प्रजातियों की आनुवंशिक विविधता कम हो रही है

ब हम जैव विविधता (Biodiversity) के बारे में सोचते हैं, तो हमारे दिमाग में हरे-भरे जंगल, रंगीन मूंगा चट्टानें (Coral reefs) और विभिन्न प्रकार के पौधे व जीव आते हैं। वैज्ञानिक अब एक और छिपे हुए खतरे की ओर इशारा कर रहे हैं  – प्रजातियों के भीतर जेनेटिक विविधता (Genetic diversity) में गिरावट। 

नेचर पत्रिका (nature Journal) में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, जिस तरह विश्व में प्रजातियों की संख्या घट रही है, वैसे ही कई प्रजातियों के भीतर जेनेटिक विविधता भी कम हो रही है। इसका सीधा असर उनकी जलवायु परिवर्तन(Climate change) से निपटने, बीमारियों से लड़ने और पर्यावरणीय चुनौतियों (Environmental challenges) से बचने की क्षमता पर पड़ता है। यानी, जो प्रजातियां आज स्थिर दिख रही हैं, वे शायद हमारी सोच से कहीं अधिक खतरे में हो सकती हैं।

गौरतलब है कि जेनेटिक विविधता प्रकृति की सुरक्षा व्यवस्था की तरह काम करती है। यदि किसी प्रजाति में विविध जेनेटिक लक्षण (Genetic traits) होते हैं, तो प्रजाति के कुछ सदस्य नए खतरों – जैसे बढ़ते तापमान या नई बीमारियों से बचने में सक्षम हो सकते हैं। लेकिन शहरीकरण(Urbanisation), प्राकृतवासों का विनाश (habitat destruction) और जलवायु परिवर्तन (climate change) जैसी मानवीय गतिविधियों के कारण जब जीवों की आबादी घटती है, तो उनके भीतर की जेनेटिक विविधता भी कम हो जाती है। इसे ‘मौन विलुप्ति’ (silent extinction) कहा जाता है। यानी एक धीमी और अदृश्य प्रक्रिया जो कई प्रजातियों के दीर्घकालिक अस्तित्व के लिए खतरा बन रही है। 

इस शोध में वैज्ञानिकों ने पक्षी(birds), स्तनधारियों(mammals), मछलियों(Fish) और पौधों सहित 628 प्रजातियों पर किए गए 882 अध्ययनों का विश्लेषण किया। परिणाम चौंकाने वाले थे। 

दो-तिहाई प्रजातियों में आनुवंशिक विविधता घट रही है। इसमें पहले से ही संकटग्रस्त काकेपो (न्यूज़ीलैंड का दुर्लभ उड़ानहीन तोता)(kakaepo) जैसे जीव तो शामिल हैं ही, गौरैया(sparrow) और ब्लैक-टेल प्रेयरी डॉग जैसी आम प्रजातियां भी प्रभावित हो रही हैं।

पारिस्थितिक तंत्र की बहाली (ecosystem restoration) या नाशी जीवों के नियंत्रण (pest control) जैसे कुछ संरक्षण प्रयासों का जेनेटिक विविधता के संरक्षण पर खास असर नहीं हुआ है।  दूसरी ओर, प्राकृतवासों का विस्तार(habitat expansion), अलग-थलग आबादियों को फिर से जोड़ना और छोटी होती आबादी में नए जीवों को शामिल करना जेनेटिक विविधता बनाए रखने में सहायक साबित हुए हैं।

अब तक संरक्षण (conservation) के प्रयास मुख्य रूप से प्रजातियों को विलुप्त होने से बचाने पर केंद्रित रहे हैं। लेकिन 2022 में संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता संधि (UN Biodiversity treaty) ने जेनेटिक विविधता की रक्षा के महत्व को भी स्वीकार किया है। वैज्ञानिकों ने इसके लिए कुछ महत्वपूर्ण कदम सुझाए हैं। जैसे प्राकृतवासों की सुरक्षा (Habitat Protection) और विस्तार जिसके अंतर्गत बड़े और आपस में जुड़े प्राकृतिक क्षेत्रों को संरक्षित करना आवश्यक है, ताकि प्रजातियां स्वस्थ और जेनेटिक रूप से विविध बनी रहें।  इसी प्रकार से, संकटग्रस्त आबादियों में नए सदस्यों को शामिल करना जेनेटिक विविधता को बनाए रखने में मदद कर सकता है।

एक सुझाव यह भी है कि डीएनए विश्लेषण (DNA Analysis) और अन्य तकनीकों का उपयोग करके जेनेटिक विविधता पर नज़र रखी जानी चाहिए।

विशेषज्ञों का मानना है कि मौजूदा संरक्षण प्रयास जेनेटिक क्षति (genetic loss) को पूरी तरह रोकने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। डीएनए निगरानी (DNA Monitoring) जटिल और महंगी हो सकती है। लिहाज़ा इसके विकल्पों  पर काम हो रहा है, जैसे आबादी के फैलाव के आधार पर जेनेटिक विविधता का अनुमान लगाना। अध्ययनों में पाया गया है कि 58 प्रतिशत से अधिक प्रजातियों की आबादी इतनी सिमट चुकी है कि वे दीर्घकालिक जेनेटिक विविधता बनाए नहीं रख सकतीं। 

इस स्थिति को देखते हुए तत्काल कार्रवाई (immediate action) की आवश्यकता है। विशेषज्ञों के अनुसार केवल प्राकृतवासों की सुरक्षा पर्याप्त नहीं है बल्कि प्रजातियों के जेनेटिक भविष्य (genetic future) को भी सुरक्षित करना अनिवार्य है।

यदि संरक्षण प्रयासों में जेनेटिक विविधता को प्राथमिकता दी जाए, तो हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि प्रजातियां न केवल आज जीवित रहें, बल्कि आने वाली पीढ़ियों (future generations) के लिए भी सशक्त और जीवनक्षम बनी रहें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गर्म होते शहरों में चूहों की बढ़ती फौज

हरों में चूहों की बढ़ती आबादी (rat infestation) एक गंभीर समस्या बनती जा रही है, जिससे बीमारियों (diseases) और आर्थिक नुकसान (economic loss) का खतरा बढ़ रहा है।  अनुमान है कि अकेले अमेरिका में चूहों से जुड़ी समस्याओं के कारण हर साल करीब 3000 अरब रुपए का आर्थिक नुकसान होता है। लेकिन अलग-अलग शहरों में इनके प्रकोप की तुलना के लिए ठोस आंकड़ों की कमी है।

इस सम्बंध में युनिवर्सिटी ऑफ रिचमंड (university of richmond) के शहरी पारिस्थितिकीविद जोनाथन रिचर्डसन द्वारा साइंस एडवांसेज़(Science advances) में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया है कि जलवायु परिवर्तन(climate change), जनसंख्या वृद्धि (Population growth) और घटते हरित क्षेत्र (declining green spaces) चूहों की बढ़ती संख्या के मुख्य कारण हैं। तापमान बढ़ने और बगीचों व खुले इलाकों को रिहायशी और व्यावसायिक क्षेत्रों में बदलने से चूहों को अनुकूल परिस्थितियां (favourable conditions) मिल रही हैं।

चूहे बहुत चालाक और अनुकूलनशील जीव (adaptive creature) हैं, जो हज़ारों सालों से इंसानों के साथ रह रहे हैं। वे कचरे, सीवर और सड़क किनारे मिट्टी के छोटे-छोटे टुकड़ों का इस्तेमाल बिल बनाने(nesting) और भोजन प्राप्त (food scavenging) करने के लिए बखूबी कर लेते हैं। 

रिचर्डसन के अध्ययन में पाया गया कि जिन शहरों में तापमान तेज़ी से बढ़ रहा है और जनसंख्या में वृद्धि हो रही है, वहां चूहों की संख्या भी तेज़ी से बढ़ रही है। ठंड का मौसम (cold weather) आम तौर पर चूहों के प्रजनन (rat breeding) और भोजन खोजने की गतिविधियों को धीमा कर देता है। लेकिन गर्म जलवायु में वे तेज़ी से प्रजनन करते हैं और आसानी से भोजन जुटा लेते हैं। इसके अलावा शहरी इलाकों की अधिक जनसंख्या (high urban population) का मतलब है अधिक रेस्टोरेंट, कूड़ेदान और कचरा, जो चूहों के लिए पर्याप्त भोजन स्रोत उपलब्ध कराते हैं।

अध्ययन में शामिल 16 शहरों में से वॉशिंगटन डी.सी. (Washington D.C.) सबसे ज़्यादा प्रभावित पाया गया। पिछले 20 वर्षों में यहां चूहों की संख्या बोस्टन (boston) की तुलना में तीन गुना और न्यूयॉर्क सिटी (New York city) की तुलना में 1.5 गुना तेज़ी से बढ़ी है हालांकि अमेरिका का नगरीय प्रशासन हर साल चूहों पर नियंत्रण के लिए करीब 50 करोड़ डॉलर (4250 करोड़ रुपए) खर्च कर रहा है। 

कुछ शहरों ने ज़रूर चूहों की संख्या को सफलतापूर्वक कम भी किया है। इनमें टोक्यो(tokyo), लुइविले (केंटकी) (Louisville, Kentucky)  और न्यू ऑरलियन्स (New Orleans) शामिल हैं, जिससे यह पता चलता है कि शहरी क्षेत्रों में चूहों की समस्या को कैसे नियंत्रित किया जा सकता है। जैसे: 

1. सख्त कचरा प्रबंधन (strict garbage management)– टोक्यो में कचरे के प्रभावी निपटान और कड़े नियमों के कारण चूहों को पनपने के लिए भोजन और आश्रय नहीं मिल पाता है। 

2. जागरूकता अभियान (awareness campaigns)– न्यू ऑरलियन्स में लोगों को सिखाया जाता है कि वे अपने घरों और कचरा क्षेत्रों को चूहों से मुक्त कैसे रखें और चूहे दिखने की सूचना जल्द से जल्द दें।

3. सामाजिक दबाव (social pressure)– टोक्यो में सोशल मीडिया (social media) पर चूहों की समस्या सामने आते ही होटलों और व्यवसायों द्वारा तुरंत कार्रवाई की जाती है।

4. दीर्घकालिक निगरानी (long term monitoring)– चूहों की संख्या पर सतत नज़र रखने से यह समझने में मदद मिलती है कि कौन से उपाय प्रभावी हैं और कहां सुधार की आवश्यकता है।

रिचर्डसन की टीम के मुताबिक चूहों की समस्या पर काबू पाने के लिए अधिक संसाधन लगाने और नियंत्रण टीमों का विस्तार करने की आवश्यकता है। नगरीय प्रशासन और नागरिक मिलकर कचरा प्रबंधन, जागरूकता और बेहतर शहरी योजनाओं (waste management, awareness and urban planning)को प्राथमिकता दें, तो समस्या को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चमगादड़ों में वायरस को हराने की क्षमता कब आई

ह तो हम जानते हैं कि चमगादड़(bats) रेबीज़(rabies), इबोला(ebola), मारबर्ग(marburg) और सार्स(sars) जैसे कई घातक वायरस अपने शरीर में ढोते हैं। चमगादड़ों से संपर्क (bat-human transmission) के चलते संक्रमण मनुष्यों और अन्य जीव-जंतुओं में फैल सकता है। लेकिन चमगादड़ इन वायरस (pathogens) से कभी बीमार नहीं पड़ते; कभी वे इन वायरस से संक्रमित हो भी गए तो बहुत मामूली से बीमार होते हैं, और उनकी प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया (immune response) कभी अतिसक्रिय नहीं होती है।

यह क्षमता उनमें आई कब और कैसे? झेजियांग विश्वविद्यालय (Zhejiang University) के तुलनात्मक प्रतिरक्षाविज्ञानी (comparative immunologist) आरोन इरविंग और उनके साथियों ने इस सवाल का जवाब खोजने के लिए 10 चमगादड़ों के जीनोम का अनुक्रमण किया – जिनमें चार हॉर्सशू चमगादड़ (horseshoe bats) और हिप्पोसाइडरिडे कुल (Hipposideridae family) के कुछ चमगादड़ शामिल थे। ये सभी चमगादड़ कोरोनावायरस (coronavirus carriers) के वाहक थे। इसके बाद उन्होंने इनकी तुलना वंशवृक्ष के 10 अन्य चमगादड़ प्रजातियों के जीनोम अनुक्रम से की।

नेचर पत्रिका (Nature Journal)  में प्रकाशित इन नतीजों पाया गया कि 95 अन्य स्तनधारी प्रजातियों की तुलना में चमगादड़ों में काफी अधिक संख्या में प्रतिरक्षा जीन मौजूद थे, और उनमें पाए गए परिवर्तन प्राकृतिक चयन का संकेत देते थे।

इनमें से कुछ अनुकूलन तो चमगादड़ों के कुल विशिष्ट में ही पाए गए थे, जो इस बात का संकेत देते हैं कि कुछ प्रतिरक्षा जीन चमगादड़ों के कुलों के अलग-अलग होने के बाद विकसित हुए हैं। लेकिन कई प्रतिरक्षा अनुकूलन (जीन) (genetic immune adaptations) सभी चमगादड़ों में मौजूद थे, जो इस बात का संकेत देते हैं कि ये जीन एक ही पूर्वज में पनपकर हस्तांतरित हुए हैं। दिलचस्प बात यह है कि जीवाश्म साक्ष्य (fossil evidence)  बताते हैं कि चमगादड़ों में ये जीन लगभग उसी समय आए थे जब उनमें उड़ने की क्षमता विकसित हुई थी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्रजातियों का संरक्षण: छोटे जर्नल्स ज़्यादा असरदार

क ताज़ा अध्ययन कहता है कि प्रजातियों के संरक्षण (species conservation) के मामले में छोटे किंतु विषय विशेषज्ञ जर्नल में प्रकाशन नेचर (Nature) या साइंस (Science) जैसे प्रतिष्ठित जर्नल (high-impact journals) में प्रकाशन से ज़्यादा असरदार होता है। यूएस में जोखिमग्रस्त प्रजाति अधिनियम (ESA) सम्बंधी निर्णय प्रक्रिया में उद्धरणों के अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष दिया गया है।

गौरतलब है कि वनों की कटाई, निर्माण कार्य, या ऐसी ही अन्य मानवीय गतिविधियों के चलते यदि जोखिमग्रस्त वन्यजीव (endangered wildlife) पर खतरा मंडराता है तो ESA के तहत इन गतिविधियों पर लगाम कसी जा सकती है।

वास्तव में होता यह है कि लोग प्रतिष्ठित जर्नल में प्रकाशन करते हैं क्योंकि इससे संरक्षण शोधकर्ता के करियर में मदद मिलती है – नौकरी, पदोन्नति या फंडिंग के निर्णय इस आधार पर होते हैं कि शोधकर्ता के प्रकाशनों को कितनी बार उद्धरित किया गया और जिन जर्नल में वे प्रकाशित हुए उनका इम्पैक्ट फैक्टर क्या है। इम्पैक्ट फैक्टर (journal impact factor) यह बताता है कि किसी जर्नल में छेपे लेखों का हवाला कितने लेखों में दिया जाता हैष

शोधार्थियों (researchers)  को आम तौर पर शोध पत्र प्रजाति-विशिष्ट जर्नल (species-specific journals) में प्रकाशन न करने की सलाह दी जाती, क्योंकि उनका इम्पैक्ट फैक्टर कम होता है। शोध कितना भी बढ़िया और उपयोगी हो, विशिष्ट जर्नल में प्रकाशन से पाठक बहुत सीमित हो जाते हैं और आगे के अवसर भी।

ड्यूक विश्वविद्यालय (Duke University) के समुद्री संरक्षण जीवविज्ञानी (marine conservation biologist) ब्रायन सिलिमन और उनके साथियों को यह जानने का ख्याल आया कि कौन से जर्नल में प्रकाशित अध्ययनों का उल्लेख ESA में नई प्रजाति शामिल करते समय किया गया है। शोधकर्ताओं ने 2012 से 2016 के बीच ESA में जोड़ी गईं 260 प्रजातियों के 785 जर्नल में प्रकाशित शोध पत्रों के 4836 उल्लेखों का विश्लेषण किया।

जर्नल के इम्पैक्ट फैक्टर के अनुसार उन्होंने पाया कि ESA के सिर्फ 7 प्रतिशत उल्लेख 9 से अधिक इम्पैक्ट फैक्टर वाले जर्नल से थे जबकि 87 प्रतिशत उल्लेख 4 से कम इम्पैक्ट फैक्टर (तथाकथित अप्रभावी) (low-impact journals)  जर्नल से थे। मध्यम इम्पैक्ट फैक्टर (medium-impact journals) वाले जर्नल के महज 6 प्रतिशत उल्लेख थे जबकि इम्पैक्ट फैक्टर की गणना से सर्वथा बाहर के जर्नलों का उल्लेख 13 प्रतिशत था।

इतना ही नहीं शोधकर्ताओं ने यह भी देखा कि ESA में शामिल होने के लिए किस जर्नल में प्रकाशन असरदार होगा। इसमें सर्वोच्च रैंक वाली पत्रिका थी पैसिफिक साइंस(Pacific Science), जो एक क्षेत्रीय पत्रिका है और जिसका इम्पैक्ट फैक्टर महज 0.74 था।

कुल मिलाकर ESA उल्लेखों के सबसे महत्वपूर्ण स्रोत थे क्षेत्रीय पत्रिकाएं, टैक्सा-विशिष्ट पत्रिकाएं (taxon-specific journals) और साथ ही हैबिटैट विशिष्ट जर्नल(habitat-specific journals)।

कंज़र्वेशन बायोलॉजी (Conservation Biology) में प्रकाशित यह अध्ययन दर्शाता है कि संरक्षण कानून ठोस व्यावहारिक कार्य के आधार पर चलता है जो आम तौर पर विषय विशिष्ट पत्रिकाओं में प्रकाशित होता है, लेकिन यह काम अकादमिक प्रोत्साहन और वित्त पोषण प्रणालियों द्वारा पुरस्कृत नहीं किया जाता। लिहाज़ा, ज़रूरत इस बात की है कि विषय विशिष्ट पत्रिकाओं (specialized journals)  में प्रकाशन को भी समर्थन मिले। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नई यादें बनने पर पुरानी यादें मिट क्यों नहीं जातीं?

मारे दिमाग (brain)ने जिन स्मृतियों/यादों (memories) को संजो लिया होता है वे इतनी आसानी से नहीं मिटती, यहां तक कि नई यादों के बनने पर भी पुरानी यादें नहीं मिटती। हां, कभी-कभी ऐसा लग सकता है कि हम कई पुरानी बातें भूल चुके हैं लेकिन एक ट्रिगर (memory trigger)मिलने पर वे वापस ताज़ा हो जाती हैं।

सवाल उठता है कि ऐसा होता कैसे है? नेचर पत्रिका (Nature Journal) में प्रकाशित अध्ययन से ऐसा लगता है कि वैज्ञानिकों (scientists) ने इस सवाल का जवाब पा लिया है। चूहों पर अध्ययन कर उन्होंने बताया है कि मस्तिष्क नई और पुरानी यादों पर नींद के अलग-अलग चरणों में काम करता है, जो दोनों तरह की यादों को गड्ड-मड्ड होने से रोकता है।

वैज्ञानिक यह तो जानते थे कि मस्तिष्क नींद में ताज़ा अनुभवों को दोहराता है: जो तंत्रिकाएं जिस अनुभव से जुड़ी होती हैं, नींद में दोहराव के समय वही तंत्रिकाएं उसी क्रम में सक्रिय होती हैं। इस दोहराव (memory consolidation) के ज़रिए कोई अनुभव पक्की याद बन जाता है और हमारी यादों के खजाने का हिस्सा भी।

लेकिन इस बात को जानना बाकी था कि नई यादें बनने पर पुरानी यादें मिटती क्यों नहीं? इसे जानने के लिए कॉर्नेल युनिवर्सिटी (Cornell University) के सिस्टम्स न्यूरोसाइंटिस्ट (systems neuroscientist) वेनबो टैंग और उनके साथियों ने चूहों के एक विचित्र गुण का फायदा उठाया: नींद के कुछ चरणों के दौरान उनकी आंखें थोड़ी खुली रहती हैं। शोधकर्ताओं ने नींद के दौरान उनकी एक आंख पर नज़र रखी। देखा गया कि गहरी नींद के एक चरण में चूहों की आंख की पुतलियां सिकुड़ कर छोटी होती हैं और फिर अपने मूल आकार में आ जाती हैं – ऐसा बार-बार होता है और प्रत्येक चक्र लगभग एक मिनट लंबा होता है। तंत्रिका रिकॉर्डिंग (neural recording) से पता चला कि मस्तिष्क में अधिकांश अनुभवों की पुनरावृत्ति तब हुई जब चूहों की पुतलियां छोटी थीं।

तो क्या पुतलियों के आकार और स्मृति (memory formation) बनने के बीच कोई सम्बंध है? इस विचार को परखने के लिए उन्होंने ऑप्टोजेनेटिक्स (optogenetics) तकनीक का सहारा लिया। इसमें प्रकाश की मदद से मस्तिष्क में जेनेटिक रूप से परिवर्तित तंत्रिका कोशिकाओं की विद्युत गतिविधि को शुरू या बंद किया जा सकता है।

सबसे पहले उन्होंने परिवर्तित चूहों को प्लेटफॉर्म पर छिपी मिठाई (hidden reward) खोजने के लिए प्रशिक्षित किया। प्रशिक्षण के तुरंत बाद जब चूहे सो गए तो उन्होंने ऑप्टोजेनेटिक्स की मदद से अनुभवों से जुड़ी तंत्रिका कोशिकाओं की सक्रियता को रोका। ऐसा उन्होंने दोनों चरणों में अलग-अलग किया – जब पुतलियां छोटी थीं और बड़ी थीं।

पाया गया कि जब छोटी-पुतली चरण (small-pupil sleep phase) में तंत्रिका कोशिकाओं की सक्रियता बाधित की गई थी, तब जागने पर चूहे मिठाई का स्थान पूरी तरह से भूल चुके थे। इसके विपरीत, यही प्रयोग बड़ी-पुतली चरण (large-pupil sleep phase) के दौरान करने पर, जागने के बाद चूहे सीधे मिठाई की जगह पर गए – इस मामले में उनकी ताज़ा यादें बरकरार थीं।

हालांकि ये नतीजे फिलहाल मात्र चूहों के लिए हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि मनुष्यों (humans) के मामले में भी ऐसा ही कुछ होता होगा। पक्के तौर पर कुछ कहने के लिए अधिक अध्ययन (further research) करने की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

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समुद्री मकड़ियां खुद को रेत में क्यों दबाती हैं?

क्षिणी अंटार्कटिक महासागर (Southern Antarctic Ocean) के ठंडे पानी में रहना कई जीवों के लिए प्रतिकूल परिस्थितियों से परिपूर्ण होगा, लेकिन एक प्रकार की समुद्री मकड़ी (Nymphon australe) के लिए यह जगह बहुत ही आरामदायक है।

लंबी टांग वाली इन समुद्री मकड़ियों की साइज़ करीब 4 से.मी. होती है। वास्तव में ये मकड़ी होती ही नहीं हैं किंतु उनके जैसी ही दिखती हैं। ये तो पाइनोगोनिडा (Pycnogonida)  नामक आर्थ्रोपोड (Arthropod)  समूह से सम्बंधित हैं। ऐसी ही एक समुद्री मकड़ी है Nymphon australe जिसके बारे में काफी बातें अनजानी हैं। इस अकेशरुकी (Invertebrate) जीव की जीवनशैली कैसी है, ये क्या खाती हैं और इन्हें कौन खाता है, इनका व्यवहार कैसा है वगैरह सवाल अभी भी अनुत्तरित हैं।

इनके बारे में जानकारी हासिल करने के उद्देश्य से सेंट्रल मिशिगन युनिवर्सिटी (Central Michigan University) के समुद्र जीवविज्ञानी एंड्रयू महोन और उनके साथियों ने इन्हें समुद्र से पकड़ा और प्रयोगशाला के एक छोटे से मछलीघर में रखा।

शोधकर्ताओं ने देखा कि इनमें से एक मकड़ी बहुत धीमे-धीमे रेत खोद रही थी, फिर उसने अपना धड़ रेत में दबा लिया और अपने आठ पैर बाहर ही रहने दिए जो लहरा रहे थे। देखा गया कि ये मकड़ियां ऐसा बार-बार ऐसा कर रहीं थीं; खुद को रेत में दफनातीं, फिर बाहर निकलतीं और वहां से दूसरी जगह चली जातीं।

लेकिन वे ऐसा करती क्यों हैं। एक बैठक (Conference)  में अपने अवलोकन प्रस्तुत करते समय शोधकर्ताओं के सामने इनके इस व्यवहार के कारण को लेकर कुछ अनुमान सामने आए। एक अनुमान था कि संभवत: वे अपने इन उपांगों के माध्यम से ‘सांस’ (Respiration)लेती होंगी, जैसा कि कुछ अन्य प्रजातियां करती हैं। एक अन्य अनुमान था कि वे रेत के नीचे दबे शिकार तलाशती होंगी, लेकिन इस अनुमान पर तर्क था कि ऐसा होने की संभावना इसलिए नहीं लगती क्योंकि अधिकांश मकड़ियां मांसाहारी (Carnivorous)होती हैं और वे अपने शिकार को हिलते-डुलते हुए महसूस करना चाहती हैं।

अब बारी थी इन अनुमानों को परखने की और उनके इस व्यवहार के कारण को समझने की। इसके लिए महोन और उनकी टीम ने समुद्री मकड़ियों की आंतों में सूक्ष्मजीवी डीएनए (Microbial DNA)  के नमूने लिए और उसे समुद्र के पेंदे के नीचे से लिए गए सूक्ष्मजीवों के नमूने से मिला कर देखा। पाया गया कि आंत के नमूने पेंदे में दफन नमूनों से मेल खा रहे थे। इससे लगता है कि ये जीव पेंदे के नीचे बैक्टीरिया और संभवत: अन्य सड़ने वाले कार्बनिक पदार्थों (Organic Matter) को खाते होंगे।

यह तो समुद्री मकड़ियों (Sea Spiders) के व्यवहार को समझने की शुरुआत भर है। अंटार्कटिका इतना प्रतिकूल परिस्थिति (Harsh Environment) भरा है कि वहां रहने वाले हर जीव के बारे में समझना रोमांचक और विस्मयकारी ही होगा। (स्रोत फीचर्स)

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यह सांप निगल जाता है मुंह से कई गुना बड़ा शिकार

दि आप किसी नन्ही-सी गिलहरी (Squirrel) को अपने से कहीं अधिक बड़ी बिल्ली को निगलते देखें तो अवश्य हैरान रह जाएंगे। वैज्ञानिक भी ऐसे ही कुछ नज़ारे से अचंभित हैं लेकिन वे गिलहरी से नहीं बल्कि पश्चिम अफ्रीका में पाए जाने वाले पक्षियों के अंडे खाने वाले सांप (Egg-Eating Snake) गान्स एग-ईटर (Dasypeltis gansi) के भोजन से अंचभित हैं। करीब एक मीटर लंबा और पतला गान्स एग-ईटर सांप अपने सिर की चौड़ाई से लगभग चार से पांच गुना बड़े अंडे को साबुत निगल जाता है और फिर उसे अपने मेरु-दंड की मदद से फोड़कर खोल को वापिस उगल देता है। यह बताते चलें कि इसे यह नाम मशहूर अमेरिकी सर्प वैज्ञानिक कार्ल गान्स के नाम पर दिया गया है।

गौरतलब है कि बोआ कांस्ट्रिक्टर (Boa Constrictor)  और ग्रीन एनाकोंडा (Green Anaconda) जैसे विशाल सांप अपने बड़े मुंह के लिए जाने जाते हैं और अपने विशाल मुंह में 100 से भी अधिक दांतों का इस्तेमाल कर अपने शिकार को फंसाते हैं और उसे पूरा का पूरा निगल जाते हैं। लेकिन हैरत इस बात की है कि एकदम पतले से गान्स एग-ईटर सांप का सिर महज 1 से.मी चौड़ा होता है और मुंह में दांत लगभग न के बराबर होते हैं। फिर कैसे यह सांप अपने मुंह से कई गुना बड़े बटेर के अंडों(Quail Eggs), फिंच (Finch) और चूज़ों (Chicks) जैसे शिकार (Prey) को कैसे निगल लेता है?

अंचभे ने सवाल को जन्म दिया और जुट गए वैज्ञानिक इसका जवाब पता करने में और जवाब उन्होंने जर्नल ऑफ एक्सपेरिमेंटल बायोलॉजी (Journal of Experimental Biology) में प्रकाशित किया है; इतने बड़े अंडों को साबुत निगलना उसकी गर्दन की अत्यंत लोचदार त्वचा (Elastic Skin) के कारण संभव होता है। देखा गया है कि शरीर के बाकी हिस्सों की त्वचा की तुलना में गर्दन की त्वचा 90 प्रतिशत तक अधिक लोचदार होती है।

अपने सवाल का जवाब खोजने के लिए वैज्ञानिकों ने विभिन्न प्रजातियों के सांपों की कांचुली (Shedded Skin) एकत्रित की – चौड़े मुंह वाले बोआ कांस्ट्रिक्टर से लेकर छोटे मुंह वाले अमेरिकी पाइप सांप (American Pipe Snake) तक की। उन्होंने शरीर के विभिन्न बिंदुओं पर बल लगाकर मापा कि किस जगह कितने बल तक ऊतक फैलते जाते हैं और कितने बल के बाद टूट जाते हैं।

पाया गया कि अन्य छोटे मुंह वाले सांपों की तुलना में गान्स एग-ईटर के सिर और गर्दन की त्वचा तीन गुना तक अधिक फैल सकती है। इसी खूबी के चलते गान्स एग-ईटर अपने से बहुत बड़े आकार के शिकार को भी निगल लेते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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कोरल भी चलते हैं, लेकिन घोंघों से भी धीमे

धिकतर कोरल को देखकर ऐसा लग सकता है कि वे बस एक जगह जमे रहते हैं, अपनी जगह छोड़कर ज़रा भी यहां-वहां टहलते नहीं। बस अपना भोजन पाने के लिए थोड़ा लहरा-लहरा कर पास से गुज़रते जंतु-प्लवकों को पकड़ लेते हैं। लेकिन इनकी कुछ प्रजातियां थोड़ा घुमक्कड़ भी होती हैं। ऐसी ही कुछ घुमक्कड़ प्रजातियां मशरूम कोरल (Fungiidae) कुल की सदस्य हैं। इस कुल के सदस्य देखने में ऐसे लगते हैं जैसे कोमल सुइयों का कोई चमकीला तकिया हों।

अवलोकनों से इतना तो पता चल चुका है कि मशरूम कोरल कुल के कुछ सदस्य स्थिर और माकूल तापमान और प्रचुर भोजन के लिए भीड़-भाड़ वाले उथले समंदर (Shallow Water) से शांत, गहरे समंदर (Deep Sea) की ओर कूच करते हैं। लेकन यह सवाल अब तक सवाल ही था कि ये कोरल गति (Coral Movement) कैसे करते हैं? क्या ये शांत गहरे पानी तक पहुंचने के लिए अन्य जीवों (के शरीर) से ‘लिफ्ट’ लेते हैं? या वे अपने ऊतकों का इस्तेमाल नाव की पाल की तरह करते हैं; जिस तरह हवाएं पाल के ज़रिए नाव को गति देती है वैसे ही पानी पालनुमा ऊतक के सहारे इन्हें बहा ले जाता है।

प्लॉस वन (PLOS One Journal) में एक अध्ययन प्रकाशित हुआ है, जिसमें कोरल के बारे में उपरोक्त अनुत्तरित सवाल का जवाब खोजने की कोशिश की गई है। डिस्क कोरल (Cycloseris cyclolites) पर अध्ययन कर शोधकर्ताओं ने पाया कि गुंबद सरीखे शरीर वाले डिस्क कोरल प्रकाश स्रोत (Light Source) की दिशा में ‘जाने’ के लिए अपने शरीर को लुढ़काते हैं, फिसलाते हैं, और क्रमाकुंचन (यानी क्रमश: फैलना-सिकुड़ना) की मदद से आगे बढ़ाते हैं। कोरल बेहतर पकड़ के लिए अपने बाहरी ऊतकों के कुछ हिस्सों को फुलाते हैं, फिर अपने ऊतकों को थोड़ा मरोड़ते हैं, फिर और संकुचित होकर अपने शरीर को आगे की और खींचते हैं। यानी कोरल काफी हद तक जेलीफिश (Jellyfish) की चाल चलते हैं।

यह भी देखा गया कि कोरल विशेष रूप से नीली रोशनी के प्रति संवेदनशील होते हैं – कुछ मामलों में कोरल प्रकाश स्रोत की ओर 22 से.मी. तक बढ़े थे। चूंकि नीला प्रकाश (Blue Wavelength Light) अन्य रंगों की तुलना में पानी में अधिक गहराई तक जाता है, इसलिए इस रंग की रोशनी मशरूम कोरल को अपनी पसंदीदा छायादार और माकूल गहराई तक पहुंचने में मदद कर सकती है। एक और बात पता चली कि जैसे-जैसे कोरल बड़े होते जाते हैं उनके लिए घूमना मुश्किल होता जाता है। इसलिए वे ऐसी गति से आगे बढ़ते हैं कि चलना भारी न पड़े। वैसे, लगता तो ऐसा है कि उन्हें अपने गंतव्य पर पहुंचने की कोई जल्दी नहीं होती। कोरल हर 24 घंटे में औसतन 4.5 से.मी. नीली रोशनी की ओर बढ़ते हैं – सुस्ती के लिए मशहूर घोंघे (Snail)  से भी बहुत, बहुत धीमी गति से। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दांतों ने उजागर किया स्तनपान का पैटर्न

मां के दूध (breastfeeding) के जगजाहिर फायदों को देखते हुए सलाह दी जाती है कि पहले 6 महीनों तक शिशु को केवल स्तनपान कराना चाहिए। लेकिन शिशु को स्तनपान कराना बंद कब करें? यह प्रश्न जितना महत्वपूर्ण आजकल के माता-पिता के लिए है, उतना ही महत्वपूर्ण प्राचीन रोमवासियों (ancient Romans) के लिए भी था। और प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ नेक्सस (PNAS Nexus) में प्रकाशित हालिया अध्ययन कहता है कि आधुनिक समय और प्राचीन समय के बाशिंदो की न सिर्फ स्तनपान सम्बंधी चिंताएं एक जैसी हैं, बल्कि स्तनपान बंद कराने की प्रवृत्ति भी मेल खाती है। पाया गया कि अतीत में ग्रामीण रोमवासियों की तुलना में शहरी रोमवासी बच्चे का स्तनपान जल्दी बंद करा देते थे, और स्तनपान बंद कराने के ऐसे ही पैटर्न (weaning trends) आधुनिक समय में भी दिखते हैं।

मां का दूध शिशुओं को पोषक तत्व और एंटीबॉडीज़ (antibodies)  देता है जो उन्हें बीमारियों से बचाते हैं और उनकी अपनी प्रतिरक्षा प्रणाली के विकास में मदद करते हैं। ऐसा देखा गया था कि बेबी फॉर्मूला के आगमन से पहले, जिन शिशुओं का मां का दूध बहुत जल्दी छुड़ा दिया जाता था उन्हें संक्रमण (infection risk)  होने का जोखिम अधिक होता था। द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व के सोरेनस जैसे चिकित्सकों ने स्तनपान के बारे में विस्तार से लिखा था, और बच्चे के लगभग दो वर्ष की आयु होने पर स्तनपान बंद करने (weaning off) की सलाह दी थी। वर्तमान में भी विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) सलाह देता है कि पहले छह महीने तक सिर्फ स्तनपान कराना चाहिए, और फिर धीरे-धीरे कम करते हुए दो साल की उम्र तक स्तनपान छुड़ाया जा सकता है।

लेकिन प्राचीन समय में स्तनपान प्रथाएं (breastfeeding practices) कैसी थीं? प्राचीन रोम के संदर्भ में हुए कुछ अध्ययनों में इसे समझने के लिए प्राचीन चिकित्सा ग्रंथों और पुरातात्विक अवशेषों (archaeological remains)  को ही खंगाला गया था। लेकिन इन ग्रंथों तक पहुंच अक्सर अमीर परिवारों की ही होती थी, जो शहरों में रहते थे और आम तौर पर अपने शिशुओं को स्तनपान कराने के लिए धाय-मां (wet nurse)  रखते थे। इसलिए रोमन साम्राज्य के ग्रामीण इलाकों में शिशुओं का खान-पान अब तक अनजाना ही था।

मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट ऑफ जियोएंथ्रोपोलॉजी (Max Planck Institute of Geoanthropology) के जैव पुरातत्वविद कार्लो कोकोज़ा की टीम संपूर्ण रोमन साम्राज्य (ग्रामीण और शहरी) (urban and rural Roman Empire)  में बच्चों के आहार पैटर्न समझना चाहती थी। लेकिन इसे समझने के लिए अध्ययन किसका किया जाए?

दांतों व दाढ़ों की डेंटाइन (dentine analysis) इसमें मददगार साबित हो सकती है। दरअसल डेंटाइन के ऊतकों की परतें आपने कब क्या खाया, सब बयां कर सकती हैं। और, मां के दूध में कार्बन-13 (carbon-13) के मुकाबले नाइट्रोजन-15 (nitrogen-15 isotope) आइसोटोप का स्तर काफी अधिक होता है। डेंटाइन की परतों में नाइट्रोजन आइसोटोप का स्तर देखकर स्तनपान बंद किए जाने के समय का अंदाज़ा लगाया सकता है; जब तक शिशु स्तनपान कर रहा होगा नाइट्रोजन आइसोटोप डेंटाइन की शुरुआती परतों में अधिक मिलेगा और बंद करने के बाद की परतों में अचानक से नदारद दिखेगा।

तो, शोधकर्ताओं ने पहली शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर चौथी ईसवीं सदी के समय में रोमन साम्राज्य (ancient Roman sites)  में रहने वाले 45 वयस्कों की पहली दाढ़ (molar tooth) के डेंटाइन का अध्ययन किया। इन दाढ़ों को शहरी इलाकों – जैसे ग्रीस के थेसालोनिकी और इटली के पोम्पेई से लेकर ग्रामीण इलाकों – जैसे इंग्लैंड के बैनेस और इटली के ओस्टिया तक से प्राप्त किया गया था।

विश्लेषण में पाया गया कि रोमन साम्राज्य के शहरी स्थलों में स्तनपान दो वर्ष की आयु में बंद कर दिया जाता था, जबकि ग्रामीण स्थलों में डेढ़ साल से लेकर पांच साल की आयु तक के बच्चों को स्तनपान कराया जाता था। इससे लगता है कि रोम के शहरी केंद्रों से दूर के स्थलों पर ‘आधिकारिक’ चिकित्सा सलाह कम पहुंची होगी, साथ ही यह भी लगता है कि निम्न आय वाले ग्रामीण परिवार (low-income rural families) यह सोचकर स्तनपान लंबे समय तक जारी रखते होंगे कि सीमित भोजन (food scarcity) एक और शिशु में न बंटे।

ये नतीजे आज के स्तनपान पैटर्नों (modern breastfeeding patterns)  से मेल खाते हैं। अध्ययन बताते हैं कि वर्तमान समाज में शहरी क्षेत्रों में स्तनपान जल्दी छुड़ाया जाता है। इसका एक कारण शहरीकरण है; जीवन स्तर में सुधार के साथ लोगों के स्वास्थ्य और पोषण में सुधार (improved living standards) हुआ है, साथ ही चिकित्सा तक अधिक पहुंच (access to healthcare) भी हुई है। दूसरी ओर, ग्रामीण इलाकों (rural communities)  में लंबे समय तक स्तनपान जारी रहता है।

बहरहाल, ये निष्कर्ष सीमित नमूनों (limited sample size)  पर आधारित हैं इसलिए पर्याप्त डैटा (data collection)  के साथ अधिक अध्ययन इन नतीजों को मज़बूती दे सकते हैं। साथ ही कई अनुत्तरित सवालों के जवाब भी दे सकते हैं। जैसे, क्या आप्रवासी लोग (immigrant communities)  रोमन चिकित्सकों की सिफारिशों का पालन करते थे? (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बढ़ते तापमान का अदृश्य स्वास्थ्य संकट

2024 अब तक का सबसे गर्म वर्ष साबित हुआ, जिसमें वैश्विक तापमान (global temperature) औद्योगिक-पूर्व स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा पार कर चुका है। ऐसे में जलवायु परिवर्तन (climate change) के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों (health effects) को अनदेखा करना मुश्किल हो गया है। इसमें लू लगने (heatstroke) से मृत्यु जैसे तुरंत दिखने वाले प्रभावों का तो पता चल जाता है लेकिन दीर्घकालिक संचयी नुकसान (long-term health impact) पर कम ही ध्यान दिया जाता है। जलवायु में हो रहे तेज़ी से बदलाव (climate crisis) को देखते हुए इस मुद्दे पर तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है।

लंबे समय तक ग्रीष्म लहर (heatwave) और सूखे (drought) के प्रभाव से गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं (severe health issues) हो सकती हैं। बार-बार डीहाइड्रेशन (dehydration) और इलेक्ट्रोलाइट असंतुलन (electrolyte imbalance) से किडनी की जीर्ण बीमारियां (chronic kidney disease) हो सकती हैं। लगातार गर्म रातों (hot nights) के कारण नींद की कमी (sleep deprivation) से मानसिक क्षमता घटती है, रोग प्रतिरोधक क्षमता (immune system) कमज़ोर होती है और शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य (mental health) प्रभावित होता है। यह खतरा गर्भ में पल रहे बच्चों (fetal health risks) को भी हो सकता है। गर्भावस्था (pregnancy) के दौरान ग्रीष्म लहर जैसी पर्यावरणीय चुनौतियां (environmental stress) गर्भस्थ शिशु के विकास (fetal development) को प्रभावित कर सकती हैं और लंबे समय के उनके स्वास्थ्य पर असर डाल सकती हैं।

देखा जाए तो, जलवायु परिवर्तन (climate change impact) के दबाव जीन अभिव्यक्ति (gene expression) तक को प्रभावित कर सकते हैं। शोध बताते हैं कि जो बच्चे गर्भ में गर्म और शुष्क परिस्थितियों (extreme heat exposure) के संपर्क में आते हैं, उनमें वयस्क होने पर उच्च रक्तचाप (high blood pressure) की संभावना अधिक होती है।

कुल मिलाकर, जलवायु परिवर्तन के प्रभाव (climate change effects) गहरे और दूरगामी हो सकते हैं।

इन खतरों के बावजूद, वर्तमान जलवायु आकलन (climate assessment) स्वास्थ्य पर पूरे प्रभाव (public health impact) को सही ढंग से मापने में असफल रहे हैं। वास्तव में वर्षों में विकसित होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं (long-term diseases) को मापना मुश्किल होता है। असंगत स्वास्थ्य डैटा (inconsistent health data) के कारण लंबे समय तक स्वास्थ्य जोखिमों (health risks) को ट्रैक करना काफी जटिल कार्य है। उदाहरण के लिए, हम यह तो समझते हैं कि गर्मी (extreme heat) शरीर को कैसे प्रभावित करती है, लेकिन यह अलग-अलग लोगों को दीर्घावधि में किस तरह प्रभावित करती है, इसे ट्रैक करना अब भी एक चुनौती बना हुआ है।

इस अंतर को पाटने के लिए, शोधकर्ताओं (researchers) और जन स्वास्थ्य अधिकारियों (public health officials) को जलवायु प्रभाव (climate impact studies) से जुड़े अध्ययनों का दायरा बढ़ाना होगा। उपलब्ध साक्ष्य (scientific evidence) बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली बीमारियों (climate-related diseases) और मौतों का बोझ मौजूदा अंदाज़ों से कहीं अधिक है। इसलिए, बेहतर स्वास्थ्य डैटा (health data) और दीर्घकालिक प्रभावों (long-term impact) का अध्ययन करना बेहद ज़रूरी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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