मंथर गति घोंघा – स्लग – के गंभीर प्रभाव – हरेन्द्र श्रीवास्तव

बारिश के मौसम में आपने घरों के आसपास, बाग-बगीचों और खेतों में अक्सर जोंक जैसा दिखने वाला एक जीव अवश्य देखा होगा। चिपचिपे पदार्थ को अपने शरीर से स्रावित कर ज़मीन पर बेहद धीमी गति से रेंगते हुए इस जीव को देखकर अक्सर यह जिज्ञासा पैदा होती है कि आखिर ये कौन-सा अनोखा जीव है? प्राय: देखा गया है कि अधिकांश लोग अनुमान लगाते और मान लेते हैं कि यह जोंक है। क्या आपने कभी सोचा है कि वास्तव में यह कौन-सा जीव हो सकता है?

मानसून के दौरान दिखाई देने वाला ये जीव दरअसल घोंघे की एक प्रजाति है। इसे स्लग (slug) कहते हैं और हिंदी में इसे मंथर के नाम से जाना जाता है। स्लग एक अकशेरुकी जीव है जिसे जोंक समझ बैठते हैं। घोंघे के बारे में लोगों की धारणा है कि वह अपनी खोल के भीतर बंद रहता है और जिसके शरीर पर एक कठोर कवच पाया जाता है। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि हमने बचपन से ही नदी, तालाबों, पोखरों जैसे जलभराव क्षेत्रों में घोंघे का यही आकार एवं स्वरूप देखा है। विज्ञान की किताबों में भी अक्सर विद्यार्थियों को कवच वाले घोंघे के बारे में ही जानकारी दी जाती है, स्लग घोंघे के बारे में नहीं। लिहाज़ा लोग जानते ही नहीं कि बिना कवच के भी कोई घोंघा हो सकता है।

स्लग धरती पर जंतुओं के दूसरे सबसे बड़े संघ मोलस्का के अन्तर्गत गैस्ट्रोपॉड वर्ग के प्राणी हैं। आर्थ्रोपॉड्स के बाद मोलस्का ही जंतुओं का दूसरा सबसे बड़ा संघ है जिसमें 85 हज़ार से भी ज़्यादा प्रजातियां शामिल हैं। सामान्य तौर पर दिखाई देने वाले कठोर कवचयुक्त घोंघे के विपरीत स्लग एक ऐसा घोंघा है जिसके शरीर पर कोई कठोर खोल अथवा कवच जैसी संरचना नहीं पाई जाती है। इसलिए इसे कवच विहीन स्थलीय घोंघा कहते हैं। अंग्रेज़ी में इसे लैंड स्लग, गार्डन स्लग, लेदरलीफ स्लग आदि नामों से जाना जाता है। दुनिया भर में स्लग की हज़ारों प्रजातियां पाई जाती हैं। वैज्ञानिक शोधों के मुताबिक भारत में स्लग और स्थलीय घोंघो की 1400 से भी ज़्यादा प्रजातियां विभिन्न भौगोलिक पर्यावासों में फैली हुई हैं: पश्चिमी घाट, पूर्वोत्तर भारत, हिमालयी क्षेत्र वगैरह।

स्लग मुख्यत: रात में सक्रिय होते हैं। स्लग का शरीर बेहद नरम एवं मुलायम होने के साथ ही बहुत नम भी होता है। स्लग कड़ी धूप और तापमान के प्रति बेहद संवेदनशील होते हैं क्योंकि इन्हें अपने नरम ऊतकों के सूखने का खतरा बना रहता है। अत: अपने शरीर में नमी बनाए रखने हेतु ये ज़्यादा गर्म व शुष्क मौसम से बचने का प्रयास करते हैं। शरीर की नमी सूखने ना पाए, इसलिए ये पेड़ की छाल, पत्तियों के ढेर और ज़मीन पर गिरी लकड़ी जैसी जगहों पर छिप जाते हैं। यही कारण है कि स्लग वर्षा ऋतु में ही बाग-बगीचों, नर्सरी और खेतों की नम भूमि तथा पौधों पर दिखाई देते हैं। स्लग के सिर के अग्रभाग पर दो जोड़ी स्पर्शिकाएं पाई जाती हैं। ये स्पर्शिकाएं स्लग को गंध एवं प्रकाश का अनुमान लगाने में मदद करती हैं।

स्लग प्राय: काले, भूरे, हरे, पीले और स्लेटी रंगों में देखने को मिलते हैं। स्लग का प्रजनन काल मुख्यत: बारिश के मौसम में शुरू होता है। इनकी प्रजनन गतिविधियां भरपूर नमी और उच्च आर्द्रता वाले मौसम पर निर्भर करती हैं। यही कारण है कि मानसून के दौरान उच्च आर्द्रता वाले मौसम में प्रजनन के उपरांत इनकी संख्या में बेतहाशा बढ़ोतरी देखी जाती है। स्लग एक बार में औसतन 30-40 अंडे देते हैं। कुछ प्रजातियां एक बार में 80 से भी ज़्यादा अंडे दे सकती हैं।

ज़मीन पर चलते हुए ये अपने शरीर से एक बेहद चिपचिपा सा तरल पदार्थ छोड़ते जाते हैं जिस कारण से देखने में ये घिनौने प्रतीत होते हैं। दरअसल इस चिपचिपे द्रव से इन्हें ज़मीन की उबड़-खाबड़ सतह पर चलने में मदद मिलती है। इसी चिपचिपे पदार्थ की मदद से ये पौधों की टहनियों और पत्तियों पर भी बड़ी आसानी चलते जाते हैं। यह चिपचिपा पदार्थ शिकारियों से सुरक्षा करने में भी इनकी सहायता करता है।

स्लग का आहार वनस्पतियां और फफूंद हैं। स्लग पौधों की पत्तियां, बीजांकुर, कुकुरमुत्ते, फफूंद, सब्जि़यां, फल आदि खाते हैं। खतरा महसूस होने पर स्लग अपने बेहद लचीले शरीर को सिकोड़कर गोल और स्थिर कर लेते हैं। काले और भूरे रंगों वाले स्लग स्थिर एवं संकुचित अवस्था में आलू के छिलके की तरह दिखाई देते हैं इसलिए कभी-कभी इनके शिकारी और इंसान भी गच्चा खा जाते हैं।

स्लग पारिस्थितिकी तंत्र में भी अहम भूमिका निभाते हैं। वातावरण के प्रति बेहद संवेदनशील होने के कारण ये बदलते मौसम एवं जलवायु के प्राकृतिक संकेतक हैं। स्लग प्राकृतिक खाद्य शृंखला के भी महत्वपूर्ण घटक हैं। कई प्रजाति के पक्षियों, सांपों, छिपकलियों, छोटे स्तनपायी जीवों एवं कुछ अकशेरुकी जंतुओं के लिए भी स्लग मुख्य आहार हैं। स्लग वातावरण से सड़ी-गली वनस्पतियों, कवकों तथा मृत कीटों के अवशेषों का भी सफाया करते हैं और पर्यावरण में पोषक तत्वों का पुनर्चक्रण करते हैं। स्लग कई जंगली प्रजाति के जीवों को मैग्नीशियम, पोटेशियम और कैल्शियम जैसे पोषक तत्व उपलब्ध करवाते हैं।

हालांकि स्लग की पर्यावरण में महत्वपूर्ण भूमिका है लेकिन इनकी कई प्रजातियां आज कृषि एवं बागवानी के लिए बेहद हानिकारक कीट के रूप में गिनी जाती हैं। पिछले कुछ दशकों से स्लग दुनिया भर के सैकड़ों देशों में आक्रामक प्रजाति के तौर पर व्यापक रूप से फैल गए हैं जो अंकुरित पौधों, पत्तियों, फल-फूलों और सब्जि़यों को काफी नुकसान पहुंचाते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार और आयात-निर्यात जैसी आर्थिक गतिविधियों के चलते स्लग की कई प्रजातियां अपने मूल स्थान से अन्य भौगोलिक क्षेत्रों में पहुंचकर वहां की स्थानीय जैव विविधता के लिए खतरा पैदा कर रही हैं। ज़ाहिर है जब वनस्पति या जीव-जंतु की कोई भी प्रजाति अपने मूल स्थान से नए क्षेत्रों में पहुंच जाए तो वे या तो उस वातावरण में जीवित नहीं रह पाती, या यदि किसी तरह उस नए वातावरण में ढल जाती हैं और वहां की स्थानीय प्रजातियों से प्रतिस्पर्धा करने लगती है जिस कारण पारिस्थितिक तंत्र में असंतुलन पैदा होना स्वाभाविक है। लैंटाना और गाजर घास इसके महत्वपूर्ण उदाहरण हैं। स्लग की भी कई प्रजातियां एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप में पहुंचकर आज कृषि एवं पर्यावरण के लिए हानिकारक साबित हो रही हैं। स्लग नए पारिस्थितिकी क्षेत्रों में इसलिए भी तेज़ी से फलते-फूलते हैं क्योंकि नई जगह पर उनका कोई बड़ा शिकारी नहीं होता।

स्लग पौधे के समस्त हिस्सों का उपभोग करते हैं। ये पत्तियों के बीच वाले भाग में छेद कर देते हैं और किनारे वाले भागों को कुतर देते हैं जिससे पौधे सूख जाते हैं। स्लग पौधों को तेज़ी से चट करते हैं जिसके चलते वनस्पतियों की कई प्रजातियों में काफी गिरावट आती है। यहां तक कि कई पौधों की प्रजातियां विलुप्ति के कगार पर भी पहुंच जाती हैं और उन वनस्पतियों पर निर्भर जीव-जंतुओं का अस्तित्व भी संकट में पड़ जाता है। स्लग द्वारा स्रावित चिपचिपा पदार्थ भी पौधों की संरचना को नुकसान पहुंचाता है।

भारत में स्लग की तकरीबन 15 प्रजातियां गंभीर कृषि कीट के रूप में पहचानी गईं हैं जिनमें से कॉमन गार्डन स्लग या लेदरलीफ स्लग (लेविकौलिस अल्टे) और ब्राउन गार्डन स्लग (फीलिकौलिस अल्टे) लगभग पूरे देश में फैली हैं। पश्चिम बंगाल में मार्श स्लग (डेरोसिरास लीवे) एक नई खोजी गई आक्रामक स्लग प्रजाति है। आज कॉमन गार्डन स्लग भारत सहित दक्षिण एवं दक्षिण-पूर्वी एशिया के कई देशों में तेज़ी से फैल रहे हैं। भारत में कई सब्ज़ियों और फूलों को तेज़ी से नुकसान पहुंचाते देखा गया है। ये स्लग नर्सरी में सुगंधित एवं औषधीय पौधों के लिए अत्यन्त हानिकारक है। इसी तरह ब्राउन गार्डन स्लग मूली, बंदगोभी, ब्रोकोली और पत्तागोभी को नष्ट करता है। दक्षिण भारत में यह कॉफी, रबर, ताड़, केला और काली मिर्च के पौधों के लिए अत्यन्त नुकसानदायक है। अफ्रीका का मूल निवासी कैटरपिलर स्लग भारत में हाल में ही नई आक्रामक प्रजाति के रूप में रिपोर्ट किया गया है। एक अनुमान के मुताबिक कैटरपिलर स्लग के कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था को प्रतिवर्ष 26 अरब डॉलर का घाटा होता है। लेविकौलिस हेराल्डी नामक एक नई विदेशी स्लग प्रजाति महाराष्ट्र में पहचानी गई है।

कई देशों में इन हानिकारक स्लग प्रजातियों को नियंत्रित करने के प्रयास किए जा रहे हैं। आम तौर पर किसान अपने खेतों में स्लग की बढ़ती आबादी को रोकने हेतु नमक का छिड़काव करते हैं जो उनके शरीर की नमी को सोख लेता है लेकिन इससे मिट्टी के क्षारीय एवं लवणीय होने का खतरा है। स्लग प्राय: शुष्क जगहों से बचने का प्रयास करते हैं इसीलिए किसानों द्वारा इन्हें नियंत्रित करने के लिए सूखी राख का भी प्रयोग किया जाता है। साल में दो बार खेतों की गहरी जुताई करना भी स्लग से छुटकारा पाने का पर्यावरण अनुकूल तरीका है। जुताई से मिट्टी में मौजूद स्लग के अंडे नष्ट हो जाते हैं या मिट्टी से बाहर आकर शिकारियों द्वारा खा लिए जाते हैं। खेतों-क्यारियों की समय-समय पर निंदाई-गुड़ाई करते रहना भी स्लग को रोकने का एक कारगर उपाय है क्योंकि इससे स्लग के अंडे और स्लग को पोषण तथा आश्रय देने वाले खरपतवार पौधे नष्ट हो जाते हैं। कॉपर सल्फेट और ऑयरन फास्फेट भी स्लग को नष्ट करने में मददगार साबित हुए हैं।

स्लग नियंत्रण के उपायों में कृषि भूमि के आसपास पक्षियों एवं सांपो का संरक्षण शामिल करना होगा क्योंकि ये जंतु इनके प्राकृतिक शिकारी हैं और इनकी बढ़ती जनसंख्या पर लगाम लगाने में सक्षम हैं। कुछ किसानों और बागवानों द्वारा इन्हें हाथ से पकड़कर दूर किया जाता है जो एक सार्थक प्रयास है।

वास्तव में देखा जाए तो मानव द्वारा पर्यावरण एवं जैव विविधता को नुकसान पहुंचाने के चलते ही स्लग की कुछ प्रजातियां कृषि और बागवानी के लिए हानिकारक साबित हुई हैं। हम मनुष्यों ने विदेशी पौधों एवं वन्य जीवों को दूसरे देशों से आयात किया और साथ में इन आक्रामक प्रजातियों को भी अपने खेतों तक पहुंचा दिया। किसानों द्वारा पक्षियों और सांपों को कीटनाशकों का उपयोग कर मार दिया गया जो स्लग के प्राकृतिक नियंत्रणकर्ता थे। कहीं ऐसा ना हो कि एक दिन स्लग हमारी खेती और अर्थव्यवस्था को चौपट कर दें। सरकार द्वारा प्रशिक्षण एवं जागरूकता कार्यक्रम आयोजित कर किसानों को स्लग के भावी खतरे के प्रति सचेत करना होगा। बंदरगाहों एवं हवाई अड्डों पर बाहरी देशों से आयातित वस्तुओं का निरीक्षण कर देश में विदेशी स्लग प्रजातियों के घुसपैठ को रोका जा सकता है। अत: इस बारे में नियम-कायदे बनाने चाहिए। स्लग पारिस्थितिकी तंत्र में मुख्य भूमिका निभाते हैं और वो भी इसी पर्यावरण के अभिन्न अंग है लेकिन जब वो मानवीय गतिविधियों के चलते अपने मूल भौगोलिक क्षेत्र से भटक जाते हैं, तब नए परितंत्र में वे कृषि एवं जैव विविधता के लिए संकट खड़ा करते हैं। आज ज़रूरत है कि हम खुद पर्यावरण के प्रति सचेत हों ताकि मानव, जैव विविधता एवं प्रकृति के बीच संतुलन बना रहे।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.collinsdictionary.com/images/full/slug_38280988.jpg

पीठ पर ‘दीमक’ उगाकर धोखाधड़ी

शिकारियों से बचने या शिकार करने के लिए कई सारे जीव तरह-तरह से रूप बदलते हैं। इसी क्रम में शोधकर्ताओं ने रोव बीटल की एक नई प्रजाति की खोज की है जो वास्तविक दीमकों को मूर्ख बनाने के लिए अपनी पीठ पर दीमक की प्रतिकृति विकसित कर लेती है। यह प्रतिकृति इतनी सटीक होती है कि इसमें दीमकों के शरीर के विभिन्न हिस्से भी दिखाई देते हैं: इसमें तीन जोड़ी छद्म उपांग भी होते हैं जो वास्तविक दीमकों के स्पर्शक और टांगों जैसे लगते हैं।

जीव जगत में स्टेफायलिनिडे कुल की रोव बीटल्स वेष बदल कर छलने के लिए मशहूर हैं। मसलन, उनकी कुछ प्रजातियां सैनिक चींटियों की तरह वेश बदलकर उनके साथ-साथ चलती हैं और उनके अंडे और बच्चों को खा जाती हैं।

ऑस्ट्रेलिया के उत्तरी क्षेत्र में मिट्टी के नीचे पाई जाने वाली रोव बीटल की नई प्रजाति, ऑस्ट्रोस्पाइरेक्टा कैरिजोई, अपने उदर को बड़ा करके दीमक की नकल करती है। इसे फिज़ियोगैस्ट्री कहा जाता है। ज़ुओटैक्सा नामक पत्रिका में शोधकर्ता बताते हैं कि विकास ने इन बीटल्स के शरीर के ऊपरी हिस्से पर दीमक के समान सिर व बाकी सभी अंग, विकसित कर दिए हैं। बीटल का असली, बहुत छोटा सिर उसके छद्म वेश के नीचे छिपा रहता है।

इस छलावरण से बीटल दीमकों के समूह में पहचाने जाने से बच जाती हैं – हालांकि दीमक अंधी होती हैं, वे एक-दूसरे को स्पर्श से पहचानती हैं। दीमकों जैसी आकृति दीमक होने का ही एहसास देती है। दीमकों के समूह में जाकर ये बीटल उनका अद्वितीय उपचर्मीय हाइड्रोकार्बन मिश्रण भी सोख लेते हैं या इसी तरह के यौगिक स्वयं बनाने लगते हैं ताकि ऐसा पक्के में लगने लगे कि वे दीमक ही हैं।

चूंकि ए. कैरिजोई का मुंह छोटा होता है, इसलिए शोधकर्ताओं को लगता है कि वे दीमकों के अंडे या लार्वा खाने की बजाय उनसे भोजन मांगते हैं। श्रमिक दीमक भोजन के आदान-प्रदान (ट्रोफालैक्सिस) द्वारा भोजन या अन्य तरल अपने साथियों को खिलाते हैं। बीटल के इस छलावरण का मंतव्य साफ है, बस दीमक बनकर उनके समूह में बस जाओ और आराम से भोजन पाओ।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adk7176/full/_20230805_on_austrospirachtha_carrijoi-1694022998157.jpg

तनाव में कुछ कृमि स्वजाति-भक्षी बन जाते हैं

मिट्टी में रहने वाले कृमि एलोडिप्लोगैस्टर सुडौसी वैसे भी दैत्य के तौर पर जाने जाते हैं। साइज़ में ये अन्य सम्बंधित जीवों से लगभग दुगने बड़े होते हैं। लेकिन शोधकर्ताओं ने बायोआर्काइव्स प्रीप्रिंट में बताया है कि भूखे होने पर तो ये वास्तव में हैवान बन जाते हैं। इनका मुंह बड़ा हो जाता है और ये तेज़ी से अपने साथियों को खाने लगते हैं।

अन्य नेमेटोड कृमियों में देखा गया था कि जब उन्हें बैक्टीरिया खाने को दिए जाते हैं तो उनका मुंह छोटा ही रहता है, और अन्य कीटों को खाने में उनकी कोई रुचि नहीं होती है। लेकिन जब उन्हें खाने के लिए अन्य कृमियों के लार्वा दिए जाते हैं तो उनका मुंह बड़ा हो जाता है और वे अपने बाकी साथियों को खाने लगते हैं, अपनी संतानों को छोड़कर।

हालिया अध्ययन में शोधकर्ताओं ने ए. सुडौसी में इसी क्रम को दोहराने का प्रयास किया था। इसके लिए उन्होंने इन कृमियों को विभिन्न तरह के खाद्य पदार्थ खाने को दिए। लेकिन जब उन्होंने इन कृमियों को एक फफूंद (पेनिसिलियम कैमेम्बर्टी) खिलाई, जिसका उपयोग विभिन्न चीज़ (cheese) बनाने में किया जाता है, तो इसे खाकर इन कृमियों का मुंह बड़ा हो गया।

अन्य कृमियों में ऐसा नहीं होता। शोधकर्ताओं का ख्याल है कि ऐसा करने में ए. सुडौसी को उनके जीन की अतिरिक्त जोड़ी ने सक्षम बनाया है। मुंह बड़ा होना उनमें तनाव के प्रति प्रतिक्रिया हो सकती है। ऐसा लगता है कि पेनिसिलियम कैमेम्बर्टी इन कृमियों को पर्याप्त पोषण नहीं देती है और स्वजाति भक्षण की यह क्षमता पोषण की क्षतिपूर्ति में उनकी मदद करती है। यानी बड़े जबड़े और मुंह के साथ इनमें से कम से कम कुछ कृमि तो उन परिस्थितियों में जीवित बच सकते हैं, जब अन्य नेमेटोड भूखे मर जाएंगे।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://en.wikipedia.org/wiki/Allodiplogaster_sudhausi#/media/File:Allodiplogaster_sudhausi_adult.png

सबसे प्राचीन काष्ठकारी

गभग पांच लाख साल पहले मध्य अफ्रीका के प्राचीन मनुष्यों ने पेड़ों को काटकर खुदाई के औज़ार, फच्चर और अन्य चीज़ें बनाई थीं। 1950-60 के दशक में ज़ाम्बिया के कलाम्बो फॉल्स नामक पुरातात्विक स्थल पर खुदाई के दौरान लकड़ी की ऐसी वस्तु मिली थी जो किसी बड़े ढांचे का हिस्सा लगती थी। लेकिन तब यह पता नहीं चल पाया था कि यह कितनी पुरानी है, इसे किसने बनाया था, और ना ही यह समझ आया था कि वह पूरा ढांचा क्या रहा होगा। लेकिन हो सकता है कि यह एक चौपाल था, या आश्रय था, या कुछ और।

ढांचा चाहे जो रहा हो लेकिन नेचर पत्रिका की एक रिपोर्ट बताती है कि हमसे बहुत पहले अस्तित्व में रहे होमिनिन लोग लकड़ी का काम कर रहे थे, शायद होमो सेपिएन्स के आगमन से एक लाख साल पहले।

युनिवर्सिटी ऑफ लिवरपूल के पुरातत्वविद लैरी बरहैम और उनकी टीम ने 2000 के दशक में आधुनिक तकनीकों के साथ पुन: इस स्थल पर खुदाई शुरू की। हालांकि वे लकड़ी के औज़ारों का विश्लेषण करने की मंशा से नहीं बल्कि पत्थर के औज़ार खोजने गए थे। बहरहाल, खुदाई में उन्हें लकड़ी के कई ऐसे टुकड़े मिले जिन्हें, लगता था कि तराशा गया है। साथ ही उन्हें लकड़ी का एक 1.4 मीटर लंबा लट्ठा भी मिला, जिसके सिरे संकरे थे और सिरों को एक ओर से काट-छील कर एक खांचा बनाया गया था, जिस पर एक अन्य बड़ी लकड़ी टिकी हुई थी।

वहां मिली कई लकड़ी की वस्तुओं पर इरादतन तराशने के निशान मिले थे (जैसे खुरचने के)। ये निशान वैसे ही थे जैसे होमो सेपियन्स द्वारा उपयोग किए जाने वाले अन्य जल-जमाव वाले स्थानों पर मिली लकड़ी की वस्तुओं पर मिले थे। इनमें से एक छोटी लकड़ी ऐसी लग रही थी जैसे वह खुदाई के लिए हो; दूसरी फच्चरनुमा आकृति लग रही थी।

लेकिन खुदाई में मिलीं लकड़ी की दो बड़ी वस्तुएं क्या होंगी यह अस्पष्ट था। ये काष्ठकृतियां कुछ लिंकन लॉग्स खिलौने जैसी थीं जिनके सिरों पर चौड़े खांचे होते हैं, जिनके ज़रिए उन्हें एक-दूसरे में लंबवत फंसाया जा सकता है। बरहैम का कहना है कि खुदाई में मिली लकड़ियों पर खांचे भी शायद इसी उद्देश्य से बनाए गए होंगे। शायद वे मछली पकड़ने के लिए मचान बना रहे होंगे या कोई ऊंचा रास्ता या आश्रय स्थल बना रहे होंगे। फिलहाल ये सिर्फ अनुमान हैं, और सामग्री मिले तो बेहतर अनुमान लगाए जा सकेंगे।

ल्यूमिनिसेंस डेटिंग से पता चलता है कि ये बड़ी लकड़ियां कम से कम 4,76,000 वर्ष पुरानी हैं, और कुछ छोटे औज़ार इनसे थोड़ बाद के हैं। हालांकि कलाम्बो फॉल्स में होमिनिन के कोई अवशेष नहीं मिले हैं, लेकिन एक अन्य स्थल से तीन लाख साल पुरानी एक खोपड़ी मिली है जिसकी पहचान होमो हाईडलबरजेंसिस के रूप में की गई है।

वैसे अन्य पुरातत्वविदों को होमिनिन द्वारा काष्ठकारी पर अचरज नहीं हुआ है। इसी समय के आसपास, अफ्रीका और दुनिया के अन्य हिस्सों से लकड़ी पर जुड़े पत्थर के औज़ार मिले हैं। इस स्थल की और अधिक खुदाई से यह भी पता चल सकता है कि क्या लकड़ी का परिरक्षण किया जाता था।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://static01.nyt.com/images/2023/09/26/science/20SCI-wood-01/20SCI-wood-01-mediumSquareAt3X.jpg

जर्मनी के सुअरों में परमाणु परीक्षणों के अवशेष हैं

र्मनी के बावेरियन पर्वत के इलाके में जंगली सुअर इतने रेडियोसक्रिय हैं कि उन्हें भोजन की दृष्टि से असुरक्षित घोषित कर दिया गया है। लेकिन इनमें यह रेडियोसक्रियता आई कहां से? एंवायर्मेंटल साइन्स एंड टेक्नॉलॉजी में प्रकाशित एक अध्ययन में वैज्ञानिकों ने बताया है कि इनके शरीर में यह रेडियोसक्रियता उन परमाणु परीक्षणों का परिणाम है जो आज से 60 साल पहले हुए थे। परमाणु हथियारों के परीक्षण के पर्यावरणीय व स्वास्थ्य सम्बंधी असर का अध्ययन बहुत कम किया गया है और प्राय: इन्हें भुला दिया गया है।

बावेरिया के जंगली सुअरों में रेडियोसक्रियता के इतने लंबे समय तक बने रहने का दोष अक्सर 1986 की चेर्नोबिल दुर्घटना को दे दिया जाता है। गौरतलब है कि चेर्नोबिल इस इलाके से करीब 1300 किलोमीटर दूर है। दुर्घटना के फौरन बाद रेडियोसक्रिय पदार्थ वातावरण में फैला और बावेरिया व अन्यत्र जंगली जानवरों में रेडियोसक्रिय सीज़ियम पहुंच गया। समय के साथ अधिकांश जानवरों में तो रेडियोसक्रियता कम होती गई लेकिन जंगली सुअरों में नहीं। वैज्ञानिकों का मानना है कि इसका कारण यह है कि ये जंगली सुअर ट्रुफल मशरूम (कुकुरमुत्ते) खाना बहुत पसंद करते हैं। रेडियोसक्रिय कण मिट्टी में रिसते हैं और फिर मशरूम में संग्रहित होते रहते हैं। ये जंगली सुअर इन्हीं रेडियोधर्मी मशरूम को खाते हैं।

लेकिन इस कथानक को लेकर कई लोगों को संदेह था। उन्हें लगता था कि शायद चेर्नोबिल हादसा जंगली सुअरों में पाई गई उच्च रेडियोसक्रियता की पूरी व्याख्या नहीं कर सकता। लीबनिज़ विश्वविद्यालय के रेडियो-पारिस्थितिकीविद बिन फेंग का ख्याल था कि, हो न हो, ये जानवर उन परमाणु शस्त्र परीक्षणों के परोक्ष शिकार हैं, जो 1960 के दशक में अपने चरम पर थे। शीत युद्ध के दौरान दुनिया भर में 5000 से ज़्यादा परमाणु बमों का परीक्षण किया गया था और इनमें से 500 तो सीधे वातावरण में फोड़े गए थे। इनसे जो रेडियोधर्मी कण फैले वे अंतत: वापिस धरती पर पहुंचे थे। उपरोक्त अध्ययन के एक अन्य शोधकर्ता जॉर्ज स्टाइनहौसर का कहना है कि आज ये कण मिट्टी में सर्वत्र मौजूद हैं।

फेंग और उनके साथियों ने शिकारियों के साथ काम करते हुए इस इलाके के 48 सुअरों का मांस इकट्ठा किया और उनमें रोडियोधर्मी सीज़ियम का स्तर नापा। पाया गया कि 88 प्रतिशत नमूने खाने के अयोग्य हैं।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने इन नमूनों में समस्थानिकों की छानबीन की। उनकी दिलचस्पी खास तौर से दो समस्थानिकों में थी – सीज़ियम-137 और सीज़ियम-135। इनका अनुपात रेडियोसक्रियता के स्रोत के अनुसार अलग-अलग होता है – यानी इनका अनुपात इस बात पर निर्भर करता है कि यह रेडियोसक्रियता किसी परमाणु बिजलीघर से आई है या परमाणु विस्फोट से आई है।

शोधकर्ताओं ने अध्ययन से निष्कर्ष निकाला कि सारे सुअरों के मांस में रोडियोसक्रियता चेर्नोबिल और परमाणु हथियारों का मिला-जुला परिणाम है। परमाणु विस्फोटों से आई रेडियोसक्रियता का अंश काफी अलग-अलग था – 10 से 99 प्रतिशत तक। कम से कम एक-चौथाई सुअरों में परमाणु बमों की वजह से ही इतनी रेडियोसक्रियता आई है कि वे खाने योग्य नहीं रह गए हैं। इतने वर्षों तक रेडियोसक्रियता के टिके रहने का कारण यह हो कि जंगल की मिट्टी में कणों के नीचे बैठने की रफ्तार कम होती है।

रेडियोसक्रियता के टिके रहने के अन्य परिणाम भी हो सकते हैं। जैसे, इस इलाके में जंगली सुअर के मांस की खपत काफी कम हो गई है। यदि खपत कम होगी तो शिकारी इन्हें पकड़ेंगे नहीं। इस तरह इनकी आबादी बेलगाम ढंग से बढ़ने का खतरा है, जिसका असर जंगल की पारिस्थितिकी पर भी होगा।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://d.newsweek.com/en/full/2142199/atomic-bomb-pig-looking.jpg

जापान बना रहा अपना घरेलू चैटजीपीटी

न दिनों जापानी शोधकर्ता ओपनएआई द्वारा निर्मित प्रसिद्ध चैटजीपीटी के समान अपने स्वयं के एआई चैटबॉट विकसित करने के प्रयास कर रहे हैं। इस महत्वाकांक्षी परियोजना का उद्देश्य एआई सिस्टम को जापानी भाषा और संस्कृति की बारीकियों के अनुरूप विकसित करना है ताकि जापानी उपयोगकर्ताओं इसका अधिक सहजता से उपयोग कर सकें। इसके लिए जापान सरकार और कई तकनीकी कंपनियां निवेश कर रही हैं।

गौरतलब है कि वर्तमान विशाल भाषा मॉडल (एलएलएम) अंग्रेज़ी में काम करने के लिए विकसित किए गए हैं। ये मॉडल अन्य भाषाओं में अनुवाद तो करते हैं लेकिन अंग्रेज़ी और जापानी भाषा की वाक्य संरचनाएं बहुत अलग-अलग होती हैं, और अंग्रेज़ी-जापानी मशीनी अनुवाद गलत-सलत होता है। जब चैटजीपीटी से जापानी (या किसी अन्य भाषा) में प्रश्न किए जाते हैं तो यह उनका अंग्रेज़ी अनुवाद करके जवाब तैयार करता है और फिर इनका जापानी में अनुवाद करके जवाब पेश करता है। इस एआई-जनित इबारत में विचित्र अक्षर और अजीब वाक्यांश वाला पाठ प्राप्त होता है जिससे उपयोगकर्ता को अपेक्षित परिणाम नहीं मिलता।

जापान द्वारा तैयार किए गए वर्तमान एलएलएम की सांस्कृतिक उपयुक्तता और सुलभता का मूल्यांकन करने के लिए शोधकर्ताओं ने राकुडा नामक रैंकिंग प्रणाली विकसित की है जो जापानी सवालों पर एलएलएम की प्रतिक्रियाओं का आकलन करती है। इस आधार पर शोधकर्ताओं को जापानी एलएलएम में निरंतर सुधार देखने को तो मिला है लेकिन प्रदर्शन के मामले में यह अभी भी जीपीटी-4 के पीछे है। फिर भी विशेषज्ञों को उम्मीद है कि जापानी एलएलएम भविष्य में जीपीटी-4 की क्षमता की बराबरी कर पाएगा।

इस घरेलू एलएलएम को प्रशिक्षित करने के लिए जापान ने तेज़ कंप्यूटर फुगाकू सुपरकंप्यूटर का उपयोग किया। इस ओपन-सोर्स जापानी एलएलएम का लक्ष्य कम से कम 30 अरब गुणधर्म शामिल करना है। इसके अलावा जापान का शिक्षा, संस्कृति, खेल, विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय भी एक जापानी एआई कार्यक्रम को वित्त पोषित कर रहा है। विशेषज्ञों को उम्मीद है कि 100 अरब मापदंडों से सुसज्जित यह एआई मॉडल वैज्ञानिक अनुसंधान में एक बड़ा परिवर्तन ला सकता है। परिकल्पनाओं के निर्माण और अनुसंधान लक्ष्यों की पहचान करके यह अनुसंधान कार्यों में काफी तेज़ी ला सकता है।

कई जापानी कंपनियां व्यावसायीकरण में कदम बढ़ा रही हैं। सुपरकंप्यूटर निर्माता एनईसी ने जापानी भाषा आधारित जनरेटिव एआई का उपयोग करना शुरू किया है। इससे आंतरिक रिपोर्ट और सॉफ्टवेयर स्रोत कोड बनाने में समय की काफी बचत हुई है। दूरसंचार कंपनी सॉफ्टबैंक स्वयं का एलएलएम लॉन्च करने वाली है जो मुख्य रूप से विश्वविद्यालयों, अनुसंधान संस्थानों और संगठनों के लिए तैयार किया गया है।

जापानी एआई चैटबॉट के विकास की अपार संभावनाएं हैं। यह शोध कार्यों को तेज़ी से आगे बढ़ाने और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देने की क्षमता रखता है। विशेषज्ञ इसे जापान और इसकी समृद्ध संस्कृति को समझने के इच्छुक लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन के रूप में देखते हैं। जापान द्वारा स्वयं का चैटजीपीटी एक वैश्विक रुझान का उदाहरण है जो विशिष्ट भाषाई और सांस्कृतिक संदर्भों के लिए एआई को अनुकूलित करता है। यह एक ऐसे भविष्य का संकेत है जहां एआई अधिक समावेशी, प्रभावी और दुनिया भर की विविध संस्कृतियों में सामंजस्यपूर्ण रूप से एकीकृत होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://img.kyodonews.net/english/public/images/posts/0416de6f5ecb233a7ca9e6b8fef049e9/photo_l.jpg

प्राचीन मानव मज़े के लिए भी पत्थर तराशते थे

वैज्ञानिकों को 1960 के दशक में उत्तरी इस्राइल के 14 लाख साल पुराने एक पुरातात्विक स्थल ‘उबेदिया’ की खुदाई में पत्थरों के औज़ारों (जैसे कुल्हाड़ी वगैरह) के साथ कंचे जितने बड़े करीब 600 पत्थर के गोले भी मिले थे। लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि ये गोले कैसे और किसलिए बनाए गए थे। कुछ लोगों का अनुमान था कि ये गोले औज़ार बनाते वक्त बचे हुए पत्थर हैं। कुछ का विचार था कि, हो न हो, ये जानबूझकर बनाए गए होंगे।

इस गुत्थी को सुलझाने के लिए हिब्रू युनिवर्सिटी ऑफ जेरूसलम के कंप्यूटेशनल पुरातत्वविदों के एक दल ने इन ‘गोलाभों’ की त्रि-आयामी आकृति का विश्लेषण किया। इसके लिए उन्होंने एक नया, परिष्कृत सॉफ्टवेयर विकसित किया। यह सॉफ्टवेयर गोलाभ की सतह की कटानों के ढलानों (कोण) को माप सकता था, सतह की वक्रता की गणना कर सकता था, और संहति केंद्र पता कर सकता था। इस सॉफ्टवेयर की मदद से उन्होंने उबेदिया से प्राप्त 150 गोलाभों का विश्लेषण किया। इस आधार पर शोधकर्ता रॉयल सोसाइटी ओपन साइंस में लिखते हैं कि उबेदिया से प्राप्त गोलाभ इरादतन की गई शिल्पकला हैं, ना कि औज़ार बनाने के सहत्पाद। उन्हें प्रत्येक कंचे में एक बड़ी ‘प्राथमिक सतह’ मिली है जो आसपास से कई छोटे कटानों से घिरी है, इससे समझ आता है कि पहले किसी चट्टान से एक टुकड़ा काटकर अलग किया गया और फिर उस टुकड़े को चारों ओर से तराशकर गोल स्वरूप दिया गया।

शोधकर्ता बताते हैं कि इस बात की संभावना बहुत कम है कि ये कंचे प्राकृतिक क्रियाओं द्वारा बने होंगे। प्राकृतिक क्रियाओं से बनी संरचनाओं की सतह काफी चिकनी होती है। उदाहरण के लिए, नदियों में पाए जाने वाले पत्थर पानी द्वारा कटाव के कारण अत्यधिक चिकने हो जाते हैं, और वे पूर्ण गोलाकार भी नहीं होते। उबेदिया में पाए जाने वाले गोलाभों की सतह वैसी खुरदरी है जैसे किसी पत्थर को तराशने में होती है। और उनमें से कई कंचे तो एकदम गोल हैं, जो केवल कोई सोच-समझकर ही बना सकता है।

शोध के प्रमुख लेखक एंटोनी मुलर बताते हैं कि ऐसा लगता है कि 14 लाख साल पहले होमिनिन्स के पास अपने मन (दिमाग) में एक गोले की कल्पना करने और उस कल्पना को तराशकर आकार देने की क्षमता थी। ऐसा करने के लिए एक योजना और दूरदर्शिता के साथ-साथ मानवीय निपुणता और कौशल लगते हैं। इसके अलावा यह उनमें सुंदरता और सममिति की सराहना के उदाहरण भी पेश करता है।

अपने सॉफ्टवेयर से शोधकर्ता यह तो पता कर पाए कि प्राचीन मनुष्यों ने इन्हें कैसे बनाया लेकिन वे यह गुत्थी नहीं सुलाझा पाए कि इन्हें क्यों बनाया। लेकिन उनका अनुमान है कि उन्होंने ये गोले महज़ मज़े के लिए बनाए होंगे।

अन्य वैज्ञानिकों की टिप्पणी है इन गोलाभ की सतह पर बने कई निशानों से यह जानना असंभव हो जाता है कि निर्माण के शुरुआती चरणों में गोलाभ कैसे दिखते होंगे। उनका सुझाव है कि शोधकर्ता यदि अंतिम रूप ले चुके गोलाभों की आपस में तुलना करने की बजाय उन गोलाभों से करते जिन्हें गोलाभ बनाने की प्रक्रिया में अधूरा छोड़ दिया गया था तो अधिक स्पष्ट तस्वीर बन सकती थी।

इसके अलावा इस नई तकनीक की विश्वसनीयता परखने के लिए इसे अन्य पुरानी कलाकृतियों, जैसे अफ्रीका के खुदाई स्थलों से प्राप्त 20 लाख साल पुराने गोलाभों पर लागू करके देखना फायदेमंद होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://images.newscientist.com/wp-content/uploads/2023/09/05140822/SEI_170211664.jpg?width=1200

भारत में ‘अनाथ रोगों’ के बहुत कम मामले दर्ज होते हैं – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

स्वास्थ्य के बारे में हमारी अधिकांश चर्चा उन चंद आम बीमारियों तक सिमटी होती है जिनसे हमारे परिचित पीड़ित होते हैं – डायबिटीज़ संभवत: इन बीमारियों की सूची में सबसे ऊपर है। यद्यपि, कई बीमारियां ऐसी हैं जो बिरले (किसी-किसी को) ही होती हैं, लेकिन इनका प्रभाव/परिणाम पीड़ितों और उनके परिवारों के लिए भयावह हो सकता है।

दुर्लभ बीमारी की सबसे सामान्य परिभाषा है कि प्रति 10,000 लोगों में जिसका एक मामला मिले। इनके लिए ‘अनाथ रोग’ शब्द कई कारणों से उपयुक्त है। दुर्लभ होने के कारण इनका निदान/पहचान करना कठिन होता था, क्योंकि कई युवा चिकित्सकों ने संभवत: इनका एक भी मामला नहीं देखा होता था। इसी कारण से इन पर अधिक शोध नहीं हुए थे, जिसके कारण अक्सर इनके उपचार भी उपलब्ध नहीं होते थे।

यह स्थिति अब बदल रही है क्योंकि बीमारियों के बारे में जागरूकता और उनके निदान के लिए जीनोमिक तकनीकें बढ़ गई है। कई देशों में नियामक संस्थाएं उपेक्षित बीमारियों की औषधि के विकास हेतु निवेश को बढ़ावा देने के लिए प्रोत्साहन भी देती हैं। उम्मीद के मुताबिक, इस तरह के कदमों से ‘अनाथ रोगों’ की औषधियों’ में रुचि बढ़ गई है। वर्ष 2009 से 2014 के बीच, यूएस के खाद्य व औषधि प्रशासन (एफडीए) द्वारा औषधियों/उपचारों को दी गई सभी मंज़ूरियों में से आधी दुर्लभ बीमारियों और कैंसर के लिए थीं। अलबत्ता, इन उपचारों की कीमतें, खासकर भारत के दृष्टिकोण से, पहुंच से परे हैं। अनुमान है कि इनका खर्च प्रति वर्ष 10 लाख रुपए से 2 करोड़ रुपये के बीच है।

रोगी समूहों द्वारा पहल

वैश्विक आंकड़े बताते हैं कि ऐसी लगभग 7000 दुर्लभ बीमारियां हैं जो 30 करोड़ लोगों को प्रभावित करती हैं। उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर गणना से पता चलता है कि भारत में ऐसे 7 करोड़ मामले होने चाहिए। लेकिन भारत के अस्पतालों ने अब तक इनमें से 500 से भी कम बीमारियों की सूचना दी है। जिन समुदायों में ये दुर्लभ बीमारियां होती हैं, उनके बारे में रोगप्रसार विज्ञान सम्बंधी पर्याप्त डैटा उपलब्ध नहीं है। इन विकारों की पुष्टि करने के लिए अक्सर परिष्कृत नैदानिक जीनोमिक्स उपकरणों की आवश्यकता होती है। दुर्लभ बीमारियों के इलाज के लिए सरकार की राष्ट्रीय नीति (NPRD) ने हाल ही में अपना असर दिखाना शुरू किया है। हमारे देशों में प्रचलित बीमारियों में सिस्टिक फाइब्रोसिस, हीमोफीलिया, लाइसोसोमल स्टोरेज विकार, सिकल सेल एनीमिया आदि शामिल हैं।

‘अनाथ रोगों’ के सम्बंध में नागरिकों की पहल भारत की प्रगति की एक और उल्लेखनीय बात है। इसका एक अच्छा उदाहरण है DART, डिस्ट्रॉफी एनाइलेशन रिसर्च ट्रस्ट, जो डुख्ने पेशीय अपविकास से पीड़ित रोगियों के माता-पिता द्वारा बनाया गया है। इस बीमारी में, तीन साल की उम्र से कूल्हे की मांसपेशियां कमज़ोर होने लगती हैं। इस ट्रस्ट ने जोधपुर स्थित आईआईटी और एम्स के साथ मिलकर इस अपविकास के लिए एक कुशल और व्यक्तिपरक एंटीसेंस ऑलिगोन्यूक्लियोटाइड (ASO) आधारित उपचारात्मक आहार का क्लीनिकल परीक्षण शुरू किया है।

कुष्ठ मुक्त भारत

प्रति 10,000 लोगों में 0.45 मामले मिलने की दर के साथ भारत में कुष्ठ रोग अब एक दुर्लभ बीमारी मानी जाती है। लेकिन इस बीमारी के प्रसार को थामने के लिए अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। कुष्ठ रोग इस बात का एक अच्छा उदाहरण है कि किस तरह ‘अनाथ रोगों’ पर शोध के सामाजिक लाभ हो सकते हैं। सिंथेटिक एंटीबायोटिक रिफापेंटाइन, जिसका व्यापक रूप से उपयोग तपेदिक (टीबी) के खिलाफ किया जाता है, पर हालिया शोध से पता चला है कि इस दवा की एक खुराक जब कुष्ठ रोगियों के घरवालों को दी गई तो इसने चार साल की अध्ययन अवधि में उन लोगो में कुष्ठ रोग के प्रसार को काफी कम कर दिया था। यह अध्ययन न्यू इंग्लैण्ड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित हुआ है। इस तरह के निष्कर्ष हमारी सरकार के 2027 तक कुष्ठ रोग मुक्त भारत के लक्ष्य को हासिल करने में मदद कर सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://th-i.thgim.com/public/news/national/ku9or0/article67286545.ece/alternates/LANDSCAPE_1200/iStock-458566037.jpg

सिर्फ मनुष्य ही मोटे नहीं होते

मोटापे की समस्या हम मनुष्यों के लिए तो अब आम बात हो गई है। कई बार तो हमें सबसे मोटा प्राइमेट भी कहा जाता है और इसके लिए लंबे समय से वैज्ञानिक या तो हमारे उन जीन्स को दोष देते आए हैं जो हमें अधिक वसा संग्रहित करने में मदद करते हैं, या फिर हमारे मीठे और तले-भुने खाने की आदत को।

लेकिन यदि आप कांगो गणराज्य जाएंगे तो पाएंगे कि वहां चिम्पैंज़ी इतने मोटे होते हैं कि उन्हें पेड़ों पर चढ़ने में परेशानी होती है, या वर्वेट बंदर इतने मोटे मिलेंगे कि एक शाखा से दूसरी शाखा पर छलांग लगाते हुए वे हाफंने लगेंगे।

और अब गैर-मानव प्राइमेट्स की 40 प्रजातियों (छोटे माउस लीमर्स से लेकर हल्किंग गोरिल्ला तक) पर हुए एक नए अध्ययन में पाया गया है कि अतिरिक्त भोजन मिलने पर इन प्रजातियां में भी उतनी ही आसानी से वज़न बढ़ जाता है जितनी आसानी से हम मनुष्य मोटे हो जाते हैं।

कुछ वैज्ञानिकों का मानना था कि हमारी प्रजाति (होमो सैपिएन्स) ही मोटापे से ग्रसित है क्योंकि हमारे पूर्वज कैलोरी का भंडारण बहुत दक्षता से करने के लिए विकसित हुए थे। इस विशेषता से हमारे प्राचीन खेतिहर सम्बंधियों को अक्सर पड़ने वाले अकाल के समय इस संग्रहित वसा से मदद मिलती होगी। कहा यह गया कि इसी चीज़ ने हमें बाकी प्राइमेट्स से अलग किया।

लेकिन देखा जाए तो अन्य प्राइमेट भी मोटाते हैं। कांजी नामक बोनोबो वानर शोध-अनुसंधानों के दौरान केले, मूंगफली और अन्य व्यंजनों से पुरस्कृत होकर अपनी प्रजाति के औसत से तीन गुना अधिक वज़नी हो गया था। इसी प्रकार से, बैंकॉक की सड़कों पर अंकल फैटी नामक मकाक वानर भी इसी का उदाहरण है जो पर्यटकों द्वारा दिए गए मिल्कशेक, नूडल्स और अन्य जंक फूड खा-खाकर मोटा हो गया था; वज़न औसत से तीन गुना अधिक (15 किलोग्राम) था।

ये वानर अपवादस्वरूप मोटे हुए थे या इनमें भी मोटे होने की कुदरती संभावना होती है, यह जानने के लिए ड्यूक युनिवर्सिटी के जैविक नृविज्ञानी हरमन पोंटज़र ने चिड़ियाघरों, अनुसंधान केंद्रों और प्राकृतिक हालात में रहने वाले गैर-मानव प्राइमेट्स की 40 प्रजातियों के कुल 3500 जानवरों का प्रकाशित वज़न देखा और उसका विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि बंदी अवस्था (चिड़ियाघर वगैरह) में रखे गए कई जानवरों के वज़न औसत से अधिक थे। बंदी अवस्था में 13 प्रजातियों की मादा और छह प्रजातियों के नर जानवरों का वज़न प्राकृतिक की तुलना में औसतन 50 प्रतिशत अधिक था।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने पश्चिमी आहार पाने वाले लगभग 4400 अमेरिकी वयस्कों (मनुष्यों)का वज़न देखा। तुलना के लिए नौ ऐसे समुदाय के वयस्कों का वज़न देखा जो भोजन संग्रह और शिकार करते हैं, या अपना भोजन खुद उगाते हैं। शोधकर्ताओं ने पाया कि कद को ध्यान में रखें तो अमेरिकी लोग इन समुदाय के लोगों से 50 प्रतिशत अधिक वज़नी हैं।

फिलॉसॉफिकल ट्रांज़ेक्शन ऑफ रॉयल सोसायटी बी में प्रकाशित नतीजे बताते हैं कि हालांकि जेनेटिक कारणों से कुछ व्यक्तियों में मोटापे का खतरा बढ़ सकता है, लेकिन हमारा बज़न बढ़ना बाकी प्राइमेट्स से भिन्न नहीं है। पोंटज़र कहते हैं कि वज़न बढ़ने के पीछे कार्बोहाइड्रेट्स या किसी विशेष भोजन को दोष न दें। जंगली प्राइमेट अपने बंदी साथियों की तुलना में कहीं अधिक कार्बोहाइड्रेट खाते हैं, जबकि बंदी जानवर अधिक कैलोरी-अधिक प्रोटीन वाला भोजन खाते हैं। दोनों समूहों के दैनिक व्यायाम सम्बंधी गतिविधियों में अंतर के बावजूद दोनों समूह के जानवर प्रतिदिन समान मात्रा में कैलोरी खर्च करते हैं। इसलिए ऐसी बात नहीं है कि बंदी जानवर इसलिए मोटे हैं कि वे बस आराम से पड़े रहते हैं और खाते रहते हैं।

अध्ययन सुझाता है कि बंदी प्राइमेट मानव मोटापे को समझने के लिए अच्छे मॉडल हो सकते हैं, इनसे मोटापे के इलाज के नए तरीके खोजने में मदद मिल सकती है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adk7150/full/_20230905_on_obese_primates-1694013359297.jpg

पतंगों की साइज़ के चमगादड़

हाल ही में शोधकर्ताओं ने फिजी के दूर-दराज द्वीप वनुआ बालावु पर पतंगों की साइज़ के चमगादड़ों का नया आवास खोज निकाला है। इस अभियान में शोधकर्ताओं को न सिर्फ प्रशांत द्वीप में सबसे अधिक चमगादड़ आबादी (तकरीबन 2000 से 3000) वाली गुफा मिली है बल्कि विलुप्ति की ओर अग्रसर इस जीव को बचाने के प्रति कुछ आशा भी जगी है।

गैर-मुनाफा संगठन कंज़र्वेशन इंटरनेशनल के नेतृत्व में किए गए इस अभियान में शोधकर्ता चमगादड़ों की गुफा तक स्थानीय लोगों की मदद से पहुंचे। यह एक गिरजाघर जितनी बड़ी कंदरा थी। यहीं उन्हें ठसाठस भरे म्यान जैसी पूंछ वाले चमगादड़ (एम्बालोनुरा सेमिकॉडैटा सेमीकॉडैटा) मिले।

इन चमगादड़ों के फर मुलायम, चॉकलेटी-भूरे रंग के होते हैं। ये चार सेंटीमीटर लंबे होते हैं और इनका वज़न अधिक से अधिक पांच ग्राम तक होता है। ये छोटे-छोटे कीटों को खाते हैं। मनुष्यों द्वारा प्रशांत महासागर पार करने और इन द्वीपों पर बसने से कुछ लाख साल पहले ये चमगादड़ उड़कर आए और यहां बस गए थे।

गौरतलब है कि प्रशांत द्वीप समूहों पर चमगादड़ों की 191 प्रजातियां ज्ञात हैं; इनमें कीटभक्षी चमगादड़ से लेकर पेड़ों पर लटकने वाले और फलाहारी उड़न-लोमड़ी चमगादड़ तक रहते हैं। इस क्षेत्र में लोग चमगादड़ों की विष्ठा (गुआनो) उर्वरक के तौर पर इकट्ठा करते हैं तथा भोजन के लिए उनका शिकार करते हैं। यहां तक कि सोलोमन द्वीप के लोग इनके दांतों का उपयोग पारंपरिक मुद्रा के रूप में भी करते हैं। इसके अलावा, कीटभक्षी चमगादड़ अपने आसपास के पारिस्थितिक तंत्र में फसल के कीटों और रोग फैलाने वाले मच्छरों को नियंत्रित करके महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

म्यान जैसी पूंछ वाले चमगादड़ किसी समय प्रशांत क्षेत्र में सबसे अधिक पाए जाने वाले स्तनधारियों में से थे, लेकिन अब इन पर विलुप्ति का संकट सबसे अधिक है। करीब सौ साल पहले तक ये गुआम से लेकर अमेरिकी समोआ तक पाए जाते थे। लेकिन आज महज चार उप-प्रजातियां माइक्रोनेशिया और फिजी के ही कुछ द्वीपों पर बची हैं और इनकी संख्या लगातार घट रही है।

चमगादड़ों के कुछ महत्वपूर्ण बसेरे अब पूरी तरह से चमगादड़ विहीन हो गए हैं। 2018 में वनुआ बालावु से लगभग 120 कि.मी. उत्तर-पश्चिम में तवेउनी द्वीप पर एक गुफा में लगभग 1000 ऐसे चमगादड़ मिले थे लेकिन 2019 तक जंगलों के सफाए के कारण चंद सैकड़ा ही बचे थे।

इस अभियान से जुड़ी संरक्षण विज्ञानी सितेरी टिकोका का कहना है कि वनुआ बालावु की गुफा में ऐसा भरा-पूरा चमगादड़ का बसेरा मिलना सुखद था; इसने इनके बचने की आशा को फिर से जगा दिया है। लेकिन तवेउनी की स्थिति से सबक लेना चाहिए, जहां हम देख चुके हैं कि सिर्फ एक वर्ष में ही स्थिति कितनी बदल सकती है। यदि हमने इनके संरक्षण के लिए ज़रूरी कदम तत्काल नहीं उठाए तो ये चमगादड़ पूरी तरह लुप्त हो जाएंगे। स्थानीय लोगों का सहयोग भी ज़रूरी है क्योंकि स्पष्ट है कि स्थानीय लोगों ने ही इस जगह, इन गुफाओं और चमगादड़ों की देखभाल की है और बचाए रखा है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/sciam/cache/file/4544A3F3-741A-45D8-A708FB1BF8C38890.jpg