सुबोध जोशी

भारत में विकलांगजन (disabled persons) के लिए कानून (disability law) बनने के बाद उनके समावेश की बात होने लगी। समावेश का अर्थ यह सुनिश्चित करना है कि विकलांगजन भी गैर-विकलांगों की तरह रोज़मर्रा की गतिविधियों और जीवन के सभी क्षेत्रों में समान रूप से पूरी तरह भाग ले सकें। इसमें समाज में उनकी पूर्ण भागीदारी की राह में आने वाली सभी बाधाएं दूर करते हुए उन्हें बाधामुक्त वातावरण (accessible environment) एवं सुगमता उपलब्ध कराना, भागीदारी के लिए उन्हें प्रोत्साहित करना और यह सुनिश्चित करना शामिल है कि समाज, समुदाय या संगठन में पर्याप्त विकलांग-हितैषी दृष्टिकोण, नीतियां और प्रथाएं लागू हों। सफल समावेश उसे कहा जा सकता है जिसकी बदौलत जीवन की सामाजिक रूप से अपेक्षित भूमिकाओं और गतिविधियों में उनकी भागीदारी बढ़े। यह समावेश संपूर्ण समाज का कार्य है।
वर्तमान में विकलांगजन के हित में की जाने वाली बातें और कार्रवाई मुख्य रूप से विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के संधि पत्र (UNCRPD) की रोशनी में की जाती है। यह मौजूदा मानव अधिकारों को विकलांग व्यक्तियों की जीवन स्थितियों से जोड़ने वाला सार्वभौमिक दस्तावेज है। इस संधि पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले देशों की संख्या 200 से कुछ ही कम है जिनमें से भारत भी एक है। UNCRPD एक तरह से विकलांगजन के हित में कार्य करने के लिए दुनिया के अधिकांश देशों के लिए एक साझा मार्गदर्शिका (disability rights treaty) है। भारत सहित अधिकांश देशों में इसी के आधार पर विकलांगता सम्बंधी कानून, नीतियां और योजनाएं तैयार कर उन पर अमल करने की कोशिशें की जा रही हैं। इसके अनुसार, “विकलांग व्यक्तियों में वे लोग शामिल हैं जिन्हें ऐसी दीर्घकालिक शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक या संवेदी क्षतियां हुई हैं, जो विभिन्न बाधाओं के कारण समाज में दूसरों के साथ समानता से उनकी पूर्ण और प्रभावी भागीदारी में बाधा उत्पन्न कर सकती हैं।” इस प्रकार विकलांगता उन क्षतियों और बाधाओं के मेलजोल से निर्मित होती है जिनका सामना प्रभावित व्यक्ति को करना होता है। बाधाओं का अर्थ सिर्फ भौतिक बाधाओं के रूप में लगाया जाना गलत है। इसमें दृष्टिकोण सम्बंधी बाधाएं भी शामिल होती हैं जिनकी तरफ न के बराबर ध्यान दिया जाता है।
विकलांगजन के समावेश के लिए इन दोनों प्रकार की बाधाओं को हटाया जाना ज़रूरी है। जीवन का कोई भी क्षेत्र केवल भौतिक बाधाओं (physical barriers) के ही हटने पर सुगम्य नहीं हो सकता। इसके लिए दृष्टिकोण सम्बंधी बाधाओं (attitudinal barriers) का हटना भी उतना ही ज़रूरी है। सच तो यह है कि सुगम्यता और समावेश की राह में आने वाली भौतिक बाधाओं का मूल कारण ही विकलांगजन के प्रति समाज के दृष्टिकोण सम्बंधी बाधाएं हैं। दृष्टिकोण सम्बंधी बाधाएं पूर्वाग्रह और विचार-पद्धतियां हैं जो विकलांग व्यक्तियों के प्रति भेदभाव को बढ़ावा देती हैं। उन्हें ज़रूरतमंद और असमर्थ बताना गलत है। यह समझना महत्वपूर्ण है कि वे समाज का एक अंग होते हैं। गहराई से देखने पर यह मालूम पड़ता है कि विकलांग व्यक्तियों को अपनी क्षति के कारण उतनी असुविधाओं और बाधाओं का सामना नहीं करना पड़ता जितना अपने प्रति समाज के दृष्टिकोण के कारण करना पड़ता है। उनके प्रति अन्य व्यक्तियों, समुदाय, समाज और संगठनों का यह उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण वास्तव में वह बाधा है जो भौतिक बाधाओं से कहीं ज़्यादा गंभीर होता है। जहां ऐसी स्थिति होती है वहां एक तरह से समाज ही उन्हें विकलांग बनाता है।
बाधामुक्त वातावरण में केवल चलने-फिरने सम्बंधी विकलांगता के कारण व्हीलचेयर (wheelchair users), बैसाखी वगैरह सहायक उपकरण इस्तेमाल करने वाले व्यक्तियों के लिए रैंप, चौड़े दरवाज़े और सुगम्य शौचालय की व्यवस्था करना ही शामिल नहीं है। इसमें दृष्टिबाधित (visually impaired), श्रवणबाधित (hearing impaired), बहु-विकलांग व्यक्तियों और यहां तक कि बौद्धिक रूप से विकलांग व्यक्तियों के लिए विकलांगता-विशिष्ट व्यवस्थाएं करना भी शामिल है। इनके अलावा और भी विकलांगताएं होती हैं; भारत में विकलांगजन के लिए बनाए गए पहले कानून में सात विकलांगताएं परिभाषित कर शामिल की गई थी जिनकी संख्या वर्तमान में लागू दूसरे कानून में इक्कीस कर दी गई है। बाधामुक्त वातावरण में विकलांगता-विशिष्ट व्यवस्थाएं करने की यह ज़रूरत सभी सेवाओं, अवसरों, सार्वजनिक स्थलों, यातायात, आयोजनों, सूचना सामग्री, शिक्षा प्रणाली, रोज़गार, स्वास्थ्य सेवाओं, देखभाल, मनोरंजन आदि सभी क्षेत्रों में लागू होती हैं ताकि विभिन्न विकलांगताओं वाले व्यक्ति जानकारी प्राप्त कर सकें और निर्बाध भागीदारी कर सकें। शिक्षा और प्रशिक्षण की कमी के चलते भारत में बड़ी संख्या में ऐसे विकलांग व्यक्ति हैं जो सूचनाओं, जानकारी और विभिन्न उपायों, जैसे ब्रेल लिपि, दृश्य संकेत, सांकेतिक भाषा वगैरह का लाभ नहीं ले पाते हैं। इसलिए उनकी सहायता के लिए जगह-जगह संवेदनशील एवं प्रशिक्षित व्यक्ति होने चाहिए। चलने-फिरने और हाथों का इस्तेमाल करने में असमर्थ व्यक्तियों के लिए भी इस तरह की व्यक्तिगत सहायता उपलब्ध होनी चाहिए।
यह एक सच्चाई है कि भारत में विकलांगता के सामाजिक पहलू (social aspect of disability) पर न के बराबर ध्यान दिया जाता है, और इसे विशुद्ध रूप से एक चिकित्सीय विषय (medical model) माना जाता है। शिक्षा की कमी, विकलांगता के बारे में सही जानकारी का अभाव और गलत धारणाओं की व्यापकता के कारण देश में दृष्टिकोण सम्बंधी बाधा एक बहुत बड़ी समस्या है। स्थिति इतनी खराब है कि वर्तमान वैज्ञानिक युग में भी यह माना जाता है कि विकलांगता विकलांग व्यक्ति और उसके परिजनों के पूर्वजन्म के कर्मों का फल है जो उन्हें भोगना ही होगा। यह सोचकर समाज खुद को विकलांग व्यक्ति और उसके परिवार से दूर कर लेता है और यह मान लेता है कि प्रभावित व्यक्ति या परिवार के प्रति उसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है। नतीजतन विकलांग व्यक्ति की ज़िम्मेदारी पूरी तरह उसके परिवार पर छोड़ दी जाती है। उसे कोई सामाजिक सहायता या सामाजिक सुरक्षा नहीं मिल पाती है। शिक्षा की कमी और गरीबी समस्या को और बढ़ा देती है।
देश में विकलांगजन के लिए कानून बहुत देर से आने का मुख्य कारण संवेदनशीलता (social sensitivity) की कमी ही है और यह कमी कानून के अमल (policy implementation) में भी साफ देखी जा सकती है। न तो देश में विकलांगजन-हितैषी वातावरण बन सका है, न ही उनकी ज़रूरतों के मान से पर्याप्त नीति निर्माण और नियोजन हो रहा है और न ही कल्याणकारी योजनाएं लागू की जा रही हैं। संवेदनशीलता की कमी दूर करना पहली प्राथमिकता मानकर इसके लिए विशेष अभियानों के माध्यम से संपूर्ण समाज को विकलांगता की सामाजिक और मानवाधिकार-आधारित समझ के बारे में जागरूक किया जाना ज़रूरी है। विकलांगजन के समावेश पर राजनैतिक और शासन के स्तर पर भी पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए। भारत में यह विशेष रूप से ज़रूरी है क्योंकि बदकिस्मती से यहां सामाजिक बदलाव का कार्य भी राज्य को करना पड़ता है। इसके लिए समावेश का मुद्दा नीति निर्माण और नियोजन का एक अनिवार्य पहलू होना चाहिए क्योंकि शायद ही कोई विभाग ऐसा होता होगा जिसका समावेश से किसी न किसी तरह से सम्बंध न हो। नीतियों और योजनाओं के अमल में भी ईमानदारी होनी चाहिए। कार्यप्रणाली ऐसी होनी चाहिए कि समावेश की पुष्टि भी की जा सके। समावेश कोई ऐसा कार्य नहीं है जो एक बार कर दिया जाने के बाद बंद कर दिया जाए, बल्कि यह हमेशा जारी रहने वाली एक सतत प्रक्रिया है। इसलिए इसकी सतत मॉनीटरिंग भी ज़रूरी है।
यहां एक और महत्वपूर्ण बात जोड़ना उचित होगा। समावेशिता (inclusivity) के दायरे में विकलांगजन के साथ बुज़ुर्गों (elderly people), किसी क्षति के कारण अस्थाई रूप से अशक्त व्यक्तियों और गंभीर रूप से बीमार व्यक्तियों को भी शामिल किया जाना चाहिए। इसका कारण यह है कि इनकी ज़रूरतें विकलांगजन की ज़रूरतों के समान ही हो जाती हैं। इन ज़रूरतों में देखभाल की ज़रूरत भी शामिल है। इसी तरह विकलांग व्यक्ति के बुज़ुर्गावस्था में पहुंचने पर उसकी भी आयु-आधारित कठिनाइयां एवं ज़रूरतें शुरू हो जाती हैं और उम्र के साथ-साथ बढ़ती जाती हैं।
भारत एक ऐसा देश है जहां अब तक गैर-विकलांगों के लिए भी बुनियादी ढांचा (infrastructure) हर जगह तैयार नहीं हुआ है। उनके लिए भी अवसरों और भागीदारी की समानता (equal opportunities) सुनिश्चित नहीं हुई है। स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा के क्षेत्रों पर नज़र डालने से ही यह सच्चाई आसानी से समझी जा सकती है। आज भी अनेक इलाके ऐसे हैं जहां स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध न होने के साथ आवागमन की सुविधा का भी अभाव है जिसके कारण प्रसव और इलाज के लिए कष्टप्रद यात्रा कर दूर जाना पड़ता है। आए दिन गर्भवती महिला और गंभीर मरीज़ को गांव या बस्ती वालों द्वारा खटिया पर दूरस्थ अस्पताल ले जाए जाने की घटनाएं सुनने में आती है। ऐसे में विकलांगजन और बुज़ुर्गों की मुश्किलें और बढ़ जाती हैं। इसके अलावा बड़े-छोटे शहरों, कस्बों और गांवों में बुनियादी ढांचे तथा सेवाओं एवं सुविधाओं में ज़मीन-आसमान का फर्क है।
ऐसी स्थिति में विकलांगजन और बुज़ुर्गों के समावेश की कितनी भी बात कर ली जाए वह बेमानी ही होगी। इतने बड़े देश में इक्का-दुक्का विकलांग-अनुकूल स्थल या सेवा (disabled-friendly services) उपलब्ध करा देना सिर्फ एक ‘नमूना’ कहा जा सकता है; उदाहरण के लिए दिल्ली मेट्रो रेल सेवा। किसी खास स्थल या खास योजना के तहत आने वाले शहर या फिर कुछ ही समय के लिए होने वाले किसी खास आयोजन को सुगम्य बनाना मन समझाने की कवायद मात्र है। सिर्फ हेरिटेज सिटी या स्मार्ट सिटी परियोजना के अधीन आने वाले खास शहरों को ही सुगम्य बनाने से क्या होगा? सिर्फ कुंभ जैसे खास आयोजन को ही सुगम्य बनाने से क्या होगा?
वास्तव में ज़रूरत इस बात की है कि समावेशिता (inclusive development) के लिए पूरे देश को एक इकाई मानकर काम किया जाए। निश्चित लक्ष्य और ज़िम्मेदारियों के साथ एक समयबद्ध योजना बनाकर लागू की जाए। पूरे देश में जागरूकता एवं संवेदनशीलता (awareness) पैदा की जाए। दृष्टिकोण सम्बंधी बाधाएं और भौतिक बाधाएं एक साथ हटाने के लिए काम किया जाए। चूंकि बुनियादी ढांचे पर काफी काम किया जाना अब भी बाकी है इसलिए सख्ती से ऐसी नीति लागू की जानी चाहिए कि बनाया जाने वाला हर नया ढांचा शुरू से ही समावेशी हो। और पूर्ववर्ती ढांचों को समावेशी ढांचे में ज़रूर बदला जाना चाहिए। एक निश्चित समय बाद समाज में ऐसा वातावरण बन जाना चाहिए कि समावेश के लिए अलग से बात करने या प्रयास करने की ज़रूरत ही न पड़े।
अंत में, विकलांगजन के समावेश (social inclusion) के विषय में यह समझ लेना सबसे महत्वपूर्ण है कि समस्या विकलांगजन में नहीं बल्कि समाज (society) में निहित है। उनका समावेश समाज में होना है लेकिन समाज यह होने नहीं दे रहा है। इसलिए ध्यान समाज पर केंद्रित किया जाना चाहिए, न कि विकलांगजन पर। समावेश के लिए ज़रूरत समाज में बदलाव लाकर उसे समावेशी बनाने की है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://i0.wp.com/cjp.org.in/wp-content/uploads/2022/09/Persons-with-Disability-Feature-Image111.jpg?fit=1200%2C628&ssl=1