सोचिए, कैसा हो कि आप गूगल (Google) से बिना कुछ बोले मौसम की जानकारी ले सकें या फिर कोई रिमाइंडर सेट कर सकें। हाल ही में AlterEgo नामक एक नए पहनने योग्य डिवाइस (wearable device) ने कुछ ऐसा ही दावा किया है। इसमें आप मन में ‘बोलते’ हैं और एआई (AI) उसे समझ लेता है।
AlterEgo के निर्माता और प्रमुख अर्नव कपूर ने बताया कि इसे कान (ear) पर आराम से लगाया जा सकता है। यह एलन मस्क के Neuralink के समान मस्तिष्कीय संकेतों को नहीं पकड़ता बल्कि चेहरे और गले की मांसपेशियों (facial muscles) में बोलते समय (या बिना आवाज़ निकाले होंठ हिलाने पर) बनने वाले छोटे-छोटे विद्युत संकेतों को पकड़ता है। एआई इन संकेतों को शब्दों में बदल देता है और जवाब बोन कंडक्शन हेडफोन (bone conduction headphones) के ज़रिए पहनने वाले को सुनाई देता है।
कपूर के अनुसार यह आपको टेलीपैथी (telepathy) की ताकत देता है, लेकिन सिर्फ उन्हीं विचारों के लिए जिन्हें आप साझा करना चाहते हैं।
इस उपकरण की विशेष बात यह है कि इसे लगाने के लिए किसी ऑपरेशन की ज़रूरत नहीं होती। यह बिल्कुल सुरक्षित है जो सिर्फ चेहरे और गले की नसों (nerves) से प्राप्त वाले संकेतों का इस्तेमाल करता है। इसी कारण इसे अपनाना बहुत आसान है।
यह सिस्टम 2018 में एमआईटी मीडिया लैब (MIT Media Lab) में एक भारी-भरकम प्रोटोटाइप (prototype) के रूप में शुरू हुआ था। क्योंकि उस समय एआई की स्पीच पहचान (speech recognition) तकनीक सीमित थी, इसलिए इसका इस्तेमाल सिर्फ साधारण कामों जैसे वेब सर्च करना या खाना ऑर्डर करने तक सीमित था। लेकिन अब एआई में हुई प्रगति से यह उपकरण एक आधुनिक और बाज़ार में उतरने लायक उत्पाद बन गया है।
सुविधा से परे, AlterEgo का असल फायदा स्वास्थ्य (healthcare) क्षेत्र में है। इसे ऐसे मरीज़ों पर आज़माया जा रहा है जिन्हें मोटर न्यूरॉन डिसीज़ (motor neuron disease) या मल्टीपल स्क्लेरोसिस जैसी बीमारियां हैं, जिनमें समय के साथ बोलना मुश्किल हो जाता है। ऐसे मरीज़ जो पूरी तरह से ‘लॉक-इन’ नहीं हैं लेकिन बोलने में संघर्ष करते हैं, उनके लिए यह उपकरण परिवार, डॉक्टर और देखभाल करने वाले के साथ संवाद का एक अहम साधन बन सकता है।
बहरहाल, विशेषज्ञ अभी सतर्क हैं। वॉशिंगटन युनिवर्सिटी (Washington University) के इंजीनियर हावर्ड चिज़ेक का मानना है कि यह तकनीक बहुत स्मार्ट (smart technology) है और प्राइवेसी के लिए अमेज़न एलेक्सा (Amazon Alexa) जैसे उपकरणों से भी सुरक्षित है जो हमेशा सुनते रहते हैं। लेकिन एक मुख्य सवाल आम लोगों तक इसकी पहुंच का है क्योंकि इसका इस्तेमाल काफी हद तक चेहरे की मांसपेशियों पर उपयोगकर्ता के नियंत्रण (user control) पर निर्भर करता है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://iol-prod.appspot.com/image/8490944adaedd3bd06ef4a179f36ab35e7bdcfd2=w700
जीवाश्म (fossils) हमेशा से वैज्ञानिकों के लिए अतीत में झांकने की खिड़की रहे हैं। ये अतीत में दुनिया कैसी थी, कौन-सी वनस्पतियां थीं, कौन-से जीव थे, विकास (evolution) किस तरह से हुआ वगैरह समझने का एक मौका देते हैं। अब, दक्षिण अमेरिका में मिले एम्बर भंडार और उनमें कैद कीटों ने 11.2 करोड़ वर्ष पूर्व के गोंडवाना महाद्वीप के पारिस्थितिक तंत्र की एक झलक दिखलाई है।
दरअसल, मध्य इक्वाडोर (Ecuador) में खनन के दौरान प्राचीन एम्बर का भंडार मिला है, और उनमें से कई एम्बर में कीट भी कैद मिले हैं। गौरतलब है कि पेड़ों से रिसती राल (रेज़िन) में छोटे-छोटे कीट, वनस्पति अवशेष आदि फंस जाते हैं और उनके अंदर सुरक्षित हो जाते हैं।
सम्भालकर निकाले गए 60 एम्बर (amber specimens) में से 21 में कई तरह के जीव कैद थे: मक्खियां, गुबरैला, चींटियां, ततैया, यहां तक कि मकड़ी के जाले का टुकड़ा भी।
एम्बर (amber) का रासायनिक विश्लेषण (chemical analysis) करने पर पता चला कि यह रेज़िन विशाल, नुकीले शंकुधारी वृक्षों, (जैसे मंकी पज़ल वृक्ष – Monkey Puzzle Tree) से रिसा था। चूंकि एम्बर में जो प्रजातियां कैद हैं उनके लार्वा पानी में फलते-फूलते हैं, इसलिए शोधकर्ताओं (researchers) को लगता है कि तब आसपास की जलवायु आर्द्र रही होगी। आसपास की चट्टानों में पाए गए बीजाणुओं (spores) और पराग के आधार पर लगता है कि दक्षिण अमेरिका के क्रेटेशियस वनों में उस समय ऊंचे शंकुधारी वृक्ष, फर्न का फैलाव और विविध तरह के कीट रहे होंगे। ये नतीजे कम्युनिकेशंस अर्थ एंड एनवायरनमेंट (Communications Earth & Environment) में प्रकाशित हुए हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.springernature.com/full/springer-static/image/art%3A10.1038%2Fs43247-025-02625-2/MediaObjects/43247_2025_2625_Fig4_HTML.png?as=webp https://www.science.org/do/10.1126/science.zgtxgm9/full/_20250918_on_amber_insects-1758207858727.jpg
बहुत पहले, जब मनुष्य ने खेती (farming) करना सीखा भी नहीं था, तब कुछ दीमक प्रजातियां खेती (termite farming) में माहिर हो चुकी थीं। लगभग 5 करोड़ साल पहले दीमकों ने अपने भूमिगत बिलों में एक खास फफूंद (Termitomyces) उगाना शुरू किया था, जो उनका मुख्य भोजन बना। लेकिन खेती में इन्हें भी वही समस्या पेश आती थी – ‘खरपतवार’ यानी ऐसी फफूंद (weed fungus) पनपने की जो उनकी फसल को बर्बाद कर दे।
हालिया शोध (research) से पता चला है कि दीमक अपने खेतों को सुरक्षित रखने के लिए एक खास तरीका अपनाती हैं। जब उनकी फसल में खरपतवार फफूंद लग जाती है तो वे उतने हिस्से को ऐसी मिट्टी से ढंक देती हैं जिसमें प्राकृतिक फफूंदरोधी सूक्ष्मजीव (antifungal microbes) मौजूद होते हैं।
यह अध्ययन दीमक की प्रजाति Odontotermes obesus पर किया गया, जो दक्षिण एशिया में पाई जाती है। ये सूखी पत्तियों को चबा-चबाकर उनका कचूमर बिल के खास कक्षों में भर देती हैं। इन कक्षों का तापमान व नमी फफूंद (fungus growth) के पनपने के लिए एकदम सही रहती है। धीरे-धीरे पत्तियों के कचूमर (कॉम्ब) पर पनपती फफूंद को दीमक खा लेती हैं।
लेकिन जब कोई बाहरी हानिकारक फफूंद, जैसे Pseudoxylaria, हमला करती है तो दीमक तुरंत सक्रिय हो जाती हैं। प्रयोगशाला (laboratory) अध्ययनों में देखा गया कि दीमक संक्रमित हिस्से को मिट्टी में दबा देती हैं, जबकि स्वस्थ हिस्सों को नहीं। यह भी पता चला कि साधारण कीटाणुविहीन (स्टरलाइज़्ड – sterilized) मिट्टी हानिकारक फफूंद को नहीं रोक पाती। लेकिन दीमक के टीलों से ली गई मिट्टी में मौजूद प्राकृतिक फफूंदरोधी सूक्ष्मजीव हमलावर फफूंद को पूरी तरह रोक देते हैं।
शोधकर्ताओं को सबसे अधिक प्रभावित दीमकों के लचीले व्यवहार ने किया। जब संक्रमण सीमित होता है तो वे सिर्फ संक्रमित हिस्से को साफ कर हटाती हैं। लेकिन अगर संक्रमण ज़्यादा फैल जाता है तो पूरे ‘कॉम्ब’ को दफना देती हैं ताकि बाकी बस्ती सुरक्षित रहे। एक और प्रयोग में, जब स्वस्थ हिस्सा संक्रमित हिस्से से जोड़ा गया तो दीमकों ने बहुत सावधानी से बीमार हिस्से को काटकर मिट्टी में दबा दिया और स्वस्थ फसल (healthy crop) को बढ़ने दिया।
IISER मोहाली के जीवविज्ञानी ऋत्विक रायचौधरी और उनकी टीम के अनुसार यह छोटे-छोटे जीवों की निर्णय लेने की अद्भुत क्षमता को दर्शाता है। कोपेनहेगन विश्वविद्यालय के माइकल पॉल्सन का कहना है कि दीमकों की यह कुशलता उनके पारिस्थितिक महत्व (ecological importance) को दर्शाती है। अपनी भूमिगत खेती (underground farming) संभालकर दीमक न केवल खुद का भोजन तैयार करती हैं, बल्कि पौधों के अवशेषों को उपजाऊ मिट्टी में बदलकर प्राकृतिक संतुलन (natural balance) में भी मदद करती हैं। शोधकर्ता यह जानना चाहते हैं कि दीमक खेती के तरीके कैसे तय करती हैं और सूक्ष्मजीवों (microbes) द्वारा हानिकारक फफूंद रोकने की क्रियाविधि क्या है।(स्रोत फीचर्स)
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भोजन का स्वाद (taste) इस बात को तय करने में अहम भूमिका निभाता है कि हम क्या खाएं और कितना खाएं। वैसे तो मीठे खाद्य पदार्थ (खासकर शकर) कैलोरी का एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं। अत्यधिक शकर (sugar) के सेवन के स्वास्थ्य सम्बंधी प्रतिकूल प्रभाव भी होते हैं। शर्कराएं समस्त कार्बोहाइड्रेट युक्त खाद्य पदार्थों में पाई जाती है – जैसे फल-सब्ज़ियां, अनाज, डेयरी उत्पाद वगैरह। इन सभी को प्राकृतिक शर्करा स्रोत कह सकते हैं और इनमें शकर के अलावा कई अन्य पोषक तत्व होते हैं। समस्या खाद्य पदार्थों में ऊपर से डाली गई शकर के सेवन से होती है।
अत्यधिक शकर के सेवन से हृदय रोग (heart disease) की संभावना बढ़ती है, शरीर इंसुलिन का प्रतिरोधी हो जाता है, जिसकी वज़ह से डायबिटीज़ (diabetes) का खतरा पैदा होता है, वज़न बढ़ता है और मोटापे की स्थिति बन जाती है जो स्वयं कई अन्य रोगों का कारण बनती है। लीवर में वसा का संग्रह होने लगता है जो फैटी लीवर रोग (fatty liver disease) को जन्म देता है। रक्तचाप भी बढ़ता है। और ये सारी स्थितियां परस्पर सम्बंधित हैं।
इस तरह के स्वास्थ्य जोखिमों (health risks) के चलते स्वास्थ्य विशेषज्ञ शकर का सेवन कम करने की सलाह देते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की सिफारिश है कि रोज़ाना के कुल कैलोरी उपभोग में 10 प्रतिशत से अधिक फ्री शुगर न हो जबकि आदर्श स्थिति में तो इसे 5 प्रतिशत से कम रखना ठीक होगा। इसका मतलब है कि यदि एक वयस्क की दैनिक ऊर्जा खपत 2000 कैलोरी है तो उसे रोज़ाना 50 ग्राम से ज़्यादा शकर नहीं खानी चाहिए। अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन (American Heart Association) का मत है कि दैनिक कैलोरी खपत में 6 प्रतिशत से अधिक ऊपर से डाली गई शकर न हो।
भारत में भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) के मुताबिक दैनिक भोजन में 25-30 ग्राम से अधिक शकर नहीं होनी चाहिए। इस अनुशंसित मात्रा में भोजन तथा पेय पदार्थों (beverages) में डाली गई शकर शामिल है।
भारत में शकर का सेवन पहले से ही बहुत अधिक रहा है और अब बढ़ता जा रहा है। 2014 में न्यूट्रिएंट्स नामक शोध पत्रिका (Nutrients journal) में प्रकाशित सीमा गुलाटी व अनूप मिश्रा के एक लेख में बताया गया है कि दरअसल, शकर का आविष्कार (invention of sugar) भारत में ही हुआ था। यहां हर अवसर पर मिठाई की उपस्थिति अनिवार्य सी ही है। मुंह मीठा कराना तो एक जानी-मानी रस्म है।
जहां स्वास्थ्य विशेषज्ञ (health experts) शकर के अत्यधिक सेवन को स्वास्थ्य के लिए एक जोखिम बताते हैं और इसे कम करने की सलाह देते हैं, वहीं इसके प्रति लगाव शकर के सेवन को थामने में एक बड़ी बाधा है।
ऐसा बताते हैं कि मीठे खाद्य पदार्थों (sweet food products) के प्रति आकर्षण स्तनधारियों में काफी पहले विकसित हो गया था। इस आकर्षण का मुख्य आधार यह है कि मीठा खाने के बाद व्यक्ति एक तृप्ति व आनंद का अनुभव करता है। इस तरह के आकर्षण के विकसित होने का कारण यह बताया जाता है कि मीठे पदार्थ अमूमन कैलोरी की उपलब्धता को दर्शाते हैं।
इस संवेदना और आकर्षण का नियमन दो तंत्रों द्वारा किया जाता है। एक का नाम है T1R आश्रित तंत्र और दूसरे को T1R से स्वतंत्र व्यवस्था कहते हैं। जहां T1R से स्वतंत्र मार्ग ग्लूकोज़ तथा अन्य मोनो-सेकेराइड के लिए विशिष्ट होता है वहीं T1R आश्रित मार्ग अधिकांश मीठे पदार्थों (sweet products) की उपस्थिति से सक्रिय हो जाता है। इस मार्ग के संचालक मुंह में उपस्थिति स्वाद कलिकाओं के अलावा आहारनाल के अस्तर में भी पाए जाते हैं। इन कलिकाओं से तंत्रिका संकेत मस्तिष्क तक पहुंचकर आनंद की अनुभूति पैदा करते हैं और खाने की इच्छा को भी नियंत्रित करते हैं। खास तौर से मीठे के प्रति आकर्षण और मस्तिष्क में पारितोषिक का एहसास इन्हीं तंत्रिका संकेतों का परिणाम होता है। इस तरह से मिठास भोजन के आकर्षण को बढ़ाती है और खाने की इच्छा को भी।
कई शोधकर्ताओं ने इन स्वाद-ग्राहियों को अपने अनुसंधान का लक्ष्य बनाया है ताकि मोटापे और खानपान से सम्बंधित समस्याओं से निपटने की नई रणनीति विकसित की जा सके।
यह देखा गया है कि भोजन के उपभोग की मात्रा से जुड़ा मोटापा (obesity) और खाने की लत, इन दोनों में ही शकर के प्रति पसंद में वृद्धि देखी जाती है। इसीलिए मीठे स्वाद के प्रति संवेदना में कमी और भोजन सम्बंधी व्यवहार के बीच सम्बंध को लेकर काफी शोध हो रहे हैं। अलबत्ता, इनसे प्राप्त नतीजों में काफी अंतर और मतभेद हैं।
उदाहरण के लिए, कुछ अध्ययनों में देखा गया है कि मिठास की घटी हुई अनुभूति के चलते जल्दी पेट भरने का एहसास हो सकता है, जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति कम खाएगा/खाएगी और वज़न में कमी आएगी।
इन अध्ययनों में मिठास की संवेदना को दबाने के लिए पेड़-पौधों के सत या उनसे प्राप्त रसायनों का उपयोग किया गया है। जैसे गुड़मार (Gymnema sylvestre) नामक पौधे का रस मीठे की संवेदना को दबा देता है। देखा गया है कि सामान्य संवेदना वाले लोगों की तुलना में गुड़मार (Gymnema sylvestre) के रस से दमित मीठा संवेदना वाले लोगों ने कुल कैलोरी (total calories) और मीठी कैलोरी का कम उपभोग किया। लेकिन कुछ अध्ययनों में परिणाम इसके विपरीत भी रहे। पता चला कि दमित मीठे स्वाद के बाद खुराक बढ़ गई और वज़न भी बढ़ा (weight gain)। शायद मीठे स्वाद से मिलने वाली तृप्ति न मिलने पर खाने की इच्छा और बढ़ गई हो। डायबिटीज़ व मोटापे से ग्रस्त व्यक्तियों पर हुए कुछ अध्ययनों में भी स्वाद परिवर्तन और वज़न में वृद्धि के ऐसे ही सम्बंध देखे गए हैं।
बात को और समझने के लिए रासायनिक संवेदना में गड़बड़ी सम्बंधी कुछ अध्ययन किए गए हैं। कुछ अध्ययनों में देखा गया कि जब मरीज़ शुरुआत में स्वाद-हीनता महसूस करते हैं तो वे आनंद और तृप्ति की वही अनुभूति हासिल करने के लिए नाना प्रकार के खाद्य पदार्थों का सेवन करने लगते हैं। परिणाम यह होता है कि इस गड़बड़ी के शुरू होने के बाद कुछ समय तक उनका वज़न बढ़ता है। लेकिन एक बार समझ में आने पर वे उपभोग कम कर देते हैं और वज़न घटने लगता है। खास तौर से देखा गया कि स्वाद-हीनता यदि क्रमिक रूप से शुरू हो तो परिणाम वज़न में वृद्धि के रूप में सामने आता है जबकि एकाएक यही स्थिति प्रकट हो जाए, तो वज़न कम होना ज़्यादा लोगों में देखा जाता है।
ऐसा लगता है कि मीठे स्वाद के दमन का एक स्तर है। इस स्तर से अधिक दमन हो तो भोजन का उपभोग घटता है जबकि दमन इससे कम हो तो उपभोग बढ़ता है।
इस परिकल्पना की जांच कई अध्ययनों में की गई है। कुछ अध्ययनों में मीठे स्वाद की अनुभूति को अलग-अलग स्तर पर दबाया गया और भोजन सम्बंधी व्यवहार को देखा गया। मीठा-रोधी रसायनों का मीठे की अनुभूति पर असर तथा भोजन सम्बंधी व्यवहार को अलग-अलग जांचा गया।
ऐसे अध्ययनों की संख्या तो सैकड़ों में है। लेकिन हाल ही में प्रकाशित एक समीक्षा पर्चे में इनमें से 33 अध्ययनों का विश्लेषण प्रस्तुत हुआ है। इनमें सबसे ज़्यादा अध्ययनों (16) में गुड़मार के सत या उससे प्राप्त सक्रिय पदार्थों का उपयोग किया गया था। अन्य पादप रसायनों में बेर (Ziziphus jujuba), मुनक्का (Hovenia dulcis), स्टेफेनोटिसलुचुएंसिस, जिम्नेमाआल्टरनिफोलियम और स्टारेक्सजेपोनिका से मिले रसायनों का इस्तेमाल किया गया।
स्वाद की संवेदना (taste sensitivity) में आए अंतर को कैसे नापा जाए, यह खासा मुश्किल मसला है क्योंकि कोई मानक पैमाना तो है नहीं। उपरोक्त सारे अध्ययनों में विविध परीक्षणों का सहारा लिया गया था। सामान्यत: परिमाण का आधार स्वयं व्यक्ति द्वारा किया गया आकलन था। जैसे स्वाद की पहचान कर पाना, स्वाद पता चलने के लिए मीठे पदार्थ की न्यूनतम ज़रूरी मात्रा, या कई बार तो व्यक्ति द्वारा स्वाद की तीव्रता के आकलन को आधार बनाया गया। जांच के लिए कुछ अध्ययनों में स्वाद-दमन के बाद एक अकेले मीठे पदार्थ की जांच की गई जबकि कुछ अध्ययनों में मीठे मिश्रण (जैसे फलों के रस) पर असर देखा गया।
सभी मामलों में भोजन के उपरांत स्वाद-दमनकर्ता देने पर मीठे स्वाद का दमन देखा गया। गुड़मार के मामले में एक खास बात यह रिपोर्ट हुई है कि वह मीठे स्वाद को दबा देता है, जबकि खट्टे, नमकीन या कड़वे स्वाद का दमन नहीं करता। ज़िज़िफसजुजुबा और होवेनियाडल्सिस में भी यही देखा गया, हालांकि इनके मामले में कुछ मीठे पदार्थों की संवेदना पर कोई असर नहीं पड़ा।
लेकिन शोधकर्ताओं (researchers) के सामने एक सवाल तो यह था कि मीठे स्वाद के साथ जो आनंद की अनुभूति (pleasure) होती है, उस पर क्या असर होता है क्योंकि उसका सम्बंध भोजन के उपभोग की मात्रा से होता है।
तो, अध्ययनों से संकेत मिलता है कि गुड़मार व्यक्ति में मीठे उद्दीपन (sweet stimulus) के प्रति लगाव को कम करता है। एक प्लेसिबो (placebo) कंट्रोल्ड अध्ययन में देखा गया कि गुड़मार उपचार के बाद सहभागियों में पहला चॉकलेट खाने से मिलने वाली खुशी में 31 प्रतिशत की कमी आई। इसी प्रकार के परिणाम एक अन्य अध्ययन में भी मिले, जिसमें सहभागियों को जिम्नेमा युक्त गोली खाने को दी गई थी। इनमें दूसरा चॉकलेट खाते समय आनंद में कमी देखी गई।
ऐसे विभिन्न उपचारों का असर लगभग 15-30 सेकंड बाद दिखना शुरू होता है। और असर की अवधि काफी हद तक इस बात पर निर्भर करती है कि उपचार कितनी अवधि के लिए दिया गया। इस बात की भी जांच की गई कि स्वाद दमन से बहाली कितनी देर में हो जाती है यानी स्वाद उन व्यक्तियों के समान हो जाता है जिन्हें प्लेसिबो उपचार दिया गया था। एक तो यह पता चला है कि ज़िज़िफिन तथा होल्डुसिन के मुकाबले जिम्नेमिक एसिड का असर ज़्यादा देर तक बना रहता है। जिम्नेमिक एसिड उपचार के बाद स्वाद बहाली में 20 मिनट से लेकर घंटों तक लग जाते हैं। इसके विपरीत ज़िज़िफिन के मामले में 5-10 मिनट तथा होल्डुसिन के लिए बहाली अवधि 1-4 मिनट देखी गई है।
कुछ अध्ययनों में एक मज़ेदार बात देखी गई है। मिठास-दमन परीक्षण के बाद जब स्वाद बहाल हुआ तो मिठास की अनुभूति परीक्षण-पूर्व स्तर से भी ज़्यादा हो गई और आनंद की अनुभूति भी।
बहरहाल, ये सारे अध्ययन व्यक्तियों के अपने बयानों या मीठे की पसंद में परिवर्तन के उनके अपने अनुमानों पर आधारित थे। लेकिन कम से कम तीन अध्ययन ऐसे थे जिनमें मनुष्यों की स्वाद सम्बंधी प्रतिक्रियाओं का विद्युत-कार्यिकीय अध्ययन (electrophysiology) किया गया था। इनमें से दो में ऐसे मरीज़ों का अध्ययन किया गया जो कान की सर्जरी करवा रहे थे। इनमें स्वाद सम्बंधी गतिविधि के रिकॉर्ड कॉर्डा टिम्पेनी तंत्रिका के ज़रिए प्राप्त किए गए थे। कॉर्डा टिम्पेनी तंत्रिका चेहरे की तंत्रिका (कपाल तंत्रिका VII) की एक शाखा है। विशेष रूप से, यह जीभ के आगे के दो-तिहाई भाग से स्वाद की अनुभूति प्रदान करती है। तीसरे अध्ययन में स्वस्थ व्यक्तियों का अध्ययन एमआरआई तकनीक से किया गया था।
दोनों विद्युत-कार्यिकीय अध्ययनों में देखा गया कि गुड़मार सत जीभ पर लगाने के 1-2 मिनट के अंदर कॉर्डा टिम्पेनिक तंत्रिका की स्वीटनर्स के प्रति संवेदना पूरी तरह बाधित हो गई थी हालांकि अन्य स्वाद रसायनों के साथ ऐसा नहीं हुआ था। दूसरी ओर, एमआरआई अध्ययन में देखा गया कि जिम्नेमिक एसिड युक्त गोली चूसने के बाद न सिर्फ उच्च-शर्करा युक्त खाद्य पदार्थों ने मस्तिष्क में आनंद वाले क्षेत्र को मंद कर दिया बल्कि ऐसे खाद्य पदार्थों से अपेक्षित आनंद के एहसास को भी घटा दिया।
भोजनउपभोगपरअसर
खुराक, ज़्यादा खाने की इच्छा या भोजन के अधिक संभावित उपभोग का भी मापन किया गया था। आप देख ही सकते हैं कि ऐसी चीज़ों का मापन कठिन होगा। शोधकर्ताओं ने इसके लिए व्यक्ति के एहसासों या प्रतिक्रियाओं को एक पैमाने पर रखा। जैसे यह देखा गया कि उपचार के बाद कितने सहभागी पहली टॉफी खाने का निर्णय लेते हैं। कुछ शोध पत्रों में कुल भोजन की खपत या अनुमानित खपत के आंकड़े भी शामिल किए गए थे।
खाने की इच्छा को लेकर परिणामों में काफी विविधता रही। जैसे दो शोध पत्रों में बताया गया था कि सहभागियों में मीठे पदार्थ खाने की इच्छा में कमी आई थी, जबकि एक अन्य शोध पत्र में देखा गया कि मीठा खाने से मिलने वाले आनंद में गिरावट के बावजूद खाने की इच्छा में कोई कमी नहीं आई थी। एक अध्ययन में तो यह भी देखा गया कि मीठा-दमन के तुरंत बाद मीठा खाने की इच्छा में काफी वृद्धि हुई और तृप्ति में कमी देखी गई।
चार अध्ययनों में देखा गया कि जिन लोगों को गुड़मार स्वाद-मारक दिया गया था, उन्होंने सामान्य संवेदना वाले लोगों की तुलना में लघु-अवधि (यानी परीक्षण सत्र के दौरान) में कुल कम कैलोरी और कम मीठी कैलोरी खाई। खपत में 5 से 52 प्रतिशत तक की कमी दिखी। लेकिन इस मामले में व्यक्ति-व्यक्ति के बीच काफी अंतर देखे गए थे। एक अध्ययन में तो बताया गया है कि अपेक्षा के विपरीत कई लोगों ने उपचार-उपरांत उच्च शर्करा वाले पदार्थ ज़्यादा खाए। इसकी व्याख्या के लिए कुछ अपुष्ट परिकल्पनाएं प्रस्तुत हुई है। एक का सम्बंध ‘जिज्ञासा’ (curiosity) से बताया गया है – चूंकि सहभागी शकर के स्वाद के दमन प्रभाव से अनभिज्ञ थे, इसलिए वे इसे कई बार महसूस करना चाहते थे। दूसरी परिकल्पना के अनुसार स्वाद-ग्राही पुन: सक्रिय स्थिति में लौट आता है और ज़्यादा आनंददायक एहसास प्रदान करने लगता है।
लेकिन ये सारे अध्ययन तो इसलिए शुरू किए गए थे कि मीठा स्वाद दबाकर उपभोग पर नियंत्रण किया जा सकेगा। लेकिन जिन 33 शोध पत्रों को समीक्षा में शामिल किया गया था, उनमें से मात्र तीन में इन दोनों बातों (मीठा-स्वाद-दमन और खानपान व्यवहार में परिवर्तन) के आंकड़े साथ-साथ प्रस्तुत किए गए हैं। एक अध्ययन में पाया गया कि सहभागियों में पहले परीक्षण में 20 पॉइंट के पैमाने पर मिठास का एहसास 6±1 कम हुआ। इसके अलावा जिस समूह ने जिम्नेमिक एसिड का सेवन किया था उन्होंने औसतन 501±237 कैलोरी का उपभोग किया जबकि प्लेसिबो समूह (जिन्हें चाय का कुल्ला करवाया गया था) के मामले में यह आंकड़ा औसतन 638±333 कैलोरी रहा। यानी लगभग 20 प्रतिशत की कमी आई।
एक अन्य अध्ययन में प्लेसिबो समूह के 74 प्रतिशत सहभागियों ने दूसरी टॉफी खाई जबकि जिम्नेमिक एसिड उपचारित लोगों में से मात्र 51 प्रतिशत ने ही दूसरी टॉफी खाई। यानी 23 प्रतिशत कम और इतनी ही गिरावट आनंद के एहसास में देखी गई।
विभिन्न प्रकाशित अध्ययनों के विश्लेषण से इतना तो पता चलता है कि 7 पौधों (Gymnema sylvestre, Hovenia dulcis, Ziziphus jujuba, Gymnema alternifolium, Stephanotis lutchuensis और Styrax japonica) तथा उनके कुछ अवयवों के असर से मीठे स्वाद की अनुभूति में परिवर्तन होता है। खास तौर पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जिम्नेमासिलवेस्टर के सत ने मीठे की मनोशारीरिक व आनंद की अनुभूति को कम किया और तंत्रिका संवेदना तथा मीठे पदार्थों के सेवन को भी कम किया। यह भी दिखता है कि इस उपचार का असर अन्य स्वादों पर नहीं होता। लेकिन इन मीठा-रोधी रसायनों के प्रेरणात्मक कारकों (खाने की इच्छा समेत) पर असर का निश्चित प्रमाण नहीं मिला है।
वैसे, गौरतलब बात यह है कि कई अन्य कारक भी हैं जो मीठे स्वाद ग्राही के कामकाज को कम कर सकते हैं। इनमें जेनेटिक्स, पोषण (जैसे ज़िंक की कमी), जीव-वैज्ञानिक (जैसे उम्र), बाह्य कारक (जैसे धूम्रपान, शराब का सेवन) और कोविड-19 जैसी वायरल बीमारियां शामिल हैं। इन परिस्थितियों में प्राय: भोजन उपभोग कम हो जाता है और खानपान की आदतों में बदलाव भी होते हैं। लेकिन इन परिस्थितियों में यह पक्का नहीं है कि मीठे स्वाद के दमन की वजह से भोजन उपभोग पर असर होता है। उदाहरण के लिए T1R2-T1R3 स्वाद ग्राही संकुल के जीन में एक न्यूक्लियोटाइड के परिवर्तन से मीठे स्वाद पर ऐसा ही असर होता है। इसके द्वारा शकर के स्वाद और शकर के उपभोग पर असर होता है।
चिकित्सकीयउपयोग
इस समीक्षा पर्चे से एक बात तो स्पष्ट है – मोटापे या खानपान की गड़बड़ियों वाले व्यक्तियों के लिए मीठे स्वाद के दमन की तकनीक को लागू करने को लेकर कई अगर-मगर हैं।
पहला तो यह अस्पष्ट है कि क्या मीठे स्वाद को दमनकारी पदार्थों से दबाकर गैर-मीठे (हालांकि उच्च वसा वाले) भोजन का उपभोग बढ़ता है। खास तौर पर जब दोनों तरह के भोजन एक साथ परोसे जाएं।
दूसरा, यह तो देखा गया है कि मीठा-शामक पदार्थों का अन्य स्वादों (खट्टे, कड़वे और नमकीन) पर कोई असर नहीं होता लेकिन क्या इनका असर उमामी स्वाद (जैसे अजीनो मोटो यानी मोनो सोडियम ग्लूटामेट) पर भी नहीं होता क्योंकि वह भी मीठे ग्राही की उप-इकाई (T1R3) के ज़रिए ही पहचाना जाता है।
तीसरा, हो सकता है कि मीठा-शामक मीठा खाने की इच्छा और उत्साह को थाम सकता है लेकिन यह भी देखा गया है कि इसका एक पलटवार भी होता है जिसमें आनंददायक अनुभूति के तीव्र दमन की वजह से मीठा खाने की इच्छा और बलवती हो सकती है क्योंकि शायद व्यक्ति मीठे स्वाद की तलाश में हो और उसे वह स्वाद न मिल रहा हो।
चौथा, ऐसा लगता है कि जिन लोगों को खुद को मीठा खाने से रोकने में दिक्कत होती है, उनके मामले में शायद यह तरीका काम कर सकता है। लेकिन एक अध्ययन में पता चला कि मीठे के प्रति आसक्ति और व्यक्ति के वर्तमान वज़न के बीच कोई सम्बंध नहीं है।
कहना न होगा कि इन विभिन्न स्वाद-रोधियों के साइड प्रभावों का विस्तृत अध्ययन ज़रूरी है, क्योकि इनका सेवन लंबे समय तक होता है। जैसे, डायबिटीज़ के मरीज़ों के उपचार के लिए जिम्नेमासिल्वेस्टर के उपयोग का सम्बंध हेपेटाइटिस, लीवर क्षति से देखा गया है। (स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.openaccessgovernment.org/wp-content/uploads/2023/05/iStock-1332728326-scaled.jpg
जब हम खतरनाक जीवों की बात करते हैं तो आम तौर पर शेर, सांप या शार्क का नाम आता है। लेकिन असली खतरा तो एक छोटे-से मच्छर (mosquito) से है – एडीज़एजिप्टी (Aedes aegypti)। इसे येलो फीवर मच्छर (yellow fever mosquito) भी कहते हैं। यह बेहद छोटा कीट डेंगू, चिकनगुनिया, ज़ीका और पीत ज्वर जैसी 50 से अधिक बीमारियां फैला सकता है। आज भी लगभग चार अरब लोगों पर इन बीमारियों का खतरा मंडरा रहा है।
शुरुआत में यह मच्छर अफ्रीकी जंगलों में पाया जाता था। वहां यह प्राकृतिक जलस्रोतों (water sources) में प्रजनन और अलग-अलग जीवों पर रक्तभोज करता था। लेकिन जैसे ही यह अफ्रीका से बाहर फैला, इसकी आदतें बदल गईं। अब यह शहरों और गांवों में पुराने टायर, प्लास्टिक की बाल्टियों और घरों के पास जमा पानी में पनपने लगा और सबसे खतरनाक बदलाव यह हुआ कि इसने लगभग पूरी तरह इंसानों का खून पीना शुरू कर दिया। यही वजह है कि यह आज घातक बीमारियों का सबसे बड़ा वाहक (vector) बन गया है। वैज्ञानिक इस प्रजाति को दो किस्मों में बांटते हैं: Aedes aegypti formosus – अफ्रीकी जंगलों में पाया जाने वाला मच्छर, जो अलग-अलग जीवों का खून पीता है। Aedes aegypti aegypti – शहरों में पनपने वाला मच्छर, जो लगभग केवल इंसानों को काटता है। भले ही इन दोनों की आदतों और जीन्स में अंतर हैं, लेकिन ये आपस में प्रजनन कर सकते हैं।
गौरतलब है कि 5000 वर्ष पूर्व जब सहारा मरुस्थल फैलने लगा और पानी के प्राकृतिक स्रोत सूखने लगे तो इंसानों ने बर्तनों और कंटेनरों (containers) में पानी जमा करना शुरू किया। ऐसे में कुछ मच्छर इन कृत्रिम जलस्रोतों में पनपने लगे और धीरे-धीरे उन्होंने इंसानों का खून पीना पसंद किया।
सदियों बाद, गुलामों को अफ्रीका से अमेरिका भेजे जाने वाले जहाज़ों (slave ships) पर चुपके से लदकर ये मच्छर अमेरिका पहुंच गए। यहीं से उनके वैश्विक फैलाव की शुरुआत हुई। लेकिन वैज्ञानिक लंबे समय तक यह नहीं समझ पाए कि ये मच्छर इंसानों के लिए पहले से अनुकूलित थे या फिर अमेरिका पहुंचने के बाद उनमें नए गुण विकसित हुए।
इस रहस्य को समझने के लिए 9 देशों के वैज्ञानिकों ने विश्व के 73 स्थानों से 1206 मच्छरों के जीनोम का अध्ययन (genome study) किया। साइंस पत्रिका में प्रकाशित इस अध्ययन में एडीज़एजिप्टी मच्छर के फैलाव और उसमें आए परिवर्तनों पर चर्चा की गई है।
अध्ययन से प्राप्त नतीजे काफी चौंकाने वाले थे। अर्जेंटीना में मिले मच्छरों का जीनोम सेनेगल और अंगोला के मच्छरों के जीनोम से मेल खाता पाया गया। यानी, केवल अटलांटिक सफर ने ही उन्हें नहीं बदला, बल्कि अमेरिका की कठिन परिस्थितियों ने भी उनमें नए बदलाव (genetic changes) पैदा किए। अफ्रीका में उन्हें कई स्थानीय प्रजातियों से मुकाबला करना पड़ता था, लेकिन अमेरिका में उनके लिए जीवित रहने का एकमात्र तरीका इंसानों के पास रहना और उन्हीं पर निर्भर होना था। धीरे-धीरे ये मच्छर लगभग पूरी तरह इंसानों पर निर्भर हो गए।
मच्छरों का यह बदलाव सुनने में मामूली लग सकता है, लेकिन यह एक बड़ी क्रांति थी। सोचिए, एक कीट जो कभी जंगलों में रहता था, अब शहरों की भीड़-भाड़ में पुराने टायरों या प्लास्टिक की बाल्टियों (plastic containers) में पनप रहा है। कुछ छोटे जेनेटिक बदलावों (genetic evolution) ने इनके जीवन और व्यवहार को पूरी तरह बदल दिया है। इंसानों के साथ यह नज़दीकी, तेज़ी से बढ़ते शहरों (urbanization) और वैश्विक व्यापार (global trade) ने एडीज़एजिप्टी मच्छरों को फैलने का मौका दिया।
अध्ययन में एक और चिंताजनक तथ्य सामने आया: अमेरिका में कीटनाशकों (insecticides) के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता वाले मच्छर वैश्विक व्यापार के ज़रिए अब वापस अफ्रीका पहुंच गए हैं। और वहां डेंगू व अन्य बीमारियों का खतरा बढ़ा रहे हैं।
देखा जाए तो एडीज़एजिप्टी की कहानी सिर्फ मच्छर (mosquito species) की कहानी नहीं है। इससे यह सपष्ट होता है कि पर्यावरण, इंसानी आदतों और वैश्विक आवाजाही (human mobility) में छोटे बदलाव कैसे प्रकृति को बदल सकते हैं।(स्रोतफीचर्स)
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आम तौर पर किसी व्यक्ति को भविष्य में संभावित स्वास्थ्य सम्बंधी जोखिमों (health risks) का अनुमान उसके स्वास्थ्य-सम्बंधी अतीत, वर्तमान जीवनशैली (lifestyle) वगैरह के आधार पर लगाया जाता है। अब वैज्ञानिकों ने Delphi-2M नाम का एक नया एआई टूल तैयार किया है जो इस काम को ज़्यादा विश्वसनीयता और सटीकता अंजाम दे सकता है। यह टूल कैंसर, त्वचा रोग और प्रतिरक्षा प्रणाली से जुड़ी गड़बड़ियों जैसी हज़ार से ज़्यादा बीमारियों का खतरा भांप सकता है।
नेचर पत्रिका में प्रकाशित यह खोज स्वास्थ्य सेवाओं (healthcare system) में बड़ा परिवर्तन ला सकती है। अभी तक मौजूद एआई टूल्स (AI tools) केवल किसी एक बीमारी की संभावना बताते हैं, जैसे दिल की बीमारी या कैंसर। पूरी तस्वीर पाने के लिए डॉक्टरों को कई मॉडल इस्तेमाल करने पड़ते हैं। लेकिन Delphi-2M एक ही जगह पर सभी बीमारियों की पूरी जानकारी दे देता है।
यह टूल वैज्ञानिकों ने चैटजीपीटी (ChatGPT) जैसे चैटबॉट्स को चलाने वाले एक लार्ज लैंग्वेज मॉडल में परिवर्तन कर बनाया है। जहां लार्ज लैंग्वेज मॉडल वाक्य में अगले शब्द का अनुमान लगाता है, वहीं Delphi-2M इंसान के स्वास्थ्य पर आने वाला खतरों (disease prediction) का अनुमान लगाता है। इसमें उम्र, लिंग, बॉडी मॉस इंडेक्स, धूम्रपान व शराब की आदतें, मेडिकल इतिहास और जीवनशैली जैसी जानकारियां डाली जाती हैं।
इस टूल को यूके बायोबैंक (UK Biobank) के चार लाख लोगों के स्वास्थ्य डैटा से प्रशिक्षित किया गया है। इसके परीक्षण में पाया गया कि Delphi-2M के अनुमान एकल बीमारी वाले मौजूदा मॉडलों जितने ही सटीक हैं, बल्कि कई बार उनसे बेहतर भी निकले। यहां तक कि यह एक अन्य उन्नत एआई टूल से भी आगे निकल गया, जो खून में उपस्थित जैविक संकेतकों से बीमारियां पहचानता है।
विशेषज्ञों का मानना है कि एक साथ कई बीमारियों का अनुमान लगाने की क्षमता इसे काफी अनोखा बनाती है। यदि यह ब्रिटेन के बाहर अलग-अलग आबादी (global population) में भी सफल होता है तो यह डॉक्टरों को ज़्यादा खतरे में रहने वाले मरीज़ों को पहले ही पहचानने में मदद करेगा। इससे समय पर बचाव, जीवनशैली में सुधार और व्यक्तिगत स्वास्थ्य योजनाएं (health plans) बनाना आसान हो जाएगा जो लाखों लोगों को गंभीर बीमारियों से बचा सकती हैं। लेकिन एक स्वाभाविक सा सवाल उठता है। भारत जैसे देश में, जहां बीमारी हो जाने के बाद भी इलाज (treatment access) नहीं मिलता, वहां 10 साल बाद की भविष्यवाणी व्यक्ति को चिंता के अलावा और क्या दे पाएगी?(स्रोतफीचर्स)
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धान (rice crop) विश्व की सबसे महत्वपूर्ण फसल है। अत: बहुराष्ट्रीय कंपनियां यह भरपूर प्रयास कर रही हैं कि उनके नियंत्रण वाली जीएम (GM crops) व जीन परिवर्तित फसलें चावल में भी चल निकलें। दूसरी ओर, किसानों के हित में यह है कि यहां की देशी विविधता भरी धान की किस्मों को खेतों में उगाया जाए। यह भारत के संदर्भ में तो और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत में धान की जैव-विविधता (rice biodiversity) का विशाल भंडार है। इन्हें हमारे पूर्वज किसानों ने एकत्र किया परंतु बहुराष्ट्रीय कंपनियां इनसे मुनाफा कमाना चाहती हैं।
भारत के विख्यात धान वैज्ञानिक डॉ. आर. एच. रिछारिया 1960-70 के दशक में केंद्रीय धान अनुसंधान संस्थान (Central Rice Research Institute) कटक के निदेशक रहे। यहां उन्होंने देशी विविधता भरी किस्मों पर आधारित महान धान विकास कार्यक्रम तैयार किया था। लेकिन इससे पहले कि वे इसे कार्यान्वित कर पाते विदेशी किस्मों को बाहर से लाद दिया गया व डॉ. रिछारिया को अपना पद छोड़ना पड़ा। फिर भी उनके अति विशिष्ट योगदानों को देखते हुए सरकार ने बार-बार उनका परामर्श लेने की ज़रूरत समझी।
1960-70 के दशक के मध्य में विदेशी सहायता संस्थाओं और अनुसंधान केंद्रों के दबाव में भारतीय सरकार ने चावल की बौनी व रासायनिक खाद का अधिक उपयोग करने वाली किस्मों के प्रसार का निर्णय लिया। इन्हें चावल की ‘अधिक उत्पादक किस्में’ (हाई यील्डिंग वेरायटी – एच.वाय.वी.) (high yielding varieties – HYV) कहा गया। एक महत्वपूर्ण बात यह है कि इतनी ही या इससे अधिक उत्पादकता देने वाली देशी किस्मों को अधिक उत्पादक किस्मों की सरकारी सूची में सम्मिलित नहीं किया गया, और विदेशी किस्मों को अधिक उत्पादकता का एकमात्र स्रोत मान लिया गया। इन्हें देश के अनेक भागों मे ‘हरित क्रांति किस्में’ (Green Revolution rice) कहा जाता है।
नीचे प्रस्तुत तालिका से स्पष्ट है कि अपेक्षाकृत कम रासायनिक खाद व अन्य खर्च के बावजूद धान उत्पादकता (paddy yield) में वृद्धि दर हरित क्रांति या विदेशी किस्मों के प्रसार से पहले अधिक थी।
विदेशी अधिक उत्पादक किस्मों की इस विफलता के क्या कारण हैं? फरवरी 1979 में केंद्रीय धान अनुसंधान संस्थान, कटक में डॉ. रिछारिया की अध्यक्षता में हुई धान प्रजनन के ख्यात विशेषज्ञों की बैठक में इस विफलता के कुछ कारण बताए गए थे – विदेशी अधिक उत्पादक किस्मों का भारत के अधिकतर धान उत्पादन क्षेत्र के लिए अनुकूल न होना व बीमारियों व कीड़ों आदि के प्रति अधिक संवेदनशील होना। कहा गया कि
“अधिकतर एच.वाय.वी. टी.एन.(1) या आई.आर.(8) से व्युत्पादित है व इस कारण उनमें बौना करने का डी.जी.ओ.वू. जेन का जीन है। इस संकीर्ण आनुवंशिक आधार से भयप्रद एकरूपता उत्पन्न हो गई है, इसी कारण विनाशक जंतुओं (कीट आदि) व बीमारियों के प्रति संवेदनशीलता भी बढ़ी है। प्रसारित की गई अधिकतर किस्में प्रारूपी उच्च भूमि व निम्न भूमि (टिपिकल अपलैंड्स एंड लोलैंड्स), जो देश में कुल चावल क्षेत्र का लगभग 75 प्रतिशत हिस्सा है, के लिए अनुकूल नहीं है। इन स्थितियों में सफलता के लिए हमें अपने अनुसंधान कार्यक्रमों व रणनीतियों को पुन:उन्मुख करने की आवश्यकता है।” एक अन्य स्थान पर इसी टास्क फोर्स (task force) ने कहा है, “भारत में जारी की गई विभिन्न धान की किस्मों की वंशावली को सरसरी निगाह से देखने से ही स्पष्ट हो जाता है कि जनन द्रव्य का आधार बहुत संकीर्ण है।”
नई किस्मों की विनाशक जंतुओं (पेस्ट) के प्रति बढ़ती संवेदनशीलता के विषय में टास्क फोर्स ने कहा है, “एच.वाय.वी. के आगमन से गालमिज, भूरे फुदके (ब्राऊन प्लांटहॉपर), पत्ती मोड़ने वाले कीड़े (लीफ फोल्डर) वोर्ल मैगट जैसे विनाशक कीटों की स्थिति में उल्लेखनीय तब्दीली आई है। चूंकि अब तक जारी की गई अधिकतर एच.वा.वी. मुख्य विनाशक जंतुओं के प्रति संवेदनशील है, 30 से 100 प्रतिशत तक फसल की हानि होने की संभावना रहती है। उत्पादकता को स्थायित्व प्रदान करने के लिए अंतर्निहित प्रतिरोध (बिल्ट इन रज़िस्टेंस) (built in resistance) वाली किस्मों का विकास अति आवश्यक हो गया है।” किंतु प्रतिरोधक किस्मों के विकास का पिछला रिकार्ड तो कतई उत्साहवर्द्धक नहीं रहा है, जैसा कि टास्क फोर्स ने स्वीकार किया, “कीट प्रतिरोधक प्रजनन कार्यक्रम के परिणाम अभी तक उत्साहपूर्वक नहीं रहे हैं। हालांकि विनाशक जंतुओं की प्रतिरोधी कुछ किस्में जारी की गई हैं लेकिन रत्न के अलावा इनमें से किसी का भी अच्छा प्रसार नहीं हुआ है। रत्न का भी अच्छा प्रसार वेधकों के प्रति इसकी सहनशील प्रकृति के कारण नहीं अपितु इसके अच्छे दाने, तैयार होने की कम अवधि व व्यापक अनुकूलनशीलता के कारण हुआ है।”
“गालमिज के लिए हालांकि बहुत सारे प्रतिरोधक दाता मिले हैं, पर अभी तक देश में जारी की गई अधिकतर प्रतिरोधक किस्में या तो कम उत्पादक हैं अथवा विभिन्न स्थानों पर उगाये जाने पर, प्रतिरोध में एकरूपता नहीं दिखाती हैं। यहां भी ऊंची उत्पादकता (high yeild) व अधिक स्थायी प्रतिरोध के मिलन को प्राप्त नहीं किया जा सका है।”
टास्क फोर्स के इन उद्धरणों में हम इतना ही जोड़ना चाहेंगे कि एच.वाय.वी. की ये समस्यायें अभी तक बनी हुई हैं। इसके साथ यह भी जोड़ देना उचित है कि कम साधनों वाले छोटे किसानों के लिए ये किस्में विशेष रूप से समस्याप्रद है। इन किस्मों के आगमन के बाद धान उत्पादन का अधिक बड़ा हिस्सा अपेक्षाकृत समृद्ध क्षेत्रों व अपेक्षाकृत समृद्ध किसानों के खेतों से प्राप्त होने लगा है, क्षेत्रीय व व्यक्तिगत विषमताएं बढ़ी है।
जब धान के संदर्भ में सरकार द्वारा बहुप्रचारित हरित क्रांति (green revolution in india) की विफलता सामने आने लगी और रासायनिक खाद व कीटनाशकों पर अत्यधिक निर्भरता हानिकारक सिद्ध होने लगी तो देश की इस सबसे महत्वपूर्ण फसल के बारे में चिंतित सरकार को वर्षों से उपेक्षित इस महान कृषि वैज्ञानिक की याद आई। तब वर्ष 1983 में श्रीमती इंदिरा गांधी के कार्यकाल में प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) ने उन्हें धान उत्पादन बढ़ाने के लिए एक कार्ययोजना बनाने का आग्रह किया। डॉ. रिछारिया ने ऐसी कार्य योजना तैयार की, पर श्रीमती इंदिरा गांधी की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या के बाद यह दस्तावेज भी उपेक्षित रह गया।
डॉ. रिछारिया की कार्य योजना के शब्दों में, “मुख्य समस्या अनचाही नई चावल किस्मों को जल्दबाज़ी में जारी करना है। हमने देसी ऊंची उत्पादकता की किस्मों को नकार कर बौनी (विदेशी) एच.वाय.वी. किस्मों के आधार पर अपनी रणनीति निर्धारित की। हम सूखे की स्थिति को भी भूल गए, जब इन विदेशी एच.वाय.वी. में उत्पादकता गिरती है। अधिक सिंचाई व पानी में उगाई जाने पर ये किस्में बीमारियों व नाशक जीवों के प्रति संवेदनशील रहती हैं, जिनका नियंत्रण आसान नहीं है व इस कारण भी उत्पादकता घटती है।” निष्कर्ष में डॉ. रिछारिया कहते हैं, कि जब नींव ही कमज़ोर है (विदेशी जनन द्रव्य) तो इस पर बना भवन ढहेगा ही।
योजना में एक अन्य स्थान पर उन्होंने लिखा है, “धान में विफलता का सबसे महत्वपूर्ण व नज़दीकी कारण किसी क्षेत्र में पूरी तरह या आंशिक तौर पर धान की किस्मों का बार-बार (या जल्दी-जल्दी) बदलना है। यह इस कारण है क्योंकि पर्यावरण में पहले के जनन द्रव्य के संदर्भ में जो कृषि पारिस्थितकी संतुलन शताब्दियों तक अनुभवजन्य प्रजनन व चयन की प्राकृतिक प्रक्रिया में बन गया था, वह अस्त-व्यस्त हो जाता है।”
सौभाग्यवश, देसी (indigenous varieties) अधिक उत्पादकता की किस्में, जो स्थानीय पर्यावरण के अनुकूल हैं, देश में उपलब्ध हैं। 1971-74 के दौरान मध्य प्रदेश में किए गए एक सर्वेक्षण से पता चला था कि देसी किस्मों में से 8 प्रतिशत अधिक उत्पादकता की किस्में हैं अथवा उनकी उत्पादकता 3705 किलोग्राम धान प्रति हैक्टर से अधिक है।
इसे ध्यान में रखते हुए एच.वाय.वी. को पुन: परिभाषित करना आवश्यक है, क्योंकि अब तक सरकारी स्तर पर उनकी पहचान विदेशी, बौनी, अधिक रासायनिक खाद की खपत करने वाली किस्मों के संदर्भ में ही की गई है।
अनुसंधान व प्रसार दोनों क्षेत्रों में डॉ. रिछारिया अधिकाधिक विकेंद्रीकरण (decentralized research) को महत्व देते हैं। यह धान के पौधों की अपनी विशिष्टताओं के कारण भी अनिवार्य है। उनके शब्दों में, “करोड़ों को भोजन देने वाले चावल के पौधों की यदि सबसे महत्वपूर्ण विशेषता बतानी हो तो यह इसकी (भारत व अन्य चावल उत्पादक क्षेत्रों में फैली) हज़ारों किस्मों में ज़ाहिर विविधता है।” अत: उन्होंने धान उगाने वाले पूरे क्षेत्र में ‘अनुकूलन धान केंद्रों’ का एक जाल-सा बिछा देने का सुझाव दिया। “अनुकूलन धान केंद्र अपने क्षेत्र से एकत्र सभी स्थानीय धान की किस्मों के अभिरक्षक होंगे। भविष्य को सुरक्षित बनाने के लिए उन्हें अपने प्राकृतिक माहौल में ही जीवित रखा जाएगा।” इन केंद्रों के कार्य ये होंगे : (क) चावल के विकसित जेनेटिक संसाधनों को भविष्य के अध्ययनों के लिए उपलब्ध कराना – इसे इसके मूल रूप में भारत या बाहर के किसी केंद्रीय स्थान पर सुरक्षित रखना तो लगभग असंभव है। इसे इसके मूल रूप में तो किसानों के सहयोग से इसके प्राकृतिक माहौल में ही सुरक्षित रखा जा सकता है।
(ख) युवा किसानों को अपनी आनुवंशिक सम्पदा के मूल्य व महत्व के विषय में शिक्षित/जागरूक करना व उनमें किस्मों का पता लगाने, एकत्र करने के प्रति रुचि जागृत करना।
अपने विस्तृत अनुभव के आधार पर डॉ. रिछारिया बताते हैं कि धान क्षेत्रों में मुझे ऐसे किसान मिलते ही रहे हैं जो धान की अपनी स्थानीय किस्मों में गहन रुचि लेते हैं व अलग-अलग किस्मों की उपयोगिता, यहां तक कि उसका इतिहास बता सकते है। इन केंद्रों की ज़िम्मेदारी ऐसे चुने हुए, प्रतिबद्ध किसानों को सौंपी जाएगी। हज़ारों किस्मों की पहचान करने, उन्हें सुरक्षित रखने की उनकी जन्मजात प्रतिभा का लाभ वर्तमान व भविष्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर उठाना चाहिए।
ऊपर बताए गए रास्ते को अपनाने में देर नहीं करनी चाहिए क्योंकि डॉ. रिछारिया ने यह चेतावनी भी दी थी कि जिस तरह विदेशी बौनी किस्मों (foreign rice hybrids) को फैलाने व स्थानीय किस्मों को गायब करने के प्रयास चल रहे है उसके चलते शायद हमारी यह विरासत भी भविष्य में हमें उपलब्ध न रहे। (स्रोतफीचर्स)
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कार्मेलो विकारियो एवं उनके साथियों ने फ्रंटियर्सइनसाइकोलॉजी पत्रिका (Frontiers in Psychology) के जुलाई 2025 के अंक में एक शोधपत्र प्रकाशित किया था, जिसका शीर्षक था ‘Timing Matters! Academic assessment changes throughout the day’ (समय मायने रखता है! शैक्षणिक मूल्यांकन दिन भर बदलता रहता है)।
इस अध्ययन में उन्होंने संपूर्ण इटली के 1,04,552 विद्यार्थियों के शैक्षणिक प्रदर्शन का विश्लेषण प्रस्तुत किया है, जो कहता है कि परीक्षा का समय मायने रखता है। अध्ययन में पाया गया कि सुबह 11 बजे से दोपहर 1 बजे के बीच आयोजित परीक्षाओं के परिणाम (exam results) बहुत अच्छे आए थे, और उनमें मध्यान्ह (12 बजे) के आसपास आयोजित परीक्षाएं सबसे अच्छी रहीं। जबकि सुबह 8 से 9 बजे के बीच और दोपहर 2 से 5 बजे के बीच आयोजित परीक्षाओं के परिणाम खराब रहे।
यानी नतीजों पर इस बात का असर पड़ता है कि महत्वपूर्ण निर्णय दिन के किस समय लिए गए हैं। ग्राफ पर परीक्षा में सफलता दर (success rate) घंटाकार वक्र रेखा के रूप में प्रदर्शित हुई थी, जिसके शिखर पर मध्यान्ह (12 बजे) का समय था। अर्थात, यदि सुबह 11 बजे या दोपहर 1 बजे परीक्षा हो तो उत्तीर्ण होने की संभावना में कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन यदि परीक्षा सुबह 8-9 बजे या दोपहर 3-4 बजे ली जाती है तो उत्तीर्ण होने की संभावना अपेक्षाकृत कम हो जाएगी। उत्तीर्ण होने की संभावना सुबह और देर दोपहर में बराबर थी।
इस अध्ययन के एक सह लेखक बोलोग्ना विश्वविद्यालय के प्रोफसर एलेसियो एवेनंती का कहना है कि “इन निष्कर्षों के व्यापक निहितार्थ हैं। ये नतीजे इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि कैसे जैविक लय (biological rhythms) महत्वपूर्ण मूल्यांकन परिणाम (assessment results) को सूक्ष्म रूप से लेकिन काफी प्रभावित कर सकती है जबकि इस बात को अक्सर निर्णय लेने के संदर्भ में अनदेखा कर दिया जाता है।”
हालांकि अध्ययन में इस पैटर्न के पीछे के क्रियाविधि का खुलासा नहीं किया गया है; लेकिन दोपहर के समय उत्तीर्ण होने वाले विद्यार्थियों की संख्या में अधिकता इस बात के प्रमाण के समान है कि संज्ञानात्मक प्रदर्शन (cognitive performance) सुबह के दौरान बेहतर होने लगता है और दोपहर के दौरान कम होता जाता है। देर-दोपहर में विद्यार्थियों के ऊर्जा स्तर में गिरावट के कारण उनकी एकाग्रता कम हो सकती है, जिससे उनका प्रदर्शन प्रभावित हो सकता है। प्रोफेसर/शिक्षक भी (जांच के दौरान) निर्णय लेने में थकान का अनुभव कर सकते हैं, जिसके कारण उत्तरों मूल्यांकन प्रभावित हो सकता है।
वहीं, सुबह के समय में खराब परिणाम क्रोनोटाइप (chronotype) या जैविक घड़ी की विविधता के कारण हो सकते हैं। 20 की उम्र के लोग आम तौर पर रात में जागने वाले होते हैं, जबकि 40 या उससे ज़्यादा उम्र के लोग सुबह जल्दी उठने वाले होते हैं। यानी जब प्रोफेसर/शिक्षक सबसे ज़्यादा चेतन/फुर्तीले हैं तब विद्यार्थी उनींदे से होते हैं: नतीजा होता है संज्ञानात्मक प्रदर्शन में गिरावट।
इटली के मेसिना विश्वविद्यालय के डॉ. विकारियो का सुझाव है कि दिन के समय के प्रभावों (time of day effect) का मुकाबला करने के लिए, विद्यार्थियों को अच्छी नींद लेना चाहिए, दिन के जिस समय वे खुद को सबसे कम ऊर्जावान महसूस करते हैं उस दौरान महत्वपूर्ण परीक्षाओं/साक्षात्कार रखने से बचना चाहिए, परीक्षा से पहले दिमाग को आराम देने जैसी रणनीतियां अपनाना चाहिए; और संस्थानों द्वारा सत्र देर-सुबह शुरू करने या प्रमुख मूल्यांकन देर-सुबह रखने से परिणाम में सुधार हो सकता है।
लेकिन शैक्षणिक प्रदर्शन (student performance) पर दिन के समय के प्रभाव को पूरी तरह से समझने और वाजिब मूल्यांकन सुनिश्चित करने के तरीके विकसित करने के लिए अधिक शोध की आवश्यकता है।
शोध पत्र के वरिष्ठ लेखक मेस्सिना विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मासिमो मुच्चियार्डी का कहना है कि अध्ययन में “हम अन्य कारकों को पूरी तरह से शामिल नहीं कर पाए हैं। जैसे हम विद्यार्थियों या परीक्षकों के विस्तृत डैटा (जैसे सोने-जागने की आदतें, तनाव या जैविक लय सम्बंधी जानकारी) (student data) नहीं हासिल कर पाए। यही कारण है कि हम अंतर्निहित तंत्रों को उजागर करने के लिए शारीरिक या व्यवहारिक कारकों को शामिल कर आगे के अध्ययनों का सुझाव देते हैं।”
हालांकि यह शोध इटली में हुआ है, लेकिन इसके निष्कर्ष भारत (India study relevance) में भी भलीभांति लागू हो सकते हैं। भारत में भी कई प्रवेश परीक्षाएं आम तौर पर सुबह और दोपहर के समय में आयोजित की जाती हैं। उदाहरण के लिए, कॉमन युनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट (CUET exam) दो स्लॉट में आयोजित किया जाता है – सुबह 9-12 बजे और दोपहर 3-6 बजे। यदि हम उपरोक्त इतालवी अध्ययन को देखें, तो स्लॉट सुबह 9-11 बजे और दोपहर 12-2 बजे के बीच रखना बेहतर परिणाम दे सकता है। (स्रोतफीचर्स)
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यह तो हम जानते हैं कि भाषा (Language), संस्कृति (Culture), अनुभव (Experience) और वर्णांधता (Color Blindness) के चलते विभिन्न लोग रंगों को अलग तरह से देखते-समझते हैं। हरियाली से घिरे परिवेश में रहने वालों के पास शायद हरे की हर छटा के लिए अलग-अलग नाम हों, लेकिन किसी और के पास सभी हरे के लिए सिर्फ एक ही नाम हो – हरा। लेकिन क्या सभी के मस्तिष्क रंगों को अलग-अलग तरह से प्रोसेस करते हैं, या एक ही तरह से?
जर्मनी के ट्यूबिंगन विश्वविद्यालय में संज्ञान तंत्रिका विज्ञानी (Neuroscientist) एंड्रियास बार्टेल्स और उनके साथी माइकल बैनर्ट यह जानना चाहते थे कि मस्तिष्क के दृष्टि से सम्बंधित हिस्सों में विभिन्न रंग कैसे निरूपित होते हैं, और लोगों के बीच इसमें कितनी एकरूपता है।
इसके लिए उन्होंने 15 प्रतिभागियों को विभिन्न रंग दिखाए और उस समय उनकी मस्तिष्क गतिविधि को फंक्शनल मैग्नेटिक रिज़ोनेन्स इमेज़िंग (fMRI) की मदद से रिकॉर्ड किया। फिर उन्होंने मस्तिष्क गतिविधि का एक नक्शा बनाया, जिसे देखकर अंदाज़ा मिलता था कि प्रत्येक रंग देखने पर मस्तिष्क के कौन से हिस्से सक्रिय होते हैं। इन आंकड़ों से उन्होंने मशीन-लर्निंग मॉडल (Machine Learning Model) को प्रशिक्षित किया, और इसकी मदद से उन्होंने एक अन्य समूह की मस्तिष्क गतिविधि के रिकॉर्ड देखकर अनुमान लगाया कि प्रतिभागियों ने कौन से रंग देखे होंगे।
अधिकांश अनुमान सही निकले। देखा गया कि दृश्य से जुड़े अलग-अलग रंगों को मस्तिष्क के एक ही क्षेत्र के अलग-अलग हिस्सों में प्रोसेस किया जाता हैं, और विभिन्न रंगों के लिए अलग-अलग मस्तिष्क कोशिकाएं प्रतिक्रिया करती हैं। लेकिन मस्तिष्क का कौन-सा हिस्सा और कौन-सी कोशिकाएं किस रंग के लिए सक्रिय होंगी इसके नतीजे सभी प्रतिभागियों में एकसमान थे। अर्थात अलग-अलग लोगों में रंगों की प्रोसेसिंग एक ही तरह से होती है। शोधकर्ताओं ने अपने ये नतीजे जर्नलऑफन्यूरोसाइंस (Journal of Neuroscience) में प्रकाशित किए हैं।
इस अध्ययन से विभिन्न रंगों के प्रोसेसिंग और नामकरण (Color Perception) को देखने का एक नया नज़रिया मिलता है। अलबत्ता पूरी बात समझने के लिए और अध्ययन (Scientific Research) की ज़रूरत होगी। (स्रोतफीचर्स)
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कई वर्षों से वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि इंसानी गतिविधियां तूफान (Storms), सूखा (Drought) और ग्रीष्म लहर (Heatwave) जैसी चरम घटनाओं को बढ़ा रही हैं। नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में वर्ष 2000 से 2023 के बीच दुनिया भर में दर्ज हुई कई ग्रीष्म लहरों का सीधा सम्बंध बड़ी जीवाश्म ईंधन कंपनियों से पाया गया है।
शोध के अनुसार, इस अवधि की लगभग एक-चौथाई ग्रीष्म लहरें कोयला (Coal), तेल (Oil) और गैस उत्पादन करने वाली बड़ी ऊर्जा कंपनियों के उत्सर्जन से जुड़ी हैं। वैज्ञानिक यान क्विलकाइल का मानना है कि ये बड़े कार्बन उत्सर्जक (Carbon Emitters) न केवल ग्रीष्म लहर की घटनाओं को बढ़ा रहे हैं बल्कि उन्हें और अधिक खतरनाक बना रहे हैं।
अध्ययन में पाया गया है कि 2000 से 2023 के बीच दर्ज की गई 213 ग्रीष्म लहरों में से एक-चौथाई से ज़्यादा होती ही नहीं यदि मानव-जनित ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming) न हुआ होता। और भी चौंकाने वाली बात यह है कि इन कंपनियों के उत्सर्जन ने 53 ग्रीष्म लहरों की संभावना को 10,000 गुना तक बढ़ा दिया।
इस अध्ययन की खासियत यह है कि इसने जलवायु आपदाओं (Global Warming) को सीधे कुछ बड़ी कंपनियों से जोड़ा है, जैसे सऊदी अरामको (Saudi Aramco), गज़प्रोम (Gazprom) और भारत-चीन के बड़े कोयला व सीमेंट उत्पादक। ऐसी कुल 180 ‘कार्बन मेजर’ कंपनियों (Carbon Major Companies) को अब तक के लगभग 57 प्रतिशत ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार पाया गया है। अन्य बड़े प्रदूषकों में सोवियत संघ के पुराने उद्योग, एक्सॉन मोबिल (ExxonMobil), शेवरॉन (Chevron), ईरान की राष्ट्रीय तेल कंपनी, ब्रिटिश पेट्रोलियम (BP) और शेल (Shell) शामिल हैं।
शोधकर्ताओं ने जलवायु मॉडल (Climate Model) का उपयोग करके यह भी बताया है कि दुनिया ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के साथ और बिना कैसी दिखती। इसके बाद उन्होंने कंपनियों के उत्सर्जन को दर्ज ग्रीष्म लहर की घटनाओं से जोड़ा।
कानूनी विशेषज्ञों (Legal Experts) का मानना है कि यह अध्ययन अदालतों में सबूत के तौर पर इस्तेमाल हो सकता है। मसलन, अमेरिका के ओरेगन राज्य (Oregon State) ने 2021 की ग्रीष्म लहर के लिए जीवाश्म ईंधन कंपनियों पर 52 अरब डॉलर का मुकदमा दायर किया है जहां इस तरह के अध्ययन साक्ष्य बन सकते हैं। ऐसे अध्ययन यह दिखाते हैं कि ज़िम्मेदारी को महज ‘सामूहिक दोष’ मानने की बजाय कंपनियों को दोषी (Corporate Accountability) ठहराया जा सकता है।(स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.rinnovabili.net/wp-content/uploads/2025/09/Heat-waves-1280×698.jpg