विश्व भर में हर वर्ष 10 करोड़ से अधिक मूत्र कैथेटर लगाए जाते हैं जिनके रास्ते होने वाले मूत्र मार्ग संक्रमणों (यूटीआई) को रोकना चिकित्सकों के लिए एक महत्वपूर्ण समस्या होती है। साइंस एडवांसेस में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन में कृत्रिम बुद्धि (एआई) की मदद से एक नवीन मूत्र कैथेटर डिज़ाइन प्रस्तुत हुई है। यह कैथेटर एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग किए बिना कैथेटर के रास्ते होने वाले मूत्रमार्ग संक्रमण (यूटीआई) के जोखिम को कम कर सकता है।
गौरतलब है कि पारंपरिक कैथेटर अंदर से चिकने होते हैं जिसके कारण बैक्टीरिया के लिए ऊपर की ओर बढ़ना और आंतरिक सतह पर टिकना सहज हो जाता है। यही बैक्टीरिया यूटीआई का कारण बनते हैं।
नवीन कैथेटर में एक अनोखा इंटीरियर तैयार किया गया है। इसकी अंदरुनी संरचना से एक ऐसा बाधापूर्ण मार्ग तैयार होता है जो बैक्टीरिया को पकड़ प्राप्त करने और मूत्राशय तक पहुंचने से रोकता है।
पूर्व में चिकित्सक बैक्टीरिया को मारने के लिए कैथेटर की आंतरिक सतह पर एंटीबायोटिक दवाओं या चांदी जैसे धातु एजेंटों का लेप करते थे। ये तरीके महंगे होते हैं और बैक्टीरिया में एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी क्षमता विकसित होने की आशंका रहती है। नया उपकरण किसी विशेष अस्तर की बजाय सरल ज्यामिति पर काम करता है।
इस अध्ययन की सह-लेखक और कंप्यूटर वैज्ञानिक अनिमाश्री आनंदकुमार बताती हैं कि यह डिज़ाइन सरल ज्यामिति से प्रेरित है जिसमें नुकीले त्रिकोण के आकार की लकीरों की एक शृंखला है। इस प्रकार के कैथेटर में जब बैक्टीरिया ऊपर की ओर तैरने का प्रयास करते हैं तो इन कंटकों के कारण उनकी ऊपर की ओर बढ़ने की गति बाधित होती है। इसको डिज़ाइन करते हुए शोधकर्ताओं ने सबसे प्रभावी बैक्टीरिया-विकर्षक रचना की पहचान करने के लिए एआई की मदद से हज़ारों डिज़ाइनों की डिजिटल अनुकृतियां तैयार कीं। सर्वोत्तम डिज़ाइन चुनने के बाद, उन्होंने कैथेटर का 3-डी प्रोटोटाइप तैयार किया और ई. कोली बैक्टीरिया पर इसका और सामान्य कैथेटर का परीक्षण किया। उन्होंने पाया कि 24 घंटों की अवधि में पारंपरिक कैथेटर की तुलना में नवनिर्मित प्रायोगिक कैथेटर में सौवें हिस्से से भी कम बैक्टीरिया जमा हुए थे।
फिलहाल वर्तमान डिज़ाइन यूटीआई से जुड़े एक सामान्य बैक्टीरिया ई. कोली के हिसाब से बनाई गई है लेकिन शोधकर्ता अन्य जीवाणु प्रजातियों को ध्यान में रखते हुए इस डिज़ाइन को और अधिक परिष्कृत करने का प्रयास कर रहे हैं ताकि इसे रोगाणुओं की एक विस्तृत शृंखला की रोकथाम के लिए तैयार किया जा सके। देखा जाए तो उपकरण डिज़ाइन में एआई की क्षमता कैथेटर से कहीं आगे तक है। फिलहाल आनंदकुमार एआई का उपयोग दवाएं विकसित करने, ऊर्जा-कुशल हवाई जहाज़ प्रोपेलर डिज़ाइन करने और कई अन्य चीज़ों के लिए कर रही हैं। (स्रोत फीचर्स)
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इस वर्ष फरवरी के महीने से ही कर्नाटक के एक बड़े क्षेत्र से गंभीर जल संकट के समाचार मिलने आरंभ हो गए थे। दूसरी ओर, पिछले वर्ष बरसात के मौसम में हिमाचल प्रदेश जैसे कई राज्यों में बाढ़ से भयंकर तबाही हुई थी। जलवायु बदलाव के इस दौर में विभिन्न स्तरों पर बाढ़ और सूखे दोनों के संकट अधिक गंभीर हो सकते हैं।
देखने में तो बाढ़ और सूखे की बाहरी पहचान उतनी ही अलग है जितनी पर्वत और खाई की – एक ओर वेग से बहते पानी की अपार लहरें तो दूसरी ओर बूंद-बूंद पानी को तरसती सूखी प्यासी धरती। इसके बावजूद प्राय: देखा गया है कि बाढ़ और सूखे दोनों के मूल में एक ही कारण है और वह है उचित जल प्रबंधन का अभाव।
जल संरक्षण की उचित व्यवस्था न होने के कारण जो स्थिति उत्पन्न होती है उसमें हमें आज बाढ़ झेलनी पड़ती है तो कल सूखे का सामना करना पड़ सकता है। दूसरी ओर, यदि हम जल संरक्षण की समुचित व्यवस्था कर लें तो न केवल बाढ़ पर नियंत्रण पा सकेंगे अपितु सूखे की स्थिति से भी बहुत हद तक राहत मिल सकेगी।
भारत में वर्षा और जल संरक्षण का विशेष अध्ययन करने वाले मौसम विज्ञानी पी. आर. पिशारोटी ने बताया है कि युरोप और भारत में वर्षा के लक्षणों में कई महत्वपूर्ण अंतर हैं। युरोप में वर्षा पूरे साल धीरे-धीरे होती रहती है। इसके विपरीत, भारत के अधिकतर भागों में वर्ष के 8760 घंटों में से मात्र लगभग 100 घंटे ही वर्षा होती है। इसमें से कुछ समय मूसलाधार वर्षा होती है। इस कारण आधी वर्षा मात्र 20 घंटों में ही हो जाती है। अत: स्पष्ट है कि जल संग्रहण और संरक्षण युरोप के देशों की अपेक्षा भारत जैसे देशों में कहीं अधिक आवश्यक है। इसके अलावा, भारत की वर्षा की तुलना में युरोप में वर्षा की औसत बूंद काफी छोटी होती है। इस कारण उसकी मिट्टी काटने की क्षमता भी कम होती है। युरोप में बहुत सी वर्षा बर्फ के रूप में गिरती है जो धीरे-धीरे धरती में समाती रहती है। भारत में बहुत सी वर्षा मूसलाधार वर्षा के रूप में गिरती है जिसमें मिट्टी को काटने और बहाने की बहुत क्षमता होती है।
दूसरे शब्दों में, हमारे यहां की वर्षा की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि यदि उसके पानी के संग्रहण और संरक्षण की उचित व्यवस्था नहीं की गई तो यह जल बहुत सारी मिट्टी बहाकर निकट की नदी की ओर वेग से दौड़ेगा और नदी में बाढ़ आ जाएगी। चूंकि अधिकतर जल न एकत्र होगा न धरती में रिसेगा, अत: कुछ समय बाद जल संकट उत्पन्न होना भी स्वाभाविक ही है। इन दोनों विपदाओं को कम करने के लिए या दूर करने के लिए जीवनदायी जल का अधिकतम संरक्षण और संग्रहण आवश्यक है।
इसके लिए पहली आवश्यकता है वन, वृक्ष व हर तरह की हरियाली जो वर्षा के पहले वेग को अपने ऊपर झेलकर उसे धरती पर धीरे से उतारे ताकि यह वर्षा मिट्टी को काटे नहीं अपितु काफी हद तक स्वयं मिट्टी में ही समा जाए या रिस जाए और पृथ्वी के नीचे जल के भंडार को बढ़ाने का अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य संपन्न करे।
दूसरा महत्वपूर्ण कदम यह है कि वर्षा का जो शेष पानी नदी की ओर बह रहा है उसके अधिकतम संभव हिस्से को तालाबों या पोखरों में एकत्र कर लिया जाए। वैसे इस पानी को मोड़कर सीधे खेतों में भी लाया जा सकता है। खेतों में पड़ने वाली वर्षा का अधिकतर जल खेतों में ही रहे, इसकी व्यवस्था भू-संरक्षण के विभिन्न उपायों जैसे खेत-तालाब, मेड़बंदी, पहाड़ों में सीढ़ीदार खेत आदि से की जा सकती है। तालाबों में जो पानी एकत्र किया गया है वह उसमें अधिक समय तक बना रहे इसके लिए तालाबों के आसपास वृक्षारोपण हो सकता है व वाष्पीकरण कम करने वाला तालाब का विशेष डिज़ाइन बनाया जा सकता है। तालाब से होने वाले सीपेज का भी उपयोग हो सके, इसकी व्यवस्था हो सकती है। एक तालाब का अतिरिक्त पानी स्वयं दूसरे में पहुंच सके और इस तरह तालाबों की एक शृंखला बन जाए, यह भी कुशलतापूर्वक करना संभव है।
वास्तव में जल संरक्षण के ये सब उपाय हमारे देश की ज़रूरतों के अनुसार बहुत समय से किसी न किसी रूप में अपनाए जाते रहे हैं। चाहे राजस्थान व बुंदेलखंड के तालाब हों या बिहार की अहर पईन व्यवस्था, नर्मदा घाटी की हवेली हो या हिमालय की गूलें, महाराष्ट्र की बंधारा विधि हो या तमिलनाडु की एरी व्यवस्था, इन सब माध्यमों से अपने-अपने क्षेत्र की विशेषताओं के अनुसार स्थानीय लोगों ने वर्षा के जल के अधिकतम और बढ़िया उपयोग की तकनीकें विकसित कीं। औपनिवेशिक शासन के दिनों में विभिन्न कारणों से हमारी तमाम परंपरागत व्यवस्थाओं का ढांचा चरमराने लगा। जल प्रबंधन पर भी नए शासकों और उनकी नीतियों की मार पड़ी। किसानों और ग्रामीणों की आत्मनिर्भरता तो अंग्रेज़ सरकार चाहती ही नहीं थी, उपाय क्या करती। फिर भी तरह-तरह के शोषण का बोझ सहते हुए लोग जहां-तहां अपनी व्यवस्था को जितना सहेज सकते थे, उन्होंने इसका प्रयास किया।
दुख की बात यह है कि स्वतंत्रता के बाद भी जल प्रबंधन के इन आत्म-निर्भर, सस्ते और स्थानीय भौगोलिक विशेषताओं का पूरा ध्यान रखने वाले परंपरागत तौर-तरीकों पर ध्यान नहीं दिया गया। औपनिवेशिक शासकों ने जल प्रबंधन की जो नीतियां अपनाई थीं, उसमें उनके अपने स्वार्थों के साथ-साथ युरोप में वर्षा के पैटर्न पर आधारित सोच हावी थी। इस सोच के आधार पर स्थानीय स्तर के जल संरक्षण को अधिक महत्व नहीं दिया गया। बाद में धीरे-धीरे इस क्षेत्र के साथ बड़ी निर्माण कंपनियों, ठेकेदारों व उनसे लाभ उठाने वाले अधिकारियों व नेताओं के स्वार्थ भी जुड़ गए। निहित स्वार्थ जब नीति पर हावी हो गए तो गांवों के सस्ते और आत्म-निर्भर तौर तरीकों की बात भला कौन सुनता, समझता?
गांव की बढ़ती आबादी के साथ मनुष्य व पशुओं के पीने के लिए, सिंचाई व निस्तार के लिए पानी की आवश्यकता बढ़ती जा रही थी, अत: परंपरागत तौर-तरीकों को और दुरूस्त करने की, उन्हें बेहतर बनाने की आवश्यकता थी। यह नहीं हुआ और इसके स्थान पर अपेक्षाकृत बड़ी नदियों पर बड़े व मझोले बांध बनाने पर ज़ोर दिया गया। पानी के गिरने की जगह पर ही उसके संरक्षण के सस्ते तौर तरीकों के स्थान पर यह तय किया गया कि उसे बड़ी नदियों तक पहुंचने दो, फिर उन पर बांध बनाकर कृत्रिम जलाशय में एकत्र कर नहरों का जाल बिछाकर इस पानी के कुछ हिस्से को वापिस गांवों में पहुंचाया जाएगा। निश्चय ही यह दूसरा तरीका अधिक मंहगा था और गांववासियों की बाहरी निर्भरता भी बढ़ाता था।
इस तरीके पर अधिक निर्भर होने से हम अपनी वर्षा के इस प्रमुख गुण को भी भूल गए कि विशेषकर वनस्पति आवरण कम होने पर उसमें अत्यधिक मिट्टी बहा ले जाने की क्षमता होगी। यह मिट्टी कृत्रिम जलाशयों की क्षमता और आयु को बहुत कम कर सकती है। मूसलाधार वर्षा के वेग को संभालने की इन कृत्रिम जलाशयों की क्षमता इस कारण और भी सिमट गई है। आज हालत यह है कि वर्षा के दिनों में प्रलयंकारी बाढ़ के अनेक समाचार ऐसे मिलते हैं जिनके साथ यह लिखा रहता है – अमुक बांध से पानी अचानक छोड़े जाने पर यह विनाशकारी बाढ़ आई। इस तरह अरबों रुपए के निर्माण कार्य जो बाढ़ से सुरक्षा के नाम पर किए गए थे, वे ही विनाशकारी बाढ़ का स्रोत बने हुए हैं। दूसरी ओर, नहरों की सूखी धरती और प्यासे गांव तक पानी पहुंचाने की वास्तविक क्षमता उन सुहावने सपनों से बहुत कम है, जो इन परियोजनाओं को तैयार करने के समय दिखाए गए थे। इन बड़ी और महत्वाकांक्षी परियोजनाओं के अनेकानेक प्रतिकूल पर्यावरणीय और सामाजिक परिणाम भी स्पष्ट रूप से सामने आ चुके हैं।
जो लोग विकास कार्यों में केवल विशालता और चमक-दमक से प्रभावित हो जाते हैं उन्हें यह स्वीकार करने में वास्तव में कठिनाई हो सकती है कि सैकड़ों वर्षों से हमारे गांवों में स्थानीय ज्ञान और स्थानीय ज़रूरतों के आधार पर जो छोटे स्तर की आत्म-निर्भर व्यवस्थाएं जनसाधारण की सेवा करती रही हैं, वे आज भी बाढ़ और सूखे का संकट हल करने में अरबों रुपयों की लागत से बनी, अति आधुनिक इंजीनियरिंग का नमूना बनी नदी-घाटी परियोजनाओं से अधिक सक्षम हैं। वास्तव में इस हकीकत को पहचानने के लिए सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर अपनी विरासत को पहचानने और पूर्वजों के संचित ज्ञान के विनम्र मूल्यांकन की आवश्यकता है।
यह सच है कि इस परंपरा में अनेक कमियां भी मिलेंगी। हमारे पुराने समाज में भी अनेक विषमताएं थीं और ये विषमताएं कई बार तकनीक में भी खोट पैदा करती थीं। जिस समाज में कुछ गरीब लोगों की अवहेलना होती हो, वहां पर अन्याय भी ज़रूर रहा होगा कि उनको पानी के हकों से भी वंचित किया जाए या उनसे भेदभाव हो। एक ओर हमें इन पारंपरिक विकृतियों से लड़ना है और उन्हें दूर करना है। लेकिन दूसरी ओर यह नहीं भूलना चाहिए कि विशेषकर जल प्रबंधन की हमारी विरासत में गरीब लोगों का बहुत बड़ा हाथ है क्योंकि इस बुनियादी ज़रूरत को पूरा करने में सबसे ज़्यादा पसीना तो इन मेहनतकशों ने ही बहाया था। आज भी जल प्रबंधन का परंपरागत ज्ञान जिन जातियों या समुदायों के पास सबसे अधिक है उनमें से अधिकांश गरीब ही हैं। जैसे केवट, मल्लाह, कहार, ढीमर, मछुआरे आदि। ज़रूरत इस बात की है कि स्थानीय जल प्रबंधन का जो ज्ञान और जानकारी गांव में पहले से मौजूद है उसका भरपूर उपयोग आत्म-निर्भर और सस्ते जल संग्रहण और संरक्षण के लिए किया जाए और इसका लाभ सब गांववासियों को समान रूप से दिया जाए।
महाराष्ट्र में पुणे ज़िले में पानी पंचायतों के सहयोग से ग्राम गौरव प्रतिष्ठान ने दर्शाया है कि कैसे भूमिहीनों को भी पानी का हिस्सा मिलना चाहिए और पानी का उपयोग बराबर होना चाहिए। परंपरागत तरीकों को इस तरह सुधारने के प्रयास निरंतर होने चाहिए, पर परंपराओं की सही समझ बनाने के बाद। यदि सरकार बजट का एक बड़ा हिस्सा जल संग्रहण और संरक्षण के इन उपायों के लिए दे और निष्ठा तथा सावधानी से कार्य हो तो बाढ़ व सूखे का स्थायी समाधान प्राप्त करने में बहुत सहायता मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)
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गत 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) अपने ‘लैंगिक सामाजिक मानदंड सूचकांक’ में महिलाओं के प्रति व्याप्त पूर्वाग्रहों को नापता है और चार आयामों – राजनैतिक, शैक्षिक, आर्थिक और शारीरिक स्वायत्तता – में महिलाओं की भूमिका के बारे में लोगों का नज़रिया पता करता है। आखिरी दो आयाम पुरुष महिलाओं के लिए छोड़ते हैं। विश्व की आठ अरब आबादी में से 45 प्रतिशत महिलाएं हैं। पुरुषों का कहना है कि महिलाओं का काम घरों की देखभाल करना, खाना बनाना, बच्चों की देखभाल करना है जबकि घर चलाने के लिए पैसे कमाना पुरुषों का काम है। दुनिया के कई ‘विकासशील देशों’ में महिलाएं स्कूल नहीं जाती हैं, लेकिन खेतों में और बाइयों के तौर पर काम करती हैं। इस तरह शैक्षिक आयाम उनके हाथ से फिसल जाता है।
हालांकि, पश्चिमी मीडिया द्वारा करार दिया गया ‘विकासशील देश’ भारत अपनी समावेशी नीतियों के चलते इससे आगे बढ़ा है। पिछले दो दशकों से भारत अपने सभी 28 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में सभी बच्चों – गरीब या अमीर, शहरी या ग्रामीण – को हाई स्कूल तक मुफ्त शिक्षा की पेशकश कर रहा है। और इनमें से लगभग 12 करोड़ लड़कियां हैं। उच्च शिक्षा की बात करें तो स्नातक/स्नातकोत्तर और पी.एचडी. स्तर पर अधिकांश लड़कियां कला और विज्ञान या नर्सिंग और चिकित्सा चुनती हैं, जबकि लड़के इस स्तर पर कंप्यूटर साइंस, जैव प्रौद्योगिकी और डिजिटल प्रौद्योगिकी चुनते हैं। लेकिन देश भर के अधिकांश STEM (साइंस, टेक्नॉलॉजी, इंजीनियरिंग और मेथेमेटिक्स) संस्थानों में केवल 20 प्रतिशत महिलाएं हैं। इसके अलावा, IIT, CSIR प्रयोगशालाओं, AIIMs, IISER और IIM में केवल 20 प्रतिशत शिक्षक/प्रोफेसर महिलाएं हैं। ज़ाहिर है, हमें इस लैंगिक खाई को पाटने की ज़रूरत है।
खुशी की बात यह है कि आज पूरे भारत में ऐसी सैकड़ों महिलाएं हैं जो उद्यमी बन गई हैं। हालांकि इनमें से कई महिलाएं मनोरंजन जगत, विज्ञापनों, फिल्म उद्योग और सौंदर्य प्रसाधन जैसे व्यवसायों में रत हैं, लेकिन साइंस एंड टेक्नॉलॉजी की डिग्रीधारी कुछ महिलाओं ने अपनी जैव-प्रौद्योगिकी और दवा कंपनियां स्थापित की हैं जो उपयोगी और मुनाफादायक उत्पाद बनाती हैं। इसके अलावा, एम.डी. (डॉक्टर ऑफ मेडिसिन) की डिग्रीधारी कई महिलाएं नेत्र विज्ञान, न्यूरोलॉजी, स्त्री स्वास्थ्य से सम्बंधित मुद्दों और अन्य चिकित्सा विषयों में विशेषज्ञ हैं।
इस तरह संपूर्ण भारत में सरकार के, निजी क्षेत्रों के और लोक-हितैषी महिला उद्यमियों के प्रयासों के चलते भारत शीघ्र ही ‘विकासशील देश’ से आगे जाकर विकसित देश बन रहा है!
यह बात सरकारी और राजनीतिक स्तर पर भी दिखती है। आंकड़े बताते हैं कि दुनिया के लगभग आधे लोगों का मानना है कि महिलाओं की तुलना में पुरुष बेहतर राजनीतिक नेता और व्यवसायी बनते हैं। यह लैंगिक पूर्वाग्रह निम्न और उच्च मानव विकास सूचकांक (एचडीआई), दोनों तरह के देशों में काफी हावी है। ये पूर्वाग्रह क्षेत्रों, आय, विकास के स्तर और संस्कृतियों से स्वतंत्र नज़र आते हैं, और इस मायने में ये वैश्विक मुद्दा हैं।
इस संदर्भ में, भारत ने उल्लेखनीय रूप से बेहतर प्रदर्शन किया है। इसकी एक मिसाल ही काफी होगी। अमेरिका के पहले राष्ट्रपति जॉर्ज वॉशिंगटन ने 1789 में राष्ट्रपति पद की शपथ ली थी। तब से अब तक अमेरिका में 46 राष्ट्रपति हो चुके हैं। लेकिन उनमें से कोई भी महिला नहीं थी! इस मामले में भारत ने बाज़ी मार ली है। भारत के अब तक 15 राष्ट्रपतियों में से दो राष्ट्रपति महिलाएं रही हैं: प्रतिभा पाटिल (2007-2012) और द्रौपदी मुर्मू (वर्तमान राष्ट्रपति)। और तो और, हमारे पड़ोसी देशों में भी कई पदों पर महिलाओं ने नेतृत्व किया है। बेनजीर भुट्टो पाकिस्तान की प्रधानमंत्री रहीं, शेख हसीना बांग्लादेश की वर्तमान प्रधानमंत्री हैं, बिद्या देवी भंडारी नेपाल की दूसरी राष्ट्रपति रहीं, और डोलमा ग्यारी 1991-2011 के बीच तिब्बत की प्रधानमंत्री रही हैं। यहां तक कि लैटिन अमेरिका के कई ‘विकासशील देशों’ में महिला राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री रही हैं। (वैसे इसमें भारत की प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी और विश्व की प्रथम महिला प्रधान मंत्री श्रीलंका की श्रीमाओ भंडारनायके और राष्ट्रपति चंद्रिका कुमारतुंगा के नाम भी जोड़े जा सकते हैं।)
तो आइए, हम महिला दिवस और महिला वर्ष को महिलाओं के लिए मंगलमय बनाएं। (स्रोत फीचर्स)
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यह तो हम भली-भांति जानते हैं कि तरह-तरह के कीट-पतंगे मोमबत्ती, बल्ब-टूयबलाइट जैसी कृत्रिम रोशनियों की ओर खिंचे चले आते हैं। दिए जलते ही वे उनके आसपास मंडराने लगते हैं। शायद इसी अनुभव से प्रेरित होकर किसी शायर ने कहा है –
कितने परवाने जले राज़ ये पाने के लिए,
शमा जलने के लिए है या जलाने के लिए।
लेकिन हाल ही में परवानों यानी कीट-पतंगों पर किया गया अध्ययन इस राज़ का खुलासा करता है कि क्यों वे कृत्रिम रोशनियों की ओर खिंचे चले आते हैं और उनके चक्कर काटते हैं।
इस बात की पड़ताल तो लंबे समय से चली आ रही थी जिसने हमें इसकी कई व्याख्याएं भी दीं; जैसे वे इन रोशनियों के स्रोत को चंद्रमा समझ कर दिशा निर्धारण के लिए इनका उपयोग करते हैं, या वे रोशनी नहीं बल्कि गर्मी से आकर्षित होते हैं। शोधकर्ता उनके बारे में थोड़ा गहराई से समझना चाहते थे। इसलिए उन्होंने रोशनी के आसपास मंडराते कीट-पतंगों की हरकतों को मोशन-कैप्चर कैमरा और स्टीरियो वीडियोग्राफी से रिकॉर्ड किया।
उनकी फुटेज देखने से पता चला कि कीट-पतंगे अपनी पीठ हमेशा रोशनी की ओर रखने का प्रयास करते हैं – यह प्रयास पृष्ठीय प्रकाश प्रतिक्रिया कहलाती है। पीठ हमेशा रोशनी की ओर झुकाने के प्रयास में वे रोशनी के चक्र में फंस जाते हैं और उसी के आसपास मंडराते रहते हैं। गौरतलब है कि पृष्ठीय प्रकाश प्रतिक्रिया कीट-पतंगों को ऊपर-नीचे का निर्धारण करने और सही उन्मुखीकरण में बने रहने में मदद करती है। इसका मुख्य कारण यह है कि सामान्यत: परिवेश का ज़्यादा चमकीला हिस्सा ऊपर की ओर होता है। लेकिन कृत्रिम प्रकाश में यही चमक उन्हें भ्रम में डाल देती है। (स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में इंटरनेशन कौंसिल ऑफ स्ट्रेटीग्राफी ने वह प्रस्ताव नामंज़ूर कर दिया है जिसमें पृथ्वी के वर्तमान काल को एंथ्रोपोसीन काल घोषित करने का आग्रह किया गया था। गौरतलब है कि पृथ्वी के इतिहास को विभिन्न कालों और युगों में बांटा गया है। वर्तमान युग को होलोसीन कहा जाता है और इसकी शुरुआत पिछले हिमयुग की समाप्ति के बाद करीब 11,700 वर्ष पहले हुई मानी जाती है। प्रस्ताव यह था कि इस युग को अब समाप्त माना जाए और 1950 से एक नए युग की शुरुआत मानकर इसे एंथ्रोपोसीन नाम दिया जाए।
प्रस्ताव के मूल में बात यह थी कि वर्तमान युग ज़बर्दस्त मानव प्रभाव का युग है जिसमें इंसानी क्रियाकलाप ने पृथ्वी के हर पक्ष को कुछ इस तरह प्रभावित किया है कि अब लौटकर जाना मुश्किल है। इस प्रभाव को हर आम-ओ-खास अपने आसपास देख सकता है। लेकिन इंटरनेशनल स्ट्रेटीग्राफी आयोग ने इस नामकरण को अस्वीकार कर दिया है।
आयोग की सबसे प्रमुख आपत्ति यह थी कि इस नए युग की शुरुआत की कोई तारीख निर्धारित करना मुश्किल है क्योंकि इसका कोई भौतिक चिंह नहीं है। प्रस्ताव के समर्थकों का मत है कि इस युग को 1950 के दशक से शुरू माना जाना चाहिए। भौतिक प्रमाण के रूप में उन्होंने कनाडा की क्रॉफोर्ड झील में जमा कीचड़़ की लगभग 10 से.मी. की परत को सामने रखा था जिसमें जीवाश्म ईंधन और उर्वरकों के उपयोग तथा परमाणु विस्फोटों के चिंह मिलते हैं। लेकिन आयोग को यह कोई पुख्ता प्रमाण नहीं लगा।
वैसे प्रस्ताव के संदर्भ में कई भूवैज्ञानिकों का भी सवाल है कि क्यों जीवाश्म ईंधन, उर्वरकों के उपयोग और परमाणु परीक्षणों को ही मानव प्रभाव का लक्षण माना जाए। हज़ारों वर्ष पहले शुरू हुई खेती को या करीब 400 वर्ष युरोपीय लोगों के नई दुनिया में प्रवास के बाद आए व्यापक परिवर्तनों को क्यों नहीं?
प्रस्ताव के विरोधियों की एक आपत्ति यह रही है कि प्रस्ताव देने वाले समूह (एंथ्रोपोसीन वर्किंग ग्रुप) ने शुरू से ही मीडिया का उपयोग किया जबकि तकनीकी रूप से उन्होंने प्रस्ताव बहुत देर से दिया। कई वैज्ञानिकों का मत है कि वर्किंग ग्रुप का यह हठ था कि वे एंथ्रोपोसीन को एक युग के रूप में ही परिभाषित करवाना चाहते हैं। कई वैज्ञानिकों का सुझाव है कि इसे युग की बजाय एक घटना के रूप में दर्शाना बेहतर होगा। उदाहरण के लिए जब पृथ्वी पर सायनोबैक्टीरिया पनपे तो उन्होंने प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से वातावरण को ऑक्सीजन प्रचुर बना दिया था जिसने पृथ्वी के जीवन को गहराई में प्रभावित किया था। इसे ग्रेट ऑक्सीकरण घटना कहते हैं। इसी की तर्ज पर एंथ्रोपोसीन घटना कहा जा सकता था।
बहरहाल, अब वर्किंग ग्रुप को फिर से प्रस्ताव देने के लिए 10 साल की प्रतीक्षा करनी है क्योंकि आयोग का यही नियम है। अलबत्ता, कई वैज्ञानिकों तथा समाज शास्त्रियों, मानव वैज्ञानिकों वगैरह को लगता है कि चाहे आयोग ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया हो लेकिन यह एक महत्वपूर्ण नज़रिया पेश करता है जो हमें आजकल की दुनिया के बारे में सोचने की एक दिशा देता है। (स्रोत फीचर्स)
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हर वर्ष 14 मार्च को दुनिया भर में, विशेषकर अमेरिका में, राष्ट्रीय पाई दिवस उत्सव की तरह मनाया जाता है। वास्तव में पाई दिवस गणित के एक मशहूर संकेत ‘π’ पर आधारित है। वैसे तो गणितीय संकेत बहुत सारे हैं, लेकिन पाई में कुछ खास बात है।
वास्तव में, पाई किसी वृत्त की परिधि और उसके व्यास के बीच सम्बंध को दर्शाता है। वृत्त चाहे किसी भी साइज़ का हो, जब उसकी परिधि को व्यास से विभाजित किया जाता है तो उत्तर हमेशा पाई ही होता है। इस तरह से पाई एक सार्वभौमिक संख्या है, जिसका मान हमेशा 3.14 होता है। वैसे पाई के मान में दशमलव के बाद की संख्या एक अंतहीन, न दोहराई जाने वाली लड़ी है। कुछ गणित-प्रेमी अधिक से अधिक दशमलव स्थानों को याद करने की भी प्रतिस्पर्धा करते हैं। अब तक का गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड दशमलव के बाद 70,000 अंकों को याद रखने का है।
गौरतलब है कि गणित और विज्ञान में पाई का बहुत महत्व है। यह वृत्तों और गोले के क्षेत्रफल तथा आयतन की गणना, अणुओं से लेकर पृथ्वी जैसे खगोलीय पिंडों और यहां तक कि अंतरिक्ष यान निर्माण तक के हिसाब-किताब तक में सहायक है। विभिन्न गणितीय समीकरणों में इसकी उपस्थिति के कारण यह गणितज्ञों के लिए एक आकर्षक जिज्ञासा है। पाई सिर्फ एक संख्या नहीं है बल्कि यह ब्रह्मांड को समझने का एक बुनियादी पहलू है, जिसका उपयोग परमाणुओं से लेकर अंतरिक्ष की जटिल गणनाओं में किया जाता है।
पाई दिवस उत्सव की शुरुआत 1988 में भौतिक विज्ञानी लैरी शॉ द्वारा की गई थी। यह तारीख पाई के पहले तीन अंकों 3.14 से मेल खाती है यानी तीसरे माह (मार्च) की चौदहवीं तारीख। संयोग से यह अल्बर्ट आइंस्टाइन का जन्मदिन भी है।
वैसे तो अनेकों सभ्यताएं कई शताब्दियों से पाई के बारे में जानती आई हैं, लेकिन पाई दिवस को 2009 में मान्यता मिली। लैरी शॉ का विचार था कि गणित और हमारे जीवन में पाई के महत्व का जश्न मनाने का एक मज़ेदार और आकर्षक तरीका बनाया जाए। इसका एक प्रमुख उद्देश्य सभी उम्र के लोगों को संख्याओं की सुंदरता और हमारे आसपास की दुनिया में उनके अनुप्रयोगों की सराहना करने के लिए प्रेरित करना था। पाई दिवस के उत्सव में अमूमन लोग एक स्वादिष्ट अमेरिकी पकवान पाई का आनंद लेते हैं और पाई से सम्बंधित गतिविधियां करते हैं। इन गतिविधियों में पाई पकाना, पाई के दशमलव के बाद के अंक सुनाना, या पाई सम्बंधी खेल-कूद शामिल हैं। इस दिन शिक्षक सीखने-सिखाने को मज़ेदार बनाने के लिए अपने पाठ्यक्रम में पाई से सम्बंधित पाठ जोड़ते हैं। पाई दिवस लोगों को एक साथ आने और गणित के चमत्कारों का जश्न मनाने, संख्याओं और प्राकृतिक दुनिया की सुंदरता के प्रति जिज्ञासा और प्रशंसा की भावना को बढ़ावा देने का एक अनूठा अवसर प्रदान करता है। (स्रोत फीचर्स)
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ऑस्ट्रेलियन नेशनल युनिवर्सिटी के खगोलविदों के नेतृत्व में एक दल ने एक नए क्वासर की खोज की है जिसका द्रव्यमान 17 अरब सूर्यों के बराबर है। यह न केवल अब तक देखा गया सबसे चमकीला क्वासर है बल्कि यह सामान्य तौर पर अब तक देखा गया सबसे चमकीला खगोलीय पिंड भी है। J0529-4351 नामक यह क्वासर हमारे सूर्य की तुलना में 500 खरब गुना अधिक चमकीला है। यह अब तक देखे गए सबसे उग्र और सबसे तेज़ी से बढ़ने वाले एक अति-भारी ब्लैक होल द्वारा संचालित है, जो हर दिन एक सूर्य के द्रव्यमान के बराबर गैसीय द्रव्यराशि का उपभोग करता है। नेचर एस्ट्रॉनॉमी जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक यह हमारे सौरमंडल से इतना दूर है कि इसकी रोशनी को पृथ्वी तक पहुंचने में 12 अरब साल से अधिक का समय लगा।
क्वासरों को ब्रह्मांड में ऊर्जा और प्रकाश का सबसे शक्तिशाली स्रोत माना जाता है। 1960 में पहली बार अंतरिक्ष में ऐसे प्रबल रेडियो स्रोत मिले थे जो हमसे 10 से 15 प्रकाश वर्ष दूर थे। तब यह बड़े आश्चर्य की बात समझी गई थी क्योंकि रेडियो दूरबीनों से खोजे गए ये पिंड खरबों तारों के बराबर ऊर्जा का उत्सर्जन कर रहे थे और उनका आकार-प्रकार भी तारों के जैसा था। इन पिंडों को क्वासी-स्टेलर रेडियो सोर्सेज़ (क्वासर्स) यानी आभासी तारकीय रेडियो-स्रोत नाम दिया गया।
चूंकि ब्लैक होल हमें दिखाई नहीं देते इसलिए विज्ञानी अमूमन ब्लैक होल्स की खोज में क्वासरों की मदद लेते हैं। क्वासरों की गैसीय द्रव्यराशि को ब्लैक होल अपनी ओर खींचते हैं। ब्लैक होल में क्वासर की द्रव्यराशि लगातार गिरने के कारण उसमें से काफी तेज़ी से रेडियो तरंगें उत्सर्जित होने लगती हैं। ऐसी ही तीव्र रेडियो तरंगों के निरीक्षण के आधार पर और युरोपियन सदर्न ऑब्ज़रवेट्री में लगे वेरी लार्ज टेलीस्कोप की मदद से खगोलविदों ने J0529-4351 क्वासर के संचालन के लिए ज़िम्मेदार ब्लैक होल की खोज की। यह अब तक ज्ञात सबसे तेज़ी से विकसित होने वाला ब्लैक होल है। विकास की अविश्वसनीय दर का मतलब प्रकाश और ऊर्जा का भारी उत्सर्जन भी है। यह इसे ज्ञात ब्रह्मांड का सबसे चमकदार निकाय बनाता है।
गौरतलब है कि J0529-4351 को 4 दशक पहले सदर्न स्काई सर्वे में भी देखा गया था, लेकिन यह इतना चमकीला था कि उस समय खगोलशास्त्री इसे क्वासर के रूप में पहचानने में विफल रहे थे।
इस खोज से ऐसा प्रतीत होता है कि सभी निहारिकाओं के मूल में एक अतिविशाल पिंड है, जिसका संभवत: अर्थ यह है कि ऐसी वस्तुएं उन निहारिकाओं के विकास में अंतर्निहित हैं। संभव है कि सभी निहारिकाएं ऐसे अति-भारी ब्लैक होल्स के आसपास बनी हों। (स्रोत फीचर्स)
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शिशु के विकास और पोषण के लिए जन्म के बाद अपने शरीर में बनने वाले पोषक द्रव का शिशु को पान कराना स्तनधारी प्राणियों का प्रमुख लक्षण माना जाता है। लेकिन स्तनधारियों के अलावा भी चंद जीव ऐसे हैं जो अपने शिशुओं को अपने शरीर में बनने वाले पोषक द्रव पिलाते हैं; जैसे कुछ मछलियां, मकड़ियां, कीट और पक्षी। हाल ही में पोषकपान कराने वालों की इस फेहरिस्त में अब एक सेसिलियन (नेत्र विहीन कृमिनुमा उभयचर) जीव साइफोनॉप्स एनुलैटस भी जुड़ गया है जो अंडे से बाहर निकली अपनी नवजात संतानों के लिए ‘दूध’ बनाता है और पिलाता है।
उपोष्णकटिबंधीय इलाकों में पाए जाने वाले ये नीले-काले रंग के उभयचर कृमि सरीखे दिखते हैं। और अपना अधिकांश समय भूमि के अंदर बिताते हैं। चूंकि ये अधिकांश समय अंधकार में रहते हैं तो इनमें तथाकथित ‘देखने’ की क्षमता नहीं होती है।
पूर्व में वैज्ञानिकों ने पाया था कि सेसिलियन की कुछ प्रजातियों के शिशुओं में दांत आते हैं, और वे लगभग हर सातवें दिन अपनी मां की पोषक तत्वों से भरपूर त्वचा परत को खाते हैं – नई पोषक त्वचा बनने में इतना समय तो लग ही जाता है। लेकिन बुटान्टन इंस्टिट्यूट के प्रकृतिविद मार्टा एंटोनियाज़ी और कार्लोस जेरेड को यह बात थोड़ी अजीब लगी कि नवजात हफ्ते में केवल एक बार पोषण पाते हैं। जबकि उन्हें विकास के लिए समय-समय पर भरपूर पोषण चाहिए होता है। हफ्ते में एक बार का भोजन तो विकास के लिए पर्याप्त नहीं लगता।
इसलिए उन्होंने इन शिशु उभयचरों के विचित्र भोजन व्यवहार को विस्तार से जानना तय किया। उन्होंने ब्राज़ील के अटलांटिक वन से साइफोनॉप्स एनुलैटस प्रजाति के 16 जच्चा और उनके नवजात बच्चों को एकत्र किया, और वीडियो के माध्यम से उनकी गतिविधियों पर नज़र रखी।
200 घंटे से अधिक लंबे फुटेज के विश्लेषण से पता चला कि नवजात पोषण के लिए अपनी मां की त्वचा को तो कुतरते ही हैं, साथ-साथ वे मां के क्लोएका से निकलने वाले वसा और कार्बोहाइड्रेट युक्त पोषक पदार्थ का सेवन भी करते हैं। क्लोएका शरीर के पीछे की ओर स्थित आहार नाल और जनन मार्ग का साझा निकास द्वार होता है। मां उनके लिए इस तरल का स्राव करे, इसके लिए शिशु तेज़ आवाज़ें निकालते हैं, और अपना सिर मां के क्लोएका में घुसाकर ‘दूध’ पीते हैं।
साइंस पत्रिका में प्रकाशित ये अप्रत्याशित नतीजे सेसिलियन जीवों पर और अधिक अध्ययन की ज़रूरत को भी रेखांकित करते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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दक्षिणी स्पेन की चिलचिलाती गर्मी में हर चीज़ सूखी-सूखी नज़र आती है, घास सूख कर सरकंडे बन जाती है, पतझड़ी पेड़ों से पत्तियां झड़ कर सूख चुकी होती हैं। बस कुछ ही तरह की वनस्पतियों पर हरियाली दिखाई पड़ती है। ऐसा ही एक झंखाड़ है झुंड में उगने वाली कारलाइन थिसल (Carlina corymbosa)।
भटकटैया सरीखा, कांटेदार पत्तियों और पीले फूल वाला यह पौधा अगस्त महीने की चरम गर्मी में भी खिला रहता है। ज़ाहिर है मकरंद के चंद स्रोत में से एक होने के कारण स्थानीय मधुमक्खियां और अन्य परागणकर्ता इस पर मंडराते रहते हैं।
स्पैनिश नेशनल रिसर्च काउंसिल के वैकासिक पारिस्थितिकीविद कार्लोस हेरेरा की टीम सिएरा डी कैज़ोरला पर्वत शृंखला के निकट इन्हीं परागणकर्ताओं की आबादी की गणना कर रही थी। जब उन्होंने यह देखने के लिए फूल को छुआ कि उसके अंदर कितना मकरंद है तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि इतनी कड़ी धूप में भी फूल ठंडा था। इसी अचंभे ने इस अध्ययन को दिशा दी। हेरेरा ने थिसल फूलों के ऊपरी भाग के भीतर का तापमान मापा और इससे करीबन एक इंच दूर के परिवेश का तापमान मापा।
साइंटिफिक नेचुरलिस्ट में उन्होंने बताया है कि सामान्य गर्म दिनों में फूलों का तापमान अपने परिवेश की तुलना में पांच डिग्री सेल्सियस कम था। और तो और, सबसे गर्म दिनों में तो कुछ फूलों का तापमान परिवेश के तापमान से 10 डिग्री सेल्सियस तक कम हो गया था।
ये नतीजे इस बात की पुष्टि करते हैं कि पौधे खुद को जिलाए रखने के लिए थोड़ा जोखिम उठाते हैं। हालांकि पेड़-पौधों की पत्तियों में स्व-शीतलन देखा गया है, लेकिन यह उनमें संयोगवश होता लगता है। दरअसल, प्रकाश संश्लेषण के लिए कार्बन डाईऑक्साइड की आवश्यकता होती है, जो पत्ती की सतह पर उपस्थित स्टोमेटा नामक छिद्रों के माध्यम से प्रवेश करती है। जब कार्बन डाईऑक्साइड के अंदर जाने के लिए स्टोमेटा खुलते हैं तो थोड़ी जलवाष्प भी बाहर निकल जाती है। नतीजतन पत्ती का तापमान थोड़ा कम हो जाता है। लेकिन स्पैनिश थिसल के मामले में वाष्पीकरण द्वारा शीतलन पौधों की (सोची-समझी) रणनीति हो सकती है। वरना सूखे गर्म मौसम में इतने कीमती पानी को वाष्पित कर वे सूखे की मार क्यों झेलना चाहेंगे? संभवत: अपने नाज़ुक प्रजनन अंगों (फूलों) को अत्यधिक गर्मी में ठंडा रखने के लिए।
आगे शोधकर्ता इसकी पंखुड़ियों के स्टोमेटा का अध्ययन करना चाहते हैं और देखना चाहते हैं कि क्या वास्तव में पौधा शीतलन के लिए पानी त्यागता है या किसी और कारण से। साथ ही देखना चाहते हैं कि शीतलन के लिए इतना पानी ज़मीन से खींचने में जड़ें कैसे मदद करती हैं। (स्रोत फीचर्स)
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अंतरिक्ष अन्वेषण के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण प्रयास करते हुए नासा के वैज्ञानिकों ने रोटेटिंग डेटोनेशन इंजन (आरडीई) नामक एक अभूतपूर्व तकनीक का इजाद किया है। इस नवीन तकनीक को रॉकेट प्रणोदन के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी परिवर्तन के रूप में देखा जा रहा है।
नियंत्रित दहन प्रक्रिया पर निर्भर पारंपरिक तरल ईंधन आधारित इंजनों के विपरीत आरडीई विस्फोटन तकनीक पर काम करते हैं। इसमें एक तेज़, विस्फोटक दहन को अंजाम दिया जाता है जिससे अधिकतम ईंधन दक्षता प्राप्त होती है। गौरतलब है कि पारंपरिक रॉकेट इंजनों में ईंधन को धीरे-धीरे जलाया जाता है और नियंत्रित दहन से उत्पन्न गैसें नोज़ल में से बाहर निकलती हैं और रॉकेट आगे बढ़ता है। दूसरी ओर आरडीई में, संपीड़न और सुपरसॉनिक शॉकवेव की मदद से विस्फोट कराया जाता है जिससे ईंधन का पूर्ण व तत्काल दहन होता है। देखा गया कि इस तरह से करने पर ईंधन का ऊर्जा घनत्व ज़्यादा होता है।
पर्ड्यू विश्वविद्यालय के इंजीनियर स्टीव हेस्टर ने आरडीई के अंदर होने वाले दहन को ‘दोजख की आग’ नाम दिया है जिसमें इंजन के भीतर का तापमान 1200 डिग्री सेल्सियस हो जाता है। यह तकनीक न केवल बेहतर प्रदर्शन प्रदान करती है, बल्कि अंतरिक्ष यान को अधिक दूरी तय करने, उच्च गति प्राप्त करने और बड़े पेलोड ले जाने में सक्षम भी बनाती है।
यह तकनीक ब्रह्मांड की खोज के लिए अधिक कुशल और लागत प्रभावी तरीका प्रदान करती है। जैसे-जैसे वैज्ञानिक इस अत्याधुनिक तकनीक को परिष्कृत और विकसित करते जाएंगे, भविष्य के अंतरिक्ष अभियानों की संभावनाएं पहले से कहीं अधिक उज्जवल होती जाएंगी। (स्रोत फीचर्स)
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