीक निर्धारण किया जा सकेगा। मसलन, देखा जा सकेगा कि उड़ने वाले टेरोसौर में कौन से चटख रंग होते थे। आगे के अध्ययन शायद यह भी बता सकेंगे कि फिओमेलेनिन सबसे पहले कैसे और क्यों विकसित हुआ? क्योंकि फिओमेलेनिन के कारण कैंसर होने की संभावना हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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सबसे प्राचीन त्वचा

ह तो हम जानते हैं कि त्वचा से शरीर को तमाम फायदे होते हैं और सुरक्षा मिलती है। लेकिन हम यह भी जानते हैं कि मृत्यु के बाद त्वचा लंबे समय तक टिकी नहीं रह पाती है और सड़-गल कर नष्ट हो जाती है। इसलिए यह पता कर पाना बड़ा कठिन है कि प्राचीन प्राणियों में त्वचा कैसे विकसित होती गई। खासकर यह सवाल अनसुलझा ही रहा है कि पेलियोज़ोइक एरा में यानी जब जीवों ने पानी से निकलकर भूमि पर रहना शुरू किया तो इस परिवर्तन के लिए उनकी त्वचा में किस तरह के बदलाव आए?

अब, ओक्लाहोमा स्थित रिचर्ड स्पर की चूना पत्थर की गुफाओं में शोधकर्ताओं को एक सरीसृप की त्वचा का एक बारीक टुकड़ा अश्मीभूत अवस्था में मिला है, जो पेलियोज़ोइक युग के अंत के समय का है। इसके विश्लेषण से लगता है कि सरीसृपों की शल्कदार जटिल संरचना वाली त्वचा एक बार विकसित होने के बाद से लगभग वैसी ही है।

यह जीवाश्म इगुआना जितने बड़े और छिपकली सरीखे सरीसृप जीव कैप्टोराइनस एगुटी का है, जो करीब 30 करोड़ वर्ष पुराना है। वैसे तो इन गुफाओं से सी. एगुटी के कई जीवाश्म मिले हैं, किंतु इनमें से अधिकतर जीवाश्म कंकाल रूप में ही हैं। लेकिन एक जीवाश्म में सी. एगुटी की थोड़ी सी बाह्यत्वचा (एपिडर्मिस) भी सलामत रह गई थी। त्वचा के सलामत बचने का कारण महीन अवसादी चट्टान और वहां का कम ऑक्सीजन वाला वातावरण था। यही कारण है कि रिचर्ड्स स्पर की इन गुफाओं में पैलियोज़ोइक युग के तरह-तरह के और अच्छी तरह से संरक्षित जीवाश्म मिलते हैं।

जब युनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो के एथान मूनी इन जीवाश्मों का अध्ययन कर रहे थे तो उन्हें एक जीवाश्म पर नाखून से भी छोटी और बाल से भी पतली, नाज़ुक सी बहुत सारी कण जैसी संरचनाएं दिखीं। पहले तो लगा कि ये हड्डी के ही हिस्से हैं। लेकिन सूक्ष्मदर्शी से अवलोकन करने पर पता चला कि वास्तव में यह जीवाश्म तो किसी जीव की त्वचा का है, जिसमें बाह्यत्वचा और उसके नीचे वाली परत सुरक्षित है। त्वचा की बनावट कुछ-कुछ बबल वाली पॉलीथीन की तरह थी – त्वचा दूर-दूर स्थित मुड़े हुए शल्कों जैसी संरचना से बनी थी जिनके बीच में लचीले कब्जे थे, जो वृद्धि और हिलना-डुलना-मुड़ना संभव बनाते हैं।

शोध पत्रिका करंट बायोलॉजी में प्रकाशित त्वचा की संरचना वगैरह के आधार पर शोधकर्ताओं का अनुमान है कि यह त्वचा सी. एगुटी सरीसृप की है। हालांकि अभी वे इस बारे में पूरी तरह आश्वस्त नहीं हैं क्योंकि यह त्वचा कंकाल से चिपकी नहीं थी। लेकिन इसकी झुर्रीदार, बबल-पॉलीथीननुमा संरचना को देखकर इतना तो तय है कि यह त्वचा किसी सरीसृप की है। (स्रोत फीचर्स)

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वर्ष 2023 सबसे गर्म साल रहा

हां दिए गए ग्राफ में साफ दिखता है कि वर्ष 2023 में धरती की सतह का औसत तापमान उद्योग पूर्व समय (1850-1900) के औसत तापमान से 1.48 डिग्री सेल्सियस से अधिक रहा। अर्थात यह पिछले 50 वर्षों में सबसे अधिक गर्म साल रहा है। ये आंकड़े युरोपीय संघ के कॉपरनिकस क्लायमेट चेंज सर्विस द्वारा प्रस्तुत किए गए हैं। (स्रोत फीचर्स)


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भारतीय विज्ञान: अंतरिक्ष में कामयाबियों का साल – चक्रेश जैन

साल 2023 विदा हो चुका है। पीछे मुड़ कर देखें तो पता चलता है बीता वर्ष भारतीय विज्ञान जगत, विशेष रूप से अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में सफलताओं का रहा। 23 अगस्त को चंद्रयान-3 चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के निकट सफलतापूर्वक उतरा। इसरो ने चंद्रमा पर जीवन की संभावना तलाशने और रहस्यों को समझने के उद्देश्य से 14 जुलाई को चंद्रयान-3 भेजा था।

इसी वर्ष भारत ने सूर्य का अध्ययन करने की दिशा में बड़ी छलांग लगाई। 2 सितंबर को पहली सौर मिशन वेधशाला आदित्य-L1 को सफलतापूर्वक प्रक्षेपित किया गया। आदित्य-L1 चार महीने का सफर पूरा कर अपनी मंज़िल लैगरांजे बिन्दु पर पहुंच चुका है। यह वेधशाला पांच वर्षों तक सूर्य की विभिन्न गतिविधियों, जैसे सौर तूफानों, सौर लहरों और गर्म हवाओं का अध्ययन करेगी।

फरवरी में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने स्मॉल सैटेलाइट लॉन्चिंग व्हीकल (एसएसएलवी डी-2) प्रक्षेपण यान के ज़रिए तीन उपग्रहों को अंतरिक्ष में स्थापित किया। इसके साथ ही भारत ने छोटे उपग्रहों के प्रक्षेपण बाज़ार में प्रवेश कर लिया। 30 जुलाई को इसरो ने सिंगापुर के सात उपग्रहों को एक साथ सफलतापूर्वक कक्षा में स्थापित किया। 21 अक्टूबर को मानव अंतरिक्ष उड़ान की ओर पहला कदम बढ़ाया गया और गगनयान मिशन के तहत पहला परीक्षण सफल रहा।

जनवरी के प्रथम सप्ताह में 108वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस का सालाना अधिवेशन राष्ट्रसंत तुकादोजी महाराज नागपुर विश्वविद्यालय में संपन्न हुआ। सम्मेलन का मुख्य विषय था ‘महिला सशक्तिकरण के साथ सतत विकास के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी’। पहली बार जनजातीय विज्ञान कांग्रेस हुई, जिसमें जनजातीय मुद्दों पर विचार मंथन किया गया।

21-24 जनवरी के दौरान आठवां अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान महोत्सव भोपाल में आयोजित किया गया। यह महोत्सव विलक्षण था, जिसमें वैज्ञानिकों से लेकर स्कूली बच्चों, जन सामान्य से लेकर विशिष्टजनों और नीति निर्माता से लेकर कारीगरों और किसानों तक ने भाग लिया।

भारत सहित विश्व भर में साल 2023 ‘इंटरनेशनल ईयर ऑफ मिलेट्स’ के रूप में मनाया गया। इसका उद्देश्य आम लोगों में मोटे अनाज के महत्व को उजागर करना था। मोटा अनाज पोषक तत्वों से भरपूर होता है। वैसे भारत हर साल 170 लाख टन मोटे अनाज का उत्पादन करता है – 12 में से 10 प्रकार के मोटे अनाज भारत में उगाए जाते हैं। अहम बात यह कि इसकी खेती आसान और जलवायु अनुकूल है व इसके लिए कम पानी की ज़रूरत होती है।

साल 2023 के पूर्वार्द्ध में सीएसआईआर ने ‘वन वीक-वन लैब’ कैम्पैन शुरू किया। इस कैम्पैन का उद्देश्य आम लोगों और विद्यार्थियों को देश की प्रगति और विकास में सीएसआईआर की राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं के योगदान और उपलब्धियों से परिचित कराना था।

इसी वर्ष फरवरी में जम्मू-काश्मीर के रियासी ज़िले में वैष्णो देवी पहाड़ियों की तलहटी और राजस्थान में डेगाना स्थित रेंवत पहाड़ियों में लीथियम खनिज के प्रचुर भंडार का पता चला। लीथियम धातु का उपयोग मोबाइल फोन, लैपटॉप, इलेक्ट्रिक वाहनों आदि में हो रहा है।

वर्ष 2023 में विज्ञान मंत्रालय के वार्षिक बजट में दो हज़ार करोड़ रुपए की बढ़ोतरी की गई। बजट में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस में रिसर्च के लिए नए केंद्र स्थापित करने का प्रावधान किया गया। इस वर्ष केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय क्वांटम मिशन को मंज़ूरी प्रदान कर दी। इसके अंतर्गत आगामी छह वर्षों तक क्वांटम प्रौद्योगिकी पर आधारित रिसर्च को बढ़ावा दिया जाएगा।

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 4 जनवरी को 19,744 करोड़ रुपए के राष्ट्रीय हरित हाइड्रोजन मिशन को मंज़ूरी दे दी। इस मिशन का उद्देश्य भारत में ग्रीन हाइड्रोजन पारिस्थितिकी तंत्र स्थापित करना है। 25 सितम्बर को नई दिल्ली में देश की पहली हरित हाइड्रोजन ईंधन सेल चालित बस को रवाना किया गया। देश में नैरो गेज के धरोहर मार्गों पर हाइड्रोजन ट्रेनें चलाने की तैयारी जारी रही।

बीते साल भारत ने जी-20 की अध्यक्षता की, जिसके झण्डे तले साइंस-20 की बैठक हुई। अब जी-20 आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के साथ ही समाज से जुड़े वैज्ञानिक मुद्दों के विचार मंथन का मंच भी बन गया है।

इसी साल मध्यप्रदेश के शहडोल ज़िले से राष्ट्रीय सिकल सेल उन्मूलन मिशन का शुभारंभ हुआ। यह एक गंभीर आनुवंशिक बीमारी है। इस बीमारी में लाल रक्त कोशिकाएं हंसिए का आकार ग्रहण कर लेती हैं। केंद्र सरकार ने वर्ष 2047 तक देश से इस बीमारी को विदा करने का लक्ष्य निर्धारित किया है।

11 मई को राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी दिवस पर 5800 करोड़ रुपए की वैज्ञानिक परियोजनाएं राष्ट्र को समर्पित की गईं। इनमें लेज़र इंटरफेरोमीटर ग्रेवीटेशनल वेव ऑब्ज़रवेटरी शामिल है। इसे महाराष्ट्र स्थित हिंगोली में स्थापित किया जाएगा।

सेंट्रल मरीन फिशरीज़ रिसर्च इंस्टीट्यूट, कोच्चि के वैज्ञानिकों की टीम ने इंडियन ऑइल सार्डीन मछली (Sardinella longiceps) के संपूर्ण जीनोम को डीकोड करने में सफलता प्राप्त की। इस शोध से मछली के पारिस्थितिकी तंत्र और विकास की व्याख्या में मदद मिलेगी और आगे चलकर संरक्षण के लिए प्रबंधन रणनीति बनाना संभव हो सकेगा।

इसी साल 7 अगस्त को लोकसभा ने राष्ट्रीय अनुसंधान संस्थान विधेयक पारित कर दिया। विधेयक में गणित, इंजीनियरिंग, प्रौद्योगिकी, पर्यावरण और भूविज्ञान के क्षेत्र में शोध, नवाचार और उद्यमिता के लिए उच्च स्तरीय मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु राष्ट्रीय अनुसंधान संस्थान की स्थापना का प्रावधान है। इसी वर्ष संसद द्वारा जैव विविधता संशोधन विधेयक पारित किया गया। यह विधेयक 2002 के जैविक विविधता अधिनियम को संशोधित करता है। इस विधेयक में किए गए महत्त्वपूर्ण परिवर्तन औषधीय पौधों की खेती को बढ़ावा देते हैं।

14 सितंबर को भारत सरकार ने पद्म पुरस्कारों की तर्ज पर राष्ट्रीय विज्ञान पुरस्कार शुरू करने की घोषणा की। राष्ट्रीय विज्ञान पुरस्कारों को चार श्रेणियों में विभाजित किया गया है। विज्ञान रत्न पुरस्कार विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में की गई जीवन भर की उपलब्धियों के लिए दिया जाएगा। विज्ञानश्री पुरस्कार विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विशेष योगदान के लिया दिया जाएगा। विज्ञान युवा शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार 45 वर्ष की आयु तक के उन युवा वैज्ञानिकों को प्रदान किया जाएगा जिन्होंने विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में असाधारण योगदान किया है। साइंस टीम पुरस्कार तीन अथवा उससे अधिक वैज्ञानिकों की उस टीम को संयुक्त रूप से दिया जाएगा जिसने विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विशेष योगदान दिया है। इन चार श्रेणियों में 56 पुरस्कार दिए जाएंगे, जिनमें नकद धनराशि का प्रावधान नहीं किया गया है।

दिसम्बर के उत्तरार्द्ध में अहमदाबाद स्थित साइंस सिटी परिसर में भारतीय विज्ञान सम्मेलन आयोजित किया गया। इस बार सम्मेलन का मुख्य विषय ‘भारत का विकास, भारतीय मूल्यों और नवप्रवर्तन के साथ’ चुना गया था। बीते वर्ष नई दिल्ली में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस पर वैश्विक साझेदारी शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें इस बात पर विचार मंथन किया गया कि दुनिया आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस को लेकर क्या सोच रही है और भारत इसमें क्या योगदान कर रहा है।

साल 2023 के लिए गणतंत्र दिवस पर घोषित पद्म पुरस्कारों के लिए चुने गए वैज्ञानिकों में विख्यात चिकित्सक डॉ. दिलीप महालनोबिस को पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया। उन्हें यह सम्मान मरणोपरांत प्रदान किया गया। उनका जीवन रक्षक ओआरएस घोल की खोज में विशेष योगदान रहा है। इसी साल जाने-माने सांख्यिकीविद सी. आर. राव को इंटरनेशनल प्राइज़ इन स्टैटिस्टिक्स से सम्मानित किया गया। उन्हें यह अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार 75 वर्ष पहले सांख्यिकी विज्ञान में विशेष योगदान के लिए दिया गया है।

विज्ञान जगत की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर ने दिसंबर में वर्ष 2023 के टॉपटेन वैज्ञानिकों की सूची में भारत की अंतरिक्ष वैज्ञानिक कल्पना कलाहेस्टी को शामिल किया है। उन्हें यह विशिष्ट सम्मान चन्द्रयान-3 के प्रक्षेपण में एसोसिएट परियोजना निदेशक के रूप में अहम भूमिका निभाने के लिए दिया गया है।

इसी वर्ष लोकप्रिय विज्ञान पत्रिका साइंस रिपोर्टर के संपादक हसन जावेद खान ने 18 वर्षों तक संपादन का दायित्व संभालने के बाद विदाई ले ली।

इसी साल एनसीईआरटी ने नौवीं और दसवीं कक्षाओं के विज्ञान पाठ्यक्रम से डार्विन के जैव विकास के सिद्धांत और मेंडेलीव की आवर्त सारणी को हटा दिया। देश के 1800 वैज्ञानिकों और शिक्षाविदों ने इसका विरोध करते हुए एक खुला पत्र लिखकर सरकार के इस निर्णय की आलोचना की।

यह वही साल था, जब सरकार ने विज्ञान संचार की स्वायत्त संस्था ‘विज्ञान प्रसार’ को बंद करने का निर्णय लिया। इस संस्था की स्थापना 11 अक्टूबर 1989 को की गई थी। इसी साल अगस्त से लोकप्रिय विज्ञान पत्रिका ड्रीम-2047 का प्रकाशन बंद हो गया। इसका पहला अंक अक्टूबर 1998 में छपा था। दरअसल, इस पत्रिका को ‘ड्रीम-2047’ नाम इसलिए दिया गया था, ताकि स्वतंत्रता के सौ साल पूरे होने का उत्सव मनाने के पहले हम अपने सपनों को साकार करने की रूपरेखा बना लें।

वर्ष 2023 में हमने विज्ञान जगत की कई महान हस्तियों को खो दिया। 28 सितंबर को प्रख्यात कृषि वैज्ञानिक और हरित क्रांति के प्रणेता एम. एस. स्वामीनाथन का 98 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्होंने कृषि क्षेत्र की नीतियां बनाने में मार्गदर्शक की भूमिका निभाई। 22 अगस्त को विख्यात वैज्ञानिक और सांख्यिकीविद सी. आर. राव का 102 वर्ष की आयु में निधन हो गया। 17 जुलाई को प्रसिद्ध गणितज्ञ डॉ. मंगला जे. नार्लीकर का 80 वर्ष की आयु में देहांत हो गया। उन्होंने मूलभूत गणित में विशेष योगदान के साथ विद्यार्थियों और आम लोगों में गणित को लोकप्रिय बनाने के क्षेत्र में भी योगदान किया था।

उम्मीद है हमारे देश के वैज्ञानिक साल 2023 की भांति 2024 को भी उपलब्धियों भरा बनाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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2023: अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान जगत की घटनाएं – चक्रेश जैन

साल 2023 में कृत्रिम बुद्धि (एआई) का नया अवतार ‘चैटजीपीटी’ सबसे अधिक चर्चा में रहा। ओपन एआई रिसर्च संस्थान ने इसे 30 नवम्बर 2022 को रिसर्च प्रीव्यू के रूप में जारी किया था। चैटजीपीटी की लोकप्रियता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि शुरुआती पांच दिनों के भीतर ही इसने वैज्ञानिकों सहित 18 करोड़ लोगों को आकर्षित कर लिया था। इसका उपयोग वैज्ञानिक शोधपत्र लेखन से लेकर ई-मेल और कूटलेखन तक में किया गया है।

नेचर पत्रिका ने वर्ष 2023 की टॅापटेन की सूची में दस व्यक्तियों के साथ एआई को भी शामिल किया है। एआई विज्ञान अन्वेषणों को नई दिशा दे रहा है और अनुसंधान की रफ्तार बढ़ा रहा है। एआई का प्रोटीन संरचना की व्याख्या से लेकर मौसम पूर्वानुमान और बीमारियों के निदान से लेकर विज्ञान संचार में उपयोग हो रहा है। इसके उपयोगों की सूची लगातार लंबी होती जा रही है।

जिस मशीन को स्वयं मनुष्य ने तैयार किया, वही अब मनुष्य की बुद्धि को चुनौती दे रही है। वास्तव में यह चिन्ता और चुनौती दोनों का विषय है। इसी संदर्भ में नवम्बर में विश्व का पहला आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस सुरक्षा शिखर सम्मेलन ब्रिटेन के बकिंघम में संपन्न हुआ। सम्मेलन में सरकारों के प्रतिनिधियों और वैज्ञानिकों ने इसकी संहारक क्षमता से मानवता को बचाने के लिए बड़े निर्णय किए। सभी देशों ने एआई सुरक्षा पर एक साथ रिसर्च करने के लिए अपनी सहमति व्यक्त की।

इसी साल जून में खगोल भौतिकीविदों ने गुरुत्वाकर्षण तरंगों के अस्तित्व का पहला स्पष्ट प्रमाण प्रस्तुत किया। इससे विशाल ब्लैक होल और ब्रह्मांड की आरंभिक उत्त्पति पर रोशनी डाली जा सकेगी।

वैज्ञानिकों ने पहली बार जेनेटिक इंजीनियरिंग के ज़रिए मादा फ्रूट फ्लाय ड्रॉसोफिला मेलेनोगेस्टर के जीनोम में बदलाव किया, जिससे नर मक्खी के बिना ही प्रजनन का मार्ग प्रशस्त हुआ। इस रिसर्च से वैज्ञानिकों को पार्थेनोजेनेसिस प्रक्रिया को समझने में मदद मिलेगी। इसी वर्ष शोधकर्ताओं को ड्रॉसोफिला की आंत से एक नया कोशिकीय अंगाभ खोजने में सफलता मिली।

अनुसंधानकर्ताओं ने जीन संपादन तकनीक क्रिस्पर की सहायता से ऐसे वायरस का सृजन कर लिया है जिनकी मदद से भविष्य में हानिरहित वायरस पैदा किए जा सकेंगे। इसी साल वैज्ञानिकों ने हाइब्रिड बॉयो कंप्यूटर का निर्माण कर लिया, जिसमें मनुष्य के दिमाग की कोशिकाओं को प्रचलित परिपथ से जोड़ा गया। विदा हो चुके साल में पहली बार पूरी आंख का सफल प्रत्यारोपण डॉ. एडुआर्डो के नेतृत्व में किया गया। ब्रिटेन ने रक्त से सम्बंधित दो बीमारियों – सिकल सेल और थैलेसीमिया – की जीन संपादन चिकित्सा को मंज़ूरी प्रदान कर दी। ये दोनों ही आनुवंशिक बीमारियां हैं, जो हीमोग्लोबिन के जीन में त्रुटियों के कारण होती हैं।

विदा हो चुके साल 2023 में 7 सितंबर को होराइज़न युरोप रिसर्च प्रोग्राम में ब्रिटेन के फिर से शामिल होने पर वैज्ञानिकों ने जश्न मनाया। ब्रिटिश वैज्ञानिक ब्रेक्सिट मुद्दे पर मतभेदों को लेकर दो साल के लिए इस कार्यक्रम से बाहर हो गए थे।

गुज़रा साल पूरे विश्व में मोटे अनाज यानी मिलेट्स के अंतर्राष्ट्रीय वर्ष के रूप में मनाया गया। मेलों और प्रदर्शनी के माध्यम से मोटे अनाजों के बारे में जागरूकता बढ़ाने का कार्यक्रम जारी रहा। विशेषज्ञों का कहना है कि मोटा अनाज सर्व हितकारी गुणों से भरपूर है और दुनिया को कुपोषण और भुखमरी से मुक्ति दिला सकता है।

इसी साल अगस्त में 47 साल बाद रूस ने चंद्र अभियान लूना-2 भेजा। जापान ने सितंबर में एक्स-रे टेलीस्कोप के साथ सफलतापूर्वक उपग्रह भेजा। यह उपग्रह ब्रह्मांड की उत्त्पत्ति का अध्ययन करेगा। साल के अंत में उत्तर कोरिया ने अंतरिक्ष में निगरानी के लिए जासूसी उपग्रह मालिगयोंग-1 भेजा। वहीं 24 सितंबर को नासा का ओसिरिस-रेक्स अंतरिक्ष यान पहली बार बेन्नू नामक क्षुद्रग्रह से वहां की चट्टानों के नमूने लेकर सात साल बाद लौट आया। इन नमूनों से 4.5 अरब वर्ष पहले सौर मंडल की शुरुआत को बेहतर समझने में मदद मिलेगी।

नासा को पहली बार सौर मंडल के बाहर किसी ग्रह के वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड की उपस्थिति के स्पष्ट सबूत मिले। वर्ष के उत्तरार्द्ध में खगोलविदों ने पृथ्वी से सौ प्रकाश वर्ष दूर तालबद्ध परिक्रमा करते छह ग्रहों का दुर्लभ परिवार खोजा। यह खोज ब्रह्मांड के रहस्यों की समझ बढ़ाने में सहायक होगी।

इसी वर्ष अफ्रीकी देशों में मारबर्ग वायरस चमगादड़ों के ज़रिए मनुष्य में फैला। मारबर्ग वायरस एबोला वायरस परिवार का सदस्य है। इस वायरस के संक्रमण में पहले बुखार आता है, फिर नाक से खून बहता है, और अंतत: मृत्यु तक हो सकती है।

अर्जेंटीना में जन्मे गणितज्ञ लुईस कैफरेली को साल 2023 का एबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। इसे गणित के सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों में स्थान प्राप्त है। रसायन विज्ञान का नोबेल सम्मान फ्रांसीसी-अमेरिकी वैज्ञानिक मौंगी बावेंडी, अमेरिकी वैज्ञानिक लुई ब्रूस और रूसी भौतिकशास्त्री एलेक्सी एकिमोव को दिया गया। तीनों वैज्ञानिकों ने ‘क्वांटम डाट्स’ की खोज में अहम योगदान दिया है। भौतिकी का नोबेल पुरस्कार पियरे अगस्टीनी (अमेरिका), फेरेन्क क्रॉस्ज (जर्मनी) और ऐनी एल हुइलियर (स्वीडन) को अल्ट्राफास्ट एटो सेकंड लेसर के निर्माण में असाधारण योगदान के लिए संयुक्त रूप से दिया गया है। ऐनी एल हुइलियर भौतिक में नोबेल से सम्मानित होने वाली पांचवी महिला वैज्ञानिक हैं। चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरस्कार संयुक्त रूप से दो वैज्ञानिको कैटालिन कारिको एवं ड्रु वीसमेन को कोविड-19 महामारी के विरूद्ध एम-आरएनए वैक्सीन विकसित करने के लिए दिया गया है।

साल 2023 में हमने विज्ञान जगत की कई महान हस्तियों को खो दिया। इस वर्ष 28 मई को चिकित्सा विज्ञान के नोबेल पुरस्कार विजेता हेराल्ड ज्यूर हॉसेन का हीडनबर्ग में निधन हो गया। उन्होंने सरवाइकल कैंसर को रोकने के लिए वैक्सीन बनाने की आधारशिला रखी थी। 25 जून को नोबेल पुरस्कार विजेता जान गुडएनफ का 97 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्होंने लीथियम आयन बैटरी के विकास में विषेश योगदान दिया था। इसी साल आणविक जीव विज्ञानी डोनाल्ड डी. ब्राउन का 31 मई को निधन हो गया। उन्होंने पृथक किए गए जीन पर शोधकार्य किया, जिससे रिकाम्बिनेन्ट डीएनए और जीन संपादन युग का मार्ग प्रशस्त हुआ। 30 जुलाई को ब्रिटिश कृषि पारिस्थितिकी वैज्ञानिक और टिकाऊ विकास के पुरज़ोर समर्थक प्रो. सर गॉर्डन कॉनवे नहीं रहे। उन्होंने ‘डबली ग्रीन रिवाल्यून नामक किताब लिखी थी। उन्हें 2005 में नाइटहुड सम्मान से विभूषित किया गया था। 31 जुलाई को भूभौतिकीविद और प्लेट टेक्टोनिक्स के खोजकर्ता विलियम जेसन मॉर्गन का देहांत हो गया। उनका प्लेट टेक्टोनिक्स के शोध में विशेष योगदान था। ब्रिटिश जीव वैज्ञानिक सर इयान विल्मट का 10 सितंबर को 79 वर्ष की आयु में देहांत हो गया। उन्होंने पहली बार एक प्रौढ़ कोशिका से केंद्रक निकाल कर डॉली भेड़ का सृजन किया था।

वर्ष 2023 जहां एक ओर  उपलब्धियों भरा रहा, वहीं हताशाओं भरा भी रहा। रूस और यूक्रेन के बीच जारी युद्ध का असर वैज्ञानिक परियोजनाओं और कार्यक्रमों पर भी पड़ा।

इस वर्ष नवंबर में अर्जेंटीना में हुए राष्ट्रपति चुनाव में जेवियर माइली निर्वाचित हुए। अपने अजीबोगरीब बयानों के लिए पहचान बना चुके जेवियर माइली विज्ञान विरोधी नेता हैं। उन्होंने जनता से वादा किया था कि विजयी होने पर वे देश में बढ़ती मुद्रास्फीति और चरमराती अर्थव्यवस्था से निपटने के लिए सबसे पहले वैज्ञानिक परियोजनाओं और कार्यक्रमों को बंद करेंगे। वर्ष 2023 में युनिवर्सिटी ऑफ रोचेस्टर में कार्यरत भौतिकी के शोधार्थी रंगा डायस ने शोधकार्य की चोरी और आंकड़ों की हेरा-फेरी के ज़रिए नए अतिचालक पदार्थ बनाने का दावा किया। अलबत्ता, भौतिकीविद जेम्स जे. हेमलिन ने पुख्ता प्रमाणों के आधार पर जालसाज़ी का भंडाफोड़ कर दिया।

गुज़रे साल वैश्विक जलवायु परिवर्तन के कारण तीन जुलाई सबसे गर्म दिन रहा। इसका कारण ‘अल नीनो’ असर बताया जा रहा है। साल के अंत में 28वां संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन (कॉप-28) आयोजित किया गया। संयुक्त अरब अमीरात की अध्यक्षता में आयोजित सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन से लड़ने की रफ्तार बढ़ाने की ज़रूरत पर ज़ोर देते हुए विकासशील देशों के लिए वित्त पोषण का आव्हान किया गया। सम्मेलन में ग्लोबल स्टॉकटेक पर भी मंथन हुआ।

साल के अंत में ओमिक्रॅान वायरस से जुड़े नए संस्करण ‘जेएन1’ ने कुछ देशों को अपनी चपेट में ले लिया। WHO ने इसे ‘वेरिएंट ऑफ इंटरेस्ट’ के रूप में वर्गीकृत किया है।

साइंस पत्रिका ने साल 2023 की दस शीर्ष सफलताओं की सूची जारी की है। ब्रेकथ्रू ऑफ दी ईयर का खिताब ‘जीएलपी थैरेपीज़’ को दिया है। जीएलपी-1 (ग्लूकागोन लाइक पेप्टाइड-1) मूलतः वज़न घटानेवाली औषधि है, लेकिन यह औषधि कई अन्य बीमारियों में कारगर सिद्ध हुई है। इस औषधि के अनुसंधान में जैवरसायन विज्ञानी स्वेतलाना मोजसोव की विशेष भूमिका रही है। नेचर पत्रिका ने स्वेतलाना मोजसोव को टॉप टेन व्यक्तियों की सूची में सम्मिलित किया है। (स्रोत फीचर्स)

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2023 की रोमांचक वैज्ञानिक खोजें – ज़ुबैर सिद्दिकी

पिछला वर्ष विज्ञान के क्षेत्र में असाधारण उपलब्धियों वाला रहा। विज्ञान सम्बंधी कई आश्चर्यजनक सफलताएं हासिल हुईं। पेश है पिछले वर्ष हुई कुछ अहम वैज्ञानिक खोजों की झलक।

गुरुत्व तरंगें

पिछले वर्ष वैज्ञानिकों ने पहली बार आकाशगंगा में निम्न आवृत्ति वाली गुरुत्वाकर्षण तरंगों का पता लगाया। ऐसा माना जाता है कि ये ब्रह्मांडीय हलचल अरबों प्रकाश-वर्ष दूर अतिविशाल ब्लैक होल की अंतर्क्रिया और विलय से उत्पन्न हुई हैं, जिन्हें पल्सर पिंडों से निकलने वाले रेडियो संकेतों के सटीक माप के माध्यम से पहचाना गया था। इस खोज से प्रारंभिक ब्रह्मांड में अनुमान से अधिक ब्लैक होल की उपस्थिति के संकेत मिलते हैं। गुरुत्वाकर्षण तरंगों का अध्ययन ब्रह्मांड की उत्पत्ति से सम्बंधित अधिक जानकारी देने के अलावा ब्रहमांड को शक्ति देने वाले अदृश्य पदार्थ और घटनाओं को समझने में मदद कर सकता है।

विचारों को पढ़ना

टेक्सास विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने एक ऐसी एआई-आधारित प्रणाली प्रस्तुत की है जो मस्तिष्क की गतिविधियों को इबारत में बदल सकती है और इसके लिए दिमाग में कोई यंत्र वगैरह भी नहीं घुसेड़ना पड़ते। एमआरआई स्कैन का उपयोग करते हुए यह नवाचार पॉडकास्ट या छवियों के प्रति मस्तिष्क की प्रतिक्रियाओं को पकड़ता है। शब्द-दर-शब्द प्रतिलेखन की बजाय, यह मस्तिष्क गतिविधि का पैटर्न बनाता है और विचारों को उन गतिविधियों के साथ जोड़ने के लिए एक शब्दकोश तैयार करता है। वैसे इस अध्ययन ने मानसिक गोपनीयता के लिहाज़ से नैतिक चर्चा को बढ़ावा दिया है लेकिन इन चिंताओं के बावजूद, यह आशाजनक संभावनाएं प्रदान करता है, विशेष रूप से संचार विकारों से जूझ रहे परिवारों को आशा की नई किरण देता है।

प्राचीन व्हेल: विशालतम जंतु

प्राचीन व्हेल जीवाश्मों के एक ताज़ा विश्लेषण से पता चला है कि 3.7 करोड़ वर्ष पहले पेरू के तट पर विचरने वाला जंतु पेरुसेटस कोलोसस पृथ्वी के इतिहास का सबसे बड़ा जीव रहा होगा। अनुमान है कि इसका वज़न 300 टन से अधिक और लंबाई लगभग 60 फीट रही होगी। यह वर्तमान ब्लू व्हेल से भी विशाल है क्योंकि वर्तमान ब्लू व्हेल की लंबाई तो लगभग 100 फीट है लेकिन वज़न मात्र 200 टन है।

टी-रेक्स की दिलचस्प विशेषता

पिछले वर्ष जीवाश्म विज्ञानियों ने टायरेनोसौरस रेक्स और इसी तरह के मांसाहारी डायनासौरों की एक दिलचस्प विशेषता को उजागर किया है। उनका दावा है कि टी-रेक्स के होंठ होते थे जो उनके पैने दांतों को ढंके रहते थे। यह निष्कर्ष डायनासौर की शारीरिक रचना के साथ-साथ पक्षियों और सरीसृपों जैसे आधुनिक प्राणियों के तुलनात्मक अध्ययन से निकला है। इन डायनासौरों के दांतों को ढंकने वाले नरम ऊतक उनके मुंह की सुरक्षा करते थे तथा शिकार और हमला करने के लिए दांतों की सही स्थिति सुनिश्चित करते थे।

लाखों वर्ष पुराने पाषाण औज़ार

दक्षिण-पश्चिमी केन्या में पुरातत्वविदों ने प्राचीन होमिनिन पैरेन्थ्रोपस के जीवाश्मों के साथ पत्थर के औज़ार भी खोजे हैं जो संभवत: 30 लाख वर्ष पुराने हैं। इस खोज से लगता है कि गैर-मानव होमिनिन ने भी पाषाण प्रौद्योगिकियों का विकास किया था। पूर्व में माना जाता था कि पैरेन्थ्रोपस के मज़बूत जबड़ों के कारण ऐसे औज़ार उनके आहार के लिए अनावश्यक रहे होंगे। इस नई खोज से मनुष्यों के प्राचीन रिश्तेदारों के बीच औज़ार अनुमान से भी पहले उभरने के संकेत मिलते हैं।

जटिल जीवन की उत्पत्ति

पिछले वर्ष ऑस्ट्रेलिया में प्राप्त प्राचीन चट्टानों के रासायनिक साक्ष्य 1.6 अरब से 80 करोड़ वर्ष पूर्व जटिल कोशिकाओं की उपस्थिति दर्शाते हैं। यह खोज जटिल जीवन रूपों के जल्दी उद्भव की धारणा से मेल खाती है। इस खोज के लिए शोधकर्ताओं ने यूकेरियोटिक (केंद्रक युक्त) कोशिका में झिल्ली बनाने के लिए ज़रूरी अणुओं का सहारा लिया और 1.6 अरब वर्ष पुराने रासायनिक चिंहों का पता लगाया, जो संभावित रूप से उस समय यूकेरियोट्स के अस्तित्व का संकेत देते हैं। यह खोज रासायनिक साक्ष्यों का तालमेल आनुवंशिक और सूक्ष्म जीवाश्म साक्ष्यों के साथ बनाती है।

बाह्य-ग्रहों की संख्या

पिछले वर्ष अगस्त में वैज्ञानिकों ने छह नए बाह्य-ग्रहों की खोज की है। अब हमारे सौर मंडल के बाहर ज्ञात ग्रहों की संख्या 5500 से अधिक हो गई। यह ट्रांज़िटिंग एक्सोप्लेनेट सर्वे सैटेलाइड (TESS) और जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप से संभव हो पाया है जो आकाशगंगा में विविध की खोज करती रहती हैं। इसमें एक मुख्य खोज के2-18बी नामक बाह्य-उपग्रह की है जो संभवत: घने वायुमंडल के नीचे एक विशाल महासागर को छिपाए है और आकार में पृथ्वी और नेपच्यून के बीच है।

चिम्पैंज़ी में रजोनिवृत्ति

काफी समय से जीवविज्ञानी यह समझने का प्रयास करते आए हैं कि क्यों कुछ जंतु मादाएं प्रजनन काल समाप्त होने (रजोनिवृत्ति) के बाद भी जीवित रहती हैं। यह स्थिति मनुष्यों, व्हेल और ओर्का जैसी मुट्ठी भर प्रजातियों में देखी गई है। युगांडा के किबले नेशनल पार्क में चिम्पैंज़ी के मूत्र में हार्मोन का विश्लेषण करने से पता चला है कि चिम्पैंज़ी भी रजोनिवृत्ति से गुज़रते हैं और 50 वर्ष की आयु के आसपास की मादाओं में प्रजनन रुक जाता है लेकिन वे जीवित रहती हैं। हालांकि, कुछ व्हेल प्रजातियों की बड़ी मादाएं संतान की देखभाल में सहायता करती हैं लेकिन ऐसा व्यवहार चिम्पैंज़ी में नहीं देखा जाता है। एक अनुमान है कि रजोनिवृत्ति प्राइमेट्स के बीच जंतुओं में प्रजनन प्रतिस्पर्धा को कम कर सकती है। वैज्ञानिकों का लक्ष्य आगे इस पर और अधिक अध्ययन करना है।

मगरमच्छों में वर्जिन जन्म

पिछले वर्ष कोस्टा रिका के क्वीन्स नेशनल मरीन पार्क में एक मादा मगरमच्छ (Crocodylus acutus) में पार्थेनोजेनेसिस (अलैंगिक प्रजनन का एक रूप जिसमें नर के बिना संतान पैदा होती है) देखा गया है। मगरमच्छों में यह दुर्लभ है लेकिन जनसंख्या तनाव के तहत अन्य प्रजातियों में देखा गया है। आनुवंशिक विश्लेषण से पता चला कि भ्रूण सचमुच मां का आंशिक क्लोन था। बंदी अवस्था में ही सही, लेकिन यह खोज जंगली अमेरिकी मगरमच्छों के संरक्षण की दृष्टि से महत्व रखती है। गौरतलब है कि जंगली अमेरिकी मगरमच्छों को विलुप्तप्राय जानवरों की श्रेणी में रखा गया है।

सटीक चिकित्सा के लिए जीनोम

अमेरिकी राष्ट्रीय स्वास्थ्य संस्थान ने पुराने मानव जीनोम की सीमाओं को संबोधित करते हुए एक नया पैन-जीनोम प्रस्तुत किया है। यह नया मॉडल जीनोम विविध जातीय और नस्लीय पृष्ठभूमियों को शामिल करता है और माना जा रहा है कि इससे व्यक्तिगत चिकित्सा को आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी। वर्तमान में 47 व्यक्तियों के जीनोम अनुक्रम शामिल किए गए हैं, लेकिन लक्ष्य अंतत: 700 लोगों को शामिल करना है, जो पहले मुख्य रूप से युरोप-केंद्रित था। जीनोम समानताओं के बावजूद, व्यक्तिगत भिन्नताओं का विश्लेषण रोग के प्रति संवेदनशीलता को समझने में महत्वपूर्ण है, जो उचित चिकित्सा हस्तक्षेपों के लिए महत्वपूर्ण होगा।

शनि के चंद्रमा पर जीवन

शनि ग्रह का छठा सबसे बड़ा चंद्रमा एन्सेलाडस जीवन की संभावना के साक्ष्य दर्शाता है। हालिया विश्लेषण से जीवन के लिए आवश्यक कार्बन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन व सल्फर के साथ एक अत्यंत महत्वपूर्ण तत्व फॉस्फोरस की उपस्थिति का पता चला है। कैसिनी अंतरिक्ष यान के कॉस्मिक डस्ट एनालाइज़र द्वारा बर्फीले कणों में पाए गए। ये तत्व एन्सेलाडस को पृथ्वी से परे जीवन के लिए एक आशाजनक स्थल के रूप में बताते हैं। ऐसा अनुमान है कि उपग्रह की बर्फीली परत के नीचे स्थित महासागर जीवन-निर्वाह की स्थिति पैदा कर सकता है।(स्रोत फीचर्स)

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आभासी विद्युत संयंत्र

पिछले कुछ वर्षों में इलेक्ट्रिक वाहनों और उपकरणों के बढ़ते उपयोग से बिजली की मांग तेज़ी से बढ़ी है। इस मांग को पूरा करने के लिए तत्काल नए ऊर्जा संयंत्रों की आवश्यकता है लेकिन नए निर्माण की तुलना में पुराने बिजली संयंत्र अधिक तेज़ी से बंद हो रहे हैं। इस असंतुलन से निपटने के लिए बिजली कंपनियां पवन और सौर ऊर्जा जैसे नवीकरणीय स्रोतों की मदद से आभासी बिजली संयंत्र की अवधारणा पर काम कर रही हैं।

वास्तव में आभासी बिजली संयंत्र पारंपरिक बिजली संयंत्र जैसे नहीं हैं बल्कि ये बिजली उत्पादकों, उपभोक्ताओं और ऊर्जा भंडारणकर्ताओं द्वारा बिजली का संग्रह हैं जिन्हें वितरित ऊर्जा स्रोत (डीईआर) कहते हैं। आवश्यकता होने पर ग्रिड प्रबंधक डीईआर से ऊर्जा मांग को पूरा कर सकते हैं। इस तरह से एक शक्तिशाली और चुस्त ऊर्जा प्रणाली को तेज़ी से तैनात किया जा सकता है जो नए पारंपरिक बिजली संयंत्रों के निर्माण की तुलना में अधिक लागत प्रभावी है।

यूएस ऊर्जा विभाग का अनुमान है कि स्मार्ट थर्मोस्टेट, वॉटर हीटर, सौर पैनल और बैटरी जैसी प्रौद्योगिकियों को व्यापक रूप से अपनाने से 2030 तक आभासी बिजली संयंत्रों की क्षमता तीन गुना तक बढ़ सकती है। यदि ऐसा होता है तो आभासी बिजली संयंत्र नई मांग के लगभग आधे हिस्से की पूर्ति कर पाएंगे। इससे नए नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों और पारंपरिक बिजली संयंत्रों के निर्माण से जुड़ी लागत को सीमित करने में मदद मिलेगी। इसके अलावा, ऊर्जा खपत वाले क्षेत्रों में आभासी बिजली संयंत्र की उपस्थिति से पुरानी पारेषण प्रणालियों पर दबाव कम होगा।

इस तकनीक से पारंपरिक उत्पादक-उपभोक्ता मॉडल में क्रांतिकारी परिवर्तन आएगा। पूर्व में बड़े पैमाने पर बिजली संयंत्र बिजली पैदा करते थे और इसे निष्क्रिय उपभोक्ताओं तक भेजते थे। लेकिन अब उपभोक्ता सक्रिय रूप से ऊर्जा मांग का प्रबंधन स्वयं कर सकते हैं। बाज़ार में उपस्थित स्मार्ट उपकरण बिजली आपूर्ति और कीमत में उतार-चढ़ाव के आधार पर बिजली के उपयोग को समायोजित कर सकते हैं जिससे ग्रिड स्थिरता बनाए रखने में मदद मिलती है। अमेरिकी उपभोक्ता अपने घरों को आभासी बिजली स्रोतों में बदलने के लिए तेज़ी से सौर पैनल अपना रहे हैं जबकि दक्षिण ऑस्ट्रेलिया 50,000 घरों को सौर एवं बैटरी से जोड़कर देश का सबसे बड़ा आभासी बिजली संयंत्र बना रहा है।

अलबत्ता, आभासी बिजली संयंत्र स्थापित करना कई चुनौतियों से भरा है। कई ग्राहकों को अपने निजी उपकरणों का नियंत्रण देने में झिझक हो सकती है जबकि अन्य को स्मार्ट मीटर की सुरक्षा और गोपनीयता को लेकर चिंता होगी। ग्राहकों को पर्याप्त प्रलोभन और भरोसा देकर इन सभी चिंताओं का समाधान किया जा सकता है।

बिजली की बढ़ती मांग और नवीकरणीय संसाधनों से उत्पादित बिजली के अधिक केंद्रीकृत होने से ग्रिड प्रबंधकों को पवन व सौर ऊर्जा के परिवर्तनीय उत्पादन को संतुलित करने के लिए अधिक लचीली प्रणाली विकसित करना होगी। (स्रोत फीचर्स)

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