दारु की लत हमें अपने वनमानुष पूर्वजों से मिली है!

जीब लगता है लेकिन शायद यह सच है। यह सही है कि 1 करोड़ साल पहले हमारे वानर पूर्वज (ape ancestors) दारु (alcohol) बनाना तो नहीं जानते थे लेकिन उन्होंने उसका स्वाद परोक्ष रूप से चख लिया था। बायोसाइन्स में प्रकाशित एक रिपोर्ट इस बात को प्रमाणित करती लगती है।

जीव वैज्ञानिक रॉबर्ट डूडले द्वारा प्रस्तुत एक परिकल्पना रही है – शराबखोर बंदर (drunken monkey hypothesis), जिसके अनुसार कई लाख साल पहले हमारे वानर पूर्वज गिरे हुए फल खाते थे, जो कुछ हद तक किण्वित होकर मदिरा (fermented fruit) से भर गए होंगे। इस अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओं ने इस प्रवृत्ति को एक अच्छा सा नाम भी दे दिया है – स्क्रम्पिंग (फलचोरी) (fruit foraging)।

वैसे तो किण्वित होते फलों (fermentation) को सूंघ लेना काफी आसान है। जब फलों, पेड़ों से रिसते रस या मकरंद पर खमीर पनपता है तो वह अल्कोहल (ethanol) पैदा करता है। कई जानवर और पक्षी इसका सेवन करके थोड़े धुत तो हो जाते हैं। और फिर मनुष्यों ने लगभग 8000 साल पहले फलों से और अनाज से शराब बनाना (wine making) सीख लिया था। तो हो सकता है कि हमारे वानर पूर्वजों ने प्राकृतिक रूप से बनती शराब को चखा हो। दरअसल, यदि वे ऐसे किण्वित होते फलों को खाने लगते तो उन्हें अन्य जंतुओं से प्रतिस्पर्धा में लाभ मिलता क्योंकि अन्य जंतु इन्हें नहीं खाते। और तो और, ऐसे फलों को उनकी हवा में फैलती गंध की मदद से दूर से ताड़ लेना भी आसान रहा होगा।

हमारे पूर्वजों ने यह क्षमता हासिल कर ली थी, इसका सर्वप्रथम प्रमाण 2015 में 18 प्रायमेट प्रजातियों के एक जेनेटिक विश्लेषण (genetic analysis) से मिला था। इस अध्ययन में पता चला था कि मनुष्य, चिम्पैंज़ी तथा गोरिल्ला में एक ऐसा उत्परिवर्तन पाया जाता है जो अल्कोहल पचाने वाले एंज़ाइम (alcohol metabolism enzyme) की कार्यक्षमता को 40 गुना बढ़ा देता है। और गणनाओं से अन्दाज़ लगा था कि यह उत्परिवर्तन करीब 1 करोड़ साल पहले हुआ था।

लेकिन इस बाबत आंकड़े उपलब्ध नहीं थे कि क्या हमारे वानर पूर्वज पर्याप्त मात्रा में किण्वित खाद्य पदार्थ (fermented food) का भक्षण करते थे। परोक्ष अनुमानों के आधार पर तो 40 प्रजातियों के भोजन में यह 3 प्रतिशत से भी कम था। शोधकर्ताओं का विचार था कि यह अनुमान वास्तविकता से थोड़ा कम है क्योंकि इसमें उन फलों को शामिल नहीं किया गया है जो किण्वन की प्रारंभिक अवस्था में खाए जाते हैं।

फिर शोधकर्ताओं को एक आइडिया सूझा। उन्होंने विचार किया कि यदि वे गिरे हुए फलों (fallen fruits) पर ध्यान केन्द्रित करें तो बेहतर अनुमान मिल सकता है। मैदानी रिपोर्ट्स में अक्सर यह ज़रूर बताया जाता है कि जानवर क्या खा रहे थे और खाते समय वे कितनी ऊंचाई पर थे। यानी उस समय वे पेड़ पर बैठे थे या ज़मीन पर। इसके आधार पर शोधकर्ताओं ने यह अनुमान लगाया कि कितनी बार ये वानर पूर्वज (यानी एप्स) ज़मीन से फल उठाकर खाते हैं।  इसे उन्होंने स्क्रम्पिंग की संज्ञा दी यानी गिरे हुए फल एकत्रित करना। इन गिरे हुए फलों को किण्वन की प्रारंभिक अवस्था में माना गया।

अब इस नई परिभाषा को लेकर डार्टमाउथ कॉलेज के मानव वैज्ञानिक नाथेनियल डोमिनी और उनके साथियों ने चार प्रायमेट प्रजाति आबादियों (ape populations) के पहले से उपलब्ध आंकड़ों को एक बार फिर से टटोला – बोर्नियो के ओरांगुटान, युगांडा के चिम्पैंज़ी और पहाड़ी गोरिल्ला तथा गैबन के गोरिल्ला।

देखा गया कि इन चारों प्रजातियों के भोजन में फलों की मात्रा लगभग एक बराबर (15 से 60 प्रतिशत के बीच) थी लेकिन गिरे हुए या पेड़ से तोड़े गए फलों की मात्रा में काफी विविधता थी। अफ्रीकी एप्स (African apes), गोरिल्ला व चिम्पैंज़ी ने जो फल खाए उनमें से गिरे हुए फल 25 से 62 प्रतिशत तक थे जबकि ओरांगुटान (orangutans) ने ऐसे फल कभी-कभार ही खाए थे। गौरतलब है कि ओरांगुटान हमारे दूर के रिश्तेदार हैं और उनमें अल्कोहल का कुशलतापूर्वक पाचन करने के लिए ज़रूरी जेनेटिक उत्परिवर्तन नहीं होता। लिहाज़ा, उपरोक्त जानकारी काफी महत्वपूर्ण है।

अलबत्ता, कई वैज्ञानिकों का कहना है कि चंद स्थलों के आंकड़ों के आधार पर निष्कर्ष निकालना उचित नहीं है। हो सकता है यह प्रवृत्ति चंद आबादियों तक सीमित हो। जैसे हारवर्ड विश्वविद्यालय (Harvard University) के मानव वैज्ञानिक रिचर्ड रैंगहैम बताते हैं कि उन्होंने दशकों से युगांडा के जिन चिम्पैंज़ियों (chimpanzees) का अध्ययन किया है उनमें गिरे हुए फल के प्रति हिकारत ही देखी है। बहरहाल, वे मानते हैं कि इस अध्ययन ने अल्कोहल सेवन (alcohol consumption) की ओर जो ध्यान आकर्षित किया है वह महत्वपूर्ण है। यह बताता है कि जब आज से करीब 10,000 साल पहले हमने इरादतन अल्कोहल बनाना शुरू किया तब हम इसका सेवन करने को लेकर जीव वैज्ञानिक रूप से तैयार थे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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