सौर मंडल से बाहर के ग्रह में कार्बन डाईऑक्साइड

जेम्स वेब दूरबीन की मदद से सौर मंडल से बाहर के एक ग्रह के वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड के साक्ष्य मिले हैं। शनि के आकार का यह ग्रह पृथ्वी से 700 प्रकाश वर्ष दूर है। यह पहली बार है कि किसी बाह्य ग्रह में इस गैस के साक्ष्य मिले हैं। किसी ग्रह पर कार्बन डाईऑक्साइड की उपस्थिति से उस ग्रह की उत्पत्ति के महत्वपूर्ण सुराग मिलते हैं। खगोलविदों का विश्वास है कि जल्द ही जेम्स वेब दूरबीन से मीथेन और अमोनिया जैसी गैसों की पहचान भी की जा सकेगी जो किसी ग्रह पर जीवन की उपस्थिति का अंदाज़ देंगी।

वेब दूरबीन अवरक्त तरंगों के प्रति संवेदनशील है जिन्हें पृथ्वी का वायुमंडल अवरुद्ध करता है। जब कोई ग्रह कक्षा में चक्कर लगाते हुए अपने तारे के सामने से गुज़रता है तो तारे का प्रकाश ग्रह के वायुमंडल से होकर गुज़रता है। वायुमंडल से गुज़रने के दौरान प्रकाश में जो परिवर्तन होते हैं वे ग्रह के वायुमंडल के संघटन का सुराग देते हैं क्योंकि वायुमंडल में उपस्थित गैसें विभिन्न तरंग लंबाई के प्रकाश का अवशोषण करती हैं। हमारी रुचि की अधिकांश गैसें अवरक्त प्रकाश का अवशोषण करती हैं।          

हालिया अध्ययन के लिए खगोलविदों ने वैस्प-39बी नामक गैसीय गर्म विशाल ग्रह को चुना जो हर 4 दिनों में अपने तारे की परिक्रमा करता है। इस ग्रह के अवशोषण स्पेक्ट्रम में वेब टीम ने कार्बन डाईऑक्साइड गैस की यकीनी उपस्थिति देखी। वैसे इसी डैटा से कार्बन डाईऑक्साइड के अलावा एक और गैस का पता चला है लेकिन अभी तक टीम ने इसके बारे में कोई जानकारी नहीं दी है। जल्द ही परिणाम नेचर पत्रिका में प्रकाशित किए जाएंगे जिसमें इस ग्रह पर उपस्थित सभी रसायनों की जानकारी होगी।   

किसी भी ग्रह पर कार्बन डाईऑक्साइड की उपस्थिति से उस ग्रह की ‘धात्विकता’ का पता चलता है। ‘धात्विकता’ का अर्थ है कि किसी ग्रह पर हाइड्रोजन व हीलियम तथा अन्य तत्वों का अनुपात क्या है। गौरतलब है कि बिग बैंग के बाद ब्रह्मांड में हाइड्रोजन और हीलियम का निर्माण हुआ था। आगे चलकर इन दो तत्वों से अधिक भारी तत्वों का निर्माण तारों में हुआ। शोधकर्ताओं के अनुसार भारी तत्वों ने विशाल ग्रहों के निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जब किसी नए तारे के इर्द-गिर्द सामग्री के डिस्क से ग्रह का निर्माण होता है तब भारी तत्व ठोस पत्थरों और चट्टानों को जोड़कर कोर का निर्माण करते हैं जो अंततः अपने स्वयं के गुरुत्वाकर्षण से गैसों को अपनी ओर खींचते हैं और एक विशाल ग्रह का रूप ले लेते हैं।         

वैस्प-39बी से मिले कार्बन डाईऑक्साइड के साक्ष्यों से वेब टीम का अनुमान है कि इस ग्रह की धात्विकता लगभग शनि ग्रह के समान है। उम्मीद है कि वेब दूरबीन कई आश्चर्यजनक परिणाम देगी। शायद हमें कोई ऐसा ग्रह मिल जाए जो जीवन के योग्य हो। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्राचीन कांसा उत्पादन के नुस्खे की नई व्याख्या

1976 में की गई खुदाई में शांग राजवंश के एक चीनी सेनापति फू हाओ के तीन हज़ार साल पुराने मकबरे से 1.5 टन से अधिक कांसा निकला था। खुदाई में प्राप्त वस्तुओं की तादाद से पता चलता है कि तत्कालीन चीन में कांस्य उत्पादन बड़े पैमाने पर होता था। और दिलचस्प बात यह रही है कि कांसे की कई पुरातात्विक वस्तुओं में काफी मात्रा में सीसा (लेड) पाया गया है। यह एक रहस्य रहा है कि कांसे में इतना सीसा क्यों है।

हाल ही में शोधकर्ताओं ने 2300 साल पुराने एक ग्रंथ में वर्णित कांस्य वस्तुएं बनाने के नुस्खे को नए ढंग से समझने की कोशिश की है। उनका निष्कर्ष है कि चीन के प्राचीन ढलाईघरों में कांसे की वस्तुएं बनाने के लिए पहले से तैयार मिश्र धातुओं का उपयोग किया जाता था। इससे पता चलता है कि – चीन का कांस्य उद्योग अनुमान से अधिक जटिल था।

ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के पुरातत्वविद और अध्ययन के लेखक मार्क पोलार्ड बताते हैं कि किसी समय चीन प्रति वर्ष सैकड़ों टन कांसे का उत्पादन करता था।

वैसे दशकों से पुरातत्वविद काओगोंग जी नामक प्राचीन ग्रंथ को समझने की कोशिश करते आए हैं। काओगोंग जी 2500 साल पुराना एक तकनीकी विश्वकोश सरीखा ग्रंथ है। इसमें गाड़ी बनाने, वाद्ययंत्र बनाने से लेकर शहर बनाने तक के निर्देश-नियम दिए गए हैं। इसमें कांसे की वस्तुओं जैसे कुल्हाड़ी, तलवार और अनुष्ठानों में उपयोग होने वाले पात्रों को ढालने की भी छह विधियां बताई गई हैं। ये तरीके दो प्रमुख पदार्थों पर आधारित हैं: शिन और शाय। पूर्व विश्लेषणों में वैज्ञानिकों ने बताया था कि शिन और शाय कांसे के घटक (तांबा और टिन) हैं। लेकिन फिर भारी मात्रा में सीसा कहां से आया?

तो वास्तव में शिन और शाय क्या होंगे, इसे बेहतर समझने के लिए शोधकर्ताओं ने प्राचीन कांस्य सिक्कों के रासायनिक विश्लेषणों को फिर से देखा। उनके अनुसार इनमें से अधिकांश सिक्के संभवत: दो खास मिश्र धातुओं को मिलाकर बनाए गए थे – पहली तांबा, टिन व सीसा की मिश्र धातु, और दूसरी तांबा व सीसा की मिश्र धातु।

एंटीक्विटी में प्रकाशित में नतीजों के अनुसार शिन और शाय तांबा और टिन नहीं इन दो मिश्र धातुओं के द्योतक हैं। ऐसा लगता है कि मिश्र धातुओं की सिल्लियां किसी अन्य जगह तैयार होती थीं, फिर इन्हें ढलाईघर पहुंचाया जाता था। इन सिल्लियों का उपयोग प्राचीन चीन में धातुओं के उत्पादन, परिवहन और आपूर्ति के जटिल नेटवर्क का अंदाज़ा देता है। संभवत: यह नेटवर्क अनुमान से कहीं बड़ा था।

कुछ वैज्ञानिकों को लगता है कि इस बात के कोई ठोस प्रमाण नहीं हैं कि शिन और शाय शुद्ध तांबा और टिन नहीं बल्कि पहले से तैयार मिश्र धातु हैं। हो सकता है कि काओगोंग जी वास्तविक निर्माताओं द्वारा नहीं, बल्कि प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा लिखा गया था। तो हो सकता है कि उन्होंने प्रमुख सामग्री – तांबा और टिन – का ही उल्लेख किया हो, अन्य का नहीं।

बहरहाल कांस्य वस्तुओं के निर्माण की तकनीक से उनसे जुड़ी सभ्यताओं को समझने में मदद मिलती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कमाल का संसार कुकुरमुत्तों का – डॉ. ओ. पी. जोशी

रसात के दिनों में सड़ी-गली वस्तुओं पर पैदा होकर जल्द ही गायब होने वाले सुंदर, नाज़ुक एवं रंग-बिरंगे कुकुरमुत्ते हमेशा ही ध्यान आकर्षित करते हैं। प्राचीन समय में मनुष्य इस दुविधा में था कि ये पौधे हैं या फिर जंतु। अलबत्ता, प्रसिद्ध वैज्ञानिक थियोफ्रेस्टस (371–287 ईसा पूर्व) का मत था कि ये एक प्रकार की वनस्पति हैं।

कुकुरमुत्ते मृतोपजीवी (सेप्रोफाइट) हैं, जो सड़े गले पदार्थों से भोजन प्राप्त करते है। जीवजगत के आधुनिक वर्गीकरण में इन्हें कवक (फंजाई) समुदाय में रखा गया है। अंग्रेज़ी में इन्हें मशरूम तथा हिंदी में कई नामों से जाना जाता है, जैसे खुंभ, खुंभी, गुच्छी, धींगरी तथा भींगरी। इनकी ज़्यादातर प्रजातियां छतरी समान होने के कारण इन्हें छत्रक भी कहा जाता है। इनका ऊपर का छतरी समान भाग (पायलियस) एक ठंडल समान रचना (स्टेप) से जुड़ा रहता है। इस रचना के ज़मीन से सटे भाग से जड़ों के समान धागे जैसी रचनाएं (माइसीलियम) निकलकर पोषक पदार्थों का अवशोषण करती हैं। छतरी समान रचना में कई छोटे-छोटे खांचे (गिल्स) होते हैं जहां बीजाणु (स्पोर्स) बनते हैं। इनका प्रसार धागेनुमा रचना एवं बीजाणु दोनों से होता है। कुछ कुकुरमुत्ते पूरी तरह भूमिगत होते हैं जिन्हें ट्रफल कहा जाता है।

कुकुरमुत्तों का वर्णन कई देशों के प्राचीन साहित्य में मिलता है। बेबीलोन, यूनान एवं रोम सभ्यता के पुराने धार्मिक ग्रंथों में इनके विविध उपयोगों का ज़िक्र है। चीन की पुरानी पुस्तकों में इनको उगाने की विधि बताई गई है। हमारे देश के प्राचीन ग्रंथ चरक संहिता में इन्हें तीन प्रकार का बताया गया है – खाने योग्य, विषैले एवं औषधीय। कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि प्राचीन काल में प्रचलित सोमरस भी एमेनिटा मस्केरिया नामक कुकुरमुत्ते से बनाया जाता था जो फ्लाय-एगेरिक के नाम से मशहूर है।

प्राचीन युरोप एवं रोम की मान्यता के अनुसार कुकुरमुत्ते बादलों में कड़कती बिजली के कारण धरती पर पैदा होते है। मेक्सिको में प्राचीन समय में इन्हें दैवी शक्ति मानकर पूजा की जाती थी। यूनानवासी एक समय मूर्ख लोगों को कुकुरमुत्ता कहते थे। प्रसिद्ध वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन ने 19वीं सदी में दक्षिण अमेरिका के एक द्वीप पर वहां के निवासियों को मांस-मछली के साथ कुकुरमुत्ते एवं स्ट्रॉबेरी खाते देखा था। इन कुकुरमुत्तों को बाद में सायटेरिया डार्विनाई कहा गया। जूलियस सीज़र के समय एक ताकत देने वाला कुकुरमुत्ता (एगेरिकस प्रजाति) सैनिकों को खिलाया जाता था।

कुकुरमुत्तों को उगाने या खेती करने का इतिहास भी काफी पुराना है। चीन एवं जापान के लोग लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व पेड़ों के तनों के टुकड़ों पर अपनी पसंद के कुकुरमुत्ते उगाते थे। 17वीं सदी में पेरिस के निर्माण के लिए खोदी गई चूना पत्थर की बेकार पड़ी खदानों में घोड़े की लीद पर फ्रांसीसियों ने इनकी खेती की। यहां से इनकी खेती का चलन पूरे युरोप, अमेरिका एवं अन्य देशों में फैला। वर्तमान में इनकी खेती में कम्पोस्ट खाद एवं भूसी का उपयोग किया जाता है। यदि गर्मियों में ठंडक तथा जाड़ों गर्म रखने की व्यवस्था हो तो कुकुरमुत्तों की खेती वर्ष भर की जा सकती है। हमारे देश में इनकी खेती 1962 में प्रारम्भ हुई।

कुछ प्रजातियों के कुकुरमुत्तों का आकार छतरी से भिन्न भी होता है – जैसे अंडाकार (पोडेक्सिस एवं क्लेवेरिया), सीप समान (प्लूटियस), कुप्पी (फनल) के समान (क्लाइटोसाइब) एवं चिड़ियों के घोसले में रखे अंडों के समान (साएथस)। कुछ कुकुरमुत्ते (प्लूरोटस तथा आर्मेलेरिया प्रजातियां) रात में जंगलों में ऐसे चमकते हैं मानों छोटे-छोटे बिजली के बल्ब लगे हों।

कुकुरमुत्ते खाद्य तथा चिकित्सा के क्षेत्र में काफी उपयोगी पाए गए हैं। वैसे तो दुनिया भर में कई प्रकार के कुकुरमुत्ते उगाए एवं खाए जाते हैं परंतु तीन प्रमुख हैं – बटन खुंभी (एगेरिकस प्रजातियां), धान पुआल खुंभी (वॉल्वेरिया प्रजातियां) एवं ढोंगरी (प्लूरोटस प्रजातियां)।

पोषण वैज्ञानिकों के मुताबिक 100 ग्राम ताज़े कुकुरमुत्ते में औसतन 5 ग्राम ऐसा प्रोटीन होता है जो शरीर में पूरी तरह पच जाता है। इसके अलावा कार्बोहायड्रेट, विटामिन्स, वसा, रेशे एवं खनिज पदार्थ भी पाए जाते हैं। वसा एवं कार्बोहायड्रेट की मात्रा कम होने से मोटापा के प्रति चिंतित लोगों में कुकुरमुत्तों के खाद्य पदार्थ काफी लोकप्रिय हैं। मधुमेह एवं हृदय रोगियों के लिए भी इनका भोजन आदर्श बताया गया है। जलवायु बदलाव से भविष्य में खाद्यान्न पैदावार में कमी की संभावना के मद्देनज़र भोजन में कुकुरमुत्तों के उपयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

चिकित्सा के क्षेत्र में भी ये काफी उपयोगी पाए गए हैं। होम्योपैथी की कई दवाइयों में एगेरिक का उपयोग किया जाता है। लायकोपरडॉन का उपयोग ड्रेसिंग के लिए मुलायम पट्टियां बनाने में किया जाता है। कई प्रजातियों से क्रमश: हृदय रोग एवं रक्तचाप नियंत्रण की दवाई बनाने के प्रयास जारी हैं। अमेरिका तथा जापान के राष्ट्रीय कैंसर शोध संस्थाओं ने ग्रिफोला-फानड्रोसा तथा एक अन्य प्रजाति में कैंसर-रोधी गुणों की खोज की है। यह संभावना भी व्यक्त की गई है कि गेनोडर्मा से एड्स, कैंसर एवं मधुमेह का उपचार संभव है। त्रिसुर (केरल) के अमाला कैंसर शोध संस्थान ने पाया कि गेनोडर्मा से बनाई दवा कीमोथेरेपी के साइड प्रभावों को कम कर देती है। उत्तर कोरिया के वैज्ञानिकों ने कुकुरमुत्तों की कुछ प्रजातियों से एक ऐसा पेय पदार्थ तैयार किया है जिसका सेवन खिलाड़ियों की थकावट को दूर कर तरोताज़ा बना देता है। पेनसिल्वेनिया स्टेट विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने ऐसा पेय तैयार किया है जिसका सेवन लोगों को अवसाद से उबारकर स्फूर्ति प्रदान करता है। सोलन स्थित राष्ट्रीय मशरूम अनुसंधान केन्द्र में इसे सफलता पूर्वक उगाया गया है।

कुकुरमुत्तों का सेवन नशे के लिए किए जाने के भी प्रमाण मिले हैं। मेक्सिको के लोग एमेनिटा को खाकर आनंद की अनुभूति करते थे। एक अन्य कुकुरमुत्ते में मौजूद एल्केलाइड भी नशा पैदा करता है। कुकुरमुत्तों को देखकर, छूकर, सूंघकर या रंग देखकर यह पता नहीं लगाया जा सकता है कि ये विषैले हैं या विषहीन। एक मान्यता है कि रंगीन विशेषकर बैंगनी कुकुरमुत्ते विषैले होते हैं। दूध का फटना भी विषैले कुकुरमुत्तों की एक पहचान बताई गई है।

और तो और, डिज़ाइनर व वास्तुकार फिलिप रॉस ने इनकी मायसीलियम से मज़बूत ईंट का निर्माण किया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की प्रासंगिकता पर सवाल – डॉ. खुशालसिंह पुरोहित

पिछले दिनों इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए कहा कि जब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड कुछ करता ही नहीं है, तो क्यों ना उसे समाप्त कर दिया जाए। मामले की सुनवाई मुख्य न्यायाधीश राजेश बिंदल, न्यायमूर्ति मनोज कुमार गुप्ता एवं अजीत कुमार की खंडपीठ कर रही है।

याचिकाकर्ता के अधिवक्ता ने न्यायालय को बताया कि कानपुर के चमड़ा उद्योग और गजरौला के शक्कर कारखाने की गंदगी शोधित हुए बिना गंगा नदी में गिर रही है; इस कारण सीसा, पोटेशियम व कई रेडियोसक्रिय पदार्थ गंगा नदी को प्रदूषित कर रहे हैं। गंगा के प्रदूषण को लेकर जो रिपोर्ट प्रस्तुत की गई है वह आंखों में धूल झोंकने वाली है; जब जांच करानी होती है तब साफ पानी मिलाकर सैंपल भेज कर अच्छी रिपोर्ट तैयार करा ली जाती है जबकि गंदा पानी सीधे गंगा में गिरता रहता है।

सुनवाई के दौरान न्यायालय ने प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से पूछा कि आपकी भूमिका क्या है, कैसी निगरानी कर रहे हैं, आपके पास इस सम्बंध में कितनी शिकायतें पहुंची है और कितने पर कार्रवाई की गई है? बोर्ड के अधिवक्ता इस पर ठीक से जवाब नहीं दे पाए तो न्यायालय ने कहा कि जब आप ठीक से निगरानी नहीं कर रहे हो और कुछ कार्रवाई नहीं कर पा रहे हैं तो क्यों न बोर्ड को बंद कर दिया जाए?

प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए देश में कई नियम-कानून और विशिष्ट एजेंसियां कार्य कर रही हैं। प्रदूषण नियंत्रण की सरकारी नीतियों के क्रियान्वयन में राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारी एवं कर्मचारी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह विडम्बना ही कही जाएगी कि कई बार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में पूर्णकालिक अध्यक्ष के अभाव में प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारियों को उनके विभागीय दायित्व के अतिरिक्त प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्ष का कार्यभार सौंप दिया जाता हैं। ऐसी स्थिति में कई अधिकारी बोर्ड के लिए समय ही नहीं निकाल पाते हैं। कभी-कभी राज्य बोर्ड में संचालक मंडल के सदस्यों की नियुक्ति लंबे समय तक टलती रहती है। कुल मिलाकर स्थिति यह है कि दूसरे निगम-मंडलों की तुलना में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के क्रियाकलापों पर शासन और समाज स्तर पर ज़्यादा चर्चा नहीं हो पाती है।

पिछले दिनों एक सर्वेक्षण से पता चला था कि राज्य बोर्ड में कार्यरत अधिकांश कर्मचारियों को प्रदूषण नियंत्रण के ज़रूरी मानकों के इतिहास और उनके उद्देश्यों की जानकारी नहीं थी। संसदीय समिति की वर्ष 2008 की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में विभिन्न राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में 77 प्रतिशत अध्यक्ष एवं 55 प्रतिशत सदस्य-सचिव अपने पदों पर कार्य करने की योग्यता नहीं रखते थे।

प्रदूषण पर रोक लगाने के उद्देश्य से बनाए गए प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड बढ़ते प्रदूषण को रोकने में असफल रहे हैं। बोर्डों के गठन के बाद से औद्योगिक और नगरीय प्रदूषण के साथ ही कस्बाई प्रदूषण के आंकड़ों का ग्राफ निरंतर बढ़ता जा रहा है। इधर बोर्ड के अधिकारियों का ज़्यादातर प्रयास यह रहता है कि कारखाने में कुछ हो ना हो, कागज़ों पर प्रदूषण नियंत्रण में रहे। बोर्ड के पास भारी-भरकम अमला है, जिसमें कानून के हथियारों से लैस उच्च अधिकारी हैं; क्षेत्रीय अधिकारियों की फौज के साथ ही बड़ी संख्या में वैज्ञानिक हैं। प्रदूषण नियंत्रण में इन सबका कितना उपयोग हो रहा है इस पर चिंतन करने की आवश्यकता है। इस बात पर भी विचार आवश्यक है कि बोर्ड को उद्योगपतियों के हितों की रक्षा करनी है या देश के जनसामान्य को प्रदूषण मुक्त वातावरण उपलब्ध करवाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करना है।

कहा जाता है कि कुछ बोर्ड में औद्योगिक प्रदूषण की नियमित जांच का हाल यह है कि उद्योग में अफसरों के पहुंचने के पूर्व उनका प्रवास कार्यक्रम पहुंच जाता है। प्राय: ऐसे अवसर पर उद्योग में सब कुछ ठीक-ठाक पाया जाता है। प्राय: बोर्ड के अधिकारी उद्योग के रेस्ट हाउस या किसी होटल या रिसोर्ट में बैठकर जांच रिपोर्ट पूर्ण कर लेते हैं।

लगभग साढ़े तीन दशक पहले मेरे गृह नगर के प्रमुख पेयजल स्रोत को प्रदूषित करने वाले एक रसायन उद्योग के विरुद्ध लंबे समय तक अभियान चलाने का मुझे अवसर मिला था। अनेक स्तरों पर प्रतिकार का कोई ठोस प्रतिसाद नहीं मिला तो हमें सर्वोच्च न्यायालय जाना पड़ा, जहां जनहित याचिका के माध्यम से जनता की व्यथा को अभिव्यक्ति दी और उसमें न्याय मिला। करीब पांच साल चले इस अभियान में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के तत्कालीन अध्यक्ष और चंद अधिकारियों को छोड़ दें तो बोर्ड की तकनीकी राय हमेशा उद्योग के पक्ष में रहती थी।

अक्सर कहा जाता है कि जब देश में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड एवं अन्य नियामक संस्थाएं नहीं थी, तब देश का पर्यावरण समृद्ध था, नदियां स्वच्छ थीं तथा वन और वन्य प्राणी भी सुरक्षित थे। आज प्रदूषण की ऐसी गंभीर स्थिति क्यों बनी? इस दुर्दशा से मुक्ति के लिए किसी की तो ज़िम्मेदारी होगी। कई वर्षों के बाद यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित ही है।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय की टिप्पणी देश के पर्यावरण के सुखद भविष्य की उम्मीद जगाती है। आज आवश्यकता इस बात की है कि बोर्ड की कार्यपद्धति और क्रियाकलापों में हर स्तर पर पारदर्शिता लाई जाए। इसके लिए सरकार, जन प्रतिनिधि, पर्यावरण संगठन और जनसामान्य को सक्रियता से ठोस पहल करनी होगी। (स्रोत फीचर्स)

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चबा-चबाकर खाइए और कैलोरी जलाइए

ब कैलोरी बर्न करने की बात आती है तो लोगों का ध्यान सरपट सैर, साइकिल चलाना या ऐसे ही व्यायामों की ओर जाता है, चबाने का तो विचार तक नहीं आता। अब, एक नवीन अध्ययन बताता है कि दिन भर में हमारे द्वारा खर्च की जाने वाली कुल ऊर्जा में से लगभग 3 प्रतिशत ऊर्जा तो चबाने की क्रिया में खर्च होती है। कुछ सख्त या रेशेदार चीज़ चबाएं तो थोड़ी और अधिक ऊर्जा खर्च होगी। हालांकि यह ऊर्जा चलने या पाचन में खर्च होने वाली ऊर्जा से बहुत कम है, लेकिन अनुमान है कि इसकी भूमिका हमारे पूर्वजों के चेहरे को नया आकार देने में रही।

ऐसा माना जाता रहा है कि हमारे जबड़ों की साइज़ और दांतों का आकार चबाने को अधिक कुशल बनाने के लिए विकसित हुआ था। जैसे-जैसे हमारे होमिनिड पूर्वज आसानी से चबाने वाले भोजन का सेवन करने लगे और भोजन को काटने-पीसने और पकाने लगे तो जबड़ों और दांतों का आकार भी छोटा होता गया। लेकिन यह जाने बिना कि हम दिनभर में चबाने में कितनी ऊर्जा खर्च करते हैं, यह बता पाना मुश्किल है कि क्या वाकई ऊर्जा की बचत ने इन परिवर्तनों में भूमिका निभाई थी।

यह जानने के लिए मैनचेस्टर विश्वविद्यालय की जैविक मानव विज्ञानी एडम वैन केस्टरेन और उनके दल ने 21 प्रतिभागियों द्वारा खर्च की गई ऑक्सीजन और उत्पन्न कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा का मापन किया। इसके लिए प्रतिभागियों को एक हेलमेट जैसा यंत्र पहनाया गया था। फिर उन्हें 15 मिनट तक चबाने के लिए चुइंगम दी। यह चुइंगम स्वादहीन, गंधहीन और कैलोरी-रहित थी। ऐसा करना ज़रूरी था अन्यथा पाचन तंत्र सक्रिय होकर  ऊर्जा की खपत करने लगता।

चबाते समय प्रतिभागियों द्वारा प्रश्वासित वायु में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर बढ़ा हुआ पाया गया। यह दर्शाता है कि चबाने पर शरीर ने अधिक कार्य किया। जब चुइंगम नर्म थी तब प्रतिभागियों का चयापचय औसतन 10 प्रतिशत बढ़ा। सख्त चुइंगम के साथ चयापचय में 15 प्रतिशत तक वृद्धि देखी गई। यह प्रतिभागियों द्वारा दिन भर में खर्च की गई कुल ऊर्जा का 1 प्रतिशत से भी कम है लेकिन मापन-योग्य है। ये नतीजे साइंस एडवांसेस पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं।

शोधकर्ताओं के मुताबिक इससे पता चलता है कि खाना पकाना और औज़ारों का इस्तेमाल शुरू होने से पहले आदिम मनुष्य चबाने में बहुत अधिक समय बिताते होंगे। यदि प्राचीन मनुष्य दिन भर में वर्तमान गोरिल्ला और ओरांगुटान जितना भी चबाते होंगे तो शोधकर्ताओं का अनुमान है कि वे दिन भर में खर्च हुई कुल ऊर्जा का कम से कम 2.5 प्रतिशत चबाने में खर्च करते होंगे।

ये नतीजे इस विचार का समर्थन करते हैं कि चबाने में सुगमता आने से वैकासिक लाभ मिला। चबाने में लगने वाली ऊर्जा की बचत का उपयोग आराम, मरम्मत और वृद्धि जैसी अन्य चीज़ों पर हुआ होगा।

चबाने में मनुष्यों द्वारा खर्च होने वाली ऊर्जा गणना से अन्य होमिनिड्स के विकास के बारे में भी एक झलक मिल सकती है। मसलन 20 लाख से 40 लाख साल पूर्व रहने वाले ऑस्ट्रेलोपिथेकस के दांत आधुनिक मनुष्यों की तुलना में चार गुना बड़े थे और उनके जबड़े विशाल थे। वे चबाने में अधिक ऊर्जा लगाते होंगे।

अन्य शोधकर्ता इस बात से सहमत नहीं है कि सिर्फ ऊर्जा की बचत ने जबड़ों और दांत के विकास का रुख बदला। इसमें अधिक महत्वपूर्ण भूमिका अन्य कारकों की हो सकती है, जैसे ऐसे आकार के जबड़े विकसित होना जो दांतों के टूटने या घिसने की संभावना कम करते हों। प्राकृतिक चयन में संभवत: ऊर्जा दक्षता की तुलना में दांतों की सलामती को अधिक तरजीह मिली होगी, क्योंकि दांतों के बिना भोजन खाना मुश्किल है, और ऊर्जा मिलना भी। (स्रोत फीचर्स)

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परमाणु युद्ध हुआ तो अकाल पड़ेगा

युद्धों के दौरान परमाणु हमले के खतरे ने सभी देशों में भय और चिंता की स्थिति पैदा कर दी है, क्योंकि परमाणु हमले के विनाशकारी प्रभावों से सभी वाकिफ हैं। अब, परमाणु सर्दियों पर अब तक का सबसे व्यापक मॉडल कहता है कि परमाणु युद्ध वैश्विक जलवायु को इतनी बुरी तरह प्रभावित कर सकता है कि इसके चलते अरबों लोग भूखे मर जाएंगे। वैसे यह मॉडल एकदम सटीक भविष्यवाणी तो नहीं करता लेकिन परमाणु युद्ध के खतरों को रेखांकित करने के अलावा अन्य आपदाओं के लिए तैयारियों का खाका पेश करता है।

यह तो विदित है कि भीषण विस्फोट वायुमंडल में इतनी धूल, राख और कालिख उड़ा सकते हैं कि पृथ्वी की जलवायु प्रभावित हो सकती है। 1815 में माउंट तंबोरा के ऐतिहासिक ज्वालामुखी विस्फोट से निकली राख ने पूरी पृथ्वी को ढंक दिया था, जिसने धरती तक पर्याप्त धूप नहीं आने दी। नतीजतन एक साल जाड़े का मौसम बना रहा था। परिणामस्वरूप दुनिया भर में बड़े पैमाने पर फसलें बर्बाद हुई थीं और अकाल पड़ा था।

दशकों से वैज्ञानिक चेता रहे हैं कि परमाणु हमले भी इसी तरह के हालात पैदा कर सकते हैं। भीषण परमाणु विस्फोट से लगी आग वायुमंडल में लाखों टन कालिख छोड़ेगी, जो सूर्य के प्रकाश को रोकेगी जिसके वैश्विक पर्यावरणीय प्रभाव दिखेंगे। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ही परमाणु युद्ध के जलवायु सम्बंधी प्रभाव को लेकर चिंताएं उभरने लगी थीं और इस पर अध्ययन शुरू हुए।

परमाणु सर्दियों पर अध्ययन के लिए रटजर्स विश्वविद्यालय के एलन रोबॉक और कोलेरैडो विश्वविद्यालय के ब्रायन टून ने विभिन्न विषयों के वैज्ञानिकों की एक टीम जुटाई। परमाणु सर्दी के मॉडलिंग के लिए उन्होंने उसी जलवायु मॉडल को आधार बनाया जिससे ग्लोबल वार्मिंग के अनुमान लगाए जाते हैं।

इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने जलवायु मॉडल में वैश्विक खाद्य उत्पादन के मॉडल को शामिल किया। उन्होंने इसमें परमाणु युद्ध के 6 परिदृश्य बनाए, और इसमें खेती के साथ-साथ मत्स्य पालन को भी शामिल किया ताकि विस्तृत प्रभाव पता चल सके।

शोधकर्ताओं ने अनुमान लगाया कि विभिन्न परमाणु हमलों से 50 लाख टन से 1.5 करोड़ टन के बीच कालिख वायुमंडल में पहुंचेगी। फिर उन्होंने इसे सूर्य के प्रकाश, तापमान और वर्षा मॉडल पर लागू किया, और इसके परिणामों को खेती और मत्स्य उत्पादन मॉडल में डाला। शोधकर्ताओं ने मक्का, चावल, सोयाबीन, गेहूं उत्पादन और मत्स्य उत्पादन में संभावित कमी के आधार पर कुल कैलोरी क्षति का अनुमान लगाया। इसके आधार पर उन्होंने गणना की कि कितने लोग भूखे रहेंगे। शोधकर्ताओं ने माना था कि ऐसी स्थिति में अंतर्राष्ट्रीय खाद्य व्यापार ठप हो जाएगा और देशों के अंदर उपलब्ध संसाधनों का अच्छा-से-अच्छा वितरण होगा।

फूड नेचर में शोधकर्ता बताते हैं कि यदि संयुक्त राज्य अमेरिका, उसके सहयोगी देश और रूस के बीच परमाणु युद्ध होता है तो उसके कुछ साल बाद वैश्विक औसत कैलोरी उत्पादन में लगभग 90 प्रतिशत की कमी आएगी – इस अकाल से लगभग 5 अरब लोग मारे जाएंगे। यदि भारत-पाकिस्तान के बीच भयंकर युद्ध की स्थिति बनी तो कैलोरी उत्पादन 50 प्रतिशत कम हो जाएगा जिससे 2 अरब लोगों की मौत हो सकती है। शोधकर्ताओं ने अपने मॉडल में आपातकाल के लिए खाद्य-बचत रणनीतियों के प्रभाव को भी जोड़कर देखा (जैसे चारा और घरेलू कचरे को भोजन में परिवर्तित करना) और पाया कि बड़े युद्ध की स्थिति में ये प्रयास ऊंट के मुंह में जीरे के समान होंगे।

कुछ शोधकर्ता इन अनुमानों की व्याख्या करने में सावधानी बरतने का आग्रह करते हैं क्योंकि काफी कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि इस तरह की वैश्विक तबाही पर मानव समाज किस तरह प्रतिक्रिया देगा।

देखा जाए तो मॉडल में सुधार की गुंजाइश है। लेकिन शोधकर्ताओं का उद्देश्य तबाही के सटीक अनुमान प्रस्तुत करने की बजाय जोखिम के स्तर को सामने लाना था।

इन भयावह स्थिति की संभावनाओं ने लोगों को इससे निपटने के तरीके तलाशने के लिए प्रेरित किया है। उदाहरण के लिए समुद्री शैवाल जैसे खाद्य को बढ़ाना, कागज कारखानों को शकर उत्पादन के लिए ढालना, बैक्टीरिया की मदद से प्राकृतिक गैस को प्रोटीन में परिवर्तित करना और परिवर्तित जलवायु के हिसाब से फसलों को स्थानांतरित करना। ऐसे तरीके भोजन की उपलब्धता में नाटकीय वृद्धि कर सकते हैं। भूखे मरने से अच्छा है बेस्वाद खाना। और इस तरह के ख्याली अभ्यास मनुष्य को परमाणु युद्ध से उपजी आपदा के लिए ही नहीं बल्कि जलवायु परिवर्तन और अन्य आपदाओं के लिए भी तैयार कर सकते हैं।

बहरहाल, सबसे बेहतर उपाय तो यही होगा कि किसी भी कीमत पर परमाणु युद्ध टाले जाएं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अतिरिक्त जीन से चावल की उपज में सुधार – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

साठ के दशक की हरित क्रांति ने चावल और गेहूं जैसी फसलों की उपज में उल्लेखनीय सुधार किया। यह नव-विकसित उच्च उपज वाली किस्मों के साथ-साथ सिंचाई, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के प्रचुर उपयोग का मिला-जुला परिणाम था। भारत में चावल की प्रति हैक्टर उपज में तीन गुना वृद्धि देखी गई।

अब पचास साल बाद, इस सघन तरीके के कुछ नकारात्मक प्रभाव दिखने लगे हैं – नाइट्रोजन उर्वरक और कृषि रसायन पर्यावरण के लिए खतरा पैदा करते हैं; पानी आपूर्ति अक्सर कम होती है; और कृषि भूमि अब दम तोड़ने लगी है।

दुनिया की बढ़ती आबादी के लिए अधिक खाद्यान उपजाने के लिए जंगलों और घास के मैदानों को खेतों में तबदील करना होगा। यह हमारे पारिस्थितिक तंत्रों पर भारी दबाव डालेगा।

इस उलझन से बाहर निकलने का एक संभावित तरीका चीनी कृषि विज्ञान अकादमी के फसल विज्ञान संस्थान के शाओबो वाई और उनके साथियों ने साइंस पत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र में सुझाया है – ‘ए ट्रांसक्रिप्शनल रेगुलेटर दैट बूस्ट्स ग्रेन यील्ड एंड शॉर्टन्स दी ग्रोथ ड्यूरेशन ऑफ राइस’ यानी अनुलेखन का एक नियंत्रक जो धान की पैदावार को बढ़ाता है और पकने की अवधि को कम करता है। इसी अंक में रिपोर्टर एरिक स्टोकस्टेड ने लिखा है, “सुपरचार्ज्ड बायोटेक चावल 40 प्रतिशत अधिक उपज देता है।”

यह रिपोर्ट बताती है कि चीनी चावल की एक किस्म में इसके अपने ही एक जीन की दूसरी प्रति जोड़ने से उपज में 40 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई। जब इस चावल में OsDREB1C नामक जीन की दूसरी प्रति जोड़ी जाती है, तो यह प्रकाश संश्लेषण और नाइट्रोजन का बेहतर उपयोग करता है, पुष्पन तेज़ गति से होता है और ज़्यादा बड़े तथा अधिक संख्या में दाने मिलते हैं। यह उर्वरकों का अवशोषण अधिक कुशलता से करता है – जिससे अधिक प्रचुर मात्रा में अनाज पैदा होता है।

भारत दुनिया में चावल का सबसे बड़ा निर्यातक है। भारत ने वर्ष 2021-22 के दौरान 150 से अधिक देशों को लगभग 1.8 करोड़ मीट्रिक टन चावल निर्यात किया था, जिससे 6.11 खरब डॉलर की कमाई हुई थी। यह कुछ साल पहले की तुलना में बहुत बड़ा सुधार है। जैसा कि अरुण अधिकारी और उनके साथियों ने 2016 में एग्रीकल्चर इकॉनॉमी रिसर्च रिव्यू में बताया था, आने वाले वर्षों में बढ़ती मांग के मद्देनज़र धान उत्पादन और निर्यात बढ़ाने की (बेहतर) रणनीति तलाशनी चाहिए।

वियतनाम चावल का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश बन गया है। वर्ष 2021-2022 में उसने 65 लाख टन धान का उत्पादन किया है। भारत को दुनिया के सबसे बड़े चावल उत्पादक व निर्यातक के रूप में अपनी हैसियत को बरकरार रखने और इसे बढ़ाने के लिए 1.8 करोड़ टन से अधिक उत्पादन करना होगा। इस संदर्भ में वाई और उनके साथियों का पेपर महत्वपूर्ण हो जाता है।

जीन मॉडुलेशन

पेपर में महत्वपूर्ण बात यह है कि शोधकर्ताओं ने धान की इस किस्म में कोई बाहरी जीन नहीं बल्कि उसी जीन को फिर से जोड़ा है। इसे जेनेटिक मॉडुलेशन की संज्ञा देना सबसे उपयुक्त होगा। यह कोई जेनेटिक संशोधन या परिवर्तन (जीएम) नहीं है। यह किसी बाह्य जीन रोपित पौधे का परिणाम नहीं है, जिसमें किसी दाता पौधे से जीन लिए जाते हैं।

भारत के लिए यह विशेष रूप से प्रासंगिक है, जिसका लक्ष्य चावल के उत्पादन और व्यापार में अपनी स्थिति को बरकरार रखना है। दी वायर में 16 जून को प्रकाशित एक लेख – (भारत में जीएम फसलों का नियमन जीन के प्रभावों पर आधारित होना चाहिए, उसके स्रोत पर नहीं) बताता है कि “भारत ने पूर्व में सभी तरह की जेनेटिक रूप से परिवर्तित फसलों के व्यावसायीकरण सम्बंधी जो नियम लागू किए थे उनमें से चंद जेनेटिक रूप से परिवर्तित फसलों को इन नियमों से छूट दी गई है।

उदाहरण के लिए, बीटी कपास में बैसिलस थुरंजिएंसिस (बीटी) नामक बैक्टीरिया से जीन सामान्य कपास में स्थानांतरित किया जाता है। भारत के कृषि मंत्रालय ने वर्ष 2019 में बताया था कि उसने इस बाहरी जीन को सामान्य कपास में स्थानांतरित कर बीटी कपास का उत्पादन करने की अनुमति दे दी है। इसे भारत में बनाकर भारत और अन्य देशों में बेचा जा रहा है।

इसी तरह, बिज़नेस स्टैंडर्ड में प्रकाशित एक लेख कहता है कि भारत पशुओं के चारे के लिए 12 लाख टन जीएम सोयाबीन का आयात करेगा। अगर मंत्रालय विदेशों से जीएम सोयाबीन आयात की अनुमति दे रहा है तो क्यों न भारत में उत्पादन की अनुमति दे दी जाए?

दूसरी ओर, साइंस में प्रकाशित उपरोक्त शोधपत्र के लेखकों ने चावल में पहले से मौजूद ‘मूल’ जीन (OsDREB1C) की एक अतिरिक्त प्रति जोड़ी है, न कि बीटी कपास या बीटी सोयाबीन की तरह एक बाहरी जीन।

भारत में चावल के बेहतरीन शोधकर्ता हैं और देश भर की कई प्रयोगशालाओं में उत्कृष्ट जेनेटिक इंजीनियर भी मौजूद हैं। जैव प्रौद्योगिकी विभाग (डीबीटी) और भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के पोषण विशेषज्ञों के साथ मिलकर कृषि मंत्रालय इन शोधकर्ताओं का साथ दे तो भारत दुनिया में प्रमुख चावल निर्यातक बन सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विद्युत सुरक्षा: राष्ट्र स्तरीय योजना की आवश्यकता – श्रीकुमार नालूर

ज़ादी के बाद से भारत ने विद्युत क्षेत्र में काफी विकास किया है। इस दौरान बुनियादी ढांचे में महत्वपूर्ण सुधार के साथ लगभग सभी घरों में बिजली कनेक्शन प्रदान किए गए। इसके अलावा वर्ष 2070 तक नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन और हफ्ते के सातों दिन चौबीस घंटे बिजली आपूर्ति के वायदे भी हैं। हालांकि ये सभी प्रयास प्रसंसनीय हैं लेकिन अभी भी विद्युत क्षेत्र कई समस्याओं का सामना कर रहा है। इसमें बिजली से होने वाली दुर्घटनाएं सबसे दुर्भाग्यपूर्ण समस्या है।

विकास और सफलता के लिए समस्याओं और विफलताओं को समझना आवश्यक है। यह काफी दुर्भाग्यपूर्ण है कि विद्युत सम्बंधी दुर्घटनाओं की दर में निरंतर वृद्धि के बावजूद विद्युत क्षेत्र के योजनाकारों, नियामक एजेंसियों और संचालकों ने इस ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है। राष्ट्रीय या प्रांतीय नीतियों या कार्यक्रमों में विद्युत सुरक्षा के लिए न तो कोई लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं और न ही कोई संसाधन विशिष्ट रूप से आवंटित किए गए हैं। जिन चंद मामलों में संसाधनों का आवंटन किया गया है वहां या तो इनका पूरी तरह उपयोग नहीं किया गया है या फिर इनका बहुत कम हिस्सा कर्मचारियों के प्रशिक्षण या सुरक्षा किट के लिए उपयोग किया गया है।

मौतों में वृद्धि

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आकड़ों के अनुसार पिछले कुछ वर्षों से बिजली के झटके या बिजली के कारण लगी आग से मरने वालों की संख्या और मृत्यु दर में निरंतर वृद्धि हो रही है। वर्ष 1990 में ऐसी दुर्घटनाओं में मरने वालों की संख्या 2957 (0.36 मौतें प्रति लाख) थी जो 2020 में बढ़कर 15,258 (1.13 मौतें प्रति लाख) हो गई। मृत्यु दर के सम्बंध में केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (सीईए) द्वारा जारी आंकड़े भी ऐसी ही स्थिति दर्शाते हैं। गौरतलब है कि पिछले कुछ वर्षों में कई विकसित देशों में विद्युत-सम्बंधी दुर्घटनाओं से मृत्यु दर में काफी कमी आई है और वर्तमान मृत्यु दर प्रति लाख लोगों पर 0.03 या उससे भी कम है।

उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि विद्युत दुर्घटनाओं में मरने वालों में 90 प्रतिशत से अधिक आम लोग होते हैं। लिहाज़ा, दुर्घटनाओं को कम करने के प्रयासों में आम लोगों की सुरक्षा को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

भौगोलिक दृष्टि से देखें तो अधिकांश विद्युत-सम्बंधी दुर्घटनाएं ग्रामीण क्षेत्रों में होती हैं लेकिन तेज़ी से हो रहे शहरीकरण को देखते हुए गरीब शहरी क्षेत्रों पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। अधिकांश दुर्घटनाएं वितरण प्रणाली और गैर-औद्योगिक उपभोक्ताओं वाले क्षेत्रों में होती हैं। इसमें भी अधिकांश मौतें वितरण नेटवर्क (विशेष रूप से 11 केवी और लो-टेंशन प्रणालियों) और लो-टेंशन उपभोक्ता वाले क्षेत्रों में होती है। अत: इन क्षेत्रों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।

गौरतलब है कि अधिकांश मौतें लाइव कंडक्टर के संपर्क में आने से होती हैं। इसका कारण यह हो सकता है कि लाइव कंडक्टर नीचे तक झूलते होते हैं या खुले स्विच बोर्ड कम ऊंचाई पर लगे होते हैं। दुर्घटनाओं का दूसरा प्रमुख कारण विद्युतीय फाल्ट के कारण आग लगना है जो लगभग 12 प्रतिशत दुर्घटनाओं के लिए ज़िम्मेदार है। इसके अलावा, डिज़ाइन एवं निर्माण में खराबी, अपर्याप्त रख-रखाव, अपर्याप्त सुरक्षा प्रणाली और सुरक्षा जागरूकता में कमी भी इसके प्रमुख कारण हैं।          

सुरक्षा की व्यवस्थाएं

सीईए ने सुरक्षा सम्बंधी नियम तैयार किए हैं और सभी बिजली संचालकों से इनका पालन करने की अपेक्षा की जाती है। लेकिन संचालकों द्वारा इन नियमों का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए कोई ठीक-ठाक व्यवस्था नहीं है। उदाहरण के लिए वितरण कंपनियों से अपेक्षा की जाती है कि वे सुरक्षा अधिकारी नियुक्त करें जो समय-समय पर सुरक्षा ऑडिट करें। लेकिन इस तरह का कोई ऑडिट नहीं किया जाता है क्योंकि वितरण कंपनियों की प्राथमिकता हमेशा से राजस्व की वसूली और फाल्ट की मरम्मत करना रही है। राज्यों के विद्युत निरीक्षकों से अपेक्षा होती है कि वे कनेक्शनों को स्वीकृति देंगे तथा इलेक्ट्रीशियनों को लाइसेंस प्रदान करेंगे और दुर्घटनाओं की जांच-पड़ताल करेंगे। लेकिन उनके पास कर्मचारियों की भारी कमी रहती है। जहां तक सुरक्षा अधिकारियों का सवाल है, तो उनका ध्यान औद्योगिक सुरक्षा की ओर अधिक तथा ग्रामीण जनता की सुरक्षा की ओर कम होता है। कई ज़मीनी स्तर के संगठन भी दुर्घटना की रोकथाम की बजाय पीड़ितों को मुआवज़ा राशि दिलवाने में अधिक रुचि लेते हैं।        

विद्युत सुरक्षा जनहित के लिए एक बड़ी चुनौती है जिससे सभी हितधारकों के सहयोग से ही निपटा जा सकता है। बेहतर डैटा संग्रहण, राष्ट्र स्तरीय कार्यक्रमों में सुरक्षा के पहलुओं को शामिल करके, सुरक्षा संस्थानों के सशक्तिकरण, वितरण कंपनियों के लिए सुरक्षा नियमन के विकास, सुरक्षा सम्बंधित प्रस्तावों में जनता और पेशेवरों की भागीदारी और तकनीकी नवाचार के माध्यम से वर्तमान सुरक्षा नियामक व्यवस्था के क्रियांवयन को मज़बूत किया जा सकता है।   

वर्तमान परिस्थिति में ज़रूरत इस बात की है कि वितरण क्षेत्र में दुर्घटनाओं को कम करने के लिए एक राष्ट्रीय कार्यक्रम विकसित किया जाए जिसका कार्यक्षेत्र सुपरिभाषित हो, संसाधन का पर्याप्त आवंटन हो और मज़बूत निगरानी एवं सत्यापन व्यवस्था हो। राज्यों को अधिक दुर्घटनाओं वाले जिलों को चिन्हित करके दुर्घटनाओं को कम करने के लिए कार्यक्रम तैयार करने चाहिए। इन्हीं उपायों से हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि बिजली न केवल सबको मिले, सस्ती और अच्छी गुणवत्ता वाली और सुरक्षित भी हो। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मानसिक थकान का रासायनिक आधार

कोई बहुत ही दिमाग खपाऊ काम करने का बाद अचानक कोई छोटी-मोटी बात ही याद नहीं रहती, जैसे नाश्ते में क्या खाया था या बाहर किस काम के लिए निकले थे। अब, एक अध्ययन बताता है कि घंटों तक कठिन दिमागी काम करने के बाद दिमाग क्यों जवाब दे जाता है – संभवत: ग्लूटामेट का विषाक्त मात्रा में निर्माण; ग्लूटामेट मस्तिष्क में प्रचुरता में पाया जाने वाला एक रासायनिक सिग्नल है।

मानसिक थकान की व्याख्या की यह पहली कोशिश नहीं है। कुछ वैज्ञानिकों का कहना रहा है कि कठिन दिमागी कार्य करने में अधिक ऊर्जा खर्च होती है और ये मस्तिष्क को उसी तरह थका सकते हैं जैसे कठोर परिश्रम शरीर (मांसपेशियों) को थका देता है। कुछ वैज्ञानिक तो यह कहते हैं कि कृत्रिम मिठास वाली चीज़ें खाने-पीने की बजाय असली चीनी युक्त चीज़ें लेना दिमाग को पैना कर सकता है। लेकिन व्याख्या की कोशिश जारी है।

ऐसे ही एक प्रयास में पैरिस विश्वविद्यालय के तंत्रिका विज्ञानी एंटोनियस वाइलर और उनके साथियों ने मानसिक थकान से सम्बंधित व्यवहार – जैसे आसान और त्वरित संतुष्टि तलाशना या तैश में आकर निर्णय लेना – और ग्लूटामेट के स्तर के बीच सम्बंध पर ध्यान दिया। आम तौर पर ग्लूटामेट न्यूरॉन्स को उत्तेजित करता है। यह सीखने और स्मृति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। लेकिन इसकी अत्यधिक मात्रा मस्तिष्क की कार्यप्रणाली को तबाह कर सकती है – इसके कारण कोशिका मृत्यु से लेकर दौरे पड़ने तक की समस्या हो सकती है।

ग्लूटामेट के स्तर पर निगरानी रखने के लिए शोधकर्ताओं ने एमआरआई तकनीक का उपयोग किया जिसके लिए दिमाग में सुई वगैरह नहीं चुभोनी पड़ती है। चूंकि मस्तिष्क का लेटरल प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स वाला हिस्सा एकाग्रचित्त होने और योजना बनाने में मदद करता है इसलिए अध्ययन में मस्तिष्क के इसी हिस्से पर ध्यान केंद्रित किया गया। देखा गया है कि जब व्यक्ति मानसिक रूप से थक जाता है तो यह हिस्सा सुस्त हो जाता है।

अध्ययन में शामिल 39 प्रतिभागियों को शोधकर्ताओं ने दो समूहों में बांटा। एक समूह को मानसिक रूप से थकाने वाले मुश्किल कार्य दिए। इस समूह को एक तो यह बताना था कि कंप्यूटर स्क्रीन पर तेज़ी से सिलसिलेवार आते अक्षर हरे रंग के थे या लाल, अपरकेस (केपिटल) थे या लोअरकेस वगैरह। दूसरा उन्हें बताना था कि स्क्रीन पर दिखाई गई संख्या तीन कदम पहले दिखाए गए अक्षर से मेल खाती है या नहीं। प्रयोग लगभग 6 घंटे चला। दूसरे समूह के प्रतिभागियों को इन्हीं कार्यों के आसान संस्करण दिए गए थे।

प्रयोग के दौरान समय बीतने के साथ शोधकर्ताओं ने प्रतिभागियों की संज्ञानात्मक थकान को कई बार मापा। इसके लिए उन्हें ऐसे विकल्पों में से चुनने का कहा गया जिनमें संयम की ज़रूरत पड़ती है – जैसे उन्हें चुनना था कि तत्काल मिलने वाले पैसे न लेकर बाद में कहीं ज़्यादा पैसे लें। शोधकर्ताओं ने पाया कि आसान कार्य वाले समूह की तुलना में कठिन कार्य वाले समूह ने लगभग 10 प्रतिशत अधिक बार आवेगपूर्ण निर्णय किए। साथ ही साथ, उनके लेटरल प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स में ग्लूटामेट का स्तर लगभग 8 प्रतिशत बढ़ गया था। ‘आसान-कार्य’ समूह में ऐसा पैटर्न दिखाई नहीं दिया। नतीजे करंट बायोलॉजी में प्रकाशित हुए हैं।

हालांकि अभी यह नहीं कहा जा सकता कि अत्यधिक दिमागी काम से मस्तिष्क में ग्लूटामेट का विषाक्त स्तर पर निर्माण होता है। लेकिन अगर ऐसा होता है तो यह नींद की ताकत को रेखांकित करता है, जो अपशिष्ट पदार्थों को बाहर निकालकर मस्तिष्क को ‘साफ’ करती है। शोधकर्ताओं का कहना है कि मस्तिष्क के प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स में ग्लूटामेट के स्तर के आधार पर भारी थकान और अवसाद या कैंसर जैसी स्थितियों में स्वास्थ्य लाभ की निगरानी की जा सकती है।

कई शोधकर्ताओं को संदेह है कि मस्तिष्क में एकत्रित अपशिष्ट इतनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते होंगे। संभवत: ग्लूटामेट शरीर के अन्य कार्यों के समन्वय में भूमिका निभाता हो। लेकिन यदि ग्लूटामेट की ऐसी भूमिका की पुष्टि होती है तो औषधियों के विकास में मदद मिलने की उम्मीद है।

बहरहाल, इस अध्ययन ने मानसिक थकान और ग्लूटामेट की भूमिका को लेकर बहस गर्मा दी है। आगे के अध्ययन स्थिति को और स्पष्ट कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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क्या आप कभी कोविड संक्रमित हुए हैं?

कोविड-19 महामारी को ढाई वर्ष से अधिक समय बीत चुका है। अभी भी कई लोग ऐसे हैं जो या तो कभी संक्रमित नहीं हुए या उनमें संक्रमण अ-लक्षणी रहा था। इसके अलावा, कई संस्करण जांच में बच निकलते हैं, और कई कारक परीक्षण की सटीकता को प्रभावित करते हैं। लिहाज़ा, महामारी वैज्ञानिकों को महामारी के सामुदायिक प्रसार की निगरानी करने में काफी समस्याएं होती हैं।   

आम तौर पर पूर्व संक्रमणों के परीक्षण के लिए एंटीबॉडीज़ की उपस्थिति की जांच की जाती है। ये एंटीबॉडी सार्स-कोव-2 वायरस के न्यूक्लियोकैप्सिड (N) प्रोटीन को लक्षित करते हैं (एंटी-N एंटीबॉडी)। वर्तमान टीके प्रतिरक्षा तंत्र को वायरस के स्पाइक (S) प्रोटीन पर हमला करने के लिए तैयार करते हैं (एंटी-S एंटीबॉडी)। यानी कुदरती एंटीबॉडी अलग होती हैं और टीकाजनित एंटीबॉडी अलग होती हैं। इनके आधार पर बताया जा सकता है कि किसी टीकाकृत व्यक्ति को संक्रमण हुआ था या नहीं। लेकिन एनल्स ऑफ इंटरनल मेडिसिन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार एंटीबॉडी परीक्षण पूर्व में कोविड-19 से संक्रमित टीकाकृत लोगों की गणना शायद 40 प्रतिशत तक कम करता है।

ऐसे में पूर्व में हुए सार्स-कोव-2 संक्रमण का पता लगाने का कोई विश्वसनीय तरीका होना चाहिए। इस विषय में ब्रिगहैम एंड वीमन हॉस्पिटल की संक्रामक रोग विशेषज्ञ लिंडसी बेडन ने कुछ प्रमुख समस्याएं बताई हैं।

पूर्व में हुए सार्स-कोव-2 संक्रमण के बारे में जानकारी होना महत्वपूर्ण है वायरस के संक्रमण और संचरण की गंभीरता को बेहतर ढंग से परिभाषित किया जा सके।

संक्रमण के बाद वायरस के पदचिन्हों का पता लगाने के लिए एंटी-N एंटीबॉडी जैसे आणविक चिन्हों का उपयोग किया जाता है। अधिकांश टीके स्पाइक प्रोटीन पर आधारित हैं। इस स्थिति में स्पाइक प्रोटीन के विरुद्ध प्रतिरक्षा प्राकृतिक संक्रमण से भी मिल सकती है और टीकाकरण से भी। लेकिन न्यूक्लियोप्रोटीन के विरुद्ध प्रतिरक्षा केवल वायरस के संपर्क में आने से ही उत्पन्न होती है। अलबत्ता, यह बात वहां लागू नहीं होती जहां निष्क्रियकृत संपूर्ण वायरस आधारित टीकों का उपयोग किया गया है। ऐसे मामलों में कुछ एंटी-N एंटीबॉडी मौजूद होने की संभावना होती है।

पूर्व में हो चुके सार्स-कोव-2 संक्रमण का पता लगाने के लिए सीरोलॉजिकल परीक्षण के बारे में कुछ कहना थोड़ा मुश्किल है क्योंकि हम सार्व-कोव-2 वायरस को पिछले ढाई साल से ही जानते हैं। अभी तक तो यह भी पता नहीं है कि प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया कितने समय तक सक्रिय रहती है। प्रतिरक्षा सम्बंधी विभिन्न कारकों को समझना अभी भी शोध का विषय है; जैसे यह समझना कि क्या टीकाकरण कुदरती प्रतिरक्षा को बदल देता है। वैसे तो प्राकृतिक संक्रमण के मामले में सामान्यत: एंटीबॉडीज़ एक या दो वर्षों में नष्ट जाती है लेकिन कुछ अध्ययन बताते हैं कि टीकाकरण से स्थिति बदल सकती है।

वैसे किसी व्यक्ति को पूर्व में सार्स-कोव-2 संक्रमण हुआ है या नहीं, यह जानने का सबसे विश्वसनीय तरीका एंटी-N एंटीबॉडी है। लेकिन यह भी पता चला है कि टीकाकृत लोगों में प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया उत्पन्न नहीं होती है। ऐसी स्थिति में अन्य वायरल प्रोटीन, जो टीके का हिस्सा नहीं हैं, के विरुद्ध टी-कोशिका प्रतिक्रिया पर गौर किया जा सकता है। अलबत्ता, इसमें अन्य कोरोनावायरस से क्रॉस-रिएक्शन के बारे में सावधानी रखनी होगी और ऐसे जीन्स का चयन करना होगा जो सार्स-कोव-2 के लिए विशिष्ट हों। लेकिन अभी तक इस तरीके की पुष्टि नहीं की गई है और यह शोध का काफी अच्छा विषय है।    

यानी अभी कोई यकीनी तरीका नहीं है। प्रयोगशाला की परिस्थिति में तो शायद उपरोक्त तरीका काम कर जाए लेकिन बड़ी आबादी के स्तर पर यह करना अंसभव होगा। एक समस्या यह भी है कि वायरस लगातार बदलता जा रहा है और हम उसके बारे में सीखने की अवस्था में हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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