
इस साल के नोबेल पुरस्कारों (Nobel Prize 2025) की घोषणा कर दी गई है। विज्ञान के तीन क्षेत्रों – भौतिकी, रसायन और कार्यिकी अथवा चिकित्सा – में पुरस्कार उन खोजों के लिए दिए गए हैं जो वर्षों पहले की गई थीं लेकिन विज्ञान और समाज में उनके असर का खुलासा होते देर लगी। तो एक नज़र इस वर्ष के नोबेल सम्मान पर डालते हैं।
भौतिकी (Physics Nobel Prize)
भौतिकी में क्वांटम (Quantum Physics) शब्द अब जाना-पहचाना है। क्वांटम भौतिकी का प्रादुर्भाव 1900 में मैक्स प्लांक द्वारा ब्लैक बॉडी विकिरण की व्याख्या के साथ माना जा सकता है। आगे चलकर अल्बर्ट आइंस्टाइन, नील्स बोर, एर्विन श्रोडिंजर जैसे वैज्ञानिकों ने इसे आगे बढ़ाया। यह पदार्थ और ऊर्जा को एकदम बुनियादी स्तर पर समझने का प्रयास है। इसके कई विचित्र पहलुओं में से एक है क्वांटम टनलिंग (Quantum Tunneling)।
आम तौर पर जब हम किसी गेंद को दीवार पर मारते हैं तो वह सौ फीसदी बार टकराकर वापिस लौट आती है। लेकिन अत्यंत सूक्ष्म स्तर (जैसे इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन जैसे कण) पर पदार्थ का व्यवहार थोड़ा विचित्र हो जाता है। जब एक इकलौते कण को दीवार पर मारा जाए तो कभी-कभी वह टकराकर लौटने की बजाय दीवार के पार चला जाता है। इसे टनलिंग कहते हैं। ऐसा व्यवहार सूक्ष्म कणों के संदर्भ में ही देखा गया था। लेकिन इस वर्ष के नोबेल विजोताओं ने इसे स्थूल स्तर पर भी प्रदर्शित करके सबको चौंका दिया और क्वांटम कंप्यूटर (Quantum Computer Technology) जैसी टेक्नॉलॉजी का मार्ग खोल दिया है।
इस वर्ष का भौतिकी नोबेल संयुक्त रूप से कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (बर्कले) के जॉन क्लार्क, येल विश्वविद्यालय के माइकेल डेवोरेट तथा कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (सांटा बारबरा) के जॉन मार्टिनिस को दिया गया है। इन्होंने यह दर्शाया कि टनलिंग स्थूल स्तर पर भी संभव है। दरअसल उनके प्रयोगों से स्पष्ट हुआ कि कुछ मामलों में बुनियादी कणों का पुंज भी क्वांटम कण की तरह व्यवहार कर सकता है। उनके प्रयोग विद्युत परिपथ से सम्बंधित थे और वे दर्शा पाए कि विद्युत परिपथ क्वांटम परिपथ (Quantum Circuit Research) की तरह व्यवहार कर सकता है।
रसायन (Chemistry Nobel Prize)
वर्ष 2025 का रसायन नोबेल पुरस्कार क्योतो विश्वविद्यालय के सुसुमु कितागावा, मेलबर्न विश्वविद्यालय के रिचर्ड रॉबसन और कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (बर्कले) के ओमर एम. यागी को दिया गया है।
इन वैज्ञानिकों ने ऐसी आणविक संरचनाएं निर्मित की हैं जिनमें अंदर विशाल खाली स्थान होते हैं। इसके लिए उन्होंने धातु के आयन और कार्बनिक अणुओं के संयोजन से नवीन आणविक रचनाएं बनाने में सफलता प्राप्त की है। इन्हें मेटल ऑर्गेनिक फ्रेमवर्क (एमओएफ)) (Metal Organic Framework – MOF) नाम दिया गया है। इनकी विशेषता यह है कि इनमें उपस्थित खाली स्थानों में कई अन्य पदार्थ समा सकते हैं। जैसे इनमें कार्बन डाईऑक्साइड (Carbon Dioxide Storage) भर सकती है, विभिन्न प्रदूषणकारी पदार्थ जमा हो सकते हैं, पर्यावरण में उपस्थित कणीय पदार्थ भरे रह सकते हैं। अर्थात एमओएफ जलवायु परिवर्तन(Climate Change Solutions), वातावरण के प्रदूषण वगैरह जैसी कई चुनौतियों से निपटने में मददगार साबित हो सकते हैं।
चिकित्सा विज्ञान (Medicine Nobel Prize)
इस वर्ष का चिकित्सा नोबेल इंस्टीट्यूट फॉर सिस्टम्स बायोलॉजी (सिएटल) की मैरी ई. ब्रन्कॉव, सोनोमा बायोथेराप्युटिक्स के फ्रेड राम्सडेल और ओसाका विश्वविद्यालय के शिमोन साकागुची को संयुक्त रूप से दिया गया है।
इन्होंने मिलकर इस बात का खुलासा किया है कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र (Immune System Research) अफरा-तफरी क्यों नहीं मचा देता। दरअसल हमारे प्रतिरक्षा तंत्र (इम्यूनिटी) के लिए लाज़मी है कि वह बाहर से आने वाली विभिन्न चुनौतियों (जैसे बैक्टीरिया, फफूंद, वायरस वगैरह) से निपटने को तत्पर रहे। इस काम को अंजाम देने के लिए प्रतिरक्षा तंत्र में विभिन्न किस्म की कोशिकाएं होती हैं – कुछ कोशिकाएं घुसपैठियों को पहचानने का काम करती हैं, कुछ उन्हें बांध कर अन्य मारक कोशिकाओं के समक्ष पेश करती हैं। बाहर से तो कुछ भी आ सकता है। इसलिए पहचानने वाली प्रतिरक्षा कोशिकाओं पर ऐसे अणु होते हैं जो हर उस चीज़ को पहचान लेते हैं जो पराई है। यानी उनमें अपने-पराए का भेद करने की क्षमता होनी चाहिए।
इस साल के नोबेल विजेताओं का प्रमुख योगदान यह समझाने में रहा है कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र स्वयं का नियमन करके कैसे अनुशासित व्यवहार करता है। पहले माना जाता था कि पहचानने वाली प्रतिरक्षा कोशिकाओं का प्रशिक्षण थायमस नामक ग्रंथि (Thymus Gland Function) में होता है। वहां समस्त पहचान कोशिकाओं को शरीर की कोशिकाओं से जोड़कर परखा जाता है। जो कोशिका अपने शरीर की कोशिका से जुड़ती है, उसे नष्ट कर दिया जाता है। इस प्रकार से प्रतिरक्षा तंत्र की वही कोशिकाएं बचती हैं जो अपने ही शरीर की कोशिकाओं को हमलावर के रूप में नहीं पहचातीं।
फिर ब्रन्कॉव, राम्सडेल और साकागुची ने चूहों पर प्रयोगों के दम पर प्रतिरक्षा तंत्र में एक नई किस्म की कोशिकाएं पहचानी जो अन्य कोशिकाओं के निरीक्षण व नियमन का काम करती हैं। इन्हें नियामक टी-कोशिकाएं कहते हैं। तब से नियामक टी-कोशिकाओं (Regulatory T Cells – Tregs) पर काफी अनुसंधान से कई रोगों के उपचार की दिशा में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है। इनमें खास तौर से तथाकथित आत्म-प्रतिरक्षा रोग (Autoimmune Diseases) और कैंसर शामिल हैं। आत्म प्रतिरक्षा रोगों में टाइप-ए डायबिटीज़, आर्थ्राइटिस, ल्यूपस वगैरह शामिल हैं। इन रोगों का कारण यह है कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र स्वयं अपनी कोशिकाओं और ऊतकों पर हमला कर देता है। नियामक टी-कोशिकाओं की खोज और आगे शोध ने ऐसे रोगों (Cancer Immunotherapy) के प्रबंधन के रास्ते प्रदान किए हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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