पतझड़ के बाद पेड़ों को पानी कैसे मिलता है? – डॉ. किशोर पंवार

सतपुड़ा, विंध्याचल या अरावली पर्वत शृंखलाओं के जंगलों में कभी फरवरी-मार्च के महीनों में पैदल चल कर देखिए; सूखे पत्तों की चरचराहट की आवाज़ साफ सुनाई देगी। मानो पत्ते कह रहे हों कि जनाब आप पतझड़ी जंगल में विचर रहे हैं। इन जंगलों में कहीं-कहीं पर तो सूखे पत्तों की यह चादर एक फीट तक मोटी होती है जो सेमल, पलाश, अमलतास, सागौन वगैरह के पत्तों के गिरने से बनी होती है।

अप्रैल-मई के महीनों में जब तेज़ गर्म हवाएं चल रही होती हैं, हवा भी सूखी होती है, धरती का कंठ भी सूखने लगता है। उस समय देखने में आता है कि इन पतझड़ी पेड़ों के ठूठ हरे होने लगते हैं। पलाश, अमलतास, सुनहरी टेबेबुइया और पांगरा फूलने लगते हैं।

लेकिन बिना पानी के यह कैसे संभव होता है? हमारे बाग-बगीचों की तरह जंगल में तो कोई पानी देने भी नहीं जाता। तब पेड़ों पर फूटने वाली नई कोपलों और फूलों के लिए भोजन-पानी कहां से आता है? जबकि ये पेड़ अपनी पाक शालाएं (पत्तियां) तो दो महीने पहले ही झड़ा चुके थे।

इस सवाल का जवाब एक शब्द ‘सुप्तावस्था’ में छुपा हुआ है। दरअसल ये पेड़-पौधे आने वाले सूखे गर्म दिनों को भांप लेते हैं। अत: आने वाली गर्मियों (या ठंडे देशों में जाड़े) के मुश्किल दिनों को टालने के लिए ये पेड़ दो-तीन महीनों की विश्राम की अवस्था में चले जाते हैं, लेकिन पूरी तैयारी के साथ। जब तैयारी पूरी हो जाती है तब सूचना पटल के रूप में पेड़ों की ये लाल-पीली पत्तियां इन पेड़ों की टहनियों पर टंगी नज़र आती है कि अब दुकान बंद हो गई है। फिर कुछ ही दिनों में हवा के झोंकों से ये पत्तियां भी गिर जाती हैं।

इन पतझड़ी पेड़ों की ही तरह ठंडे देशों में ग्रिज़ली बेयर यानी भूरा भालू और डोरमाइस, जो कि एक प्रकार का चूहे जैसा रात्रिचर जीव है, सुप्तावस्था (या शीतनिद्रा) में चले जाते हैं। ग्रिज़ली भालू जाड़ा पड़ने के पहले खा-खाकर अपने शरीर में वसा की इतनी मोटी परत चढ़ा लेता है कि पूरी सर्दियों जीवित रह सके।

पतझड़ी पेड़ भी सुप्तावस्था की तैयारी बिल्कुल ऐसे ही करते हैं। सूर्य की ऊर्जा से वे शर्करा और अन्य पदार्थ बनाते हैं जिन्हें वे अपनी त्वचा के नीचे भंडारित करके रखते हैं। पेड़ों की त्वचा यानी उनकी मोटी छाल ऊपर से तो मरी-मरी लगती है पर अंदर से जीवित होती है। एक निश्चित बिंदु पर आकर पेड़ों का पेट भर जाता है; इस स्थिति में पेड़ थोड़े मोटे भी लगने लगते हैं। ठंडे देशों के चेरी कुल के जंगली पेड़ों की पत्तियां अक्टूबर के पहले ही लाल होने लगती हैं और इसका सीधा अर्थ यह होता है कि उनकी छाल और जड़ों में भोजन संग्रह करने वाले स्थान भर चुके हैं, और यदि वे और शर्करा बनाते हैं तो उसे भंडारित करने के लिए अब उनके पास कोई जगह नहीं बची है।

ठंडे देशों में पहली ज़ोरदार बर्फबारी होने तक उन्हें अपनी सभी गतिविधियां बंद करनी होती हैं। इसका एक महत्वपूर्ण कारण पानी है; सजीवों के उपयोग हेतु इसे तरल अवस्था में होना ज़रूरी होता है। परंतु लगता है कुछ पेड़ अभी जाड़े के मूड में नहीं हैं।

ऐसा दो कारणों से होता है पहला कि वे अंतिम गर्म दिनों का उपयोग ऊर्जा संग्रह के लिए करते रहते हैं, और दूसरा अधिकांश प्रजातियां पत्तियों से ऊर्जा संग्रह कर अपने तनों और जड़ों में भोजन भेजने में लगी होती हैं। और सबसे महत्वपूर्ण यह कि उन्हें अपने हरे रंग के क्लोरोफिल को उसके घटकों में तोड़कर उन घटकों को संग्रह करना होता है ताकि आने वाले बसंत में नई पत्तियों में क्लोरोफिल के निर्माण में इनका उपयोग हो सके।।

गर्म देशों के हों या ठंडे देशों के, पतझड़ी पेड़ों के लिए बासी पत्तियों को खिराना एक प्रभावी सुरक्षा योजना होती है। यह पेड़ों के लिए अपने व्यर्थ या अवांछित पदार्थों को त्यागने का एक अवसर भी होता है। व्यर्थ पदार्थ ज़मीन पर इधर-उधर उनकी त्यागी हुई पत्तियों के रूप में उड़ते रहते हैं। जब पत्तियों में भंडारित ऊर्जा वापस शाखाओं और जड़ों में अवशोषित कर ली जाती है, तब पेड़ों की कोशिकाओं में एक विलगन परत बनती है जो पत्तियों और शाखाओं के बीच का संपर्क बंद कर देती है। ऐसे में हल्की हवा का झोंका लगते ही पत्तियां ज़मीन पर आ जाती है।

यह तो हुई ऊर्जा की बात। पानी की व्यवस्था के लिए जब पानी उपलब्ध होता है तब जड़ें उसे तनों की छाल में व स्वयं अपने आप में संग्रह करती रहती हैं। पौधों का एक नाम पादप भी है अर्थात पांव से पानी पीने वाले जीव। पांव (जड़ों) से पीकर पानी को तने और जड़ों में संग्रह कर लिया जाता है।

मई-जून के महीनों में इन मृतप्राय पेड़ों में नई पत्तियां और फूलों के खिलने के लिए जो ऊर्जा और पानी लगते हैं, वे शाखाओं और जड़ों के इसी संग्रह से मिलते हैं। किंतु अब बहाव की दिशा उल्टी है।

पानी का परिवहन

वनस्पति विज्ञान की किताबें कहती हैं कि सौ से डेढ़ सौ फीट ऊंचे पेड़ों में पानी को ज़मीन से खींचकर शीर्ष तक पहुंचाने में पत्तियों में होने वाली वाष्प उत्सर्जन क्रिया की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इस सिद्धांत को वाष्पोत्सर्जन खिंचाव बल नाम दिया गया है। पर यह सवाल गर्मियों के दिन में बड़ा रोचक हो जाता है – जब पेड़ों पर पानी खींचने वाले छोटे-छोटे पंप अर्थात पत्तियां नहीं हैं, तो फिर पत्ती विहीन पेड़ों के शीर्ष पर फूटने वाली नई कोपल और कलियों को पानी कौन और कैसे पहुंचाता है। अत: लगता है मामला कुछ और भी है जो हम अभी तक नहीं जानते। सचमुच प्रकृति के क्रियाकलाप अद्भुत हैं और जानने को आज भी बहुत कुछ है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चीनी और वसा से मस्तिष्क कैसे प्रभावित होता है

आम तौर पर जब किसी बुरी आदत या लत की बात होती है तो हम धूम्रपान या मद्यपान के बारे में सोचते हैं। लेकिन एक ऐसी भी लत है जिसने वयस्कों और बच्चों की बड़ी संख्या को अपनी चपेट में लिया है। यह लत खानपान की लत है।

खानपान में भी विशेष रूप से वसा और चीनी से भरपूर भोजन हमें अधिक लुभाते हैं। विशेषज्ञों की मानें तो भोजन की लालसा मात्र एक भावना नहीं है। गौरतलब है कि पिछले कुछ दशकों में हमारा भोजन अति-प्रोसेस्ड हो गया है। इस प्रकार का भोजन शरीर में चीनी और वसा संवेदी ग्राहियों को सक्रिय कर डोपामाइन मुक्त करने का काम करता है। प्रोसेस्ड खाद्य शरीर में कुछ ऐसे परिवर्तन करते हैं जिससे मस्तिष्क इनका अधिक सेवन करने को प्रोत्साहित करने लगता है और लंबे समय तक इनका सेवन शरीर के लिए घातक हो सकता है। विशेषज्ञ खानपान की लत को बारीकी से समझने का प्रयास कर रहे हैं।

इसके लिए सबसे पहले तो यह समझना ज़रूरी है कि भोजन हमारे मस्तिष्क को कैसे प्रभावित करता है। एक महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया मस्तिष्क से डोपामाइन नामक न्यूरोट्रांसमीटर मुक्त होना है। नशीले पदार्थों के समान खाना खाने से भी डोपामाइन मुक्त होता है। आम समझ है कि डोपामाइन आनंद में वृद्धि करता है लेकिन यह सच नहीं है। यह हमें ऐसे व्यवहारों को दोहराने के लिए उकसाता है जो जीवन के लिए ज़रूरी हैं। जैसे भोजन करना और प्रजनन। जितना अधिक डोपामाइन मुक्त होगा, उस व्यवहार को दोहराने की संभावना उतनी ही अधिक होगी।

वसा या चीनी युक्त भोजन का सेवन करने पर हमारे मुंह का सेंसर स्ट्रिएटम को डोपामाइन मुक्त करने का संदेश भेजता है। स्ट्रिएटम मस्तिष्क का एक भाग है जो गतियों और पुरस्कार योग्य व्यवहार से जुड़ा है। लेकिन मुंह के सेंसर द्वारा डोपामाइन मुक्त होना पूरी प्रक्रिया का केवल एक हिस्सा है।

विशेषज्ञों के अनुसार आंत में भी वसा और चीनी के लिए एक द्वितीयक सेंसर होता है और वह भी मस्तिष्क के उसी क्षेत्र को डोपामाइन मुक्त करने का संकेत देता है। फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि आंत से मस्तिष्क तक चीनी की उपस्थिति का संकेत कैसे पहुंचता है लेकिन वसा के संकेत का पता लगाया जा चुका है। ऊपरी आंत में वसा का पता लगने पर वैगस तंत्रिका के माध्यम से पश्‍च-मस्तिष्क को संकेत पहुंचता है जो आखिरकार स्ट्रिएटम तक जाता है।         

यह देखा गया है कि चीनी व वसा से भरपूर खाद्य पदार्थ स्ट्रिएटम में डोपामाइन का स्तर सामान्य से 200 प्रतिशत तक बढ़ा सकते हैं। यह स्तर निकोटीन और शराब द्वारा की जाने वाली वृद्धि के बराबर है। एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि शकर ने डोपामाइन के स्तर को 135 से 140 प्रतिशत तक बढ़ाया जबकि वसा ने इस स्तर को 160 प्रतिशत तक बढ़ा दिया था। तुलना के लिए कोकेन ने सामान्य डोपामाइन के स्तर को तीन गुना किया जबकि मेथाम्फेटामिन नेे इसे 10 गुना बढ़ाया।

जैसे-जैसे हम भोजन और मस्तिष्क के सम्बंध को समझ रहे हैं, वैसे-वैसे भोजन का उत्पादन इस तरह किया जाने लगा है कि हम खुद को रोक न पाएं। हमारे शरीरों को ऐसे खाद्य पदार्थों से पाट दिया गया है जिनमें कुछ विशिष्ट पोषक पदार्थों की मात्रा अत्यधिक है – जैसे शकर, वसा और नए-नए पदार्थों के सम्मिश्रण।

औद्योगिक प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थ स्टार्च और हाइड्रोजनीकृत वसा से तैयार किए जाते हैं। इसके अलावा मज़ेदार स्वाद देने वाले कृत्रिम फ्लेवर, पानी और तेल को घुलनशील रखने वाले इमल्सीफायर और खाद्य सामग्री की संरचना को संरक्षित रखने वाले स्टेबिलाइज़र्स ने हमारे भोजन को अधिक आकर्षक तो बना दिया है लेकिन हमारे स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ भी किया है।

विशेषज्ञों के अनुसार अत्यधिक प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों और बुनियादी चीज़ों से बनाए खाद्य पदार्थों के बीच अंतर करना ज़रूरी है। यह अंतर आहार सम्बंधी स्वास्थ्य समस्याओं से बचने का पहला कदम हो सकता है। अत्यधिक प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थ नशे की तरह काम करते हैं। जितनी तेज़ी से कोई चीज़ आपके मस्तिष्क को प्रभावित करती है उतनी ही जल्दी आपको उस चीज़ की लत लगती है। इसके साथ ही डोपामाइन मुक्त होने की गति को बढ़ाने के लिए कई प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों को पहले से ही थोड़ा पचाया गया होता है।

आखिर में इस पूरे मुद्दे में सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। प्रोसेस्ड खाद्य सामग्री काफी समय से सुलभ और सस्ती है तथा इसका काफी विज्ञापन भी किया जाता रहा है। लिहाज़ा, बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो जानते हैं कि ये खाद्य सामग्री स्वास्थ्यवर्धक नहीं हैं लेकिन फिर भी वे अपने आपको रोक नहीं पाते हैं।

किसी भी पदार्थ या ड्रग की लत के सम्बंध में सहनशीलता और उसे छोड़ने के परिणाम के सिद्धांत का इस्तेमाल किया जाता है। सहनशीलता यानी किसी ड्रग (या भोजन) का इतना आदी हो जाना कि उतना ही प्रभाव प्राप्त करने के लिए इसका और अधिक सेवन करना पड़े। जबकि छोड़ने के परिणाम का सम्बंध उन शारीरिक और मानसिक लक्षणों से है जो अचानक किसी नशीले पदार्थ का उपयोग बंद या कम करने पर होते हैं।

पूर्व में यह माना जाता था कि भोजन की लत वाले लोग खानपान जारी रखते हैं ताकि खुद को उसे छोड़ने की स्थिति जैसे चिंता, मितली और सिरदर्द से बचा सकें। भोजन के मामले में, डोपामाइन की कमी की परिकल्पना यह बताती है कि अगर हम कुछ खाते हैं और इससे पर्याप्त आनंद नहीं मिलता है, तो हम तब तक खाते रहेंगे जब तक वैसा आनंद महसूस नहीं करते।

लेकिन भोजन के मानसिक असर को लेकर अभी पूरी स्पष्टता नहीं है। वर्तमान में वैज्ञानिकों के पास इस बाबत उत्तर कम, प्रश्न अधिक हैं कि हमारा शरीर भोजन का आदी कैसे हो जाता है। हम जानते हैं कि डोपामाइन ही सब कुछ नहीं है क्योंकि सिर्फ इसी से भोजन आनंददायक नहीं बनता है। हालांकि शोधकर्ताओं ने वर्ष 2012 के एक अध्ययन में पाया है कि खाना खाने से हमारे अफीमी ग्राही उत्तेजित होते हैं, जो आनंद की भावना को बढ़ाते हैं। लेकिन वैज्ञानिक अभी भी इस प्रक्रिया के बारे में कम ही जानते हैं। कुछ विशेषज्ञों का अनुमान है कि ऊपरी आंत में एक संवेदक हमारे भोजन की पसंद-नापसंद में कुछ भूमिका निभाता है। कई अन्य इसके लिए हायपोथैलेमस को महत्वपूर्ण मानते हैं जो शरीर के तापमान से लेकर भूख के एहसास तक सब कुछ नियंत्रित करता है। (स्रोत फीचर्स)

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भालुओं में शीतनिद्रा में भी रक्त के थक्के क्यों नहीं जमते

लंबे समय की निष्क्रियता पैर की शिराओं और फेफड़ों में रक्त के थक्के जमा सकती है। लेकिन यह परेशानी महीनों लंबी शीतनिद्रा में सोए भालुओं में पेश नहीं आती। साइंस पत्रिका में बताया गया है कि इसका कारण है कि शीतनिद्रा में सोए भालू एक प्रोटीन (HSP47) कम बनाते हैं जो रक्त का थक्का जमाने में भूमिका निभाता है।

रक्त के थक्के मनुष्यों के लिए काफी घातक हो सकते हैं। अमूमन ये थक्के पैर की शिराओं में बनते हैं। स्थिति तब घातक हो जाती है जब ये रक्त प्रवाह के साथ फेफड़ों तक पहुंच जाते हैं और वहां रक्त संचार को अवरुद्ध कर देते हैं। इसका वर्तमान उपचार है रक्त को पतला करना, लेकिन वह ज़्यादा प्रभावी नहीं है और इसके कारण अनियंत्रित रक्तस्राव हो सकता है।

यह समझने के लिए कि शीतनिद्रा के दौरान भालुओं में रक्त के थक्के क्यों नहीं बनते, लुडविग मैक्सिमिलियन विश्वविद्यालय के एक दल ने शीतनिद्रामग्न भूरे भालुओं पर अध्ययन किया। शोधकर्ताओं ने जाड़ों में शीतनिद्रामग्नेे (13) भूरे भालुओं को खोजा और उनके रक्त के नमूने लिए। इसके बाद उन्होंने गर्मी के मौसम में भी इन्हीं भालुओं के रक्त के नमूने लिए। शोधकर्ताओं ने पाया कि गर्मियों में भालुओं के रक्त में HSP47 नामक प्रोटीन प्रचुर मात्रा में था, जबकि जाड़ों में यह लगभग नदारद था।

चूहों पर हुए पूर्व अध्ययनों में यह देखा गया था कि अन्य कार्यों के अलावा HSP47 प्रोटीन की भूमिका रक्त के थक्के बनाने में भी है। HSP47 प्रोटीन रक्त प्लेटलेट्स की सतह पर बैठ जाता है और संक्रमण से लड़ने वाली सफेद रक्त कोशिकाओं (न्यूट्रोफिल) को आकर्षित करता है और प्लेटलेट्स से जोड़ता जाता है। इससे बने ‘जाल’ में प्रोटीन, रोगजनक और कोशिकाएं वगैरह फंस जाते हैं। नतीजतन, रक्त का थक्का बनता है। देखा गया है कि जिन चूहों में इस प्रोटीन की कमी थी उनकी प्लेटलेट्स ने न्यूट्रोफिल को कम आकर्षित किया और रक्त का थक्का बनने की संभावना कम रही। अब चूंकि शीतनिद्रा में भालुओं में HSP47 कम बनता है, इसलिए उक्त प्रक्रिया द्वारा थक्का निर्माण की संभावना भी कम होती है।

शोधकर्ताओं ने उन लोगों में HSP47 का स्तर देखा जो रीढ़ की हड्डी में चोट की वजह से चल-फिर नहीं पा रहे थे लेकिन उनमें रक्त के थक्के नहीं बन रहे थे। पाया गया कि इन लोगों में HSP47 का स्तर अपेक्षाकृत कम था। इससे लग रहा था कि चलना-फिरना बंद हो जाने पर शरीर HSP47 प्रोटीन कम बनाने लगता है। जांच के लिए शोधकर्ताओं ने 10 स्वस्थ व्यक्तियों को 27 दिन तक बेडरेस्ट कराया। जैसी कि उम्मीद थी धीरे-धीरे उनमें HSP47 का स्तर कम होने लगा था।

लगता है कि जिन लोगों ने अचानक बिस्तर पकड़ लिया है उनमें स्वाभाविक रूप से HSP47 का स्तर घटना शुरू होने से पहले HSP47 का स्तर घटा कर थक्का बनने के जोखिम को कम किया जा सकता है। लेकिन अभी और अध्ययन की ज़रूरत है।

बहरहाल, भालुओं और मनुष्यों दोनों में HSP47 की एक जैसी भूमिका से लगता है कि स्तनधारियों में थक्का बनने का तंत्र काफी पुराना है। (स्रोत फीचर्स)

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चंद्रमा पर उतरने का निजी प्रयास विफल

टोक्यो की एक निजी कंपनी आईस्पेस द्वारा हुकाटो-आर मिशन (एम-1) नामक पहला व्यावसायिक ल्यूनर मिशन 11 दिसंबर 2022 को फ्लोरिडा के केप कैनावेरल से स्पेसएक्स फाल्कन 9 रॉकेट द्वारा लॉन्च किया गया था। 21 मार्च को इसने चंद्रमा की कक्षा में प्रवेश किया। 25 अप्रैल को इसके लैंडर को चंद्रमा की सतह पर उतरना था, लेकिन कुछ तकनीकी समस्या के कारण यह मिशन विफल हो गया। चंद्रमा की सतह से लगभग 90 मीटर ऊपर लैंडर से पृथ्वी का संपर्क टूट गया और नियोजित लैंडिंग के बाद दोबारा संचार स्थापित नहीं हो पाया। संभावना है कि एम-1 लैंडर उतरते वक्त क्रैश हो गया। फिलहाल पूरे घटनाक्रम की जांच जारी है।

गौरतलब है कि 2.3 मीटर लंबा लैंडर सतह पर उतरने के अंतिम चरण में खड़ी स्थिति में था लेकिन इसमें ईंधन काफी कम बचा था। लैंडर से प्राप्त आखरी सूचना से पता चलता है कि चंद्रमा की सतह की ओर बढ़ते हुए यान की रफ्तार बढ़ गई थी। किसी भी लैंडर के लिए यह एक सामान्य प्रक्रिया है जिसमें लंबवत रूप से उतरते समय इंजन चालू रखे जाते हैं ताकि वह गुरुत्वाकर्षण के कारण सतह से तेज़ रफ्तार से न टकराए।            

आईस्पेस टीम के प्रमुख टेक्नॉलॉजी अधिकारी रयो उजी बताते हैं कि सतह पर उतरने के अंतिम चरण में ऊंचाईमापी उपकरण ने शून्य ऊंचाई का संकेत दिया था यानी उसके हिसाब से लैंडर चांद की धरती पर पहुंच चुका था। जबकि यान सतह से काफी ऊपर था। ऐसी भी संभावना है कि लैंडर के नीचे उतरते हुए यान का ईंधन खत्म हो गया और गति में वृद्धि होती गई। टीम अभी भी यह जानने का प्रयास कर रही है कि अनुमानित और वास्तविक ऊंचाई के बीच अंतर के क्या कारण हो सकते हैं। इस तरह के यानों में विशेष सेंसर लगाए जाते हैं जो लैंडर और सतह के बीच की दूरी को मापते हैं और उसी हिसाब से लैंडर नीचे उतरता है। अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि इन सेंसरों में कोई गड़बड़ी हुई या सॉफ्टवेयर में कोई समस्या थी।

लैंडर के क्रैश होने के कारण उस पर भेजे गए कई उपकरण भी नष्ट हो गए हैं। जैसे संयुक्त अरब अमीरात का 50 सेंटीमीटर लंबा राशिद रोवर जिसका उद्देश्य चंद्रमा की मिट्टी के कणों का अध्ययन और सतह के भूगर्भीय गुणों की जांच करना था; जापानी अंतरिक्ष एजेंसी द्वारा विकसित एक दो-पहिया रोबोट; और कनाडा की कनाडेन्सिस एयरोस्पेस द्वारा निर्मित एक मल्टी-कैमरा सिस्टम।

मिशन की विफलता के जो भी कारण रहे हों लेकिन यह साफ है कि चंद्रमा पर सफलतापूर्वक लैंडिंग काफी चुनौतीपूर्ण है। फिर भी इस लैंडिंग प्रक्रिया के दौरान प्राप्त डैटा से उम्मीद है कि आईस्पेस के भावी चंद्रमा मिशन के लिए टीम को  बेहतर तैयारी का मौका मिलेगा। (स्रोत फीचर्स)

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पाठ्यक्रम से जैव विकास को हटाने के विरुद्ध अपील

पिछले दिनों केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा मंडल द्वारा प्रस्तावित पाठ्यक्रम संशोधन को लेकर काफी बहस चली है। इन परिवर्तनों में यह भी शामिल है कि कक्षा 10 के पाठ्यक्रम में से जैव विकास सम्बंधी अंश को विलोपित कर दिया जाएगा। इस निर्णय को लेकर देश भर के वैज्ञानिकों, विज्ञान शिक्षकों और विज्ञान से सरोकार रखने वाले नागरिकों ने एक अपील जारी की है। इस अपील पर अनिकेत सुले (मुंबई), राघवेंद्र गडग्कर (बैंगलुरु), एल.एस शशिधर (बैंगलुरु), टी.एन.सी. विद्या (बैंगलुरु), एनाक्षी भट्टाचार्य (चेन्नै), डॉ. इंदुमति (चेन्नै), अमिताभ पांडे (दिल्ली), राम रामस्वामि (दिल्ली), टी.वी. वेकटेश्वर (दिल्ली), अनिंदिता भद्रा (कोलकाता), सौमित्र बैनर्जी (कोलकाता), एस. कृष्णास्वामि (मदुरै), एन. जी. प्रसाद (मोहाली), और्नब घोष (पुणे), सत्यजित रथ (पुणे), श्रद्धा कुंभोजकर (पुणे), सुधा राजमणि (पुणे), वीनिता बाल (पुणे) सहित 1800 लोगों ने हस्ताक्षर किए हैं। प्रस्तुत है उस अपील का हिंदी रूपांतरण….

हमें ज्ञात हुआ है कि केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा मंडल (सीबीएससी) के उच्च व उच्चतर माध्यमिक कोर्स में व्यापक परिवर्तन का प्रस्ताव है। इन परिवर्तनों को पहले कोरोना महामारी के दौरान अस्थायी उपायों के रूप में लागू किया गया था और अब इन्हें तब भी जारी रखा जा रहा है जब स्कूल वापिस ऑफलाइन शैली में लौट रहे हैं। खास तौर से हम इस बात को लेकर चिंतित हैं कि कक्षा 10 के पाठ्यक्रम में से जैव विकास का डार्विनियन सिद्धांत हटाया जा रहा है, जैसा कि एनसीईआरटी की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी से पता चलता है (देखें: https://ncert.nic.in/pdf/BookletClass10.pdf पृष्ठ 21)।

शिक्षा के वर्तमान ढांचे में बहुत थोड़े से विद्यार्थी ही कक्षा 11 या 12 में विज्ञान को अपने अध्ययन की शाखा के रूप में चुनते हैं और उनमें से भी बहुत कम जीव विज्ञान को चुनते हैं।

लिहाज़ा, कक्षा 10 तक के पाठ्यक्रम में प्रमुख अवधारणाओं को हटा देने का मतलब है कि विद्यार्थियों की एक बड़ी संख्या इस क्षेत्र के एक महत्वपूर्ण अंश से वंचित रह जाएगी। उद्वैकासिक जीव विज्ञान का ज्ञान व समझ न सिर्फ जीव विज्ञान के उप-क्षेत्रों की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह अपने आसपास की दुनिया को समझने के लिए भी ज़रूरी है। विज्ञान के एक क्षेत्र के रूप में जैव विकास जैविकी का एक ऐसा क्षेत्र है, जिसका इस बात पर गहरा असर होता है कि हम समाजों और राष्ट्रों के समक्ष उपस्थित विभिन्न समस्याओं से कैसे निपटने का निर्णय करते हैं। ये समस्याएं चिकित्सा, औषधियों की खोज, महामारी विज्ञान, पारिस्थितिकी और पर्यावरण, से लेकर मनोविज्ञान तक से सम्बंधित हैं। जैव विकास हमारी इस समझ को भी प्रभावित करता है कि हम मनुष्यों और जीवन के ताने-बाने के साथ उनके सम्बंधों को किस तरह देखते हैं।

हालांकि हममें से कई लोग यह बात स्पष्ट रूप से नहीं जानते लेकिन तथ्य यह है कि प्राकृतिक वरण के सिद्धांत हमें कई महत्वपूर्ण मुद्दों को समझने में मदद करते हैं, जैसे – कोई महामारी कैसे आगे बढ़ती है, या प्रजातियां क्यों विलुप्त हो जाती हैं।

जैव विकास की प्रक्रिया की समझ वैज्ञानिक मानसिकता और एक तर्कसंगत विश्वदृष्टि के निर्माण के लिए भी ज़रूरी है। जिस ढंग से श्रमसाध्य अवलोकनों और गहरी सूझ-बूझ ने डार्विन को प्राकृतिक वरण के सिद्धांत तक पहुंचने में मदद की थी, वह विद्यार्थियों को विज्ञान की प्रक्रिया और आलोचनात्मक सोच के महत्व के बारे में भी शिक्षित करता है। जो विद्यार्थी कक्षा 10 के बाद जीव विज्ञान नहीं पढ़ेंगे, उन्हें इस अत्यंत महत्वपूर्ण क्षेत्र से संपर्क से वंचित रखना शिक्षा की प्रक्रिया का मखौल होगा।

हम वैज्ञानिक, विज्ञान शिक्षक, विज्ञान को लोकप्रिय बनाने में जुटे लोग और सरोकारी नागरिक स्कूली विज्ञान शिक्षा में ऐसे खतरनाक परिवर्तनों से असहमत हैं और मांग करते हैं कि जैव विकास के डार्विनियन सिद्धांत को माध्यमिक शिक्षा में बहाल किया जाए। (स्रोत फीचर्स)

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पृथ्वी के शिखर पर सूक्ष्मजीव – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

डॉ. एन. बी. ड्रेगोन और उनके साथियों द्वारा आर्कटिक, अंटार्कटिक और एल्पाइन नामक पत्रिका में एक अध्ययन प्रकाशित किया गया है : समुद्रतल से 7900 मीटर की ऊंचाई पर सागरमाथा (माउंट एवरेस्ट) के साउथ कोल पर फ्रोज़न सूक्ष्मजीव संसार का विश्लेषण। अध्ययन में शोधकर्ताओं ने माउंट एवरेस्ट के दुर्गम ढलानों पर मनुष्यों के सूक्ष्मजीव संसार का विश्लेषण किया है।

उन्होंने माउंट एवरेस्ट के दक्षिणी कोल में (समुद्र तल से 7900 मीटर ऊंचाई पर) पर्वतारोहियों द्वारा छोड़े गए सूक्ष्मजीवों को वहां की तलछट से निकाला।

साउथ कोल वह चोटी है जो माउंट एवरेस्ट को ल्होत्से से अलग करती है – ल्होत्से पृथ्वी का चौथा सबसे ऊंचा पर्वत है। इन दोनों चोटियों के बीच की दूरी केवल तीन किलोमीटर है। समुद्रतल से 7900 मीटर की ऊंचाई पर, दक्षिण कोल जीवन के लिए दूभर स्थान है – जुलाई 2022 में लू (हीट वेव) के दौरान यहां का सबसे अधिक तापमान ऋण 1.4 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया था।

इंसानों को हटा दें तो यहां जीवन का नामोंनिशान नहीं दिखाई देता। जीवन का आखिरी निशान काफी नीचे, समुद्रतल से 6700 मीटर की ऊंचाई, पर दिखता है – जिसमें काई की कुछ प्रजातियां है और एक कूदने वाली मकड़ी है जो हवा में उड़कर आए फ्रोज़न कीड़ों को खाती है।

अधिक ऊंचाई पर, ऑक्सीजन कम होती है (समुद्र तल पर 20.9 प्रतिशत के मुकाबले 7.8 प्रतिशत), तेज़ हवाएं चलती हैं, तापमान आम तौर पर ऋण 15 डिग्री सेल्सियस रहता है और पराबैंगनी विकिरण का उच्च स्तर होता है। ये सभी चीज़ें जीवन को और मुश्किल बना देती हैं। चूंकि सभी पारिस्थितिक तंत्रों में सभी प्रजातियों-जीवों के बीच परस्पर निर्भरता है, यहां सूक्ष्मजीव भी जीवित नहीं रह सकते।

हवा और इंसान

लेकिन यहां सूक्ष्म जीव आते तो रहते हैं – पशु-पक्षियों या हवाओं के साथ। समुद्र तल से लगभग 6000 मीटर की ऊंचाई पर 20 माइक्रोमीटर से कम साइज़ के धूल के कण हवाओं के साथ उड़कर आ जाते हैं। इस धूल का कुछ हिस्सा मूलत: सहारा रेगिस्तान से आता है। इससे समझ में आता है कि इतनी ऊंचाई पर भी सूक्ष्मजीव संसार में इतनी विविधता कैसे है। 7000 मीटर की ऊंचाई पर मुख्यत: हवाएं और मनुष्य ही इनके वाहक का कार्य करते हैं।

राइबोसोमल आरएनए अनुक्रमण की परिष्कृत तकनीकों का उपयोग करके सूक्ष्मजीव विशेषज्ञों ने दक्षिण कोल पर पाए जाने वाले बैक्टीरिया और अन्य सूक्ष्मजीवों की पहचान कर ली है। यहां से एकत्रित किए गए सूक्ष्मजीवों में सर्वदेशीय मनुष्यों की छाप देखी गई है। इसके अलावा, यहां मॉडेस्टोबैक्टर अल्टिट्यूडिनिस और नागानिशिया फफूंद भी पाए गए हैं। इन्हें पराबैंगनी-प्रतिरोधी संस्करणों के रूप में जाना जाता है।

माउंट एवरेस्ट को ‘सागरमाथा’ नाम किसने दिया? नेपाल के विख्यात इतिहासकार स्वर्गीय बाबूराम आचार्य ने 1960 के दशक में इसे नेपाली नाम सागरमाथा दिया था।

कंचनजंगा चोटी

1847 में, भारत के ब्रिटिश महासर्वेक्षक एंड्रयू वॉग ने हिमालय के पूर्वी छोर में एक चोटी की खोज की थी जो कंचनजंगा से भी ऊंची थी – कंचनजंगा को उस समय दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माना जाता था। उनके पूर्वाधिकारी, सर जॉर्ज एवरेस्ट, ऊंची पर्वत-चोटियों में रुचि रखते थे और उन्होंने वॉग को नियुक्त किया था। सच्ची औपनिवेशिक भावना दर्शाते हुए वॉग ने इस चोटी को माउंट एवरेस्ट का नाम दिया था।

भारतीय गणितज्ञ और सर्वेक्षक, राधानाथ सिकदर, एक काबिल गणितज्ञ थे। वे यह दर्शाने वाले पहले व्यक्ति थे कि माउंट एवरेस्ट (तब यह चोटी-XV के नाम से जानी जाती थी) दुनिया की सबसे ऊंची चोटी है। जॉर्ज एवरेस्ट ने सिकदर को 1831 में सर्वे ऑफ इंडिया में ‘गणक’ के पद पर नियुक्त किया था।

सिकदर ने सन 1852 में एक विशेष उपकरण की मदद से ‘चोटी XV’ की ऊंचाई 8839 मीटर दर्ज की थी। हालांकि, इसकी ऊंचाई की आधिकारिक घोषणा मार्च, 1856 में की गई थी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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शिक्षण में चैटजीपीटी का उपयोग

पिछले वर्ष नवंबर के अंत में एआई आधारित एक ऐसा आविष्कार बाज़ार में आया जिसने शोध और शिक्षण समुदाय से जुड़े लोगों को चिंता में डाल दिया। ओपनएआई द्वारा जारी किया गया चैटजीपीटी एक प्रकार का विशाल भाषा मॉडल (एलएलएम) एल्गोरिदम है जिसे भाषा के विपुल डैटा से प्रशिक्षित किया गया है।

कई शिक्षकों व प्रोफेसरों का ऐसा मानना था कि छात्र अपने निबंध और शोध सार लेखन के लिए चैटजीपीटी का उपयोग करके चीटिंग कर सकते हैं। छात्रों का कार्य मौलिक हो और उसमें शैक्षणिक बेईमानी न हो, इस उद्देश्य से कुछ विश्वविद्यालयों ने तो चैटजीपीटी आधारित टेक्स्ट को साहित्यिक चोरी की श्रेणी में रखा जबकि कई अन्य ने इसके उपयोग पर पूरी तरह प्रतिबंध ही लगा दिया। हालांकि युनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग (यू.के.) जैसे कई विश्वविद्यालय ऐसे भी हैं जिन्होंने इस सम्बंध में कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी नहीं किए हैं।

इस युनिवर्सिटी में पर्यावरण विज्ञान के प्रोफेसर हांग यैंग चैटजीपीटी को पूरी तरह से प्रतिबंधित करने के पक्ष में नहीं हैं। यैंग के अनुसार इस तकनीक द्वारा लिखे गए काम का पता लगाना काफी मुश्किल है लेकिन छात्रों को अधुनातन टेक्नॉलॉजी से दूर रखना भी उचित नहीं है। पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्हें ऐसी तकनीकों के साथ काम करना होगा। वे अभी इसका सही उपयोग करना नहीं सीखेंगे तो यकीनन पीछे रह जाएंगे। लिहाज़ा, इसे शिक्षण में एकीकृत करने का प्रयास तो किया ही जा सकता है। एक उदाहरण… 

वायु प्रदूषण के शिक्षक के रूप में यैंग ने अपने छात्रों से कॉलेज परिसर में वायु-गुणवत्ता डैटा एकत्रित करने के लिए छोटे समूहों में काम करने कहा। डैटा विश्लेषण और व्यक्तिगत निबंध लिखने के लिए उन्हें सांख्यिकीय तरीकों का उपयोग करना था। इस काम में कई छात्र कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन का आकलन करने के लिए उपयुक्त विधि खोजने में संघर्ष कर रहे थे। तब यैंग ने प्रोजेक्ट डिज़ाइन करने के लिए चैटजीपीटी का उपयोग करने का सुझाव दिया। इस मॉडल की मदद से उन्हें कार्बन डाईऑक्साइड निगरानी उपकरणों के लिए स्थान की पहचान करने से लेकर उपकरण स्थापित करने, डैटा एकत्र करने और उसका विश्लेषण करने तथा परिणामों को प्रस्तुत करने के बेहतरीन सुझाव मिले। 

इस प्रोजेक्ट में छात्र-वैज्ञानिकों ने विश्लेषण और निबंध लिखने का सारा काम किया लेकिन उन्होंने यह भी सीखा कि कैसे एलएलएम की मदद से वैज्ञानिक विचारों को तैयार किया जाता है और प्रयोगों की योजना बनाई जा सकती है। चैटजीपीटी की मदद से वे सांख्यिकीय परीक्षण करने तथा प्राकृतिक और मानव निर्मित परिसर में कार्बन डाईऑक्साइड के स्तरों का विश्लेषण करने में काफी आगे जा पाए।                   

इस अभ्यास के बाद से यैंग ने मूल्यांकन के तरीकों में भी परिवर्तन किया ताकि छात्र शैक्षिक सामग्री को बेहतर ढंग से समझें और चोरी करने से बच सकें। निबंध लिखने की बजाय यैंग ने प्रोजेक्ट के निष्कर्षों को साझा करने के लिए छात्रों को 10 मिनट की मौखिक प्रस्तुति देने को कहा। इससे न केवल साहित्यिक चोरी की संभावना में कमी आई बल्कि मूल्यांकन प्रक्रिया अधिक संवादनुमा और आकर्षक हो गई।  

हालांकि, चैटजीपीटी के कई फायदों के साथ नकारात्मक पहलू भी हैं। उदाहरण के तौर पर यैंग ने ग्रीनहाउस गैसों के व्याख्यान के दौरान चैटजीपीटी से जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित किताबों और लेखकों की सूची मांगी। इसी सवाल में उन्होंने नस्ल और भाषा के पूर्वाग्रह को रोकने के लिए खोज में “जाति और भाषा का ख्याल किए बगैर” जैसे शब्दों को भी शामिल किया। लेकिन फिर भी चैटजीपीटी के जवाब में सभी किताबें अंग्रेज़ी में थीं और 10 में से 9 लेखक श्वेत और 10 में से 9 लेखक पुरुष थे।  

वास्तव में एलएलएम को प्रशिक्षित करने के लिए पुरानी किताबों और वेबसाइटों की जानकारी का उपयोग करने से हाशिए वाले समुदायों के प्रति पक्षपाती दृष्टिकोण नज़र आता है, जबकि वर्चस्वपूर्ण वर्ग की उपस्थिति बढ़ जाती है। मेटा कंपनी के गैलेक्टिका नामक एलएलएम को इसीलिए हटाया गया है क्योंकि यह नस्लवादी सामग्री उत्पन्न कर रहा था। गौरतलब है कि एलएलएम को प्रशिक्षित करने के लिए उपयोग किया जाने वाला अधिकांश डैटा अंग्रेज़ी में है, इसलिए वे उसी भाषा में बेहतर प्रदर्शन करते हैं। एलएलएम का व्यापक उपयोग विशेषाधिकार प्राप्त समूहों के अति-प्रतिनिधित्व को बढ़ा सकता है, और पहले से ही कम प्रतिनिधित्व वाले लोगों को और हाशिए पर धकेल सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बृहस्पति के चंद्रमा पर पहला मिशन

त 14 अप्रैल को युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (ईएसए) द्वारा बृहस्पति के विशाल चंद्रमा का अध्ययन करने के लिए जुपिटर आइसी मून एक्स्प्लोरर (जूस) प्रक्षेपित किया गया। उम्मीद की जा रही है कि यह अंतरिक्ष यान गैलीलियो द्वारा 1610 में खोजे गए बृहस्पति के चार में से तीन बड़े चंद्रमाओं के नज़दीक से गुज़रते हुए अंत में ग्रह के सबसे विशाल चंद्रमा गैनीमेड की परिक्रमा करेगा। इस मिशन का उद्देश्य गैनीमेड की बर्फीली सतह के नीचे छिपे महासागर में जीवन के साक्ष्यों की खोज करना है। ऐसा पहली बार होगा जब कोई अंतरिक्ष यान हमारे अपने चंद्रमा के अलावा किसी अन्य प्राकृतिक उपग्रह की परिक्रमा करेगा।

यदि सब कुछ योजना अनुसार होता है तो 6 टन वज़नी अंतरिक्ष यान लगभग एक वर्ष के भीतर पृथ्वी और चंद्रमा के करीब से गुज़रेगा जिससे यान को बाहरी सौर मंडल की ओर बढ़ने में मदद मिलेगी। इसके लिए बहुत ही सटीक गुरुत्वाकर्षण-आधारित संचालन की आवश्यकता होगी। बाह्य सौर मंडल के अन्य मिशनों की तरह इस मिशन में भी जूस प्रक्षेपवक्र सीधा तो कदापि नहीं होगा। यह 2025 में वीनस के नज़दीक से गुज़रेगा और 2026 व 2029 में दो बार फिर से पृथ्वी के नज़दीक से गुज़रते हुए 2031 में बृहस्पति के करीब पहुंचेगा।

इस बिंदु पर यान के मुख्य इंजन को धीमा किया जाएगा ताकि वह बृहस्पति की परिक्रमा करने लगे। बृहस्पति की कक्षा में आने के बाद यह ग्रह के दूसरे सबसे बड़े चंद्रमा कैलिस्टो के काफी नज़दीक से 21 बार गुज़रेगा जबकि सबसे छोटे चंद्रमा युरोपा को बस दो बार पार करेगा।

2035 में जूस को गैनीमेड की कक्षा में भेजने के लिए इसके मुख्य इंजन को पुन: चालू किया जाएगा ताकि यह गैनीमीड की कक्षा में प्रवेश कर जाए। यह लगभग 9 महीने के लिए गैनीमेड के चारों ओर 500 किलोमीटर की ऊंचाई पर चक्कर लगाएगा। गैनीमीड की कक्षा में प्रवेश की प्रक्रिया भी काफी नाज़ुक होगी – गैनीमेड के चारों ओर धीमी गति से प्रवेश करना होगा और जूस की रफ्तार को गैनीमीड की कक्षीय गति से मेल खाना होगा। यदि इसमें थोड़ी भी चूक होती है तो बृहस्पति का गुरुत्वाकर्षण इसे गैनीमेड से और दूर ले जाएगा।

वैज्ञानिकों का मानना है कि बृहस्पति के कुछ चंद्रमाओं की बर्फीली सतह के नीचे तरल पानी उपस्थित है जो जीवन के विकास के लिए उचित वातावरण प्रदान कर सकता है। 1990 के दशक के मध्य में नासा के गैलीलियो प्रोब ने गैनीमेड और युरोपा पर महासागरों के साक्ष्य प्रदान किए थे। इसके बाद 2015 में हबल टेलिस्कोप की मदद से गैनीमेड पर ध्रुवीय ज्योति के संकेत भी मिले जो इस बात का प्रमाण है कि यहां चुंबकीय क्षेत्र मौजूद है।   

महासागरों की उपस्थिति के अधिक संकेत जूस द्वारा लेज़र-अल्टीमीटर द्वारा तैयार किए गए स्थलाकृति मानचित्रों से प्राप्त होंगे। अपनी साप्ताहिक परिक्रमा के दौरान गैनीमेड कुछ समय ग्रह के नज़दीक और कुछ समय दूर रहता है, इसके साथ ही अन्य चंद्रमाओं के गुरुत्वाकर्षण खिंचाव से उत्पन्न ज्वारीय बलों के कारण यह फैलता और सिकुड़ता है। एक बर्फीली सतह वाली दुनिया के लिए इस प्रकार की विकृतियां सतह को 10 मीटर तक ऊपर या नीचे ला सकती हैं।  

अपनी यात्रा के दौरान जूस 85 वर्ग मीटर के सौर पैनल का उपयोग करेगा जो ग्रह के चारों ओर संचालन के लिए आवश्यक है। इसके अलावा यह विभिन्न देशों द्वारा तैयार किए गए ढेर सारे उपकरण और एंटेना भी तैनात करेगा। बर्फीले चंद्रमाओं की सतहों की मैपिंग के साथ-साथ ये उपकरण उपग्रहों के वायुमंडल, बृहस्पति के मज़बूत चुंबकीय क्षेत्र और विकिरण बेल्ट आदि का भी अध्ययन करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ऑक्टोपस के फिंगरप्रिंट

पिग्मी ज़ेब्रा ऑक्टोपस प्रशांत महासागर के अमेरिकी तटीय क्षेत्र के मूल निवासी हैं। जैसा कि इनके नाम, पिग्मी ज़ेब्रा ऑक्टोपस, से झलकता है इनके शरीर पर ज़ेब्रा के समान धारियां होती हैं। अब, इन पर हुआ हालिया अध्ययन बताता है कि इनमें से प्रत्येक नन्हें सेफेलोपोड की ये धारियां अद्वितीय होती हैं, और संभवत: ये एक-दूसरे को पहचानने में मदद करती हैं।

कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने प्रयोगशाला में 25 नवजात पिग्मी ज़ेब्रा ऑक्टोपस (ऑक्टोपस चिरेचिए) की हर हफ्ते तस्वीरें लीं। फिर एडोब इलस्ट्रेटर की मदद से हरेक के शरीर की धारियों और धब्बों के पैटर्न देखे। प्लॉस वन में उन्होंने बताया है कि अंडे से निकलने के पांच दिन बाद ही उनमें धारियों के अद्वितीय पैटर्न दिखने लगते हैं और ये पैटर्न ताउम्र बने रहते हैं, भले ही उनकी त्वचा का रंग और बनावट बदल जाएं। हो सकता है कि ये ऑक्टोपस एक-दूसरे को इन धारियों से पहचानते हों।

मानव प्रतिभागी ऑक्टोपस के बीच उनकी धारियों की मदद से लगभग 85 प्रतिशत बार सही अंतर कर पाए। इससे लगता है कि जंतु अध्ययनों में टैटू या टैग लगाने की ज़रूरत नहीं होगी; इन धारियों की मदद से उनकी पहचान हो सकेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बढ़ता तापमान और बेसबॉल में बढ़ते होम रन

ह तो हम जानते हैं कि बढ़ता वैश्विक तापमान जीवन पर असर डालता है। लेकिन यह बात शायद थोड़ा हैरान कर दे कि यह खेलों को भी प्रभावित करता है। फिलहाल यह बात बेसबॉल के मामले में कही गई है।

दरअसल, हवा जितनी गर्म होगी उसका घनत्व उतना कम होगा। इसलिए वैश्विक तापमान में वृद्धि से, बल्ले द्वारा उछाली गई गेंद को हवा में कम घर्षण मिलेगा और सिद्धांतत: होम रन की संख्या बढ़ेगी। हालिया अध्ययन बताता है कि 2010 के बाद से मेजर लीग बेसबॉल (एमएलबी) में लगभग 0.8 प्रतिशत होम रन वैश्विक तापमान वृद्धि के कारण हुए हैं। हालांकि हाल के दशकों में होम रन की संख्या बढ़ने में अन्य कारकों की भूमिका भी रही है, जैसे खिलाड़ियों के बेहतर प्रयास और गेंद की डिज़ाइन आदि। बेसबॉल के खेल में आम तौर पर होम रन गेंद के मैदान को छुए बगैर सीमापार जाने पर माना जाता है।

वैसे 2012 में एक मैच के दौरान, पूर्व खिलाड़ी और कमेंटेटर टिम मैककार्वर ने संभावना जताई थी कि बढ़ते होम रन का कारण जलवायु परिवर्तन हो सकता है। उस समय तो यह विचार खारिज कर दिया गया था। लेकिन बेसबॉल प्रशंसक और जलवायु वैज्ञानिक क्रिस्टोफर कैलेहन ने इसे परखने का सोचा।

होम रन की बढ़ती संख्या में बढ़ते तापमान और घटते वायु घनत्व की भूमिका देखने के लिए कैलेहन के दल ने एमएलबी द्वारा सहेजे गए अथाह डैटा को देखा। एमएलबी ने दशकों से होम रन के आंकड़े तो सहेज ही रखे थे, साथ ही वर्ष 2015 से स्वचालित कैमरों और कंप्यूटरों द्वारा हर गेंद के वेग और प्रक्षेपवक्र का भी रिकॉर्ड रखा हुआ था।

दल ने 1962 से 2019 के बीच विभिन्न स्टेडियम में हुए एमएलबी मैचों वाले लगभग 1,00,000 दिनों के तापमान और होम रन का विश्लेषण किया। कंट्रोल के तौर पर उन्होंने 2015 से 2019 के बीच खेले गए मैचों में 2,20,000 बल्लेबाज़ों के हाई-स्पीड वीडियो फुटेज का विश्लेषण किया। दोनों विश्लेषणों के नतीजे एक ही थे: औसतन, तापमान में 1 डिग्री सेल्सियम की वृद्धि होम रन में लगभग 2 प्रतिशत की वृद्धि होती है। अमेरिकन मिटिरियोलॉजिकल सोसायटी के अनुसार हर 1 डिग्री सेल्सियस अतिरिक्त तापमान ने हर बेसबॉल सीज़न में 95 अतिरिक्त होम रन दिए हैं, और 2010 के बाद से 500 से भी अधिक अतिरिक्त होम रन बढ़ते तापमान की देन हैं।

वैसे, यह संख्या 2010 के बाद से मारे गए 65,300 से भी अधिक होम रन के सामने कुछ भी नहीं है। पिछले 40 सालों में प्रति गेम होम रन की संख्या 34 प्रतिशत बढ़ी है। और इसमें से अधिकांश बढ़त का जलवायु परिवर्तन से कोई लेना-देना नहीं है। होम रन की संख्या बढ़ने के मुख्य कारक बल्लेबाज़ के होम रन करने के प्रयास, और गेंद की सिलाई में बदलाव हैं।

बहरहाल, इतने अधिक और अच्छी तरह सहेजे गए डैटा की बदौलत जलवायु परिवर्तन का होम रन पर इतना बारीक प्रभाव पता लगा है और यह तापमान बढ़ने के साथ बढ़ेगा। तापमान बढ़ता रहा तो मैच के लिए रात का समय या बंद स्टेडियम पर विचार करना होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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