प्रकृति के रहस्यों की खोज

सत्यवती एम. सिरसाट

सत्यवती एम. सिरसाट
(अक्टूबर 1925 – जुलाई 2010)

पने बारे में लिखने बैठें, तो बचपन से जुड़े अनुभव और यादें उभर ही आती हैं। मेरा जन्म कराची में हुआ था, और मेरे पिता के शिपिंग व्यवसाय के कारण हम कई देशों में भटक ते रहे। मेरे माता-पिता कट्टर थियोसॉफिस्ट (theosophist) थे इसलिए उन्होंने मुझे बेसेंट मेमोरियल स्कूल में भेजा, जिसे डॉ. जॉर्ज और रुक्मणी अरुंडेल चलाते थे। रुक्मणी ने कलाक्षेत्र में रहते हुए प्राचीन भारतीय कला (ancient indian art) और संगीत का पुनर्जागरण किया था। किशोरावस्था में मैंने पॉल डी क्रुइफ की किताब दी माइक्रोब हंटर्स पढ़ी, जिसने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला। औपचारिक शिक्षा के साथ मुझे सांस्कृतिक धरोहर का भी लाभ मिला। मैंने मुंबई के सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज से माइक्रोबायोलॉजी (Microbiology Degree) में डिग्री प्राप्त की। पहली बार जब मैंने प्रकाशीय सूक्ष्मदर्शी (Light Microscope) से ग्राम पॉज़िटिव व ग्राम नेगेटिव जीवाणुओं (Gram Positive and Gram Negative Bacteria) की मिली-जुली स्लाइड देखी तो मुझे ऐसा जज़बाती रोमांच हुआ जिसे मैं कभी भूल नहीं सकती।

डिग्री प्राप्त करने के अगले ही दिन मैं बिना सोचे-समझे प्रयोगशाला के अध्यक्ष और टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल (Tata Memorial Hospital) के प्रमुख पैथोलॉजिस्ट (कैंसर और सम्बंधित रोग) (Pathologist for Cancer)  डॉ. वी. आर. खानोलकर के कार्यालय के बाहर खड़ी थी। न कोई फोन कॉल, न कोई अपॉइंटमेंट – मैं तो बस उनसे मुलाकात के इंतज़ार में खड़ी रही। करीब दो घंटे बाद उन्होंने मुझे अंदर बुलाया और लंबी बातचीत की। मुझे नहीं पता था कि यह उनका युवाओं का साक्षात्कार लेने का तरीका था। अंत में उन्होंने मुझसे पूछा कि अभी जिस बारे में बातचीत हुई है, क्या मैं वह सब संभाल पाऊंगी। मैंने युवा अक्खड़पन के साथ कहा, “बिलकुल!” और इस तरह मेरे विज्ञान के जीवन की शुरुआत हुई!

डॉ. खानोलकर बहुआयामी व्यक्तित्व थे। वे एक चिकित्सक थे जिनमें वैज्ञानिक सोच (Scientific Temperament)  तो स्वाभाविक रूप से थी। साथ ही वे कला प्रेमी, भाषाविद और कई भाषाओं के साहित्य के विद्वान भी थे। मैंने उनसे व्यापक वैज्ञानिक और कलात्मक दृष्टिकोण सीखा।

1948 में, भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने टाटा मेमोरियल के पैथोलॉजी विभाग को एक पूर्ण कैंसर अनुसंधान संस्थान (Cancer Research Institute)  बनाने का निर्णय लिया। एक वरिष्ठ शोध छात्र से ऊपर उठकर मैं इस नए शोध केंद्र की संस्थापक सदस्य बनी। हम तीन लोगों को विदेश भेजा गया ताकि हम जैव-चिकित्सा अनुसंधान (Biomedical Research) में उपयोगी नई तकनीकों जैसे जेनेटिक्स (Genetics), टिशू कल्चर (Tissue Culture) और इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी (Electron Microscopy) सीखकर लौटें। विज्ञान के दिग्गजों – हैंसस सेलिये, अल्बर्ट ज़ेंट-गेओरगी, लायनस पॉलिंग, एलेक्स हैडो, चार्ल्स ओबरलिंग और विलियम ऐस्टबरी – की प्रयोगशालाओं में काम करके विज्ञान की विधियों के साथ-साथ, मैंने वह वैज्ञानिक तहजीब भी सीखी जो आधुनिक जैव-चिकित्सा अनुसंधान के लिए आवश्यक है।

लौटकर मैंने अल्ट्रास्ट्रक्चरल सायटोलॉजी और डायग्नोस्टिक मॉलिक्यूलर पैथोलॉजी (Molecular Pathology) में भारत की पहली बायोमेडिकल प्रयोगशाला स्थापित की। इस केंद्र में विद्यार्थियों की भीड़ जुटने लगी, और यह अपने काम के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध हो गया। इस प्रयोगशाला में हमने कोशिका झिल्ली के सामान्य से असामान्य में परिवर्तित होने, कैंसर, जंक्शनल कॉम्प्लेक्स और कैंसर के फैलाव, वायरस, रक्त, स्तन और नाक के कैंसर पर अध्ययन किए। हमारा मुख्य ध्यान मुंह के कैंसर (Oral Cancer from Tobacco) की कैंसर-पूर्व स्थितियों (Oral Pre-Cancer), जैसे ल्यूकोप्लाकिया (Leukoplakia) और ओरल सबम्यूकस फाइब्रोसिस (Oral Submucous Fibrosis) तथा, सच कहूं तो, भारत में पान और तंबाकू के सेवन से फैलने वाले मुंह के कैंसर पर था। प्रयोगशाला में प्रशिक्षित शोधार्थियों को औपचारिक वैज्ञानिक प्रशिक्षण के साथ-साथ और भी बहुत कुछ सीखने को मिला। जब बॉम्बे युनिवर्सिटी ने लाइफ साइंसेज़ में स्नातक और स्नातकोत्तर कार्यक्रम शुरू किए तो यह एक वरदान था।

मैं हमेशा अस्पताल के गलियारों में पीड़ित मानवता के प्रति जागरूक रही। हम अपने काम के वैज्ञानिक पहलुओं (जैसे इलेक्ट्रॉन हिस्टोकेमिस्ट्री, इम्यून इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी, इलेक्ट्रॉन ऑटोरेडियोग्राफी, क्रायोइलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी) के साथ-साथ मानवीय पक्ष को लेकर भी सचेत थे। कैंसर रोगियों के जीवन और उनकी मृत्यु की निकटता ने मुझे शांति अवेदना आश्रम – भारत का पहला हॉस्पाइस (India’s First Hospice) (मरणासन्न रोगियों का आश्रय) – शुरू करने के लिए प्रेरित किया। मैं इस संस्थान की संस्थापक ट्रस्टी और काउंसलर रही।

मैं यह बता चुकी हूं कि कैसे युवावस्था में रोमांस और यथार्थ ने मेरे मन पर गहरा प्रभाव डाला और मुझे इस रास्ते पर धकेल दिया। जहां तक मार्गदर्शकों की बात है, मेरे पहले गुरु मेरे पिता थे। वे स्वभाव से एक अध्येता थे जिन्होंने शुरुआत सेंट ज़ेवियर कॉलेज में अंग्रेज़ी के प्रोफेसर के रूप में की थी, लेकिन बाद में शिपिंग के क्षेत्र में चले गए। वे खूब पढ़ते थे और संस्कृत के विद्वान थे। ये गुण उन्होंने अपने बच्चों को भी दिए। वे लेखक भी थे।

वैज्ञानिक जीवन में मेरे पहले मार्गदर्शक डॉ. खानोलकर थे, और दूसरे मेरे पति, डॉ. एम. वी. सिरसाट, जिन्होंने मेरे जीवन में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हमारे बीच उम्र का काफी अंतर था, लेकिन वे मेरे दोस्त, दार्शनिक और मार्गदर्शक थे। वे एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जाने-माने ऑन्को-पैथोलॉजिस्ट (कैंसर-निदान विशेषज्ञ) (Onco-Pathologist)  थे, जो सामान्य से रोगग्रस्त अवस्था की ओर संक्रमण, विशेषकर नियोप्लेसिया और दुर्दम्यता (मैलिगनेंसी) के संदर्भ में गहन जानकारी रखते थे। वे नौजवान पैथोलॉजिस्ट्स के बीच बेहद लोकप्रिय शिक्षक थे। जब भी मुझे इस भयावह बीमारी (Cancer Diagnosis) की जटिलताओं से जूझना पड़ता, वे इसे धैर्य और स्नेह से हल कर देते। हमारा यह साथ काफी अद्भुत था। उन्होंने मेरे शोध को हर संभव समर्थन दिया और मेरी पेशेवर उपलब्धियों पर गर्व महसूस किया।

क्या मैंने कभी अपना करियर बदलने पर विचार किया? नहीं, कभी नहीं! मैं कभी भी अपने पेशे को बदलने के बारे में सोच नहीं सकी। यह सिर्फ एक नौकरी नहीं थी, यह टाटा मेमोरियल सेंटर और पूरी दुनिया की प्रयोगशालाओं में मेरी साधना और तपस्या थी। यह मेरे काम के साथ एक “प्रेम कहानी” (Passion for Science Career) थी, जिसमें मैंने जो ज्ञान अर्जित किया, उसे भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के सैकड़ों विद्यार्थियों तक पहुंचाया।

सेवानिवृत्त के बाद भी मैं टाटा मेमोरियल सेंटर की मेडिकल एथिक्स कमेटी (Medical Ethics Committee)  के अध्यक्ष के रूप में काम करती रही। मैंने 17 साल तक भारतीय विद्या भवन आयुर्वेदिक केंद्र में ‘प्राचीन ज्ञान और आधुनिक खोज’ पर काम किया। इस कार्य में संस्कृत के ज्ञान ने मेरी काफी मदद की। मैंने वृद्धात्रयी – चरक, सुश्रुत और वाग्भट में कैंसर वर्गीकरण (Cancer Classification in Ayurveda)  के एक प्रोजेक्ट पर काम किया। यह देखकर हैरानी होती है कि इन प्राचीन विद्वानों के विवरण आधुनिक विज्ञान से कितनी अच्छी तरह मेल खाते हैं। उन्हें विभिन्न ऊतकों (टिश्यू) के ट्यूमर और उनके जैविक व्यवहार, सौम्य और घातक (Benign and Malignant Tumors) (बेनाइन और मैलिग्नेंट) कैंसर तथा हड्डी और रक्त कैंसर (Bone and Blood Cancer) के बारे में गहरी जानकारी थी। उनके पास तो केवल मानव शरीर, मृत व्यक्ति का बारीकी से निरीक्षण तथा उनका अंतर्ज्ञान ही एकमात्र साधन था।

आखिर में युवा वैज्ञानिकों के लिए कुछ बातें: क्या आप एक सम्मानित वैज्ञानिक कहलाना चाहते हैं? जीवन के सिद्धांत सख्त होते हैं! अपने काम के प्रति ईमानदार रहें और खुद से सच्चे रहें। अनुशासन बनाए रखें। अपने साथी वैज्ञानिकों के काम का कभी अपमान न करें। सतर्क रहें – अपनी लॉगबुक या रिकॉर्ड में किसी पहले से तय सिद्धांत के अनुसार कभी हेरा-फेरी न करें। सबसे ज़रूरी, जीवन सीखने के लिए है – तो सीखते रहिए, सीखते रहिए और सीखते रहिए! आप बहुत रोमांचक यात्रा पर हैं – वह यात्रा है प्रकृति के रहस्यों की खोजबीन की यात्रा! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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महामारी संधि के लिए एकजुटता, अमेरिका बाहर

तीन साल की बातचीत के बाद, दुनिया के देशों ने आखिरकार एक ऐतिहासिक संधि पर सहमति जताई है, जिसका उद्देश्य भविष्य की महामारियों (pandemic treaty) के लिए बेहतर तैयारी करना है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा समर्थित नई वैश्विक संधि, कोविड-19 (covid-19) महामारी के दौरान हुई गलतियों से सीखकर, खासकर टीकों (vaccines), दवाओं (drugs) और सूचनाओं के आदान-प्रदान को बेहतर बनाने की कोशिश है।

संधि का मुख्य उद्देश्य महामारी से निपटने के तरीकों को त्वरित और निष्पक्ष बनाना है एवं देशों को एकजुट करना है। गौरतलब है कि इस समझौते से एक महत्वपूर्ण पक्ष, यानी अमेरिका, गायब है। शुरुआती बातचीत में अहम भूमिका निभाने के बावजूद, अमेरिका ने इन वार्ताओं से दूरी बना ली है। फिर भी, अधिकांश देशों ने लोगों की भलाई के लिए समझौता वार्ता को जारी रखा। संधि की कुछ मुख्य बातें यहां दी प्रस्तुत हैं।

स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की सुरक्षा

संधि की पहली सहमति स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को बेहतर सुरक्षा देने से सम्बंधित है। कोविड-19 संकट के दौरान, अग्रिम पंक्ति (healthcare frontline workers) के कई कार्यकर्ताओं (डॉक्टर, नर्स, लैब तकनीशियन वगैरह) को व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों (PPE) की गंभीर कमी का सामना करना पड़ा था। संधि में इन अग्रिम पंक्ति कार्यकर्ताओं के लिए बेहतर नीतियां बनाने की बात की गई है ताकि उन्हें सही उपकरण, प्रशिक्षण और समर्थन मिल सके। उनकी सुरक्षा महत्वपूर्ण है क्योंकि अगर स्वास्थ्य कार्यकर्ता बीमार पड़ते हैं तो पूरी स्वास्थ्य प्रणाली ठप हो जाती है।

नए टीकों दवाओं को मंज़ूरी

संधि देशों से आव्हान करती है कि नए टीकों और दवाओं के परीक्षण और मंज़ूरी प्रक्रिया को, सुरक्षा से समझौता किए बगैर, गति दें। इसका उद्देश्य वैश्विक प्रणाली को अधिक प्रभावी बनाना है ताकि जीवन रक्षक उपचार (emergency vaccine approval) लोगों तक जल्दी पहुंच सकें। इसके लिए संधि में देशों को अपनी दवा नियामक प्रणालियां मज़बूत करने का सुझाव दिया गया है।

छलकने को थामना

कई महामारियां, जैसे कोविड-19, तब शुरू हुईं जब वायरस जीवों से मनुष्यों में पहुंचे। इसे (छलकना) ‘स्पिलओवर’ कहा जाता है। संधि में ऐसे स्पिलओवर का खतरे कम करने के लिए अधिक निवेश का सुझाव है। इसमें जंतुओं में रोगों की निगरानी, वन्यजीव व्यापार पर सख्त नियंत्रण और जीवित जंतुओं के बाज़ारों में स्वच्छता और निगरानी में सुधार शामिल है।

त्वरित डैटा साझेदारी

कोविड-19 के दौरान, वायरस के नमूनों और जेनेटिक जानकारी साझा करने में देरी से टीकों और परीक्षणों के विकास में बाधा आई। संधि में देशों से नए वायरसों और बैक्टीरिया के बारे में जानकारी तुरंत और सार्वजनिक करने (real-time data sharing) की अपील की गई है, ताकि दुनिया भर के वैज्ञानिक मिलकर उपचार विकसित कर सकें।

पहुंच में समता

पिछली महामारी में, समृद्ध देशों ने ज़रूरत से ज़्यादा टीके जमा कर लिए थे, जबकि गरीब देशों को बहुत लंबा इंतज़ार करना पड़ा था। अमीर हो या गरीब, संधि सभी देशों को टीका, उपचार और निदान (vaccine quity) का उचित हिस्सा, उचित समय पर देने की बात करती है। संधि में उत्पादकों को टीकों वगैरह का एक हिस्सा आपातकालीन स्थितियों में आपूर्ति हेतु दान करने या सस्ती कीमतों पर उपलब्ध कराने के लिए प्रोत्साहित किया गया है।

इस संधि की मुख्य बात यह है कि यह कोविड-19 महामारी के अनुभव से जन्मी है। जिन देशों के पास टीका कारखाने थे, उनके पास टीकों की भरपूर खुराकें थीं, जबकि गरीब देशों को टीके मुश्किल से मिल रहे थे। यदि टीकों का समान वितरण होता तो लाखों संक्रमण और जानें बचाई जा सकती थीं। इसी समस्या के मद्देनज़र, WHO के 194 सदस्य देशों ने दिसंबर 2021 में एक वैश्विक संधि का मसौदा (draft pandemic accord) तैयार करना शुरू किया, ताकि भविष्य में ऐसी दिक्कतों से बचा जा सके।

संधि पर सहमति तक पहुंचना आसान नहीं था। वार्ता में सबसे मुश्किल मुद्दा समानता का था: यह कैसे सुनिश्चित किया जाए कि जो गरीब देश खतरनाक वायरस की जानकारी साझा करें, उन्हें उस जानकारी के आधार पर विकसित टीकों और उपचारों तक भी समान पहुंच मिले। इससे एक नया सिस्टम बना – रोगजनकों तक पहुंच व लाभों की साझेदारी (Pathogen Access and Benefit Sharing  – PABS)। इसे इस तरह समझें: अगर कोई देश नया वायरस खोजता है और उसे पूरी दुनिया वैज्ञानिकों के साथ साझा करता है तो उसे इसके खिलाफ विकसित टीकों व दवाइयों का एक उचित हिस्सा मिलना चाहिए। न सिर्फ टीके मिलना चाहिए बल्कि टीका तैयार करने की विधि भी मिलना चाहिए ताकि ऐसे देश खुद अपना टीका बना सकें।

एक और प्रमुख बहस प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के बारे में थी। इसका उद्देश्य विकासशील देशों को अपनी खुद की दवाइयां और टीके बनाने के लिए सहायता प्रदान करना है। कई निम्न-आय वाले देशों का मानना था कि उन्हें भविष्य में महामारी के दौरान समृद्ध देशों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए, और उन्हें खुद को आत्मनिर्भर बनाना चाहिए।

लेकिन यह कैसे हो? प्रारंभिक मसौदों में कहा गया था कि प्रौद्योगिकी “आपसी सहमति से तय शर्तों” पर साझा की जाएगी। हालांकि, कुछ समृद्ध देशों ने इसमें “स्वैच्छिक” शब्द जोड़ने की इच्छा जताई, जिसका मतलब था कि किसी भी देश को प्रौद्योगिकी साझा करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। गरीब देशों के लिए यह अस्वीकार्य था क्योंकि उन्हें डर था कि इससे संधि कमज़ोर हो जाएगी और भविष्य के लिए गलत मिसाल बनेगी। लंबी चर्चाओं के बाद, दोनों पक्षों ने “आपसी सहमति से तय शर्तों” शब्द को बरकरार रखा और एक फुटनोट जोड़ा, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि इसका मतलब “इच्छा से लिया गया” है।

संधि के अंतिम संस्करण में निर्माताओं (दवा और टीका निर्माताओं) (vaccine manufacturers commitment) ने यह संकल्प लिया है: अपने महामारी उत्पादों (टीकों, दवाइयों, नैदानिक परीक्षणों) का 10 प्रतिशत हिस्सा WHO को वैश्विक वितरण के लिए दान करेंगे; इसके अलावा, 10 प्रतिशत सस्ती कीमतों पर ज़रूरतमंद देशों को उपलब्ध कराएंगे। अगले वर्ष इन प्रतिशतों पर अंतिम सहमति बनने के बाद ही सारे देश संधि पर हस्ताक्षर करेंगे।

इस संधि में कुछ कमियां भी लगती हैं; जैसे इसमें देशों के लिए नियम नहीं हैं, यह महज़ दिशानिर्देश देती है। फिर भी, केवल तीन वर्षों में एक नया अंतर्राष्ट्रीय समझौता (international health agreement) बनाना बड़ी बात है। सामान्यत: ऐसे समझौते बनाने में ज़्यादा समय लगता है। बहरहाल, संधि के अंतिम रूप में पहुंचने और मंज़ूरी का बेसब्री से इंतज़ार है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दुनिया भर की मिट्टी में विषैली धातुएं

ज़ारों सालों से इंसान ज़मीन ने धातुएं निकालकर तरह-तरह के औज़ार और उपकरण बनाते आए हैं – पुराने तांबे-कांसे-लोहे के औज़ारों से लेकर वर्तमान जटिल इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों तक (heavy metals in soil)। लेकिन इस तरक्की की एक भारी कीमत भी चुकानी पड़ी है: मृदा में ज़हरीली धातुओं का संदूषण(soil contamination)। हाल ही में वैज्ञानिकों बताया है कि पृथ्वी की ऊपरी मृदा (टॉप-सॉइल) का एक बड़ा हिस्सा ज़हरीली धातुओं से संदूषित है। यह संदूषण लगभग एक से डेढ़ अरब लोगों के लिए खतरा बन सकता है (toxic metals health risk)।

साइंस पत्रिका में प्रकाशित यह अध्ययन वैश्विक स्तर पर मृदा में मौजूद ज़हरीली धातुओं का पहला व्यापक विश्लेषण (global soil pollution study) है। इसमें दुनिया भर से जुटाए गए लगभग 8 लाख मृदा नमूनों का डैटा इस्तेमाल किया गया है। अध्ययन के अनुसार दक्षिणी युरोप से चीन तक फैले एक बड़े इलाके और अफ्रीका तथा अमेरिका के कई हिस्सों में मृदा खतरनाक स्तर तक संदूषित है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि दुनिया की 14-17 प्रतिशत कृष्य भूमि इससे प्रभावित है, जिससे लोगों की सेहत और खाद्य सुरक्षा दोनों पर असर पड़ेगा (agricultural land contamination)।

गौरतलब है कि आर्सेनिक, कैडमियम, सीसा जैसी ज़हरीली धातुएं इंसानी सेहत के लिए अत्यंत नुकसानदायक होती हैं (arsenic cadmium lead effects)। ये कैंसर, दिल और फेफड़ों की बीमारियों के साथ-साथ बच्चों के मानसिक विकास में रुकावट पैदा कर सकती हैं। थोड़ी मात्रा में तो ये धातुएं मृदा में प्राकृतिक रूप से होती हैं, लेकिन खनन, धातु संगलन जैसी गतिविधियों से इनकी मात्रा बहुत बढ़ जाती है (metal mining pollution)।

वैश्विक स्तर पर इनका प्रसार जानने के लिए ज़िंगहुआ विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डेयी हॉउ के दल ने मृदा में ज़हरीली धातुओं पर हुए 1493 अध्ययनों से डैटा जुटाया। फिर मशीन लर्निंग तकनीक की मदद से उन्होंने उन इलाकों में भी धातुओं की मौजूदगी का अनुमान लगाया, जहां इस तरह के अध्ययन नहीं हुए थे (AI in environmental research)। इस तरह से तैयार विस्तृत वैश्विक नक्शा दर्शाता है कि विश्व के किन-किन हिस्सों में मृदा में खतरनाक मात्रा में ज़हरीली धातुएं हो सकती हैं।

इस अध्ययन में पाया गया कि कैडमियम सबसे व्यापक रूप से फैली संदूषक (cadmium soil levels) है – लगभग 9 प्रतिशत ऊपरी मृदा में इसका स्तर उच्च पाया गया। कैडमियम प्राकृतिक रूप से चट्टानों के अपरदन और इंसानी गतिविधियों, जैसे ज़िंक खनन और बैटरी उत्पादन से आती है। इसका मिट्टी में मिलना खास तौर पर चिंताजनक है क्योंकि यह आसानी से फैलती है और खाद्य शृंखला (food chain contamination) में प्रवेश कर सकती है।

हालांकि मृदा में धातु संदूषण से खतरा इस बात पर निर्भर करता है कि पौधे इन धातुओं को कितनी आसानी से अवशोषित करते हैं। उदाहरण के लिए, क्षारीय या चूनेदार मृदा में, कैडमियम जैसी धातुएं फसलों द्वारा कम अवशोषित होती हैं। फिर भी, वैज्ञानिक अधिक शोध पर ज़ोर देते हैं। वे विशेष रूप से यह समझना चाहते हैं कि ये धातुएं विभिन्न प्रकार की मृदाओं में कैसे व्यवहार (metal uptake in plants) करती हैं।

इस अध्ययन की एक सीमा भी है: इसमें धातुओं के अलग-अलग यौगिकों का विश्लेषण नहीं किया गया जिससे यह निर्धारित किया जा सके कि वे कितनी विषैली हैं। केवल जैविक रूप से उपलब्ध धातुएं, जिन्हें पौधे और जीव अवशोषित कर सकते हैं, ही गंभीर खतरा होती हैं। फिर भी, इन निष्कर्षों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए।

इस अध्ययन में पहचाने गए सबसे अधिक जोखिम वाले क्षेत्र (high risk zones soil pollution) हैं दक्षिणी चीन, उत्तरी भारत, और मध्य पूर्व। सबसे हैरत की बात धातु संदूषण के प्रसार का एक गलियारा है जो दक्षिण युरोप से लेकर पूर्वी एशिया तक फैला है। यह गलियारा विश्व की कुछ सबसे प्राचीन सभ्यताओं से होकर गुज़रता है जहां खनन, उद्योग और बदलते मौसमों का लंबा इतिहास रहा है। यहां की कुछ मृदाएं क्षारीय हैं और विषाक्तता को कम कर सकती हैं। समग्र चित्र दर्शाता है कि यह मानव द्वारा पृथ्वी की सतह पर गहरा प्रभाव डालने का परिणाम है। बहरहाल, दुनिया को बैटरी और सौर पैनलों जैसी हरित प्रौद्योगिकियों (green technology metals demand) के लिए अधिक धातुओं की आवश्यकता है; इससे मृदा संदूषण का जोखिम बढ़ सकता है। अध्ययन के लेखकों ने सरकारों से अनुरोध किया है कि वे मृदा की जांच बढ़ाएं, विशेष रूप से अफ्रीका के उप-सहारा क्षेत्रों जैसी जगहों में जहां अध्ययन कम हुए हैं। कुल मिलाकर यह अध्ययन दर्शाता है कि हमारे पैरों तले की ज़मीन उतनी सुरक्षित नहीं है जितना हम सोचते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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कोलोसल स्क्विड को जीवित देखा गया

रीब एक सदी से वैज्ञानिकों को एक जीव की तलाश थी – यह जीव था एक प्रकार का स्क्विड (Mesonychoteuthis hamiltoni) (colossal squid)। हाल ही में शोधकर्ता इस आधा टन वज़नी स्क्विड को उसके अपने प्राकृतवास में जीवित देख पाए हैं। और तो और, उन्होंने इसे इसकी शैशवावस्था (baby colossal squid) में देखा है।

दरअसल, करीब सौ साल पहले वैज्ञानिकों ने स्पर्म व्हेल के पेट में पहली बार इस स्क्विड (कोलोसल स्क्विड) के अवशेषों को देखा था (deep sea creatures)। तब से उन्हें इसकी तलाश थी। हालांकि मछुआरों द्वारा मछली पकड़ने के लिए फेंके गए जाल में कभी-कभी ये स्क्विड भी फंस जाते हैं, लेकिन मृत अवस्था में। मृत कोलोसल स्क्विड के अवलोकन के आधार पर वैज्ञानिक इसके बारे में कुछ बुनियादी बातें बता पाए थे। जैसे वह कैसा दिखता है, उसका भोजन क्या होगा वगैरह। उनका यह भी अनुमान था कि यह समुद्री जीवन का संभवत: सबसे वज़नी अकेशरुकी जीव होगा(largest invertebrate in ocean)।

लेकिन जीवित मिल जाए तो इसके बारे में बहुत कुछ बताया जा सकता है। इसलिए लगातार इसकी तलाश जारी थी। इस तलाश को विराम मिला विगत 9 मार्च को, जब श्मिट ओशियन इंस्टीट्यूट (Schmidt Ocean Institute) का शोधपोत दक्षिण अटलांटिक महासागर में सर्वेक्षण अभियान पर था। जब शोधपोत दक्षिणी सेंडविच द्वीप के पास था, तब रिमोट नियंत्रित किए जा सकने वाले वीडियो कैमरे से लैस एक गाड़ी समुद्र में 600 मीटर की गहराई पर भेजी गई (underwater ROV), जिसके ज़रिए जीवविज्ञानी समुद्र की इस गहराई पर मौजूद जीवन का जायज़ा ले रहे थे। इसी दौरान उन्होंने 30 सेंटीमीटर लंबे शिशु स्क्विड को देखा। स्क्विड के विशिष्ट टेंटेकल्स और पिच्छों की आकृति से जीव वैज्ञानिकों ने इसके कोलोसल स्क्विड होने की पुष्टि की है। शिशु अवस्था में इसका शरीर पारदर्शी होता है। वैज्ञानिकों का ऐसा अनुमान है कि उम्र बढ़ने के साथ इसका पारदर्शी शरीर अपारदर्शी और लाल रंग का हो जाएगा।

इसके थोड़े ही पहले, जनवरी माह में एक अन्य अभियान में अंटार्कटिका के नज़दीक बेलिंग्सहॉसन सागर में इस स्क्विड के एक सम्बंधी, ग्लेशियल ग्लास स्क्विड (Galiteuthis glacialis) (glacial glass squid) को भी पहली बार देखा गया था। दो अभियानों में दो अलग-अलग स्क्विड को पहली बार देखा जाना दर्शाता है कि हम महासागरीय जीवन से कितना अनभिज्ञ (mysteries of deep sea) हैं। बहरहाल, इन खोजों से उम्मीद है कि वैज्ञानिक इन जीवों के बारे में अधिक जान पाएंगे। (स्रोत फीचर्स)  

कोलोसल स्क्विड का वीडियो यहां देखें।

https://www.science.org/content/article/colossal-squid-filmed-its-natural-habitat-first-time?utm_source=sfmc&utm_medium=email&utm_content=alert&utm_campaign=WeeklyLatestNews&et_rid=17088531&et_cid=5592648

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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