खाद्य तेल की मदद से ई-कचरे से चांदी निकालें

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

सोने के बाद चांदी सबसे कीमती धातु मानी जाती है। कई परिवारों में खुशी के मौकों पर सोने-चांदी की चेन-अंगूठियां ली-दी जाती हैं (या पहनी जाती हैं)। बेशक, चांदी सोने से सस्ती है।

लेकिन जब उद्योग (silver in industry) और ऊर्जा उत्पादन (silver in clean energy) में उपयोग की बात आती है तो चांदी सोने को पछाड़ देती है। पूरे भारत में चांदी का इस्तेमाल छतों पर लगे सौर पैनलों (solar panels) के माध्यम से सौर ऊर्जा को कैद करने में किया जाता है। इससे पूरे देश में सालाना लगभग 108 गीगावॉट स्वच्छ एवं हरित बिजली पैदा होती है। यह मात्रा कोयले से पैदा होने वाली बिजली की लगभग 10 प्रतिशत है। इसके अलावा, भारत की लगभग 1.4 अरब आबादी द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले मोबाइल फोन (silver in mobile phones) में विद्युत चालन और भंडारण के लिए चांदी का इस्तेमाल किया जाता है। हर मोबाइल फोन में लगभग 100-200 मिलीग्राम चांदी होती है। इसी तरह, एक सामान्य लैपटॉप में 350 मिलीग्राम चांदी उपयोग होती है, और वर्तमान में भारत में लगभग 5 करोड़ लैपटॉप हैं।

यदि भारत में मोबाइल फोन और लैपटॉप इतनी संख्या में हैं तो आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि पूरी दुनिया में इनकी संख्या कितनी होगी। अनुमान है कि मोबाइल-लैपटॉप या ऐसी ही अन्य चीज़ों में पूरे विश्व में लगभग 7275 मीट्रिक टन चांदी लगती है। लेकिन (इन उपकरणों के खराब होने पर इनसे) बमुश्किल 15 प्रतिशत चांदी ही वापस निकालकर पुनर्चक्रित (silver recycling) की जाती है। जब कोई फोन या कंप्यूटर खराब हो जाता है या फेंक दिया जाता है तो उसमें मौजूद चांदी भी कूड़े में चली जाती है। काश! हम इन बेकार उपकरणों से यह चांदी वापिस निकाल पाते…

यह तो साफ है कि स्वच्छ ऊर्जा उत्पादन में चांदी (silver in renewable energy) एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इस संदर्भ में मारिया स्मिरनोवा एक हालिया रिपोर्ट स्प्रॉट सिल्वर रिपोर्ट (Sprott Silver Report) में लिखती हैं कि जैसे-जैसे अधिकाधिक देश सौर पैनलों का उपयोग करके अक्षय ऊर्जा बनाएंगे, वैसे-वैसे चांदी की मांग (silver demand in solar industry) में लगातार वृद्धि होगी। वे आगे बताती हैं कि भले ही कुछ समूह सौर ऊर्जा के लिए अन्य धातुओं (जैसे लीथियम, कोबाल्ट और निकल) का उपयोग करने पर विचार कर रहे हैं, फिर भी स्वच्छ और हरित ऊर्जा उत्पादन में चांदी एक प्रमुख भूमिका निभाती है। और, इस साल चांदी की मांग में लगभग 170 प्रतिशत वृद्धि होने की उम्मीद है। इसके अलावा, कारों, बसों और ट्रेनों (electric vehicles) में ईंधन के रूप में पेट्रोल की जगह सौर ऊर्जा का उपयोग होना शुरू हुआ है। स्मिरनोवा आगे बताती हैं कि अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी का अनुमान है कि 2035 तक, दुनिया भर में बिकने वाली हर दूसरी कार इलेक्ट्रिक होगी। इसका मतलब होगा कि हमें और चांदी चाहिए होगी।

इसी संदर्भ में, फिनलैंड के प्रोफेसर टिमो रेपो और उनके साथियों ने अपने शोधपत्र में चांदी को पुनःचक्रित करने की एक कुशल रासायनिक विधि (green silver recovery)  प्रस्तुत की है। इस विधि में कार्बनिक वसीय अम्लों (जैसे लिनोलेनिक या ओलिक एसिड) (fatty acids for silver extraction) का उपयोग चांदी निकालने में किया गया है। ये कार्बनिक वसीय अम्ल तिलहन, मेवों और वनस्पति तेलों (जैसे जैतून का तेल या मूंगफली का तेल) में पाए जाते हैं, जिनका दैनिक भोजन में उपयोग होता है।

गौरतलब है कि इलेक्ट्रॉनिक कचरे (e-waste silver recovery) से चांदी को पुन: प्राप्त करना आसान नहीं है: प्रबल अम्लों और साइनाइड के उपयोग की वजह से इस प्रक्रिया में विषाक्त पदार्थ पैदा हो सकते हैं। अन्य धातुओं और मिश्र धातुओं से चांदी को अलग करने की पारंपरिक विधियों का उपयोग करने की बजाय उपरोक्त समूह ने सूरजमुखी, मूंगफली और अन्य तेलों में प्रचुर मात्रा में पाए जाने वाले साधारण असंतृप्त वसीय अम्लों के उपयोग से चांदी को अलग करके पुन: हासिल करने की एक विधि विकसित की है। समूह ने पाया कि इनका पुनर्चक्रण किया जा सकता है और इस प्रकार ये कार्बनिक विलायक और जलीय माध्यम से बेहतर हैं।

शोधकर्ताओं ने इस विधि को ‘शहरी खनन’ (urban mining of silver) में भी कारगर पाया है, जहां कबाड़ या कचरे में फेंके गए कंप्यूटर के मदरबोर्ड और अन्य इलेक्ट्रॉनिक पुर्ज़ों के कचरे से चांदी पुन: निकाली जा सकती है। शोध दल का निष्कर्ष है, “वसीय अम्ल बहुमूल्य बहु-धातु अपशिष्ट के निपटान का उन्नत माध्यम बन सकते हैं।” (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ई-डीएनए की मदद से हवा में बिखरे जीवन की पहचान

ल्पना कीजिए कि आप किसी जंगल या शहर की सड़क पर चल रहे हैं, और आपको दूर-दूर तक किसी जीव या इंसान का नामोनिशान तक न दिखे, फिर भी वैज्ञानिक यह बता दें कि वहां से कौन-कौन से जीव गुज़रे चुके हैं, कौन से वायरस मौजूद थे, और यह भी बता दें कि वहां से गुज़रने वाले लोग किस मूल के हैं। और, यदि यह कहा जाए कि यह कोई कोरी कल्पना नहीं, बल्कि हकीकत है तो?

यह संभव हुआ है पर्यावरणीय डीएनए (ई-डीएनए) (environmental DNA) का विश्लेषण करने की एक नई तकनीक नैनोपोर सिक्वेंसिंग (nanopore sequencing) से। शोधकर्ताओं ने इसका इस्तेमाल किसी क्षेत्र में मौजूद जैव-विविधता (biodiversity monitoring) की तस्वीर पेश करने में किया है।

गौरतलब है कि हर सजीव, चाहे वह इंसान हो, जानवर हों या वनस्पतियां, अपने आसपास के वातावरण में त्वचा की झिल्ली, लार, बाल या कोशिकाओं जैसे बहुत बारीक कण छोड़ते रहते हैं, जिनमें उनका डीएनए (DNA traces in environment) होता है। वैज्ञानिक इन कणों को मिट्टी, पानी या हवा से इकट्ठा कर यह पता लगा सकते हैं कि वहां कौन-कौन से जीव मौजूद हैं या थे। इस तरह प्राप्त डीएनए को पर्यावरणीय डीएनए या ई-डीएनए कहते हैं।

पहले वैज्ञानिक मेटाबारकोडिंग (metabarcoding DNA technique) नामक तकनीक से ई-डीएनए का अध्ययन करते थे। इससे यह पता चलता था कि किस तरह के जीव वहां थे, लेकिन यह तरीका धीमा, महंगा और सीमित जानकारी वाला था। फिर आई शॉटगन सिक्वेंसिंग (shotgun sequencing) तकनीक। इसमें किसी खास डीएनए को ढूंढने की बजाय नमूने के सम्पूर्ण डीएनए के छोटे-छोटे टुकड़ों का अनुक्रमण किया जाता है और उन्हें किसी पज़ल की तरह कंप्यूटर की मदद से जोड़कर पहचान की जाती है।

अब, एक नई तकनीक (नैनोपोर सिक्वेंसिंग) विकसित की गई है। इसकी मदद से वैज्ञानिक एक बार में डीएनए की लंबी शृंखला पढ़ सकते हैं। इससे नतीजे और भी सटीक मिलते हैं। और तो और, यह तकनीक न सिर्फ तेज़ और सस्ती है, बल्कि इतनी कॉम्पैक्ट है कि इसे लैपटॉप (portable DNA sequencer) से जोड़ा जा सकता है।

इस तकनीक को आज़माने के लिए वैज्ञानिकों ने अप्रैल 2023 में फ्लोरिडा के वॉशिंगटन ओक्स गार्डन्स स्टेट पार्क में हवा के नमूने इकट्ठा किए। उन नमूनो में डीएनए का विश्लेषण करके बताया कि वहां एक जंगली बिल्ली (बॉबकैट), एक ज़हरीला सांप, चमगादड़, मच्छर, एक पक्षी (ऑस्प्रे), और अफ्रीकी, युरोपीय और एशियाई मूल के इंसान मौजूद थे। दिलचस्प बात यह है कि उन्होंने वहां इनमें से कोई जीव नहीं देखा था(airborne DNA sampling, wildlife DNA detection)।

इसी तरह का एक अध्ययन आयरलैंड की राजधानी डबलिन की हवा के नमूने लेकर भी किया गया। यहां वैज्ञानिकों को इंसानों की ज़्यादा विविध जेनेटिक जानकारी (human genetic diversity in air) मिली। उन्हें 221 प्रकार के इंसानी वायरस और बैक्टीरिया के डीएनए (human pathogens in air) मिले जो फ्लोरिडा के मुकाबले 7 गुना अधिक थे।

वैज्ञानिकों के अनुसार, यह तकनीक जंगलों और शहरों में जैव विविधता की निगरानी (urban biodiversity tracking) करने में काफी उपयोगी है। इसके अलावा, बाहरी और संकटग्रस्त प्रजातियों पर नज़र रखने, बीमारियां फैलाने वाले वायरस (airborne disease surveillance) या बैक्टीरिया की पहचान करने और बिना संपर्क के इंसानी उपस्थिति तथा वंश का अध्ययन करने में भी मददगार होगी। इससे किसी भी जगह पर मौजूद जीवन की एक पूरी तस्वीर सिर्फ हवा के विश्लेषण से मिल सकती है।

लेकिन इसके साथ एक चिंता भी है। यदि वैज्ञानिक हवा से इंसानी डीएनए पहचान सकते हैं, तो इसका इस्तेमाल किसी व्यक्ति पर नज़र रखने (genetic surveillance risks) के लिए भी किया जा सकता है। हालांकि अब तक के अध्ययनों में सिर्फ सामान्य वंश की जानकारी मिली है, किसी व्यक्ति विशेष की नहीं। लेकिन भविष्य में यह तकनीक इतनी विकसित हो सकती है कि व्यक्ति विशेष की जानकारी भी दे सके। कानून विशेषज्ञ नताली राम का कहना है कि सरकारें या निजी कंपनियां इस तकनीक का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर निगरानी (mass DNA monitoring) के लिए कर सकती हैं। एक प्राइवेट कंपनी तो ऐसे छोटे ई-डीएनए स्कैनर बना रही है जो चुपचाप किसी कमरे में वायरस या इंसानी डीएनए की निगरानी कर सकता है। हालांकि, यह तकनीक है तो बहुत रोमांचक, लेकिन अभी इस पर कफी काम किया जाना बाकी है। उदाहरण के तौर पर, वैज्ञानिकों को फ्लोरिडा के समुद्री पानी में काऊपॉक्स वायरस के डीएनए (cowpox virus DNA detection) के अंश मिले हैं जबकि वहां ऐसा वायरस पाया ही नहीं जाता है। इससे यह सवाल उठता है कि कहीं इतने छोटे डीएनए अंश झूठी या भ्रामक जानकारी तो नहीं दे रहे? वैज्ञानिकों को ऐसे नतीजों को बहुत सोच-समझकर देखना चाहिए, क्योंकि सिर्फ डीएनए का मौजूद होना यह नहीं साबित करता कि वह जीव वास्तव में वहीं है या वह सक्रिय है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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Y क्रोमोसोम रहित ट्यूमर अधिक घातक होते हैं

ह बात तो पता है कि पुरुषों में उम्र के साथ कुछ कोशिकाओं से Y क्रोमोसोम (chromosome) नदारद होने लगते हैं, खासकर कैंसर कोशिकाओं (cancer cells) से। लेकिन यह मालूम नहीं था कि Y क्रोमोसोम की अनुपस्थिति से शरीर पर किस तरह के प्रभाव पड़ते हैं। अब, कैंसर विशेषज्ञों ने कैंसर कोशिकाओं के एक ताज़ा अध्ययन में पाया है कि यदि कैंसर ट्यूमर (cancer tumor study) से Y क्रोमोसोम नदारद होता है तो मरीज़ के लिए अधिक घातक हो सकता है।

दरअसल, 2023 में एरिज़ोना विश्वविद्यालय के कैंसर विशेषज्ञ थियोडोरस्क्यू और उनके दल ने पाया था कि Y क्रोमोसोम का नदारद होना मनुष्यों में मूत्राशय के कैंसर (bladder cancer in men) की आक्रामकता को बढ़ाता है। उम्र बढ़ने के साथ प्रतिरक्षा कोशिकाओं से भी Y क्रोमोसोम गायब हो सकते हैं, जिससे कैंसर से मृत्यु (cancer-related mortality) का जोखिम बढ़ जाता है।

हालिया अध्ययन में उपरोक्त शोधदल ने कैंसर-कोशिका जीनोम के विशाल भंडार (cancer genome database) से प्राप्त जानकारी के आधार पर दो समूहों की तुलना की: Y क्रोमोसोम विहीन और Y क्रोमोसोम  सहित। उन्होंने पाया कि पुरुषों में, कई प्रकार के कैंसर में, कैंसर ट्यूमर से Y क्रोमोसोम नदारद हो तो वे उन मरीज़ों की तुलना में जल्दी मर जाते हैं जिनके कैंसर ट्यूमर में Y क्रोमोसोम मौजूद होता है। यह भी पता चला कि Y क्रोमोसोम का लोप कैंसर कोशिकाओं और प्रतिरक्षा कोशिकाओं दोनों में होता है। गौरतलब है कि प्रतिरक्षा कोशिकाएं शरीर की रक्षा के लिए ट्यूमर पर हमला करती हैं। अब, महज़ कैंसर कोशिकाओं से Y क्रोमोसोम का लोप होता है तो उनमें अन्य उत्परिवर्तनों (genetic mutations in cancer) की संख्या और गंभीरता बढ़ती है। साथ ही, कुछ ऐसे परिवर्तन भी हो सकते हैं जिससे ट्यूमर प्रतिरक्षा प्रणाली की नज़र से बच निकले, उसकी पकड़ में न आए (immune evasion by cancer)।Text Box: मनुष्यों में लिंग निर्धारण लैंगिक गुणसूत्रों की जोड़ी से होता है; जहां मादाओं में इस जोड़ी में दो X गुणसूत्र होते हैं, वहीं पुरुषों में इसी जोड़ी में एक X और एक Y गुणसूत्र होता है।

लेकिन यदि Y क्रोमोसोम का लोप प्रतिरक्षा कोशिकाओं में भी हो जाता है तो असर अलग होते हैं: Y क्रोमोसोम का लोप प्रतिरक्षा कोशिकाओं को निष्क्रिय कर देता है और प्रतिरक्षा तंत्र (immune system suppression) को शांत कर देता है, जिससे वे कैंसर से लड़ने के उतनी काबिल नहीं रहतीं। यानी, एक तो ट्यूमर बहुरूपिया, ऊपर से प्रतिरक्षा कोशिकाओं की नज़र कमज़ोर। यह स्थिति मरीज़ के लिए घातक (fatal cancer outcomes) साबित होती है।

शोधकर्ताओं का अनुमान है कि कैंसर कोशिकाओं में Y क्रोमोसोम के लोप और उसी ट्यूमर के अंदर मौजूद प्रतिरक्षा कोशिकाओं में Y क्रोमोसोम के लोप के बीच एक सहसम्बंध (correlation between tumor and immune cells) भी है; हो सकता है कि विचित्र रासायनिक आकर्षण (कीमोअट्रैक्शन) की वजह से ऐसी प्रतिरक्षा कोशिकाएं रक्त से ट्यूमर में खिंची चली आती होंगी जिनमें Y क्रोमोसोम नदारद होता है। हालांकि अभी इस बात के पुख्ता प्रमाण नहीं हैं।

लेकिन इतना पक्का है कि Y क्रोमोसोम की गैर-मौजूदगी कैंसर कोशिकाओं को अधिक आक्रामक (aggressive cancer) बनाती है, और Y क्रोमोसोम रहित प्रतिरक्षा कोशिकाएं कम प्रभावी (weakened immune defense) होती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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