हमें रेल्वे स्टेशनों पर मंडराते चूहे या घर की रसोई में विचरते कॉकरोच (cockroach infestation) तो खूब नज़र आते हैं और हम मान लेते हैं कि ये शहरी नाशी-कीटों (urban pests) में सर्वोपरि हैं। लेकिन हाल ही में बायोलॉजीलेटर्स में प्रकाशित एक अध्ययन कहता है कि इन सबसे पहले खटमल (bed bugs) ने शहरी बस्तियों को त्रस्त किया था। जी हां, वही खटमल जो ट्रेन की सीटों में, टॉकीज़ों में और घरों के बिस्तरों (mattress pests) में रहता है और खून चूसता है।
खटमलों की कई प्रजातियां हम पर आश्रित हैं और उनका जीवन हमारा खून पीकर ही चलता है। लेकिन जेनेटिक साक्ष्य बताते हैं सुदूर अतीत में खटमलों का पसंदीदा, या शायद एकमात्र, शिकार चमगादड़ हुआ करते थे। जेनेटिक प्रमाण यह भी बताते हैं कि लगभग 2 लाख 45 हज़ार वर्ष पूर्व कुछ खटमलों ने छलांग लगाकर मनुष्यों को अपना पोषक (evolution of bed bugs) बना लिया।
कहते हैं कि इस छलांग के चलते खटमलों के दो वंश उभरे थे – एक जो चमगादड़ों का खून चूसते रहे और मुख्य रूप से गुफाओं तथा युरोप और मध्य पूर्व के प्राकृत वासों में बसे रहे। दूसरे वंश ने आधुनिक बस्तियों में मनुष्य को ‘साथी’ बनाया (human-host bed bugs)।
इस प्रक्रिया को समझने के प्रयास में वर्जीनिया पोलीटेक्निक इंस्टीट्यूट (Virginia Tech) के जीव वैज्ञानिक वॉरेन बूथ और उनके साथियों ने चेक गणतंत्र में रहने वाले आम खटमलों की 19 किस्मों (10 चमगादड़ों का खून चूसने वाले और 9 पूर्णत: मनुष्यों पर आश्रित) के संपूर्ण जीनोम्स का विश्लेषण (genome analysis) किया। इन दो समूहों के डीएनए में हुए उत्परिवर्तनों की तुलना की और यह मॉडलिंग किया इस तरह के परिणाम आने के लिए प्रत्येक समूह की आबादी (population genetics of parasites) कितनी रही होगी। इस आधार पर बूथ समूह ने अनुमान लगाया कि प्रत्येक खटमल किस्म की आबादी में दसियों हज़ार सालों में कैसे उतार-चढ़ाव आए होंगे। उन्होंने पाया कि चमगादड़-सम्बंधी खटमलों की आबादी 60,000 सालों तक निरंतर घटती गई जबकि मानव सम्बंधी वंशों की आबादी भी 60,000 साल पहले घटी थी लेकिन 13,000 साल पहले और 7000 साल पहले यह फिर से बढ़ी (human settlements and pest evolution) थी।
इस परिवर्तन के कारण के तौर पर बूथ की टीम का मत है कि ठंडी होती जलवायु ने खटमलों की आबादी में शुरुआती गिरावट पैदा की लेकिन जब मनुष्य घुमंतू जीवन शैली छोड़कर बसने लगे (early human settlements) तो खटमलों ने नए आरामदायक जीवन का फायदा उठाया और उनकी आबादी बढ़ी। और 7000 साल पहले तो बड़ी शहरी बस्तियों (urban development) के विकास ने उन्हें एक और मौका दे दिया। यदि यह कालक्रम सही है, तो खटमल को दुनिया का सबसे पहला शहरी नाशी-कीट (world’s first urban pest)होने का खिताब मिलेगा जो पूरी तरह मनुष्यों पर आश्रित हैं। तुलना के लिए देखें कि कॉकरोच ने हमसे निकट सहवासी सम्बंध मात्र 2000 साल पहले तथा काले चूहे (black rats) ने मात्र 5000 साल पहले स्थापित किया है। खटमल तो हमारा खून तब से चूसते आ रहे हैं जब हमारे पूर्वज बस्तियां बनाकर रहने लगे थे। वैसे, कई शोधकर्ताओं का मत है कि खटमल को यह खिताब देने से पहले यह समझना होगा कि कई अन्य जंतुओं को लेकर ऐसे अध्ययन हुए ही नहीं हैं (pest history research gap)। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.zx58hd7/full/_20250527_on_bedbugspet-1748387389900.jpg
खुशबूएं हमारे चारों ओर बिखरी हुई (fragrance) हैं। रसोई के मसालों से लेकर डीज़ल-पेट्रोल में, फूलों की बगिया से लेकर पूजा की अगरबत्ती में, डिटर्जेंट से लेकर नहाने के साबुन-शैम्पू में और डियो-परफ्यूम (perfume) से लेकर बॉडी लोशन (body lotion) तक में… और अब, इन खुशबुओं, खासकर लोशन-परफ्यूम की खुशबुओं, के बारे में एक ताज़ा अध्ययन बताता है कि खुशबुएं हमें ताज़गी देने के अलावा हमारी आसपास की हवा (indoor air quality) को भी बदल सकती हैं, और हमारे चारों ओर बने वायु कवच को कमज़ोर कर सकती हैं। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इस कवच के कमज़ोर होने के फायदे हैं या नुकसान।
दरअसल हमारी त्वचा के तेल के अणु जब हमारे निकट वायु में मौजूद ओज़ोन (ozone) के संपर्क में आते हैं तो वे अत्यधिक क्रियाशील हाइड्रॉक्सिल रेडिकल्स (hydroxyl radicals) बनाते हैं। ये क्रियाशील अणु हवा में मौजूद अन्य गैसों से क्रिया करते हैं, जिससे हमारे चारों ओर रेडिकल्स की एक धुंध (कवच) (human oxidation field) सी बन जाती है। इस धुंध को मानव ऑक्सीकरण क्षेत्र कहते हैं।
लेकिन, यह सवाल था कि क्या क्रीम-पावडर हमारे आसपास की हवा को बदल सकते हैं? कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (University of California) के रसायनज्ञ मनाबू शिराइवा और उनके सहयोगियों ने इसी बात का अध्ययन किया।
उन्होंने प्रतिभागियों के दो समूह बनाए। एक समूह के प्रतिभागियों के हाथ पर व्यावसायिक खूशबूदार क्रीम (fragranced cream) लगाया और दूसरे समूह के लोगों के शरीर के किसी भी खुले हिस्से पर बगैर खुशबू वाला लोशन (unscented lotion) लगा दिया। यह करने के बाद उन्हें एक ऐसे कमरे में 2-4 घंटे के लिए बैठाया जहां ओज़ोन का स्तर 40 पार्ट्स प्रति बिलियन (ozone 40 ppb) था। यह यूएस में प्रदूषण के मानक स्तर से कम ही था।
इसके बाद शोधकर्ताओं ने कक्ष की हवा में मौजूद अणुओं की पहचान की, अनुमान लगाया कि पदार्थों का यह मिश्रण उत्पन्न करने के लिए कैसी रेडिकल अभिक्रियाएं हुई होंगी। देखा गया कि जब प्रतिभागियों ने शरीर पर लोशन या परफ्यूम लगाया था तो उनके शरीर ने कम हाइड्रॉक्सिल रेडिकल (hydroxyl radical reduction) बनाए थे। खासकर परफ्यूम (perfume effect) लगाने पर शरीर के आसपास हाइड्रॉक्सिल रेडिकल्स की सांद्रता 86 प्रतिशत तक घट गई थी।
लेकिन अभी यह देखना बाकी है कि कम हाइड्रॉक्सिल रेडिकल्स हमारे ऊपर क्या और कैसा (अच्छा या बुरा) प्रभाव डालते हैं। यदि हाइड्रॉक्सिल रेडिकल्स अन्य अणुओं के साथ अभिक्रिया करके विषाक्त पदार्थ (toxic compounds) बनाते हैं तो इनका कम होना हमारे लिए फायदेमंद होगा। लेकिन यदि ये अभिक्रिया करके हमारे आसपास की खतरनाक गैसों (air pollutants) को कम करते हैं तो इनकी कमी हमारे लिए जोखिमपूर्ण (health impact) हो सकती है।
लेकिन समस्या तो यह है कि खुशबुएं सिर्फ साबुन, फिनाइल, रूमफ्रेशनर जैसी कृत्रिम चीज़ों से ही नहीं बल्कि रसोई के मसालों, फूलों वगैरह से भी फैलती (natural fragrances) है। ऐसे में फिलहाल कोई स्पष्ट सलाह देना मुनासिब नहीं है। बहरहाल, भविष्य के अध्ययनों में साबुन-शैम्पू जैसे उत्पाद शामिल किए जा सकते हैं। साथ ही यह भी देखा जा सकता है कि इन उत्पाद का यह असर कितने समय तक बना रहता है। (स्रोत फीचर्स)
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औद्योगिक स्तर पर व्हेल का शिकार शुरू होने से बहुत पहले ही प्राचीन मानव (ancient humans) व्हेल के मृत शरीर का इस्तेमाल करने लगे थे। नेचरकम्युनिकेशंस (Nature Communications) में प्रकाशित एक हालिया शोध के मुताबिक, आज से लगभग 20,000 साल पूर्व फ्रांस और स्पेन के तटीय इलाके (Bay of Biscay) में रहने वाले लोग व्हेल की हड्डियों से औज़ार (whale bone tools) और हथियार बनाते थे।
वैज्ञानिकों ने इस जगह से मिले 83 औज़ारों का अध्ययन किया, जिनमें नोकदार भाले जैसे हथियार भी थे। रेडियोकार्बन डेटिंग (radiocarbon dating) और अन्य तकनीकों से पता चला कि इन औज़ारों में स्पर्म व्हेल (Physeter macrocephalus), फिन व्हेल (Balaenoptera physalus), ग्रे व्हेल (Eschrichtius robustus), ब्लू व्हेल (Balaenoptera musculus) और बौहेड व्हेल (Balaena mysticetus) जैसी पांच व्हेल प्रजातियों की हड्डियों का इस्तेमाल हुआ था। इसका मतलब है कि उस दौर में इस समुद्री क्षेत्र में व्हेल की कई प्रजातियां (whale species diversity) पाई जाती थीं, जो आज के मुकाबले कहीं ज़्यादा थीं।
यह खोज इस बात की ओर इशारा करती है कि प्राचीन समय में समुद्र किनारे रहने वाले लोग व्हेल के शवों से संसाधन जुटाया करते थे (whale scavenging)। संभव है कि वे इन हड्डियों से बने औज़ारों का निर्यात करते थे (जैसे स्पेन से फ्रांस तक) या उनका आपस में लेन-देन करते थे, जो एक बड़े व्यापारिक नेटवर्क की ओर इशारा करता है।
यह खोज न सिर्फ व्हेल की हड्डियों के इस्तेमाल का समय निर्धारित करती है बल्कि यह भी दिखाती है कि प्रारम्भिक मनुष्यों ने तटीय इलाकों (early coastal adaptation) व स्रोतों (prehistoric marine resources) को कैसे अपनाया।(स्रोतफीचर्स)
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हाल ही में एक गांव में फूड पॉइज़निंग (food poisoning) हुआ। एक सामूहिक भोज में साफ-सफाई न होने की वजह से कई लोग बीमार हो गए और अगले ही दिन दर्जनों लोगों में अतिसार जैसे लक्षण दिखने लगे। इससे बच्चे और बुज़ुर्ग सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए। कई लोगों को अस्पताल ले जाना पड़ा। लेकिन स्थानीय स्वास्थ्य केंद्र में आए अधिकतर रोगियों को पावडर का एक छोटा पैकेट दिया गया और उसे पानी में घोलकर पीने की विधि बताकर घर वापस भेज दिया गया।
आज से लगभग 50 वर्ष पूर्व ऐसा कोई भी हादसा लोगों में दहशत और हताशा फैला देता था। उस समय अतिसार (diarrhea in children) से विश्व में हर वर्ष 50 लाख बच्चों की मौतें होती थीं। हालांकि इलाज पर शोध चल रहा था, पर केवल एक ही कारगर इलाज उपलब्ध था – इंट्रावीनस पुनर्जलन (सलाइन चढ़ाना – IV rehydration for diarrhea)। यह तरीका महंगा था और गिने-चुने अस्पतालों में ही उपलब्ध होता था, खासकर गरीब और दूर-दराज़ के इलाकों के लिए तो यह नामुमकिन था। इस स्थिति में लोग गाजर का सूप, कैरब का आटा, सूखे केले, और यहां तक कि भूखे रहने जैसे घरेलू इलाज आज़माते थे। लेकिन इनसे कोई खास फायदा नहीं होता था।
इनमें सबसे डरावना संक्रमण था ‘ब्लू डेथ’ यानी हैजा (cholera outbreak history)। यह बीमारी बहुत तेज़ी से फैलती थी और कुछ ही दिनों में पूरे गांव-शहर को तबाह कर सकती थी। 1971 के भारत-बांग्लादेश युद्ध के बाद, जब शरणार्थी शिविरों में साफ पानी और शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं थीं, तब वहां हैजा फैला। डॉक्टर दिलीप महलनोबीस उस समय सीमा के पास एक अस्थायी अस्पताल चला रहे थे।
बीमारी फैलने के पश्चात जल्दी ही अस्पताल में सलाइन (आईवी ड्रिप) खत्म हो गई। पर्याप्त उपकरण और प्रशिक्षित लोगों के अभाव में डॉ. महलनोबीस ने एक अलग रास्ता चुना। उनकी टीम ने नमक और ग्लूकोज़ के मिश्रण के पाउच बनाए और मरीज़ों को दिए। साथ ही उन्होंने मरीज़ के परिजनों को सिखाया कि इसे पानी में कैसे घोलना है और मरीज़ को पिलाना है। उन्होंने हैजा की चपेट में आए दूसरे इलाकों में भी यह विधि साझा की।
इसके परिणाम हैरतअंगेज़ थे; जहां पहले हैजा से 30 प्रतिशत मरीज़ों की मौत हो जाती थी, वहीं इस साधारण घोल से यह दर घटकर 3.6 प्रतिशत रह गई। डॉ. महलनोबीस का छोटे स्तर पर किया गया यह प्रयोग, जल्दी ही दुनिया भर में चर्चा का विषय बन गया। इसने मौजूदा अनुसंधानों को नया जीवन दे दिया। दुनिया भर के डॉक्टरों ने इस विचार को अपनाया और 1978 में जीवन रक्षक घोल यानी ओआरएस (ORS invention story) को विश्व स्वास्थ्य संगठन के डायरिया नियंत्रण कार्यक्रम (WHO rehydration therapy) का एक अहम हिस्सा बना दिया गया। आज युनिसेफ हर साल लगभग 10 करोड़ ओआरएस के पैकेट बांटता है।
एकचमत्कारीउपाय
पचास साल बाद भी ओआरएस (ORS benefits) एक बेहतरीन जनस्वास्थ्य उपाय बना हुआ है। यह आसानी से उपलब्ध है, सस्ता है, इसे थोड़ा-सा प्रशिक्षण लेकर कोई भी इस्तेमाल कर सकता है, और समुदाय में इसे आसानी से स्वीकार भी किया जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन इसका एक मानक फॉर्मूला बनाए रखता है और ज़रूरत के अनुसार उसमें बदलाव करता रहता है। इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसे कम संसाधनों वाले क्षेत्रों में भी सही दिशा-निर्देशों के साथ आसानी से बनाया और इस्तेमाल किया जा सकता है। महंगे इलाज की तुलना में ओआरएस (affordable dehydration treatment) बहुत सस्ता पड़ता है – यह मरीज़ों के लिए भी किफायती है और सरकारी स्वास्थ्य बजट पर भी कम बोझ डालता है।
प्रशिक्षित सामुदायिक स्वास्थ्यकर्मी माता-पिता और देखभाल करने वालों को आसानी से इसकी जानकारी दे सकते हैं। घर पर देखभाल के ज़रिए, अगर शुरुआती लक्षणों को पहचान लिया जाए, तो एक व्यवस्थित और ज़मीनी स्तर (community health intervention) से स्वास्थ्य सेवा दी जा सकती है। ओआरएस का इस्तेमाल आसान है, जोखिम लगभग न के बराबर है, इसलिए आम लोगों के लिए यह बेहद उपयोगी और सहज उपाय है।
ओआरएस का असर साफ दिखाई देता है। शुरुआती आशंकाओं के बावजूद यह एक बड़ी स्वास्थ्य समस्या का बेहद सरल और प्रभावी समाधान है। पांच वर्ष से छोटे बच्चों की मौतों में 32 प्रतिशत की कमी का श्रेय ओआरएस को जाता है। इसके साथ ही अतिसार की वजह से अस्पताल में भर्ती होने वाले मामलों में भी गिरावट देखी गई है। ओआरएस का उपयोग (ORS for diarrhea and malnutrition) अचानक होने वाले अतिसार के इलाज के लिए तो सुस्थापित है ही, यह कुपोषण के इलाज में भी बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि लंबे समय तक अतिसार का कुपोषण से गहरा सम्बंध है।
ऐसा माना जाता है कि ओआरएस ने दुनिया भर में 5 करोड़ बच्चों की जान बचाई है। अगर ओआरएस का उपयोग सभी ज़रूरतमंद लोगों तक पहुंच जाए, तो अतिसार से होने वाली 93 प्रतिशत मौतों को रोका जा सकता है।
रुकावटें
ओआरएस एक असरदार इलाज है। देश में बढ़ते तापमान और ग्रीष्म लहरों (heatwave and dehydration) के मद्देनज़र इसकी भूमिका और भी महत्वपूर्ण है, फिर भी इसके उपयोग में कई रुकावटें हैं। वर्ष 2012 में भारत में केवल 22 प्रतिशत लोगों तक ही ओआरएस की पहुंच थी। कई स्वास्थ्य अभियानों के बाद 2016 तक यह 48 प्रतिशत हो गई, लेकिन अभी भी मंज़िल दूर है।
दूसरी समस्या यह है कि लोग – चाहे डॉक्टर हों या मरीज़ – ओआरएस की प्रभावशीलता को कम आंकते हैं। इसलिए, जब केवल ओआरएस और ज़िंक से इलाज संभव होता है, तब भी कई बार गैर-ज़रूरी एंटीबायोटिक दवाइयां (antibiotic misuse in diarrhea) दी जाती हैं। इससे ना सिर्फ ओआरएस के फायदे अनदेखे रह जाते हैं, बल्कि दवा-प्रतिरोधी बैक्टीरिया भी बढ़ते हैं, जो भविष्य में और बड़ी समस्याएं पैदा कर सकते हैं।
ओआरएस को कैसे और कितनी मात्रा में इस्तेमाल करना है, इसकी जानकारी न होना एक और बड़ी चुनौती है। नतीजा यह होता है कि देखभाल करने वालों को अधूरी सलाह मिलती है। घर पर इलाज तभी सफल हो सकता है जब जानकारी सही और पूरी हो। इसके लिए केवल एक बार प्रशिक्षण देना काफी नहीं है, समय-समय पर पुनः प्रशिक्षण भी ज़रूरी होते हैं, ताकि समुदाय में एक सक्षम स्वास्थ्य कार्यकर्ता समूह बना रहे।
ओआरएस के उपयोग में सरकारी और निजी स्वास्थ्य तंत्रों के बीच भी अंतर (public vs private healthcare India) देखने को मिलता है। आंकड़े बताते हैं कि समय के साथ, निजी अस्पतालों में आने वाले मरीज़ों में ओआरएस का उपयोग घटा है। इसका एक कारण यह हो सकता है कि भले ही निजी डॉक्टर ओआरएस लेने की सलाह देते हैं, लेकिन अक्सर वे अपने क्लीनिक या अस्पताल में इसे उपलब्ध नहीं कराते। साथ ही, जब आम लोग ओआरएस के फायदों को कम आंकते हैं, तो वे उसे लेना ज़रूरी नहीं समझते। इसके विपरीत, सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों में अक्सर ओआरएस के पैकेट वहीं दे दिए जाते हैं, जिससे उनका उपयोग बढ़ता है।
इसके अलावा, सरकार आम तौर पर बच्चों को ही ओआरएस देने पर ध्यान केंद्रित करती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि पहले अतिसार से होने वाली मौतें ज़्यादातर 5 साल से छोटे बच्चों में होती थीं। लेकिन अब जैसे-जैसे अतिसार से होने वाली मौतें कम हो रही हैं और लोगों की औसत उम्र बढ़ रही है, वैसे-वैसे बुजुर्गों में भी अतिसार से मृत्यु का खतरा बढ़ गया है। ऊपर से, जलवायु परिवर्तन और गर्मी से जुड़ी बीमारियों (climate change and health risk) के चलते अब ओआरएस सभी उम्र के लोगों के लिए ज़रूरी हो गया है। लिहाज़ा, ओआरएस के बारे में जानकारी सिर्फ बच्चों के इलाज तक सीमित नहीं रहनी चाहिए, बल्कि सभी उम्र के लोगों के लिए इसके बारे में बताया जाना चाहिए।
बहरहाल, इन कठिनाइयों के बावजूद, ओआरएस ने निर्जलीकरण (dehydration) के इलाज (dehydration remedy) में एक क्रांति ला दी है। शोधकर्ता इसे और बेहतर बनाने में जुटे हैं। लेकिन जब तक नए और बेहतर समाधान नहीं आते, हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ओआरएस अधिक से अधिक लोगों की पहुंच में हो और वे इसका सही उपयोग समझें। यह भी याद रखना चाहिए कि सबसे महंगा या हाईटेक इलाज (low-cost vs high-tech healthcare) हमेशा सबसे अच्छा नहीं होता। आधुनिक अस्पतालों और इलाज की चमक-दमक के बीच, कभी-कभी आसान और सस्ता तरीका ही सबसे असरदार होता है। (स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://nivarana.org/article/the-humble-hero-how-oral-rehydration-solution-quietly-changed-the-world
सिंगापुर मात्र 730 वर्ग किलोमीटर का द्वीप देश (Singapore island nation) है, आबादी करीब 60 लाख। इसके घनी शहरी बसाहट के बीच कुछ नाज़ुक प्राकृतिक क्षेत्र भी हैं, जिन्हें बचाने की ज़रूरत है। ऐसा ही एक जंतु जोहोरासिंगापोरेन्सिस (Johora singaporensis) है। यह एक दुर्लभ, निशाचर, मीठे पानी का केकड़ा है (rare freshwater crab) और केवल सिंगापुर के आरक्षित क्षेत्रों में जलधाराओं के आसपास पाया जाता है।
2008 में जब इसकी संख्या तेज़ी से घटने लगी (endangered species Singapore), तब यह पर्यावरणीय चिंता का विषय बन गया। एक छात्र द्वारा इसे ढूंढने के असफल प्रयासों ने सरकार और वैज्ञानिकों को सतर्क किया। इसके बाद सरकार के नेशनल पार्क्स बोर्ड (NParks) ने वैज्ञानिकों और संगठनों के साथ मिलकर इस केकड़े को बचाने के लिए प्रजनन और पुनर्वास कार्यक्रम शुरू (captive breeding and reintroduction) किया। आज भी यह केकड़ा संकटग्रस्त है, लेकिन इन प्रयासों से इसके जीवित रहने की संभावना कुछ बेहतर हुई है।
तेज़ विकास के दबाव के बीच सिंगापुर की हरियाली को बचाने की कोशिश काबिल-ए-तारीफ है (urban greenery Singapore)। 1819 में जब यह एक ब्रिटिश व्यापारिक केंद्र बना था, तब से अब तक देश के ज़्यादातर मूल वर्षावन खत्म हो चुके हैं। अब केवल थोड़ा-सा हिस्सा बचा है, जिसे सेंट्रल कैचमेंट नेचर रिज़र्व (Central Catchment Nature Reserve) में संरक्षित किया गया है।
सिंगापुर के सामने एक बड़ी चुनौती बढ़ती आबादी और तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के साथ-साथ अपनी प्राकृतिक धरोहर को बचाए (sustainable urban development) रखना भी है। भले ही देश में जन्म दर घट रही है, लेकिन विदेश से आने वाले मज़दूरों और छात्रों के कारण आबादी लगातार बढ़ रही है। यहां की एक-तिहाई आबादी प्रवासी है। लगभग 80 प्रतिशत लोग सरकार द्वारा बनाए गए बहुमंज़िला मकानों में रहते हैं। 2025 तक करीब 1 लाख नए मकान बनाने की योजना है, जिनमें से कुछ वन्य क्षेत्रों (housing projects in forest areas) में बनेंगे।
तेज़ी से हो रहे विकास को लेकर पर्यावरणविदों में चिंता (environmental concerns Singapore) बढ़ रही है। सरकार भले ही एक करोड़ पेड़ लगाने और एक लाख कोरल ट्रांसप्लांट (one million trees plan, coral transplantation) करने जैसे दीर्घकालिक उपायों का वादा कर रही है, लेकिन आलोचकों का मानना है कि ये कोशिशें शायद काफी नहीं हैं। इस स्थिति में कई सवाल उठते हैं – इन परियोजनाओं के दौरान कितने पेड़ काटे जा रहे हैं? क्या सैकड़ों साल पुराने जंगल आधुनिक घरों के लिए खत्म किए जा रहे हैं? और क्या इतने बड़े पैमाने पर कोरल ट्रांसप्लांट करना वास्तव में मुमकिन है?
पर्यावरण से जुड़े कई लोग इस बात से भी नाराज़ हैं कि सरकार की योजना से जुड़ा डैटा आसानी से नहीं मिलता, जिससे आपसी सहयोग में बाधा (lack of environmental data transparency) आती है। भले ही एनपार्क्स कहता है कि ज़्यादातर योजनाएं साझेदारी से चलती हैं, लेकिन आंकड़े साझा न किए जाने को लेकर असहमति बनी हुई है। कई बार सरकार लुप्तप्राय प्रजातियों की जानकारी इसलिए नहीं देती कि कहीं उनका शिकार न होने लगे लेकिन पारदर्शिता (endangered species secrecy) की कमी लोगों के बीच अविश्वास पैदा करती है।
2024 में विशेषज्ञों और गैर-सरकारी संगठनों द्वारा मिलकर तैयार किए गए सिंगापुर टेरेस्ट्रियल कंज़र्वेशन प्लान (Singapore Terrestrial Conservation Plan) में सुझाव है कि पर्यावरण से जुड़ी योजनाओं में बेहतर संवाद और आम लोगों की अधिक भागीदारी (public participation in conservation) होनी चाहिए। लेकिन कुछ कार्यकर्ता अब भी संदेह में हैं। उनका कहना है कि जब तक किसी जंगल को काटे जाने की योजना की खबर आम जनता तक पहुंचती है, तब तक फैसला लिया जा चुका होता है।
इन चुनौतियों के बावजूद, शहरी हरियाली (urban nature Singapore global model) को लेकर सिंगापुर की कोशिशें दुनिया भर में सराही जाती हैं। यहां पेड़ों की छांव (ट्री-कैनपी) का घनत्व दुनिया में सबसे ज़्यादा (highest tree canopy density) है। कारण है कड़े नियम, जिनके तहत नई इमारतों में पर्यावरण के अनुकूल डिज़ाइन अनिवार्य हैं. जैसे हरित छतें और पेड़ों से सजे पैदल पुल।
एक शानदार उदाहरण है बिशन-आंग मो किओ पार्क, जो न सिर्फ सैर-सपाटे के लिए मशहूर है, बल्कि जलवायु लाभ भी देता है। 62 हैक्टर में फैला यह पार्क आसपास की ऊंची इमारतों वाले इलाकों की तुलना में लगभग 3 डिग्री सेल्सियस ठंडा रहता है और लोगों को राहत पहुंचाता है। हरित क्षेत्र बारिश का पानी सोखने, शोर कम करने और मानसिक स्वास्थ्य (green spaces and mental health) को बेहतर बनाने में भी मदद करते हैं।
सिंगापुर की सरकार अपनी पर्यावरण नीति को ‘प्रकृति में बसा शहर’ (city in nature Singapore) कहती है। यह एक महत्वाकांक्षी सोच को ज़ाहिर करता है जिसमें शहर के हर पहलू में प्रकृति को शामिल करने की कोशिश है। इस घनी आबादी वाले शहर में प्रकृति को केवल बचाया नहीं गया है, बल्कि उसे रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बना दिया गया है। सिंगापुर का अनुभव दुनिया भर के शहरों के लिए एक मिसाल है: पर्यावरण संरक्षण का मतलब प्रगति को रोकना नहीं है (environment and progress coexistence) बल्कि इसके लिए समझदारी से फैसले लेने तथा खुली बातचीत और दूरदृष्टि की ज़रूरत होती है। उम्मीद है आगे भी सिंगापुर बाकी दुनिया के लिए मिसाल बना रहेगा। (स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में ट्रम्प सरकार ने परमाणु संयंत्रों के लिए चार नए आदेश जारी किए हैं (Trump nuclear policy changes)। कहा गया है कि ये प्रयास ऊर्जा की कमी से बचने और एआई डैटा केंद्रों (AI data centers power needs) के लिए बिजली आपूर्ति की दिशा में हैं। इन संशोधनों में सार्वजनिक भूमियों पर परमाणु संयंत्रों के निर्माण और अमेरिकी युरेनियम खनन (US uranium mining expansion) को बढ़ावा देने का प्रयास है। इसके अलावा, विकिरण की जोखिम सीमा को बदलने पर भी विचार करने को कहा गया है। यह सीमा परमाणु नियामक आयोग (NRC) द्वारा निर्धारित की गई थी।
विश्व भर में हुए अध्ययनों का निष्कर्ष है कि परमाणु संयंत्रों से उत्पन्न विकिरण का स्वास्थ्य पर कुप्रभाव होता (nuclear radiation health effects) है। शोध बताते हैं कि विकिरण के संपर्क से लोगों में कैंसर संभावना (radiation and cancer risk) बढ़ती है और विकिरण की मात्रा के साथ इसमें वृद्धि रैखिक होती है। अर्थात विकिरण की कोई सुरक्षित सीमा नहीं है, जिससे कम विकिरण संपर्क सुरक्षित हो। विकिरण की अत्यल्प मात्रा भी हानिकारक होती है, और इसकी तीव्रता मात्रा के साथ बढ़ती जाती है। वैज्ञानिक इसे लीनियर नो-थ्रेशोल्ड, LNT मॉडल (linear no-threshold model) कहते हैं और यह वैज्ञानिक समुदाय में व्यापक रूप से स्वीकृत है। और एनआरसी द्वारा निर्धारित मानक भी इसी पर आधारित हैं जो विकिरण जोखिम को ‘यथासंभव कम से कम’ रखने पर ज़ोर देते हैं। इसके लिए परमाणु संयंत्र स्थापना को लेकर एनआरसी के कड़े नियम हैं।
यही नियम रिएक्टर समर्थकों को खटक रहे हैं क्योंकि ये नियम सख्त हैं तथा इनका पालन करना खर्चीला है। ट्रम्प सरकार का कहना है कि परमाणु सुरक्षा की निगरानी के लिए बनी एनआरसी नए रिएक्टरों को मंज़ूरी देने में बाधा बन गई है। इसलिए नए संयंत्र निर्माण को बढ़ावा देने के लिए सरकार एनआरसी को छोटा और पुनर्गठित करना चाहती है। संशोधन के बाद एनआरसी को नए रिएक्टरों के आवेदनों पर 18 महीनों के भीतर निर्णय देना होगा। और वर्तमान रिएक्टरों के संचालन को जारी रखने के आवेदनों पर 12 महीने के भीतर विचार करना होगा।
फिर, एलएनटी मॉडल के कई आलोचक भी हैं। वे कहते हैं कि परमाणु विकिरण और उससे होने वाली मौतों का जो हौवा मन में बैठा है (radiation myths vs facts) उसे दूर करने की ज़रूरत है। ऐसा वे कोशिकाओं और जानवरों पर किए शोध के आधार पर कह रहे हैं, जो बताते हैं कि एक निश्चित सीमा से कम विकिरण न सिर्फ सुरक्षित है बल्कि मानव स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद भी है। इस विचार को हॉर्मेसिस (radiation hormesis theory) के नाम से जाना जाता है जिसका मतलब है कि कई पदार्थों की एक निश्चित मात्रा के बाद ही हानिकारक प्रभाव शुरू होते हैं, उससे कम मात्रा पर या तो असर नहीं होते हैं या लाभदायक भी हो सकते हैं। इतना ही नहीं इन नतीजों के आधार पर हॉर्मेसिस समर्थकों ने 2015 में एनआरसी से मांग की थी कि परमाणु श्रमिकों और जनता के लिए विकिरण संपर्क की स्वीकार्य मात्रा का स्तर बढ़ा दिया जाए। पर्याप्त सबूतों के अभाव में उनकी इस अपील को खारिज कर दिया गया था।
लेकिन अब ट्रम्प प्रशासन में कम सख्त विकिरण मानकों और हॉर्मेसिस विचार के हिमायती अधिकारी हैं (Trump administration radiation policy)। प्रशासन ने एनआरसी को 18 महीनों के भीतर नई ‘विज्ञान आधारित विकिरण सीमाएं’ अपनाने का आदेश दिया है और कहा है एनआरसी विशेष रूप से एलएनटी मॉडल पर पुनर्विचार करे। इसके अलावा, एनआरसी को कहा गया है कि वह नए मानक विकसित करने के लिए पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी और ऊर्जा एवं रक्षा विभागों (EPA DOE NRC collaboration) के साथ मिलकर काम करे।
इस फैसले से युरेनियम खनन उद्योग तथा परमाणु उद्योग में शामिल लोग खुश हैं और इस पहल की सराहना कर रहे हैं (nuclear industry response)। लेकिन अन्य लोग इन परिवर्तनों से चिंतित हैं। खासकर, विवादास्पद हॉर्मेसिस विचार पर चिंता व्यक्त की गई है। वैज्ञानिकों का कहना है कि ट्रम्प का आदेश विश्व स्तरीय विकिरण सुरक्षा मानकों के विपरीत है (global radiation safety standards), और आर्थिक एवं व्यावसायिक हितों के लिए स्वास्थ्य सम्बंधी खतरों (health risks ignored for profit) की उपेक्षा करता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.zvtbmij/full/_20250523_on_trump_nuclear_power-1748547813787.jpg
मेक अमेरिका हेल्दी अगैन (महा – MAHA) आयोग ने हाल ही में अमरीकी बच्चों की सेहत को लेकर एक रिपोर्ट जारी की है। रिपोर्ट में अमरीकी बच्चों में तेज़ी से बढ़ते जीर्ण रोगों (chronic diseases in children, US child health crisis) पर चिंता व्यक्त की गई है।
आयोग ने कहा है कि अमेरिका में बच्चों की सेहत पर सर्वाधिक असर अल्ट्रा-प्रोसेस्ड खानपान (ultra-processed food), हवा, पानी व भोजन के ज़रिए रसायनों से संपर्क (chemical exposure in kids), सुस्त जीवन शैली, मोबाइल-लैपटॉप स्क्रीन पर बिताए गए समय और चिकित्सकीय हस्तक्षेप के अतिरेक का हुआ है। रिपोर्ट में कहा गया है कि स्वास्थ्य सम्बंधी अधिकांश शोध फिलहाल कॉर्पोरेट प्रभाव (corporate influence in health research) में किया जा रहा है जिसे बदलने की ज़रूरत है। रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि 2020 की आहार सम्बंधी सलाहकार समिति में 95 प्रतिशत सदस्यों के कॉर्पोरेट विश्व के साथ वित्तीय सम्बंध थे।
रिपोर्ट में कहा गया है कि 1970 के दशक के बाद बचपन में मोटापे की स्थिति में तीन गुना वृद्धि हुई है (childhood obesity in USA) और आज साढ़े तीन लाख से ज़्यादा बच्चे मधुमेह (childhood diabetes rates) से पीड़ित हैं। तंत्रिका विकास सम्बंधी विकार बढ़ रहे हैं, और हर 31 में से 1 बच्चा ऑटिज़्म (autism in children) से प्रभावित है। वर्ष 2022 में हर 4 में से 1 किशोर लड़की में अवसाद (teen depression in girls) की घटना हुई थी। आश्चर्यजनक खुलासा यह किया गया है कि फिलहाल किशोरों में मृत्यु का दूसरा सबसे बड़ा कारण खुदकुशी है। रिपोर्ट बताती है कि एलर्जी, आत्म-प्रतिरक्षा रोग (autoimmune diseases in children, rise in allergies) वगैरह भी तेज़ी से बढ़े हैं। और तो और, रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि कम से कम 40 प्रतिशत अमरीकी बच्चे किसी-न-किसी एक जीर्ण तकलीफ से ग्रस्त (40% US kids chronic illness) हैं।
देखा जाए तो शायद रिपोर्ट के कई निष्कर्ष गलत नहीं हैं। लेकिन विशेषज्ञों ने इसे लेकर कई सवाल भी उठाए हैं। मज़ेदार बात यह है कि महा रिपोर्ट महज 3 माह में तैयार कर ली गई है और यही आलोचना का प्रमुख बिंदु बना है। कई विशेषज्ञों का मत है कि रिपोर्ट एआई (कृत्रिम बुद्धि) (AI-generated report controversy) द्वारा तैयार करवाई गई है। इसे लेकर कई अन्य प्रमाण भी प्रस्तुत किए गए हैं।
बहरहाल, रिपोर्ट को लेकर अन्य दिक्कतें भी सामने आई हैं। जैसे एक संस्था नॉटअस (NOTUS) द्वारा विश्लेषण पर पता चला कि इसमें कई ऐसे अध्ययनों का हवाला दिया गया है जिनका कोई अस्तित्व ही नहीं है (fake scientific citations)। कई मामलों में शोधकर्ताओं के नाम गलत दिए गए हैं, पूरा संदर्भ नहीं दिया गया है। कई शोधकर्ताओं ने स्पष्ट किया है कि उनके जिस शोध पत्र का हवाला दिया गया है, वह अस्तित्व में ही नहीं है। कई मामलों में अध्ययनों के निष्कर्षों को गलत प्रस्तुत किया गया है। जैसे आईकान स्कूल ऑफ मेडिसिन की मरिआना फिगेरो के पर्चे को इस बात के प्रमाण के रूप में उद्धरित किया गया है कि स्क्रीन पर बिताया गया समय बच्चों की नींद में गड़बड़ी पैदा करता है, हालांकि यह अध्ययन कॉलेज के छात्रों पर किया गया था और इसमें नींद का मापन शामिल नहीं (misinterpretation of research) था।
विशेषज्ञों का मत है कि ट्रम्प सरकार एक ओर तो विज्ञान में सर्वोच्च मानक स्थापित करने की बात कर रही है, वहीं ऐसे फर्ज़ी संदर्भों, गलतबयानी वाली रिपोर्ट के आधार पर भविष्य की योजना बनाने की बात कर रही है (Trump administration health policy, science misinformation in politics)।(स्रोतफीचर्स)
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उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में पाए जाने वाले हेलिकोनिया वंश के पौधे अपनी चमकदार पुष्प संरचनाओं और घने पत्तों के लिए मशहूर हैं (tropical plants, heliconia flowers)। इन्हें ‘लॉब्स्टर क्लॉ'(lobster claw), ‘जंगली केला’ या ‘फाल्स बर्ड-ऑफ-पैराडाइज’ के नाम से भी जाना जाता है। ये पौधे न केवल देखने में सुंदर होते हैं बल्कि मध्य और दक्षिण अमेरिका, कैरेबियन और दक्षिण-पूर्व एशिया के कुछ हिस्सों के वर्षावनों में पारिस्थितिक तंत्र का महत्वपूर्ण हिस्सा भी हैं (rainforest ecosystem plants)। हाल के वैज्ञानिक शोधों ने इनके विकास, पारिस्थितिक महत्व, संरक्षण की स्थिति और बागवानी व कृषि में बढ़ती भूमिका पर नई रोशनी डाली है।
हेलिकोनिया वंश में लगभग 200 प्रजातियां हैं, जिनकी पहचान वे खास सहपत्र (bracts) हैं – ये संरचनाएं चटख रंग (colorful bracts) की और मोम (wax like flower structure) जैसी होती हैं, जो अक्सर इनके वास्तविक फूलों से ज़्यादा आकर्षक होती हैं। सहपत्र लाल, नारंगी, पीले और गुलाबी रंगों में होते हैं, जिससे हेलिकोनिया बागवानों और फूल व्यापारियों के बीच काफी लोकप्रिय हैं। लेकिन इनकी सजावटी सुंदरता के अलावा, ये पौधे उष्णकटिबंधीय पारिस्थितिकी तंत्र में भी गहराई से रचे-बसे हैं।
हेलिकोनिया का विकास अनुकूलन और सह-विकास की कहानी है। आणविक शोध से पता चला है कि इस वंश में प्रजातियों का तेज़ी से विविधीकरण (plant speciation) हुआ है। इसका मुख्य कारण है इनका हमिंगबर्ड्स के साथ घनिष्ठ सम्बंध। कई हेलिकोनिया प्रजातियों के फूल विशिष्ट हमिंगबर्ड्स द्वारा परागण (hummingbird pollination) के लिए अनुकूलित हैं – इनके लंबे, नलीनुमा फूल हमिंगबर्ड्स की लंबी चोंच के हिसाब से ढले हैं। इनका सम्बंध इतना विशिष्ट है कि इनमें से एक में भी बदलाव होने पर दूसरे में भी विकासात्मक परिवर्तन होते हैं; इसे सह-विकास कहते हैं।
विकासकासहगान
हमिंगबर्ड्स द्वारा हेलिकोनिया का परागण पारिस्थितिक विशेषज्ञता का उत्कृष्ट उदाहरण (ecological pollination systems) है। कुछ हेलिकोनिया प्रजातियां ‘ट्रैपलाइनर’ हमिंगबर्ड्स द्वारा परागित होती हैं – ये पक्षी दूर-दूर के, यहां तक कि अपने इलाके के बाहर के फूलों को भी परागित (trapliner hummingbirds) हैं। हेलिकोनिया टोर्टुओसा जैसी प्रजातियों की आनुवंशिक संरचना पर इस व्यवहार का गहरा प्रभाव पड़ता है, जिससे वनों के खंडित होने के बावजूद जनसंख्या में जीन प्रवाह बना रहता (gene flow in fragmented forests) है। अर्थात, जंगल के टुकड़ों में बंट जाने के बाद भी, इन पौधों के बीच उनके जीन्स एक जगह से दूसरी जगह जाते रहते हैं और उनकी आबादी में विविधता बनी रहती है।
ये जटिल पारस्परिक सम्बंध पौधों और उनके परागणकर्ताओं दोनों के संरक्षण की आवश्यकता को रेखांकित करते (plant-pollinator conservation) हैं। एक के नुकसान से दूसरे की भी हानि हो सकती है, जिससे उष्णकटिबंधीय जैव विविधता का संतुलन बिगड़ सकता (tropical biodiversity loss) है।
संरक्षणसंकटकीआहट
अपनी पारिस्थितिक महत्ता और बागवानी में लोकप्रियता के बावजूद, जंगली हेलिकोनिया प्रजातियां गंभीर खतरे का सामना कर (threatened plant species) रही हैं। हाल ही में हुए एक व्यापक अध्ययन में पाया गया कि लगभग आधी हेलिकोनिया प्रजातियां विलुप्ति की कगार पर हैं। इसका मुख्य कारण है वनों की कटाई, कृषि विस्तार और शहरीकरण। कई प्रजातियां बहुत सीमित क्षेत्रों में पाई जाती हैं, जिससे वे और भी संवेदनशील हैं।
चिंता की बात यह है कि संकटग्रस्त हेलिकोनिया प्रजातियों का एक बड़ा हिस्सा संरक्षित क्षेत्रों या वनस्पति उद्यानों में संरक्षित नहीं है। संरक्षण के इस अंतर को दूर करने के लिए अध्ययन में प्राथमिकता वाली प्रजातियों की पहचान, संरक्षित क्षेत्रों का विस्तार और हेलिकोनिया को पुनर्वनीकरण और कृषि परियोजनाओं में शामिल करने की सिफारिश की गई है।
जंगलसेगुलदस्तेतक
हेलिकोनिया की आकर्षक बनावट और लंबे समय तक टिकने वाले फूलों ने इसे वैश्विक पुष्प उद्योग में लोकप्रिय बना दिया है। हाल के वर्षों में अनुसंधान ने हेलिकोनिया पुष्पों की ताज़गी बनाए रखने, निर्जलीकरण, फफूंदी, और परिवहन के दौरान होने वाले नुकसान को कम करने पर ध्यान केंद्रित किया है। उन्नत संरक्षण तकनीकों और विशेष पैकेजिंग के उपयोग से हेलिकोनिया की ताज़गी और बाज़ार में पहुंच बढ़ी है।
भारत में इसकी खेती के लिए अनुकूल परिस्थितियां हैं। शोध से पता चला है कि नारियल के बागानों में हेलिकोनिया को अंतर-फसल के रूप में उगाने से किसानों को अतिरिक्त आय मिल सकती है और भूमि की पारिस्थितिकी व सुंदरता भी बढ़ती है। हेलिकोनिया आंशिक छाया में भी अच्छी तरह बढ़ता है और इसकी देखभाल आसान है, जिससे यह उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय कृषि प्रणालियों के लिए उपयुक्त है।
हालांकि हेलिकोनिया के व्यापारिक भविष्य की संभावनाएं उज्ज्वल हैं, लेकिन चुनौतियां भी कम नहीं हैं। खेती में प्रयुक्त किस्मों की आनुवंशिक विविधता जंगली प्रजातियों की तुलना में कम है; जिससे वे कीट, रोग और पर्यावरणीय तनाव के प्रति अधिक संवेदनशील हैं। जंगली हेलिकोनिया की आनुवंशिक सामग्री का संरक्षण और सतत उपयोग आवश्यक है, ताकि इनसे नई किस्मों का विकास हो सके।
इसके अलावा, फूलों के रूप में हेलिकोनिया की सफलता न केवल संरक्षण तकनीक पर निर्भर करती है बल्कि नई किस्मों के विकास पर भी निर्भर करती है; जिनमें आकर्षक रंग, सुगठित आकार और रोग प्रतिरोध जैसी विशेषताएं हों। इसके लिए जैव प्रौद्योगिकी, ऊतक संवर्धन और आणविक प्रजनन जैसी तकनीकों का उपयोग किया जा रहा है।
हेलिकोनिया की कहानी उष्णकटिबंधीय जैव विविधता के समक्ष खड़ी चुनौतियों का प्रतीक है। यह वंश पौधों, जानवरों और मनुष्यों के बीच जटिल सम्बंधों और मानवीय गतिविधियों के प्रभाव को दर्शाता है। संरक्षण विशेषज्ञ हेलिकोनिया को पुनर्वनीकरण, कृषि और सामाजिक वानिकी में शामिल करने की सलाह देते हैं, ताकि न केवल इस वंश की रक्षा हो, बल्कि पूरे पारिस्थितिक तंत्र सुदृढ़ हों।
वनस्पति उद्यान और बाह्य-स्थान संरक्षण संग्रहालय इस दिशा में अहम भूमिका निभा सकते हैं। हेलिकोनिया प्रजातियों की खेती और उन्हें शोधकर्ताओं व किसानों के लिए उपलब्ध कराने से ये वनस्पति उद्यान और संरक्षण संग्रहालय संरक्षण और व्यापार के बीच सेतु का कार्य कर सकते हैं। (स्रोतफीचर्स)
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पेड़ और जंगल वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित करते हैं (carbon sequestration by forests) और उसे अपने तने, शाखा, पत्तियों वगैरह की सामग्री के रूप में समो लेते हैं। इसलिए यह जानना बहुत ज़रूरी है कि धरती पर कितना जैविक पदार्थ (बायोमास) (forest biomass estimation) मौजूद है और समय के साथ कैसे बदल रहा है। बायोमास का मतलब है पेड़ों के तने, शाखाओं, पत्तियों और जड़ों में सारे ठोस वनस्पति पदार्थ का कुल वज़न। अभी तक बायोमास का अनुमान लगाने के लिए केवल ज़मीनी सर्वेक्षण (ground survey methods) या साधारण उपग्रह तस्वीरों (basic satellite imagery) का सहारा लिया जाता था, जो सटीक नहीं था।
पृथ्वी पर मौजूद पेड़ों और जंगलों के जैविक द्रव्यमान को मापने के लिए युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी ने ‘बायोमास’ नामक एक उपग्रह (ESA Biomass Satellite) लॉन्च किया है। मिशन अवधि लगभग 5 साल (2030 तक) है। यूके, फ्रांस, इटली और जर्मनी जैसे युरोप के कई देश इस मिशन में प्रमुख भागीदार हैं। इसका मुख्य उद्देश्य यह जानना है कि धरती पर कितनी मात्रा में कार्बन पेड़ों में जमा है (carbon stock in trees) और यह जलवायु परिवर्तन को किस तरह प्रभावित (climate change impact) करता है।
इस उपग्रह से 1.5 ट्रिलियन पेड़ों का बायोमास मापना संभव हो सकेगा। इसका डैटा यह समझने में मदद करेगा कि कितनी मात्रा में कार्बन वातावरण से अवशोषित किया गया है, कौन से क्षेत्र कार्बन स्रोत (उत्सर्जक) (carbon source regions) और कौन से कार्बन सिंक (शोषक) (carbon sink regions) हैं। उदाहरण के लिए अगर अमेज़न के जंगल कट रहे हैं, तो वहां का बायोमास कम होगा और वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड बढ़ेगी। इससे हम जलवायु परिवर्तन (global climate change) और ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों को बेहतर समझ पाएंगे। वैश्विक बायोमास डैटा हर 6 महीने में अपडेट (biomass satellite data update) किया जाएगा।
यह डैटा काफी महत्वपूर्ण होगा: इसका उपयोग पेड़ों के कुल वज़न और मात्रा के आकलन, संग्रहित कार्बन भंडार के मूल्यांकन (carbon storage assessment), वनों की कटाई के वास्तविक प्रभाव, जलवायु मॉडलिंग में सुधार (climate modeling improvement), कार्बन सिंक के रूप में चिंहित क्षेत्रों के लिए पर्यावरण संरक्षण नीति बनाने (environmental policy planning), वैश्विक कार्बन चक्र को समझने और ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रित करने की रणनीति बनाने में किया जा सकेगा। इसके साथ ही जलवायु परिवर्तन मॉडल्स को अधिक सटीक बनाने और वनों की कटाई और पुनर्वनीकरण की निगरानी (deforestation and reforestation monitoring) करने में भी यह उपयोगी होगा। इससे पर्यावरण संरक्षण योजनाओं को मज़बूत बनाने, विकासशील देशों को वनों के प्रबंधन में मदद करने और कार्बन ट्रेडिंग (carbon trading) और जलवायु वित्त (climate finance) में सटीक डैटा प्रदान करने में मदद मिलेगी।
उपग्रहकीविशेषताएं
1. कक्षीयडिज़ाइन: यह बायोमास उपग्रह पृथ्वी से लगभग 660 कि.मी. की ऊंचाई पर सूर्य-समकालिक ध्रुवीय कक्षा (sun-synchronous polar orbit) में चक्कर लगाएगा। यह कक्षा सुनिश्चित करती है कि उपग्रह नियमित अंतराल पर उत्तरी व दक्षिणी गोलार्धों पर पृथ्वी के सभी क्षेत्रों को कवर करेगा, जिसमें उष्णकटिबंधीय, समशीतोष्ण, और बोरीयल वन (tropical, temperate, and boreal forests) शामिल हैं। उपग्रह का पुनरावृत्ति चक्र ऐसा है कि यह हर 25 दिनों में एक ही क्षेत्र को दोबारा स्कैन करेगा, जिससे समय के साथ परिवर्तन की निगरानी संभव होगी।
2. अनूठीरडारतकनीक: सामान्य उपग्रह प्रकाशीय कैमरे या एल-बैंड (आवृत्ति 1000-2000 मेगाहर्ट्ज) रडार का उपयोग करते हैं। लेकिन बायोमास उपग्रह में पी-बैंड रडार (P-band radar technology) का इस्तेमाल हो रहा है, जो एक कम आवृत्ति माइक्रोवेव (300-1000 मेगाहर्ट्ज़) सिग्नल प्रेषित करता है, जिससे मिट्टी और घने जंगलों के अंदर तक पैठ बना सकती है। इसका मतलब, यह पेड़ की केवल ऊपरी नहीं बल्कि अंदर तक जानकारी जुटाता है, जैसे पेड़ की ऊंचाई, तने की मोटाई और घनत्व वगैरह।
यह तकनीक दिन-रात और मौसम से बेफिक्र डैटा संग्रह करने में सक्षम है, क्योंकि रडार बादलों और बारिश से अप्रभावित रहता है। यह पहला मौका है जब कोई उपग्रह इतनी कम आवृत्ति पर काम करेगा। गौरतलब है कि पी-बैंड रडार तकनीक को लेकर सुरक्षा सम्बंधी नियम भी हैं क्योंकि इसका उपयोग रक्षा और संचार में भी होता है। लेकिन पृथ्वी को बचाने के लिए यह डैटा इकट्ठा करने हेतु युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी को पी-बैंड के उपयोग की विशेष अनुमति दी गई है (forest density mapping, tree height detection, forest structure analysis)।
3. पोलेरिमेट्रिकऔरइंटरफेरोमेट्रिकडैटा: इन तकनीकों का मदद से वन की संरचना (जैसे, पत्तियां, तने, ज़मीन) को अलग-अलग पहचाना जा सकता है। इंटरफेरोमेट्रिक तकनीक से सतह की ऊंचाई और 3-डी संरचना मापी जाती है। टोमोग्राफिक एसएआर से वन की ऊर्ध्वाधर परतों (चंदवे, तनों, ज़मीन) का 3डी मॉडल बनाया जाता है।
4. वैश्विककवरेज: उपग्रह हर 6 महीने में पूरी पृथ्वी को स्कैन करेगा। लक्ष्य यह है कि धरती के लगभग 30 करोड़ वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र को कवर किया जाए। सरल शब्दों में कहा जाए तो बायोमास उपग्रह धरती के पेड़ों का एक्स-रे स्कैन करेगा, ताकि हम जान सकें कि पृथ्वी पर कितने पेड़ हैं, उनमें कितना कार्बन है और जंगल किस गति से घट-बढ़ रहे हैं। यह उपग्रह इतनी बारीकी से स्कैन कर सकता है कि 20-20 वर्ग मीटर तक के छोटे इलाके में भी पेड़ के बायोमास का पता चल सकेगा। यह मिशन हमारे ग्रह को बचाने के बड़े अभियानों का एक अहम हिस्सा है।
कवरेज की बात करें तो बायोमास उपग्रह उष्णकटिबंधीय वर्षावनों (अमेज़ॉन, कांगो), समशीतोष्ण वनों (उत्तरी अमेरिका और युरोप के जंगल) और बोरीयल वनों (साइबेरिया और कनाडा के टैगा) को कवर करेगा। यद्यपि उपग्रह का प्राथमिक लक्ष्य वन हैं, यह मिट्टी और सतह की जानकारी (जैसे रेगिस्तान या बर्फीले क्षेत्र) भी एकत्र कर सकता है, लेकिन इन क्षेत्रों में इसकी उपयोगिता सीमित है।
जैव पदार्थ सम्बंधी डैटा कार्बन चक्र को समझने और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने की रणनीतियों में मदद करता है। उपग्रह अवैध कटाई, वन क्षरण, और पुनर्जनन की वैश्विक निगरानी करेगा, जो नीति निर्माण और संरक्षण प्रयासों के लिए महत्वपूर्ण है। वैश्विक डैटा पारिस्थितिकी, जैव-विविधता, और भू-विज्ञान के अध्ययन में उपयोगी है और अंतर्राष्ट्रीय समझौतों के लिए आधार प्रदान करेगा। कुल मिलाकर यह मिशन धरती के जंगलों के एक्स-रे निरीक्षण (x-ray monitoring) जैसा है, जिससे हम जान पाएंगे कि पृथ्वी कैसे सांस ले रही है! (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/f/fa/ESA_Biomass_Satellite_seeing_wood_through_trees.png/1024px-ESA_Biomass_Satellite_seeing_wood_through_trees.png
समय के साथ पूरी दुनिया में बुज़ुर्गों की आबादी बढ़ी है। और तो और, इनमें से 80 प्रतिशत से अधिक बुज़ुर्ग कम से कम एक जीर्ण स्वास्थ्य समस्या (Chronic Health Conditions) से पीड़ित हैं। यू.एस. सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल और विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि वैश्विक स्वास्थ्य को बढ़ावा देना एक प्राथमिकता है, और गुणवत्तापूर्ण आहार (Healthy Diet for Seniors) हार्ट-अटैक, डायबिटीज़ और समयपूर्व मृत्यु रोकने में लाभप्रद है।
स्वास्थ्य शोधकर्ता आदर्श आहार के रूप में भूमध्यसागरीय (मेडिटेरेनियन) आहार (Mediterranean Diet) को अच्छा बताते हैं। मेडिटेरेनियन आहार में मुख्यत: शाक-सब्ज़ियों, फल-फलियों और प्राकृतिक तेल आधारित खाद्य शामिल होते हैं; थोड़ी मात्रा में चिकन, अंडे, मछली वगैरह लिए जाते हैं, लेकिन लाल मांस (जैसे मटन, बीफ, पोर्क आदि) से परहेज़ किया जाता है। भूमध्यसागरीय क्षेत्रों में जो लोग इस तरह का आहार लेते हैं, वे लंबा और स्वस्थ जीवन (Healthy Aging) जीते हैं।
वास्तव में, भारत में सामान्य तौर पर जो भोजन किया जाता है वह मुख्यत: मेडिटेरेनियन आहार ही होता है: इसमें गेहूं या चावल, दाल, बहुत-सी ताज़ी सब्ज़ी/भाजी और दही/छांछ शामिल होते हैं; और मांसाहारी भोजन में थोड़ी मात्रा में अंडे और मछली भी शामिल होते हैं, लेकिन मांस बहुत कम या बिल्कुल भी नहीं होता।
इस सम्बंध में, हाल ही में दो लेखों में स्वस्थ बुढ़ापे के लिए सर्वोत्तम भोजन (Best Foods for Elderly) के बारे में बताया गया है। नेचर पत्रिका के 3 अप्रैल के अंक में प्रकाशित एक लेख – ‘दी बेस्ट एंड वर्स्ट फूड फॉर हेल्दी एजिंग (स्वस्थ बुढ़ाने के लिए सर्वोत्तम और निकृष्टतम भोजन)’ में बताया गया है कि जो लोग फलों और शाक-भाजियों से भरपूर आहार लेते हैं उनके 70 वर्ष तक जीने की संभावना अधिक होती है, वह भी बिना किसी गंभीर शारीरिक समस्या या संज्ञानात्मक क्षति (Cognitive Decline Prevention) के। यह अध्ययन भरपूर मात्रा में फल और सब्ज़ियां खाने की सलाह एक पुख्ता अध्ययन के आधार पर देता है: आहार सम्बंधी आदतों पर 30 सालों तक चला और बड़े पैमाने पर किया गया यह अध्ययन बताता है कि अपने आहार में फाइबर (रेशेदार चीज़ें), सब्ज़ियां, फलियां, दालें अधिक खाएं और वसा युक्त आहार व मांस कम खाएं; ऐसा आहार वरिष्ठ नागरिकों को एक स्वस्थ जीवन जीने में मदद करेगा।
उपरोक्त विशाल अध्ययन नेचरमेडिसिन पत्रिका में प्रकाशित हुआ है, जिसका शीर्षक है ‘ऑप्टिमल डायटरी पैटर्न फॉर हेल्दी एजिंग (स्वस्थ बुढ़ाने के लिए इष्टतम आहार पैटर्न)’। इस अध्ययन में यू.एस., यू.के., कनाडा और डेनमार्क के स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने दो प्रमुख अध्ययनों के डैटा का विश्लेषण किया: नर्सों का स्वास्थ्य अध्ययन (अस्पताल के कर्मचारियों और चिकित्सा पेशेवरों के स्वास्थ्य का निरीक्षण) और स्वास्थ्य पेशेवरों का फॉलो-अप अध्ययन (Health Professionals Study Data) (गंभीर बीमारियों जैसे कैंसर और हृदय सम्बंधी बीमारियों से जुड़े पुरुषों के आहार और जीवनशैली की जांच-पड़ताल करना)। इसमें कुल 70,000 महिलाओं और 30,000 पुरुषों के डैटा का विश्लेषण किया गया था।
शोधकर्ताओं ने देखा कि लंबे समय तक वनस्पति-समृद्ध आहार और साथ में थोड़ी मात्रा में जंतु-स्रोतों से प्राप्त स्वास्थकर पूरक आहार लेना किस तरह स्वस्थ बुढ़ापे से सम्बंधित है। उन्होंने आठ किस्म के स्वास्थ्यप्रद आहार पैटर्न का सम्बंध स्वस्थ बुढ़ापे से देखा है।
एक है वैकल्पिक स्वस्थ खानपान सूचकांक (healthy eating index)। इसमें एक स्कोरिंग प्रणाली के मदद से भोजन की गुणवत्ता का मूल्यांकन किया जाता है कि वह एक स्वस्थ अनुशंसित आहार (हरी सब्ज़ियां, अल्प वसा, अल्प शर्करा तथा कैंसर व उच्च रक्तचाप पैदा करने वाले आहार से परहेज़) से कितना मेल खाता है। दूसरे तरीके को वैकल्पिक भूमध्यसागरीय सूचकांक कहते हैं। यह भूमध्यसागरीय इलाके से बाहर रहने वाले बुज़ुर्गों को दीर्घकालीन स्वास्थ्य लाभ प्रदान करता है। तीसरा है उच्च-रक्तचाप निरोधक आहार प्रणाली (Dietary Approaches to Stop Hypertension – DASH)। यह मुख्यत: उच्च रक्तचाप को नियंत्रित करता है। अन्य, जैसे मेडिटेरेनियन इंटरवेंशन फॉर न्यूरोडीजनरेटिव डिले (MIND) और स्वास्थ्यप्रद वनस्पति-आधारित आहार (hPDI) भी वनस्पति-समृद्ध और पोषक तत्वों से भरपूर आहार लेने पर ज़ोर देते हैं और अत्यधिक प्रोसेस्ड खाद्यों से परहेज़ करने को कहते हैं। कुल मिलाकर, शाक-भाजी, फल-फलियों, दाल-अनाजों से भरपूर और साथ में थोड़ी मात्रा में जंतु-स्रोतों से प्राप्त आहार लंबे समय तक स्वस्थ रख सकता है। (स्रोत फीचर्स)
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