डायपर मिश्रित कॉन्क्रीट से बना पहला घर

जिस ओर देखो पर्यावरण प्रदूषण की कोई न कोई समस्या सिर उठाए खड़ी है। ताज़ा अध्ययन में जापान के शोधकर्ताओं ने एक साथ दो पर्यावरणीय समस्याओं  – डायपर का बढ़ता कचरा और बढ़ता रेत खनन – को हल करने की कोशिश की है। उन्होंने रेत-सीमेंट-गिट्टी के गारे में फेंके गए डायपर्स की कतरन मिलाकर एक भवन तैयार किया। इसमें रेत की 9 से 40 प्रतिशत तक बचत हुई, और भवन की मज़बूती भी अप्रभावित रही।

विश्व में भवन निर्माण में सालाना 50 अरब टन रेत की खपत होती है। रेत खनन कई पर्यावरणीय चिंताओं का कारण है – जैसे इसके कारण जलजीवन और पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित होता है, भूस्खलन और बाढ़ जैसी समस्याएं पैदा होती हैं।

दूसरी ओर, हर जगह डायपर का चलन तेज़ी से बढ़ा है। मैकऑर्थर फाउंडेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक हर साल लगभग 3.8 करोड़ टन डायपर फेंके जाते हैं। नतीजतन डायपर का कचरा बढ़ता जा रहा है। यह कचरा अधिक चिंता की बात इसलिए भी है क्योंकि एक तो यह सड़ता नहीं है, दूसरा इसे रीसायकल भी नहीं किया जा सकता।

कितक्युशु विश्वविद्यालय की सिविल इंजीनियर सिसवंती ज़ुरैदा और उनकी टीम ने सोचा कि क्या भवन निर्माण में रेत की जगह कुछ मात्रा में डायपर का कचरा मिलाया जा सकता है।

शोधकर्ताओं ने डायपर इकट्ठे करके धोए, सुखाए और उनकी बारीक कतरन बनाई। फिर उन्होंने सीमेंट, गिट्टी और पानी में रेत और डायपर को विभिन्न अनुपात में मिलाकर गारा तैयार किया और इससे कॉन्क्रीट की सिल्लियां तैयार कीं। दल ने रेत को 40 प्रतिशत तक कम करके उसकी जगह उतने डायपर की कतरन मिलाई थी।

सिल्लियां बनने के एक महीने बाद शोधकर्ताओं ने प्रत्येक अनुपात के मिश्रण वाली सिल्लियों की मज़बूती परखी और पता लगाया कि अधिकतम कितनी रेत का स्थान डायपर ले सकते हैं।

उन्होंने पाया कि कॉन्क्रीट में जितना अधिक डायपर कचरा होगा, कॉन्क्रीट उतना कम मज़बूत होगा। इसलिए भवनों के कॉलम और बीम जैसे ढांचागत हिस्सों को बनाने के लिए कम डायपर कचरा मिलाना ठीक होगा जबकि दीवारों जैसे आर्किटेक्चरल हिस्सों में अधिक डायपर का मिश्रण चल जाएगा। उनकी गणना के अनुसार एक-मंज़िला मकान बनाने के लिए गारे में लगभग 27 प्रतिशत रेत की जगह डायपर कचरा और तीन मंज़िला मकान में सिर्फ 10 प्रतिशत रेत की जगह डायपर मिलाए जा सकते हैं।

जहां दीवार वगैरह के गारे में 40 प्रतिशत रेत का स्थान डायपर का कचरे ले सकता है वहीं फर्श में केवल 9 प्रतिशत रेत की जगह डायपर मिलाया जा सकता है क्योंकि वहां मज़बूती ज़रूरी है।

कॉन्क्रीट सिल्लियों की मज़बूती परखने के बाद शोधकर्ताओं ने इससे 36 वर्ग मीटर का प्रायोगिक घर भी बनाया। यह घर बनाने में उन्होंने तकरीबन 1.7 घन मीटर डायपर का कचरा ठिकाने लगा दिया और लगभग 27 प्रतिशत रेत बचा ली।

प्रायोगिक तौर पर तो यह ठीक है लेकिन वास्तव में डायपर कचरे को कचरे के ढेर से निकाल कर उपयोग करने लायक बनाने और फिर चलन में लाने के लिए काफी लंबा रास्ता तय करना पड़ेगा क्योंकि अधिकतर जगहों पर अपशिष्ट प्रबंधन व पृथक्करण बहुत कारगर तरीके से काम नहीं करता है। रीसायकल होने वाली कुछ चीज़ों को तो छांट लिया जाता है लेकिन चूंकि डायपर रीसायकल नहीं होते तो उनकी छंटाई नहीं होती और इन्हें जला दिया जाता है। फिर भी इनकी उपयोगिता के मद्देनज़र कचरे से डायपर की छंटनी कर भी ली जाती है, तो क्या आम लोग डायपर वेस्ट से घर बनवाने को राज़ी होंगे या ऐसे लंगोट/पोतड़ों से बने मकान खरीदने या उनमें रहने को तैयार होंगे? यह भी देखना होगा कि ये मकान कितने टिकाऊ होंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चूहों को गंध से भटकाकर फसलों की सुरक्षा

ह तो सब जानते हैं कि चूहे घर के सामान का कितना नुकसान करते हैं। चूहों जैसे कृंतकों के कारण हर साल लगभग 7 करोड़ टन अनाज की भी बर्बादी होती है। वे खेतों में बोए बीजों को खोद-खोदकर खा जाते हैं और फसल बर्बाद कर देते हैं।

चूहों से निजात के लिए खेतों में बिल्लियां छोड़ने से लेकर ज़हर देने तक के कई तरीके आज़माए गए हैं। लेकिन ये सब महंगे हैं। ज़हर या कीटनाशक का छिड़काव सिर्फ एक बार करने से काम नहीं बनता। ऊपर से ये ज़हर चूहों के अलावा अन्य जीवों को भी मार देते हैं।

इसलिए शोधकर्ता कुछ ऐसे विकल्प की तलाश में थे जो जेब पर भारी न पड़े, अन्य जीवों को नुकसान न पहुंचाए और चूहों से होने वाला नुकसान कम से कम हो जाए। पूर्व अध्ययन में देखा गया था कि पक्षियों की गंध का ‘छद्मावरण’ देने से शिकारी भटक जाते हैं। शोधकर्ताओं ने पक्षियों की गंध को कुछ ऐसी जगहों पर बिखेर दिया जहां ये पक्षी वास्तव में कभी नहीं जाते थे। शुरू-शुरू में बिल्ली व इनके अन्य शिकारी जीव गंध का पीछा करते हुए अपने शिकार को ढूंढने उन जगहों पर पहुंचे थे, लेकिन कुछ दिनों बाद उन्होंने इस गंध को ‘धोखा’ मान लिया और गंध का पीछा करना छोड़ा दिया। फिर जब घोंसला बनाने के मौसम में ये पक्षी वास्तव में वहां आए तो गंध को छलावा मानकर इनके शिकारियों ने इन तक पहुंचने की चेष्टा नहीं की।

चूहे भी भोजन ढूंढने के लिए गंध पर निर्भर होते हैं। गेहूं के मामले वे गेहूं के भ्रूण से आने वाली गंध सूंघते हुए पहुंचते हैं। तो युनिवर्सिटी ऑफ सिडनी के जीव वैज्ञानिक पीटर बैंक और उनके दल ने सोचा कि क्या इसी तरह चूहों को भी भटकाया जा सकता है। यह जांचने के लिए शोधकर्ताओं ने ऑस्ट्रेलिया के ग्रामीण इलाके के गेहूं के एक खेत को 10×10 मीटर के 60 भूखंडों में बांटा। कुछ भूखंडों पर सिर्फ गेहूं के भ्रूण की गंध छिड़की गेहूं नहीं बोए। कुछ भूखंडों में बीज भी बोए और गंध भी छिड़की। और कुछ भूखंडों में सिर्फ बीज बोकर छोड़ दिया।

पूर्व अध्ययन के हिसाब से शोधकर्ताओं को उम्मीद थी कि स्थानीय चूहे खाली खेतों के छलावे से समझ जाएंगे कि गंध के पीछे भागकर बीज ढूंढना ऊर्जा और समय की बर्बादी है, पर ऐसा नहीं हुआ। लेकिन गेहूं बोने के साथ गंध का छिड़काव करने का तरीका काम कर गया। जिन खेतों में गेहूं की बहुत अधिक गंध आ रही थी वहां चूहे यह पता ही नहीं कर पाए कि वास्तव में बीज हैं कहां। नेचर सस्टेनेबिलिटी की रिपोर्ट के मुताबिक गंध रहित बुवाई वाले खेतों की तुलना में गंध सहित बुवाई वाले खेतों में फसल को 74 प्रतिशत कम नुकसान हुआ।

अच्छी बात यह है कि गेहूं की गंध का छिड़काव करने के लिए आम तौर पर किसानी में उपयोग किए जाने वाले उपकरणों से काम चल जाएगा। गंध के लिए गेहूं का तेल मिलों का सह-उत्पाद होता है, इसलिए इसमें कोई अतिरिक्त खर्चा भी नहीं आएगा। तो किसानों के लिए यह उपाय अपनाना अपेक्षाकृत आसान हो सकता है। बहरहाल, यह जानना बाकी है कि कितनी मात्रा में और कितनी बार गंध छिड़काव पर्याप्त होगा, इसे हर साल छिड़कना होगा या मात्र तब छिड़कने से काम चल जाएगा जब चूहे ज़्यादा हों। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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खानपान पर ध्यान, सूक्ष्मजीवों को भुलाया

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र्ष 1826 में एक फ्रांसीसी वकील ऐंथेल्मे ब्रिलैट-सैवरीन का यह कथन खानपान के बारे में हमारी समझ को बखूबी व्यक्त करता है, “मुझे बताइए कि आप क्या खाते हैं, मैं आपको बता दूंगा कि आप क्या हैं।” कुछ ऐसी ही बात जर्मन दार्शनिक लुडविग एंड्रियास फॉयरबैक ने 1863 में कही थी, “आप वही हैं जो आप खाते हैं।” आगे चलकर 1942 में एक अमेरिकी स्वस्थ-खाद्य लेखक विक्टर लिंडलार ने तो स्वस्थ और संतुलित आहार पर एक किताब ही लिख डाली: यू आर व्हाट यू ईट: हाउ टू विन एंड कीप हेल्थ विद डाएट

विभिन्न संस्कृतियों में खान-पान की पसंद-नापसंद और उसकी गुणवत्ता के बारे में समझ अलग-अलग रही है। खाद्य के वैश्वीकरण ने प्राचीन काल से अब तक भोजन के विकल्पों को काफी सीमित कर दिया है। जनसंख्या बढ़ने के साथ भोजन की मांग में वृद्धि हुई है। 1998 में एस. बेंगमार्क और उनके दल द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति औसत जीवनकाल में करीबन 60 टन भोजन खा डालता है। आधुनिक खाद्य विकल्पों की मांग की आपूर्ति के लिए सघन उत्पादन ने मनुष्यों को कई जोखिमों में डाल दिया है, जिनमें खाद्य गुणवत्ता से लेकर बिगड़ते अर्थशास्त्र, ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ते उत्सर्जन तथा जलवायु परिवर्तन की घटनाएं शामिल हैं।

खाद्य गुणवत्ता सम्बंधी नज़रिए खाद्य अर्थशास्त्र और स्वास्थ्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण कसौटियां हैं। गुणवत्ता मूल्यांकन तो एक व्यक्तिपरक मामला है। आम तौर पर उपभोक्ता किसी खाद्य सामग्री को खरीदते समय उसकी ताज़गी, स्वाद, रंग-रूप और कीमत जैसे प्रत्यक्ष सूचकों को देखते हैं। दूसरी ओर, प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों के लिए रासायनिक अवयव, पोषण सम्बंधी तथ्य, कुल सामग्री, ऐडिटिव्स और बेस्ट बिफोर डेट जैसे विशिष्ट संकेतक महत्वपूर्ण होते हैं।

सूक्ष्मजीवी गुणवत्ता एवं सुरक्षा के बारे में उपभोक्ताओं की जागरूकता और नियामक दिशानिर्देश फिलहाल सिर्फ भोजन को खराब करने वाले सूक्ष्मजीवों और खाद्य वाहित रोगजनकों तक ही सीमित हैं। आजकल खाद्य सुरक्षा और स्वच्छता सर्वेक्षणों में सूक्ष्मजीवी संकेतकों का उपयोग किया जाने लगा है।

लेकिन जिस चीज़ को अनदेखा किया गया है, वह है भोजन से जुड़ा लाभकारी सूक्ष्मजीव संसार जो मानव पोषण में महत्वपूर्ण योगदान देता है। किसी भी स्वस्थ प्राणि या पौधे में लाभकारी और संभावित रूप से हानिकारक सूक्ष्मजीव सह-अस्तित्व में रहते हैं। सहजीवी (पारस्परिक रूप से लाभकारी), सहभोजी और रोगजनक सूक्ष्मजीवों के बीच संतुलन बाधित होने पर सूक्ष्मजीव असंतुलन की समस्या पैदा होती है। यहां भोजन का माइक्रोबायोम (सूक्ष्मजीवों का समग्र जीनोम) गुणवत्ता निर्धारित करता है जबकि उपभोक्ता का माइक्रोबायोम स्वास्थ्य का निर्धारण करता है, जिसमें भोजन का पाचन भी शामिल है।             

मनुष्यों की आंत में खरबों सूक्ष्मजीव होते हैं। बैक्टीरिया, आर्किया और यूकेरियोट जैसे सूक्ष्मजीवों के इस समुदाय में 98 लाख जीन होते हैं जो चयापचयी पदार्थ पैदा करते हैं। ये पदार्थ मेज़बान के चयापचय, प्रतिरक्षा, स्वास्थ्य और फीनोटाइप (यानी प्रकट रूप) को प्रभावित करते हैं। सूक्ष्मजीवी विविधता एक ‘स्वस्थ आंत’ की सूचक है।

मनुष्य की आंत का माइक्रोबायोम व्यक्ति के आनुवंशिकी और पर्यावरणीय कारकों पर निर्भर होता है जिसमें आहार और दवाएं भी शामिल हैं। आंत के सूक्ष्मजीव शरीर को कई पोषक तत्व, अमीनो एसिड और बी विटामिन प्रदान करते हैं। आहार से प्राप्त बी विटामिन्स का अवशोषण छोटी आंत में होता है जबकि आंत के सूक्ष्मजीव से उत्पन्न बी विटामिन्स का उत्पादन और अवशोषण बड़ी आंत में होता है। ये बी विटामिन शरीर के प्रतिरक्षा संतुलन को बनाए रखते हैं। आंत के सूक्ष्मजीव डोपामाइन, सेरेटोनिन, गामा-एमीनोब्यूटरिक अम्ल और नॉरएपिनेफ्रीन जैसे न्यूरोट्रांसमीटरों का उत्पादन या उपयोग भी करते हैं और उनके न्यूरोट्रांसमीटर में उतार-चढ़ाव आंत-मस्तिष्क कड़ी के लिए एक आवश्यक संचार मार्ग प्रदान करता है।

स्वस्थ लोगों के मल के सूक्ष्मजीव जगत को चपापचयी दिक्कतों वाले रोगियों में प्रत्यारोपित करने (स्वस्थ व्यक्ति के मल के तनु घोल को रोगी व्यक्ति की आंत में पहुंचाने) के प्रयासों ने आंत के सूक्ष्मजीव जीनोम की भूमिका के बारे में हमारी समझ बढ़ाई है।

आंत में माइक्रोबायोम की स्थापना जन्म के साथ ही शुरू हो जाती है और गर्भनाल के ज़रिए बैक्टीरिया का संचरण या गर्भाशय में मां की आंतों के बैक्टीरिया का भ्रूण में स्थानांतरण संभव है। शिशु विकास के शुरुआती चरण में आंत के सूक्ष्मजीव जगत की विविधता कम होती है और इसमें बाइफिडोबैक्टीरियम प्रजातियों और बैक्टीरॉइड्स प्रजातियों की संख्या अधिक होती है। यह माइक्रोबायोटा के स्थानांतरण और मां के दूध के माध्यम से प्राप्त होता है (लगभग 8 लाख बैक्टीरिया प्रतिदिन)। अधिक मात्रा में आंत के रोगजनकों की उपस्थिति की वजह से सूक्ष्मजीव असंतुलन कुपोषित बच्चों में आम तौर पर देखा जाता है। पहले साल में, मां के दूध से ठोस आहार पर जाने से सूक्ष्मजीव विविधता में वृद्धि होती है। तीन वर्ष की आयु तक सूक्ष्मजीव संघटन की संरचना, विविधता और कार्यात्मक क्षमताएं एक वयस्क की तरह होने लगती हैं। वयस्क अवस्था में आंत की सूक्ष्मजीव संरचना अपेक्षाकृत स्थिर रहती है। दूसरी ओर, बुज़ुर्गों में शॉर्ट-चेन फैटी एसिड उत्पादन और एमायलोलायसिस की क्षमता कम हो जाती है। इस तरह लंबे समय तक सूक्ष्मजीवों का सक्रिय या निष्क्रिय स्थानांतरण व्यक्ति की आंत के सूक्ष्मजीव संघटन में योगदान देता है।

लंबे समय का आहार पैटर्न आंत के माइक्रोबायोम के लचीलेपन का निर्धारण करता है जो अपने तईं जीवन की गुणवत्ता या आहार-सम्बंधी बीमारियों का नियंत्रण करता है। आंत के माइक्रोबायोम में गुणात्मक परिवर्तन या तो स्वयं माइक्रोबायोम की अपरिपक्वता (यानी एक ही उम्र के स्वस्थ व अस्वस्थ व्यक्ति के माइक्रोबायोम में अंतर) या माक्रोबायोम असंतुलन (सूक्ष्मजीवों की स्थायी हानि) के कारण होते हैं।

बांग्लादेश में जीनेट एल. गेहरिग और उनके दल द्वारा किए गए एक परीक्षण में पाया गया कि माइक्रोबायोम-लक्षित पूरक आहार गंभीर कुपोषण से ग्रस्त बच्चों की माइक्रोबायोम अपरिपक्वता को ठीक करता है। इस पूरक आहार में विभिन्न मात्रा में चना, सोयाबीन, मूंगफली और केले वगैरह शामिल थे। यह अध्ययन 2019 में साइंस पत्रिका में प्रकाशित हुआ था।

किण्वित खाद्य पदार्थ महत्वपूर्ण विकल्प रहे हैं, खासकर शिकारी-संग्रहकर्ता जीवन शैली से कृषि आधारित जीवन शैली की ओर बदलाव के दौरान। लेकिन आज किण्वित पेय अधिक लोकप्रिय हो गए हैं। किण्वित खाद्य बनाने की पारिवारिक परंपराएं लगभग खत्म हो चुकी हैं। आज की बाज़ारू खाद्य सामग्री और फास्ट फूड ने लगभग 5000 किण्वित खाद्य सामग्री को गायब कर दिया है। ताज़ा खाद्य सामग्री को प्राकृतिक सूक्ष्मजीवों से किण्वित करके कच्ची सामग्री से पौष्टिक या नशीले उत्पाद बनाए जाते थे। ब्रेड और बीयर का खमीर (सैकरोमायसीज़ सेरेवीसिए) से घनिष्ठ सम्बंध तो जाना-माना है। इस खमीर ने 14,000 से अधिक वर्षों में मनुष्यों के साथ हज़ारों जीन साझा किए हैं। चावल और उड़द के घोल से लोकप्रिय इडली बनाई जाती है। इसमें किण्वन प्राकृतिक सूक्ष्मजीवों द्वारा होता है। दही, केफिर, टेम्पे, मीसो और कोम्बुचाज़ जैसे कई किण्वित खाद्य पदार्थों में जीवित सूक्ष्मजीव होते हैं जबकि कई अन्य में नहीं होते। लिहाज़ा, किण्वन की जैव रासायनिक परिभाषा केवल कुछ खाद्य किण्वनों पर ही लागू की जा सकती है। हाल ही में इंटरनेशनल साइंटिफिक एसोसिएशन फॉर प्रोबायोटिक्स एंड प्रीबायोटिक्स ने किण्वित खाद्य और पेय पदार्थों को निम्नानुसार परिभाषित किया है: ‘वांछित सूक्ष्मजीव वृद्धि और खाद्य घटकों के एंज़ाइम आधारित रूपांतरण’ द्वारा निर्मित खाद्य पदार्थ। इसमें ‘वांछित सूक्ष्मजीव वृद्धि’ पर काफी ज़ोर दिया गया है, इसलिए किण्वित खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता और सुरक्षा काफी हद तक खाद्य पदार्थों और कच्ची सामग्री के माइक्रोबायोम पर निर्भर करती है। खाद्य पदार्थों की पौष्टिकता में सुधार के अलावा, किण्वित खाद्य पदार्थ शर्करा के स्तर, भूख, तंत्रिका सम्बंधी विकारों और चिंता को भी नियंत्रित कर सकते हैं।

खानपान के प्रति जागरूकता भोजन और कच्चे माल के उत्पादन तथा प्रसंस्करण से शुरू होनी चाहिए न कि थाली में भोजन परोसे जाने के बाद। मिट्टी, पानी, ऊर्जा और पादप विविधता जैसे प्राकृतिक संसाधनों के वर्तमान उपयोग का पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। सघन औद्योगिक कृषि में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों पर अत्यधिक निर्भरता के चलते रासायनिक रूप से संदूषित, कम पौष्टिक और जैव-सक्रिय यौगिकों तथा संशोधित माइक्रोबायोम वाली खाद्य सामग्री और कच्चे माल का उत्पादन होता है। मसलन एक कुदरती सेब में 10 करोड़ बैक्टीरिया होते हैं। रासायनिक उर्वरकों से उत्पादित फलों की तुलना में जैविक खेती से प्राप्त फलों में समृद्ध माइक्रोबायोम विविधता होती है। इसलिए आजकल का सेब डॉक्टर को दूर नहीं बल्कि व्यस्त रख सकता है।

आजकल की कृषि पद्धतियों और भोजन विकल्पों के चलते ‘आहार और दवा’ का मिला-जुला सेवन आम बात हो चली है। मल प्रत्यारोपण अब संभव दिख रहा है। पिछले वर्ष अमेरिका के खाद्य व औषधि प्रशासन ने क्लॉस्ट्रीडियम डिफिसाइल जनित जीर्ण दस्त के इलाज के लिए मल प्रत्यारोपण को मंज़ूरी दी है। वनस्पति, जीव-जगत, मनुष्य और पर्यावरणीय सूक्ष्मजीवों के परस्पर प्रभावों को देखते हुए भोजन के विकल्पों के साथ-साथ खाद्य उत्पादन शृंखला पर पुनर्विचार आवश्यक है।

कृषि क्षेत्र में नवीन प्रबंधन पद्धतियों का उद्देश्य पोषक तत्व और ऊर्जा के साथ एक स्वस्थ माइक्रोबायोम होना चाहिए। मिट्टी से लेकर उपभोक्ताओं के दस्तरखान तक माइक्रोबायोम मानक और निगरानी तकनीकों की मदद से खाद्य सुरक्षा में सुधार किया जा सकता है।

राष्ट्रीय खाद्य आधारित आहार दिशानिर्देश (एफबीडीजी) मानव पोषण और उर्जा आवश्यकताओं पर समग्र दृष्टिकोण प्रदान करते हैं तथा स्वस्थ आहार चुनने और अपनाने के लिए संस्कृति-विशिष्ट सलाह देते हैं (https://www.fao.org/nutrition/education/food-based-dietary-guidelines)। इन एफबीडीजी का मुख्य लक्ष्य विभिन्न प्रकार के कुपोषण (यानी अल्पपोषण, सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी और मोटापा, मधुमेह, हृदय रोग एवं कतिपय कैंसर जैसी आहार सम्बंधी बीमारियों) का मुकाबला करना है।

इस तरह, मानव पोषण के लिए माइक्रोबायोम के योगदान और खेत से प्लेट तक भोजन एवं कच्चे माल से सम्बंधित माइक्रोबायोम के लिए नियामक दिशानिर्देशों पर विचार करते हुए नए दिशानिर्देश स्थापित करना फायदेमंद हो सकता है। माइक्रोबायोम अनुसंधान, मानकों और नवाचारों के साथ किण्वित खाद्य पदार्थों को पुनर्जीवित करने से स्वास्थ्य में सुधार, भोजन की बर्बादी में कमी और भोजन उत्पादन एवं प्रबंधन के लिए ऊर्जा के बेहतर उपयोग का रास्ता खुल सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दक्षिण भारत की फिल्टर कॉफी – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

वेबसाइट स्टेटिस्टा (Statista) बताती है कि ब्राज़ील, वियतनाम, कोलंबिया, इंडोनेशिया, इथियोपिया और होंडुरास के बाद भारत दुनिया का छठवां सबसे बड़ा कॉफी उत्पादक देश है। 2022-23 में भारत में करीब 4 लाख टन कॉफी का उत्पादन हुआ है।

डॉ. के. टी. अचया अपनी पुस्तक इंडियन फूड: ए हिस्टोरिकल कम्पेनियन में लिखते हैं कि 14वीं-15वीं शताब्दी में कॉफी मध्य पूर्व से ‘कोहा’ नाम से भारत आई, और बाद में कॉफी कहलाने लगी। कुछ ब्लॉगर्स लिखते हैं कि औपनिवेशिक अंग्रेजों ने मैसूर से युरोप तक भारतीय कॉफी का व्यावसायीकरण किया था।

स्रोत के फरवरी 2020 के अंक में प्रकाशित अपने एक लेख में मैंने लिखा था कि कॉफी एक स्वास्थ्यवर्धक पेय है। मेटा-विश्लेषण से पता चलता है कि कॉफी में कई विटामिन और एंटीऑक्सीडेंट्स होते हैं। इस तरह, यह एक ऐसा स्वास्थ्यकारी पेय है जो हमारे आमाशय की कोशिकाओं को ऑक्सीकारक क्षति से बचाता है, और टाइप-2 डायबिटीज़ और बढ़ती उम्र से जुड़ी कई बीमारियों के जोखिम को कम करता है। लेकिन इसकी अति से बचना चाहिए; एक दिन में पांच कप से ज़्यादा नहीं।

दक्षिण भारतीय कॉफी वास्तव में भुने हुए कॉफी के बीज और भुनी हुई चिकरी की जड़ों के पावडरों का मिश्रण होती है। चिकरी की यह मिलावट ही दक्षिण भारतीय कॉफी को खास बनाती है।

लेकिन चिकरी है क्या? यह मूलत: युरोप और एशिया में पाई जाने वाली एक वनस्पति है। इसकी जड़ में इनुलिन नामक एक स्टार्ची पदार्थ होता है। यह स्वास्थ्य के लिए अच्छा होता है। यह गेहूं, प्याज़, केले, लीक (हरी प्याज़ सरीखी सब्ज़ी), आर्टिचोक (हाथी चक) और सतावरी सहित विभिन्न फलों, सब्ज़ियों और जड़ी-बूटियों में पाया जाता है।

चिकरी की जड़ हल्का-सा विरेचक (दस्तावर) असर देती है और सूजन कम करती है। यह बीटा कैरोटीन का भी एक समृद्ध स्रोत है। यह कॉफी के मुकाबले कोशिकाओं को ऑक्सीकारक क्षति से बेहतर बचाता है। इसके अलावा, चिकरी में कैफीन भी नहीं होता, जिसके कारण बेचैनी और अनिद्रा की शिकायत होती है। दूसरी ओर, कॉफी में कैफीन होता है। यही कारण है कि दक्षिण भारतीय तरीके से (कॉफी और चिकरी पाउडर मिलाकर) कॉफी बनाना एक अच्छी परम्परा लगती है: इस मिश्रण में 70 प्रतिशत कॉफी और 30 प्रतिशत चिकरी पावडर मिलाते हैं। स्वादानुसार ये प्रतिशत अलग भी हो सकते हैं।

भारत में कॉफी बागान कहां-कहां हैं? इसके अधिकतर बागान कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु के पहाड़ी क्षेत्रों में हैं। फिर आंध्र प्रदेश (अरकू घाटी) और ओडिशा, मणिपुर, मिज़ोरम के पहाड़ी क्षेत्रों में और पूर्वोत्तर भारत के ‘सेवन सिस्टर्स’ पहाड़ों में कॉफी के बागान हैं। चिकरी मुख्यत: उत्तर प्रदेश और गुजरात में उगाई जाती है। दिलचस्प बात यह है कि इन दोनों राज्यों में ज़्यादातर लोग चाय पीते हैं, कॉफी नहीं। अच्छी बात यह है कि तुलनात्मक रूप से प्रति कप चाय में भी कम कैफीन होता है।

दुनिया के कई हिस्सों में लोग बिना दूध वाली ब्लैक कॉफी पीते हैं। इतालवी लोग कॉफी को कई तरह से बनाते हैं। मसलन एस्प्रेसो कॉफी में, उच्च दाब पर कॉफी पावडर से गर्मा-गरम पानी गुज़ारा जाता है। दक्षिण भारतीय फिल्टर कॉफी आम तौर पर गर्म दूध डाल कर पी जाती है। कॉफी में दूध मिलाने से उसका स्वाद और महक बढ़ जाते हैं।

दरअसल, जर्नल ऑफ एग्रीकल्चर एंड फूड केमिस्ट्री के जनवरी 2023 के अंक में युनिवर्सिटी ऑफ कोपेनहेगन, डेनमार्क के शोधकर्ताओं द्वारा प्रकाशित एक पेपर बताता है कि दूध वाली कॉफी पीना शोथ-रोधी असर दे सकता है। दूध में प्रोटीन और एंटीऑक्सीडेंट की उपस्थिति रोग प्रतिरोधक क्षमता पैदा करने वाली कोशिकाओं को सक्रिय करने में मदद करती है।

दूध वाली कॉफी के स्वास्थ्य पर प्रभावों का अध्ययन करने के लिए शोधकर्ताओं ने मनुष्यों पर परीक्षण शुरू कर दिए है। इसमें कोई संदेह नहीं कि कॉफी के शौकीन भारतीय लोग इस ट्रायल में ज़रूर शामिल होना चाहेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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गर्म रहने के लिए अपनी सांस रोकती शार्क

पने पसंदीदा स्क्विड जैसे भोजन के लिए स्कैलोप्ड हैमरहेड शार्क (Sphyrna lewini) समुद्र में 800 मीटर से भी अधिक गहराई तक गोता लगाती हैं। ऊष्णकटिबंध क्षेत्र में रहने वाली इस असमतापी शार्क के लिए 5 डिग्री सेल्सियस ठंडे पानी में गोता लगाना काफी जोखिम भरा हो सकता है। फिर भी ये बिना किसी समस्या के रात में कई बार ठंडे समुद्र गोता लगाती हैं।

साइंस में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार शार्क अपनी सांस थामकर इस जोखिम भरे काम को अंजाम देती हैं। टीम का अनुमान है कि यह शार्क गोता लगाते हुए अपने गलफड़ों और मुंह को बंद कर लेती है। ऐसा करते हुए ऑक्सीजन की आपूर्ति तो रुक जाती है लेकिन शरीर की गर्मी समुद्र में जाने से भी बच जाती है।

गौरतलब है कि ट्यूना और लैमनिड शार्क जैसे गहराई में रहने वाले समुद्री जंतु कुछ हद तक शरीर का तापमान संतुलित रख सकते हैं। ये बर्फीले तापमान में ऊष्मा को शरीर के विशिष्ट अंगों की ओर भेज देते हैं। लेकिन स्कैलोप्ड हैमरहेड शार्क में ऐसी कोई विशेषता नहीं है। जिस गहराई में ये गोता लगाती हैं वहां का तापमान मात्र 5 डिग्री सेल्सियस होता है। तापमान में इतनी गिरावट से उनकी दृष्टि और मस्तिष्क के कार्य प्रभावित हो सकते हैं। मांसपेशियों में जकड़न के चलते तैरने और पानी को गलफड़ों में खींचने में परेशानी हो सकती है और मृत्यु तक हो सकती है।

शार्क की इस अनोखी विशेषता का पता लगाने के लिए मनोआ स्थित हवाई विश्वविद्यालय के जीवविज्ञानी मार्क रॉयर और उनके दल ने हवाई द्वीप ओहू के तट पर इन जीवों पर कई सेंसर लगाए। इनमें एक त्वरणमापी था जो उनकी गति, पूंछ के हिलने की गति और शरीर की स्थिति की निगरानी करता है। इन सेंसरों ने गहराई और वहां पानी के तापमान के साथ-साथ शार्क के शरीर के आंतरिक तापमान को भी दर्ज किया। लगभग 23 दिन बाद आंकड़े काफी चौंकाने वाले थे। गोता लगाने के बाद शार्क ने पूरे समय शरीर के तापमान को सामान्य से 0.1 डिग्री सेल्सियस के भीतर बनाए रखा। ऊपर लौटते समय अंतिम 300 मीटर में शार्क के शरीर के तापमान में लगभग 2 डिग्री सेल्सियस की गिरावट आई। टीम के अनुसार सबसे सशक्त व्याख्या यह है कि नीचे जाते समय शार्क मुक्त रूप से गिरी होगी और अपने गलफड़े और मुंह दोनों ही बंद रखे होंगे। इस तकनीक से वे खुद को गर्म रख पाई होंगी। ऊपर पहुंचने के अंतिम चरण के दौरान तापमान में गिरावट का कारण शार्क द्वारा अपने गलफड़ों को फिर से सांस लेने के लिए खोलना रहा होगा। शार्क ने प्रति गोता औसतन 17 मिनट अपनी सांस रोके रखी।

गहरी गोताखोरी के दौरान अपनी सांस रोककर रखने का यह प्रथम उदाहरण है। हालांकि कुछ अन्य वैज्ञानिक इन निष्कर्षों से पूरी तरह सहमत नहीं है। गोता लगाने के दौरान शार्क के वीडियो फुटेज में गलफड़ों और मुंह बंद होने के प्रमाण देखना ज़रूरी है। फिलहाल शोधकर्ता शार्क के चयापचय की जांच करना चाहते हैं ताकि गहरी गोताखोरी को और बेहतर ढंग से समझा जा सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वायुमंडल में ज़मीनी विस्फोटों पर निगरानी

हाल ही में वैज्ञानिकों ने वायुमंडल में 100 किलोमीटर ऊपर स्थित आयनमंडल में भूमि पर होने वाले हल्के धमाके महसूस भी कर लिए हैं। इससे लगता है कि अब रिमोट सेंसिंग तकनीक की मदद से हल्की विस्फोटक (प्राकृतिक हों या मानवजनित) घटनाओं पर भी नज़र रखी जा सकेगी।

वायुमंडल का आयनमंडल औरोरा (मेरुज्योति) का गढ़ है। यह तब बनता है जब सूर्य से आने वाले आवेशित कण परमाणुओं से टकराते हैं और उन्हें आलोकित करते हैं। लेकिन भूमि पर होने वाले विस्फोट भी आयनमंडल में खलल डाल सकते हैं। 2022 में, दक्षिण प्रशांत महासागर में स्थित हुंगा टोंगा-हुंगा हाआपाई ज्वालामुखी विस्फोट ने आयनमंडल में हिलोरें पैदा कर दी थीं। 1979 में, आयनमंडल में पैदा हुई हलचल इस्राइली-दक्षिण अफ्रीकी परमाणु परीक्षण से जुड़ी हुई पाई गई थी।

दोनों धमाकों से इन्फ्रासाउंड तरंगें निकली थीं, जो काफी दूर तक जाती हैं और आयनमंडल में कंपन पैदा कर सकती हैं। आयनमंडल के आवेशित कणों से टकराकर वापिस लौटने वाली तरंगों की मदद से इन विस्फोटों को रिकॉर्ड किया गया था। लेकिन इस तकनीक से एक किलोटन टीएनटी से अधिक शक्तिशाली विस्फोट ही पहचाने जा सकते थे, इससे हल्के विस्फोट नहीं। (हिरोशिमा पर गिराया गया परमाणु बम 15 किलोटन का था।)

अर्थ एंड साइंस पत्रिका में प्रकाशित हालिया शोध में शोधकर्ताओं ने 1 टन टीएनटी के प्रायोगिक विस्फोटों का सफलतापूर्वक पता लगा लिया है। इसके लिए वायु सेना अनुसंधान प्रयोगशाला के केनेथ ओबेनबर्गर और उनके साथियों ने 2022 में 1-1 टन के दो विस्फोटों के प्रभावों का निरीक्षण करने के लिए राडार डिटेक्टरों को आयनमंडल में हलचल के कारण पैदा होने वाली तरंगों को मापने के लिए डिज़ाइन किया। इस डिज़ाइन से उन्हें विस्फोट होने के 6 मिनट के भीतर विस्फोट के संकेत मिल गए थे।

उम्मीद है कि इसकी मदद से छोटे मानव जनित विस्फोटों या प्रशांत महासागर के सुदूर क्षेत्र में स्थित ज्वालामुखी विस्फोटों की निगरानी की जा सकेगी, जो अन्यथा मुश्किल होता है। इसके अलावा, इसकी मदद से भूकंपों का पता भी लगा सकते हैं जिनके कारण सुनामी, भूस्खलन और अन्य आपदाएं हो सकती हैं।

इसका एक अन्य संभावित उपयोग ग्रह विज्ञान में हो सकता है। शुक्र जैसे ग्रह, जहां घने बादलों के कारण सतह को स्पष्ट देखना मुश्किल है, की कक्षा में आयनमंडल राडार स्थापित कर विस्फोटों और भूकंपों का पता लगाया जा सकता है।

फिलहाल, ओबेनबर्गर शोध को पृथ्वी आधारित ही रखना चाहते हैं। वे विभिन्न मौसमों में इस तकनीक के परीक्षण की योजना बना रहे हैं, क्योंकि साल भर में आयनमंडल बदलता रहता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मिज़ोरम में मिली छिपकली की एक नई प्रजाति

त्तर-पूर्वी भारत के राज्य मिज़ोरम में खोजी गई एक नवीन छिपकली प्रजाति की विशेषता है कि यह पैराशूट जैसी रचना की मदद से हवा में तैरती है। इसे गेको मिज़ोरमेंसिस नाम दिया गया है। इसे मई 2022 में मिज़ोरम के लौंगत्लाई कस्बे में खोजा गया है। यह देखा गया कि ये पैराशूट छिपकलियां ज़मीन से करीब डेढ़ से साढ़े तीन मीटर की ऊंचाई पर उतराती रहती हैं। दरअसल यह पैराशूट उनकी चमड़ी से बना पल्ला होता है और उनकी भुजाओं, शरीर और पूंछ पर फैला होता है। ये गोधूली में सक्रियता से कीड़े-मकोड़ों का शिकार करती हैं जो रोशनी से आकर्षित होकर बाहर निकलते हैं।

इस खोज का विवरण सैलामैण्ड्रा – जर्मन जर्नल ऑफ हर्पेटोलॉजी में हुआ है ओर इससे पता चलता है कि भारत और खासकर इस इलाके के जीव-जंतुओं और वनस्पतियों के बारे में जानकारी अभी भी बहुत कम है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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तीन दशकों बाद ‘विज्ञान प्रसार’ अवसान के पथ पर – चक्रेश जैन

पूरे देश में संचार के प्रमुख माध्यमों और विभिन्न विधाओं के ज़रिए आम आदमी तक विज्ञान की उपलब्धियों को पहुंचाने और वैज्ञानिक जागरूकता के उद्देश्य से भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा अक्टूबर 1989 में ‘विज्ञान प्रसार’ नामक एक स्वायत्त संस्था स्थापित की गई थी। इसकी स्थापना के 33 वर्षों बाद नीति आयोग ने इसे बंद करने की सिफारिश की है।

आज़ादी के 75 सालों बाद जब विज्ञान संचार की गतिविधियों के विस्तार और सशक्तीकरण का अवसर आया है, तब इस तरह के चौंकाने वाले प्रस्ताव ने विचार मंथन और नीति आयोग तक अपनी बात पहुंचाने के लिए प्रेरित किया है।

इस संस्था ने आम आदमी, संचार माध्यमों, वैज्ञानिकों और नीति निर्माताओं को जोड़ने में अद्वितीय भूमिका निभाई है। विज्ञान की लोकप्रिय किताबों से लेकर पत्रिकाओं, टेलीविज़न, रेडियो, विज्ञान क्लबों, फिल्मों, हैम रेडियो, एडुसेट उपग्रह तक के माध्यम से विज्ञान को आम लोगों तक पहुंचाया है। हाल के वर्षों को छोड़कर ‘विज्ञान प्रसार’ की शानदार उपलब्धियों और गतिविधियों से सराबोर अतीत की सम्यक समीक्षा और विश्लेषण करें तो कहा जा सकता है कि नीति आयोग का निर्णय अनावश्यक और पूर्वाग्रहों से प्रेरित है।

दरअसल, भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने 1982 में राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद (एनसीएसटीसी) की स्थापना एक नोडल एजेंसी के रूप में की थी। एनसीएसटीसी की स्थापना के सात वर्षों बाद 1989 में ‘विज्ञान प्रसार’ का जन्म हुआ। डीएसटी ने विज्ञान प्रसार को स्वायत्त संस्था का दर्जा प्रदान करते हुए व्यापक स्तर पर विज्ञान को लोकप्रिय बनाने का कार्य सौंपा था।

एनसीएसटीसी ने अपनी स्थापना के साथ ही विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के लिए कई नए कार्यक्रम शुरू किए। इनमें टीवी सीरियल ‘भारत की छाप’ और ‘क्यों और कैसे’ कार्यक्रम शामिल हैं। रेडियो के ज़रिए विज्ञान को श्रोताओं तक पहुंचाने के लिए ‘मानव का विकास’ नामक धारावाहिक बनाया गया था। यह विश्व का सबसे लंबा विज्ञान रेडियो धारावाहिक है।

एनसीएसटीसी ने ‘भारत जन विज्ञान जत्था’ का आयोजन किया। यह अपने ढंग का अनोखा आयोजन था, जिसमें ग्रामीण लोगों को विज्ञान और वैज्ञानिकों से सीधे संपर्क में आने का मौका मिला था। एनसीएसटीसी न्यूज़लेटर शीर्षक से मासिक प्रकाशन किया गया, जिसमें एनसीएसटीसी की गतिविधियां, भेंटवार्ताएं और पाठकों की प्रतिक्रियाएं होती थीं। किताबों में कहानी माप तौल की, गाएं गाना, खेलें खेल, हॉर्नबिल सीरीज़ आदि हैं।

आरंभ में एनसीएसटीसी और विज्ञान प्रसार ने कंधे से कंधा मिलाकर कुछ गतिविधियों को बढ़ावा दिया, जिनमें 1995 में ‘पूर्ण सूर्यग्रहण’ के अवसर पर जागरूकता कार्यक्रम था। यह कार्यक्रम विज्ञान संचार के इतिहास में अहम और उल्लेखनीय था। इस कार्यक्रम में एनसीएसटीसी ने संकल्पना में और विज्ञान प्रसार ने विभिन्न भारतीय भाषाओं में सॉफ्टवेयर के विकास में योगदान किया था।

वास्तव में, एनसीएसटीसी ने अपनी स्थापना के शुरुआती दौर में जहां सरकारी ढांचे की सीमाओं के भीतर योगदान दिया, वहीं विज्ञान प्रसार ने स्वायत्त संस्थान की आज़ादी का लाभ उठाते हुए नवीन कार्यक्रम और परियोजनाएं शुरू कीं और पहली बार देश में आम लोगों के लिए विज्ञान संचार की ज़रूरत और महत्व को उजागर किया। विज्ञान प्रसार के विस्तार के बाद एनसीएसटीसी के कार्यों का दायरा देश भर की विज्ञान संस्थाओं की परियोजनाओं के वित्त पोषण, राष्ट्रीय बाल विज्ञान कांग्रेस के सालाना आयोजन और विज्ञान संचार के राष्ट्रीय पुरस्कार तक सिमट कर रह गया है।

विज्ञान प्रसार के विज्ञान संचार कार्यक्रमों को मोटे तौर पर दस भागों में विभाजित किया जा सकता है – प्रकाशन, टेलीविज़न, रेडियो, विपनेट क्लब, खगोल विज्ञान, लिंग समानता एवं प्रौद्योगिकी संचार, हैम रेडियो, गतिविधि किट, फिल्मों के द्वारा विज्ञान और एडुसैट नेटवर्क।

विज्ञान प्रसार द्वारा प्रकाशन कार्यक्रम के अंतर्गत अभी तक लगभग 400 किताबें प्रकाशित की गई हैं। ये पुस्तकें विभिन्न शृंखलाओं के अंतर्गत हिन्दी और अंग्रेज़ी के अलावा तमिल, तेलुगु, कन्नड़, गुजराती, मराठी, पंजाबी, बांग्ला आदि विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित की गई हैं।

ड्रीम 2047 विज्ञान प्रसार की लोकप्रिय मासिक विज्ञान पत्रिका है। इसका प्रकाशन अक्टूबर 1998 में आरंभ हुआ था। इस द्विभाषी पत्रिका का प्रकाशन अनवरत जारी है। विख्यात और वरिष्ठ पत्रकार एवं मुंबई से प्रकाशित फ्री प्रेस जर्नल में लंबे समय तक नियमित स्तम्भकार रहे पद्मभूषण एम. वी. कामथ ने ड्रीम 2047 के सौवें अंक में प्रकाशित आलेख में इस पत्रिका को अनूठी विज्ञान पत्रिका बताया है। ड्रीम 2047 पत्रिका का इलेक्ट्राॅनिक संस्करण विज्ञान प्रसार की वेबसाइट पर उपलब्ध है।

विज्ञान प्रसार विपनेट न्यूज़ प्रकाशित कर रहा है। इस मासिक पत्र में खगोल विज्ञान, जैव विविधता, प्रकृति, जलवायु परिवर्तन जैसे विषयों से सम्बंधित आलेख होते हैं। यह पत्रिका विज्ञान क्लब के सदस्यों के बीच संवाद स्थापित करने में अहम भूमिका निभाती है।

विज्ञान प्रसार द्वारा भारतीय भाषाओं में विज्ञान संचार, लोकप्रियकरण एवं विस्तार (स्कोप) परियोजना आरंभ करने से देश में विज्ञान संचार को एक नई दिशा मिली है। इसके तहत विभिन्न भाषाओं में वैज्ञानिक जर्नल प्रकाशित हो रहे हैं। उर्दू में तजस्सुस शीर्षक से मासिक पत्र प्रकाशित हो रहा है। तजस्सुस का अर्थ है उत्सुकता। इसी प्रकार से बांग्ला में विज्ञान कथा का प्रकाशन जारी है। तमिल में अरिवियल पलागाई मासिक पत्रिका प्रकाशित हो रही है।

विज्ञान प्रसार ने भारत में टेलीविज़न को लोकप्रिय माध्यम के रूप में देखते हुए इसका उपयोग वैज्ञानिक जागरूकता और प्रसार के लिए करने का निर्णय लिया। इसरो की डेवलपमेंट एंड एजुकेशनल कम्युनिकेशन युनिट (डेकू) के साथ मिलकर विज्ञान सम्बंधी कार्यक्रम बनाए, जिनका विभिन्न भारतीय भाषाओं में दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल और क्षेत्रीय केंद्रों से प्रसारण किया गया। साइंस ऑन टेलीविज़न के माध्यम से टेलीविज़न पर विज्ञान कार्यक्रम लोकसभा और राज्यसभा टीवी, क्षेत्रीय दूरदर्शन केंद्रों और ज्ञान दर्शन के माध्यम से प्रसारित होते रहे हैं। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी पर आधारित लगभग 2000 कार्यक्रमों को देश के लाखों दर्शकों ने पसंद किया। इस संस्था का इंटरनेट आधारित ओवर-दी-टॉप (ओटीटी) साइंस चैनल है। यह प्लेटफॉर्म 24X7 विज्ञान और प्रौद्योगिकी आधारित ज्ञान के लिए समर्पित है।

विज्ञान प्रसार ने विभिन्न विषयों और मुद्दों पर मेगा विज्ञान रेडियो धारावाहिकों का निर्माण किया है। इनमें पृथ्वी ग्रह, खगोल विज्ञान, गणित, जैव विविधता, दैनिक जीवन में रसायन विज्ञान, जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग आदि सम्मिलित हैं। 19 भाषाओं में निर्मित इन कार्यक्रमों को विभिन्न एफएम केंद्रों के साथ 117 मीडियम वेव केंद्रों से प्रसारित किया गया है।

रेडियो के ज़रिए जनजातियों और अन्य पिछड़े समुदायों में विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के लिए चल रहे कार्यक्रमों के अंतर्गत जनजातीय भाषाओं में भी कार्यक्रम तैयार किए गए हैं।

हैम रेडियो का लोकप्रियकरण विज्ञान प्रसार की प्रमुख गतिविधियों में शामिल है। हैम रेडियो संचार किसी भी आपात स्थिति के दौरान महत्वपूर्ण बैकअप के रूप में उपयोगी सिद्ध हो सकता है। विज्ञान प्रसार हैम रेडियो स्टेशनों की स्थापना, ऑपरेटरों के प्रशिक्षण और रचनात्मक गतिविधियों के लिए अवसर उपलब्ध कराने के साथ ही विश्व भर के शौकिया ऑपरेटरों के साथ संपर्क स्थापित करने के लिए मार्गदर्शन और तकनीकी मदद प्रदान करता है। विज्ञान प्रसार स्कूली विद्यार्थियों और प्रौद्योगिकी संस्थानों में हैम रेडियो को बढ़ावा दे रहा है।

विज्ञान प्रसार का एक प्रमुख कार्यक्रम ‘नेशनल साइंस फिल्म फेस्टीवल’ भी है। इस फिल्म फेस्टीवल का उद्देश्य सिनेमा के माध्यम से विज्ञान की पहुंच का विस्तार और विज्ञान फिल्म निर्माण को प्रोत्साहन देना रहा है। इसमें पूरे देश से विभिन्न श्रेणियों के अंतर्गत वैज्ञानिक मुद्दों और विषयों पर फिल्में आमंत्रित की जाती हैं। चयनित फिल्मों का प्रदर्शन किया जाता है और पुरस्कार दिए जाते हैं।

विज्ञान प्रसार ने देश के दूरदराज़ इलाकों तक पहुंचने के लिए शैक्षणिक उपग्रह ‘एडुसैट’ का उपयोग करके इंटरएक्टिव टर्मिनलों का नेटवर्क बनाया है और देश के विभिन्न हिस्सों में 50 टर्मिनल स्थापित किए हैं। इस तकनीक का उपयोग विज्ञान प्रसार विभिन्न विज्ञान लोकप्रियकरण कार्यक्रमों के प्रसारण में कर रहा है।

विज्ञान प्रसार ने बीते वर्षों में देश भर में आम लोगों के बीच कई राष्ट्रीय जागरूकता अभियान चलाए हैं। इनमें पूर्ण सूर्य ग्रहण 1999, शुक्र पारगमन 2004, विज्ञान रेल: पहियों पर विज्ञान प्रदर्शनी 2003-04, पूर्ण सूर्यग्रहण 2009 आदि सम्मिलित हैं।

विज्ञान प्रसार द्वारा देश में विज्ञान क्लब कार्यक्रम को बढ़ावा देने के लिए 1998 में विज्ञान क्लब के देशव्यापी नेटवर्क ‘विपनेट’ की स्थापना की गई। वर्तमान में विज्ञान प्रसार का लगभग 3000 विज्ञान क्लबों का नेटवर्क है, जिसके माध्यम से विभिन्न गतिविधियां की जाती रही हैं। वास्तव में विपनेट विज्ञान प्रसार के उद्देश्यों की प्राप्ति में अहम भूमिका निभाता है। विज्ञान क्लब रोचक और ज्ञानवर्धन गतिविधियों का मंच है, जिसमें मित्रों को भी शामिल किया जा सकता है।

विपनेट देश के हर कोने में अच्छी तरह से जाना जाता है। अपनी स्थापना के दो वर्षों बाद मध्यप्रदेश का रतलाम ज़िला देश का सबसे अधिक सदस्यता (107) वाला ज़िला और उत्तरप्रदेश सबसे अधिक 350 विज्ञान क्लबों वाला राज्य बन गया था।

विज्ञान प्रसार के नेतृत्व में स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ के मौके पर देश के 75 स्थानों पर विज्ञान महोत्सवों का आयोजन किया गया था। इसका मुख्य विषय ‘विज्ञान सर्वत्र पूज्यते’ था। विज्ञान उत्सव के माध्यम से स्थानीय लोगों को वैज्ञानिक विरासत और प्रगति से परिचित कराया गया था। इस दौरान विज्ञान पुस्तक मेला, विज्ञान कवि सम्मेलन, विज्ञान प्रदर्शनी आदि कार्यक्रम आयोजित किए गए थे।

साल 2020 में विज्ञान प्रसार ने कोरोना वायरस से फैली कोविड-19 महामारी के दौरान देश के वैज्ञानिकों और अनुसंधानकर्ताओं के कार्यों से सबको परिचित कराने के लिए अनूठी कोविड-19 परीक्षण प्रयोगशाला पर वृत्तचित्र का निर्माण किया।

विज्ञान प्रसार अनेक वर्षों से खगोल विज्ञान के लोकप्रियकरण में जुटा हुआ है और विद्यार्थियों, अध्यापकों और शौकिया खगोल वैज्ञानिकों के लिए दूरबीन निर्माण सम्बंधी कार्यशालाओं का आयोजन करता रहा है।

विज्ञान को आम लोगों तक ले जाने की मुहिम की एक प्रमुख कड़ी है – ‘इंडिया साइंस वायर प्रोजेक्ट’। विज्ञान प्रसार इस प्रोजेक्ट के माध्यम से देश के समाचार पत्रों और वेब पोर्टल्स को विज्ञान समाचार और फीचर नियमित रूप से उपलब्ध करा रहा है।

विज्ञान प्रसार ने देश के 17 स्थानों पर ‘गांधी एट 150 प्रोजेक्ट’ शीर्षक से डिजिटल प्रदर्शनी का आयोजन किया था।

इसने ‘शोध अभिव्यक्ति के लिए लेखन कौशल को प्रोत्साहन’ परियोजना शुरू की, जिसके तहत विज्ञान विषयों में पीएच.डी. और पोस्ट डॉक्टरेट करने वाले व्यक्तियों को फैलोशिप के दौरान अपनी रिसर्च से सम्बंधित मुद्दे पर लोकप्रिय विज्ञान लेखन के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। इस परियोजना का उद्देश्य भारतीय अनुसंधान कार्यों को जन साधारण के बीच रोचक अंदाज़ में प्रस्तुत करना है।

विज्ञान प्रसार ने वर्ष 2018-19 में विद्यार्थी विज्ञान मंथन (वीवीएम) परीक्षा के आयोजन में योगदान किया। डिजिटल उपकरणों की सहायता से आयोजित इस परीक्षा में कक्षा 6-11 के विद्यार्थी भाग लेते हैं। इसका मुख्य उद्देश्य विद्यार्थियों को विज्ञान के क्षेत्र में भारत की वैज्ञानिक और तकनीकी विरासत से परिचित कराना है।

क्रियाकलाप और खिलौना विकास एक निरंतर चलने वाला कार्यक्रम है। विज्ञान प्रसार ने पिछले एक दशक में लगभग 10 विषयों में विषयगत किट विकसित किए हैं। इनमें जैव विविधता, खगोल विज्ञान, भूकंप, मौसम आदि सम्मिलित हैं।

बीते दशकों के दौरान विज्ञान प्रसार ने महत्वपूर्ण दिवसों के अवसर पर उत्सव समारोह आयोजित किए हैं। इनमें मेघनाद साहा की 125वीं जयंती समारोह, राष्ट्रीय गणित दिवस समारोह, रामानुजन यात्रा आदि शामिल हैं।

कुल मिलाकर नीति आयोग द्वारा विज्ञान प्रसार को बंद करने के निर्णय से भारत में विज्ञान संचार के मैदान में पूरे उत्साह, लगन और समर्पण भाव से जुटे विज्ञान संचारकों को गहरा आघात पहुंचा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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संस्थानों द्वारा शोध अधिकार अपने पास रखना ज़रूरी – एस. सी. लखोटिया

शोध परिणामों का समकक्ष-समीक्षित पत्रिकाओं में प्रकाशन अनिवार्य है। इनके व्यापक प्रसारण के लिए ये सभी शोधकर्ताओं और इच्छुक पाठकों को मुफ्त और सुलभता से उपलब्ध होने चाहिए। पिछले कुछ दशकों में शोध प्रकाशन तंत्र में काफी परिवर्तन आए हैं। व्यावसायिक प्रकाशकों ने व्यापक स्तर पर अकादमिक संस्थानों और विद्वत सभाओं से जर्नल प्रकाशन का काम अपने हाथों में ले लिया है। इसके साथ ही आज के डिजिटल युग ने ऑनलाइन प्रकाशन को भी बढ़ावा दिया है। इन दोनों परिवर्तनों से उम्मीद थी कि वैश्विक स्तर पर शोध परिणामों तक पहुंच आसान हो जाएगी।

इसके विपरीत तथ्य यह है कि व्यावसायिक प्रकाशकों ने अपने व्यापारिक हितों के लिए शोध प्रकाशनों को भुगतान के पर्दे के पीछे छिपा दिया है। अतः लेखकों/वित्तपोषकों या पाठकों को शोध-पत्र प्रोसेसिंग फीस या ओपन एक्सेस शुल्क के रूप में भारी रकम का भुगतान करना पड़ता है। हालांकि सभी पत्रिकाएं इस तरह का शुल्क नहीं लगाती हैं, अधिकांश ‘प्रतिष्ठित’ या ‘उच्च प्रभाव’ पत्रिकाएं शोध पत्रों के प्रकाशन या प्रकाशित सामग्री को पढ़ने के लिए शुल्क की मांग करती हैं। डिजिटल-पूर्व युग में प्रकाशित सामग्री या तो पुस्तकालय/व्यक्तिगत सदस्यता से या फिर संस्थानों के बीच पत्रिकाओं के आदान-प्रदान या लेखकों द्वारा बिना किसी शुल्क के साझा की जाती थीं। वर्तमान में अकादमिक संस्थानों के बीच शोध पत्रिकाओं का आदान-प्रदान लगभग खत्म हो गया है। यहां तक कि अधिकांश लेखक कॉपीराइट अनुबंध उल्लंघन की गलत समझ के कारण अपने प्रकाशित शोध पत्रों की सॉफ्ट कॉपी तक अपने साथियों के साथ साझा करने में संकोच करते हैं।

डिजिटल ऑनलाइन सामग्री के ओपन या ‘ग्रीन’ एक्सेस का मतलब ऐसे शोध पत्रों से है जो निशुल्क हों और लगभग सभी कॉपीराइट और लाइसेंसिंग प्रतिबंधों से मुक्त हों। कई चर्चाओं और घोषणाओं के बाद भी ओपन या ‘ग्रीन’ एक्सेस की उम्मीद कम ही नज़र आती है क्योंकि हाल के दशकों में शोध उत्पादों पर व्यावसायिक प्रकाशकों की गिरफ्त काफी मज़बूत हो गई है। अधिकांश मामलों में कॉपीराइट अनुबंध में शर्त होती है कि लेखक पूर्ण कॉपीराइट अधिकार प्रकाशक को सौंपें। एकतरफा रूप से तैयार किए गए कॉपीराइट समझौतों के परिणामस्वरूप शोध उत्पाद आंशिक या पूर्ण रूप से तब तक प्रकाशक के स्वामित्व में रहते हैं जब तक लेखकों/वित्तपोषकों द्वारा भारी प्रकाशन शुल्क का भुगतान नहीं किया जाता। ऐसे में लेखक प्रतिबंधित अवधि (6-24 माह या अधिक) के दौरान ओपन या ग्रीन एक्सेस के तहत व्यक्तिगत या संस्थागत वेबसाइट पर शोध पत्र के प्रकाशित संस्करण को पोस्ट नहीं कर सकते और न ही उन्हें इसे अपने काम के लिए फिर से उपयोग करने की स्वतंत्रता होती है। और तो और, प्रकाशक को भुगतान किए बिना उन्हें अपने ही लेख को अनुवाद करने की भी अनुमति नहीं होती। दूसरी ओर, व्यावसायिक प्रकाशक लेखकों या पाठकों पर ओपन एक्सेस शुल्क लगाकर, लेखकों की अनुमति के बिना अन्य प्रकाशकों को री-पैकेजिंग/सब-लायसेंस देकर खूब मुनाफा कमा सकते हैं।

ओपन साइंस पर अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान परिषद की रिपोर्ट में इस दुष्चक्र को सटीकता से प्रस्तुत किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार ‘कॉर्पोरेट प्रकाशक नियमित रूप से प्रकाशित करने की शर्त के रूप में उन्हें कॉपीराइट सौंपने की मांग करते हैं। ऐसा करते हुए, शोधकर्ता स्वयं अपनी इच्छा से और प्रकाशक द्वारा बिना किसी खर्चे के एक सार्वजनिक सामग्री का निजीकरण करने में सहायता करते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में प्रकाशकों की पहली ज़िम्मेदारी उनके शेयरधारकों के प्रति होती है, न कि विज्ञान के प्रति। कॉर्पोरेट वैज्ञानिक प्रकाशन कंपनियों का यह मॉडल घोर असंतुलित है जिसमें वैज्ञानिक अपना काम उन्हें तोहफे में दे देते हैं और फिर इसी काम को बढ़ी हुई कीमतों पर वापस खरीदते हैं – चाहे व्यक्तिगत रूप से या विश्वविद्यालयों/सरकारी संस्थाओं द्वारा भुगतान के ज़रिए।

प्रकाशकों के हाथों में तुरुप का इक्का यह है कि उन्होंने उच्च प्रभाव वाली पत्रिकाओं के बाज़ार पर कब्ज़ा कर लिया है और फिर वे जो कुछ प्रकाशित करते हैं, उसके पाठकों की संख्या तथा उद्धरण (साइटेशन) को बढ़ावा देते हैं तथा प्रभाव गुणांक में वृद्धि करते रहते हैं। उधर विश्वविद्यालय प्रभाव गुणांक और उद्धरण संख्या का उपयोग अपनी अकादमिक उन्नति के मानदंड के रूप में करते हैं। इस तरह के परस्पर सुदृढीकरण की वजह से शोधकर्ताओं और उनके संस्थानों को लगता है कि किसी उतनी ही गुणवत्ता वाले जर्नल में कम भुगतान करके प्रकाशन करने की बजाय बेहतर होगा कि किसी विशेष पत्रिका में प्रकाशन के लिए ज़्यादा भुगतान किया जाए। यह स्थिति सीमित संसाधनों वाले शोधकर्ताओं के लिए घोर अन्याय है। यह इस सामान्य सोच के भी विपरीत है कि सार्वजनिक धन का उपयोग मुख्य रूप से अनुसंधान और उसके परिणामों के प्रसार में किया जाना चाहिए, न कि व्यावसायिकता को बढ़ावा देने के लिए।

क्रिएटिव कॉमन्स एट्रिब्यूशन लायसेंस (CC-BY) या इसी तरह के ओपन लायसेंस के लिए ज़रूरी है कि सभी बौद्धिक-संपदा अधिकार लेखकों के पास रहे और केवल गैर-एक्सक्लूसिव प्रकाशन अधिकार ही प्रकाशकों को हस्तांतरित किए जाएं। यदि वित्तपोषक ओपन एक्सेस का दाम न चुका पाएं, तो लेखकों द्वारा प्रकाशकों को लगभग सभी कॉपीराइट अधिकार प्रकाशक को सौंप दिया जाना अन्यायपूर्ण है। प्रकाशकों द्वारा भुगतान की दीवार खड़ी कर देने के कारण विश्व भर में प्रकाशित अधिकांश शोध पत्र शोधकर्ताओं और अन्य पाठकों की पहुंच से दूर हो जाते हैं। इस प्रणाली के कारण विकासशील देशों और कम संसाधन वाली संस्थाओं के शोधकर्ताओं को कई तरह से नुकसान होता है। चूंकि प्रकाशन/ओपन एक्सेस की यह कीमत आम तौर पर पत्रिका के ‘प्रभाव गुणांक’ (इम्पैक्ट फैक्टर, आईएफ) के समानुपाती होती है, कम संसाधनों वाले शोधकर्ता ऐसी पत्रिकाओं की तलाश करते हैं जो कम या फिर कोई शुल्क नहीं लेती हैं। ऐसी कम ‘प्रतिष्ठित’ पत्रिकाओं को समकक्ष शोधकर्ताओं द्वारा पूरी तरह अनदेखा किया जाता है, भले ही शोध कार्य उच्च स्तरीय हो। आईएफ के उपयोग के खिलाफ कई दलीलों और सैन फ्रांसिस्को घोषणा पत्र में इसकी निंदा के बावजूद, जर्नल के आईएफ को शोध मूल्यांकन मानदंड के रूप में उपयोग किया जाना जारी है। उच्च आईएफ पत्रिकाओं में प्रकाशन नहीं होने से लेखक और संस्थान की रैंकिंग कम होती है जिसका प्रभाव उनके भावी शोध संसाधनों पर भी पड़ता है।        

कॉपीराइट अधिकार को अपने पास रखने की संस्थागत अधिकार प्रतिधारण नीति अथवा राइट्स रिटेंशन पॉलिसी (आरआरपी) को अपनाने से किसी संस्थान के शोध परिणाम पढ़ने के इच्छुक पाठकों को अबाधित मुफ्त पहुंच मिलती है क्योंकि –

(1) इस नीति से स्वीकृत लेखकीय पांडुलिपि (एएएम– प्रकाशक द्वारा अतिरिक्त संपादकीय प्रक्रियाएं न की गई समकक्ष समीक्षित और स्वीकृत संस्करण) पर लेखक के पास अपने शोध पत्र को, बिना प्रकाशक की अनुमति की आवश्यकता के, पुनः उपयोग करने का अधिकार होता है।

(2) विश्वविद्यालय अपने सदस्यों के शोध पत्रों तक सभी को मुफ्त पहुंच प्रदान करता है। आरआरपी नीति के अंतर्गत सदस्यों के लिए अपने शोध पत्रों के एएएम संस्करणों की सॉफ्टकॉपी संस्था के सर्वर पर उपलब्ध कराना अनिवार्य है।

विश्व के कई शैक्षणिक संस्थानों ने आरआरपी को अपनाया है। इस नीति के तहत शोध पत्रों के सार्वजनिक रूप से सुलभ संस्थागत संग्रहण की आवश्यकता होती है जहां संस्थान के सदस्यों को अपने शोध पत्रों के एएएम संस्करणों को खुले लायसेंस के तहत जमा करना होता है। लेखक अपने संस्थान को लायसेंस प्रदान करता है कि वह लेख से सम्बंधित सभी अधिकारों का उपयोग कर सके और अन्य सह-लेखकों को भी ऐसा करने के लिए अधिकृत कर सके। इस प्रक्रिया में लेखकों को कॉपीराइट का अधिकार मिल जाता है जिससे उन्हें प्रकाशन के बाद अपने स्वयं के काम को फिर से उपयोग करने की स्वतंत्रता मिलती है। आरआरपी के तहत यह आवश्यक है कि पांडुलिपि की पहली प्रस्तुति के दौरान उसके साथ एक शपथ पत्र हो जिसमें लेखक द्वारा ओपन एक्सेस की घोषणा की गई हो। यह अग्रिम रूप से संपादक और प्रकाशक को मेज़बान संस्थान/वित्तपोषक के आरआरपी के अस्तित्व की सूचना देता है। बाहरी शर्तों की बजाय संस्थागत नीतियों की प्राथमिकता  होती है। इससे भविष्य में किसी भी कानूनी समस्या से सुरक्षा मिलती है।

संस्थागत आरआरपी नीति व्यावसायिक प्रकाशकों के उस अनुचित एकाधिकार को खत्म करती है जो उन्हें शोध उत्पाद के अधिकार छीनने की अनुमति देता है। अकादमिक संस्थानों द्वारा आरआरपी अपनाने से एक डर यह बताया जाता है कि इससे संस्थान के सदस्यों के शोध के उच्च प्रभाव गुणांक पत्रिकाओं में प्रकाशन पर असर पड़ता है। इस दावे का खंडन किया जा चुका है। आरआरपी के तहत कुछ विशेष मामलों में लेखक को ओपन एक्सेस से छूट का प्रावधान रखा जा सकता है लेकिन यह छूट रिपॉज़िटरी में जमा करने से नहीं होनी चाहिए। विश्व के कई विश्वविद्यालयों के अनुभव बताते हैं कि जिन संस्थानों ने संस्थागत आरआरपी नीति को अपनाया है, वहां ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी प्रकाशक ने आरआरपी के कारण स्वीकृत पांडुलिपि को प्रकाशित करने से मना किया हो।

भारत सरकार ‘वन नेशन, वन सब्सक्रिप्शन’ (ओएनओएस) नीति पर विचार कर रही है ताकि भारतीय पाठकों के लिए निर्धारित प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित लेखों की पहुंच ग्रीन ओपन एक्सेस के तहत सुनिश्चित की जा सके। अगर यह नीति सफल भी हो जाती है, तब भी भारत के बाहर रहने वाले पाठकों के लिए भारत में प्रकाशित शोध लेखों का ग्रीन ओपन एक्सेस नहीं मिल पाएगा और भारतीयों की भी उन पत्रिकाओं तक पहुंच नहीं हो पाएगी जो ओएनओएस के दायरे के बाहर हैं। लेकिन यदि देश के संस्थानों द्वारा आरआरपी को अपनाया जाता है तो पूरे विश्व में देश के शोधकर्ताओं द्वारा प्रकाशित शोध उत्पाद तक मुफ्त पहुंच संभव होगी। भारत सरकार के जैव प्रौद्योगिकी तथा विज्ञान एवं टेक्नॉलॉजी विभागों की ‘ओपन साइंस पॉलिसी (2014)’ के तहत डीबीटी/डीएसटी द्वारा पूर्ण या आंशिक रूप से वित्तपोषित अनुसंधान परियोजनाओं से जारी होने वाली अंतिम स्वीकृत पांडुलिपियों को संस्थागत रिपॉज़िटरी या इंटरऑपरेबल इंस्टीट्यूशनल ओपन एक्सेस रिपॉजि़टरी या सेंट्रल हार्वेस्टर में जमा करना अनिवार्य है। इस नीति के सख्ती से क्रियान्वयन और देश के विभिन्न शैक्षणिक और अनुसंधान संस्थानों द्वारा आरआरपी को अपनाने से अपेक्षित ओपन साइंस के द्वार खुल जाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

इस आलेख का  मूल अंग्रेज़ी संस्करण 25 फरवरी 2023 को करंट साइंस में प्रकाशित हुआ है और इसका हिंदी अनुवाद लेखक की अनुमति के साथ यहां प्रकशित किया गया है।

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बहुमूल्य डायनासौर जीवाश्म की घर वापसी

गभग दो वर्ष लंबी बातचीत के बाद एक जीवाश्म घर लौटने को है। 11 करोड़ वर्ष पुराना यह जीवाश्म दक्षिण अमेरिका में पाए गए पंख जैसी संरचनाओं वाले पहले गैर-पक्षी डायनासौर का है और फिलहाल जर्मनी स्थित स्टेट म्यूज़ियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री में है। संभवत: जून तक यह वापस ब्राज़ील आ जाएगा।

दिसंबर 2020 में जर्मनी, मेक्सिको और यू.के. के जीवाश्म-विज्ञानियों ने क्रेटेशियस रिसर्च नामक जर्नल में इस डायनासौर (उबिराजारा जुबैटस) का वर्णन किया था। तब से यह जीवाश्म ब्राज़ील और जर्मन अधिकारियों के बीच विवाद का विषय बन गया। 1990 के दशक में जीवाश्म को ब्राज़ील के अरारीप बेसिन से जर्मनी लाया गया था।    

1942 में पारित कानून के अनुसार ब्राज़ील में पाया गया हर जीवाश्म राष्ट्रीय संपत्ति है जिसे बिना अनुमति देश की सीमा से बाहर नहीं ले जाया जा सकता। वैसे शोधकर्ताओं का दावा है कि ब्राज़ील के एक खनन अधिकारी से उन्हें परमिट प्राप्त हुआ था। लेकिन ब्राज़ील के सरकारी वकील राफेल रयोल के अनुसार इस परमिट में जीवाश्म को दान करने की कोई स्पष्ट अनुमति नहीं दी गई थी। संभव है कि उबिराजारा का जीवाश्म किसी बक्से में था और उचित कानूनी प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया गया था।

क्रेटेशियस रिसर्च में प्रकाशन के बाद उपनिवेशवादी मानसिकता का हवाला देते हुए एक ऑनलाइन अभियान (#UbirajaraBelongsToBrazil) के माध्यम से नमूने की वापसी का सफर शुरू हुआ। ऐसा कई बार हुआ है जब धनी देशों के वैज्ञानिकों द्वारा निम्न और मध्यम आय वाले देशों के जीवाश्मों पर कब्ज़ा किया गया है। यह जीवाश्म किसी नई प्रजाति का वर्णन करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली कसौटी है। ऐसे जीवाश्म को होलोटाइप कहते हैं और इनके निर्यात पर प्रतिबंध है। विवाद के चलते क्रेटेशियस रिसर्च ने इस पेपर को वापस ले लिया है।

सितंबर 2021 में जर्मन संग्रहालय द्वारा जीवाश्म लौटाने से मना करने के बाद ब्राज़ील ने आधिकारिक अनुरोध प्रस्तुत किया जिसे ठुकरा दिया गया। अंतत: जुलाई 2022 जीवाश्म को वापस करने का फैसला लिया गया। इसे संभवत: जून में ब्राज़ील के रियो डी जेनेरो स्थित राष्ट्रीय संग्रहालय को सौंप दिया जाएगा।

ब्राज़ील के वैज्ञानिक समुदाय को उम्मीद है कि इस मामले के बाद जीवाश्म विज्ञान के क्षेत्र में एक नया अध्याय शुरू होगा। जीवाश्म का ब्राज़ील वापस आना एक महत्वपूर्ण संदेश है और इससे भविष्य में जीवाश्मों को अपने मूल देशों में वापस लाने का रास्ता खुल जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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