ठंडक के लिए कमरे को ठंडा करना ज़रूरी नहीं! – एस. अनंतनारायणन

र्मी से राहत पाने के लिए हम अपने कमरे या अपने आसपास की जगह को ठंडा करने का जो तरीका अपनाते हैं, उससे हम उन चीजों को भी ठंडा कर देते हैं जिन्हें ठंडा करने की ज़रूरत नहीं होती। किसी कमरे में मौजूद चीज़ों की ऊष्मा धारिता, जिन्हें एयर कंडीशनर (एसी) ठंडा कर देता है, लोगों की ठंडक की ज़रूरत की तुलना में कई गुना अधिक होती है।

हाल ही में ETH इंस्टीट्यूट के सिंगापुर परिसर के एरिक टिटेलबौम और उनके दल ने प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में ‘विकिरण शीतलन’ (रेडिएटिव कूलिंग) पर एक अध्ययन प्रकाशित किया है। इस तकनीक में शरीर की गर्मी बाहर निकलेगी और शरीर ठंडा तो होगा लेकिन आसपास की चीज़ों को ठंडा करने में ऊर्जा ज़ाया नहीं होगी।

जिस तरह हम किसी वस्तु पर रंगीन रोशनी तो डाल सकते हैं, लेकिन हम उस पर ‘अंधेरा’ नहीं डाल सकते, उसी तरह गर्म वस्तुएं अपनी गर्मी तो बाहर छोड़ती या बिखेरती हैं, लेकिन ठंडी चीज़ें अपनी ‘ठंडक’ बाहर छोड़ती या फैलाती नहीं हैं। लेकिन ठंडी चीज़ें जितनी ऊष्मा उत्सर्जित करती हैं उसकी तुलना में अधिक ऊष्मा अवशोषित करती हैं। और ठंडी चीज़ों की मौजूदगी गर्म चीजों को अपनी ऊष्मा खोने और ठंडी होने में मदद करती है – तो सवाल सिर्फ उन चीज़ों को शीतल करने का है जिन्हें ठंडा करने की ज़रूरत है।

आम तौर पर हम गर्मी के मौसम में लोगों को ठंडक देने के लिए जिस तरीके का उपयोग करते हैं, वह है एयर कंडीशनिंग या वातानुकूलन। इसमें कमरों में ठंडी हवा छोड़ी जाती है। और सर्दियों में लोगों को गर्माहट देने के लिए हम ‘रेडिएटर्स’ या गर्म वस्तुओं का उपयोग करते हैं, जो कमरे की हवा को गर्म कर देते हैं, हालांकि लोग सीधे भी इन रेडिएटर्स की गर्मी को महसूस कर सकते हैं।

ठंडा करने के लिए एकमात्र व्यावहारिक तरीका है कि हवा को शीतलक से गुज़ार कर ठंडा किया जाए, और फिर इस ठंडी हवा को कमरे में फैलाया जाए (सिर्फ पंखे का उपयोग करें तो उसकी हवा से शरीर का पसीना वाष्पित होकर थोड़ी ठंडक महसूस कराता है)। इस तरह ठंडे किए जा रहे कमरे में लोग ठंडक या आराम महसूस करने लगें उसके पहले ठंडी हवा को दीवारों, फर्नीचर और फर्श को ठंडा करना पड़ता है।

मानव शरीर का तापमान लगभग 37 डिग्री सेल्सियस रहता है। चूंकि आसपास का परिवेश आम तौर पर अपेक्षाकृत ठंडा होता है, तो शरीर के भीतर ऊष्मा उत्पादन और बाहर ऊष्मा ह्रास के बीच संतुलन रहता है। यह ऊष्मा ह्रास मुख्य रूप से विकिरण के माध्यम से होता है; इस प्रक्रिया में गर्म शरीर परिवेश से अवशोषित ऊष्मा की तुलना में अधिक ऊष्मा बिखेरता है। कुछ ऊष्मा ह्रास हवा के संपर्क से भी होता है, लेकिन इस तरह से बहुत ज़्यादा ऊष्मा बाहर नहीं जाती है, क्योंकि हवा की ऊष्मा धारिता कम होती है।

समस्या तब शुरू होती है जब गर्मी के दिनों में बाहर का परिवेश शरीर की तुलना में गर्म हो जाता है, और शरीर पर्याप्त ऊष्मा नहीं बिखेर पाता। एकमात्र तरीका होता है कि पसीना आए जिसके वाष्पीकरण के माध्यम से शरीर की गर्मी बाहर निकल सके, लेकिन आसपास का परिवेश उमस (नमी) भरा हो तो पसीना आना कारगर नहीं होता है बल्कि बेचैनी बढ़ जाती है क्योंकि पसीने का वाष्पीकरण नहीं हो पाता।

प्रोसिडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में शोधकर्ताओं ने जिस तरीके का उपयोग किया है उसमें उन्होंने कमरे में एक विशेष रूप से निर्मित पर्याप्त ‘ठंडी’ सतह लगाई है जो मानव शरीर द्वारा उत्सर्जित ऊष्मा को अवशोषित तो करेगी लेकिन उसे पर्यावरण में वापस नहीं छोड़ेगी – यानी यह एकतरफा रास्ते (वन-वे) की तरह काम करेगी।

तो सवाल है कि कोई भी ठंडी सतह यह काम क्यों नहीं कर सकती? इसलिए कि कमरे की कोई भी साधारण सतह या चीज़ आसपास बहती गर्म हवा के संपर्क में आकर जल्दी गर्म हो जाएगी। इसके अलावा, हवा में मौजूद नमी ठंडी सतह पर संघनित हो जाएगी। और संघनन की प्रक्रिया से अत्यधिक ऊष्मा मुक्त होती है। वातानुकूलन के मामले में, दरअसल, कमरे में प्रवाहित हो रही हवा को सुखाने में जितनी ऊर्जा लगती है, वह ऊर्जा उस हवा को ठंडा करने में लगने वाली ऊर्जा से कहीं अधिक होती है। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने जो व्यवस्था बनाई है वह इन दोनों प्रभावों को ध्यान रखती है और ठंडी सतह को केवल उस पर पड़ने वाले विकिरण द्वारा ऊष्मा सोखने देती है।

शोधकर्ताओं द्वारा बनाई गई यह व्यवस्था धातु की चादर लगी एक दीवार थी जिसे ठंडे किए गए पानी की मदद से 17 डिग्री सेल्सियस पर रखा गया था। इस व्यवस्था को उन्होंने सिंगापुर में एक तंबू को ठंडा करने में आज़माया, जिसका तापमान लगभग 30 डिग्री सेल्सियस था। आम तौर पर, हवा (संवहन द्वारा) धातु की चादर को गर्म कर देती है। लेकिन यहां ऐसा न हो इसलिए इस व्यवस्था में एक कम घनत्व वाली पॉलीएथलीन झिल्ली को इंसुलेटर के रूप में धातु की चादर के ऊपर लगाया गया था। अध्ययन के अनुसार, “…हम ऊष्मा स्थानांतरण के इस अवांछित संवहन को हटा पाए”। बहरहाल, यह झिल्ली विकिरण ऊष्मा के लिए पारदर्शी थी, और तंबू में मौजूद लोगों के गर्म शरीर का ऊष्मा विकिरण इससे गुज़र सकता था ताकि उसे अंदर की ठंडी सतह सोख सके।

हवा से संपर्क वाली सतह को इन्सुलेशन झिल्ली ने अधिक ठंडा होने से बचाए रखा जिसकी वजह से संघनन नहीं हो पाया। परीक्षणों में देखा गया कि 66.5 प्रतिशत आर्द्रता होने पर भी 23.7 डिग्री सेल्सियस (जिस तापमान पर संघनन शुरू होता है) पर भी दीवार की सतह पर कोई संघनन नहीं हुआ था। अध्ययन के अनुसार, दीवार के अंदर से गुज़रता ठंडा पानी संघनन तापमान से भी कम, 12.7 डिग्री सेल्सियस, तक भी ठंडा रखा जा सकता है।

मानव आराम के बारे में क्या? सिंगापुर में 8 से 27 जनवरी के दौरान, जब वहां गर्मी का मौसम पड़ता है, 55 लोगों के साथ यह देखा गया कि उन्होंने कैसी ठंडक महसूस की। 55 लोगों में से 37 लोगों ने तंबू में तब प्रवेश किया था जब शीतलन प्रणाली चालू थी, और बाकी 18 लोगों ने तब प्रवेश किया जब शीतलन प्रणाली बंद थी। जिस समूह ने शीतलन प्रणाली चालू रहते प्रवेश किया था, उन्होंने 79 प्रतिशत दफे तंबू में तापमान ‘संतोषजनक’ बताया। यह देखा गया कि वहां मौजूद गर्म वस्तुओं ने अपनी गर्मी अवशोषक दीवार को दे दी थी। और सबसे गर्म ‘वस्तुएं’ मनुष्य थे और उन्होंने ही सबसे अधिक ऊष्मा गंवाई। हालांकि, हवा (या तंबू) का तापमान बमुश्किल ही कम हुआ था, 31 डिग्री सेल्सियस से घटकर यह सिर्फ 30 डिग्री सेल्सियस हुआ था। इस अंतिम अवलोकन से पता चलता है कि हवा को ठंडा करने में बहुत कम ऊर्जा खर्च हो रही थी, जबकि पारंपरिक शीतलन प्रणालियों में तापमान घटाने के लिए मुख्य वाहक हवा ही होती है।

इस तरह इस अध्ययन में प्रस्तुत यह तकनीक एयर कंडीशनर की जगह बखूबी ले सकती है। शोधकर्ताओं का कहना है कि इस तकनीक से ऊर्जा की खपत में 50 प्रतिशत तक कमी आ सकती है, सिर्फ ऊष्मा सोखने वाली दीवारों तक ठंडे पानी को पहुंचाने में ऊर्जा लगेगी। यह इस लिहाज़ से महत्वपूर्ण है कि विश्व की कुल ऊर्जा खपत में से एयर कंडीशनिंग की ऊर्जा एक बड़ा हिस्सा है और इसके बढ़ने की संभावना है। नई प्रणाली का एक अन्य लाभ यह है कि ठंडे किए जा रहे स्थान खुली खिड़की वाले, हवादार भी हो सकते हैं। एयर कंडीशनिंग में, किफायत के लिहाज से यह मांग होती है कि अधिकांश ठंडी हवा को पुन: कमरे में घुमाया जाता रहे। तब ऑफिस में यदि कोई व्यक्ति सर्दी-ज़ुकाम (या ऐसे ही किसी संक्रमण) से पीड़ित हो तो पूरी संभावना है कि वह बाकियों को भी अपना संक्रमण दे देगा।

विकिरण शीतलन (रेडिएंट कूलिंग) की तकनीक काम करती है क्योंकि मानव शरीर से निकलने वाली ऊष्मा आसपास की हवा द्वारा नहीं सोखी जाती है जिसे वापिस मुक्त कर दिया जाए; वह तो ठंडी सतह तक पहुंच सकती है। वैसे, धरती के पैमाने पर देखें तो वायुमंडल ऊष्मा को पृथ्वी से बाहर नहीं निकलने देता है, यही कारण है कि रात में पृथ्वी बहुत ठंडी नहीं होती है (और इसलिए वायुमंडल में परिवर्तन वैश्विक तापमान बढ़ने का कारण बन रहे हैं)। हालांकि, 8-13 माइक्रोमीटर तरंग दैर्घ्य के लिए हमारा वायुमंडल ऊष्मा के लिए पारदर्शी है। इस परास की तरंग दैर्घ्य वाला ऊष्मा विकिरण वायुमंडल से बाहर सीधे अंतरिक्ष में जाता है। इस तथ्य का फायदा उठाने के लिए वस्तुओं को ऐसी फिल्म या शीट से ढंका जाता है जो वस्तुओं से निकलने वाली गर्मी को वांछित रेंज की तरंग दैर्घ्य में परिवर्तित कर दें। नतीजा यह होता है कि धूप में रखी जाने पर ये वस्तुएं रेडिएटिव कूलिंग के माध्यम से परिवेश की तुलना में 4-5 डिग्री सेल्सियस तक ठंडी हो सकती हैं। यह तकनीक ‘ग्रीन’ कोल्ड स्टोरेज और सौर ऊर्जा पैनल, जो गर्म होने पर कम कुशल हो जाते हैं, के लिए उपयोगी हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कार्बन डाईऑक्साइड: उत्सर्जन घटाएं या हटाएं?

हालिया जलवायु सम्मेलनों में नेट-ज़ीरो उत्सर्जन काफी चर्चा में रहा। इसमें नेट शब्द का अर्थ है कि हम सिर्फ उत्सर्जन कम करने पर नहीं बल्कि कार्बन डाईऑक्साइड को वातावरण में हटाने पर भी ध्यान दें। एक विचार यह है कि सिर्फ उत्सर्जन कम करके हम 1.5 या 2 डिग्री वृद्धि का लक्ष्य नहीं पा सकेंगे।

फिलहाल उड्डयन और नौपरिवहन ग्रीनहाउस गैसों के सबसे बड़े स्रोत हैं, और आगे भी बने रहने की संभावना है। ऐसे में बड़े पैमाने पर कार्बन उत्सर्जन को पूरी तरह समाप्त नहीं किया जा सकता है। इसलिए कार्बन डाईऑक्साइड रिमूवल (सीडीआर) की भी आवश्यकता है।

सीडीआर का ऐतिहासिक तरीका पेड़ लगाना रहा है, लेकिन वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड हटाकर भूमि, समुद्र या अन्य स्थानों पर संग्रहित कर देना शायद अधिक टिकाऊ साबित हो।

वर्तमान में कई कंपनियां विभिन्न सीडीआर तकनीकों को जलवायु समाधान के रूप में प्रस्तुत कर रही हैं। इस विषय में प्राकृतिक कार्बन चक्र और हाल ही में सीडीआर तकनीकों पर काम कर रहे डेविड टी. हो लंबी अवधि के लिए सीडीआर तकनीकों को विकसित करने के पक्ष में तो हैं लेकिन थोड़े संशय में हैं। गौरतलब है कि पूर्व में डायरेक्ट एयर कैप्चर (डीएसी) तकनीक का छोटे स्तर पर प्रदर्शन किया गया था जो रासायनिक तरीकों से कार्बन डाईऑक्साइड को वातावरण से बाहर करती है। इसके लिए 2022 में यू.एस. बायपार्टीज़न इंफ्रास्ट्रक्चर कानून ने चार डीएसी विकसित करने के लिए 3.5 अरब डॉलर का अनुदान देने का भी निर्णय लिया था। लेकिन डेविड के अनुसार यह प्रयास तब तक व्यर्थ है जब तक प्रदूषणकारी गतिविधियों को पूरी तरह से खत्म न कर दिया जाए।

इसको इस तरह से समझें। हमें कार्बन डाईऑक्साइड के स्तर को कई वर्ष पहले की स्थिति में ले जाना है। प्रत्येक डीएसी सुविधा से प्रतिवर्ष 10 लाख टन कार्बन डाईऑक्साइड वातावरण से बाहर करने की उम्मीद है। अब देखिए कि 2022 में 40.5 अरब टन कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन हुआ है। यदि डीएसी संयंत्र वर्ष भर अपनी पूरी क्षमता के साथ काम करते हैं तो इससे वातावरण की स्थिति को मात्र 13 मिनट पीछे ले जाया जा सकता है। लेकिन 13 मिनट में जितनी कार्बन डाईऑक्साइड हटाई जाएगी उतने ही समय में बाकी गतिविधियां साल भर की कार्बन डाईऑक्साइड वापस वातावरण में उंडेल देंगी। अब यह देखिए कि यदि हर व्यक्ति एक पेड़ लगाए इन 8 अरब पेड़ों के परिपक्व होने के बाद हमारा वातावरण हर वर्ष 43 घंटे पीछे जा सकता है।

कुल मिलाकर इससे यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि सीडीआर तकनीकों की क्षमता कितनी सीमित है।

ऐसे में सीडीआर तकनीकों को तत्काल समाधान के रूप में देखना उचित नहीं है। आने वाले समय में जलवायु समाधानों के लिए काफी धन आवंटित होने की उम्मीद है जिसका सही दिशा में उपयोग करना आवशयक है। यदि हम कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन के मौजूदा स्तर को लगभग 10 प्रतिशत यानी 4 अरब टन प्रति वर्ष तक कम करते हैं तो 10 लाख टन हटाने में सक्षम एक डीएसी संयंत्र हमें 13 मिनट के बजाय 2 घंटे से अधिक समय पीछे ले जाएगी। इस स्थिति को देखते हुए एक निर्धारित वर्ष में नेट ज़ीरो हासिल करने के लिए पूरी तरह से अक्षय ऊर्जा द्वारा संचालित 4000 डीएसी सुविधाओं की आवश्यकता होगी।

इस तरह से अवशिष्ट उत्सर्जन संभवत: हमारे वर्तमान कुल उत्सर्जन का 18 प्रतिशत होगा, इसलिए नेट-ज़ीरो तक पहुंचने के लिए कई सीडीआर स्थापित करने होंगे। तकरीबन 7290 डीएसी हब बनाना पर्याप्त होगा। साथ ही, सीडीआर विधियों की खोज के लिए अधिक शोध की आवश्यकता है जो भूमि उपयोग और ऊर्जा खपत को कम करें तथा जिन्हें स्थायी और सस्ता बनाया जा सके।

फिर भी, यह ज़रूरी नहीं कि प्रयोगशाला में सुचारू रूप से काम करने वाली तकनीकें वास्तविक दुनिया में भी वैसे ही काम करेंगी। इनमें से कुछ तकनीकें जैव विविधता और पर्यावरण के लिए हानिकारक भी हो सकती हैं। यह सुनिश्चित करना एक बड़ी चुनौती है कि सीडीआर वास्तव में कितना काम कर रहा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्रतिबंधित सीएफसी का बढ़ता स्तर

मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल (1987) के तहत ओज़ोन को क्षति पहुंचाने वाले रसायन क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) के उपयोग को 2010 तक पूरी तरह खत्म करने का संकल्प लिया गया था। यह काफी सफल रहा था और उम्मीद थी कि 2060 ओज़ोन परत बहाल हो जाएगी। लेकिन ताज़ा आंकड़ों ने वैज्ञानिकों की चिंता बढ़ा दी है।

नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार 2010 से 2020 के बीच 5 प्रकार के सीएफसी के स्तर में काफी तेज़ी से वृद्धि हुई है। वैज्ञानिकों का मानना है कि इन सीएफसी का वर्तमान स्तर ओज़ोन परत की बहाली के लिए ज़्यादा खतरा उत्पन्न नहीं करता है। लेकिन सीएफसी शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैसें भी हैं जो जलवायु को प्रतिकूल प्रभावित करती हैं। गौरतलब है सीएफसी सैकड़ों वर्षों तक वातावरण में बने रहते हैं। इन 5 सीएफसी की वजह से वातावरण जितना गर्म होगा वह स्विट्ज़रलैंड जैसे किसी छोटे देश द्वारा किए गए उत्सर्जन के असर के बराबर होगा।

विशेषज्ञों के अनुसार काफी संभावना है कि सीएफसी विकल्पों के उत्पादन के दौरान संयंत्रों से गलती से सीएफसी-113A, सीएफसी-114A और सीएफसी-115 का उत्सर्जन हो रहा हो। वास्तव में सीएफसी को खत्म करने के लिए हाइड्रोफ्लोरोकार्बन (एचएफसी) को विकल्प के रूप में लाया गया था। लेकिन एचएफसी उत्पादन के दौरान अनपेक्षित रूप से सीएफसी के उत्पादन की संभावना बनी रहती है। इस प्रकार के उत्पादन को मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के तहत हतोत्साहित किया गया था लेकिन प्रतिबंधित नहीं किया गया था।

अन्य दो सीएफसी (सीएफसी-13 और सीएफसी-112A) के स्तर में वृद्धि एक रहस्य है क्योंकि इनका उत्पादन या उपयोग  प्रतिबंधित है। संभावना है कि विलायक या रासायनिक फीडस्टॉक के तौर पर उपयोग के कारण सीएफसी-112A के स्तर में वृद्धि हो रही है। लेकिन सीएफसी-13 के उत्सर्जन का अभी तक कोई सुराग नहीं है। वैश्विक स्तर पर पर्याप्त निगरानी स्टेशन की अनुपस्थिति में सीएफसी-13 के स्रोत का पता लगाना मुश्किल है।    

बहरहाल, आंकड़ों से इतना तो स्पष्ट है कि वैश्विक निगरानी प्रणाली काफी सक्रियता से काम कर रही है और वैज्ञानिकों द्वारा पृथ्वी के वातावरण और जलवायु समस्याओं पर कड़ी नज़र रखी जा रही है। पूर्व में भी दक्षिण कोरिया और जापान के निगरानी स्टेशन से सीएफसी-11 के उच्च स्तर का पता लगा था, जिसका स्रोत पूर्वी चीन में मिला था। इसके उत्सर्जन को नियंत्रित किया गया और इसके स्तर में कमी आने लगी। लिहाज़ा, अधिक निगरानी स्टेशनों की ज़रूरत है।

यदि हाल ही में खोजे गए 5 सीएफसी का अधिकांश उत्सर्जन सीएफसी-विकल्पों के उत्पादन के दौरान हो रहा है तो विकल्पों के बारे में विचार करना आवश्यक है। शायद हाइड्रोफ्लोरोओलीफीन्स (एचएफओ) का उपयोग करना होगा। लेकिन उसके उत्पादन से भी सीएफसी का उत्सर्जन हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हम सूंघते कैसे हैं

गंध एक महत्वपूर्ण संवेदना है। मनुष्यों में यह शायद उतनी महत्वपूर्ण न हो, लेकिन कई अन्य जंतुओं में यह सबसे महत्वपूर्ण संवेदना होती है। जहां अन्य संवेदनाओं को लेकर हमारी समझ काफी विस्तृत है, वहीं गंध को लेकर कई अस्पष्टताएं हैं। अब हम इस दिशा में एक कदम और आगे बढ़े हैं।

गंध संवेदना दरअसल एक रसायन-आधारित संवेदना है। कुछ रसायन हमारी गंध संवेदी तंत्रिकाओं के ग्राहियों को उत्तेजित करते हैं और मस्तिष्क इसे गंध के रूप में पहचानता है। अब पहली बार एक मानव गंध-ग्राही की सटीक त्रि-आयामी संरचना का खुलासा किया गया है। नेचर में प्रकाशित इस अध्ययन में OR51E2 नामक एक गंध-ग्राही की संरचना का विवरण देते हुए बताया गया है कि यह आणविक क्रियाओं के माध्यम से कैसे चीज़ (cheese) की गंध को ताड़ता है।

गौरतलब है कि मानव जीनोम में 400 जीन्स होते हैं जो गंध-ग्राहियों के कोड हैं और ये ग्राही कई गंधों को पहचान सकते हैं। स्तनधारियों में गंध ग्राही के जीन्स सबसे पहले चूहों में 1990 के दशक में पहचाने गए थे। इससे पहले 1920 के दशक में यह अनुमान लगाया गया था कि मनुष्य की नाक तकरीबन 1000 गंधों को ताड़ सकती है। लेकिन 2014 में किए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष था कि हम 1 खरब से ज़्यादा गंधों को अलग-अलग पहचान सकते हैं।

हर गंध-ग्राही गंधदार अणुओं (ओडोरेंट) के सिर्फ एक समूह से अंतर्क्रिया कर सकता है जबकि एक ही ओडोरेंट कई ग्राहियों को सक्रिय कर सकता है। होता यह है कि इन ग्राहियों की एक मिश्रित सक्रियता विशिष्ट गंध का एहसास कराती है।

लेकिन इन गंध-ग्राहियों की क्रिया को समझना एक चुनौती रही है। एक दिक्कत यह रही है कि ये ग्राही सिर्फ गंध तंत्रिकाओं में ही ठीक-ठाक काम करते हैं, बाकी किसी भी कोशिका में ये ठप हो जाते हैं। इसका मतलब यह होता है कि इन्हें किसी भी अन्य प्रकार की कोशिका में जोड़कर अध्ययन नहीं किया जा सकता।

इस समस्या से निपटने के लिए कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (सैन फ्रांसिस्को) के आशीष मांगलिक और उनके साथियों ने OR51E2 नामक ग्राही पर ध्यान केंद्रित किया। इस ग्राही की विशेषता है कि यह ओडोरेंट की पहचान के अलावा कुछ अन्य कार्य भी करता है और यह गुर्दों तथा प्रोस्टेट की कोशिकाओं में भी पाया जाता है।

यह ग्राही (OR51E2) दो ओडोरेंट अणुओं के साथ अंतर्क्रिया करता है – एसिटेट (जिसकी गंध सिरके जैसी होती है) और प्रोपिओनेट (जिसकी गंध चीज़नुमा होती है)। शोधकर्ताओं ने इस ग्राही को शुद्ध रूप में प्राप्त किया और फिर प्रोपिओनेट से सम्बद्ध तथा असम्बद्ध OR51E2 की संरचना का विश्लेषण किया। इसके लिए उन्होंने क्रायो-इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी और एटॉमिक रिज़ॉल्यूशन इमेजिंग तकनीकों का इस्तेमाल किया। इसके अलावा उन्होंने कंप्यूटर सिमुलेशन की भी मदद ली ताकि पता चल सके कि यह ग्राही प्रोटीन ओडोरेंट अणुओं के साथ कैसे अंतर्क्रिया करता है।

विश्लेषण से पता चला कि यह प्रोटीन (OR51E2) आयनिक व हाइड्रोजन बंधनों के ज़रिए प्रोपिओनेट अणु के कार्बोक्सिलिक समूह को एक अमीनो अम्ल (आर्जीनीन) से जोड़ लेता है। जैसे ही प्रोपिओनेट जुड़ता है, OR51E2 की आकृति बदल जाती है और यही ग्राही को चालू कर देता है। शोधकर्ताओं ने दर्शाया है कि इस ग्राही के जीन में आर्जीनीन को प्रभावित करने वाले उत्परिवर्तन उसे प्रोपिओनेट द्वारा सक्रिय नहीं होने देते।

वैज्ञानिकों की इच्छा रही है कि वे गंध ग्राहियों की रासायनिक संरचनाओं का एक कैटालॉग तैयार कर सकें और उसके आधार पर यह बता सकें कि इनमें से कौन-से ग्राही मिलकर किस गंध विशेष का एहसास कराते हैं। मांगलिक की टीम द्वारा यह खुलासा मात्र पहला कदम है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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