जीएम फसल व खाद्य हानिकारक क्यों हैं? – भारत डोगरा

न दिनों सरसों की जीएम फसल पर निर्णय को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर बड़ा विवाद छिड़ा हुआ है। इससे पहले भी कभी बैंगन, कभी सरसों तो कभी कपास की जीएम फसलों पर तीखे विवाद होते रहे हैं। विशेषकर जीएम खाद्य फसलों का विरोध विश्व में बड़े स्तर पर हुआ है। विश्व स्तर पर देखें तो जीएम फसल व खाद्य काफी विवादों में घिरे रहे हैं और बहुत से देशों ने इन्हें प्रतिबंधित भी किया हुआ है।

जेनेटिक इंजीनियरिंग से प्राप्त फसलों को संक्षेप में जीएम (जेनेटिकली मॉडीफाइड) फसल कहते हैं। सामान्यत: एक ही प्रजाति की विभिन्न किस्मों से नई किस्में तैयार की जाती रही हैं। जैसे गेंहू की दो किस्मों से एक नई किस्म तैयार कर ली जाए। इन्हें संकर किस्में कहते हैं।

परंतु जेनेटिक इंजीनियरिंग में किसी भी पौधे या जंतु के जीन या आनुवंशिक गुण का प्रवेश किसी असम्बंधित पौधे या जीव में करवाया जाता है। जैसे आलू के जीन का प्रवेश टमाटर में करवाना या सूअर के जीन का प्रवेश टमाटर में करवाना या मछली के जीन का प्रवेश सोयाबीन में करवाना या मनुष्य के जीन का प्रवेश सूअर में करवाना आदि।

जीएम फसलों के विरोध का एक मुख्य आधार यह रहा है कि ये फसलें स्वास्थ्य व पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित नहीं हैं। इसके अलावा, यह असर जेनेटिक प्रदूषण के माध्यम से अन्य सामान्य फसलों व पौधों में फैल सकता है। इस विचार को इंडिपेंडेंट साइन्स पैनल (स्वतंत्र विज्ञान मंच) ने बहुत सारगर्भित ढंग से व्यक्त किया है।

इस पैनल में शामिल विश्व के कई देशों के प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों ने जीएम फसलों पर एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ तैयार किया है जिसके निष्कर्ष में उन्होंने कहा है, “जीएम फसलों के बारे में जिन लाभों का वायदा किया गया था वे प्राप्त नहीं हुए हैं तथा ये फसलें खेतों में बढ़ती समस्याएं उपस्थित कर रही हैं। अब इस बारे में व्यापक सहमति है कि इन फसलों का प्रसार होने पर ट्रान्सजेनिक प्रदूषण से बचा नहीं जा सकता है। अत: जीएम फसलों व गैर जीएम फसलों का सह अस्तित्व नहीं हो सकता है। सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि जीएम फसलों की सुरक्षा या सेफ्टी प्रमाणित नहीं हो सकी है। इसके विपरीत, ऐसे पर्याप्त प्रमाण प्राप्त हो चुके हैं जिनसे इन फसलों की सेफ्टी या सुरक्षा सम्बंधी गंभीर चिंताएं उत्पन्न होती हैं। यदि इनकी (खतरों की) उपेक्षा की गई तो स्वास्थ्य व पर्यावरण की अपूरणीय क्षति होगी, जिसे ठीक नहीं किया जा सकता है। जीएम फसलों को अब दृढ़तापूर्वक अस्वीकार कर देना चाहिए।”

इन फसलों से जुड़े खतरे का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष कई वैज्ञानिकों ने यह बताया है कि जो खतरे पर्यावरण में फैलेंगे उन पर हमारा नियंत्रण नहीं रह जाएगा और घातक दुष्परिणाम सामने आने पर भी हम इनकी मरम्मत नहीं कर पाएंगे। जेनेटिक प्रदूषण का मूल चरित्र ही ऐसा है। वायु प्रदूषण व जल प्रदूषण की गंभीरता पता चलने पर उनके कारणों का पता लगाकर उन्हें नियंत्रित कर सकते हैं, पर जेनेटिक प्रदूषण जो पर्यावरण में चला गया वह हमारे नियंत्रण से बाहर हो जाता है।

विवाद का एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह बन रहा है कि वैज्ञानिकों के जो विचार सही बहस के लिए सामने आने चाहिए थे उन्हें दबाया गया है। प्राय: जीएम फसलों के समर्थकों द्वारा यह कहा गया है कि संयुक्त राज्य अमेरिका में जो अनेक जीएम फसलों को स्वीकृति मिली, वह काफी सोच-समझकर ही दी गई होगी। लेकिन हाल में ऐसे प्रमाण सामने आए हैं कि यह स्वीकृति बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में दी गई थी तथा इनके लिए सरकारी तंत्र द्वारा अपने वैज्ञानिकों की जीएम फसलों सम्बंधी चेतावनियों को दबाया गया था।

इस विषय पर एक बहुत चर्चित पुस्तक है जैफ्री एम. स्मिथ की जेनेटिक रुले। कई प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों ने इस पुस्तक को अति मूल्यवान बताया है। इस पुस्तक में स्मिथ ने बताया है कि संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार के खाद्य व औषधि प्रशासन के लिए जो तकनीकी विशेषज्ञ व वैज्ञानिक कार्य करते रहे हैं, वे वर्षों से जीएम उत्पादों से सम्बंधित विभिन्न गंभीर संभावित खतरों के बारे में चेतावनी देते रहे थे और इसके लिए ज़रूरी अनुसंधान करवाने की ज़रूरत बताते रहे थे। यह काफी देर बाद पता चला कि जीएम उत्पादों पर इस तरह की जो प्रतिकूल राय होती थी, उसे यह सरकारी एजेंसी प्राय: दबा देती थी।

जब वर्ष 1992 में खाद्य व औषधि प्रशासन ने जीएम उत्पादों के पक्ष में नीति बनाई तो इस प्रतिकूल वैज्ञानिक राय को गोपनीय रखा गया। पर सात वर्ष बाद जब इस सरकारी एजेंसी के गोपनीय रिकार्ड को एक अदालती मुकदमे के कारण खुला करना पड़ा व 44,000 पृष्ठों में फैली नई जानकारी सामने आई तो पता चला कि वैज्ञानिकों की जो राय जीएम फसलों व उत्पादों के विरुद्ध होती थी, उसे वैज्ञानिकों के विरोध के बावजूद नीतिगत दस्तावेज़ों से हटा दिया जाता था। इन दस्तावेज़ों से यह भी पता चला कि खाद्य व औषधि प्रशासन को राष्ट्रपति के कार्यालय से आदेश थे कि जीएम फसलों को आगे बढ़ाया जाए।

इसी पुस्तक में जैफ्री स्मिथ ने ब्रिटेन का भी एक उदाहरण दिया है जहां वैज्ञानिकों के अनुसंधान से पता चला था कि विकसित किए जा रहे एक जीएम आलू की किस्म के प्रयोगों के दौरान चूहों के स्वास्थ्य को व्यापक क्षति देखी गई थी। जब यह परिणाम बताया जाने लगा तो सरकार ने यह प्रोजेक्ट ही बंद कर दिया, उसके प्रमुख वैज्ञानिक की छुट्टी कर दी व उसकी अनुसंधान टीम छिन्न-भिन्न कर दी गई।

ऐसे अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं जहां प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों को केवल इस कारण परेशान किया गया या उनका अनुसंधान बाधित किया गया क्योंकि उनके अनुसंधान से जीएम फसलों के खतरे पता चलने लगे थे। इन कुप्रयासों के बावजूद निष्ठावान वैज्ञानिकों के अथक प्रयासों से जीएम फसलों के गंभीर खतरों को बताने वाले दर्जनों अध्ययन उपलब्ध हैं। जैफरी एम. स्मिथ की पुस्तक के 300 से अधिक पृष्ठों में ऐसे दर्जनों अध्ययनों का सार-संक्षेप या परिचय उपलब्ध है। इनमें चूहों पर हुए अनुसंधानों में पेट, लिवर, आंतों जैसे विभिन्न अंगों के बुरी तरह क्षतिग्रस्त होने की चर्चा है। जीएम फसल या उत्पाद खाने वाले पशु-पक्षियों के मरने या बीमार होने का उल्लेख है तथा जेनेटिक उत्पादों से मनुष्यों में भी गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का वर्णन है।

जीएम फसलों के अनेक खतरों के बढ़ते उदाहरणों को देखते हुए इन फसलों के समर्थक बस एक बात पर अड़ जाते हैं कि इनसे उत्पादकता बढ़ेगी। जीएम फसलों का सबसे अधिक प्रसार संयुक्त राज्य अमेरिका में हुआ है और यहां फ्रेंड्स ऑफ अर्थ के एक विस्तृत अध्ययन ने बता दिया है कि जीएम फसलों को उत्पादकता बढ़ाने में कोई सफलता नहीं मिली है। इसी तरह भारत में बीटी कॉटन फसलों के कुछ अध्ययनों से भी यही बात सामने आई है। बीटी कॉटन का कीटनाशक उपयोग कम करने का दावा ज़मीनी अनुभव से मेल नहीं खाता है।

कैंटरबरी विश्वविद्यालय (न्यूज़ीलैंड) के इस विषय के विशेषज्ञ डॉ. जैक हनीमैन ने लिखा है कि कुछ बड़ी कंपनियों ने ऊंची उत्पादकता वाले बीजों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया है व इन बीजों को जीएम रूप में ही उपलब्ध करवाती हैं। ऊंची उत्पादकता मिलती है तो यह इन बीजों के अपने गुणों के कारण मिलती है, इन पर हुई जेनेटिक इंजीनियरिंग के कारण नहीं। भारत में जीएम फसलों के विस्तृत अध्ययनों से जुड़े रहे पी. वी. सतीश ने हाल ही में लिखा कि आंध्र प्रदेश में उनके अध्ययनों से बीटी कॉटन की विभिन्न स्तरों पर विफलता की जानकारी मिली। सैकड़ों भेड़ें बीटी कॉटन खेतों में चरने के बाद मर गईं। लेकिन बीज का केंद्रीकरण करके ऐसी स्थिति बना दी गई है जिसमें ऐसा संकरित बीज बाज़ार में मिलना कठिन हो गया है जो जेनेटिक इंजीनियरिंग से न बना हो।

जेनेटिक फसलों के प्रसार से खरपतवार तेज़ी से फैल सकते हैं और सामान्य फसलों में जेनेटिक प्रदूषण का बहुत प्रतिकूल असर हो सकता है। दुनिया के कई देश ऐसे खाद्य चाहते हैं जो जेनेटिक इंजीनियरिंग के असर से मुक्त हों। यदि हमारे यहां जीएम फसलों का प्रसार होगा तो इन देशों के बाज़ार हमसे छिन जाएंगे।

कृषि व खाद्य क्षेत्र में जेनेटिक इंजीनियरिंग की टेक्नॉलॉजी मात्र लगभग छ-सात बहुराष्ट्रीय कंपनियों (व उनकी सहयोगी या उप-कंपनियों) के हाथों में केंद्रित है। इन कंपनियों का मूल आधार पश्चिमी देशों व विशेषकर संयुक्त राज्य अमेरिका में है। इनका उद्देश्य जेनेटिक इंजीनियरिंग के माध्यम से विश्व कृषि व खाद्य व्यवस्था पर ऐसा नियंत्रण स्थापित करना है जैसा विश्व इतिहास में आज तक संभव नहीं हुआ है।

इस षड्यंत्र के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में भी लंबी लड़ाई लड़ी गई है। सुप्रीम कोर्ट ने जैव प्रौद्योगिकी के ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक प्रो. पुष्प भार्गव (अब नहीं रहे) को जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रूवल कमेटी के कार्य पर निगरानी रखने के लिए नियुक्त किया था। पुष्प भार्गव सेन्टर फार सेल्यूलर एंड मालीक्यूलर बॉयोलॉजी, हैदराबाद के पूर्व निदेशक व नेशनल नॉलेज कमीशन के उपाध्यक्ष रहे थे।

ट्रिब्यून में प्रकाशित अपने बयान में विश्व ख्याति प्राप्त इस वैज्ञानिक ने देश को चेतावनी दी थी कि चंद शक्तिशाली व्यक्तियों द्वारा अपने व बहुराष्ट्रीय कंपनियों (विशेषकर अमेरिकी) के हितों को जेनेटिक रूप से परिवर्तित फसलों के माध्यम से आगे बढ़ाने के प्रयासों से सावधान रहें। उन्होंने इस चेतावनी में आगे कहा था कि इस प्रयास का अंतिम लक्ष्य भारतीय कृषि व खाद्य उत्पादन पर नियंत्रण प्राप्त करना है।

हिंदुस्तान टाइम्स के एक लेख में प्रो. भार्गव ने लिखा था कि लगभग 500 शोध पत्रों ने मनुष्यों, अन्य जीव-जंतुओं व पौधों के स्वास्थ्य पर जीएम फसलों के हानिकारक असर को स्थापित किया है और ये सभी शोध पत्र ऐसे वैज्ञानिकों के हैं जिनकी ईमानदारी पर कोई सवाल नहीं उठा है। उन्होंने आगे लिखा था कि दूसरी ओर जीएम फसलों का समर्थन करने वाले लगभग सभी पेपर या प्रकाशन उन वैज्ञानिकों के हैं जिन्होंने हितों का टकराव स्वीकार किया है या जिनकी विश्वसनीयता व ईमानदारी के बारे में सवाल उठ सकते हैं।

प्राय: जीएम फसलों के समर्थक कहते हैं कि वैज्ञानिकों का अधिक समर्थन जीएम फसलों को मिला है पर प्रो. भार्गव ने इस विषय पर समस्त अनुसंधान का आकलन कर यह स्पष्ट बता दिया कि अधिकतम निष्पक्ष वैज्ञानिकों ने जीएम फसलों का विरोध ही किया है। साथ में उन्होंने यह भी बताया कि जिन वैज्ञानिकों ने समर्थन दिया है उनमें से अनेक किसी न किसी स्तर पर जीएम बीज बेचने वाली कंपनियों या इस तरह के निहित स्वार्थों से जुड़े रहे हैं या प्रभावित रहे हैं।

जेनेटिक इंजीनियरिंग का प्रचार कई बार इस तरह किया जाता है कि किसी विशिष्ट गुण वाले जीन का ठीक-ठीक पता लगा लिया गया है व इसे दूसरे जीव में पंहुचा कर उसमें वही गुण लाया जा सकता है। किंतु हकीकत इससे अलग व कहीं अधिक पेचीदा है।

कोई भी जीन केवल अपने स्तर पर या अलग से कार्य नहीं करता है अपितु बहुत से जीनों के एक जटिल समूह के एक हिस्से के रूप में कार्य करता है। इन असंख्य अन्य जीन्स से मिलकर व उनकी परस्पर निर्भरता में ही जीन के कार्य को देखना-समझना चाहिए, अलग-थलग नहीं। एक ही जीन का अलग-अलग जीवों में काफी भिन्न असर होगा, क्योंकि उनमें जो अन्य जीन हैं वे भिन्न हैं। विशेषकर जब एक जीव के जीन को काफी अलग तरह के जीव में पंहुचाया जाएगा, जैसे मनुष्य के जीन को सूअर में, तो इसके काफी नए व अप्रत्याशित परिणाम होने की संभावना है।

इतना ही नहीं, जीन समूह का किसी जीव की अन्य शारीरिक रचना व बाहरी पर्यावरण से भी सम्बंध होता है। जिन जीवों में वैज्ञानिक विशेष जीन पहुंचाना चाह रहे हैं, उनसे अन्य जीवों में भी इन जीन्स के पंहुचने की संभावना रहती है जिसके अनेक अप्रत्याशित परिणाम व खतरे हो सकते हैं। बाहरी पर्यावरण जीन के असर को बदल सकता है व जीन बाहरी पर्यावरण को इस तरह प्रभावित कर सकता है जिसकी संभावना जेनेटिक इंजीनियरिंग का उपयोग करने वालों को नहीं थी। एक जीव के जीन दूसरे जीव में पंहुचाने के लिए वैज्ञानिक जिन तरीकों का उपयोग करते हैं उनसे ऐसे खतरों की आशंका और बढ़ जाती है।

जेनेटिक इंजीनियरिंग के अधिकांश महत्वपूर्ण उत्पादों के पेटेंट बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास हैं तथा वे अपने मुनाफे को अधिकतम करने के लिए इस तकनीक का जैसा उपयोग करती हैं, उससे इस तकनीक के खतरे और बढ़ जाते हैं।

अत: जीएम फसलों, विशेषकर खाद्य फसलों व उनसे प्राप्त खाद्यों, का प्रवेश उचित नहीं है; इन पर प्रतिबंध लगना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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निएंडरथल पके खाने के शौकीन थे

गर आप सोचते हैं कि निएंडरथल मानव कच्चा मांस और फल-बेरियां ही खाते थे, तो हालिया अध्ययन आपको फिर से सोचने को मजबूर कर सकता है। उत्तरी इराक की एक गुफा में विश्व के सबसे प्राचीन पके हुए भोजन के जले हुए अवशेष मिले हैं, जिनके विश्लेषण से लगता है कि निएंडरथल मानव खाने के शौकीन थे।

लीवरपूल जॉन मूर्स युनिवर्सिटी के सांस्कृतिक जीवाश्म विज्ञानी क्रिस हंट का कहना है कि ये नतीजे निएंडरथल मानवों में खाना पकाने के जटिल कार्य और खाद्य संस्कृति का पहला ठोस संकेत हैं।

दरअसल शोधकर्ता बगदाद से आठ सौ किलोमीटर उत्तर में निएंडरथल खुदाई स्थल की एक गुफा शनिदार गुफा की खुदाई कर रहे थे। खुदाई में उन्हें गुफा में बने एक चूल्हे में जले हुए भोजन के अवशेष मिले, जो अब तक पाए गए पके भोजन के अवशेष में से सबसे प्राचीन (लगभग 70,000 साल पुराने) थे।

शोधकर्ताओं ने पास की गुफाओं से इकट्ठा किए गए बीजों से इन व्यंजनों में से एक व्यंजन को प्रयोगशाला में बनाने की कोशिश की। यह रोटी जैसी, पिज़्ज़ा के बेस सरीखी चपटी थी जो वास्तव में बहुत स्वादिष्ट थी।

टीम ने दक्षिणी यूनान में फ्रैंचथी गुफा, जिनमें लगभग 12,000 साल पहले आधुनिक मनुष्य रहते थे, से मिले प्राचीन जले हुए भोजन के अवशेषों का भी स्कैनिंग इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप से विश्लेषण किया।

दोनों जानकारियों को साथ में देखने से पता चलता है कि पाषाणयुगीन आहार में विविधता थी और प्रागैतिहासिक पाक कला काफी जटिल थी, जिसमें खाना पकाने के लिए कई चरण की तैयारियां शामिल होती थीं।

शोधकर्ताओं को पहली बार दोनों स्थलों पर निएंडरथल और शुरुआती आधुनिक मनुष्यों (होमो सेपिएन्स) द्वारा दाल भिगोने और दलहन दलने के साक्ष्य मिले हैं।

शोधकर्ताओं को भोजन में अलग-अलग तरह के बीजों को मिलाकर बनाने के प्रमाण भी मिले हैं। उनका कहना है कि ये लोग कुछ खास पौधों के ज़ायके को प्राथमिकता देते थे।

एंटीक्विटी में प्रकाशित यह शोध बताता है कि शुरुआती आधुनिक मनुष्य और निएंडरथल दोनों ही मांस के अलावा वनस्पतियां भी खाते थे। जंगली फलों और घास को अक्सर मसूर की दाल और जंगली सरसों के साथ पकाया जाता था। और चूंकि निएंडरथल लोगों के पास बर्तन नहीं थे इसलिए अनुमान है कि वे बीजों को किसी जानवर की खाल में बांधकर भिगोते होंगे।

हालांकि, ऐसा लगता है कि आधुनिक रसोइयों के विपरीत निएंडरथल बीजों का बाहरी आवरण नहीं हटाते थे। छिलका हटाने से कड़वापन खत्म हो जाता है। लगता है कि वे कड़वेपन को कम तो करना चाहते थे लेकिन दालों के प्राकृतिक स्वाद को खत्म भी नहीं करना चाहते थे।

अनुमान है कि वे स्थानीय पत्थरों की मदद से बीजों को कूटते या दलते होंगे इसलिए दालों में थोड़ी किरकिरी आ जाती होगी। और शायद इसलिए निएंडरथल मनुयों के दांत इतनी खराब स्थिति में थे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नर ततैया भी डंक मारते हैं

क जापानी कीटविज्ञानी मिसाकी त्सूजी को जब एक नर ततैया ने डंक मारा तो वे हैरान रह गईं। क्योंकि माना जाता है कि सिर्फ मादा ततैया और मधुमक्खियां ही दर्दनाक डंक मार सकती हैं। दरअसल वे जिस अंग से डंक मारती हैं वह अंडे देने के अंग (ओविपॉज़िटर) का परिवर्तित रूप होता है। इसलिए आम तौर पर माना जाता है कि नर डंक नहीं मार सकते।

इस अनुभव के बाद जिस ततैया, एंटरहाइंचियम गिबिफ्रॉन्स, ने डंक मारा था त्सूजी ने उसका बारीकी से अवलोकन किया। करंट बायोलॉजी में वे बताती हैं कि ततैया ने डंक मारने के लिए अपने नुकीले, दो कांटों वाले जननांग का उपयोग किया था।

यह जानने के लिए कि क्या नर ततैया के छद्म डंक उन्हें उनके शिकारियों से बचाते हैं, शोधकर्ताओं ने ए. गिबिफ्रॉन्स नर ततैया को उनके शिकारी (वृक्ष मेंढक) के साथ रखा। जब-जब मेंढक ने ततैया पर हमला किया ततैया ने अपने पैने शिश्न से पलटवार किया। नतीजतन मेंढक ने लगभग एक तिहाई दफा ततैया को बाहर थूक दिया। तुलना के तौर पर जिन नर ततैया के छद्म डंक हटा दिए गए थे वे मेंढक का भोजन बन गए थे।

जीव जगत में ऐसा पहली बार देखा गया है जब नर जननांग द्वारा रक्षात्मक भूमिका निभाई जा रही हो। शोधकर्ताओं को लगता है कि इसी तरह की रणनीति अन्य ततैया में भी पाई जाती होगी। शोधकर्ता आगे इसी का अध्ययन की तैयारी में हैं। (स्रोत फीचर्स)

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उपेक्षित कॉफी फिर उगाई जा सकती है

हाल ही में बरपे सूखे ने दुनिया के सबसे लोकप्रिय कॉफी बीज कॉफी अरेबिका की कीमत को दुगना कर दिया है। बढ़ता वैश्विक तापमान जल्द ही कई प्लांटेशन के लिए उनके मनचाहे पौधे उगाना अव्यावहारिक बना सकता है। इसलिए अफ्रीका के कॉफी उत्पादकों ने लंबे समय से विस्मृत कॉफी की एक किस्म, कॉफी लिबरिका, को फिर से लगाना शुरू कर दिया है।

क्यू स्थित रॉयल बॉटेनिक गार्डन के वनस्पतिशास्त्रियों ने नेचर प्लांट्स पत्रिका में बताया है कि 1870 के दशक में सी. लिबरिका को बड़े पैमाने पर उगाया जाता था। लेकिन इसके कठोर आवरण वाले बड़े फल प्रोसेस करना कठिन था। इनकी तुलना में अन्य किस्मों के छोटे फलों को प्रोसेस करना आसान था। 20वीं सदी आते-आते सी. लिबरिका उगाना बंद हो गया था।

हाल के वर्षों में युगांडा के किसान सी. लिबरिका (लोकप्रिय नाम एक्सेल्सा) उप-प्रजाति की खेती अधिक करने लगे हैं। एक्सेल्सा बीमारियों और मुरझाने की प्रतिरोधी है। इस दमदार और मीठी कॉफी की वृद्धि के लिए बहुत ठंड भी ज़रूरी नहीं होती।

तो शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि इस तरह एक्सेल्सा और अन्य कम उगाई जाने वाली कॉफी किस्में गर्म हो रही पृथ्वी पर गर्मागर्म कॉफी के प्याले भरने में मदद करती रह सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

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प्राचीन शिकारी-संग्रहकर्ता कुम्हार भी थे

त्तरी युरेशिया में मिले लगभग 8000 साल पुराने टूटे और जले हुए भोजन अवशेष लगे मिट्टी के बर्तन चीनी मिट्टी के बर्तनों जैसे तो नहीं लगते लेकिन मांस और तरकारी रखने और पकाने की यह टिकाऊ तकनीक इस क्षेत्र में शिकारी-संग्रहकर्ताओं के लिए एक बड़ा कदम था। और हालिया शोध बताता है कि यह तकनीक उन्होंने खुद विकसित की थी।

दरअसल वैज्ञानिक मानते आए थे कि युरोप में मिट्टी के बर्तनों का आगमन लगभग 9000 साल पहले कृषि और जानवरों के पालतूकरण के प्रसार के साथ हुआ था। उत्तरी युरोप में मिले लगभग इसी काल के बर्तनों के आधार पर माना जाता था कि यह तकनीक शिकारी-संग्रहकर्ताओं ने अपने अधिक प्रगतिशील किसान पड़ोसियों से सीखी था।

लेकिन नेचर ह्यूमन बिहेवियर में प्रकाशित एक अध्ययन बिलकुल अलग कहानी कहता है। लगभग 20,000 साल पहले, सुदूर पूर्वी इलाकों में शिकारी-संग्रहकर्ताओं के समूहों के बीच मिट्टी के बर्तन बनाने और उपयोग करने के ज्ञान का प्रसार हो चुका था। ये बर्तन तब उनके द्वारा उपयोग किए जाने वाले चमड़े के बर्तनों से अधिक टिकाऊ थे, और पकाने में उपयोग किए जाने वाले लकड़ी के बर्तनों की तरह आग में जलते नहीं थे। लगभग 7900 साल पहले तक यूराल पर्वत से लेकर दक्षिणी स्कैंडिनेविया तक मिट्टी के बर्तनों का उपयोग आम हो चुका था।

मिट्टी के बर्तनों का फैलाव देखने के लिए नेशनल युनिवर्सिटी ऑफ ऑयरलैंड के पुरातत्वविद रोवन मैकलॉफ्लिन और उनके साथियों ने बाल्टिक सागर और भूतपूर्व सोवियत संघ के युरोपीय हिस्से के 156 पुरातात्विक स्थलों से इकट्ठा किए गए मिट्टी के बर्तनों के अवशेषों का विश्लेषण किया। इनमें से कई अवशेष वर्तमान रूस और यूक्रेन के संग्रहालयों में संग्रहित थे। बर्तनों में चिपके रह गए जले हुए भोजन का रेडियोकार्बन काल-निर्धारण करके शोधकर्ता इनकी समयरेखा पता कर पाए।

चिपके हुए वसा अवशेषों से पता चला कि वे या तो जुगाली करने वाले जानवरों (जैसे हिरण या मवेशियों) का मांस पकाते थे, या मछली, सूअर या सब्ज़ी-भाजी उबालते थे। इसके अलावा, बर्तनों पर की गई कलाकारी और बर्तनों के आकार की तुलना करके शोधकर्ता पता लगा सके कि मिट्टी के बर्तनों का प्रसार एक से दूसरे समुदाय में कैसे हुआ।

वैसे तो मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए कच्चा माल हर जगह उपलब्ध था, लेकिन उन्हें आकार देने और पकाने जैसा तकनीकी ज्ञान एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को हस्तांतरित हुआ होगा। और साथ ही खाना पकाने की नई तकनीक भी सीखी गई होगी।

सारे डैटा को एक साथ रखने पर टीम ने पाया कि उत्तरी युरेशिया के कुछ हिस्सों में मिट्टी के बर्तन तेज़ी से फैले थे। कुछ ही शताब्दियों में यह तकनीक कैस्पियन सागर से उत्तरी और पश्चिमी हिस्से में फैल गई थी।

जिस तेज़ी से इस क्षेत्र में मिट्टी के बर्तन बनाने का ज्ञान फैला, उससे लगता है कि यह ज्ञान लोगों के प्रवास के साथ आगे नहीं बढ़ा बल्कि एक समूह से दूसरे समूह में हस्तांतरित हुआ। ऐसा लगता है एक जगह से दूसरी जगह तक सफर ज्ञान ने किया, लोगों ने नहीं।

यदि ऐसा है, तो ये नतीजे हाल ही में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन से विपरीत हैं जो बताता है कि एनातोलिया में यह तकनीक किस तरह से फैली। हालिया जेनेटिक साक्ष्य बताते हैं कि लगभग इसी समय एनातोलिया से दक्षिणी युरोप आए किसान अपने साथ मिट्टी के बर्तन बनाने के तरीके और परंपराएं लाए थे।

शोधकर्ताओं का कहना है कि इस पर अधिक शोध यह जानने में मदद कर सकता है कि वास्तव में यह ज्ञान कैसे फैला। जैसे यदि शिकारी-संग्रहकर्ता समाज पितृस्थानिक थे (जहां महिलाएं शादी के बाद ससुराल चली जाती हैं) तो मिट्टी के बर्तन बनाना महिलाओं द्वारा किया जाने वाला कार्य हो सकता है जो विवाह सम्बंधों के माध्यम से एक गांव से दूसरे गांव तक फैला होगा।

बहरहाल, अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि हम जितना समझते थे शिकारी-संग्रहकर्ता उससे कहीं अधिक नवाचारी थे। प्रागैतिहासिक जापान से बाल्टिक सागर के किनारों तक घूमने वाले शिकारी-संग्रहकर्ता लोगों ने अपनी घुमंतु जीवन शैली को छोड़े बिना नई तकनीकों को गढ़ा और अपनाया था: वे किसानों का अनुसरण नहीं कर रहे थे बल्कि सर्वथा अलग रास्ते पर आगे बढ़ रहे थे। इस मायने में देखा जाए तो शिकारी-संग्रहकर्ता समाज आविष्कारी समाज था।

हालांकि रूस के वैज्ञानिक इस बारे में पहले से जानते थे और इसके अधिकतर साक्ष्य रूसी भाषा में प्रकाशित हुए थे। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद युरोप में खिंच गई अदृश्य दीवार के चलते इस जानकारी से बाकी लोग अनभिज्ञ रहे और बर्तनों का उपयोग किसानों और पशुपालकों की तकनीक माना जाता रहा। 1990 से यह अदृश्य दीवार ढहने लगी थी; पश्चिमी युरोप और रूस, यूक्रेन व बाल्टिक क्षेत्र के शोधकर्ता संयुक्त अध्ययनों में शामिल होने लगे थे। हालिया अध्ययन भी इसी सहयोग की मिसाल है। यूक्रेन-रूस युद्ध ने इस दीवार को फिर ऊंचा कर दिया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सामाजिक-आर्थिक बदलाव में दिखी विज्ञान की भूमिका – चक्रेश जैन

साल 2022 की अहम वैज्ञानिक घटनाओं और अनुसंधानों को मिलाकर देखें तो लगता है पूरा साल विज्ञान जगत में अभिनव प्रयोगों, अन्वेषणों और उपलब्धियों का रहा। विज्ञान की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों ने सुर्खियों के लिए अलग-अलग घटनाओं का चयन किया है। अधिकांश विज्ञान पत्र-पत्रिकाओं ने जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप को सुखिर्यों में विशेष स्थान दिया है। विज्ञान की प्रतिष्ठित पत्रिका साइंस ने जहां एक ओर वर्ष की दस प्रमुख उपलब्धियों (ब्रेकथ्रू) में जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप को प्रथम स्थान पर रखा है, वहीं दूसरी ओर इस वर्ष की विफलताओं (ब्रेकडाउन) की सूची में ‘ज़ीरो कोविड नीति’ को प्रमुखता से शामिल किया है।

बीते वर्ष 12 जुलाई को जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप से ली गई ब्रह्मांड की पहली पूर्ण रंगीन तस्वीर जारी की गई। जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप से लिए गए चित्रों से ब्रह्मांड की उत्त्पत्ति की जड़ों को तलाशने में मदद मिलेगी। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने इस मौके पर कहा था कि यह टेलीस्कोप मानवता की महान इंजीनियरिंग उपलब्धियों में से एक है। दस अरब डॉलर की लागत से तैयार इस टेलीस्कोप को साल 2021 में क्रिसमस उत्सव के मौके पर लॉन्च किया गया था। इसे हबल टेलीस्कोप का उत्तराधिकारी कहा जा सकता है। इस टेलीस्कोप में लगे विशाल प्रमुख दर्पण की मदद से अंतरिक्ष में किसी भी अन्य टेलीस्कोप की तुलना में अधिक दूरी तक देखा जा सकता है। जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप ने ब्रह्मांड में सबसे दूरस्थ और प्राचीनतम निहारिकाओं के चित्र भेजे हैं। इस नए दमदार टेलीस्कोप से पहली बार ब्रह्मांड के शुरुआत की झलक सामने आई, जिसमें निहारिकाओं के नृत्य और तारों की मृत्यु की तस्वीरें शामिल हैं।

विदा हो चुके साल 2022 में चंद्रमा पर पहुंचने की दौड़ जारी रही। निजी क्षेत्र भी मैदान में सक्रिय दिखाई दिया। अमेरिका, रूस, चीन, जापान, भारत और कोरिया ने पिछले वर्ष ही अपना भावी कार्यक्रम घोषित कर दिया था। 1972 में अपोलो-17 मिशन के साथ ही चंद्रमा पर मानव सहित यान भेजने का अभियान थम गया था। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने पांच दशकों बाद फिर से चंद्रमा पर मानव अवतरण का अभियान शुरू किया है। इसे ‘आर्टेमिस मिशन’ नाम दिया गया है। इसी वर्ष नवंबर में आर्टेमिस-1 के ज़रिए ओरायन अंतरिक्ष यान भेजा गया, जिसने चंद्रमा की सतह से नब्बे किलोमीटर ऊपर विभिन्न प्रयोग किए। इस अभियान की सफलता ने आर्टेमिस-2 और आर्टेमिस-3 को भेजने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। वैज्ञानिकों ने इस दशक के अंत तक चंद्रमा पर मनुष्य को बसाने का दावा भी किया है।

युरोपीय स्पेस एजेंसी ने अपने भावी अंतरिक्ष कार्यक्रम के लिए 22,500 आवेदकों में से 17 व्यक्तियों का चुनाव किया है। इनमें ब्रिटेन के जॉन मैकफाल भी हैं। उन्होंने 2008 में एक पैर नहीं होने के बावजूद पैरालिंपिक में कांस्य पदक जीता था। यह पहला अवसर है, जब किसी विकलांग को अंतरिक्ष यात्री के रूप में चुना गया है।

सितंबर में नासा ने एक नए प्रयोग को अंजाम दिया, जिसका उद्देश्य पृथ्वी से टकरा सकने वाले छोटे ग्रहों से बचाव की तैयारी है। इसका नाम है डबल एस्टेरॉयड रिडायरेक्शन टेस्ट (डार्ट) मिशन। नासा ने नवंबर 2021 में डॉर्ट मिशन अंतरिक्ष में भेजा था। दस महीने के सफर के बाद डार्ट अपने अभीष्ट निशाने के पास तक पहुंचा और अपूर्व कार्य संपन्न किया। इस मिशन के अंतर्गत पृथ्वी के लिए खतरा पैदा करने वाले क्षुद्र ग्रहों अथवा एस्टोरॉयड की दिशा को बदला जा सकेगा। यह प्रक्रिया अंतरिक्ष यान के ज़रिए की जा सकेगी। जानकारों के मुताबिक आने वाले वर्षों में इस दिशा में बहुत से प्रयोग होंगे।

साल 2022 ‘अंतर्राष्ट्रीय मूलभूत विज्ञान वर्ष’ के रूप में मनाया गया। 2017 में माइकल स्पाइरो ने युनेस्को द्वारा आयोजित वैज्ञानिक बोर्ड की बैठक में वर्ष 2022 को अंतर्राष्ट्रीय मूलभूत विज्ञान वर्ष के रूप में मनाने का विचार रखा था। प्राकृतिक और ब्रह्मांडीय घटनाओं की व्याख्या में मूलभूत विज्ञान की महत्वपूर्ण भूमिका है। कोरोना वायरस की संरचना को समझने और उससे फैले संक्रमण का सामना करने के लिए टीकों के निर्माण में मूलभूत विज्ञान का योगदान रहा है। यही नहीं अंतरिक्ष के क्षेत्र में मिली तमाम उपलब्धियों की पृष्ठभूमि में मूलभूत विज्ञान का बहुत बड़ा हाथ है। सच तो यह है कि पृथ्वी ग्रह का सतत और समावेशी विकास मूलभूत विज्ञान में अनुसंधान की अनदेखी करके नहीं हो सकता।

बीते वर्ष जीव विज्ञान के अनुसंधानकर्ताओं ने कैरेबिया के मैन्ग्रोव वनों में एक नया बैक्टीरिया खोजा जिसे देखने के लिए सूक्ष्मदर्शी की ज़रूरत नहीं होती। वैज्ञानिकों ने नए बैक्टीरिया को थियोमार्गरिटा मैग्नीफिका नाम दिया है। यह बैक्टीरिया अपने बड़े आकार के कारण कोशिका विज्ञान के अध्ययनकर्ताओं के बीच चर्चा का विषय रहा। इसमें कई विशेषताएं हैं। इसका जीनोम एक झिल्ली में कैद होता है, जबकि सामान्य बैक्टीरिया की जेनेटिक सामग्री झिल्ली में नहीं होती है। इस बैक्टीरिया के बड़े आकार और झिल्लीयुक्त जीनोम को देखते हुए कहा जा सकता है कि यह जटिल कोशिकाओं के उद्भव को समझने की दिशा में मील का पत्थर साबित होगा। साइंस के संपादकों ने दस प्रमुख खोजों की सूची में नए बैक्टीरिया की खोज को स्थान दिया है।

विज्ञान जगत की एक अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका ने इस साल की दस प्रमुख घटनाओं में मंकीपॉक्स वायरस को भी शामिल किया है। मई में युरोप और अमेरिका में इस वायरस के हमले का पता चला। लगभग 100 से अधिक देश इसकी चपेट में आ गए। यह वायरस भी कोरोना वायरस की तरह खतरनाक है, जो जंतुओं से मनुष्यों में फैलता है। इससे संक्रमित व्यक्ति में चेचक जैसे लक्षण दिखते हैं। मंकीपॉक्स वायरस पाक्सविरिडी कुल का सदस्य है। इस वायरस की खोज 1958 में हुई थी। अध्ययनकर्ताओं को बंदरों की कॉलोनी में चेचक जैसा रोग मिला, इसलिए इसका नाम मंकीपॉक्स रख दिया गया। इससे संक्रमित लोग बिना उपचार के अपने आप स्वस्थ हो जाते हैं। वर्तमान में इसके लिए कोई स्वीकृत एंटी वायरस नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसका नाम मंकीपॉक्स से बदल कर ‘एमपॉक्स’ कर दिया है। वैज्ञानिकों को अंदेशा है कि भविष्य में यह वायरस म्युटेशन की चपेट में आ सकता है।

गुज़रे साल वैज्ञानिकों ने ग्रीनलैंड में सबसे प्राचीन डीएनए को खोजने में बड़ी सफलता प्राप्त की। प्राचीन डीएनए बीस लाख साल पुराना है। लगभग चालीस अनुसंधानकर्ता सोलह वर्षों तक प्राचीन डीएनए के रहस्य का पता लगाने में जुटे रहे। इस खोज ने उस इतिहास में झांकने का अवसर प्रदान किया, जिसके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था। अमेरिकी एसोसिएशन फॉर दी एडवांसमेंट ऑफ साइन्स के जर्नल ने इसे ‘टॉप टेन इन साइंस’ की सूची में सम्मिलित किया है।

वर्ष 2022 में पूर्वी और मध्य पनामा के वनों में मेंढक की नई प्रजाति मिली। पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग के योगदान को रेखांकित और सम्मानित करने के लिए इसका नाम उन्हीं के नाम पर Pristimantis gretathunbergae रखा गया है।

साल की शुरुआत में 15 जनवरी को दक्षिणी प्रशांत महासागर में टोंगा ज्वालामुखी फट पड़ा। अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि पिछले 100 सालों में यह सबसे भयानक ज्वालामुखी विस्फोट था, जिसने धरती को दो बार हिला दिया।

गुज़रे साल वैज्ञानिकों ने मनुष्य द्वारा मोबाइल फोन, लेपटॉप और अन्य उपकरणों का अधिक और लगातार उपयोग करने से शारीरिक संरचना में होने वाले परिवर्तनों का एक मॉडल तैयार किया है। इस मॉडल से 800 वर्षों में मनुष्य की शारीरिक संरचना में होने वाले परिवर्तनों की झलक मिलती है। वैज्ञानिकों ने थ्री डिज़ायनर से तैयार मॉडल के आधार पर बताया कि वर्ष 3000 तक पीठ में कुबड़ निकल आएगी, गर्दन मोटी हो जाएगी, हाथ के पंजे मुड़े हुए होंगे और आंखों में एक और झिल्ली उग आयेगी।

खगोल विज्ञान के अध्ययनकर्ताओं की टीम ने जीजे-1002 तारे के आसपास पृथ्वी जैसे दो ग्रहों की खोज की। लाल रंग का यह बौना तारा सौर मंडल से अधिक दूर नहीं है (मात्र 16 प्रकाश वर्ष दूर!)। इन दो ग्रहों की खोज के साथ ही अब हम सूर्य के समीप सौर मंडलों में मौजूद सात ऐसे ग्रहों के बारे में जानते हैं, जो पृथ्वी से मिलते-जुलते हैं।

साल 2022 में वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन के कारण विभिन्न प्रजातियों के विलुप्त होने की वास्तविक स्थिति के आकलन के लिए ‘वर्चुअल अर्थ’ का विकास किया। इस मॉडल के अनुसार इस सदी के अंत तक पृथ्वी से जीव-जंतुओं की 27 प्रतिशत प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी।

वर्ष 2022 में अमेरिका को नाभिकीय संलयन प्रक्रिया से स्वच्छ ऊर्जा प्राप्त करने में बड़ी सफलता मिली। कैलिर्फोनिया स्थित लारेंस लीवरमोर नेशनल लेबोरेटरी के अनुसंधानकर्ताओं ने पहली बार नाभिकीय संलयन से खर्च से अधिक ऊर्जा प्राप्त की। नाभिकीय संलयन में दो परमाणु जुड़कर एक भारी परमाणु बनाते हैं। सूर्य में भी इसी प्रक्रिया से ऊर्जा उत्पन्न होती है। जानकारों का कहना है कि इस उपलब्धि से जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने में मदद मिलेगी।

विज्ञान जगत की एक प्रतिष्ठित पत्रिका ने इस साल की 22 अद्भुत अनुसंधानों की चयन सूची में माइक्रोप्लास्टिक को सम्मिलित किया है। वैज्ञानिकों का मानना है कि माइक्रोप्लास्टिक मनुष्य की प्रजनन क्षमता पर असर डालता है। माइक्रोप्लास्टिक का आकार पांच मिलीमीटर से कम होता है। यह खिलौनों, कार के पुराने टायर आदि में पाया जाता है। यह हमारे पास से होते हुए समुद्र में पहुंच रहा है। प्लास्टिक के कण नंगी आंखों से दिखाई नहीं देते। यही कारण है कि आम आदमी को इसके बारे में जानकारी नहीं होती। वैज्ञानिकों ने 2021 में माइक्रोप्लास्टिक के असर पर अनुसंधान में पाया कि मनुष्य प्रतिदिन लगभग सात हज़ार माइक्रोप्लास्टिक के टुकड़े सांस के ज़रिए लेता है।

दिसंबर में मॉन्ट्रियल में संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता सम्मेलन कॉप-15 में 190 से अधिक देशों ने प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र में सुधार के लिए ऐतिहासिक जैव विविधता संधि को मंज़ूरी दे दी। ये देश सन 2030 तक पृथ्वी के तीस प्रतिशत हिस्से के संरक्षण पर सहमत हुए हैं। बायोलॉजिकल कंज़र्वेशन में प्रकाशित शोध के अनुसार पिछले डेढ़ सौ वर्षों में कीटों की पांच से दस प्रतिशत प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं।

संयुक्त राष्ट्र का दो हफ्ते चला सालाना जलवायु परिवर्तन शिखर सम्मेलन सीओपी-27 मिस्त्र के शर्म-अल-शेख में आयोजित किया गया, जिसमें दुनिया भर के प्रतिनिधियों ने जलवायु संकट की चुनौतियों से निपटने के लिए अपने विचार साझा किए। सम्मेलन में मुख्य मुद्दे इस बार भी नहीं सुलझे। सम्मेलन में दुनिया के आठ अरब लोगों को भोजन उपलब्ध कराने के लिए कृषि और अनुकूलन के मुद्दों पर मंथन हुआ। अंत में वार्ताकारों के बीच ‘जलवायु आपदा कोश’ बनाने पर सहमति बनी। इसका उपयोग जलवायु आपदा से प्रभावित देशों के लिए किया जाएगा।

चिकित्सा विज्ञान के अनुसंधानकर्ताओं ने सात जनवरी को जेनेटिक रूप से परिवर्तित सुअर का दिल मनुष्य के शरीर में सफलतापूर्वक लगाया। यह प्रत्यारोपण बेहद चुनौतीपूर्ण कार्य था, जिसने भविष्य में ज़ीनोट्रांसप्लांटेशन की राह खोल दी है। प्रत्यारोपण टीम के मार्दगर्शक सर्जन मोहम्मद मोइउद्दीन हैं, जिन्हें पत्रिका नेचर ने वर्ष 2022 के टॉप टेन व्यक्तियों की सूची में सम्मिलित किया है।

यह वही साल था, जब रोबोट की भूमिका का एक और नया आयाम सामने आया। एआई-डीए नाम के इस रोबोट ने पहली बार ब्रिटेन की संसद को संबोधित किया। ब्रिटिश सांसदों ने रोबोट से कलात्मक कृतियां बनाने के बारे में सवाल भी किए। इस रोबोट का विकास ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने किया है।

साल के उत्तरार्द्ध में चीन ने तिब्बती पठार पर दुनिया की सबसे बड़ी सौर दूरबीन स्थापित की। डीएसआरटी नाम की इस दूरबीन से सौर विस्फोटों को समझने में मदद मिलेगी। इससे प्राप्त जानकारियां अन्य देशों के अनुसंधानकर्ताओं को भी उपलब्ध कराई जाएंगी।

विदा हो चुके साल में दस करोड़ साल पुराना बड़ी आंखों वाला कॉकरोच जीवाश्म मिला। अब यह प्रजाति पृथ्वी पर नहीं है। इसका वैज्ञानिक नाम हुआब्लाटुला हुई (Huablattula hui) है। यह करोड़ों वर्षों से अंबर में कैद है। अंबर में कोई भी वस्तु जीवाश्म के तौर पर करोड़ों साल तक सुरक्षित रहती है।

नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार वैज्ञानिकों ने शिशु चूहों में मनुष्य के दिमाग की कोशिकाओं को सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित किया। इस अनुसंधान से मनुष्य में तंत्रिका सम्बंधी विकारों को समझने और इलाज का मार्ग प्रशस्त हो गया है। कुछ विज्ञान पत्रिकाओं ने इस प्रयोग को साल के दस प्रमुख अनुसंधानों में स्थान दिया है।

वैज्ञानिकों के एक अंतर्राष्ट्रीय दल ने कॉकरोच और मशीनों को मिलाकर साइबोर्ग कॉकरोच बनाया है। ये कॉकरोच सौर पैनल से जुड़ी बैटरी से लैस हैं। साइबोर्ग कॉकरोच पर्यावरण की निगरानी और प्राकृतिक आपदा के बाद बचाव मिशन में सहायता करेंगे। इससे पहले वैज्ञानिक रोबोटिक चूहे बना चुके हैं।

इसी वर्ष हिग्ज़ बोसान की खोज के दस साल पूरे हुए। 4 जुलाई 2012 को वैज्ञानिकों ने नए उप-परमाणविक कण के अस्तित्व की विधिवत घोषणा की थी। इस कण को ‘गॉड पार्टिकल’ भी कहा गया है, परंतु सच पूछा जाए तो इस कण का ‘गॉड’ अथवा ‘ईश्वर’ से कोई लेना-देना नहीं है। बीते एक दशक में इस महाप्रयोग के परिणामों ने ब्रह्मांड की उत्पत्ति से सम्बंधी हमारी समझ का विस्तार किया है और इसमें कण भौतिकी की अहम भूमिका सामने आई है। वैज्ञानिकों का विचार है कि हिग्ज़ बोसॉन अनुसंधान से आने वाले दिनों में कम्प्यूटिंग और मेडिकल साइंस के क्षेत्र में नई संभावनाओं की राह खुलेगी।

इस वर्ष ‘ब्रेकथ्रू’ प्राइज़ फाउंडेशन ने साल 2023 के ‘ब्रेकथ्रू’ पुरस्कारों की घोषणा की। यह विज्ञान का अति प्रतिष्ठित और नोबेल पुरस्कार की टक्कर का पुरस्कार है, जिसकी स्थापना मार्क ज़ुकरबर्ग, सर्गेई ब्रिन और कुछ अति धनाढ्य विज्ञानप्रेमी लोगों ने मिलकर की है। इसकी पहचान ‘आस्कर ऑफ साइंस’ के रूप में है। यह पुरस्कार हर साल गणित, मूलभूत भौतिकी और जीव विज्ञान के क्षेत्र में असाधारण योगदान के लिए दिया जाता है। वर्ष 2023 के लिए गणित के क्षेत्र में डेनियल ए. स्पीलमन को सम्मानित किया गया है। मूलभूत भौतिकी के क्षेत्र में इस बार पुरस्कार चार्ल्स एच. बेनेट, गाइल्स ब्रासार्ड, डेविड डॉच और पीटर शोर को दिया गया है। जीव विज्ञान में डेमिस हैसाबिस, जॉन जम्पर, एंथनी ए. हायमन, क्लिफोर्ड ब्रैंगनाइन, इमैनुएल मिग्नाट और मसाशी यानागिसावा को कृत्रिम बुद्धि के उपयोग से प्रोटीन की संरचना की भविष्यवाणी के लिए पुरस्कृत किया गया है।

वर्ष 2022 का गणित का प्रतिष्ठित एबेल पुरस्कार अमेरिकी गणितज्ञ डॉ. डेनस पी. सुलिवान को दिया गया है। एबेल पुरस्कार को गणित का नोबेल पुरस्कार कहा जाता है। इसकी स्थापना 2002 में की गई थी।

अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में नोबेल पुरस्कारों की घोषणा की गई। इस बार विज्ञान के विभिन्न विषयों के नोबेल पुरस्कार सात वैज्ञानिकों को दिए गए। चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरस्कार स्वीडन के आनुवंशिकी वैज्ञानिक स्वांते पाबो को दिया गया है। उन्हें विलुप्त पूर्वजों से आधुनिक युग के मानव का विकास विषय पर शोध के लिए पुरस्कृत किया गया। भौतिकशास्त्र का नोबेल पुरस्कार एलेन ऑस्पेक्ट, जॉन क्लाज़र और एंटोन जेलिंगर को संयुक्त रूप से क्वांटम मेकेनिक्स में विशेष योगदान के लिए दिया गया। रसायन विज्ञान का नोबेल सम्मान कैरोलिन बर्टोजी, मोर्टन मेल्डल और बैरी शार्पलेस को प्रदान किया गया। बैरी और मोर्टन ने ‘क्लिक केमिस्ट्री’ की नींव रखी, जबकि कैरोलिन ने ‘बायोआर्थोगोनल केमिस्ट्री’ को नया आयाम दिया।

यह वही वर्ष है जब जीवाणु वैज्ञानिक डॉ. टेड्रोस अधानोम गेब्रेसियस को दूसरी बार विश्व स्वास्थ्य संगठन का महानिदेशक चुना गया। उन्होंने 2017 में यह पद संभाला था। इसके पहले गेब्रेसियस 2005 से 2012 तक इथोपिया के स्वास्थ्य मंत्री और 2012 से 2016 तक विदेश मंत्री रह चुके हैं।

15 मार्च को विख्यात भौतिकशास्त्री यूजिन पार्कर का 94 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्होंने पचास के दशक में सौर पवन के अस्तित्व का विचार रखा था। उन्हें 2003 में क्योटो और 2020 में क्रॉफोर्ड पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 3 जुलाई को फुलेरीन अणु के खोजकर्ता राबर्ट एफ. कर्ल जूनियर का 88 वर्ष की आयु में देहांत हो गया। उन्हें 1996 में कार्बन के नए अपररूप फुलेरीन की खोज के लिए रसायन विज्ञान का नोबेल सम्मान मिला था।

साल के अंत में ओमिक्रॉन वायरस के नए सब वेरिएंट बीएफ.7 की चपेट में चीन और कुछ देश आ गए। दरअसल ओमिक्रॉन वायरस बहुरूपिया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि कुछ छोटे-मोटे बदलावों को छोड़कर इसकी मुख्य संरचना ओमिक्रॉन वायरस जैसी ही होती है। नया वायरस इम्युनिटी को चकमा देने में माहिर है।

विज्ञान जगत के समीक्षकों और विश्लेषणकर्ताओं का कहना है कि अधिकांश देशों में अंतर्राष्ट्रीय मूलभूत विज्ञान वर्ष एक रस्म अदायगी की तरह संपन्न हुआ, कोई बड़ी पहल नहीं हुई। रूस और यूक्रेन युद्ध का असर वैज्ञानिक रिश्तों और वैज्ञानिक परियोजनाओं पर पड़ा। चीन सहित कई देश ‘ज़ीरो कोविड नीति’ का सख्ती से पालन कराने में विफल रहे। वातानुकूलित सभागारों में जलवायु परिवर्तन शिखर सम्मेलन और जैव विविधता सम्मेलन में अहम मुद्दों को उठाने के साथ विचारोत्तेजक चर्चाएं हुईं। लेकिन कुल मिलाकर देखा जाए तो कोई सार्थक नतीजा सामने नहीं आया। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्रकाशन और पेटेंट में आगे बढ़े भारतीय वैज्ञानिक – चक्रेश जैन

साल 2022 में भारतीय विज्ञान लगातार नई सफलताओं और उपलब्धियों की ओर अग्रसर रहा। वैज्ञानिकों और अनुसंधानकर्ताओं ने अंतरिक्ष विज्ञान से लेकर टीका निर्माण में आत्मनिर्भरता का परिचय दिया।

भारत में पिछले वर्ष अंतरिक्ष को निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया गया, जिसकी झलक 2022 में दिखाई दी। गुज़रे साल नवंबर में देश का पहला प्राइवेट रॉकेट लॉन्च किया गया। इस रॉकेट का नाम महान वैज्ञानिक विक्रम साराभाई के नाम पर ‘विक्रम एस’ रखा गया है। यह दुनिया का पहला ऑल कम्पोज़िट रॉकेट है। इसका निर्माण हैदराबाद की स्टार्ट अप कंपनी स्कायरूट एयरोस्पेस ने किया ने किया है।

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के चंद्रयान-2 ऑर्बाइटर ने चंद्रमा पर पहली बार प्रचुर मात्रा में सोडियम का पता लगाया। यह काम ऑर्बाइटर में लगे एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर ने कर दिखाया। इससे चंद्रमा पर सोडियम की सटीक मात्रा का पता लगाने का मार्ग प्रशस्त हो गया है। चंद्रयान-2 श्रीहरिकोटा से 22 जुलाई 2019 में लॉन्च किया गया था।

देश के वैज्ञानिकों ने पहली बार मंगल ग्रह पर भवन निर्माण के लिए अंतरिक्ष ईंट बनाई। इसरो और भारतीय विज्ञान संस्थान बेंगलूरू के अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष ईंटें बनाने के लिए मंगल की प्रतिकृति मिट्टी, यूरिया और एक बैक्टीरिया (स्पोरोसारसीना पाश्चुरी) का उपयोग किया। 

इसरो ने 23 अक्टूबर को जीएसएलवी-एमके-3 के ज़रिए 36 व्यावसायिक उपग्रहों का एक साथ सफल प्रक्षेपण कर नया इतिहास रचा। इसी वर्ष 26 नवंबर को ‘ओशनसेट’ उपग्रह का सफल प्रक्षेपण किया गया और जम्मू में उत्तर भारत का पहला अंतरिक्ष केंद्र शुरु हुआ। राज्य सभा में बताया गया कि इसरो अंतरिक्ष में पर्यटन क्षमताओं का विकास कर रहा है।

फरवरी में ‘विज्ञान सर्वत्र पूज्यते’ उत्सव भारत की वैज्ञानिक उपलब्धियों का गवाह बना। इसका आयोजन 22 से 28 फरवरी के दौरान देश के 75 स्थानों पर किया गया था। इस उत्सव की थीम थी: ‘दीर्घकालीन भविष्य के लिए विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में एकीकृत दृष्टिकोण की ज़रूरत’।

संसद में परिपाटी से दूर डिजिटल बजट पेश किया गया। सौर ऊर्जा और रसायन मुक्त खेती को विशेष प्राथमिकता दी गई। विज्ञान से जुड़े विभागों – डीएसटी, डीबीटी और डीएसआईआर के बजट में दो हज़ार करोड़ रुपए की बढ़ोतरी की गई। इन तीनों मंत्रालयों ने कोविड-19 महामारी से निपटने में अहम भूमिका निभाई है। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय को 2653.51 करोड़ रुपए आवंटित किए गए। महासागरीय मिशन को बढ़ावा देने के लिए 650 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया। देश के गगन यान सहित चंद्रयान और आदित्य एल-1 जैसे बड़े अभियानों को ध्यान में रखते हुए इसरो को 13,700 करोड़ रुपए आवंटित किए गए। स्टार्ट अप को प्रोत्साहित करने के लिए विज्ञान बजट में धनराशि बढ़ाई गई।

इसी साल भारत ने महिलाओं को गर्भाशय-ग्रीवा (सरवाइकल) कैंसर से बचाने के लिए क्वाड्रिवेलेंट एचपीवी वैक्सीन लॉन्च की। इस स्वदेशी वैक्सीन को सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और जैव प्रौद्योगिकी विभाग ने मिलकर बनाया है। भारत ने 18 महीनों के में दो सौ करोड़ कोविड टीके लगाए और ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल की।

गुज़रे साल आज़ादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर 5 जुलाई से 17 सितंबर के बीच 75 दिवसीय ‘स्वच्छ सागर, सुरक्षित सागर’ महाअभियान आयोजित किया गया। इसका उद्देश्य महासागरों के बारे में जागरूकता पैदा करना था।

इसी साल जैव प्रौद्योगिकी उद्योग अनुसंधान सहायता परिषद (बाइरैक) की स्थापना का एक दशक पूरा हुआ। इस सिलसिले में 09-10 जून के दौरान नई दिल्ली के प्रगति मैदान में बायोटेक स्टार्टअप एक्सपो का आयोजन किया गया था। यहां जैव प्रौद्योगिकी के अब तक के सफर और नवीनतम उपलब्धियों की झलक दिखाई दी।

जम्मू की ‘पल्ली’ देश की पहली कार्बन उदासीन पंचायत बन गई। गुज़रे साल देश की पहली स्वदेशी हाइड्रोजन ईंधन सेल आधारित बस लॉन्च की गई। इसी साल मध्यप्रदेश हिंदी में चिकित्सा विज्ञान (एमबीबीएस) पाठ्यक्रम शुरु करने वाला देश का पहला राज्य बन गया। 16 अक्टूबर को एमबीबीएस प्रथम वर्ष के लिए हिंदी में प्रकाशित तीन पुस्तकों का विमोचन हुआ।

भारत की पहली नाइट स्काई सेंक्चूरी लद्दाख में बनाई जाएगी। गुजरात में देश का पहला सेमीकंडक्टर संयंत्र स्थापित किया जा रहा है। सेमीकंडक्टर का उपयोग कारों से लेकर मोबाइल फोन और एटीएम कार्ड के निर्माण में किया जाता है। अनुमान है कि 2026 तक भारत का सेमीकंडक्टर बाज़ार 64 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा।

17 सितंबर को नामीबिया से लाए गए आठ चीतों को मध्यप्रदेश के कुनो राष्ट्रीय उद्यान में छोड़ा गया। बड़े मांसाहारी जंगली जानवरों के अंतर महाद्वीपीय स्थानांतरण की यह विश्व की पहली परियोजना है। इसी साल चीतों को भारत लाने के लिए एक एमओयू पर हस्ताक्षर किए गए थे।

जनवरी, 2022 में हैदराबाद में देश के प्रथम ओपन रॉक म्यूज़ियम का शुभारंभ हुआ। इस म्यूज़ियम में भारत के विभिन्न भागों से एकत्रित की गई 35 अलग-अलग प्रकार की चट्टानें प्रदर्शित की गई हैं। म्यूज़ियम का उद्देश्य जन सामान्य को रोचक भू-वैज्ञानिक जानकारियों से परिचित कराना है।

साइंस सिटी अहमदाबाद में पहली बार देश के सभी राज्यों के विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रियों का सम्मेलन हुआ, जिसमें वर्ष 2047 का वैज्ञानिक रोडमैप तैयार करने पर विमर्श हुआ।

अक्टूबर में वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) की शोध प्रयोगशालाओं के प्रमुखों की बैठक में अनाज और बाजरे की नई किस्मों में पौष्टिकता बढ़ाने के लिए तकनीकी समाधान पर विचार किया गया। संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2023 को ‘इंटरनेशनल ईयर ऑफ मिलेट्स’ (आईवाईएम) घोषित किया है। भारत मोटे अनाज पैदा करने वाले अग्रणी देशों में शामिल है। विश्व पैदावार में भारत का अनुमानित योगदान लगभग 41 फीसदी है।

इसी वर्ष भारत की पहली तरल दर्पण दूरबीन उत्तराखंड में आर्यभट रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ आब्ज़र्वेशनल साइंसेज़ की देवस्थल वेधशाला परिसर में स्थापित की गई। इसे भारत सहित तीन देशों के वैज्ञानिकों के सहयोग से स्थापित किया गया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि तरल दर्पण दूरबीन खगोलीय दृश्यों के अवलोकन के साथ ही अंतरिक्ष मलबे, क्षुद्रग्रह आदि परिवर्तनशील वस्तुओं की पहचान में भी मददगार होगी।

9 अक्टूबर को गुजरात का मोढेरा गांव देश का पहला ऐसा गांव बन गया, जो पूरी तरह सौर ऊर्जा से चलेगा। दिन में सोलर पैनल से और रात को बैटरी से बिजली की आपूर्ति की जाएगी।

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग की मेज़बानी में दूसरी संयुक्त राष्ट्र भू-स्थानिक सूचना कांग्रेस 10-14 अक्टूबर के दौरान हैदराबाद में संपन्न हुई, जिसमें 120 देशों के लगभग 700 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस आयोजन में विचार मंथन का मुख्य विषय ‘जियो इनेबलिंग दी ग्लोबल विलेज, नो वन शुड बी लेफ्ट बिहाइंड’ चुना गया था। भू-स्थानिक यानी जियो स्पेशियल डैटा सभी क्षेत्रों में विकास रणनीतियों और जनहित योजनाओं को तैयार करने में बेहद उपयोगी है। यही नहीं पिछड़े क्षेत्रों की पहचान करके उनके आर्थिक और सामाजिक विकास में इसकी अहम भूमिका सामने आई है। सटीक भू-स्थानिक सूचनाओं ने कोविड-19 महामारी से कारगर ढंग से निपटने में बहुत सहायता की थी।

साल 2022 में जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति (जीईएसी) ने जेनेटिक रूप से परिवर्तित (जीएम) सरसों को मंज़ूरी दे दी। हमारे यहां जीएम फसलों का पर्यावरण पर पड़ने वाले कुप्रभावों को लेकर विरोध हो रहा है। देश में पिछले दो दशकों से जीएम फसलों की खेती की अनुमति को लेकर विभिन्न मंचों पर बहस जारी है।

इसी वर्ष रुड़की स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के 175 वर्ष पूरे हुए। यह 1847 में स्थापित देश का पहला इंजीनियरिंग कॉलेज था। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, रुड़की का विश्व स्तरीय शिक्षा देने के साथ शोधकार्यों में भी अहम योगदान रहा है। यह वही संस्थान है, जिसने देश को सिविल इंजीनियरिंग के क्षेत्र में विभिन्न नवाचार दिए हैं।

इसी वर्ष होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम (एचएसटीपी) के 50 वर्ष पूरे हुए। यह कार्यक्रम 1972 में किशोर भारती और फ्रेंड्स रूरल सेंटर ने मिलकर शुरू किया था, जिसका उद्देश्य ग्रामीण इलाकों के स्कूली बच्चों के विज्ञान शिक्षण में नवाचारों को बढ़ावा देना था। विज्ञान शिक्षण के इस अभिनव कार्यक्रम में मध्यप्रदेश के 14 ज़िलों की लगभग 600 माध्यमिक शालाओं के बच्चों के बच्चे शामिल थे।

मौलिक चिंतक और वैज्ञानिक डॉ. अनिल सद्गोपाल और उनके सहयोगियों ने इस कार्यक्रम से टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च और उच्च विज्ञान शिक्षण संस्थाओं को जोड़ने में सफलता प्राप्त की। बाद में मध्यप्रदेश सरकार ने इस कार्यक्रम से प्रभावित होकर होशंगाबाद जिले की सभी सरकारी/निजी माध्यमिक शालाओं को इससे जोड़ दिया। वर्ष 1982 में एकलव्य की स्थापना के साथ एचएसटीपी ने नए दौर में प्रवेश किया।

जनवरी में रॉकेट विज्ञान के विशेषज्ञ डॉ. एस. सोमनाथ को इसरो का चेयरमैन नियुक्त किया गया। उन्होंने स्वदेशी क्रॉयोजेनिक इंजन और पीएसएलवी के ग्यारह सफल प्रक्षेपणों में अहम भूमिका निभाई है। इसी वर्ष वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. एन. कलैसेल्वी को सीएसआईआर का महानिदेशक नियुक्त किया गया। वे इस पद पर पहुंचने वाली पहली महिला वैज्ञानिक हैं। विज्ञान जगत की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर ने वर्ष 2023 के लिए चुने गए पांच विषिष्ट व्यक्तियों की सूची में डॉ. एन. कलैसेल्वी को भी शामिल किया है। केंद्रीय विद्युत रासायनिक अनुसंधान संस्थान कराईकुडी में निदेशक और वरिष्ठ वैज्ञानिक रह चुकी डॉ. कलैसेल्वी ने लीथियम आयन बैटरी के क्षेत्र में शोध कार्य के लिए ख्याति प्राप्त की है।

नेशनल साइंस फाउंडेशन की रिपोर्ट के एक अनुसार भारत वैज्ञानिक प्रकाशनों की ग्लोबल रैंकिंग में सातवें पायदान से तीसरे पायदान पर पहुंच गया है। एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले तीन वर्षों में भारतीय वैज्ञानिक पेटेंट दुगने हो गए।

जुलाई में डोंगरी भाषा में विज्ञान लोकप्रियकरण की प्रथम पत्रिका का प्रकाशन विज्ञान प्रसार, नई दिल्ली, के सहयोग से आरंभ हुआ। गुज़रे साल एक पायलट प्रोजेक्ट के तहत जयपुर से दैनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण समाचार पत्र का ऑनलाइन संस्करण प्रकाशित किया गया।

सितंबर में सूरत में आयोजित एक कार्यक्रम में देश की सबसे लोकप्रिय विज्ञान पत्रिका विज्ञान प्रगति को राष्ट्रीय राजभाषा कीर्ति पुरस्कार प्रदान किया गया। इसका प्रकाशन 1952 में सीएसआईआर के प्रकाशन निदेशालय ने आरंभ किया था। यह पत्रिका देश भर के विज्ञानप्रेमी पाठकों द्वारा पढ़ी जाती है, जिनमें विद्यार्थियों से लेकर अनुसंधानकर्ता और वैज्ञानिक तक सम्मिलित हैं।

राष्ट्रीय विज्ञान दिवस पर पिछले साल विज्ञान संचार और विज्ञान लोकप्रियकरण के क्षेत्र में विशेष योगदान करने वाली दो संस्थाओं और नौ लोगों को पुरस्कृत किया गया। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार में विशेष योगदान के लिए केरल की पी. एन. पणिक्कर फाउंडेशन को राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान किया गया। नवाचारों और परंपरागत तरीकों से विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार में विशेष योगदान के लिए उत्तरप्रदेश के नेशनल एसोसिएशन फॉर वालंटरी इनिशिएटिव एंड कोऑपरेशन को पुरस्कृत किया गया।

इस वर्ष पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्मश्री पुरस्कारों से सम्मानित व्यक्तियों में आठ वैज्ञानिक भी शामिल हैं। भारतीय मूल के खाद्य वैज्ञानिक डॉ. संजय राजाराम ने गेहूं की 480 से ज़्यादा किस्में विकसित की हैं, जिन्हें लगभग 51 देशों में उगाया जा रहा है। उन्हें यह सम्मान मरणोपरांत दिया गया है। उन्हें सन 2001 में पद्मश्री और 2014 में विश्व खाद्य पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।

कर्नाटक के पर्यावरण वैज्ञानिक डॉ. सुब्बन्ना अय्यप्पन, भारतीय सांख्यिकी संस्थान, कोलकाता की प्रो. संघमित्रा बंद्योपाध्याय, एशियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ, भुवनेश्वर के कुलपति प्रो. आदित्य प्रसाद दास, राष्ट्रीय डेयरी अनुसंधान संस्थान, करनाल के पूर्व निदेशक (रिसर्च), निम्बकर कृषि अनुसंधान संस्थान, फलटण, महाराष्ट्र के डॉ. अनिल कुमार राजवंशी, स्वतंत्र शोधकर्ता, प्रयागराज उत्तरप्रदेश के डॉ. अजय कुमार सोनकर और राष्ट्रीय फॉरेंसिक विज्ञान विश्वविद्यालय, गुजरात के कुलपति डॉ. जयंत कुमार मगनलाल व्यास को पद्मश्री से सम्मानित किया गया। मध्यप्रदेश के चिकित्सक डॉ. नरेन्द्र प्रसाद मिश्रा को भोपाल गैस पीड़ितों और कोविड-19 के लिए उपचार प्रोटोकॉल विकसित करने में विशेष योगदान के लिए मरणोपरांत पद्मश्री से सम्मानित किया गया।

हिंदी दिवस पर आयोजित विशेष समारोह में मध्यप्रदेश शासन द्वारा स्थापित गुणाकर मुले सम्मान ‘इलेट्रॉनिकी आपके लिए’ पत्रिका के संपादक संतोष चौबे को प्रदान किया गया। उन्हें यह सम्मान हिंदी में विज्ञान लेखन को बढ़ावा देने के लिए दिया गया है।

23 मई को वरिष्ठ विज्ञान लेखक शुकदेव प्रसाद का देहांत हो गया। इलाहाबाद में जन्मे शुकदेव प्रसाद ने स्वतंत्र विज्ञान पत्रकारिता के क्षेत्र में विशेष पहचान बनाई। उन्होंने समाचार पत्रों, संवाद एजेंसियों और विज्ञान पत्रिकाओं में लगभग तीन हज़ार आलेख लिखे। विज्ञान भारती और विज्ञान वैचारिकी पत्रिकाओं का संपादन भी किया। शुकदेव प्रसाद ने विज्ञान कथाओं पर केंद्रित छह खंडों में प्रकाशित विज्ञान कथा कोश का संपादन किया। उन्हें कई प्रतिष्ठित सम्मान मिले, जिनमें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, डॉ. आत्माराम और मेघनाथ साहा पुरस्कार उल्लेखनीय हैं।

वर्ष 2022 के दौरान छह भारतीय वैज्ञानिकों की जन्मशती मनाई गई। शुरुआत नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ. हरगोविन्द खुराना की जन्मशती से हुई। 9 जनवरी 1922 को जन्मे डॉ. खुराना को कोशिकाओं में प्रोटीन संश्लेषण में जेनेटिक कोड की भूमिका पर मौलिक अनुसंधान के लिए 1968 में चिकित्सा विज्ञान के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। आज विश्व भर में प्रयुक्त हो रही जीनोम सीक्वेंसिंग तकनीक के पुरोधा डॉ. हरगोविन्द खुराना थे।

जनवरी में ही राजेश्वरी चटर्जी की जन्मशती मनाई गई। 24 जनवरी 1922 को जन्मी राजेश्वरी चटर्जी को कर्नाटक से पहली महिला इंजीनियर होने का विशेष सम्मान प्राप्त है। उन्होंने माइक्रोवेव और एंटीना इंजीनियरिंग में विशेष योगदान किया। राजेश्वरी चटर्जी के शोधकार्य का उपयोग अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में किया गया।

30 जनवरी को विख्यात न्यूरोसर्जन प्रो. बी. रामामूर्ति की जन्मशती पर विभिन्न आयोजन हुए और उन्हें याद किया गया। भारत में उन्हें न्यूरो सर्जरी के पितृ पुरुष का सम्मान प्राप्त है। उन्हें भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान एकेडमी (इन्सा) का मानद सदस्य नियुक्त किया गया था।

प्रो. जी. एस. लड्ढा का जन्मशती के मौके पर स्मरण किया गया। 26 अगस्त 1922 को जन्मे केमिकल इंजीनियर जी. एस. लड्ढा ने आज़ादी के पहले देश में अनेक रासायनिक उद्योगों की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान किया था। प्रो. लड्ढा ने भौतिकी में क्रिस्टल ग्रोथ में विशेष शोधकार्य किया था।

वर्ष 2022 में वैज्ञानिक येलावर्ती नायुडम्मा की जन्मशती पर सीएसआईआर की मद्रास स्थित केंद्रीय चमड़ा अनुसंधान प्रयोगशाला में विचार गोष्ठियों का आयोजन हुआ। नायुडम्मा का जन्म 10 सितंबर 1922 के दिन हुआ था। उन्होंने केंद्रीय चमड़ा अनुसंधान प्रयोगशाला में एक छोटे से पद से अपना करियर शुरू किया और आगे चलकर इसी संस्थान के निदेशक और बाद में सीएसआईआर के महानिदेशक पद तक पहुंचे। उन्हें पद्मश्री सहित अनेक राष्ट्रीय सम्मान मिले।

इसी साल अक्टूबर में डॉ. जी. एन. रामचंद्रन की जन्मशती मनाई गई। वे उन कुछ चुनिंदा भारतीय वैज्ञानिकों में शामिल थे, जिन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया था। वे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने कोलेजन की ट्रिपल हेलिकल संरचना का विचार प्रस्तुत किया था। इस महत्त्वपूर्ण खोज ने उन्हें विश्व भर में प्रसिद्धि दिलाई थी। उन्हें 1961 में शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या आप दीर्घ कोविड से पीड़ित हैं?

कोविड-19 से उबरने के बाद भी कई लोगों को हफ्तों या महीनों तक थकान और सिरदर्द जैसी शिकायतें हो रही हैं। ऐसी स्थिति में कई लोग असमंजस में हैं कि वे पूरी तरह ठीक हो पाएंगे या नहीं। इस स्थिति को दीर्घ-कोविड का नाम दिया गया है।

एक हालिया अध्ययन में स्कॉटलैंड के शोधकर्ताओं ने 31,000 से अधिक लक्षण-सहित संक्रमित लोगों का सर्वेक्षण किया। 42 प्रतिशत लोग संक्रमण के 6 से 18 महीने के बाद भी पूरी तरह से ठीक नहीं हुए थे। सवाल यह है कि ऐसा कब तक चलेगा या क्या कभी वे ठीक नहीं होंगे।

दरअसल, इसका अभी कोई ठोस उत्तर हमारे पास नहीं है लेकिन यह शोध का एक महत्वपूर्ण विषय है। हारवर्ड मेडिकल स्कूल के न्यूरोसाइंटिस्ट माइकल वैनएल्ज़कर के अनुसार दीर्घ कोविड की पुष्टि करने के लिए अभी तक न तो कोई नैदानिक परीक्षण है और न ही यह पता है कि यह कौन-से लक्षण पैदा करता है।

एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि कोविड से कुछ लोग तो पूरी तरह ठीक हो गए हैं जबकि कुछ लोगों में दीर्घ कोविड की समस्या बनी हुई है। 

क्या है दीर्घ कोविड?

वास्तव में अभी तक इसके लक्षण, इसके निदान से पहले बीमार रहने की मियाद और इस समस्या का सामना कर रहे लोगों की संख्या का पता लगाने के लिए कोई चिकित्सीय सहमति नहीं बन पाई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार कोविड-उपरांत स्थिति तब कही जाएगी जब कोविड संक्रमण के बाद कम-से-कम तीन महीने तक लक्षण बने रहें। दूसरी ओर, यू. एस. सेंटर्स फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन ने इस अवधि को चार सप्ताह रखा है। इसे पोस्ट-एक्यूट सीक्वल ऑफ सार्स-कोव-2 (पीएएससी), स्थायी कोविड, दीर्घकालिक कोविड जैसे कई अन्य नाम भी दिए गए हैं।     

कई बड़े-बड़े अध्ययनों के बाद भी स्पष्ट नहीं है कि कितने लोग दीर्घकालिक लक्षणों से पीड़ित हैं। जर्मनी में किए गए एक अध्ययन में 96 संभावित लक्षणों की पहचान की गई थी और ये लक्षण उन लोगों में पाए गए थे जिनको पूर्व में संक्रमण हुआ है। युवा लोगों में आम तौर पर थकान, खांसी, गले और सीने में दर्द, सिरदर्द, बुखार, पेटदर्द, चिंता और अवसाद जैसे लक्षण देखने को मिले हैं जबकि वयस्कों में गंध और स्वाद में बदलाव, बुखार, सांस लेने में परेशानी, खांसी, गले और सीने में दर्द, बालों का झड़ना, थकान और सिरदर्द जैसे लक्षण मिले हैं।

स्कॉटलैंड में किए गए एक अध्ययन में सिरदर्द, स्वाद और गंध की कमी, थकान, दिल की अनियमित धड़कन, कब्ज, सांस फूलना, जोड़ों में दर्द, चक्कर आना और अवसाद जैसे 26 लक्षणों पर विचार किया गया था। लेकिन पेचीदगी यह रही कि कोविड परीक्षण में पॉज़िटिव न आने वाले लोगों में भी ऐसे कई लक्षण देखे गए।

स्कॉटलैंड अध्ययन में 42 प्रतिशत लोगों में हल्के-फुल्के लक्षण देखने को मिले जबकि 6 प्रतिशत लोगों ने बताया कि वे अभी तक पूरी तरह ठीक नहीं हुए हैं। जर्मन शोधकर्ताओं ने एक अध्ययन में यह दावा किया कि कोविड परीक्षण में पॉज़िटिव न आने वाले लोगों की तुलना में कोविड संक्रमित वयस्कों, बच्चों और किशोरों में 30 प्रतिशत अधिक लोगों में तीन महीनों तक कोविड लक्षण होने की संभावना है। सीडीसी द्वारा किए गए सर्वेक्षण में 41,000 में से 14 प्रतिशत लोगों ने कोविड संक्रमण के तीन महीने बाद भी कोविड के लक्षण होने की बात बताई है। इन सभी अध्ययनों से यह स्पष्ट है कि हर पांच में से एक से लेकर हर 20 में से एक व्यक्ति में दीर्घ कोविड के लक्षण देखने को मिल रहे हैं।  

सुधार की संभावना

अभी तक हमारे पास ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे यह कहा जा सके कि दीर्घ-कोविड कितने दिन चलेगा। माउंट सिनाई सेंटर फॉर पोस्ट-कोविड केयर में आने वाले अधिकांश रोगियों में तो काफी सुधार देखने को मिला लेकिन 10 प्रतिशत लोगों में कोई सुधार नहीं दिखा। 

इनमें से कुछ लोग मायएलजिक एंसेफेलोमाइलाइटिस (एमई/सीएफएस) या स्थायी थकान सिंड्रोम से ग्रसित हो सकते हैं। यह स्थिति विभिन्न वायरल संक्रमणों के बाद उभरती है। वैनएल्ज़कर के अनुसार एपस्टाइन-बार नामक वायरस से ग्रसित 10 प्रतिशत लोग एमई/सीएसएफ से ग्रसित हुए थे। उन्हें कोविड रोगियों में भी इसी तरह की समस्या का संदेह है। अलबत्ता, ऐसे भी लोग हैं जिनकी कोविड सम्बंधी समस्याएं पूरी तरह खत्म हो गई हैं।

कारण

विशेषज्ञों के अनुसार वर्तमान लक्षण वाले लोगों में इसके कई संभावित कारण हो सकते हैं और उपचार करने के लिए कारणों को समझना ज़रूरी है। एक शोध के अनुसार सार्स-कोव-2 वायरस कई लोगों के शरीर में बस जाता है और कोविड से उबरने के बाद भी लंबे समय तक शरीर में उपस्थित रहता है। 2020 और 2021 में कोविड से मृत 44 लोगों पर किए गए अध्ययन में मस्तिष्क, हृदय और आंतों सहित कई अंगों में सात महीनों से अधिक समय तक सार्स-कोव-2 के स्पाइक प्रोटीन के साक्ष्य मिले थे। ये साक्ष्य अलक्षणी लोगों में भी पाए गए। यह भी देखा गया कि कुछ लोगों में वायरस तीन महीनों तक अपनी प्रतिलिपि बनाता रहा।

वायरस की उपस्थिति रक्त परीक्षणों में नहीं मिलती। इसके लिए दीर्घ-कोविड रोगियों की आंतों और फेफड़ों से नमूने एकत्रित कर वायरस के ठिकानों का पता लगाना होगा।          

शरीर में वायरस के ठिकानों और तकलीफों के संभावित कारणों का पता चलने पर उपचार में मदद मिलेगी। उदारहण के लिए, गंभीर निमोनिया जैसे लक्षणों वाले रोगियों को सांस सम्बंधी पुनर्वास से लाभ हो सकता है जबकि इस तरह का उपचार एमई/सीएफएस वाले रोगियों के लिए घातक हो सकता है। लगातार कोविड के लक्षण वाले रोगियों को एंटीवायरल उपचार से काफी मदद मिल सकती है लेकिन दीर्घ कोविड वाले रोगियों को इस तरह का उपचार देना उचित नहीं है।      

क्या करें

विशेषज्ञों की राय है कि यदि लक्षण चार सप्ताह से अधिक समय तक बने रहते हैं तो डॉक्टर से सलाह लेना बेहतर है। शुरुआत में कुछ बुनियादी जांचों के साथ हृदय और फेफड़ों की जांच ज़रूरी है। यदि ये लक्षण 12 हफ्तों से अधिक समय तक बने रहते हैं तब विशेषज्ञ उच्च स्तरीय जांच के साथ अधिक आक्रामक इलाज की सलाह देते हैं। चूंकि इस महामारी के दौरान सभी ने एक मुश्किल दौर झेला है इसलिए मानसिक स्वास्थ्य की जांच कराना भी ज़रूरी है। एमई/सीएफएस की जानकारी सहायक हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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