स्थानीय जैव-विविधता से धान का सर्वोत्तम विकास

भारत डोगरा

धान (rice crop) विश्व की सबसे महत्वपूर्ण फसल है। अत: बहुराष्ट्रीय कंपनियां यह भरपूर प्रयास कर रही हैं कि उनके नियंत्रण वाली जीएम (GM crops) व जीन परिवर्तित फसलें चावल में भी चल निकलें। दूसरी ओर, किसानों के हित में यह है कि यहां की देशी विविधता भरी धान की किस्मों को खेतों में उगाया जाए। यह भारत के संदर्भ में तो और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत में धान की जैव-विविधता (rice biodiversity) का विशाल भंडार है। इन्हें हमारे पूर्वज किसानों ने एकत्र किया परंतु बहुराष्ट्रीय कंपनियां इनसे मुनाफा कमाना चाहती हैं।

भारत के विख्यात धान वैज्ञानिक डॉ. आर. एच. रिछारिया 1960-70 के दशक में केंद्रीय धान अनुसंधान संस्थान (Central Rice Research Institute) कटक के निदेशक रहे। यहां उन्होंने देशी विविधता भरी किस्मों पर आधारित महान धान विकास कार्यक्रम तैयार किया था। लेकिन इससे पहले कि वे इसे कार्यान्वित कर पाते विदेशी किस्मों को बाहर से लाद दिया गया व डॉ. रिछारिया को अपना पद छोड़ना पड़ा। फिर भी उनके अति विशिष्ट योगदानों को देखते हुए सरकार ने बार-बार उनका परामर्श लेने की ज़रूरत समझी।

1960-70 के दशक के मध्य में विदेशी सहायता संस्थाओं और अनुसंधान केंद्रों के दबाव में भारतीय सरकार ने चावल की बौनी व रासायनिक खाद का अधिक उपयोग करने वाली किस्मों के प्रसार का निर्णय लिया। इन्हें चावल की ‘अधिक उत्पादक किस्में’ (हाई यील्डिंग वेरायटी – एच.वाय.वी.) (high yielding varieties – HYV) कहा गया। एक महत्वपूर्ण बात यह है कि इतनी ही या इससे अधिक उत्पादकता देने वाली देशी किस्मों को अधिक उत्पादक किस्मों की सरकारी सूची में सम्मिलित नहीं किया गया, और विदेशी किस्मों को अधिक उत्पादकता का एकमात्र स्रोत मान लिया गया। इन्हें देश के अनेक भागों मे ‘हरित क्रांति किस्में’ (Green Revolution rice) कहा जाता है। Text Box: धान उत्पादकता की औसत वार्षिक वृद्धि दर प्रति हैक्टर
हरित क्रांति से पूर्व	हरित क्रांति के बाद	
(1951-52 से 1967-68) 	(1968-69 से 1980-81)
	3.2 प्रतिशत	2.7 प्रतिशत
(स्रोत - 12वीं पंचवर्षीय योजना)

नीचे प्रस्तुत तालिका से स्पष्ट है कि अपेक्षाकृत कम रासायनिक खाद व अन्य खर्च के बावजूद धान उत्पादकता (paddy yield) में वृद्धि दर हरित क्रांति या विदेशी किस्मों के प्रसार से पहले अधिक थी।

विदेशी अधिक उत्पादक किस्मों की इस विफलता के क्या कारण हैं? फरवरी 1979 में केंद्रीय धान अनुसंधान संस्थान, कटक में डॉ. रिछारिया की अध्यक्षता में हुई धान प्रजनन के ख्यात विशेषज्ञों की बैठक में इस विफलता के कुछ कारण बताए गए थे – विदेशी अधिक उत्पादक किस्मों का भारत के अधिकतर धान उत्पादन क्षेत्र के लिए अनुकूल न होना व बीमारियों व कीड़ों आदि के प्रति अधिक संवेदनशील होना। कहा गया कि

“अधिकतर एच.वाय.वी. टी.एन.(1) या आई.आर.(8) से व्युत्पादित है व इस कारण उनमें बौना करने का डी.जी.ओ.वू. जेन का जीन है। इस संकीर्ण आनुवंशिक आधार से भयप्रद एकरूपता उत्पन्न हो गई है, इसी कारण विनाशक जंतुओं (कीट आदि) व बीमारियों के प्रति संवेदनशीलता भी बढ़ी है। प्रसारित की गई अधिकतर किस्में प्रारूपी उच्च भूमि व निम्न भूमि (टिपिकल अपलैंड्स एंड लोलैंड्स), जो देश में कुल चावल क्षेत्र का लगभग 75 प्रतिशत हिस्सा है, के लिए अनुकूल नहीं है। इन स्थितियों में सफलता के लिए हमें अपने अनुसंधान कार्यक्रमों व रणनीतियों को पुन:उन्मुख करने की आवश्यकता है।” एक अन्य स्थान पर इसी टास्क फोर्स (task force) ने कहा है, “भारत में जारी की गई विभिन्न धान की किस्मों की वंशावली को सरसरी निगाह से देखने से ही स्पष्ट हो जाता है कि जनन द्रव्य का आधार बहुत संकीर्ण है।”

नई किस्मों की विनाशक जंतुओं (पेस्ट) के प्रति बढ़ती संवेदनशीलता के विषय में टास्क फोर्स ने कहा है, “एच.वाय.वी. के आगमन से गालमिज, भूरे फुदके (ब्राऊन प्लांटहॉपर), पत्ती मोड़ने वाले कीड़े (लीफ फोल्डर) वोर्ल मैगट जैसे विनाशक कीटों की स्थिति में उल्लेखनीय तब्दीली आई है। चूंकि अब तक जारी की गई अधिकतर एच.वा.वी. मुख्य विनाशक जंतुओं के प्रति संवेदनशील है, 30 से 100 प्रतिशत तक फसल की हानि होने की संभावना रहती है। उत्पादकता को स्थायित्व प्रदान करने के लिए अंतर्निहित प्रतिरोध (बिल्ट इन रज़िस्टेंस) (built in resistance) वाली किस्मों का विकास अति आवश्यक हो गया है।” किंतु प्रतिरोधक किस्मों के विकास का पिछला रिकार्ड तो कतई उत्साहवर्द्धक नहीं रहा है, जैसा कि टास्क फोर्स ने स्वीकार किया, “कीट प्रतिरोधक प्रजनन कार्यक्रम के परिणाम अभी तक उत्साहपूर्वक नहीं रहे हैं। हालांकि विनाशक जंतुओं की प्रतिरोधी कुछ किस्में जारी की गई हैं लेकिन रत्न के अलावा इनमें से किसी का भी अच्छा प्रसार नहीं हुआ है। रत्न का भी अच्छा प्रसार वेधकों के प्रति इसकी सहनशील प्रकृति के कारण नहीं अपितु इसके अच्छे दाने, तैयार होने की कम अवधि व व्यापक अनुकूलनशीलता के कारण हुआ है।”

“गालमिज के लिए हालांकि बहुत सारे प्रतिरोधक दाता मिले हैं, पर अभी तक देश में जारी की गई अधिकतर प्रतिरोधक किस्में या तो कम उत्पादक हैं अथवा विभिन्न स्थानों पर उगाये जाने पर, प्रतिरोध में एकरूपता नहीं दिखाती हैं। यहां भी ऊंची उत्पादकता (high yeild) व अधिक स्थायी प्रतिरोध के मिलन को प्राप्त नहीं किया जा सका है।”

टास्क फोर्स के इन उद्धरणों में हम इतना ही जोड़ना चाहेंगे कि एच.वाय.वी. की ये समस्यायें अभी तक बनी हुई हैं। इसके साथ यह भी जोड़ देना उचित है कि कम साधनों वाले छोटे किसानों के लिए ये किस्में विशेष रूप से समस्याप्रद है। इन किस्मों के आगमन के बाद धान उत्पादन का अधिक बड़ा हिस्सा अपेक्षाकृत समृद्ध क्षेत्रों व अपेक्षाकृत समृद्ध किसानों के खेतों से प्राप्त होने लगा है, क्षेत्रीय व व्यक्तिगत विषमताएं बढ़ी है।

जब धान के संदर्भ में सरकार द्वारा बहुप्रचारित हरित क्रांति (green revolution in india) की विफलता सामने आने लगी और रासायनिक खाद व कीटनाशकों पर अत्यधिक निर्भरता हानिकारक सिद्ध होने लगी तो देश की इस सबसे महत्वपूर्ण फसल के बारे में चिंतित सरकार को वर्षों से उपेक्षित इस महान कृषि वैज्ञानिक की याद आई। तब वर्ष 1983 में श्रीमती इंदिरा गांधी के कार्यकाल में प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) ने उन्हें धान उत्पादन बढ़ाने के लिए एक कार्ययोजना बनाने का आग्रह किया। डॉ. रिछारिया ने ऐसी कार्य योजना तैयार की, पर श्रीमती इंदिरा गांधी की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या के बाद यह दस्तावेज भी उपेक्षित रह गया।

डॉ. रिछारिया की कार्य योजना के शब्दों में, “मुख्य समस्या अनचाही नई चावल किस्मों को जल्दबाज़ी में जारी करना है। हमने देसी ऊंची उत्पादकता की किस्मों को नकार कर बौनी (विदेशी) एच.वाय.वी. किस्मों के आधार पर अपनी रणनीति निर्धारित की। हम सूखे की स्थिति को भी भूल गए, जब इन विदेशी एच.वाय.वी. में उत्पादकता गिरती है। अधिक सिंचाई व पानी में उगाई जाने पर ये किस्में बीमारियों व नाशक जीवों के प्रति संवेदनशील रहती हैं, जिनका नियंत्रण आसान नहीं है व इस कारण भी उत्पादकता घटती है।” निष्कर्ष में डॉ. रिछारिया कहते हैं, कि जब नींव ही कमज़ोर है (विदेशी जनन द्रव्य) तो इस पर बना भवन ढहेगा ही।

योजना में एक अन्य स्थान पर उन्होंने लिखा है, “धान में विफलता का सबसे महत्वपूर्ण व नज़दीकी कारण किसी क्षेत्र में पूरी तरह या आंशिक तौर पर धान की किस्मों का बार-बार (या जल्दी-जल्दी) बदलना है। यह इस कारण है क्योंकि पर्यावरण में पहले के जनन द्रव्य के संदर्भ में जो कृषि पारिस्थितकी संतुलन शताब्दियों तक अनुभवजन्य प्रजनन व चयन की प्राकृतिक प्रक्रिया में बन गया था, वह अस्त-व्यस्त हो जाता है।”

सौभाग्यवश, देसी (indigenous varieties) अधिक उत्पादकता की किस्में, जो स्थानीय पर्यावरण के अनुकूल हैं, देश में उपलब्ध हैं। 1971-74 के दौरान मध्य प्रदेश में किए गए एक सर्वेक्षण से पता चला था कि देसी किस्मों में से 8 प्रतिशत अधिक उत्पादकता की किस्में हैं अथवा उनकी उत्पादकता 3705 किलोग्राम धान प्रति हैक्टर से अधिक है।

इसे ध्यान में रखते हुए एच.वाय.वी. को पुन: परिभाषित करना आवश्यक है, क्योंकि अब तक सरकारी स्तर पर उनकी पहचान विदेशी, बौनी, अधिक रासायनिक खाद की खपत करने वाली किस्मों के संदर्भ में ही की गई है।

अनुसंधान व प्रसार दोनों क्षेत्रों में डॉ. रिछारिया अधिकाधिक विकेंद्रीकरण (decentralized research) को महत्व देते हैं। यह धान के पौधों की अपनी विशिष्टताओं के कारण भी अनिवार्य है। उनके शब्दों में, “करोड़ों को भोजन देने वाले चावल के पौधों की यदि सबसे महत्वपूर्ण विशेषता बतानी हो तो यह इसकी (भारत व अन्य चावल उत्पादक क्षेत्रों में फैली) हज़ारों किस्मों में ज़ाहिर विविधता है।” अत: उन्होंने धान उगाने वाले पूरे क्षेत्र में ‘अनुकूलन धान केंद्रों’ का एक जाल-सा बिछा देने का सुझाव दिया। “अनुकूलन धान केंद्र अपने क्षेत्र से एकत्र सभी स्थानीय धान की किस्मों के अभिरक्षक होंगे। भविष्य को सुरक्षित बनाने के लिए उन्हें अपने प्राकृतिक माहौल में ही जीवित रखा जाएगा।” इन केंद्रों के कार्य ये होंगे : ()   चावल के विकसित जेनेटिक संसाधनों को भविष्य के अध्ययनों के लिए उपलब्ध कराना – इसे इसके मूल रूप में भारत या बाहर के किसी केंद्रीय स्थान पर सुरक्षित रखना तो लगभग असंभव है। इसे इसके मूल रूप में तो किसानों के सहयोग से इसके प्राकृतिक माहौल में ही सुरक्षित रखा जा सकता है।

() युवा किसानों को अपनी आनुवंशिक सम्पदा के मूल्य व महत्व के विषय में शिक्षित/जागरूक करना व उनमें किस्मों का पता लगाने, एकत्र करने के प्रति रुचि जागृत करना।

अपने विस्तृत अनुभव के आधार पर डॉ. रिछारिया बताते हैं कि धान क्षेत्रों में मुझे ऐसे किसान मिलते ही रहे हैं जो धान की अपनी स्थानीय किस्मों में गहन रुचि लेते हैं व अलग-अलग किस्मों की उपयोगिता, यहां तक कि उसका इतिहास बता सकते है। इन केंद्रों की ज़िम्मेदारी ऐसे चुने हुए, प्रतिबद्ध किसानों को सौंपी जाएगी। हज़ारों किस्मों की पहचान करने, उन्हें सुरक्षित रखने की उनकी जन्मजात प्रतिभा का लाभ वर्तमान व भविष्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर उठाना चाहिए।

ऊपर बताए गए रास्ते को अपनाने में देर नहीं करनी चाहिए क्योंकि डॉ. रिछारिया ने यह चेतावनी भी दी थी कि जिस तरह विदेशी बौनी किस्मों (foreign rice hybrids) को फैलाने व स्थानीय किस्मों को गायब करने के प्रयास चल रहे है उसके चलते शायद हमारी यह विरासत भी भविष्य में हमें उपलब्ध न रहे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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परीक्षा देने का सबसे अच्छा समय क्या है?

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

कार्मेलो विकारियो एवं उनके साथियों ने फ्रंटियर्स इन साइकोलॉजी पत्रिका (Frontiers in Psychology) के जुलाई 2025 के अंक में एक शोधपत्र प्रकाशित किया था, जिसका शीर्षक था ‘Timing Matters! Academic assessment changes throughout the day’ (समय मायने रखता है! शैक्षणिक मूल्यांकन दिन भर बदलता रहता है)।

इस अध्ययन में उन्होंने संपूर्ण इटली के 1,04,552 विद्यार्थियों के शैक्षणिक प्रदर्शन का विश्लेषण प्रस्तुत किया है, जो कहता है कि परीक्षा का समय मायने रखता है। अध्ययन में पाया गया कि सुबह 11 बजे से दोपहर 1 बजे के बीच आयोजित परीक्षाओं के परिणाम (exam results) बहुत अच्छे आए थे, और उनमें मध्यान्ह (12 बजे) के आसपास आयोजित परीक्षाएं सबसे अच्छी रहीं। जबकि सुबह 8 से 9 बजे के बीच और दोपहर 2 से 5 बजे के बीच आयोजित परीक्षाओं के परिणाम खराब रहे।

यानी नतीजों पर इस बात का असर पड़ता है कि महत्वपूर्ण निर्णय दिन के किस समय लिए गए हैं। ग्राफ पर परीक्षा में सफलता दर (success rate) घंटाकार वक्र रेखा के रूप में प्रदर्शित हुई थी, जिसके शिखर पर मध्यान्ह (12 बजे) का समय था। अर्थात, यदि सुबह 11 बजे या दोपहर 1 बजे परीक्षा हो तो उत्तीर्ण होने की संभावना में कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन यदि परीक्षा सुबह 8-9 बजे या दोपहर 3-4 बजे ली जाती है तो उत्तीर्ण होने की संभावना अपेक्षाकृत कम हो जाएगी। उत्तीर्ण होने की संभावना सुबह और देर दोपहर में बराबर थी।

इस अध्ययन के एक सह लेखक बोलोग्ना विश्वविद्यालय के प्रोफसर एलेसियो एवेनंती का कहना है कि “इन निष्कर्षों के व्यापक निहितार्थ हैं। ये नतीजे इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि कैसे जैविक लय (biological rhythms) महत्वपूर्ण मूल्यांकन परिणाम (assessment results) को सूक्ष्म रूप से लेकिन काफी प्रभावित कर सकती है जबकि इस बात को अक्सर निर्णय लेने के संदर्भ में अनदेखा कर दिया जाता है।”

हालांकि अध्ययन में इस पैटर्न के पीछे के क्रियाविधि का खुलासा नहीं किया गया है; लेकिन दोपहर के समय उत्तीर्ण होने वाले विद्यार्थियों की संख्या में अधिकता इस बात के प्रमाण के समान है कि संज्ञानात्मक प्रदर्शन (cognitive performance) सुबह के दौरान बेहतर होने लगता है और दोपहर के दौरान कम होता जाता है। देर-दोपहर में विद्यार्थियों के ऊर्जा स्तर में गिरावट के कारण उनकी एकाग्रता कम हो सकती है, जिससे उनका प्रदर्शन प्रभावित हो सकता है। प्रोफेसर/शिक्षक भी (जांच के दौरान) निर्णय लेने में थकान का अनुभव कर सकते हैं, जिसके कारण उत्तरों मूल्यांकन प्रभावित हो सकता है।

वहीं, सुबह के समय में खराब परिणाम क्रोनोटाइप (chronotype) या जैविक घड़ी की विविधता के कारण हो सकते हैं। 20 की उम्र के लोग आम तौर पर रात में जागने वाले होते हैं, जबकि 40 या उससे ज़्यादा उम्र के लोग सुबह जल्दी उठने वाले होते हैं। यानी जब प्रोफेसर/शिक्षक सबसे ज़्यादा चेतन/फुर्तीले हैं तब विद्यार्थी उनींदे से होते हैं: नतीजा होता है संज्ञानात्मक प्रदर्शन में गिरावट।

इटली के मेसिना विश्वविद्यालय के डॉ. विकारियो का सुझाव है कि दिन के समय के प्रभावों (time of day effect) का मुकाबला करने के लिए, विद्यार्थियों को अच्छी नींद लेना चाहिए, दिन के जिस समय वे खुद को सबसे कम ऊर्जावान महसूस करते हैं उस दौरान महत्वपूर्ण परीक्षाओं/साक्षात्कार रखने से बचना चाहिए, परीक्षा से पहले दिमाग को आराम देने जैसी रणनीतियां अपनाना चाहिए; और संस्थानों द्वारा सत्र देर-सुबह शुरू करने या प्रमुख मूल्यांकन देर-सुबह रखने से परिणाम में सुधार हो सकता है।

लेकिन शैक्षणिक प्रदर्शन (student performance) पर दिन के समय के प्रभाव को पूरी तरह से समझने और वाजिब मूल्यांकन सुनिश्चित करने के तरीके विकसित करने के लिए अधिक शोध की आवश्यकता है।

शोध पत्र के वरिष्ठ लेखक मेस्सिना विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मासिमो मुच्चियार्डी का कहना है कि अध्ययन में “हम अन्य कारकों को पूरी तरह से शामिल नहीं कर पाए हैं। जैसे हम विद्यार्थियों या परीक्षकों के विस्तृत डैटा (जैसे सोने-जागने की आदतें, तनाव या जैविक लय सम्बंधी जानकारी) (student data) नहीं हासिल कर पाए। यही कारण है कि हम अंतर्निहित तंत्रों को उजागर करने के लिए शारीरिक या व्यवहारिक कारकों को शामिल कर आगे के अध्ययनों का सुझाव देते हैं।”

हालांकि यह शोध इटली में हुआ है, लेकिन इसके निष्कर्ष भारत (India study relevance) में भी भलीभांति लागू हो सकते हैं। भारत में भी कई प्रवेश परीक्षाएं आम तौर पर सुबह और दोपहर के समय में आयोजित की जाती हैं। उदाहरण के लिए, कॉमन युनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट (CUET exam) दो स्लॉट में आयोजित किया जाता है – सुबह 9-12 बजे और दोपहर 3-6 बजे। यदि हम उपरोक्त इतालवी अध्ययन को देखें, तो स्लॉट सुबह 9-11 बजे और दोपहर 12-2 बजे के बीच रखना बेहतर परिणाम दे सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या सबका मस्तिष्क रंगों को एक ही तरह से देखता है?

ह तो हम जानते हैं कि भाषा (Language), संस्कृति (Culture), अनुभव (Experience) और वर्णांधता (Color Blindness) के चलते विभिन्न लोग रंगों को अलग तरह से देखते-समझते हैं। हरियाली से घिरे परिवेश में रहने वालों के पास शायद हरे की हर छटा के लिए अलग-अलग नाम हों, लेकिन किसी और के पास सभी हरे के लिए सिर्फ एक ही नाम हो – हरा। लेकिन क्या सभी के मस्तिष्क रंगों को अलग-अलग तरह से प्रोसेस करते हैं, या एक ही तरह से?

जर्मनी के ट्यूबिंगन विश्वविद्यालय में संज्ञान तंत्रिका विज्ञानी (Neuroscientist) एंड्रियास बार्टेल्स और उनके साथी माइकल बैनर्ट यह जानना चाहते थे कि मस्तिष्क के दृष्टि से सम्बंधित हिस्सों में विभिन्न रंग कैसे निरूपित होते हैं, और लोगों के बीच इसमें कितनी एकरूपता है।

इसके लिए उन्होंने 15 प्रतिभागियों को विभिन्न रंग दिखाए और उस समय उनकी मस्तिष्क गतिविधि को फंक्शनल मैग्नेटिक रिज़ोनेन्स इमेज़िंग (fMRI) की मदद से रिकॉर्ड किया। फिर उन्होंने मस्तिष्क गतिविधि का एक नक्शा बनाया, जिसे देखकर अंदाज़ा मिलता था कि प्रत्येक रंग देखने पर मस्तिष्क के कौन से हिस्से सक्रिय होते हैं। इन आंकड़ों से उन्होंने मशीन-लर्निंग मॉडल (Machine Learning Model)  को प्रशिक्षित किया, और इसकी मदद से उन्होंने एक अन्य समूह की मस्तिष्क गतिविधि के रिकॉर्ड देखकर अनुमान लगाया कि प्रतिभागियों ने कौन से रंग देखे होंगे।

अधिकांश अनुमान सही निकले। देखा गया कि दृश्य से जुड़े अलग-अलग रंगों को मस्तिष्क के एक ही क्षेत्र के अलग-अलग हिस्सों में प्रोसेस किया जाता हैं, और विभिन्न रंगों के लिए अलग-अलग मस्तिष्क कोशिकाएं प्रतिक्रिया करती हैं। लेकिन मस्तिष्क का कौन-सा हिस्सा और कौन-सी कोशिकाएं किस रंग के लिए सक्रिय होंगी इसके नतीजे सभी प्रतिभागियों में एकसमान थे। अर्थात अलग-अलग लोगों में रंगों की प्रोसेसिंग एक ही तरह से होती है। शोधकर्ताओं ने अपने ये नतीजे जर्नल ऑफ न्यूरोसाइंस (Journal of Neuroscience) में प्रकाशित किए हैं।

इस अध्ययन से विभिन्न रंगों के प्रोसेसिंग और नामकरण (Color Perception) को देखने का एक नया नज़रिया मिलता है। अलबत्ता पूरी बात समझने के लिए और अध्ययन (Scientific Research) की ज़रूरत होगी। (स्रोत फीचर्स)

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हीटवेव के लिए ज़िम्मेदार प्रमुख कंपनियां

ई वर्षों से वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि इंसानी गतिविधियां तूफान (Storms), सूखा (Drought)  और ग्रीष्म लहर (Heatwave) जैसी चरम घटनाओं को बढ़ा रही हैं। नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में वर्ष 2000 से 2023 के बीच दुनिया भर में दर्ज हुई कई ग्रीष्म लहरों का सीधा सम्बंध बड़ी जीवाश्म ईंधन कंपनियों से पाया गया है।

शोध के अनुसार, इस अवधि की लगभग एक-चौथाई ग्रीष्म लहरें कोयला (Coal), तेल (Oil) और गैस उत्पादन करने वाली बड़ी ऊर्जा कंपनियों के उत्सर्जन से जुड़ी हैं। वैज्ञानिक यान क्विलकाइल का मानना है कि ये बड़े कार्बन उत्सर्जक (Carbon Emitters) न केवल ग्रीष्म लहर की घटनाओं को बढ़ा रहे हैं बल्कि उन्हें और अधिक खतरनाक बना रहे हैं।

अध्ययन में पाया गया है कि 2000 से 2023 के बीच दर्ज की गई 213 ग्रीष्म लहरों में से एक-चौथाई से ज़्यादा होती ही नहीं यदि मानव-जनित ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming)  न हुआ होता। और भी चौंकाने वाली बात यह है कि इन कंपनियों के उत्सर्जन ने 53 ग्रीष्म लहरों की संभावना को 10,000 गुना तक बढ़ा दिया।

इस अध्ययन की खासियत यह है कि इसने जलवायु आपदाओं (Global Warming)  को सीधे कुछ बड़ी कंपनियों से जोड़ा है, जैसे सऊदी अरामको (Saudi Aramco), गज़प्रोम (Gazprom) और भारत-चीन के बड़े कोयला व सीमेंट उत्पादक। ऐसी कुल 180 ‘कार्बन मेजर’ कंपनियों (Carbon Major Companies) को अब तक के लगभग 57 प्रतिशत ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार पाया गया है। अन्य बड़े प्रदूषकों में सोवियत संघ के पुराने उद्योग, एक्सॉन मोबिल (ExxonMobil), शेवरॉन (Chevron), ईरान की राष्ट्रीय तेल कंपनी, ब्रिटिश पेट्रोलियम (BP) और शेल (Shell) शामिल हैं।

शोधकर्ताओं ने जलवायु मॉडल (Climate Model)  का उपयोग करके यह भी बताया है कि दुनिया ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के साथ और बिना कैसी दिखती। इसके बाद उन्होंने कंपनियों के उत्सर्जन को दर्ज ग्रीष्म लहर की घटनाओं से जोड़ा।

कानूनी विशेषज्ञों (Legal Experts) का मानना है कि यह अध्ययन अदालतों में सबूत के तौर पर इस्तेमाल हो सकता है। मसलन, अमेरिका के ओरेगन राज्य (Oregon State) ने 2021 की ग्रीष्म लहर के लिए जीवाश्म ईंधन कंपनियों पर 52 अरब डॉलर का मुकदमा दायर किया है जहां इस तरह के अध्ययन साक्ष्य बन सकते हैं। ऐसे अध्ययन यह दिखाते हैं कि ज़िम्मेदारी को महज ‘सामूहिक दोष’ मानने की बजाय कंपनियों को दोषी (Corporate Accountability) ठहराया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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मस्तिष्क में मिला भूख का मास्टर स्विच

वैज्ञानिकों ने हाल ही में मस्तिष्क (Brain) में एक खास ‘ब्रेन डायल’ (Brain Dial) खोजा है, जो खाने की इच्छा (Food Craving) को जगा या शांत कर सकता है – कम से कम चूहों में। यह छोटा-सा दिमागी हिस्सा जीवों को पेट भरा होने पर भी खाने के लिए मजबूर कर सकता है।

यह ब्रेन डायल मस्तिष्क के बेड न्यूक्लियस ऑफ स्ट्रिआ टर्मिनेलिस (Bed Nucleus of the Stria Terminalis, BNST) नामक हिस्से में पाया गया है। यह हिस्सा शरीर की तंत्रिकाओं से कई तरह की जानकारियां प्राप्त करके उनका समन्वय करता है – जैसे भूख का स्तर (Hunger Level), विशिष्ट पोषक तत्वों की कमी और भोजन के बारे में निर्णय करना कि वह खाने योग्य है या नहीं। यह एक तरह का कंट्रोल सेंटर (Brain Control Center) है, जो भूख, पोषण और स्वाद से जुड़ी जानकारियों से लेकर खाने के व्यवहार को नियंत्रित करता है। पहले वैज्ञानिकों को शक था कि BNST भूख में भूमिका निभाता है, लेकिन सेल पत्रिका (Cell Journal) में प्रकाशित इस अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि यह खाने की आदतों को दोनों दिशाओं में नियंत्रित कर सकता है।

अध्ययन में कोलंबिया युनिवर्सिटी (Columbia University) के तंत्रिका वैज्ञानिक चार्ल्स ज़ुकर की टीम ने चूहों में स्वाद से जुड़े मस्तिष्कीय परिपथों का नक्शा तैयार किया। उन्होंने पाया कि केंद्रीय एमिग्डेला (Amygdala) और हायपोथैलेमस (Hypothalamus) की तंत्रिकाएं मीठा स्वाद पहचानती हैं और सीधे BNST न्यूरॉन्स से जुड़ी होती हैं। जब BNST तंत्रिकाओं को बाधित किया गया तब भूख होते हुए भी चूहों ने मीठा खाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। लेकिन जब इन्हें सक्रिय किया गया तो पेट भरे चूहों ने सामने आने वाली हर चीज़ खाना शुरू कर दिया जैसे नमक, कड़वी चीज़ें, वसा, पानी, यहां तक कि प्लास्टिक की टिकलियां भी।

विशेषज्ञों के अनुसार यह शोध इसलिए अहम है क्योंकि इसमें भूख और स्वाद (Hunger and Taste) के असर को अलग-अलग समझकर दिखाया गया है, और यह भी बताया गया है कि दोनों का सम्बंध एक ही दिमागी हिस्से से है।

हालांकि ये प्रयोग चूहों पर हुए हैं, लेकिन इंसानों (Humans) के लिए भी इनके बड़े मायने हो सकते हैं। अगर वैज्ञानिक इस ब्रेन डायल को सुरक्षित रूप से नियंत्रित (Brain Dial Control) करना सीख जाते हैं, तो एक दिन यह मोटापा (Obesity), ज़्यादा खाना और खाने से जुड़ी बीमारियों (Eating Disorders) से निपटने में मदद कर सकता है। बहरहाल, इसे इंसानों पर लागू करने से पहले काफी अध्ययन की ज़रूरत होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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