महामारी संधि के लिए एकजुटता, अमेरिका बाहर

तीन साल की बातचीत के बाद, दुनिया के देशों ने आखिरकार एक ऐतिहासिक संधि पर सहमति जताई है, जिसका उद्देश्य भविष्य की महामारियों (pandemic treaty) के लिए बेहतर तैयारी करना है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा समर्थित नई वैश्विक संधि, कोविड-19 (covid-19) महामारी के दौरान हुई गलतियों से सीखकर, खासकर टीकों (vaccines), दवाओं (drugs) और सूचनाओं के आदान-प्रदान को बेहतर बनाने की कोशिश है।

संधि का मुख्य उद्देश्य महामारी से निपटने के तरीकों को त्वरित और निष्पक्ष बनाना है एवं देशों को एकजुट करना है। गौरतलब है कि इस समझौते से एक महत्वपूर्ण पक्ष, यानी अमेरिका, गायब है। शुरुआती बातचीत में अहम भूमिका निभाने के बावजूद, अमेरिका ने इन वार्ताओं से दूरी बना ली है। फिर भी, अधिकांश देशों ने लोगों की भलाई के लिए समझौता वार्ता को जारी रखा। संधि की कुछ मुख्य बातें यहां दी प्रस्तुत हैं।

स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की सुरक्षा

संधि की पहली सहमति स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को बेहतर सुरक्षा देने से सम्बंधित है। कोविड-19 संकट के दौरान, अग्रिम पंक्ति (healthcare frontline workers) के कई कार्यकर्ताओं (डॉक्टर, नर्स, लैब तकनीशियन वगैरह) को व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों (PPE) की गंभीर कमी का सामना करना पड़ा था। संधि में इन अग्रिम पंक्ति कार्यकर्ताओं के लिए बेहतर नीतियां बनाने की बात की गई है ताकि उन्हें सही उपकरण, प्रशिक्षण और समर्थन मिल सके। उनकी सुरक्षा महत्वपूर्ण है क्योंकि अगर स्वास्थ्य कार्यकर्ता बीमार पड़ते हैं तो पूरी स्वास्थ्य प्रणाली ठप हो जाती है।

नए टीकों दवाओं को मंज़ूरी

संधि देशों से आव्हान करती है कि नए टीकों और दवाओं के परीक्षण और मंज़ूरी प्रक्रिया को, सुरक्षा से समझौता किए बगैर, गति दें। इसका उद्देश्य वैश्विक प्रणाली को अधिक प्रभावी बनाना है ताकि जीवन रक्षक उपचार (emergency vaccine approval) लोगों तक जल्दी पहुंच सकें। इसके लिए संधि में देशों को अपनी दवा नियामक प्रणालियां मज़बूत करने का सुझाव दिया गया है।

छलकने को थामना

कई महामारियां, जैसे कोविड-19, तब शुरू हुईं जब वायरस जीवों से मनुष्यों में पहुंचे। इसे (छलकना) ‘स्पिलओवर’ कहा जाता है। संधि में ऐसे स्पिलओवर का खतरे कम करने के लिए अधिक निवेश का सुझाव है। इसमें जंतुओं में रोगों की निगरानी, वन्यजीव व्यापार पर सख्त नियंत्रण और जीवित जंतुओं के बाज़ारों में स्वच्छता और निगरानी में सुधार शामिल है।

त्वरित डैटा साझेदारी

कोविड-19 के दौरान, वायरस के नमूनों और जेनेटिक जानकारी साझा करने में देरी से टीकों और परीक्षणों के विकास में बाधा आई। संधि में देशों से नए वायरसों और बैक्टीरिया के बारे में जानकारी तुरंत और सार्वजनिक करने (real-time data sharing) की अपील की गई है, ताकि दुनिया भर के वैज्ञानिक मिलकर उपचार विकसित कर सकें।

पहुंच में समता

पिछली महामारी में, समृद्ध देशों ने ज़रूरत से ज़्यादा टीके जमा कर लिए थे, जबकि गरीब देशों को बहुत लंबा इंतज़ार करना पड़ा था। अमीर हो या गरीब, संधि सभी देशों को टीका, उपचार और निदान (vaccine quity) का उचित हिस्सा, उचित समय पर देने की बात करती है। संधि में उत्पादकों को टीकों वगैरह का एक हिस्सा आपातकालीन स्थितियों में आपूर्ति हेतु दान करने या सस्ती कीमतों पर उपलब्ध कराने के लिए प्रोत्साहित किया गया है।

इस संधि की मुख्य बात यह है कि यह कोविड-19 महामारी के अनुभव से जन्मी है। जिन देशों के पास टीका कारखाने थे, उनके पास टीकों की भरपूर खुराकें थीं, जबकि गरीब देशों को टीके मुश्किल से मिल रहे थे। यदि टीकों का समान वितरण होता तो लाखों संक्रमण और जानें बचाई जा सकती थीं। इसी समस्या के मद्देनज़र, WHO के 194 सदस्य देशों ने दिसंबर 2021 में एक वैश्विक संधि का मसौदा (draft pandemic accord) तैयार करना शुरू किया, ताकि भविष्य में ऐसी दिक्कतों से बचा जा सके।

संधि पर सहमति तक पहुंचना आसान नहीं था। वार्ता में सबसे मुश्किल मुद्दा समानता का था: यह कैसे सुनिश्चित किया जाए कि जो गरीब देश खतरनाक वायरस की जानकारी साझा करें, उन्हें उस जानकारी के आधार पर विकसित टीकों और उपचारों तक भी समान पहुंच मिले। इससे एक नया सिस्टम बना – रोगजनकों तक पहुंच व लाभों की साझेदारी (Pathogen Access and Benefit Sharing  – PABS)। इसे इस तरह समझें: अगर कोई देश नया वायरस खोजता है और उसे पूरी दुनिया वैज्ञानिकों के साथ साझा करता है तो उसे इसके खिलाफ विकसित टीकों व दवाइयों का एक उचित हिस्सा मिलना चाहिए। न सिर्फ टीके मिलना चाहिए बल्कि टीका तैयार करने की विधि भी मिलना चाहिए ताकि ऐसे देश खुद अपना टीका बना सकें।

एक और प्रमुख बहस प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के बारे में थी। इसका उद्देश्य विकासशील देशों को अपनी खुद की दवाइयां और टीके बनाने के लिए सहायता प्रदान करना है। कई निम्न-आय वाले देशों का मानना था कि उन्हें भविष्य में महामारी के दौरान समृद्ध देशों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए, और उन्हें खुद को आत्मनिर्भर बनाना चाहिए।

लेकिन यह कैसे हो? प्रारंभिक मसौदों में कहा गया था कि प्रौद्योगिकी “आपसी सहमति से तय शर्तों” पर साझा की जाएगी। हालांकि, कुछ समृद्ध देशों ने इसमें “स्वैच्छिक” शब्द जोड़ने की इच्छा जताई, जिसका मतलब था कि किसी भी देश को प्रौद्योगिकी साझा करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। गरीब देशों के लिए यह अस्वीकार्य था क्योंकि उन्हें डर था कि इससे संधि कमज़ोर हो जाएगी और भविष्य के लिए गलत मिसाल बनेगी। लंबी चर्चाओं के बाद, दोनों पक्षों ने “आपसी सहमति से तय शर्तों” शब्द को बरकरार रखा और एक फुटनोट जोड़ा, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि इसका मतलब “इच्छा से लिया गया” है।

संधि के अंतिम संस्करण में निर्माताओं (दवा और टीका निर्माताओं) (vaccine manufacturers commitment) ने यह संकल्प लिया है: अपने महामारी उत्पादों (टीकों, दवाइयों, नैदानिक परीक्षणों) का 10 प्रतिशत हिस्सा WHO को वैश्विक वितरण के लिए दान करेंगे; इसके अलावा, 10 प्रतिशत सस्ती कीमतों पर ज़रूरतमंद देशों को उपलब्ध कराएंगे। अगले वर्ष इन प्रतिशतों पर अंतिम सहमति बनने के बाद ही सारे देश संधि पर हस्ताक्षर करेंगे।

इस संधि में कुछ कमियां भी लगती हैं; जैसे इसमें देशों के लिए नियम नहीं हैं, यह महज़ दिशानिर्देश देती है। फिर भी, केवल तीन वर्षों में एक नया अंतर्राष्ट्रीय समझौता (international health agreement) बनाना बड़ी बात है। सामान्यत: ऐसे समझौते बनाने में ज़्यादा समय लगता है। बहरहाल, संधि के अंतिम रूप में पहुंचने और मंज़ूरी का बेसब्री से इंतज़ार है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://th-i.thgim.com/public/opinion/op-ed/sie8s2/article68003169.ece/alternates/LANDSCAPE_1200/iStock-1221761348.jpg

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