टमाटर – एक सेहतमंद सब्ज़ी

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

दुनिया भर के दैनिक आहार में टमाटर (tomato) का एक ज़रूरी घटक बन जाना एक दिलचस्प कहानी है। योलांडा इवांस ने नेशनल जियोग्राफिक (National Geographic) पत्रिका के 5 जून, 2025 के अंक में मिथकों (tomato myths) और लोककथाओं के माध्यम से टमाटर के बढ़ते चलन के बारे में लिखा है, और बताया है कि कैसे टमाटर हमेशा से एक लोकप्रिय सब्ज़ी नहीं था।

एक समय था जब इन्हें दुष्ट, बदबूदार और ‘ज़हरीले सेब’ (poisonous apples) माना जाता था। इन्हें अंधविश्वास और बीमारी से जोड़कर देखने का प्रमुख कारण यह था कि तांबे के बर्तनों में रखने पर इनकी अभिक्रिया लेड से होती थी। न्यू जर्सी के सलेम के किसानों द्वारा टमाटर पकाने के लिए एक अधिक उपयुक्त बर्तन के इस्तेमाल ने अमेरिका (tomato history in America) में लोगों की राय बदल दी।

टमाटर भारत (tomato in India) की देशज वनस्पति नहीं थी, बल्कि ये 15वीं शताब्दी में पुर्तगाली व्यापारियों के साथ यहां आए थे। फिर 16वीं शताब्दी में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने इन्हें अपनाया, और पूरे देश में इनकी खेती शुरू की और इन्हें अपने भोजन में शामिल किया। लेकिन लोग तब भी टमाटर को लेकर एहतियात बरतते थे। जैसा कि स्वतंत्र पत्रकार सुश्री सोहेल सरकार ने लिखा है, 1938 में चिकित्सक डॉ. तारा चितले और उनके सहयोगियों ने लोगों को सर्दी-ज़ुकाम, स्कर्वी और आयरन की कमी के इलाज में टमाटर (tomato for vitamin C & iron) के फायदों के बारे में समझाने की कोशिश की थी, लेकिन लोगों की प्रतिक्रिया ठंडी ही रही।

बदलाव आखिरकार तब आया जब ज़्यादा से ज़्यादा यात्रियों ने हमारे आहार में टमाटर शामिल करने की सिफारिश की, और भारत में राष्ट्रीय पोषण संस्थान (National Institute of Nutrition) के विशेषज्ञों ने हमारे दैनिक आहार में विटामिन और खनिजों के महत्व और टमाटर में इनकी प्रचुरता के बारे में बताया।

स्वास्थ्य लाभ

वनस्पति विज्ञान में टमाटर को एक फल (tomato as fruit) माना जाता है। कैलिफोर्निया की आहार और जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ (diet & public health expert) सुश्री सिंथिया सास ने भी सेहत के लिए टमाटर के फायदे बताए हैं। इनमें से कुछ फायदे हैं – टमाटर एंटीऑक्सीडेंट (antioxidants in tomato) से समृद्ध फल है, एंटीऑक्सीडेंट हृदय और मस्तिष्क को स्वस्थ रखते हैं। टमाटर में ऐसे पोषक तत्व होते हैं जो हृदय रोग के जोखिम को काफी कम कर देते हैं। टमाटर का अधिक सेवन उच्च रक्तचाप (tomato for blood pressure) को कम करता है (वरिष्ठ नागरिक ध्यान दें)। टमाटर में मौजूद सेल्यूलोज़ रेशेदार पदार्थ कब्ज़ की दिकक्त को दूर रखते हैं। टमाटर में लाइकोपीन (lycopene benefits) नामक लाल कैरोटीनॉयड वर्णक 70 वर्ष से अधिक आयु के लोगों को अल्ज़ाइमर की समस्या से बचने में मदद कर सकता है। सुश्री सास की सलाह है कि टमाटर पकाने से पहले यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि वे अच्छी तरह से धुले हुए हों और धूल-जनित कीटाणुओं से मुक्त हों।

टमाटर की खेती (tomato cultivation) पूरे भारत में की जाती है, और प्रति एकड़ 5,000 से 10,000 पौधे लगाए जाते हैं। तेलंगाना कृषि विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जयशंकर का अनुमान है कि भारत में वर्ष 2022-2023 में 210 लाख टन टमाटर का उत्पादन हुआ था, जो चीन (680 लाख टन) (China tomato production) के बाद दूसरे नंबर पर था। टमाटर की खेती करने वाले शीर्ष सात राज्य हैं: मध्य प्रदेश, ओडिशा, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, गुजरात और तमिलनाडु। बैंगलुरु स्थित भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान (Indian Institute of Horticultural Research) टमाटर की विभिन्न किस्मों पर शोध कर रहा है। इनमें से एक है ‘अर्क रक्षक’ (Ark Rakshak tomato variety) नामक किस्म, जो कि एक रोग-प्रतिरोधी संकर किस्म है। दूसरी है ‘अर्क श्रेष्ठ’ (Ark Shreshta tomato variety) किस्म जो लंबे समय तक खराब न होने वाले टमाटर की पैदावार के लिए तैयार की जा रही है, ताकि इनका परिवहन (निर्यात – tomato export) आसान हो सके।

आज, देश का लगभग हर घर अपने भोजन में टमाटर का उपयोग करता है। वर्तमान भारतीय व्यंजनों (Indian cuisine with tomato) में टमाटर किसी न किसी रूप में शामिल है – चाहे टमाटर का सूप हो, चटनी हो, सालन हो या रसम, सैंडविच, बर्गर, पिज़्ज़ा हो या फिर सॉस (tomato sauce) के रूप में।

टमाटर का स्वाद चखने के बाद और यह जानने के बाद कि यह दुष्ट नहीं है, बल्कि इसके कई स्वास्थ्य लाभ हैं, चलिए टमाटर डालकर कुछ पकाएं और मज़े से खाएं! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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शार्क हमलों से एक द्वीप बना अनुसंधान केंद्र

भी सर्फिंग (surfing destination) और पर्यटन (island tourism) के लिए मशहूर हिंद महासागर का फ्रांसीसी रीयूनियन द्वीप (Reunion Island) आज एक अलग ही वजह से वैज्ञानिकों का ध्यान खींच रहा है – शार्क हमलों (shark attacks) का खतरा।

हमलों का सिलसिला फरवरी 2011 में शुरू हुआ था; अगले आठ सालों में इस द्वीप के आसपास शार्क ने 30 लोगों पर हमला किया, जिनमें से 11 की मौत हो गई। इन हमलों के चलते इस द्वीप को ‘शार्क द्वीप’ या ‘शार्क संकट’ (shark crisis) कहा जाने लगा।

हमलों के चलते समुद्र तट बंद कर दिए गए, सर्फिंग और तैराकी पर रोक लगा दी गई। पर्यटन बुरी तरह प्रभावित हुआ। लेकिन इसी संकट ने वैज्ञानिक शोध (shark research) का एक मौका भी दिया। फ्रांस सरकार ने शार्क के व्यवहार को समझने, तटों की सुरक्षा बढ़ाने और नई तकनीकें विकसित करने के लिए करोड़ों यूरो का निवेश किया। रीयूनियन द्वीप शार्क अनुसंधान का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया।

शार्क हमलों को समझना

शार्क की संख्या और उनकी गतिविधियों को लेकर ज़्यादा जानकारी नहीं थी, इसलिए इन हमलों का कोई कारण समझ नहीं आ रहा था। तब फ्रांस सरकार ने CHARC नामक एक रिसर्च प्रोग्राम (CHARC shark research program) शुरू किया। यह कार्यक्रम दो प्रमुख शार्क प्रजातियों – बुल शार्क (Carcharhinus leucas) एवं टाइगर शार्क (Galeocerdo cuvier) – पर केंद्रित था, जो ज़्यादातर हमलों के लिए ज़िम्मेदार मानी गई थीं। मकसद था इनके व्यवहार, प्राकृतवास और आवाजाही को समझना, ताकि भविष्य में ऐसे टकरावों को रोका जा सके।

CHARC प्रोजेक्ट से कई अहम जानकारियां मिलीं। वैज्ञानिकों ने पाया कि टाइगर शार्क एक तय मौसम में ही आती थीं और उन्हें गहरा पानी पसंद है। दूसरी ओर, बुल शार्क साल भर मौजूद रहती थीं और अक्सर तट के बेहद करीब तक आ जाती थीं।

हमलों का कारण

इन हमलों में बढ़ोतरी के पीछे कई कारण थे। सबसे बड़ा कारण इंसानों की बढ़ती गतिविधियां (human-shark interaction) थीं। 1980 से 2016 के बीच रीयूनियन द्वीप की आबादी 67 प्रतिशत बढ़ गई थी और साथ ही तैराकी और सर्फिंग भी, जिससे शार्क से सामना होने की संभावना भी बढ़ी।

इसके अलावा, ज़मीन के इस्तेमाल और नई निर्माण परियोजनाओं का भी प्रभाव पड़ा। 2000 के दशक में एक बड़ा सिंचाई प्रोजेक्ट (irrigation project) शुरू हुआ, जिससे द्वीप के पूर्वी हिस्से का पानी पश्चिमी हिस्से की ओर मोड़ा गया। इससे खेतों से निकला पानी समुद्र में बहने लगा और तटीय पानी की लवणीयता घट गई। बुल शार्क को कम लवण वाला पानी पसंद है। नतीजतन, वे पश्चिमी तटों पर ज़्यादा आने लगीं। यही तट सर्फरों के बीच भी सबसे लोकप्रिय थे।

शार्क हमलों में बढ़ोतरी के पीछे कुछ अन्य कारण भी हैं। जैसे, 2007 में समुद्री जीवन की रक्षा के लिए एक समुद्री संरक्षण क्षेत्र (marine protected area) बनाया गया था। इससे मछलियों की संख्या बढ़ी जो शार्क का भोजन हैं। साथ ही, 1990 के दशक के मध्य में मेडागास्कर द्वीप में विषैला संक्रमण फैलने से शार्क का मांस बेचना बंद कर दिया गया। इससे शार्क पकड़ने में कमी आई, और उनकी संख्या बढ़ने लगी।

यानी शार्क संकट पर्यावरणीय बदलाव, इंसानी गतिविधियों, और शार्क की स्थानीय स्थिति को ठीक से न समझने का मिला-जुला परिणाम था।

बचाव के नए प्रयास

जनता के बढ़ते दबाव को देखते हुए सरकार ने 2016 में शार्क सुरक्षा केंद्र (shark security center) की स्थापना की थी। इसका उद्देश्य एक ऐसा रास्ता निकालना था जिससे शार्क हमले कम हों, लेकिन समुद्री पर्यावरण भी सुरक्षित रहे।

इस दिशा में एक बड़ा कदम इलेक्ट्रिक डेटरेंट्स (electric shark deterrents) था। ये पहनने योग्य उपकरण होते हैं जो बिजली के हल्के झटके छोड़ते हैं जिससे शार्क दूर रहती है।

उपकरणों की जांच में नतीजे मिले-जुले रहे – एक उपकरण 43 प्रतिशत मामलों में कारगर रहा, बाकी उससे भी कम मामलों में। फिर आशंका इस बात की भी थी कि समय के साथ शार्क इन झटकों की आदी हो गईं तो? फिर भी इन निष्कर्षों के आधार पर नियम सख्त कर दिए गए हैं। अब रीयूनियन में कुछ क्षेत्रों में सर्फिंग करने वालों को इलेक्ट्रिक डेटरेंट पहनना अनिवार्य है।

इसके अलावा, ड्रोन (drone surveillance for sharks) का उपयोग भी शार्क की निगरानी के लिए किया गया, लेकिन यहां की गंदी और गहरे रंग की रेत के चलते ड्रोन से शार्क को पहचानना मुश्किल था। विकल्प के रूप में पानी के अंदर एआई तकनीक से लैस कैमरे (AI underwater cameras), गोताखोर और समुद्री जाल जैसी रक्षात्मक व्यवस्थाएं भी आज़माई गईं।

दुनिया भर में जो एक तकनीक सबसे खास रही, वह थी SMART ड्रमलाइन (Shark Management Alert in Real Time)। इसमें चारा लगे हुक होते हैं जो शार्क को पकड़ते हैं, लेकिन जैसे ही कोई जीव फंसता है, यह उपकरण सैटेलाइट से तुरंत अलर्ट भेज देता है। फिर अधिकारी तुरंत मौके पर पहुंचकर देखते हैं, यदि कोई अन्य जीव फंसा हो तो उसे छोड़ दिया जात है, और अगर शार्क खतरनाक हो तो स्थिति अनुसार उसे मार भी देते हैं।

शार्क सिक्यूरिटी सेंटर के निदेशक माइकल होरॉ मानते हैं कि सुरक्षा और समुद्री जीवन संरक्षण के बीच संतुलन बनाना आसान नहीं है। अब रीयूनियन प्रशासन का रुख थोड़ा नरम हुआ है। अब वे छोटी टाइगर शार्क को छोड़ देते हैं, और उन्हें टैग कर ट्रैक करने की योजना बना रहे हैं।

बहरहाल, 2019 के हमले के बाद से अब तक रीयूनियन द्वीप पर कोई जानलेवा शार्क हमला नहीं हुआ है। द्वीप का समुद्री पर्यटन धीरे-धीरे बहाल हो रहा है। तैराकी पर लगे प्रतिबंधों में भी ढील दी गई है। और दुनिया भर से वैज्ञानिक रीयूनियन आ रहे हैं ताकि इस द्वीप से पूरी दुनिया के लिए कुछ सबक ले सकें।

एक सबक

समुद्र जीवविज्ञानी (marine biologist) अर्नो गॉथियर कहते हैं कि लोग शार्क को अक्सर दो नज़रियों देखते हैं – या तो बेचारी के रूप में, या फिर हमलावर (shark predator perception) के रूप में। लेकिन सच्चाई इन दोनों के बीच कहीं है। वे समुद्र में स्वतंत्र रूप से विचरने वाले जीव हैं, शायद खतरनाक भी हो सकते हैं, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वे हर इंसान को मारने की फिराक में रहते हैं।

ज़रूरत तो इस बात की है कि हम न सिर्फ शार्क के व्यवहार को समझें बल्कि प्रकृति के कामकाज (marine ecosystem balance) में टांग अड़ाने के अपने व्यवहार पर भी थोड़ा नियंत्रण करें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रासायनिक उद्योगों का हरितीकरण

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

पृथ्वी के गर्माने को लेकर बढ़ती चिंताओं ने ‘हरित’ और ‘टिकाऊ’ जैसे शब्दों को प्रचलित कर दिया है। ‘हरित होने’ से मतलब है पर्यावरण-हितैषी तौर-तरीके (eco-friendly practices) अपनाकर पर्यावरण को होने वाले नुकसान को कम करने के प्रयास। टिकाऊ से तात्पर्य है ऐसे बदलाव लाना जो पर्यावरण और अर्थव्यवस्था (green economy) के बीच संतुलन बनाए रखे।

शब्द चाहे जो हो, पर्यावरणीय खतरों को कम या खत्म करने का साझा लक्ष्य हमें हरित रसायन विज्ञान (green chemistry) की ओर ले जाता है। और यह सोच हमें विषाक्तता और प्रदूषण (chemical pollution) से दूर ले जाता है। 1998 में पॉल एनेस्टस और जॉन वार्नर द्वारा प्रस्तुत हरित रसायन विज्ञान के 12 सिद्धांत बुनियादी बातों पर केंद्रित हैं; जैसे रासायनिक प्रक्रियाओं में सुरक्षित विलायकों और अभिकर्मकों को अपनाना; ऊर्जा-कुशल तरीके (energy-efficient chemical processes) विकसित करना जिनसे सुरक्षित रसायन प्राप्त हों जो यथासंभव गैर-विषाक्त हों और पर्यावरण में ज़्यादा देर तक मौजूद न रहे; और अपशिष्ट बनने (waste prevention) से रोकना (ताकि बाद में साफ-सफाई न करना पड़े)।

हरित रसायन विज्ञान कैसे इस्तेमाल में लाया जा सकता है, इसका एक उदाहरण है बायोडीज़ल (biodiesel production) का उत्पादन। इंडियन ऑयल कार्पोरेशन हरित ईंधन मिशन (green fuel initiative) के तहत रतनजोत (जैट्रोफा) जैसे गैर-खाद्य बीजों से बायोडीज़ल का उत्पादन करता है। इन बीजों में 30 प्रतिशत से अधिक तेल होता है, और इसके पेड़ कम वर्षा वाले इलाकों और कम उपजाऊ मिट्टी में भी उग जाते हैं। बायोडीज़ल का उत्पादन ट्रांसएस्टरीफिकेशन अभिक्रिया (transesterification process) से होता है, जिसमें बीज के तेल की मेथनॉल के साथ अभिक्रिया करके बायोडीज़ल बनाता है। इससे उप-उत्पाद के रूप में ग्लिसरॉल भी प्राप्त होता है; यह भी व्यावसायिक रूप से उपयोगी है। कार्बन फुटप्रिंट कम (carbon footprint reduction) करने के लिए मेथनॉल बायोमास से प्राप्त किया जाना चाहिए।

उत्प्रेरक ऐसे पदार्थ होते हैं जो रासायनिक अभिक्रियाओं को तेज़ करते हैं। बायोडीज़ल उत्पादन को एक क्षार (alkaline catalyst) द्वारा सुगम बनाया जाता है। क्षार के तौर पर अक्सर सोडियम हाइड्रॉक्साइड का उपयोग (sodium hydroxide in biodiesel) किया जाता है, लेकिन उत्पादन उपरांत इसे बहा देने से पानी संदूषित हो जाता है, जिसे पर्यावरण में छोड़ने से पहले उपचारित करना पड़ता है। कैल्शियम ऑक्साइड इसका एक हरित विकल्प (green alternative to NaOH) है, क्योंकि यह एक ठोस पदार्थ है और प्रत्येक उत्पादन चक्र के बाद इसका 95 प्रतिशत हिस्सा पुन: प्राप्त किया जा सकता है।

औषधीय उत्पादों (दवा वगैरह) (pharmaceutical manufacturing) के निर्माण में भी अत्यधिक विषैले पदार्थों का उपयोग किया जाता है। ऐसे कुछ कारखानों के आसपास की हवा में एक तीखी गंध आती है जो नाखून पॉलिश जैसी होती है। यह गंध विलायक टॉलुइन की होती है, जिसका व्यापक रूप से उपयोग पैरासिटामोल और कई अन्य दवाओं के संश्लेषण (drug synthesis solvents) या निष्कर्षण में किया जाता है। यह एक तंत्रिका विष (neurotoxic chemical) है। हरित प्रयासों (green alternatives in pharma) के तहत धीरे-धीरे ऐसे वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों के स्थान पर ऐसे विकल्पों का उपयोग होने लगा है जो कम विषाक्त हैं, जैव-विघटनशील (biodegradable solvents) हैं, और गन्ने जैसे बायोमास स्रोतों से प्राप्त किए जा सकते हैं।

हरित रसायन विज्ञान का एक और सिद्धांत जिस पर रसायनज्ञ काम करना पसंद करते हैं, वह है परमाणु किफायत (atom economy principle)। इसका उद्देश्य होता है कि अभिकारकों में मौजूद अधिक से अधिक परमाणुओं से वांछित उत्पाद हासिल कर लिए जाएं। ऊपर वर्णित बायोडीज़ल उत्पादन प्रक्रिया में हरित रसायन विज्ञान की बदौलत 100 प्रतिशत तो नहीं लेकिन 90 प्रतिशत परमाणु किफायत प्राप्त हो पाती है क्योंकि कुछ परमाणु उप-उत्पाद ग्लिसरॉल के निर्माण में खप जाते हैं। लेकिन ग्लिसरॉल का उपयोग अन्य उपयोगी उत्पाद (glycerol as byproduct) बनाने में हो जाता है।

परमाणु किफायत पर ध्यान देना उन उद्योगों में और भी अधिक महत्वपूर्ण है जहां उप-उत्पाद बहुत विषाक्त होते हैं। हरित रसायन विज्ञान की उत्कृष्टता (green chemistry success stories) का एक बेहतरीन उदाहरण बिरला विज्ञान संस्थान, पिलानी के हैदराबाद कैम्पस के रसायनज्ञों ने प्रस्तुत किया है। तन्मय चटर्जी और उनके साथियों की हरित विधि ने कैंसर-रोधी दवा टैमॉक्सीफेन (tamoxifen synthesis) और अन्य औषधियों के उत्पादन में 100 प्रतिशत परमाणु किफायत हासिल की है। यह विधि लागत-क्षम (cost-effective green method) भी है और इससे बड़े पैमाने पर उत्पादन भी संभव है। ऐसी विधियां हमारे पर्यावरण को कम नुकसान पहुंचाने की उम्मीद जगाती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्लास्टिक प्रदूषण संधि की चुनौतियां

दुनिया प्लास्टिक कचरे (plastic waste) में डूबती जा रही है। वर्ष 2000 के बाद निर्मित प्लास्टिक की मात्रा अब तक बनाए गए कुल प्लास्टिक की आधी से भी अधिक है, और 2050 तक इसकी मात्रा दुगनी होने की आशंका है। 10 प्रतिशत से भी कम प्लास्टिक का पुनर्चक्रण (plastic recycling) हो पाता है, जबकि ज़्यादातर प्लास्टिक एक बार उपयोग (single-use plastic) के बाद फेंक दिया जाता है। हर जगह तेज़ी से बढ़ते प्लास्टिक प्रदूषण (plastic pollution)  के परिणाम तो सर्वविदित हैं।

इस गंभीर संकट के बीच, आगामी अगस्त में संयुक्त राष्ट्र (UN plastic treaty) की एक अहम बैठक होने जा रही है। दुनिया भर के प्रतिनिधि इसमें प्लास्टिक प्रदूषण पर लगाम लगाने के लिए एक वैश्विक संधि उकेरने की कोशिश करेंगे। लेकिन इस पर एकमत होना आसान नहीं है। कुछ देश – जैसे सऊदी अरब, ईरान, रूस और चीन चाहते हैं कि संधि सिर्फ प्लास्टिक की खपत और पुनर्चक्रण तक सीमित रहे, और वे प्लास्टिक उत्पादन (plastic production) या खतरनाक रसायनों (toxic chemicals) पर कोई नियंत्रण लगाने के खिलाफ हैं।

वैज्ञानिक शोध (scientific studies) से पता चलता है कि सिर्फ प्लास्टिक की खपत और पुनर्चक्रण तक सीमित रहना काफी नहीं है। हाल ही में नेचर पत्रिका में प्रकाशित दो बड़े अध्ययनों ने स्थिति की गंभीरता को उजागर किया है।

पहले अध्ययन में, नेदरलैंड स्थित यूट्रेक्ट युनिवर्सिटी की सोफी टेन हिएटब्रिंक और उनकी टीम ने अटलांटिक महासागर के गहरे और दूर-दराज़ इलाकों से लिए गए हर सैंपल में नैनोप्लास्टिक कण (जो एक माइक्रोमीटर से भी छोटे होते हैं) (nanoplastics in ocean) पाए। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि सिर्फ उत्तर अटलांटिक के ऊपरी हिस्से में ही करीब 2.7 करोड़ टन नैनोप्लास्टिक हो सकता है — जो सभी महासागरों में मौजूद प्लास्टिक के पूर्व में लगाए गए कुल अनुमान से भी अधिक है।

दूसरे अध्ययन में, नॉर्वे स्थित युनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नॉलॉजी की लॉरा मॉन्कलुस और उनकी टीम ने प्लास्टिक निर्माण और उपयोग से जुड़े 16,000 से ज़्यादा रसायनों की पहचान की, जिनमें से 4,200 से अधिक को ‘चिंताजनक रसायन’ (hazardous plastic chemicals) माना गया है — ये या तो इंसानों और जीवों के लिए ज़हरीले हैं या फिर प्रकृति में नष्ट (non-biodegradable) नहीं होते।

ये दोनों शोध इस बात पर ज़ोर देते हैं कि अगर हमें प्लास्टिक संकट (global plastic crisis) से सचमुच निपटना है, तो सिर्फ कचरा प्रबंधन नहीं, बल्कि प्लास्टिक के अंधाधुंध उत्पादन और खतरनाक रसायनों के उपयोग को भी रोकना होगा।

दुनिया के कई देश इस व्यापक दृष्टिकोण के पक्ष में हैं। भले ही पिछली बैठक बिना किसी ठोस नतीजे के खत्म हुई थी, लेकिन 70 से अधिक देशों के एक उच्च महत्वाकांक्षी गठबंधन – जिसमें युरोपीय संघ, ब्रिटेन, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया शामिल हैं – ने एक सशक्त वैश्विक संधि (strong global plastics agreement) का समर्थन किया है। इस संधि में प्लास्टिक उत्पादन को घटाने और खतरनाक रसायनों पर नियंत्रण लगाने का आह्वान किया गया है।

हालांकि अमेरिका ने शुरू में प्लास्टिक उत्पादन पर नियंत्रण और खतरनाक रसायनों के उपयोग को रोकने जैसे कड़े उपायों का समर्थन किया था, लेकिन 2024 के अंत में बाइडेन सरकार ने अपने रुख से पीछे हटते हुए स्थिति को अस्पष्ट (US plastic policy reversal) बना दिया है।

इस बीच, कुछ देश और क्षेत्र वैश्विक सहमति से अलग काम कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, युरोपीय संघ ने 2019 में एक-बार उपयोग वाले प्लास्टिक पर कड़ा निर्देश (EU plastic directive) पारित किया था, जिसके तहत 2029 तक 90 प्रतिशत प्लास्टिक बोतलों का पुनर्चक्रण ज़रूरी होगा और इस साल से PET बोतलों में कम से कम 25 प्रतिशत पुनर्चक्रित प्लास्टिक इस्तेमाल करना होगा। कनाडा और ऑस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स राज्य ने भी एक-बार उपयोग वाले कुछ प्लास्टिक उत्पादों पर प्रतिबंध (plastic ban in Australia) लगाया है।

हालांकि ये प्रयास अच्छे लगते हैं, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि ये काफी नहीं हैं। जो लोग कड़ी संधि के खिलाफ हैं, वे कहते हैं कि इससे नौकरियों और अर्थव्यवस्था को नुकसान हो सकता है। लेकिन कठोर संधि के समर्थकों की नज़र में यह तर्क सही नहीं है। प्लास्टिक के उत्पादन पर प्रतिबंध से नए उद्योग और रोज़गार के अवसर (green jobs from plastic alternatives) भी बन सकते हैं। लेकिन इस तरह से किसी चीज़ पर सीधा प्रतिबंध लगाना उचित नहीं। यदि प्लास्टिक का विकल्प (eco-friendly plastic alternatives) बाज़ार में लाया जाए तो प्लास्टिक का उपयोग कम हो सकता है। फिर भी अभी ठोस कदम नहीं उठाए, तो आने वाली पीढ़ियों को ज़हरीला और प्रदूषित पर्यावरण झेलना पड़ेगा।

यदि जेनेवा वार्ता विफल रहती है तो कुछ वैज्ञानिक और नीति-निर्माता प्लान बी पर विचार कर रहे हैं – संयुक्त राष्ट्र की प्रक्रिया से अलग एक सशक्त संधि, जिसे उच्च महत्वाकांक्षी गठबंधन (High Ambition Coalition treaty) के देश बना सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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मिथेन उत्सर्जन पर नज़र रखने वाला उपग्रह लापता

पांच साल के लिए शुरू किए गए MethaneSAT मिशन को अभी 15 महीने ही हुए थे कि अचानक 20 जून को धरती से इसका संपर्क टूट गया। इस उपग्रह को धरती पर हो रहे मीथेन (methane emissions) उत्सर्जन का पता लगाने के लिए बनाया गया था, लेकिन अब इसके खामोश हो जाने से जलवायु (climate monitoring) पर नज़र रखने की वैश्विक कोशिशों को एक बड़ा झटका लगा है। इस उपग्रह को एनवायरनमेंटल डिफेंस फंड (EDF) नामक गैर-मुनाफा संस्था (non-profit organization) ने 754 करोड़ रुपए की लागत से तैयार किया था।

गौरतलब है कि मीथेन एक ग्रीनहाउस गैस (greenhouse gas) है, जिसका तापमान बढ़ाने वाला असर पिछले 20 वर्षों में बराबर मात्रा की कार्बन डाईऑक्साइड से 80 गुना अधिक पाया गया है। आम तौर पर मीथेन उत्सर्जन के प्रमुख स्रोत दलदली क्षेत्र हैं, लेकिन सबसे अधिक उत्सर्जन तेल और गैस की रिसती पाइपलाइनों (leaking oil and gas pipelines) से होता है। इन रिसन को रोकना ग्लोबल वॉर्मिंग (global warming) को धीमा करने का तेज़ और सस्ता तरीका माना जाता है, और MethaneSAT इन्हीं रिसावों को पहचानने के लिए अंतरिक्ष में भेजा गया था।

आम तौर पर मौजूदा उपग्रह या तो बहुत बड़े इलाके पर मोटी-मोटी नज़र रखते हैं, या फिर केवल बड़े और स्पष्ट गैस रिसाव (major gas leaks) को पकड़ पाते हैं। लेकिन MethaneSAT समस्त तेल और गैस फील्ड को इतनी बारीकी (अच्छे रिज़ॉल्यूशन – high resolution imaging) से स्कैन करने में सक्षम था कि वह बहुत छोटे उत्सर्जन (minor methane leaks) को भी पकड़ सकता था। यह 2 पार्ट प्रति बिलियन जितनी कम मीथेन सांद्रता को भी भांप सकता था।

इस उपग्रह की एक और खास बात यह थी कि यह सरकारी या निजी कंपनी की बजाय एक गैर-मुनाफा संस्था (NGO) (EDF) द्वारा संचालित किया जा रहा था। वैज्ञानिकों ने इसे जनहित में अंतरिक्ष विज्ञान (space-based climate tracking) का एक नया मॉडल बताया था। हालांकि यह उपग्रह कम समय में बंद हो गया लेकिन इसके पहले वर्ष के डैटा (satellite data analysis) का विश्लेषण अभी जारी है और इससे नए उत्सर्जन सामने आने की संभावना है, जिन पर पहले ध्यान नहीं गया था।

सबसे अहम बात यह है कि MethaneSAT से मिले डैटा को समझने के लिए विकसित उपकरण और एल्गोरिद्म (AI-based detection tools) भविष्य के मिशनों में काम आ सकते हैं। जैसे कि जापान का नया उपग्रह GOSAT-GW, जिसे हाल ही में लॉन्च किया गया है, इन तकनीकों का फायदा उठा सकता है। इसी तरह, कार्बन मैपर (Carbon Mapper satellite) जैसी संस्थाएं भी मीथेन पर निगरानी (methane surveillance) के काम को आगे बढ़ा रही हैं, हालांकि उनके उपग्रहों में MethaneSAT जैसी बड़ी रेंज की क्षमता नहीं है।

फिलहाल EDF टीम थोड़ा समय लेकर दोबारा ऐसा मिशन शुरू करने की योजना पर विचार कर रही है। बहरहाल, MethaneSAT एक प्रेरणा का स्रोत (inspirational satellite mission) है और उसके द्वारा उपलब्ध कराई गई सूचनाएं अब भी अंतरिक्ष से जलवायु निगरानी (space climate observation) के भविष्य को दिशा दे सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वायरस बनने की राह पर एक सूक्ष्मजीव

क दो-चाबुकी (डायनोफ्लेजिलेट) जीव है सिथारिस्टिस रेजियस (Citharistes regius)। डायनोफ्लेजिलेट एककोशिकीय जीव होते हैं जो प्रकाश संश्लेषण (photosynthesis) करके अपना भोजन खुद बना सकते हैं। ये दो चाबुकनुमा तंतुओं से लैस होते हैं जो उन्हें चलने-फिरने में मदद करते हैं।

रोचक बात यह है कि त्सुकुबा विश्वविद्यालय के ताकरुप नाकायामा और उनके साथियों ने इस एककोशिकीय जीव के अंदर एक विचित्र परजीवी (parasite discovery) खोजा है। इसे सुकुमार्चियम नाम दिया है और अभी यह सिर्फ अपने जीनोम (genome sequencing) के आधार पर पहचाना गया है।

तो, जीनोम के विश्लेषण से वैज्ञानिकों ने बताया है कि यह एक परजीवी है जो अपने एककोशिकीय मेज़बान (host cell) को कुछ नहीं देता। सुकुमार्चियम में कुल मिलाकर 189 प्रोटीन बनाने वाले 189 जीन्स हैं। ये सभी सिर्फ एक काम पर केंद्रित हैं – अपने जीनोम की प्रतिलिपि बनाना (genetic replication)। इस काम को अंजाम देने के लिए बाकी सारी सामग्री यह अपने मेज़बान से लूटता है। और विचित्रताएं अभी बाकी हैं…

जैसे, इस सूक्ष्मजीव की जेनेटिक शृंखला का कुछ हिस्सा ऐसा है जैसे यह एक आर्किया जीव (archaea) हो। आर्किया बैक्टीरिया की अपेक्षा हमारे जैसे जटिल जीवों (complex life forms) की तरह अधिक होते हैं। लेकिन सुकुमार्चियम की जीवन शैली वायरस के काफी मिलती-जुलती है और लगता है कि यह वायरस और एक-कोशिकीय जीवों के बीच की कड़ी (virus evolution link) है।

दरअसल, सुकुमार्चियम की खोज संयोग से ही हुई थी। शोधकर्ता सिथारिस्टिस रेजियस के अंदर उपस्थित समस्त डीएनए का अनुक्रमण (DNA sequencing) करने की कोशिश कर रहे थे क्योंकि यह तो पता ही था कि इसके अंदर सायनोबैक्टीरिया (cyanobacteria) पलते हैं। जब विश्लेषण किया तो स्वयं सिथारिस्टिस रेजियस और अपेक्षित बैक्टीरिया परजीवी के अलावा उन्हें डीएनए का अजीब-सा वृत्त मिला। इसमें मात्र 2 लाख 38 हज़ार क्षार जोड़ियां थीं, जिसकी लंबाई . कोली बैक्टीरिया के डीएनए (E. coli DNA) की मात्र 5 प्रतिशत थी। पहले लगा कि शायद यह प्रयोग के दौरान मिलावट का परिणाम होगा लेकिन तमाम कोशिशों के बाद भी जब वह बना रहा तो उन्हें मानना पड़ा कि यह एक नया जीव (new organism) है जो सिथारिस्टिस रेजियस के अंदर रहता है।

सुकुमार्चियम के पास चयापचय (metabolism) के लिए कोई जीन नहीं है, यानी यह शायद अमीनो एसिड (amino acids), प्रोटीन या न्यूक्लियोटाइड जैसे कोई अनिवार्य अणु नहीं बना पाता है। दरअसल, किसी वायरस की तरह यह अपनी प्रतिलिपि बनाने के अलावा बाकी हर काम के लिए मेज़बान पर आश्रित (host-dependent parasite) है।

तो क्या यह जीव वायरस बनने की राह पर है (virus evolution theory)? वायरस की उत्पत्ति के बारे में दो धारणाएं प्रचलित हैं। पहली, ये बैक्टीरिया वगैरह जैसे संपूर्ण कोशिका थे और धीरे-धीरे इनमें से रचनाएं व उनके बनने के लिए ज़िम्मेदार जीन्स कम होते गए और अंतत: सिर्फ वह हिस्सा बचा जो स्वयं की प्रतिलिपि बनाने में कारगर है। दूसरी, ये जीवों के विकास की शुरुआती अवस्था (primitive life form) हैं और धीरे-धीरे विभिन्न घटक जुड़ते जाएंगे। सुकुमार्चियम इस मार्ग पर कहीं है मगर किस दिशा में जा रहा है, स्पष्ट नहीं है। जब तक स्वतंत्र जीव नहीं मिलता तब तक कुछ कह नहीं सकते। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्लोरोप्लास्ट चुराते समुद्री घोंघे

सौर ऊर्जा (solar energy) से चलने वाले समुद्री घोंघों (sea slugs) की कोशिकाओं में विशेष भंडार गृह होते हैं, जहां वे शैवालों से चुराए गए क्लोरोप्लास्ट जमा करके रखते हैं। इन भंडार गृहों का रासायनिक परिवेश ऐसा होता है कि चोरी के इस माल (क्लोरोप्लास्ट) को जीवित व कामकाजी हालत में रखा जा सकता है ताकि सूर्य का प्रकाश मिलने पर यह पोषण का संश्लेषण कर सके। शोधकर्ताओं ने इस भंडार गृह को क्लोरोप्लास्ट रेफ्रिजरेटर (chloroplast refrigerator) की संज्ञा दी है। मज़ेदार बात यह है कि सामान्य स्थिति में यहां भंडारित क्लोरोप्लास्ट प्रकाश संश्लेषण के ज़रिए स्लग को भोजन उपलब्ध कराता है, वहीं आपात स्थिति में स्लग इसे पचाकर भी आहार प्राप्त कर लेते हैं।

यह बात दशकों से पता रही है कि समुद्री घोंघों की कई प्रजातियां जिस शैवाल (algae) का भक्षण करती हैं, उनके क्लोरोप्लास्ट को जमा करके रख लेती हैं। इस चोरी को क्लेप्टोप्लास्टी (kleptoplasty) कहते हैं। लेकिन स्लग कोशिका के अंदर तो मात्र क्लोरोप्लास्ट जमा होता है, शैवाल की पूरी कोशिका नहीं। वैज्ञानिक यह नहीं जानते थे कि पूरी शैवाल कोशिका के सहारे के बगैर क्लोरोप्लास्ट जीवित व कामकाजी कैसे बना रहता है।

हारवर्ड विश्वविद्यालय (Harvard University) के निकोलस बेलोनो व साथियों द्वारा सेल (Cell journal) में प्रकाशित शोध पत्र में इसी सवाल पर विचार किया गया है। बेलोनो की टीम ने स्वयं घोंघे की कोशिकाओं द्वारा हाल ही में बनाए गए प्रोटीन्स की निशानदेही कर दी। पता चला कि अधिकांश प्रोटीन्स का निर्माण मूल शैवाल द्वारा नहीं बल्कि स्वयं घोंघे द्वारा किया गया था। मतलब हुआ कि घोंघे ने क्लोरोप्लास्ट को सहेजकर रखा था और वह प्रकाश संश्लेषण कर पा रहा था।

क्लोरोप्लास्ट को सूक्ष्मदर्शी से देखने पर पता चला कि उसे घोंघे की आंत में एक खास प्रकोष्ठ में रखा गया था। प्रत्येक प्रकोष्ठ एक ऐसी झिल्ली से घिरा था जो ठीक वैसी पाई गई जैसी एक अन्य कोशिकांग फैगोसोम (phagosome) के आसपास पाई जाती है। फैगोसोम का काम यह होता है कि वह एक अन्य कोशिकांग लायसोसोम (lysosome) से जुड़ जाता है और अनावश्यक कोशिकांगों को पचाने का काम करता है। शोधकर्ताओं ने इस संरचना को क्लेप्टोसोम (kleptosome) नाम दिया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पहाड़ी जंतुओं में गंध की संवेदना कम

ऊंचे पहाड़ों पर विचरने वाले जंतुओं(high altitude animals), जैसे लामा, भेड़ों वगैरह में गंध को पकड़ने वाले ग्राही (olfactory receptors) काफी कम संख्या में पाए जाते हैं और मस्तिष्क का गंध से सम्बंधित क्षेत्र (ऑल्फेक्टरी लोब – olfactory lobe) भी छोटा होता है। यह खुलासा करंट बायोलॉजी में प्रकाशित एक शोध में हुआ है। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि इस अनुकूलन से उन्हें ऊंचे पहाड़ों की ठंडी, सूखी हवा में रहने में मदद मिलती होगी।

कैन्सास विश्वविद्यालय (University of Kansas) की एली ग्राहम यह समझना चाह रही थीं कि जानवर ऊंचाइयों जैसे इंतहाई पर्यावरण के साथ तालमेल कैसे बनाते हैं। उन्होंने स्तनधारियों की जेनेटिक जानकारी जुटाई और अपने दल के साथ मिलकर देखा कि ऊंचे पहाड़ों पर रहने वाले तथा समुद्र सतह के नज़दीक रहने वाले जानवरों के बीच क्या अंतर हैं।

सबसे बड़ा अंतर था कि ऊंचाई पर रहने वाले जंतुओं में गंध संवेदना से जुड़े जीन्स (olfactory genes) की संख्या बहुत कम थी।

थोड़ा और गहराई में उतरे तो पता चला कि 1000 मीटर से अधिक ऊंचाई पर रहने वाले जानवरों में गंध संवेदना से सम्बंधित जीन्स उन जानवरों से 23 प्रतिशत कम थे जो इससे कम ऊंचाई के निवासी थे।

फिर, उन्होंने पूर्व में संग्रहित उस जानकारी पर गौर किया जो कई स्तनधारी जीवों की खोपड़ियों की नपाई (cranial measurement study) से प्राप्त हुई थी। पता चला कि पर्वतीय जीवों का ऑल्फेक्टरी बल्ब (घ्राण बल्ब) (olfactory bulb size) निचले इलाकों के निवासी जीवों की तुलना में औसतन 18 प्रतिशत छोटा होता है। और तो और, किसी प्राणी का रहवास जितनी ऊंचाई पर होता है, उसमें उतने ही कम गंध संवेदना से जुड़े जीन्स और गंध ग्राही पाए जाते हैं।

तो क्या ऊंचाई के साथ गंध संवेदना का ह्रास एक अनुकूलन (adaptive trait loss) है? इसके कई कारण हो सकते हैं कि ऊंचाई के साथ जंतुओं को गंध संवेदना की ज़रूरत कम पड़े। एक तो यह हो सकता है कि ऊंचे स्थानों पर हवा अपेक्षाकृत अधिक ठंडी और कम नमीदार (cold and dry air conditions) होती है। ऐसी हवा में गंध पदार्थों के अणु कम होते हैं और गंध के अणु ज़्यादा दूर तक नहीं पहुंच पाते। इसी के साथ ऐसी हवा नाक बंद होने व श्वास मार्ग में सूजन का सबब भी हो सकती है।

अनुमान है कि इस कारण ऊंचे स्थानों पर रहने वाले जंतुओं को गंध की बारीक संवेदना की ज़रूरत ही नहीं होगी। तो ग्राहम का अनुमान है कि गंध संवेदी ग्राही की बजाय ऐसे जीव अपने संसाधन अन्य संवेदनाओं (जैसे स्वाद और दृष्टि – alternate senses like vision and taste) में निवेश करेंगे।

उन्होंने यह भी देखने का प्रयास किया कि क्या ये निष्कर्ष मनुष्यों पर भी सही बैठते हैं। इसके लिए उन्होंने मनुष्यों के दो समूहों के बीच जेनेटिक अंतरों पर गौर किया – एक, तिब्बती लोग जो 4500 मीटर या उससे अधिक ऊंचाई के बाशिंदे हैं और दूसरा, कम ऊंचाइयों पर रहने वाले चीन के हान (Tibetan vs Han people genetic study) लोग। लेकिन इनके बीच कोई अंतर नहीं मिला।

यह आश्चर्यजनक था क्योंकि ड्रेसडेन विश्वविद्यालय के थॉमस हमेल ने एक प्रयोग (controlled environment experiment) में देखा था कि जब मनुष्यों को एक ऐसे कक्ष में बैठाया गया जिसका पर्यावरण ऊंचे स्थानों जैसा था तो उन्हें गंध ताड़ने में मुश्किल हुई बनिस्बत उनके जिन्हें कम ऊंचे पर्यावरण कक्ष में बैठाया था। इसकी व्याख्या नहीं हो पाई है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ऑनलाइन आलोचना से स्वास्थ्य एजेंसियों पर घटता विश्वास

डिजिटल दौर (digital age) में जन स्वास्थ्य एजेंसियों (public health agencies) के सामने एक नई चुनौती खड़ी हो गई है। उन्हें अब सिर्फ बीमारियों के प्रसार (disease outbreaks) से ही नहीं बल्कि सोशल मीडिया पर फैल रही भ्रामक जानकारियों (health misinformation) और व्यक्तिगत हमलों से भी निपटना पड़ रहा है। एक हालिया अध्ययन बताता है कि यूएस के सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (CDC) जैसी स्वास्थ्य संस्थाओं के खिलाफ सोशल मीडिया पर की गई नकारात्मक टिप्पणियां लोगों के भरोसे (public trust) को तोड़ रही हैं, उनमें गुस्सा (public anger) बढ़ा रही हैं।

हाल ही में CDC ने टेक्सास और न्यू मेक्सिको में खसरे के प्रकोप (measles outbreak)  को लेकर एक चेतावनी ट्विट की थी, जिसमें यात्रियों को टीका लगवाने (vaccination) की सलाह दी गई थी। कुछ लोगों ने इसका समर्थन किया। लेकिन कई लोगों ने इस पर शक जताया, साज़िश के आरोप (conspiracy theories) लगाए और यहां तक कि आपराधिक व्यवहार का इल्ज़ाम तक लगाया। ऐसी तीखी प्रतिक्रियाएं अब आम हो रही हैं।

इसका असर समझने के लिए स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी (Stanford University) के शोधकर्ताओं ने 6800 अमरीकियों पर अध्ययन किया। प्रतिभागियों को एक काल्पनिक सोशल मीडिया पोस्ट दिखाई, जिसमें CDC जैसी संस्था ने एक दुविधामयी स्वास्थ्य सलाह दी थी – जैसे सबको स्लीप एप्निया की जांच (sleep apnea screening) करवाने की सलाह। इसके बाद उन्हें आलोचनात्मक टिप्पणियां (critical comments) दिखाईं, जो असली ऑनलाइन टिप्पणियों की तरह बनाई गई थीं।

इन आलोचनात्मक टिप्पणियों की प्रकृति अलग-अलग थी – कुछ में सलाह से सिर्फ असहमति जताई थी, तो कुछ में संस्था की क्षमता (competence) पर या ईमानदारी (integrity) पर सवाल उठाया था, जैसे राजनीतिक हित या छुपे हुए इरादे होना।

अध्ययन के नतीजे चौंकाने वाले थे। महज़ एक नकारात्मक टिप्पणी (negative comment) – भले ही हल्की-फुल्की ही क्यों न हो – भी लोगों का भरोसा कम कर देती है। लेकिन सबसे ज़्यादा नुकसान वे टिप्पणियां करती हैं जो संस्था की सच्चाई (credibility)  और नैतिकता (ethics)  पर हमला करती हैं। ऐसी टिप्पणियां न सिर्फ भरोसा घटाती हैं, बल्कि लोगों में गुस्सा पैदा करती हैं और उन्हें उसे साझा करने, भावनात्मक प्रतिक्रिया देने या जवाब देने के लिए उकसाती हैं।

दिलचस्प बात यह रही कि यह असर राजनीतिक सोच (political orientation) पर निर्भर नहीं था – चाहे व्यक्ति रिपब्लिकन हो या डेमोक्रेट, संस्था की ईमानदारी पर हमला देखकर दोनों ने समान प्रतिक्रिया दी। इससे पता चलता है कि भरोसे में कमी सिर्फ राजनीति का मसला नहीं, बल्कि इंसानों की सामान्य प्रवृत्ति है। यह अध्ययन दर्शाता है कि हर तरह की आलोचना का असर एक जैसा नहीं होता – किस तरह की आलोचना (type of criticism) की जाती है, इससे बहुत फर्क पड़ता है।

हालांकि, राजनीतिक विश्लेषक (political analyst) जेम्स ड्रकमैन का कहना है कि गुस्से जैसी भावनाओं (anger perception) को सर्वेक्षण के ज़रिए मापना मुश्किल है – जो बात एक व्यक्ति को गुस्से जैसी लगे, वह दूसरे को चिंता जैसी लग सकती है। फिर भी, इस अध्ययन में जो पैटर्न सामने आया है, वह चिंता की बात (cause for concern) है।

स्वास्थ्य एजेंसी की तरफ से सफाई देने (official clarification) पर भी लोगों का भरोसा पहले जैसा नहीं लौटा। शोधकर्ता एवं मनोरोग विशेषज्ञ जोनाथन ली का मानना है कि इसका एक कारण यह हो सकता है कि लोग तुरंत सही बात सुनने के लिए तैयार नहीं होते – उन्हें पहले थोड़ा शांत होने (cool-down time) के लिए समय की ज़रूरत होती है।

इस अध्ययन से यह बात साफ होती है कि पारदर्शिता (transparency) यानी ईमानदारी बहुत ज़रूरी है। सलाह है कि स्वास्थ्य एजेंसियों को यह स्वीकार करने में हिचकना नहीं चाहिए कि उन्हें हर सवाल का जवाब नहीं पता। खासकर महामारी (pandemic) जैसी तेज़ी से बदलती परिस्थितियों में यह ईमानदारी भरोसा बढ़ा सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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यह जीव यूवी प्रकाश से भी बच निकलता है

त्यंत ऊर्जावान पराबैंगनी प्रकाश (यूवी-सी) (UV-C radiaton) इतना घातक होता है कि लगभग सारी कोशिकाओं को मार डालता है। इसी वजह से इसका इस्तेमाल अस्पतालों में विसंक्रमण (hospital disinfection) के लिए किया जाता है। लेकिन हाल ही में एस्ट्रोबायोलॉजी (Astrobiology) में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार एक जीव इतना सख्तजान है कि वह यूवी-सी को भी झेल जाता है।

यूवी-सी से बच निकलने वाला यह जीव एक लाइकेन (lichen) है। लाइकेन दरअसल मिश्रित जीव होते हैं और एक फफूंद (fungus) तथा एक शैवाल (algae) से मिलकर बनते हैं। लगता है कि इस मिश्र-जीव ने यूवी-सी का तोड़ निकाल लिया है।

डेज़र्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट (Desert Research Institute) के खगोलजीव वैज्ञानिक (astrobiologist) हेनरी सन ने फील्ड वर्क के दौरान देखा था कि मोजावे के गर्म रेगिस्तान (Mojave desert) में एक लगभग काला-सा लाइकेन फल-फूल रहा था। सन ने अनुमान लगाया कि शायद इसका काला रंग (dark pigmentation), जो हरे पर हावी हो गया था, ही इसके रेगिस्तान में ज़िंदा रहने का राज़ है। इस लाइकेन क्लेवेसिडियम लेसिन्यूलेटम (Clavascidium lacinulatum) के नमूने प्रयोगशाला में लाकर अपने एक छात्र तेजिंदर सिंह को उसके अध्ययन में लगा दिया।

तेजिंदर सिंह ने पहले तो लाइकेन को सुखा दिया। इसके बाद उन्होंने लाइकेन को एक यूवी लैम्प (UV lamp) के नीचे रखा और उस पर विकिरण की बौछार की। लाइकेन ठीक-ठाक ही रहा। तब सिंह ने उस पर अत्यंत शक्तिशाली यूवी-सी बरसाया (लगभग उतना जितना मंगल पर उम्मीद की जा सकती है) (extreme UV-C exposure)। ऐसा ही यूवी-सी परीक्षण पृथ्वी पर पाए जाने वाले सर्वाधिक विकिरण रोधी बैक्टीरिया (डाईइनोकॉकस रेडियोड्यूरेन्स, Deinococcus radiodurans) (radiation-resistant bacteria) पर किया तो वह एक मिनट के अंदर मर गया था। यह मानकर चला जा रहा था कि लाइकेन कुछ घंटे या अधिक से अधिक कुछ दिन जी पाएगा। लेकिन तीन महीने तक परीक्षण करने के बाद जब वह नमूना निकाला गया तो उसमें मौजूद आधी से ज़्यादा शैवाल कोशिकाओं (algal cells) में से अंकुर फूटे और 2 सप्ताह में वहां बढ़िया हरी-भरी बस्ती तैयार हो गई। यानी इतने अत्याचार के बाद भी शैवाल में प्रजनन क्षमता (reproductive viability) मौजूद थी।

दिलचस्प बात थी कि यह प्रयोग सिर्फ लाइकेन के साबुत नमूने (intact lichen samples) पर ही सफल रहा। यही प्रयोग जब फफूंद के बगैर शैवाल कोशिकाओं की एक मोटी परत पर किया गया तो वे चंद मिनटों में मर गई। अर्थात ऊपरी परत की कोशिकाएं अन्य कोशिकाओं को मात्र विकिरण से सुरक्षा (radiation shielding) नहीं दे रही थीं।

लाइकेन की इस जीजिविषा (survivability) का कारण जानने के लिए सन की टीम ने रसायनज्ञों की मदद से लाइकेन में यूवी-अवशोषक पदार्थों (UV-absorbing compounds) की पहचान की। ये रसायन लाइकेन को यूवी से सुरक्षा देते हैं। लेकिन एक सवाल बना रहा कि ये रसायन इस लाइकेन में बनना ही क्यों शुरू हुए। सवाल इसलिए था क्योंकि पृथ्वी की ओज़ोन परत (ozone layer) करीब 50 करोड़ वर्ष पूर्व अस्तित्व में आई मानी जाती है। यानी लाइकेन्स के उद्भव (lichen evolution) से काफी पहले ओज़ोन परत अस्तित्व में आ चुकी थी और पृथ्वी पर यूवी का आपतन बहुत कम रह गया था। तो यूवी से सुरक्षा की यह व्यवस्था क्यों बनी होगी?

शोधकर्ताओं का अनुमान है कि लाइकेन्स में यह व्यवस्था खुद को स्वयं पृथ्वी के वातावरण से सुरक्षित रखने के लिए बनी होगी क्योंकि एक समय पर वनस्पतियों के फैलाव की वजह से वातावरण में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ने लगी थी। ऑक्सीजन सजीवों के लिए अनिवार्य तो है लेकिन यह ऐसे क्रियाशील अणु (reactive molecules) पैदा कर सकती है जो डीएनए को नुकसान (DNA damage) पहुंचाते हैं।

इसी प्रयोग में एक और रोचक बात पता चली। ये सुरक्षात्मक रसायन (protective chemicals) लाइकेन के अंदरुनी भाग में नहीं बल्कि उसकी ऊपरी सतह (outer surface) पर जमा हो जाते हैं, ठीक सनस्क्रीन (natural sunscreen) की तरह। कई शोधकर्ता लाइकेन की इस खूबी के उपयोग की बात कर रहे हैं। अलबत्ता, मनुष्य के लिए उपयोगी हो न हो, लाइकेन के लिए तो यह सुरक्षा व्यवस्था (UV defense) उपयोगी है ही। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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