पहला निएंडरथल कुनबा खोजा गया

हाल ही में शोधकर्ताओं को दक्षिण साइबेरिया की चारजिस्काया गुफा में निएंडरथल परिवार के साक्ष्य मिले हैं। इस परिवार में एक पिता, उसकी किशोर बेटी और दो अन्य दूर के सम्बंधियों की पहचान की गई है। इसके साथ ही गुफा से 7 अन्य व्यक्तियों की भी पहचान की गई है जो एक अन्य कबीले के बताए गए हैं। इनमें से भी दो शायद कज़िन्स हैं। गौरतलब है कि निएंडरथल (होमो निएडरथलेंसिस) पुरामानव थे जो लगभग 40 हज़ार वर्ष पूर्व तक धरती पर विद्यमान थे। गुफा के नज़दीक के एक अन्य स्थल से दो और परिवारों की पहचान के साथ यह निएंडरथल प्रजाति का अब तक का सबसे बड़ा जीनोम भंडार है।

अल्ताई पहाड़ों की तलहट और चार्याश नदी के तट पर स्थित चारजिस्काया गुफा मशहूर डेनिसोवा गुफा से 100 किलोमीटर पश्चिम में है। वास्तव में डेनिसोवा गुफा एक पुरातात्विक खज़ाना है जिसमें मनुष्य, निएंडरथल और डेनिसोवा और कम से कम एक निएंडरथल-डेनिसोवा संकर के लोग 3 लाख वर्षों के अंतराल में अलग-अलग समय में साथ रहे हैं। अलबत्ता, चारजिस्काया में अब तक मात्र निएंडरथल अवशेष ही मिले हैं।

गौरतलब है कि 2020 में चारजिस्काया की एक निएंडरथल स्त्री के जीनोम अनुक्रम से पता चला था कि वह डेनिसोवा गुफा में रहने वाली आबादी से काफी अलग थी। गुफा में रहने वाले लोगों का अधिक गहराई से अध्ययन करने के लिए मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक लौरिट्स स्कोव और बेंजामिन पीटर के नेतृत्व में एक टीम ने चारजिस्काया और इसके नज़दीक ओक्लाडनिकोव गुफा से 17 अन्य पुरा-मानव अवशेषों से डीएनए प्राप्त किए।

इस अध्ययन के आधार पर शोधकर्ताओं का मत है कि चारजिस्काया के निवासी उनसे हज़ारों साल पहले डेनिसोवा गुफा में रहने वालों की अपेक्षा युरोप में रहने वाले निएंडरथल से ज़्यादा निकटता से सम्बंधित थे।

चारजिस्काया अवशेषों से प्राप्त जीनोम की तुलना करने पर स्कोव को काफी आश्चर्य हुआ। उन्होंने पाया कि एक वयस्क पुरुष और एक किशोरी का डीएनए 50 प्रतिशत एक-सा है। यह स्थिति तभी संभव है जब उनका सम्बंध भाई-बहन का हो या फिर पिता-पुत्री का। इस सम्बंध को समझने के लिए शोधकर्ताओं ने माइटोकॉण्ड्रिया के डीएनए की जांच की। माइटोकॉण्ड्रिया का डीएनए व्यक्ति को अपनी मां से मिलता है। इसका मतलब है कि माइटोकॉण्ड्रिया का डीएनए भाई-भाई, भाई-बहन, मां-बेटी में तो एक समान होगा लेकिन पिता और उसकी संतान में नहीं। इस तुलना से समझ में आया कि ये दोनों पिता-पुत्री थे।

इसके बाद और अधिक आनुवंशिक सामग्री की जांच करने पर शोधकर्ताओं को परिवार के अधिक सदस्यों का पता चला। उनको पिता में दो प्रकार के माइटोकॉण्ड्रिया डीएनए प्राप्त हुए। इस विशेषता को हेटरोप्लाज़्मी कहा जाता है। यह विशेषता गुफा के दो अन्य व्यस्क पुरुषों में भी देखने को मिली जो संकेत देता है कि ये सब एक ही मातृ वंश से थे। गौरतलब है कि हेटरोप्लाज़्मी कुछ पीढ़ियों बाद गायब हो जाती है इसलिए यह कहना उचित होगा कि ये तीनों एक ही समय में उपस्थित रहे होंगे। टीम ने निएंडरथल परिवार के अन्य सदस्यों में एक पुरुष और एक महिला की भी पहचान की और लगता है कि ये संभवत: कज़िन्स थे।       

इतनी अधिक मात्रा में निएंडरथल जीनोम से शोधकर्ताओं को निएंडरथल जीवन के कई पहलुओं को देखने का मौका मिला। चारजिस्काया से प्राप्त निएंडरथल के जीनोम में डीएनए की मातृ और पितृ प्रतियों में विविधता काफी कम थी। इससे संकेत मिलता है कि प्रजनन में संलग्न वयस्कों की आबादी काफी छोटी थी। शोधकर्ताओं ने इसी तरह का पैटर्न पहाड़ी गोरिल्ला और अन्य संकटग्रस्त प्रजातियों में भी देखा है जो आम तौर पर छोटे समूहों में रहते हैं। शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि Y-गुणसूत्र (जो नर से मिलता है) की तुलना में माइटोकॉण्ड्रियल डीएनए (जो मादा से मिलता है) में विविधता बहुत अधिक थी। इसकी एक व्याख्या यह हो सकती है कि विभिन्न निएंडरथल समुदायों से महिलाओं का निरंतर आना-जाना रहा था। टीम के मॉडल से पता चलता है कि आनुवंशिक विविधता का पैटर्न दर्शाता है कि समुदाय की आधे से ज़्यादा महिलाओं का जन्म कहीं और हुआ होगा।

स्पेन स्थित नेचुरल साइंस म्यूज़ियम के निर्देशक चार्ल्स लालुएज़ा फॉक्स का विचार है कि यह सामाजिक संरचना विभिन्न निएंडरथल आबादियों में आम रही होगी। एक दशक पूर्व उनकी टीम ने स्पेन की एक गुफा में 12 निएंडरथल के विश्लेषण में पाया था कि महिलाओं के माइटोकॉण्ड्रियल डीएनए में पुरुषों की अपेक्षा अधिक विविधता थी जो दर्शाता है कि महिलाएं अक्सर अपने समुदायों को छोड़ दिया करती थीं।

चारजिस्काया गुफा में निएंडरथल अवशेषों के अलावा बाइसन और घोड़े के अवशेष भी मिले हैं। स्कोव के अनुसार यह स्थल इन जानवरों के मौसमी प्रवास के दौरान शिकार कैंप के रूप में काम करती थी। इस दौरान समुदायों को मेल-मिलाप के अवसर मिला करते होंगे।

अचरज की बात यह है कि जीवाश्म अवशेषों में मिले डीएनए के विश्लेषण से इतने गहरे निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। और अभी इस गुफा का केवल एक-चौथाई से भी कम हिस्सा टटोला गया है। उम्मीद है कि भविष्य के अध्ययन हमारी समझ में और इजाफा करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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लीवर 100 वर्षों से भी अधिक जीवित रह सकता है

हाल ही में वैज्ञानिकों ने 1990 से लेकर 2022 के बीच प्रत्यारोपित 2,53,406 लीवर की उम्र का आकलन किया है। इस विश्लेषण के अनुसार 25 लीवर 100 से भी अधिक वर्षों तक जीवित रहे हैं। इन लीवर्स को वैज्ञानिकों ने ‘शतायु लीवर’ का नाम दिया है। इनमें से 14 लीवर अभी भी प्राप्तकर्ताओं के शरीर में काम कर रहे हैं। सबसे उम्रदराज लीवर की उम्र 108 वर्ष है।

इस अध्ययन के प्रमुख और युनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास के मेडिकल स्कूल में कार्यरत यश कड़ाकिया और उनकी टीम ने किसी लीवर की कुल आयु निकालने के लिए प्रत्यारोपण के पहले लीवर की उम्र (यानी प्रत्यारोपण के समय अंगदाता की आयु) और प्राप्तकर्ता में प्रत्यारोपण के बाद लीवर की उम्र को जोड़ा। प्रत्यारोपण सम्बंधी आंकड़े युनाइटेड नेटवर्क फॉर ऑर्गन शेयरिंग के अंग प्रत्यारोपण डैटाबेस से लिए गए थे।

शोधकर्ताओं ने पाया कि 25 शतायु लीवर दाताओं की औसत आयु 84.7 वर्ष थी जबकि गैर-शतायु लीवर दाताओं की औसत आयु 38.5 वर्ष थी। प्रत्यारोपण के बाद सारे शतायु-लीवर कम से कम एक दशक तक जीवित रहे जबकि मात्र 60 प्रतिशत गैर-शतायु लीवर ही एक दशक बाद जीवित रहे। कड़ाकिया के अनुसार लीवर काफी लचीला अंग है और आज उम्रदराज दाताओं के लीवर प्रत्यारोपित किए जा रहे हैं। इसके मद्देनज़र प्रत्यारोपण के लिए अधिक लीवर उपलब्ध हो सकते हैं।

गौरतलब है कि अभी तक विशेषज्ञ प्रत्यारोपण के लिए बुज़ुर्ग दाताओं से लीवर लेने से बचते आए हैं, क्योंकि पुराने अंगों में शराब, मोटापा और संक्रमण से अधिक क्षतिचिन्ह जमा होने की संभावना होती है। लेकिन एक दिलचस्प बात यह देखी गई कि लीवर प्रत्यारोपण से मधुमेह और दाता संक्रमण जैसे दुष्प्रभाव अधिक पुराने यकृत पाने वाले लोगों में काफी कम थे।

भारत के स्वास्थ्य सेवा महानिदेशक (स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय) की वेब साइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार भारत में प्रति वर्ष 50,000 तक लीवर प्रत्यारोपण की आवश्यकता है लेकिन किए जा रहे हैं मात्र 1500। यदि उम्रदराज अंगदाताओं से परहेज न किया जाए तो प्रत्यारोपण की बढ़ती आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अब और अधिक दाता अंग मिल सकते हैं।

वैसे, अभी तक लीवर के जीवित रहने की अवधि में भिन्नता के कारण स्पष्ट नहीं हैं। अधिक शोध से अंग उपलब्धता में विस्तार हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नोबेल विजेता के शोध पत्रों पर सवाल

नोबेल विजेता आनुवंशिकीविद ग्रेग सेमेंज़ा के कई शोध पत्रों के चित्रों पर उठे सवालों के बाद शोध पत्रिकाओं ने जांच शुरू कर दी है। शोध पत्रिकाओं ने उनके 17 शोध पत्रों को या तो वापस ले लिया है, या उन्हें सुधारा गया है या उन पर चिंता व्यक्त की गई है। कई शोध पत्रों की जांच जारी है।

जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय में कार्यरत सेमेंज़ा को 2019 में कार्यिकी या चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार मिला था। उन्हें यह पुरस्कार 1990 के दशक में किए गए काम – कोशिकाएं शरीर में ऑक्सीजन की उपलब्धता को भांपकर कैसे उसके प्रति अनुकूलन करती हैं – के लिए मिला था। हालिया चिंताएं उसके बाद इस विषय में प्रकाशित शोधकार्यों पर केंद्रित हैं।

हाल के वर्षों में, डिजिटल उपकरणों द्वारा परिणामों में हेरफेर करने में आसानी होने के कारण, वैज्ञानिक शोध पत्रों में चित्रों की सत्यता जांच के दायरे में अधिक आई है। वैसे, चित्रों में हेरफेर करने या बदलाव करने के कुछ वाजिब कारण भी हो सकते हैं – जैसे रंग संतुलन या विभेद बढ़ाकर परिणामों को स्पष्ट करना। यह भी हो सकता है कि शोध पत्र तैयार करते समय आंकड़े या लेबल लगाने में गड़बड़ी हो जाए या चित्र विकृत भी हो सकते हैं। लेकिन यह संभावना भी रहती है कि इमेज-एडिटिंग टूल का इस्तेमाल जान-बूझकर जाली परिणाम बनाने में किया गया हो।

चित्र-प्रामाणिकता की प्रमुख सलाहकार और सेमेंज़ा के काम में अनियमितताओं को पहचानने वाली एलिज़ाबेथ बिक का कहना है कि 20 सालों के शोध कार्य के दौरान भूल-चूक की संख्या ठीक ही लगती है, और कई सवाल संभवत: ‘लापरवाही’ के दायरे में आते हैं। लेकिन चित्र हेर-फेर की वजह से 5 शोध पत्रों को वापस लिया जाना गड़बड़ी की ओर इशारा करता है।

PubPeer नामक वेबसाइट पर टिप्पणीकर्ताओं ने सेमेंज़ा द्वारा वर्ष 2000 से 2021 के बीच प्रकाशित 52 शोध पत्रों के चित्रों पर सवाल उठाए हैं। 2011 के बाद से, इनमें से 17 शोध पत्रों को या तो वापस ले लिया गया है, या उनमें सुधार किया गया है या ‘चिंता व्यक्त’ की गई है। इन शोध पत्रों में परिणाम दर्शाने वाले चित्रों में संभावित परिवर्तन, पुन: उपयोग या गलत लेबलिंग देखी गई थी।

जिन 32 शोध पत्रों पर जांच चल रही है उनमें सेमेंज़ा के साथ सह-लेखक अलग-अलग वैज्ञानिक हैं। 14 शोध पत्रों के प्रमुख लेखक सेमेंज़ा हैं। और ये 14 शोध पत्र विभिन्न तरह के कैंसर में ऑक्सीजन सेंसिंग के आणविक तंत्र से सम्बंधित शोध, और रक्त वाहिनियों के कार्य और गड़बड़ियों पर हैं। किसी भी मामले में शरारत सिद्ध नहीं हुई है। लेकिन चित्रों में हेरफेर की वजह से कई शोध पत्रों का वापिस लिया जाना इरादतन गड़बड़ी की शंका पैदा करता है। वैसे यह स्पष्ट नहीं है कि किस वैज्ञानिक ने क्या योगदान दिया है, इसलिए चित्रों में त्रुटि या समस्या के लिए ज़िम्मेदार किसे ठहराएं यह स्पष्ट नहीं है।

सेमेंज़ा के काम के बारे में पहली पोस्ट 2015 में PubPeer पर छपी थी, और अधिकांश पोस्ट 2020 और 2021 की हैं। जर्नल्स ने 2011 में सेमेंज़ा का एक शोध पत्र वापस लिया था, और 2013 में दो शोध पत्रों में सुधार किया था। लेकिन बाकी शोध पत्रों पर संपादकीय दलों ने पिछले दो सालों में ही कदम उठाए हैं।

2021 में, पांच शोध पत्रिकाओं ने गलत लेबल किए गए डैटा और चित्रों के दोबारा उपयोग जैसी त्रुटियों के कारण पांच शोध पत्रों में भूल-सुधार जारी किए थे। मार्च में, कैंसर रिसर्च पत्रिका ने एक शोध पत्र में सुधार किया था और जांच के बाद एक अन्य शोध पत्र पर चिंता व्यक्त की थी, जिसमें पाया गया था कि शोधकर्ताओं ने एक ही डैटा को अलग-अलग प्रयोगों के परिणामों के रूप में प्रस्तुत किया था।

पिछले महीने, प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ ने सेमेंज़ा के कोशिका जीव विज्ञान के चार शोध पत्र वापस लिए और अन्य तीन में सुधार किया। इन शोध पत्रों में डैटा का दोहराव और‘स्प्लायसिंग’ (चित्र के किसी हिस्से को काट कर कहीं और लगाना) जैसी समस्याएं थीं। तकरीबन दर्जन भर शोध पत्र जांच की प्रक्रिया में हैं।

सेमेंज़ा के 20 शोध पत्र प्रकाशित करने वाली सात शोध पत्रिकाओं ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। कुछ पत्रिकाएं विवादित शोध पत्रों की जांच नहीं कर रही हैं। कई वैज्ञानिक भी इस मामले में टिप्पणी करने से बच रहे हैं। खुद सेमेंजा ने भी पूरे मामले पर कोई टिप्पणी नहीं की है।

इस क्षेत्र के एक शोधकर्ता का कहना है कि ऑक्सीजन-सेंसिंग पर सेमेंज़ा के शोध का काफी प्रभाव रहा है। अन्य वैज्ञानिकों द्वारा दोहराए जाने पर ऐसे ही नतीजे प्राप्त हुए हैं। बहरहाल, देखा यह जाना है कि चित्रों में समस्याएं शोध पत्रों के निष्कर्षों को प्रभावित करती हैं या नहीं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) यानी कृत्रिम बुद्धि – 2 – हरजिंदर सिंह ‘लाल्टू’

पिछले लेख में हमने रोबोट और कंप्यूटर का ज़िक्र किया था। सत्तर साल पहले अपने शुरुआती दौर में रोबोट-विज्ञान या रोबोटिक्स कंप्यूटरों पर निर्भर नहीं होता था, क्योंकि तब आज जैसे तेज़ रफ्तार से चलने और बड़ी तादाद में आंकड़े संजोने वाले कंप्यूटर होते नहीं थे। जैसे एक क्रेन बिजली से काम करती है, ऐसे ही रोबोट मशीनें बनाई जाती थीं, जो सामान उठाने, उतारने या खतरनाक जगहों में (जैसे बारूदी सुरंगों से निपटना या रेडियो-सक्रिय सामग्री को समेटना) इंसान की मदद के काम आएं। यानी तब रोबोट महज़ मशीनें थीं जो इंसान जैसी दिखती थीं।

कंप्यूटर टेक्नॉलॉजी में दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से तरक्की हुई। 1965 में इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियर और कारोबारी गॉर्डन मूर ने कहा था कि हर साल माइक्रोचिप में ट्रांज़िस्टर की तादाद दुगनी हो जाएगी और फिर 1975 में उन्होंने अनुमान लगाया था कि ऐसा हर दो साल में होगा। आंकड़े या सूचना संजोने और तेज़ रफ्तार से सवाल हल करने या सूचना की प्रोसेसिंग दोनों में इसी रफ्तार से बढ़त हुई है। नतीजतन हर विधा की तरह रोबोटिक्स में भी कंप्यूटरों का इस्तेमाल बढ़ गया।

अस्सी के दशक में अमोनिया और मीथेन जैसे छोटे अणुओं से अमीनो अम्ल जैसे बड़े अणुओं के बनने से लेकर आखिरकार जीवन के मुमकिन हो पाने की समझ आधी सदी पहले से बनी थी। उसी आधार पर मानव-निर्मित जीवन या आर्टीफिशियल लाइफ पर बहुत काम हुआ। कंप्यूटर पर खेलने वाले प्रोग्राम लिखे गए – जैसे एक खेल का नाम ‘गेम ऑफ लाइफ’ था, जिसमें टुकड़े आपस में टकराकर छोटे-बड़े होते थे और आखिर में बड़े आकार के बन जाते थे। बाद में यह भी एआई का हिस्सा बन गया।

मनोविज्ञान और एआई, इन दोनों विषयों के बुनियादी सवाल एक जैसे हैं। आज मनोविज्ञान की एक शाखा (जिसे अब अपने-आप में अलग विषय जाना जाता है) संज्ञान का विज्ञान या कॉग्निटिव साइंस को एआई की शाखा माना जाता है। इसमें यह समझने की कोशिश होती है कि हम किसी चीज़ को समझते कैसे हैं यानी जो भी जैव-रासायनिक प्रक्रियाएं हमारे जिस्म में होती हैं, वे संज्ञान तक कैसे बढ़ जाती हैं। क्या दिमाग भी एक कंप्यूटर है? ऐसे खयालों ने एआई वैज्ञानिकों में यह मुगालता पैदा कर दिया कि बड़ी जल्दी ही समूचा मनोविज्ञान कंप्यूटर प्रोग्रामों की तरह बूझ लिया जाएगा। ज़ाहिर है, ये सवाल दार्शनिक हैं और सदियों से दुनिया भर में चिंतकों ने इन पर माथा खपाया है।

दर्शन शास्त्र में हमेशा से ही यह बहस रही है कि जिस्म और मन का क्या रिश्ता है। क्या मन और जिस्म अलग-अलग हैं या जिस्म से अलग मन का कोई वजूद नहीं है? सत्रहवीं सदी में युरोप में आधुनिक विज्ञान की शुरुआत में रेने देकार्ते ने कहा था कि जिस्म और मानस अलग चीज़ें हैं। आज ऐसा नहीं माना जाता, हालांकि इस पर कोई आखिरी समझ अभी भी नहीं बन पाई है।

कई एआई वैज्ञानिक मानते हैं कि दिमाग और मन का रिश्ता कंप्यूटर और प्रोग्राम की तरह है। यानी कंप्यूटर लोहे-लंगड़ से बनी मशीन है, पर प्रोग्राम के बिना वह कुछ भी नहीं है; इसी तरह जिस्म में दिमाग जैव-रासायनिक घटकों से बना हार्डवेयर है, पर कुछ ऐसा है जो मन या सॉफ्टवेयर है, जो उसका वजूद मानीखेज़ बनाता है। जैसे प्रोग्राम महज लिखा जाता है, उसके भौतिक वजूद पर बात बेमानी है, इसी तरह मन के बारे में कुछ कह पाना मुश्किल है।

आखिर असली और गढ़ी गई (गैरकुदरती) बुद्धि या समझ किस मायने में भिन्न हैं? हर जानवर एक हद तक सोचता-समझता है और जीवन के धागे बुनता है, पर क्या यही बुद्धि है? इस सवाल का कोई साफ जवाब नहीं है। एआई में बुद्धि को जीवन में कुछ भी कर पाने के लिए कंप्यूटर की तरह गणनाओं या सूचनाओं का लेन-देन माना जाता है। इसमें दीगर जानवरों की तुलना में इंसान ज़्यादा काबिल हैं। मसलन भाषा जैसी काबिलियत दूसरे जानवरों में कम विकसित है। एआई के शुरुआती दौर में सैद्धांतिक पक्ष को साइबरनेटिक्स कहा जाता था, जिसमें यह माना गया कि इंसान, दीगर जानवर, और मशीनें, इन सब को चलाने वाले कायदे एक जैसे हैं, हालांकि वे अलग-अलग चीज़ों से बने ढांचे हैं। इसी आधार पर ऐसे रोबोट बनाए गए जो कुछ हद तक अपने आप काम करते थे; जैसे पहियों पर चलने वाले रोशनी के पास या दूर जाने वाले कछुए जैसे रोबोट, जो बैटरी का चार्ज खत्म होने पर खुद से रीचार्ज के लिए बिजली के सॉकेट तक आ जाते हैं। रोचक बात यह है कि ऐसे रोबोट के बारे में पहले से अनुमान लगाना मुश्किल है कि वे कब कहां जाएंगे या कब रीचार्ज करेंगे यानी ऐसी जटिल बातें वो अपने आप तय कर रहे हैं। पर यह काबिलियत वह बुद्धि नहीं है, जिसे इंटेलिजेंस कहते हैं। बुद्धि में भाषा-ज्ञान, याददाश्त, सीखने की काबिलियत, तर्कशीलता आदि बातें शामिल हैं। रोबोट तो परिवेश में मौजूद चीज़ों के मुताबिक अपना व्यवहार बदलते हैं, जबकि बुद्धि में कुछ तो अंदरूनी है।

भाषाविज्ञानी नोम चोम्स्की का मानना है कि भाषा सीखने की जन्मजात काबिलियत के बरक्स परिवेश में मौजूद चीज़ों या तजुर्बों का असर भाषा-ज्ञान पर कम होता है। एआई का बहुत सारा शोध इस सोच पर हो रहा है कि ऐसी काबिलियत जिस्म की अंदरूनी प्रक्रियाओं से ही बनती है, जबकि रोबोटिक्स में परिवेश के साथ जद्दोजहद एक लगातार चल रहा संघर्ष है।

ये एआई की दो अलग-अलग धाराएं हैं। एक संज्ञान का विज्ञान और दूसरी रोबोट मशीनें। पहली धारा में कंप्यूटेशन यानी अमूर्त गणनाओं को ही संज्ञान का आधार माना गया है। इसमें कंप्यूटेशन के दार्शनिक आधार को समझना लाज़मी है, जो एक विकसित, पर साथ ही अनसुलझा मुद्दा है। वॉरेन मैकलो और वाल्टर पिट्स नामक दो वैज्ञानिकों ने यह दिखलाया था कि दिमाग में काम कर रहे न्यूरॉन का खाका सैद्धांतिक रूप से कंप्यूटर के अंदरूनी खाके की तरह है। न्यूरॉन कंप्यूटर में गणनाओं के लिए बने लॉजिक गेट की तरह काम करते हैं और इनका एक जैसा इस्तेमाल हो सकता है। दिमाग समेत ऐसी किसी भी मशीन को एक बुनियादी कंप्यूटर की तरह समझा जा सकता है।

मशहूर गणितज्ञ और दार्शनिक ऐलन ट्यूरिंग के नाम पर इस बुनियादी कंप्यूटर को ट्यूरिंग मशीन कहा जाता है, जो किसी भी तरह के (युनिवर्सल) कंप्यूटेशन का मॉडल पेश करती है। ज़ाहिर है, सिद्धांत में एक जैसी होने के बावजूद हर मशीन के काम करने का तरीका अलग होता है। यानी कंप्यूटर प्रोग्राम कीबोर्ड से लिखे जाते हैं और बिजली के सर्किटों से चलते हैं, पर दिमाग न्यूरॉन सिग्नलों (जैव-रासायनिक) से चलता है। अगर दोनों एक ही जैसे काम (फंक्शन) कर रहे हैं तो व्यावहारिक तौर पर दोनों को एक ही माना जा सकता है। मन और जिस्म में फर्क करने वाले इस खयाल को फंक्शनलिज़्म (functionalism) कहा जाता है। इसके मुताबिक संज्ञान किसी एक मशीन या दिमाग के दायरे में बंधा नहीं है, बल्कि महज़ एक ढांचे की (दिमाग या कंप्यूटर का हार्डवेयर)  मदद से यह सक्रिय हो रहा है। यानी कुछ संकेतों (लॉजिक गेट) की मदद से हम सही समझ पाते हैं और जीवन की गाड़ी चल पड़ती है। जहां तक खयाली दुनिया में गोते लगाने की बात है, इसके लिए ट्यूरिंग ने एक टेस्ट सोचा। अगर किसी मशीन से इंसान को यह भ्रम हो कि वो वाकई में मशीन नहीं, बल्कि कोई इंसान है, तो वो मशीन ट्यूरिंग टेस्ट पास कर जाएगी। 1990 में इस आधार पर एक पुरस्कार की घोषणा हुई कि कोई भी ट्यूरिंग टेस्ट पास करने वाली पहली मशीन बना ले तो उसे एक लाख डॉलर दिए जाएंगे। अभी तक यह पुरस्कार किसी को नहीं मिला है। एक समस्या यह है कि यह टेस्ट पूरी तरह इंसान और मशीन के बीच बातचीत पर निर्भर है यानी यह महज भाषा के पक्ष पर आधारित है। अगर कोई मशीन भाषा की तमाम जटिलताओं में माहिर हो जाए तो हो सकता है कि वह ट्यूरिंग टेस्ट पास कर जाए, पर क्या हम उसे इंटेलिजेंट कह सकते हैं?

एआई में जटिलता या कॉम्प्लेक्सिटी (complexity) थिअरी नामक विज्ञान की धारा का भी इस्तेमाल हुआ है, जिसमें किसी चीज़ में विकसित हुए जटिल खाके के मुताबिक उसकी फितरत में बदलाव आता है। मसलन एक छोटी चिंगारी आसपास की जलने वाली चीज़ों में आग लगा सकती है, पर एक निश्चित आकार के बाद ही वह दावानल बन भड़क सकती है। इसी तरह जब बच्चे रेत का ढेर बनाते हैं, तो देर तक वह पिरामिड-सा बढ़ता है, पर एक हद के बाद वह भरभराकर गिर पड़ता है। इसे एमर्जेंट यानी योगेतर गुण कहा जाता है – ऐसा गुण जो किसी चीज़ के अलग-अलग टुकड़ों में नहीं होता मगर पूरी चीज़ में उभरकर दिखता है। कुदरत में कई टुकड़ों के अपने-आप एक खाके में जुड़कर कुछ अनोखा होने की कई मिसालें हैं, जिसे सेल्फ-ऑर्गनाइज़ेशन (खुद को संगठित करना) कहा जाता है। पिछले कई दशकों में इस सेक्टर में, खास तौर पर जैविक मिसालों पर, बहुत शोध हुआ है। किसी चीज़ में अचानक उभरी फितरत को उसके टुकड़ों की प्रकृति को जानकर नहीं समझा जा सकता है। एआई में एक सोच यह है कि इंटेलिजेंस एक एमर्जेंट बात है। जीन्स को जानकर हम यह तो जान लेते हैं कि हम जो हैं, वह कैसे मुमकिन हुआ, पर संज्ञान को हम इस तरह नहीं जान सकते। सर्वांगीण समझ कुछ और है, जो एमर्जेंट गुण है। ज़ाहिर है, बगैर मशीन के तो समझ विकसित होना नामुमकिन है, पर यह भी नहीं कहा जा सकता कि मशीन बनने भर से समझ बन जाएगी। इसके लिए कोई सही प्रोग्राम लिखे जाने की ज़रूरत होगी। तो क्या हम फिर मन और जिस्म को अलग-अलग मान रहे हैं? दिमागी पहेलियां क्या महज प्रोग्राम का खेल हैं? इन विवादों पर हम अगले लेखों में चर्चा करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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रोबोटिक कैप्सूल: दिलाएगा इंजेक्शन से निजात – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

मुंह से ली जाने वाली प्रोटीनी-दवाइयां पाचन तंत्र में पहुंच कर वहां के वातावरण में नष्ट या विकृत हो जाती हैं। इसके अलावा पाचन तंत्र की म्यूकस (श्लेष्मा) झिल्ली दवा के अवशोषण को भी कम कर देती है। इसलिए हमें इस प्रकार की दवाओं को इंजेक्शन द्वारा लेना पड़ता है। इसका मतलब यह है कि इंसुलिन और अधिकांश अन्य ‘जैविक दवाइयां’ जिनमें प्रोटीन या न्यूक्लिक एसिड औषधियां शामिल हैं, उन्हें इंजेक्शन के रूप में देना होता है। किंतु इंजेक्शन का डर और उन्हें बार-बार लगाने की ज़रूरत मरीज़ के लिए असुविधाजनक होते हैं।

इस परेशानी का समाधान मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी की श्रिया श्रीनिवासन और गियोवानी ट्रावर्सो की टीम ने ‘रोबोकैप कैप्सूल’ बनाकर निकाला है। सम्बंधित शोध पत्र का प्रकाशन साइंस रोबोटिक्स नामक शोध पत्रिका में हाल ही में हुआ है। नया कैप्सूल एक दिन इंजेक्शन के इस्तेमाल से निजात दिला सकता है।

क्या है रोबोकैप कैप्सूल?

रोबोकैप कैप्सूल एक मल्टीविटामिन कैप्सूल के आकार का होता है। कैप्सूल के दो हिस्से होते हैं। पिछले हिस्से में दवा और अगले मुख्य हिस्से में सुरंग बनाने वाला रोबोटिक हिस्सा। कैप्सूल की सतह पर जिलेटिन का अस्तर होता है जो पाचन तंत्र की एक विशिष्ट अम्लीयता पर घुलनशील होता है।

कैप्सूल के रोबोटिक हिस्से में एक रोबोटिक कैप होती है जो छोटी आंत में पहुंचने पर श्लेष्मा की परत पर घूमती है और सुरंग बनाती है। इससे कैप्सूल में भरी दवा को आंतों की कोशिकाओं के बहुत करीब छोड़ दिया जाता है। इस प्रकार श्लेष्मा को उसकी जगह से हटाकर हम नियत क्षेत्र में दवा के प्रसार व अवशोषण को अधिकतम कर सकते हैं और दवा के छोटे और बड़े दोनों अणुओं का शरीर में अवशोषण बढ़ा सकते हैं।

शोधकर्ता बताते हैं कि रोबोटिक कैप्सूल का उपयोग इंसुलिन जैसे हार्मोन के अलावा वैन्कोमाइसिन व अन्य एंटीबायोटिक पेप्टाइड देने के लिए किया जा सकता है जिसे वर्तमान में इंजेक्शन द्वारा ही दिया जाता है।

कैप कैसे कार्य करती है?

जब मरीज़ कैप्सूल निगलता है तो यह सबसे पहले आमाशय में पहुंचता है। आमाशय का अम्लीय वातावरण कैप्सूल के जिलेटिन अस्तर को घोल कर हटा देता है। कुछ समय पश्चात कैप्सूल छोटी आंत में पहुंच जाता है। यहां के क्षारीय वातावरण से रोबोकैप कैप्सूल के अंदर एक छोटी मोटर घूमने लगती है जो आंत की श्लेष्मा झिल्ली को साफ कर रास्ता बनती है। यह गति कैप्सूल को श्लेष्मा में सुरंग बनाने और इसे हटाने में मदद करती है। कैप्सूल छोटे दांतों से लेपित होता है जो टूथब्रश जैसे कार्य कर श्लेष्मा को हटाते हैं।

सुरंग बनाने वाली मशीन के घूमने से दवा वाला पीछे का कक्ष टूट जाता है जिससे दवा धीरे-धीरे पाचन तंत्र की कोशिकाओं के समीप छोड़ी जाती है। रोबोकैप श्लेष्मा बाधा को केवल अस्थायी रूप से विस्थापित करता है और फिर स्थानीय स्तर पर दवा के फैलाव को अधिकतम करके अवशोषण को बढ़ाता है।

सुरंग बनाने वाले कैप्सूल

कई वर्षों से, श्रीनिवासन और ट्रावर्सो की प्रयोगशाला इंसुलिन जैसी प्रोटीनी दवाइयों को मुंह से लेने की बजाय अन्य तरीके विकसित कर रही है। इन बाधाओं को दूर करने के लिए, श्रीनिवासन को एक सुरक्षात्मक कैप्सूल बनाने का विचार आया जो म्यूकस को भेदकर एक सुरंग बना सके। बिल्कुल वैसे ही जैसे सुरंग खोदने वाली मशीनें मिट्टी और चट्टान में ड्रिलिंग करती हैं। तो उन्होंने सोचा कि यदि कैप्सूल म्यूकस को भेद कर सुरंग बना सकते हैं तो हम दवा सीधे आंत की भोजन सोखने वाली कोशिकाओं के पास पहुंचा सकते हैं।

वैज्ञानिकों ने रोबोकैप का प्रारंभिक परीक्षण जानवरों पर किया। परीक्षणों में, शोधकर्ताओं ने इस कैप्सूल से इंसुलिन या वैन्कोमाइसिन और इनके जैसे बड़े पेप्टाइड एंटीबायोटिक को सफलता पूर्वक पहुंचाया। रोबोकैप का उपयोग त्वचा संक्रमण के साथ-साथ आर्थोपेडिक प्रत्यारोपण को प्रभावित करने वाले संक्रमणों तथा संक्रमणों की एक विस्तृत शृंखला के इलाज के लिए किया जा सकता है। शोधकर्ताओं ने पाया कि सुरंग तंत्र वाले कैप्सूल की मदद से सामान्य कैप्सूल की तुलना में 20 से 40 गुना अधिक दवा विसरित की जा सकती है।

जब दवा कैप्सूल से निकल जाती है तो कैप्सूल खुद ही पाचन तंत्र से होकर शरीर से बाहर निकल जाता है। शोधकर्ताओं ने कैप्सूल के गुज़रने के बाद पाचन तंत्र में सूजन या जलन का कोई संकेत नहीं पाया, और उन्होंने यह भी देखा कि कैप्सूल द्वारा विस्थापित श्लेष्मा झिल्ली भी कुछ ही घंटों में ठीक हो जाती है।

वर्तमान अध्ययन में इस्तेमाल किए गए कैप्सूल ने छोटी आंत में कार्य किया था। लेकिन कैप्सूल को बड़ी आंत में या विशेष नियत स्थान पर दवा छोड़ने के लिए भी तैयार किया जा सकता है। शोधकर्ता जीएलपी1 रिसेप्टर एगोनिस्ट जैसी अन्य प्रोटीनी दवाइयां देने की संभावना तलाशने की भी योजना बना रहे हैं, जिसका उपयोग कभी-कभी टाइप 2 मधुमेह के इलाज के लिए किया जाता है। सूजन का इलाज करने में मदद करने के लिए ऊतक में नियत स्थान पर दवा की सांद्रता बढ़ाकर अधिकतम करके अल्सरेटिव कोलाइटिस और अन्य सूजन वाली स्थितियों के इलाज के लिए कैप्सूल का उपयोग सामयिक दवाओं को विसरित करने के लिए भी किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मिश्रित प्लास्टिक से उपयोगी रसायनों का निर्माण

र्तमान में प्लास्टिक प्रदूषण एक मुश्किल पर्यावरणीय मुद्दा है। डिस्पोज़ेबल और एक बार उपयोग किए जाने वाले प्लास्टिक उत्पादों के तेज़ी से बढ़ते उत्पादन ने समस्या को और बढ़ाया है। इसके अलावा मिश्रित प्लास्टिक ने पुनर्चक्रण को और मुश्किल बना दिया है। हालांकि, प्लास्टिक की लंबी बहुलक शृंखलाओं को तोड़ने की कई रासायनिक विधियां मौजूद हैं लेकिन इन मिश्रित प्लास्टिक में तकनीकों को बड़े पैमाने पर लागू करना काफी मुश्किल है।

इस संदर्भ में कोलोरैडो स्थित यू.एस. नेशनल रिन्यूएबल एनर्जी लेबोरेटरी के रसायन इंजीनियर ग्रेग बेकहम के नेतृत्व में एक टीम ने मिश्रित प्लास्टिक को तोड़ने के लिए रसायन और जीव विज्ञान पर आधारित प्रक्रिया विकसित की है। इस तकनीक की मदद से उच्च-घनत्व पॉलीथीन (एचडीपीई), स्टायरोफोम, पॉलीस्टायरीन और बोतलों के पीईटी की बहुलक शृंखला को तोड़ा जा सकता है।

इस तकनीक में सबसे पहले कोबाल्ट या मैंगनीज़ उत्प्रेरक के उपयोग से कठोर बहुलक शृंखलाओं को ऑक्सीजन युक्त कार्बनिक अम्लों में तोड़ा गया।

बेकहम इन कार्बनिक अम्लों को किसी ऐसी चीज़ में परिवर्तित करना चाहते थे जिसका आसानी से व्यावसायिक उपयोग किया जा सके। इसके लिए उन्होंने जेनेटिक रूप से परिवर्तित स्यूडोमोनास पुटिडा नामक सूक्ष्मजीव का उपयोग किया जो कार्बन स्रोत के रूप में कार्बनिक अम्लों का उपयोग करता है। इस सूक्ष्मजीव ने ऑक्सीजन युक्त कार्बनिक अणुओं का उपभोग किया जो अलग-अलग प्रकार के प्लास्टिक से प्राप्त हुए थे।

इस बैक्टीरिया ने दो रासायनिक अवयवों का उत्पादन किया जिनका उपयोग बायोपॉलीमर बनाने के लिए किया जाता है। गौरतलब है कि सजीवों की मदद से भिन्न कार्बन स्रोतों से एक उत्पाद का निर्माण किया जा सकता है – इस मामले में एक ऐसा अणु जिसका उपयोग जैव-विघटनशील बहुलक बनाने के लिए किया जा सकता है। शोधकर्ताओं ने इस प्रक्रिया का परीक्षण शुद्ध बहुलकों से बने मिश्रणों के अलावा रोज़मर्रा में काम आने वाले मिश्रित प्लास्टिक पर भी किया है।

फिलहाल इस तकनीक का बड़े पैमाने पर उपयोग एक चुनौती है। एक मुद्दा तो ऑक्सीकरण के लिए आवश्यक तापमान का है क्योंकि प्रत्येक प्लास्टिक अच्छी तरह से अभिक्रिया अलग-अलग तापमान पर करते हैं। इसके अलावा, अधिकतम उत्पादन की स्थिति परखने के लिए रासायनिक कलाकारी की ज़रूरत होगी।

वर्तमान में कई कंपनियां ऑक्सीकरण प्रक्रियाओं का इस्तेमाल कर ज़ायलीन को पीईटी के अणु टेरीथैलिक अम्ल में परिवर्तित कर रही हैं। तकनीकें काफी महंगी हैं लेकिन कोशिश की जाए तो यकीनन कोई सस्ता विकल्प मिल सकता है। इसमें एक और समस्या बैक्टीरिया द्वारा पैदा किए गए छोटे अणुओं को बेचने की होगी क्योंकि इन उत्पादों की मांग काफी कम है। (स्रोत फीचर्स)
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एक पौधे ने नाशी कीट को मित्र बनाया

सलों पर हमला करने वाले पादप बग्स किसानों के बड़े दुश्मन होते हैं। आकार में मटर के दाने जितने बड़े, पंखों वाले ये कीट फलों, पत्तेदार सब्ज़ियों सहित अन्य फसलों को सफाचट कर जाते हैं जिससे हर वर्ष करोड़ों का नुकसान होता है। हाल ही में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि कोस्टा रिका में पाया जाने वाला एक फूल इन भक्षक कीटों को रक्षक में बदल देता है।

एरम की एक प्रजाति परागणकर्ता के रूप में गुबरैलों की बजाय बग की एक प्रजाति को आकर्षित करने के लिए विकसित हो गई है। यह ऐसा पहला ज्ञात पौधा है जिसने बग का उपयोग अपने परागण के लिए किया है। डेनमार्क के जीव विज्ञानी और परागण विशेषज्ञ जेफ ओलर्टन के अनुसार यह अध्ययन दर्शाता है कि जैव विकास के दौरान फूलधारी पौधों ने मधुमक्खियों, तितलियों और हमिंगबर्ड जैसे परंपरागत परागणकर्ताओं के अलावा अन्य परागणकर्ताओं के साथ भी सम्बंध विकसित किए हैं।

दरअसल, विएना युनिवर्सिटी के शोध छात्र फ्लोरियन एट्ल परागण में गुबरैलों की भूमिका की जांच कर रहे थे।

आम तौर पर रात में एरम पौधे का तापमान बढ़ता है और एक ऐसी महक निकलती है जिससे गुबरैले आकर्षित होते हैं। लेकिन एक रात एट्ल ने एरम प्रजाति (सिन्गोनियम हैस्टिफेरम) के पौधे में इस प्रक्रिया को देखने के लिए पूरी रात इंतज़ार किया। आखिरकार सुबह-सुबह एक तेज़ महक महसूस की लेकिन इस गंध ने गुबरैलों की बजाय बग्स को आकर्षित किया। एट्ल और उनके सहयोगियों ने इस गंध का रासायनिक विश्लेषण किया। इसका प्रमुख घटक एक अज्ञात रसायन था जिसे उन्होंने गैम्बनोल नाम दिया है।

करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार जब एट्ल ने इस गंध को कागज़ के फूलों पर लगाया तो इससे बड़ी संख्या में बग्स आकर्षित हुए। और तो और, जब एक जाली की मदद से बग्स को फूलों तक पहुंचने से रोका गया तो बीज नहीं बने। स्पष्ट है कि परागण की प्रक्रिया में बग्स महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।  

इसके अलावा एट्ल ने पाया कि सिन्गोनियम हैस्टिफेरम में परागण कुछ अलग तरह था। अपने निकट सम्बंधियों के विपरीत यह पौधा अलिंगी फूल नहीं बनाता, जो परागणकर्ता के लिए भोजन का काम करते हैं। इसके परागकण चिकने और चिपचिपे नहीं, बल्कि कांटेदार और पावडरी होते हैं। इस तरह से यह चिपकते तो हैं लेकिन बग के शरीर के बालों के बीच उलझते नहीं हैं।

देखा जाए तो परागण के लिए गुबरैलों को छोड़कर बग्स का हाथ थामना एक बड़ा वैकासिक परिवर्तन है क्योंकि इसके लिए पौधे को महक छोड़ने का अपना समय और परागकणों की बनावट भी बदलनी पड़ी है। शोधकर्ताओं को लगता है कि इस तरह के आपसी सम्बंध अन्य प्रजातियों में भी हो सकते हैं। एट्ल ऐसी अन्य संभावनाओं की तलाश में हैं। वैसे यह नहीं कहा जा सकता कि यह खोज कीटों से लड़ने में किसानों के लिए कितनी मददगार होगी। (स्रोत फीचर्स)

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कोविड-19 की एक और लहर की आशंका

कोविड-19 वायरस निरंतर मनुष्य की प्रतिरक्षा भेदने का प्रयास कर रहा है। हाल ही में इस वायरस के नए और प्रतिरक्षा को चकमा देने वाले संस्करणों ने वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित किया है। शायद इनमें से कोई एक आने वाले जाड़ों तक कोविड-19 की एक नई लहर ले आए।

आने वाली लहर शायद ऑमिक्रॉन संस्करण की होगी जो पूरे विश्व में फैल गया है। कई नए संस्करणों ने प्रतिरक्षा को चकमा देने के लिए एक जैसे उत्परिवर्तनों का सहारा लिया है जो अभिसारी विकास का एक बेहतरीन उदाहरण है। इन सभी संस्करणों के वायरल जीनोम में आधा दर्जन उत्परिवर्तन उन स्थानों पर हुए हैं जो टीकों या पिछले संक्रमण से प्राप्त एंटीबॉडी की क्षमता को प्रभावित करते हैं।

आम तौर पर प्रतिरक्षा को चकमा देने की क्षमता पता लगाने के लिए शोधकर्ता वायरस के स्पाइक प्रोटीन की प्रतिलिपियां तैयार करते हैं और उनका परीक्षण मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज़ के साथ करते हैं। इससे यह पता लगाया जा सकता है कि एंटीबॉडीज़ कितनी अच्छी तरह से कोशिकाओं को संक्रमित होने से बचा सकती हैं। ऐसे परीक्षण की मदद से चीन और स्वीडन के शोधकर्ताओं ने पाया कि एक संस्करण (बीए2.75.2) काफी प्रभावी ढंग से लगभग सभी मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज़ को चकमा दे सकता है। विशेषज्ञों की मानें तो यह अब तक का सबसे प्रतिरोधी संस्करण है।

एक शोध पत्र में बीजिंग युनिवर्सिटी के यूनलॉन्ग रिचर्ड काओ और उनके सहयोगियों ने बताया है कि नए संस्करणों द्वारा मानव कोशिकाओं पर ग्राहियों को कसकर बांधने की क्षमता भी पाई गई है। इसके अलावा यह भी पता चला है कि नए संस्करण से होने वाला संक्रमण अधिक मात्रा में लेकिन गलत प्रकार की एंटीबॉडीज़ पैदा करता है जो वायरस से कसकर बंध तो जाती हैं लेकिन कोशिकाओं को संक्रमित करने की वायरस की क्षमता पर असर नहीं डालतीं। कुल मिलाकर यह सब कोविड-19 की एक बड़ी लहर की संभावना के संकेत देते हैं।

वैसे कुछ वैज्ञानिक अत्यधिक संक्रमण की उम्मीद तो करते हैं लेकिन उनका मानना है कि अब काफी लोग संक्रमण से उबर चुके हैं और ऑमिक्रॉन-विशिष्ट टीके की खुराक भी प्राप्त की है। इससे एंटीबॉडी में यकीनन वृद्धि हुई होगी। यानी हम वायरस से लड़ने में शून्य स्तर पर तो नहीं हैं। (स्रोत फीचर्स)

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वर्ष 2023 के ब्रेकथ्रू पुरस्कारों की घोषणा

हाल ही में ब्रेकथ्रू प्राइज़ फाउंडेशन ने 2023 के ब्रेकथ्रू पुरस्कारों की घोषणा की है। यह पुरस्कार हर वर्ष मूलभूत भौतिकी, गणित और जीव विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए दिया जाता है। प्रत्येक क्षेत्र के विजेताओं को 30 लाख डॉलर की पुरस्कार राशि प्रदान की जाती है।

इस वर्ष जीव विज्ञान में तीन ब्रेकथ्रू पुरस्कार दिए गए हैं। एक पुरस्कार अल्फाफोल्ड-2 के लिए डेमिस हैसाबिस और जॉन जम्पर को दिया गया है। अल्फाफोल्ड-2 एक कृत्रिम बुद्धि (एआई) आधारित सिस्टम है जिसने लंबे समय से चल रही प्रोटीन संरचना की समस्या को हल किया है। प्रोटीन्स सूक्ष्म मशीनें हैं जो कोशिकाओं को उचित ढंग से चलाने का काम करते हैं। प्रोटीन अमीनो अम्लों की शृंखला होते हैं लेकिन उनके कामकाज के लिए उनका सही ढंग से तह होकर एक त्रि-आयामी रचना अख्तियार करना ज़रूरी होता है। प्रोटीन की इस त्रि-आयामी रचना को समझना उनके कामकाज को समझने के लिए काफी महत्वपूर्ण है। और यह काफी मुश्किल काम रहा है।

डीपमाइंड नामक कंपनी में अपनी टीम के साथ काम करते हुए हैसाबिस और जम्पर ने एक डीप-लर्निंग सिस्टम तैयार किया जो बड़ी ही सटीकता और तेज़ी से मात्र अमीनो अम्लों के क्रम के आधार पर प्रोटीन के त्रि-आयामी मॉडल का निर्माण करने में सक्षम है। इस वर्ष डीपमाइंड द्वारा अब तक 20 करोड़ प्रोटीन संरचनाओं को डैटाबेस में जोड़ा जा चुका है। इसकी मदद से प्रोटीन संरचना का निर्धारण करने में लगने वाला समय – कुछ घंटों से लेकर महीनों और वर्षों तक का – बच सकेगा। भविष्य में दवाइयां तैयार करने से लेकर सिंथेटिक बायोलॉजी, नैनोमटेरियल्स और कोशिकीय प्रक्रियाओं की बुनयादी समझ विकसित करने में इस डैटाबेस से काफी मदद मिलेगी।       

जीव विज्ञान में एक पुरस्कार एक नई कोशिकीय प्रक्रिया की खोज को मिला है। कोशिकीय प्रक्रिया के बारे में अभी तक हमारी समझ यह थी कि कोशिका का अधिकांश कार्य झिल्ली से घिरे उपांगों यानी ऑर्गेनेल में सम्पन्न होता है। एंथनी हायमन और क्लिफोर्ड ब्रैंगवाइन ने इस संदर्भ में एक सिद्धांत प्रस्तुत किया है। यह सिद्धांत झिल्ली की अनुपस्थिति में प्रोटीन और अन्य जैव-अणुओं के बीच कोशिकीय अंतर्क्रियाओं के संकेंद्रण पर टिका है। शोधकर्ताओं ने ऐसी तरल बूंदों के निर्माण की बात की है जो प्रावस्थाओं के पृथक्करण से बनती हैं। यह एक तरह से पानी में बनने वाली तेल की बूंदों के समान है। ये बूंदें अस्थायी संरचनाओं के समान होती हैं जो अपने अंदर के पदार्थ को कोशिका के जलीय वातावरण की आणविक उथल-पुथल से अलग-थलग रखती हैं। इस खोज के बाद इन दोनों वैज्ञानिकों व अन्य शोधकर्ताओं ने यह दर्शाया है कि ये झिल्ली रहित तरल संघनित क्षेत्र कई कोशिकीय प्रक्रियाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जैसे, संकेतों का आदान-प्रदान, कोशिका विभाजन, कोशिका के नाभिक में केंद्रिका की स्थिर संरचना और डीएनए का नियमन। इस खोज से भविष्य में एएलएस जैसे कई तंत्रिका-विघटन रोगों की चिकित्सा में काफी मदद मिलने की संभावना है।

जीव विज्ञान में तीसरा ब्रेकथ्रू पुरस्कार नारकोलेप्सी नामक तंत्रिका-विघटन रोग पर नए विचार प्रस्तुत करने के लिए इमैनुएल मिग्नॉट और मसाशी यानागिसावा को दिया गया है। नार्कोलेप्सी एक तंत्रिका-विघटन से जुड़ा निद्रा रोग है जिसमें पूरे दिन व्यक्ति उनींदा-सा रहता है और बीच-बीच में अचानक नींद के झोंके आते हैं।

दोनों वैज्ञानिकों ने स्वतंत्र रूप से काम करते हुए बताया है कि नार्कोलेप्सी रोग का मुख्य कारण ऑरेक्सिन (या हाइपोक्रेटिन) नामक प्रोटीन है। यह प्रोटीन आम तौर पर जागृत अवस्था का नियमन करता है। जहां कुछ जीवों में नार्कोलेप्सी उत्परिवर्तन के कारण होता है जो उन तंत्रिका ग्राहियों को प्रभावित करता है जो ऑरेक्सिन से जुड़ते हैं वहीं मनुष्यों में यह स्वयं की प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा ऑरेक्सिन बनाने वाली कोशिकाओं पर हमला करने की वजह से होता है।

इस खोज ने नार्कोलेप्सी के लक्षणों को दूर करने के साथ-साथ नींद की दवाइयों के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

गणित का ब्रेकथ्रू पुरस्कार डेनियल ए. स्पीलमन को मिला है जिन्होंने न केवल गणित बल्कि कंप्यूटिंग, सिग्नल प्रोसेसिंग, इंजीनियरिंग और यहां तक कि क्लीनिकल परीक्षणों के डिज़ाइन जैसी अत्यधिक व्यवहारिक समस्याओं पर एल्गोरिदम और समझ विकसित करने में बहुमूल्य योगदान दिया है। स्पीलमन और उनके साथियों ने कैडीसन-सिंगर समस्या का समाधान प्रस्तुत किया। यह समस्या क्वांटम मेकेनिक्स में उत्पन्न हुई थी लेकिन आगे चलकर कई गणितीय क्षेत्रों, जैसे रैखीय बीजगणित, उच्चतर-आयाम ज्यामिति, यथेष्ट मार्ग का निर्धारण और सिग्नल प्रोसेसिंग जैसी प्रमुख अनसुलझी समस्याओं जैसी साबित हुई।

मूलभूत भौतिकी का ब्रेकथ्रू पुरस्कार क्वांटम सूचना के क्षेत्र में काम कर रहे चार अग्रिम-अन्वेषकों को मिला है।

अपने बीबी84 प्रोटोकॉल के आधार पर चार्ल्स एच. बेनेट और गाइल्स ब्रासार्ड ने क्वांटम क्रिप्टोग्राफी की नींव रखी। इसके लिए उन्होंने उन उपयोगकर्ताओं के बीच गुप्त संदेश भेजने का एक व्यावहारिक तरीका तैयार किया जो शुरू में कोई गुप्त जानकारी साझा नहीं करते थे। ई-कॉमर्स में आम तौर पर उपयोग की जाने वाली विधियों के विपरीत इस जानकारी को असीमित कंप्यूटिंग शक्ति वाले भेदिए भी प्राप्त नहीं कर सकते। पूर्व में उन्होंने क्वांटम टेलीपोर्टेशन की खोज के साथ क्वांटम इन्फॉर्मेशन प्रोसेसिंग के नए विज्ञान को भी जन्म दिया।

डेविड डॉच ने क्वांटम कम्प्यूटेशन की नींव रखी। उन्होंने ट्यूरिंग मशीन के क्वांटम संस्करण को परिभाषित किया। यह एक असीम क्वांटम कंप्यूटर है जो क्वांटम मेकेनिक्स के सिद्धांतों का उपयोग करते हुए किसी भी भौतिक प्रणाली की सटीक अनुकृति तैयार कर सकता है। डॉच के अनुसार इस प्रकार का कंप्यूटर कुछ क्वांटम गेट्स के नेटवर्क के समान है। यह एक तरह के लॉजिक गेट्स हैं जो कई क्वांटम स्थितियों को एक साथ समायोजित करने में सक्षम हैं। उन्होंने ऐसा पहला क्वांटम एल्गोरिदम तैयार किया जिसने सभी समकक्ष पारंपरिक एल्गोरिदम्स को पीछे छोड़ दिया।     

पीटर शोर ने सबसे पहला उपयोगी कंप्यूटर एल्गोरिदम तैयार किया। उनका एल्गोरिदम किसी भी पारंपरिक एल्गोरिदम से कहीं अधिक तेज़ी से बड़ी संख्याओं के गुणनखंड पता लगाने में सक्षम था। उन्होंने क्वांटम कंप्यूटरों में त्रुटि-सुधार की तकनीकें डिज़ाइन कीं जो पारंपरिक कंप्यूटरों की अपेक्षा बहुत मुश्किल काम है। इन विचारों ने न केवल वर्तमान में तेज़ी से विकसित हो रहे क्वांटम कंप्यूटरों के लिए रास्ता खोला बल्कि उन्होंने मूलभूत भौतिकी के क्षेत्र में भी अग्रणि भूमिका निभाई। (स्रोत फीचर्स)

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पौधों की सेहत पर भारी ओज़ोन प्रदूषण – प्रदीप

पृथ्वी के ऊपरी वायुमंडल में मौजूद ओज़ोन गैस सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी किरणों से हमारी रक्षा करती है। ओज़ोन की इस परत के संरक्षण हेतु सशक्त कदम उठाए जा रहे हैं, लेकिन पृथ्वी की सतह पर विषैली ओज़ोन के बढ़ते स्तर को रोकने को लेकर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जा रहा है। गौरतलब है कि जहां ऊपरी वायुमंडल में ओज़ोन पराबैंगनी किरणों से पृथ्वी की रक्षा करती है, वहीं धरती की सतह पर मौजूद ओज़ोन इंसान और पर्यावरण की सेहत को गंभीर नुकसान पहुंचाती है।

औद्योगिक गतिविधियों की वजह से वायुमंडल की निचली सतह पर ओज़ोन के बढ़ते स्तर के चलते मनुष्य, जीव-जंतु और पेड़-पौधे बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं। एक हालिया अध्ययन में चीन और स्पेन के शोधकर्ताओं ने कहा है कि पिछले 20-22 वर्षों से ओज़ोन के संपर्क में आने से पेड़-पौधों में परागण क्रिया बाधित हो रही है। ट्रेंड्स इन इकॉलॉजी एंड इवॉल्यूशन जर्नल में प्रकाशित शोधपत्र में उन्होंने बताया है कि कैसे पृथ्वी की सतह पर ओज़ोन का बढ़ता स्तर पत्तियों को नुकसान पहुंचा सकता है, पुष्पन पैटर्न को बदल सकता है और परागणकर्ताओं के लिए फूल खोजने में बाधा बन सकता है।

वायुमंडल की निचली सतह पर मौजूद ओज़ोन इंसानी गतिविधियों (उद्योगों, विद्युत और रासायनिक संयंत्रों, रिफाइनरियों, वाहनों वगैरह) से उत्पन्न प्रदूषकों पर सूर्य के प्रकाश के असर से निर्मित होती है। जब किसी पौधे की पत्तियों में ओज़ोन प्रवेश करती है, तो वह प्रकाश संश्लेषण को कम करके पौधे के विकास को धीमा कर देती है।

उपरोक्त शोधपत्र के प्रधान लेखक एवगेनियोस अगाथोक्लियस के मुताबिक, ‘परागणकर्ताओं पर कृषि रसायनों के प्रत्यक्ष प्रभावों के बारे में बहुत चर्चा होती है, लेकिन अब यह सामने आया है कि ओज़ोन परागण और परागणकर्ताओं के लिए एक मूक खतरा है।’

निचले वायुमंडल में ओज़ोन का स्तर दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। इसकी वजह से पुष्पन का पैटर्न और समय बदल रहा है, जिससे पौधों और परागणकर्ताओं की गतिविधियों के बीच सामंजस्य नहीं बन पा रहा है।

ओज़ोन प्रदूषण की वजह से पौधों की पत्तियां रोगग्रस्त हो जाती हैं, कीटों से होने वाला नुकसान बढ़ जाता है और खराब मौसम से निपटने की उनकी क्षमता घट जाती है। और तो और, ओज़ोन प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया को प्रभावित करके पौधे के विकास को धीमा कर देती है। पौधे वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों का उत्सर्जन करते हैं जो परागणकर्ताओं को आकर्षित करते हैं, लेकिन ओज़ोन इन कार्बनिक यौगिकों से क्रिया करने लगती है। जहां इंसानी गतिविधियों की वजह से धरती की सतह पर ओज़ोन का स्तर दिन-ब-दिन बढ़ रहा है, वहीं ऊपरी वायुमंडल में इसकी मात्रा घटती जा रही है जहां इसकी वास्तव में ज़रूरत है। धरती के नज़दीक बढ़ती ओज़ोन समस्या से निपटने के लिए आज सशक्त और प्रभावी कदम उठाए जाने की तत्काल ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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