सिकल सेल रोग के सस्ते इलाज की उम्मीद

सिकल सेल रोग से दुनिया भर के लाखों लोग प्रभावित हैं। एक अनुमान के मुताबिक प्रति वर्ष लगभग पौने चार लाख लोग इसकी वजह से जान गंवाते हैं और लाखों लोग दर्दनाक तकलीफें झेलते हैं। यू.एस. खाद्य एवं औषधि प्रशासन (एफडीए) ने पिछले वर्ष इसके उपचार के लिए दो जीन थेरेपी प्रक्रियाओं को मंज़ूरी दी थी। लेकिन ये उपचार काफी महंगे हैं – इनका खर्च प्रति व्यक्ति करीब 17 करोड़ रुपए बैठता है। साथ ही इनमें जोखिमभरी कीमोथेरेपी शामिल होती है।

हाल ही में औषधि शोधकर्ताओं ने मुंह से दी जाने वाली एक दवा की खोज की है। इस औषधि ने सिकल सेल रोग से ग्रसित जंतुओं में स्वस्थ रक्त कोशिकाओं को पुनर्स्थापित किया है। देखा जाए तो जीन थेरेपी एक बार करनी होती है और वह लंबे समय तक लाभ प्रदान कर सकती है। इसके विपरीत इस नई दवा को समय-समय पर जीवन भर लेने की आवश्यकता हो सकती है।

यह दवा मनुष्यों में अभी सुरक्षा परीक्षण से नहीं गुज़री लेकिन साइंस जर्नल में वर्णित इस प्रायोगिक दवा ने व्यापक रूप से सुलभ और किफायती उपचार की एक उम्मीद जगाई है।

गौरतलब है कि सिकल सेल रोग वयस्क हीमोग्लोबीन के उत्पादन के लिए ज़िम्मेदार जीन में उत्परिवर्तन के कारण होता है। यह उत्परिवर्तन लाल रक्त कोशिकाओं को हंसिए (सिकल) आकार का बना देता है, जिससे रक्त कोशिकाएं आपस में चिपक जाती हैं। इसके चलते रक्त वाहिकाएं अवरुद्ध होती हैं, और तेज़ दर्द के साथ ऊतकों को नुकसान पहुंचाती हैं।

रोचक तथ्य यह है कि इस जीन में उत्परिवर्तन से पीड़ित व्यक्तियों में भी भ्रूणावस्था में सामान्य लाल रक्त कोशिकाएं बनती हैं। उपचारों में कोशिश यह की जाती है कि वयस्क व्यक्ति में वयस्क जीन को बाधित करके भ्रूण के लाल रक्त कोशिका जीन को सक्रिय कर दिया जाए ताकि सामान्य लाल रक्त कोशिकाएं बनने लगें।

सिकल सेल रोग उस जीन में उत्परिवर्तन के कारण होता है जो वयस्क में हीमोग्लोबीन बनाने के लिए ज़िम्मेदार होता है। वर्तमान में स्वीकृत एक जीन थेरेपी में किया यह जाता है कि एक वायरस की मदद से वयस्क हीमोग्लोबीन का संशोधित जीन व्यक्ति की स्टेम कोशिकाओं में प्रविष्ट करा दिया जाता है। फिर इन संशोधित कोशिकाओं को वापिस उस व्यक्ति के शरीर में डाला जाता है। लेकिन उससे पहले उसके शरीर में पहले से मौजूद रक्त स्टेम कोशिकाओं को नष्ट कर दिया जाता है।

दूसरी जीन थेरेपी में भी मरीज़ की रक्त स्टेम कोशिकाओं में संशोधन किया जाता है लेकिन इसके लिए क्रिस्पर नामक तकनीक की मदद ली जाती है। क्रिस्पर की मदद से BCL11A नामक एक प्रोटीन को बाधित कर दिया जाता है। यह वह प्रोटीन है जो वयस्कों में भ्रूणीय हीमोग्लोबीन का उत्पादन रोक देता है। तो जब BCL11A जीन को ठप कर दिया जाता है तो रक्त स्टेम कोशिकाओं में भ्रूणीय हीमोग्लोबीन फिर बनने लगता है और मरीज़ को मदद मिलती है।

लेकिन जीन थेरेपी के भारी खर्च और जटिलता के चलते हर व्यक्ति तक इसकी पहुंच सीमित हो जाती है, खासकर अफ्रीका जैसे क्षेत्रों में जहां सिकल सेल रोगी अधिक पाए जाते हैं।

अलबत्ता, वयस्कों में भ्रूणीय हीमोग्लोबीन जीन को सक्रिय करने वाली औषधियां विकसित करने के प्रयास लंबे समय से चल रहे हैं लेकिन उतने कारगर नहीं रहे हैं।

जैसे नोवार्टिस की पामेला टिंग और जे ब्रैडनर एक ऐसा यौगिक खोज रहे थे जो BCL11A द्वारा बनाए गए प्रोटीन से जुड़ सके और उसे कोशिका की प्रोटीन विध्वंस मशीनरी में पहुंचा सके ताकि वह भ्रूणीय हीमोग्लोबीन के जीन को शांत न कर सके। टीम ने एक यौगिक (dWIZ-1) की पहचान की है जो कोशिका में डाले जाने पर भ्रूणीय हीमोग्लोबीन का उत्पादन बढ़ा देता है। लेकिन यह BCL11A को लक्षित नहीं करता।

इस यौगिक में संशोधन कर dWIZ-2 का निर्माण किया गया, जिसने लाल रक्त कोशिकाओं में भ्रूणीय हीमोग्लोबीन का स्तर 17-45 प्रतिशत तक बढ़ा दिया। यह स्तर मनुष्यों में लाल रक्त कोशिकाओं के कार्यात्मक उत्पादन करने के लिए पर्याप्त है।

dWIZ-2 ने चूहों और तीन में से दो साइनोमोल्गस बंदरों में प्रभावशीलता दिखाई है और कोई दुष्प्रभाव भी नज़र नहीं आए हैं। यह ऐसा पहला छोटा अणु है जो स्टेम कोशिकाओं को नुकसान पहुंचाए बिना भ्रूणीय हीमोग्लोबीन का उत्पादन बढ़ाता देता है।

दिक्कत यह है कि dWIZ प्रोटीन कई कोशिकाओं में बनता है और यह कई जीनों को नियंत्रित करता है। यानी इसकी नियामक भूमिका काफी व्यापक हो सकती है और इसका दमन करना शायद सुरक्षित न हो। बहरहाल, ब्रैडनर का मत है कि भ्रूणीय हीमोग्लोबन को बढ़ाने की dWIZ-2 की क्षमता बहुत अधिक है और यह आगे के विकास का रास्ता तो खोलता ही है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जेनेटिक रूप से संवर्धित मच्छरों से नए खतरे – भारत डोगरा

कुछ वर्षों से कई देशों में जेनेटिक रूप से संवर्धित मच्छर यह कहकर रिलीज़ किए गए हैं कि इससे मच्छरों द्वारा फैलाई गई डेंगू जैसी बीमारियां की रोकथाम होती हैं। पर कई वैज्ञानिकों व पर्यावरणविदों ने इन प्रयासों की यह कहकर आलोचना की है कि प्राकृतिक जीवन-चक्र से किए जा रहे इस खिलवाड़ से ऐसी बीमारियां और विकट भी हो सकती हैं।
इस वर्ष के आरंभ में ब्राज़ील के संदर्भ में आलोचकों का पक्ष अधिक मज़बूत हो गया है। जेनेटिक रूप से संवर्धित मच्छरों को सबसे अधिक ब्राज़ील में ही छोड़ा गया था, और अब वर्ष 2024 के आरंभ में यहां डेंगू की बीमारी में बहुत तेज़ी से वृद्धि हुई। यहां तक कि कुछ स्थानों पर आपात स्थिति बन गई।
यहां यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि अनेक देशों में ऐसे परीक्षण पहले ही इनसे जुड़े तमाम खतरों के कारण काफी विवादास्पद रहे हैं। ये परीक्षण डेंगू, चिकनगुनिया, मलेरिया जैसी मच्छर-वाहित बीमारियों के नियंत्रण के नाम पर किए जाते हैं, परंतु इस बारे में बार-बार चिंता प्रकट की गई है कि वास्तव में जेनेटिक रूप से संवर्धित मच्छरों को छोड़ने पर व इससे जुड़े प्रयोगों से कई बीमारियों की संभावनाएं बढ़ सकती हैं। ज़ीका के प्रकोप के संदर्भ में कुछ विशेषज्ञों ने यह चिंता व्यक्त की थी कि जिस तरह सेे जेनेटिक रूप से संवर्धित मच्छरों पर प्रयोग किए गए हैं, ऐसी गंभीर स्वास्थ्य समस्या उत्पन्न करने में उन प्रयोगों की भूमिका हो सकती है।
भारत में सबसे पहले जेनेटिक रूप से संवर्धित मच्छरों के प्रयोग 1970 के दशक में जेनेटिक कंट्रोल ऑफ मास्कीटोस (मच्छरों के आनुवंशिक नियंत्रण) परियोजना में किए गए थे। उस समय मीडिया में व संसद में इसकी बहुत आलोचना हुई थी। आलोचना इससे जुड़े स्वास्थ्य सम्बंधी खतरों के कारण और उससे भी अधिक इस कारण हुई थी कि इससे विदेशी ताकतों को भारत पर जैविक हमलों के हथियार की तैयारी करने में सहायता मिल सकती है। इस आलोचना को भारतीय संसद की पब्लिक अकाउंट्स समिति की 167 वीं रिपोर्ट से भी बल मिला।
इस पृष्ठभूमि में यह उम्मीद थी कि भविष्य में इस तरह के प्रयोगों की अनुमति नहीं दी जाएगी पर कुछ समय पहले यह सिलसिला फिर आरंभ हो गया है।
इस बीच विश्व के कई देशों में किए गए ऐसे प्रयोगों की भरपूर आलोचना पहले ही हो चुकी है। ऐसे अनेक प्रयोग ब्रिटेन की ऑक्सीटेक कंपनी द्वारा किए गए हैं जिसकी इस क्षेत्र में अग्रणी भूमिका रही है। विभिन्न देशों में इस बारे में चिंता व्यक्त की गई है कि ऐसे प्रयोगों में पारदर्शिता नहीं बरती गई है व सही जानकारी को छुपाया गया है। जीन वाॅच, फ्रेण्ड्स ऑफ दी अर्थ जैसी विभिन्न संस्थाओं ने इस तरह की आलोचना कई बार की है। जीन वाॅच की निदेशक डॉ. हेलेन वैलेस ने इस सम्बंध में अपने अनुसंधान में बताया है कि जिन बीमारियों की रोकथाम की संभावना इस तकनीक द्वारा बताई जा रही है, वास्तव में इस तकनीक के उपयोग से इन बीमारियों की वृद्धि की संभावना है और बीमारी व स्वास्थ्य सम्बंधी समस्या पहले से अधिक गंभीर रूप में प्रकट हो सकती है।
भारत में वेक्टर कंट्रोल रिसर्च सेंटर के पूर्व निदेशक पी. के. राजगोपालन ने कुछ समय पहले इस विषय पर अपना विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत किया था कि इस तकनीक के संदर्भ में विश्व स्तर पर स्थिति क्या है। उनका स्पष्ट निष्कर्ष है कि इस तकनीक के द्वारा बीमारी नियंत्रण के जो दावे किए जा रहे हैं वे असरदार नहीं हैं तथा दूसरी ओर इस तकनीक के खतरे बहुत हैं। उन्होंने यह भी कहा है कि मलेरिया की जांच से जुड़े जो ब्लड-सैंपल विदेश भेजे जा रहे हैं, वह भी उचित नहीं है।
इस सम्बंध में उपलब्ध विश्व स्तरीय जानकारी को देखते हुए भारत में जेनेटिक रूप से संवर्धित जीवों के प्रयोगों पर पूरी तरह रोक लगनी चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या वुली मैमथ फिर से जी उठेगा?

क कंपनी है कोलोसल जिसका उद्देश्य है विलुप्त हो चुके जंतुओं को फिर से साकार करना। इस बार यह कंपनी कोशिश कर रही है कि वुली मैमथ नाम के विशाल प्राणि को पुन: प्रकट किया जाए।

अपने इस प्रयास में कंपनी के वैज्ञानिक आजकल के हाथियों की त्वचा कोशिकाओं को स्टेम कोशिकाओं में परिवर्तित करने में सफल हो गए हैं। स्टेम कोशिकाएं वे कोशिकाएं होती हैं जो किसी खास अंग की कोशिका में विभेदित नहीं हो चुकी होती हैं और सही परिवेश मिलने पर शरीर की कोई भी कोशिश बनाने में समर्थ होती हैं। योजना यह है कि इन स्टेम कोशिकाओं में जेनेटिक इंजीनियरिंग की तकनीकों की मदद से मैमथ के जीन्स रोपे जाएंगे और उम्मीद है कि यह कोशिका विकसित होकर एक मैमथ का रूप ले लेगी।

कोलोसल का उद्देश्य है कि एशियाई हाथियों (Elephas maximus) का ऐसा कुनबा तैयार किया जाए जिसके शरीर पर वुली मैमथ (Mammuthus primigenius) जैसे लंबे-लंबे बाल हों, अतिरिक्त चर्बी हो और मैमथ के अन्य गुणधर्म हों।

देखने में तो बात सीधी-सी लगती है क्योंकि सामान्य कोशिकाओं को बहुसक्षम स्टेम कोशिकाओं में बदलने में पहले भी सफलता मिल चुकी है और जेनेटिक इंजीनियरिंग भी अब कोई अजूबा नहीं है। जैसे एक शोधकर्ता दल ने 2011 में श्वेत राइनोसिरस (Ceratotherium simum cottoni) और ड्रिल नामक एक बंदर (Mandrillus leucophaeus) से स्टेम कोशिकाएं तैयार कर ली थीं। इसके बाद कई अन्य जोखिमग्रस्त प्रजातियों के साथ भी ऐसा किया जा चुका है। जैसे, तेंदुए (Panthera uncia), सुमात्रा का ओरांगुटान (Pongo abelii) वगैरह। लेकिन पूरे काम में कई अगर-मगर हैं।

अव्वल तो कई दल हाथी की स्टेम कोशिकाएं तैयार करने में असफल रह चुके हैं। जैसे कोलोसल की ही एक टीम एशियाई हाथी की कोशिकाओं को स्टेम कोशिकाओं में तबदील करने में असफल रही थी। उन्होंने शिन्या यामानाका द्वारा वर्णित रीप्रोग्रामिंग कारकों का उपयोग किया था। अधिकांश स्टेम कोशिकाएं तैयार करने के लिए इसी विधि का इस्तेमाल किया जाता है।

इस असफलता के बाद एरिओना ह्योसोली की टीम ने उस रासायनिक मिश्रण का उपयोग किया जिसके उपयोग से मानव व मूषक कोशिकाओं को स्टेम कोशिकाओं का रूप देने में सफलता मिल चुकी थी। लेकिन इस उपचार के बाद हाथियों की अधिकांश कोशिकाएं या तो मर गईं, या उनमें विभाजन रुक गया या कई मामलों में वे इस उपचार से अप्राभावित रहीं। लेकिन चंद कोशिकाओं ने गोल आकार हासिल कर लिया जो स्टेम कोशिका जैसा था। अब टीम ने इन कोशिकाओं को यामानाका कारकों से उपचारित किया। लेकिन सफलता तो तब हाथ लगी जब उन्होंने एक कैंसर-रोधी जीन TP53 की अभिव्यक्ति को ठप कर दिया। इस तरह से शोधकर्ताओं ने एक हाथी से चार कोशिका वंश तैयार किए हैं।

अब अगला कदम होगा हाथी की कोशिकाओं में जेनेटिक संपादन करके मैमथ जैसे गुणधर्म जोड़ना। इसके लिए उन्हें यह पहचानना होगा कि वे कौन-से जेनेटिक परिवर्तन हैं जो हाथी को मैमथनुमा बना देंगे। यह काम पहले तो सामान्य कोशिकाओं में किया जाएगा और फिर स्टेम कोशिकाओं में। पहले संपादित स्टेम कोशिकाएं तैयार की जाएगी और फिर उन्हें ऊतकों (जैसे बाल या रक्त) में विकसित करने का काम करना होगा।

लेकिन उससे पहले और भी कई काम होंगे। जैसे संपादित स्टेम कोशिकाओं को किसी प्रकार से शुक्राणुओं व अंडाणुओं में बदलना ताकि उनके निषेचन से भ्रूण बन सके। यह काम चूहों में किया जा चुका है। इसका दूसरा रास्ता भी है – इन स्टेम कोशिकाओं को ‘संश्लेषित’ भ्रूण में तबदील कर देना।

एक समस्या यह भी आएगी कि भ्रूण तैयार हो जाने के बाद उनके विकास के लिए कोख का इंतज़ाम करना। इसके लिए टीम को कृत्रिम कोख का इस्तेमाल करना ज़्यादा मुफीद लग रहा है क्योंकि हाथी की कोख में विकसित होने के दौरान मैमथ भ्रूण का विकास प्रभावित हो सकता है। लिहाज़ा स्टेम कोशिकाओं से ही कोख तैयार करने की योजना है।

दरअसल, शोधकर्ताओं के लिए यह प्रयास जोखिमग्रस्त प्रजातियों के संरक्षण की दिशा में कदम है। और इससे जीव वैज्ञानिक शोध में मदद मिलने की भी उम्मीद है। जैसे वैकासिक जीव वैज्ञानिक विंसेंट लिंच का विचार है कि हाथियों की स्टेम कोशिकाओं पर प्रयोग यह समझा सकते हैं कि हाथियों को कैंसर इतना कम क्यों होता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भारत में विज्ञान अनुसंधान की बढ़ती चिंताएं

भारत में आम चुनाव का आगाज़ हो चुका है। हालिया चुनावी घोषणाओं से वैज्ञानिक समुदाय को प्रयुक्त विज्ञान में निवेश बढ़ने की उम्मीद है लेकिन इसके साथ ही कुछ चिंताएं भी हैं। अनुसंधान और विकास (R&D) के लिए वित्त पोषण में वृद्धि भारत की तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के साथ कदम मिलाकर नहीं चल रही है। विज्ञान वित्तपोषण में शीर्ष से (टॉप-डाउन) नियंत्रण के चलते पैसे के आवंटन में शोधकर्ताओं की राय का महत्व नगण्य रह गया है।

गौरतलब है कि 2014 में प्रधान मंत्री मोदी के प्रथम कार्यकाल के बाद से अनुसंधान एवं विकास के बजट में वृद्धि देखी गई है। लेकिन देश के जीडीपी के प्रतिशत के रूप में यह बजट निरंतर कम होता गया है। 2014-15 में यह जीडीपी का 0.71 प्रतिशत था जबकि 2020-21 में गिरकर 0.64 प्रतिशत पर आ गया। यह प्रतिशत चीन (2.4 प्रतिशत), ब्राज़ील (1.3 प्रतिशत) और रूस (1.1 प्रतिशत) जैसे देशों की तुलना में काफी कम है। गौरतलब है कि भारत में अनुसंधान सरकारी आवंटन पर अधिक निर्भर है। भारत में अनुसंधान एवं विकास के लिए 60 प्रतिशत खर्च सरकार से आता है, जबकि अमेरिका में सरकार का योगदान मात्र 20 प्रतिशत है।

अलबत्ता, इन वित्तीय अड़चनों के बावजूद, भारत ने असाधारण वैज्ञानिक उपलब्धियां हासिल की हैं। 2023 में, भारत चंद्रमा पर सफलतापूर्वक अंतरिक्ष यान उतारने वाला दुनिया का चौथा देश बन गया। बहुत ही मामूली बजट पर इस उपलब्धि को हासिल करने के लिए इसरो की काफी सराहना भी की गई। औषधि व टीकों के विकास के क्षेत्र में भी उपलब्धियां उल्लेखनीय रही हैं। फिर भी, कई अनुसंधान क्षेत्रों को अपर्याप्त धन के कारण असफलताओं का सामना करना पड़ा है।

पिछले वर्ष सरकार द्वारा वैज्ञानिक अनुसंधान को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से नेशनल रिसर्च फाउंडेशन (एनआरएफ) की स्थापना की घोषणा की गई थी। इसके लिए सरकार ने पांच वर्षों में 500 अरब रुपए की व्यवस्था का वादा किया था। इसमें से 140 अरब रुपए सरकार द्वारा और बाकी की राशि निजी स्रोतों से मिलने की बात कही गई थी। लेकिन वित्तीय वर्ष 2023-24 में सरकार ने इसके लिए मात्र 2.6 अरब रुपए और वर्तमान वित्त वर्ष में 20 अरब रुपए आवंटित किए हैं; निजी स्रोतों के बारे में अभी तक कोई जानकारी नहीं है।

वर्तमान स्थिति देखी जाए तो भारत का दृष्टिकोण विज्ञान को त्वरित विकास के एक साधन के रूप में देखने का है। लेकिन इसमें पूरा ध्यान आधारभूत विज्ञान की बजाय उपयोगी अनुसंधान पर केंद्रित रहता है। जवाहरलाल नेहरू सेंटर फॉर एडवांस्ड साइंटिफिक रिसर्च के भौतिक विज्ञानी उमेश वाघमारे का अनुमान है कि आगामी चुनाव में भाजपा की जीत इस प्रवृत्ति को और तेज़ कर सकती है।

गौरतलब है कि शोधकर्ता और विशेषज्ञ काफी समय से निर्णय प्रक्रिया और धन आवंटन में अधिक स्वायत्तता की मांग करते रहे हैं। वाघमारे का सुझाव है कि उच्च अधिकारियों को सलाहकार की हैसियत से काम करना चाहिए जबकि वैज्ञानिक समितियों को अधिक नियंत्रण मिलना चाहिए। वर्तमान में, प्रधानमंत्री एनआरएफ के अध्यक्ष हैं और अधिकांश संचालन मंत्रियों और सचिवों द्वारा किया जाता है; वैज्ञानिक समुदाय की भागीदारी काफी कम है।

इसके अलावा, जटिल प्रशासनिक और वित्तीय नियमों के चलते शोधकर्ता आवंटित राशि का पूरी तरह से उपयोग भी नहीं कर पाते। भारत सरकार की पूर्व सलाहकार शैलजा वैद्य गुप्ता दशकों की प्रशासनिक स्वायत्तता की बदौलत इसरो को मिली उपलब्धियों का हवाला देते हुए, विश्वास और लचीलेपन की आवश्यकता पर ज़ोर देती हैं।

यह काफी हैरानी की बात है कि 2024 के चुनाव अभियान में भी हमेशा की तरह विज्ञान प्रमुख विषय नहीं रहा है। इंडियन रिसर्च वॉचडॉग के संस्थापक अचल अग्रवाल राजनीतिक विमर्श से विज्ञान की अनुपस्थिति पर अफसोस जताते हैं और कहते हैं कि चाहे कोई भी पार्टी जीते भारतीय विज्ञान का भविष्य तो बदलने वाला नहीं है।

बहरहाल, हम हर तरफ भारत की अर्थव्यवस्था के लगातार फलने-फूलने की बात तो सुनते हैं लेकिन एक सत्य यह भी है कि वैज्ञानिक समुदाय वित्तपोषण और स्वायत्तता सम्बंधी चुनौतियों से जूझता रहा है। ये मुद्दे अनुसंधान और विकास के क्षेत्र में भारत के भविष्य और वैश्विक वैज्ञानिक नेता के रूप में अपनी स्थिति बनाए रखने की क्षमता के बारे में चिंताएं बढ़ाते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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परंपरागत जल संरक्षण की बढ़ती उपयोगिता

स वर्ष फरवरी के महीने से ही कर्नाटक के एक बड़े क्षेत्र से गंभीर जल संकट के समाचार मिलने आरंभ हो गए थे। दूसरी ओर, पिछले वर्ष बरसात के मौसम में हिमाचल प्रदेश जैसे कई राज्यों में बाढ़ से भयंकर तबाही हुई थी। जलवायु बदलाव के इस दौर में विभिन्न स्तरों पर बाढ़ और सूखे दोनों के संकट अधिक गंभीर हो सकते हैं।

देखने में तो बाढ़ और सूखे की बाहरी पहचान उतनी ही अलग है जितनी पर्वत और खाई की – एक ओर वेग से बहते पानी की अपार लहरें तो दूसरी ओर बूंद-बूंद पानी को तरसती सूखी प्यासी धरती। इसके बावजूद प्राय: देखा गया है कि बाढ़ और सूखे दोनों के मूल में एक ही कारण है और वह है उचित जल प्रबंधन का अभाव।

जल संरक्षण की उचित व्यवस्था न होने के कारण जो स्थिति उत्पन्न होती है उसमें हमें आज बाढ़ झेलनी पड़ती है तो कल सूखे का सामना करना पड़ सकता है। दूसरी ओर, यदि हम जल संरक्षण की समुचित व्यवस्था कर लें तो न केवल बाढ़ पर नियंत्रण पा सकेंगे अपितु सूखे की स्थिति से भी बहुत हद तक राहत मिल सकेगी।

भारत में वर्षा और जल संरक्षण का विशेष अध्ययन करने वाले मौसम विज्ञानी पी. आर. पिशारोटी ने बताया है कि युरोप और भारत में वर्षा के लक्षणों में कई महत्वपूर्ण अंतर हैं। युरोप में वर्षा पूरे साल धीरे-धीरे होती रहती है। इसके विपरीत, भारत के अधिकतर भागों में वर्ष के 8760 घंटों में से मात्र लगभग 100 घंटे ही वर्षा होती है। इसमें से कुछ समय मूसलाधार वर्षा होती है। इस कारण आधी वर्षा मात्र 20 घंटों में ही हो जाती है। अत: स्पष्ट है कि जल संग्रहण और संरक्षण युरोप के देशों की अपेक्षा भारत जैसे देशों में कहीं अधिक आवश्यक है। इसके अलावा, भारत की वर्षा की तुलना में युरोप में वर्षा की औसत बूंद काफी छोटी होती है। इस कारण उसकी मिट्टी काटने की क्षमता भी कम होती है। युरोप में बहुत सी वर्षा बर्फ के रूप में गिरती है जो धीरे-धीरे धरती में समाती रहती है। भारत में बहुत सी वर्षा मूसलाधार वर्षा के रूप में गिरती है जिसमें मिट्टी को काटने और बहाने की बहुत क्षमता होती है।

दूसरे शब्दों में, हमारे यहां की वर्षा की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि यदि उसके पानी के संग्रहण और संरक्षण की उचित व्यवस्था नहीं की गई तो यह जल बहुत सारी मिट्टी बहाकर निकट की नदी की ओर वेग से दौड़ेगा और नदी में बाढ़ आ जाएगी। चूंकि अधिकतर जल न एकत्र होगा न धरती में रिसेगा, अत: कुछ समय बाद जल संकट उत्पन्न होना भी स्वाभाविक ही है। इन दोनों विपदाओं को कम करने के लिए या दूर करने के लिए जीवनदायी जल का अधिकतम संरक्षण और संग्रहण आवश्यक है।

इसके लिए पहली आवश्यकता है वन, वृक्ष व हर तरह की हरियाली जो वर्षा के पहले वेग को अपने ऊपर झेलकर उसे धरती पर धीरे से उतारे ताकि यह वर्षा मिट्टी को काटे नहीं अपितु काफी हद तक स्वयं मिट्टी में ही समा जाए या रिस जाए और पृथ्वी के नीचे जल के भंडार को बढ़ाने का अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य संपन्न करे।

दूसरा महत्वपूर्ण कदम यह है कि वर्षा का जो शेष पानी नदी की ओर बह रहा है उसके अधिकतम संभव हिस्से को तालाबों या पोखरों में एकत्र कर लिया जाए। वैसे इस पानी को मोड़कर सीधे खेतों में भी लाया जा सकता है। खेतों में पड़ने वाली वर्षा का अधिकतर जल खेतों में ही रहे, इसकी व्यवस्था भू-संरक्षण के विभिन्न उपायों जैसे खेत-तालाब, मेड़बंदी, पहाड़ों में सीढ़ीदार खेत आदि से की जा सकती है। तालाबों में जो पानी एकत्र किया गया है वह उसमें अधिक समय तक बना रहे इसके लिए तालाबों के आसपास वृक्षारोपण हो सकता है व वाष्पीकरण कम करने वाला तालाब का विशेष डिज़ाइन बनाया जा सकता है। तालाब से होने वाले सीपेज का भी उपयोग हो सके, इसकी व्यवस्था हो सकती है। एक तालाब का अतिरिक्त पानी स्वयं दूसरे में पहुंच सके और इस तरह तालाबों की एक शृंखला बन जाए, यह भी कुशलतापूर्वक करना संभव है।

वास्तव में जल संरक्षण के ये सब उपाय हमारे देश की ज़रूरतों के अनुसार बहुत समय से किसी न किसी रूप में अपनाए जाते रहे हैं। चाहे राजस्थान व बुंदेलखंड के तालाब हों या बिहार की अहर पईन व्यवस्था, नर्मदा घाटी की हवेली हो या हिमालय की गूलें, महाराष्ट्र की बंधारा विधि हो या तमिलनाडु की एरी व्यवस्था, इन सब माध्यमों से अपने-अपने क्षेत्र की विशेषताओं के अनुसार स्थानीय लोगों ने वर्षा के जल के अधिकतम और बढ़िया उपयोग की तकनीकें विकसित कीं। औपनिवेशिक शासन के दिनों में विभिन्न कारणों से हमारी तमाम परंपरागत व्यवस्थाओं का ढांचा चरमराने लगा। जल प्रबंधन पर भी नए शासकों और उनकी नीतियों की मार पड़ी। किसानों और ग्रामीणों की आत्मनिर्भरता तो अंग्रेज़ सरकार चाहती ही नहीं थी, उपाय क्या करती। फिर भी तरह-तरह के शोषण का बोझ सहते हुए लोग जहां-तहां अपनी व्यवस्था को जितना सहेज सकते थे, उन्होंने इसका प्रयास किया।

दुख की बात यह है कि स्वतंत्रता के बाद भी जल प्रबंधन के इन आत्म-निर्भर, सस्ते और स्थानीय भौगोलिक विशेषताओं का पूरा ध्यान रखने वाले परंपरागत तौर-तरीकों पर ध्यान नहीं दिया गया। औपनिवेशिक शासकों ने जल प्रबंधन की जो नीतियां अपनाई थीं, उसमें उनके अपने स्वार्थों के साथ-साथ युरोप में वर्षा के पैटर्न पर आधारित सोच हावी थी। इस सोच के आधार पर स्थानीय स्तर के जल संरक्षण को अधिक महत्व नहीं दिया गया। बाद में धीरे-धीरे इस क्षेत्र के साथ बड़ी निर्माण कंपनियों, ठेकेदारों व उनसे लाभ उठाने वाले अधिकारियों व नेताओं के स्वार्थ भी जुड़ गए। निहित स्वार्थ जब नीति पर हावी हो गए तो गांवों के सस्ते और आत्म-निर्भर तौर तरीकों की बात भला कौन सुनता, समझता?

गांव की बढ़ती आबादी के साथ मनुष्य व पशुओं के पीने के लिए, सिंचाई व निस्तार के लिए पानी की आवश्यकता बढ़ती जा रही थी, अत: परंपरागत तौर-तरीकों को और दुरूस्त करने की, उन्हें बेहतर बनाने की आवश्यकता थी। यह नहीं हुआ और इसके स्थान पर अपेक्षाकृत बड़ी नदियों पर बड़े व मझोले बांध बनाने पर ज़ोर दिया गया। पानी के गिरने की जगह पर ही उसके संरक्षण के सस्ते तौर तरीकों के स्थान पर यह तय किया गया कि उसे बड़ी नदियों तक पहुंचने दो, फिर उन पर बांध बनाकर कृत्रिम जलाशय में एकत्र कर नहरों का जाल बिछाकर इस पानी के कुछ हिस्से को वापिस गांवों में पहुंचाया जाएगा। निश्चय ही यह दूसरा तरीका अधिक मंहगा था और गांववासियों की बाहरी निर्भरता भी बढ़ाता था।

इस तरीके पर अधिक निर्भर होने से हम अपनी वर्षा के इस प्रमुख गुण को भी भूल गए कि विशेषकर वनस्पति आवरण कम होने पर उसमें अत्यधिक मिट्टी बहा ले जाने की क्षमता होगी। यह मिट्टी कृत्रिम जलाशयों की क्षमता और आयु को बहुत कम कर सकती है। मूसलाधार वर्षा के वेग को संभालने की इन कृत्रिम जलाशयों की क्षमता इस कारण और भी सिमट गई है। आज हालत यह है कि वर्षा के दिनों में प्रलयंकारी बाढ़ के अनेक समाचार ऐसे मिलते हैं जिनके साथ यह लिखा रहता है – अमुक बांध से पानी अचानक छोड़े जाने पर यह विनाशकारी बाढ़ आई। इस तरह अरबों रुपए के निर्माण कार्य जो बाढ़ से सुरक्षा के नाम पर किए गए थे, वे ही विनाशकारी बाढ़ का स्रोत बने हुए हैं। दूसरी ओर, नहरों की सूखी धरती और प्यासे गांव तक पानी पहुंचाने की वास्तविक क्षमता उन सुहावने सपनों से बहुत कम है, जो इन परियोजनाओं को तैयार करने के समय दिखाए गए थे। इन बड़ी और महत्वाकांक्षी परियोजनाओं के अनेकानेक प्रतिकूल पर्यावरणीय और सामाजिक परिणाम भी स्पष्ट रूप से सामने आ चुके हैं।

जो लोग विकास कार्यों में केवल विशालता और चमक-दमक से प्रभावित हो जाते हैं उन्हें यह स्वीकार करने में वास्तव में कठिनाई हो सकती है कि सैकड़ों वर्षों से हमारे गांवों में स्थानीय ज्ञान और स्थानीय ज़रूरतों के आधार पर जो छोटे स्तर की आत्म-निर्भर व्यवस्थाएं जनसाधारण की सेवा करती रही हैं, वे आज भी बाढ़ और सूखे का संकट हल करने में अरबों रुपयों की लागत से बनी, अति आधुनिक इंजीनियरिंग का नमूना बनी नदी-घाटी परियोजनाओं से अधिक सक्षम हैं। वास्तव में इस हकीकत को पहचानने के लिए सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर अपनी विरासत को पहचानने और पूर्वजों के संचित ज्ञान के विनम्र मूल्यांकन की आवश्यकता है।

यह सच है कि इस परंपरा में अनेक कमियां भी मिलेंगी। हमारे पुराने समाज में भी अनेक विषमताएं थीं और ये विषमताएं कई बार तकनीक में भी खोट पैदा करती थीं। जिस समाज में कुछ गरीब लोगों की अवहेलना होती हो, वहां पर अन्याय भी ज़रूर रहा होगा कि उनको पानी के हकों से भी वंचित किया जाए या उनसे भेदभाव हो। एक ओर हमें इन पारंपरिक विकृतियों से लड़ना है और उन्हें दूर करना है। लेकिन दूसरी ओर यह नहीं भूलना चाहिए कि विशेषकर जल प्रबंधन की हमारी विरासत में गरीब लोगों का बहुत बड़ा हाथ है क्योंकि इस बुनियादी ज़रूरत को पूरा करने में सबसे ज़्यादा पसीना तो इन मेहनतकशों ने ही बहाया था। आज भी जल प्रबंधन का परंपरागत ज्ञान जिन जातियों या समुदायों के पास सबसे अधिक है उनमें से अधिकांश गरीब ही हैं। जैसे केवट, मल्लाह, कहार, ढीमर, मछुआरे आदि। ज़रूरत इस बात की है कि स्थानीय जल प्रबंधन का जो ज्ञान और जानकारी गांव में पहले से मौजूद है उसका भरपूर उपयोग आत्म-निर्भर और सस्ते जल संग्रहण और संरक्षण के लिए किया जाए और इसका लाभ सब गांववासियों को समान रूप से दिया जाए।

महाराष्ट्र में पुणे ज़िले में पानी पंचायतों के सहयोग से ग्राम गौरव प्रतिष्ठान ने दर्शाया है कि कैसे भूमिहीनों को भी पानी का हिस्सा मिलना चाहिए और पानी का उपयोग बराबर होना चाहिए। परंपरागत तरीकों को इस तरह सुधारने के प्रयास निरंतर होने चाहिए, पर परंपराओं की सही समझ बनाने के बाद। यदि सरकार बजट का एक बड़ा हिस्सा जल संग्रहण और संरक्षण के इन उपायों के लिए दे और निष्ठा तथा सावधानी से कार्य हो तो बाढ़ व सूखे का स्थायी समाधान प्राप्त करने में बहुत सहायता मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रॉकेट प्रक्षेपण की नई टेक्नॉलॉजी

अंतरिक्ष अन्वेषण के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण प्रयास करते हुए नासा के वैज्ञानिकों ने रोटेटिंग डेटोनेशन इंजन (आरडीई) नामक एक अभूतपूर्व तकनीक का इजाद किया है। इस नवीन तकनीक को रॉकेट प्रणोदन के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी परिवर्तन के रूप में देखा जा रहा है।

नियंत्रित दहन प्रक्रिया पर निर्भर पारंपरिक तरल ईंधन आधारित इंजनों के विपरीत आरडीई विस्फोटन तकनीक पर काम करते हैं। इसमें एक तेज़, विस्फोटक दहन को अंजाम दिया जाता है जिससे अधिकतम ईंधन दक्षता प्राप्त होती है। गौरतलब है कि पारंपरिक रॉकेट इंजनों में ईंधन को धीरे-धीरे जलाया जाता है और नियंत्रित दहन से उत्पन्न गैसें नोज़ल में से बाहर निकलती हैं और रॉकेट आगे बढ़ता है। दूसरी ओर आरडीई में, संपीड़न और सुपरसॉनिक शॉकवेव की मदद से विस्फोट कराया जाता है जिससे ईंधन का पूर्ण व तत्काल दहन होता है। देखा गया कि इस तरह से करने पर ईंधन का ऊर्जा घनत्व ज़्यादा होता है।

पर्ड्यू विश्वविद्यालय के इंजीनियर स्टीव हेस्टर ने आरडीई के अंदर होने वाले दहन को ‘दोजख की आग’ नाम दिया है जिसमें इंजन के भीतर का तापमान 1200 डिग्री सेल्सियस हो जाता है। यह तकनीक न केवल बेहतर प्रदर्शन प्रदान करती है, बल्कि अंतरिक्ष यान को अधिक दूरी तय करने, उच्च गति प्राप्त करने और बड़े पेलोड ले जाने में सक्षम भी बनाती है।

यह तकनीक ब्रह्मांड की खोज के लिए अधिक कुशल और लागत प्रभावी तरीका प्रदान करती है। जैसे-जैसे वैज्ञानिक इस अत्याधुनिक तकनीक को परिष्कृत और विकसित करते जाएंगे, भविष्य के अंतरिक्ष अभियानों की संभावनाएं पहले से कहीं अधिक उज्जवल होती जाएंगी। (स्रोत फीचर्स)

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टीकों में सहायक पदार्थों का उपयोग

टीकों के विज्ञान में एक दिलचस्प रहस्य छिपा है जिसे एडजुवेंट (सहायक पदार्थ) कहते हैं। 1920 के दशक में फ्रांसीसी पशुचिकित्सक गैस्टन रेमन ने पाया था कि टीकों में ब्रेड का चूरा, कसावा या ऐसा ही कोई योजक मिलाने से टीके बेहतर काम करते हैं। सहायक पदार्थों की इस भूमिका को देखते हुए कुछ टीकों में इनका उपयोग किया जा रहा है। साथ ही नए टीके तैयार करने के लिए एडजुवेंट पर शोध जारी है ताकि लंबे समय तक कारगर टीके विकसित किए जा सकें।

टीके का मतलब है कि रोगजनक का मृत या दुर्बल रूप या उसके द्वारा बनाया जाने वाला विष शरीर में प्रविष्ट कराया जाता है। शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र इसे एंटीजन के रूप में पहचान लेता है और जन्मजात प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया पैदा होती है जिसके फलस्वरूप सूजन पैदा होती है। इसके साथ ही, प्रतिरक्षा कोशिकाएं एंटीजन को लिम्फ नोड्स तक पहुंचाती हैं, जहां अनुकूली प्रतिरक्षा तंत्र सक्रिय हो जाता है। प्रतिरक्षा तंत्र मूलत: सूजन के ज़रिए ही काम करता है और कोशिश यही रहती है कि यह सूजन यथेष्ट मात्रा में पैदा हो।

एडजुवेंट प्रतिरक्षा तंत्र की प्रतिक्रिया में सुधार करते हैं। वे सुनिश्चित करते हैं कि टीकों से सूजन ठीक मात्रा में उत्पन्न हो – न बहुत ज़्यादा, न बहुत कम।

हालांकि, कुछ टीके प्रतिरक्षा उत्पन्न करने का अच्छा काम करते हैं, लेकिन प्रतिरक्षा प्रणाली को चकमा देने की क्षमता वाले जटिल रोगजनकों, जैसे एचआईवी, इन्फ्लूएंज़ा और मलेरिया, के लिए टीके विकसित करना काफी चुनौतीपूर्ण है। इसके लिए वैज्ञानिकों ने प्रतिरक्षा प्रणाली की जटिलताओं में गहराई से उतरकर ऐसे टीके बनाने का प्रयास किया जो व्यापक सुरक्षा प्रदान करते हैं। एडजुवेंट इस प्रयास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। रेमन ने देखा था कि जब घोड़ों में टीके के स्थान के आसपास संक्रमण विकसित होता है तो उनमें अधिक शक्तिशाली एंटी-डिप्थीरिया सीरम बनता है। जल्द ही वे उसी प्रतिक्रिया को बढ़ाने और प्रतिरक्षा में सहायता करने के लिए टीकों में ब्रेड का चूरा वगैरह चीज़ें मिलाने लगे।

इसे आगे बढ़ाते हुए एल्युमीनियम लवण जैसे एडजुवेंट्स का विकास हुआ। एडजुवेंट पर काम कर रहे एमआईटी के डेरेल इरविन का विचार है कि एमआरएनए टीकों में संयोगवश चुने गए लिपिड नैनोकण शायद एडजुवेंट के समान कार्य करते हैं। कुछ टीकों में सहायक पदार्थ इस आधार पर चुने जाते हैं कि उनमें संक्रामक बैक्टीरिया के कुछ घटक होते हैं। ऐसे अणुओं के खिलाफ प्रतिक्रिया के ज़रिए एडजुवेंट सूजन बढ़ाते हैं और प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया मज़बूत होती है।

अंतत: एडजुवेंट प्रतिरक्षा कोशिकाओं की जीन गतिविधि को पुन: प्रोग्राम कर पाएंगे, जिससे एक साथ कई बीमारियों से सुरक्षा मिल सकेगी। चूहों पर हुए अध्ययनों से पता चला है कि एडजुवेंट युक्त तपेदिक का बीसीजी टीका विभिन्न संक्रमणों के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है। इस शोध के आधार पर वैज्ञानिकों का लक्ष्य ऐसे एडजुवेंट विकसित करना है जो दीर्घकालिक एंटीवायरल प्रतिरक्षा प्रेरित कर सकें और विभिन्न रोगजनकों के खिलाफ व्यापक सुरक्षा प्रदान करें।

इरविन का मानना है कि एडजुवेंट पर अधिक अनुसंधान से कैंसर जैसी लाइलाज बीमारियों के विरुद्ध टीकों के निर्माण में मदद मिल सकती है। ट्यूमर द्वारा बनाए जाने वाले प्रोटीन और एडजुवेंट के मिश्रण के परीक्षण मेलेनोमा और अग्न्याशय के कैंसर के विरुद्ध प्रतिरक्षा को उत्तेजित करने में प्रभावी रहे हैं।

विशेषज्ञों का मत है कि भविष्य में एडजुवेंट सूजन पर हमारी समझ विकसित होने पर एचआईवी, मलेरिया, कैंसर, इन्फ्लूएंज़ा और सार्स-कोव-2 के नए स्ट्रेन जैसे संक्रामक खतरों सहित कई बीमारियों से एक साथ निपटने के लिए समाधान मिल सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

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शिशु की ‘आंखों’ से सीखी भाषा

हाल ही में एक आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) मॉडल ने एक शिशु की आंखों के ज़रिए ‘crib (पालना)’ और ‘ball (गेंद)’ जैसे शब्दों को पहचानना सीखा है। एआई के इस तरह सीखने से हमें यह समझने में मदद मिल सकती है कि मनुष्य कैसे सीखते हैं, खासकर बच्चे भाषा कैसे सीखते हैं।

शोधकर्ताओं ने एआई को शिशु की तरह सीखने का अनुभव कराने के लिए एक शिशु को सिर पर कैमरे से लैस एक हेलमेट पहनाया। जब शिशु को यह हेलमेट पहनाया गया तब वह छह महीने का था, और तब से लेकर लगभग दो साल की उम्र तक उसने हर हफ्ते दो बार लगभग एक-एक घंटे के लिए इस हेलमेट को पहना। इस तरह शिशु की खेल, पढ़ने, खाने जैसी गतिविधियों की 61 घंटे की रिकॉर्डिंग मिली।

फिर शोधकर्ताओं ने मॉडल को इस रिकॉर्डिंग और रिकॉर्डिंग के दौरान शिशु से कहे गए शब्दों से प्रशिक्षित किया। इस तरह मॉडल 2,50,000 शब्दों और उनसे जुड़ी छवियां से अवगत हुआ। मॉडल ने कांट्रास्टिव लर्निंग तकनीक से पता लगाया कि कौन सी तस्वीरें और शब्द परस्पर सम्बंधित हैं और कौन से नहीं। इस जानकारी के उपयोग से मॉडल यह भविष्यवाणी कर सका कि कतिपय शब्द (जैसे ‘बॉल’ और ‘बाउल’) किन छवियों से सम्बंधित हैं।

फिर शोधकर्ताओं ने यह जांचा कि एआई ने कितनी अच्छी तरह भाषा सीख ली है। इसके लिए उन्होंने मॉडल को एक शब्द दिया और चार छवियां दिखाईं; मॉडल को उस शब्द से मेल खाने वाली तस्वीर चुननी थी। (बच्चों की भाषा समझ को इसी तरह आंका जाता है।) साइंस पत्रिका में शोधकर्ताओं ने बताया है कि मॉडल ने 62 प्रतिशत बार शब्द के लिए सही तस्वीर पहचानी। यह संयोगवश सही होने की संभावना (25 प्रतिशत) से कहीं अधिक है और ऐसे ही एक अन्य एआई मॉडल के लगभग बराबर है जिसे सीखने के लिए करीब 40 करोड़ तस्वीरों और शब्दों की जोड़ियों की मदद से प्रशिक्षित किया गया था।

मॉडल कुछ शब्दों जैसे ‘ऐप्पल’ और ‘डॉग’ के लिए अनदेखे चित्रों को भी (35 प्रतिशत दफा) सही पहचानने में सक्षम रहा। यह उन वस्तुओं की पहचान करने में भी बेहतर था जिनके हुलिए में थोड़ा-बहुत बदलाव किया गया था या उनका परिवेश बदल दिया गया था। लेकिन मॉडल को ऐसे शब्द सीखने में मुश्किल हुई जो कई तरह की चीज़ों के लिए जेनेरिक संज्ञा हो सकते हैं। जैसे ‘खिलौना’ विभिन्न चीज़ों को दर्शा सकता है।

हालांकि इस अध्ययन की अपनी सीमाएं हैं क्योंकि यह महज एक बच्चे के डैटा पर आधारित है, और हर बच्चे के अनुभव और वातावरण बहुत भिन्न होते हैं। लेकिन फिर भी इस अध्ययन से इतना तो समझ आया है कि शिशु के शुरुआती दिनों में केवल विभिन्न संवेदी स्रोतों के बीच सम्बंध बैठाकर बहुत कुछ सीखा जा सकता है।

ये निष्कर्ष नोम चोम्स्की जैसे भाषाविदों के इस दावे को भी चुनौती देते हैं जो कहता है कि भाषा बहुत जटिल है और सामान्य शिक्षण प्रक्रियाओं के माध्यम से भाषा सीखने के लिए जानकारी का इनपुट बहुत कम होता है; इसलिए सीखने की सामान्य प्रक्रिया से भाषा सीखा मुश्किल है। अपने अध्ययन के आधार पर शोधकर्ता कहते हैं कि भाषा सीखने के लिए किसी ‘विशेष’ क्रियाविधि की आवश्यकता नहीं है जैसे कि कई भाषाविदों ने सुझाया है।

इसके अलावा एआई के पास बच्चे के द्वारा भाषा सीखने जैसा हू-ब-हू माहौल नहीं था। वास्तविक दुनिया में बच्चे द्वारा भाषा सीखने का अनुभव एआई की तुलना में कहीं अधिक समृद्ध और विविध होता है। एआई के पास तस्वीरों और शब्दों के अलावा कुछ नहीं था, जबकि वास्तव में बच्चे के पास चीज़ें  छूने-पकड़ने, उपयोग करने जैसे मौके भी होते हैं। उदाहरण के लिए, एआई को ‘हाथ’ शब्द सीखने में संघर्ष करना पड़ा जो आम तौर पर शिशु जल्दी सीख जाते हैं क्योंकि उनके पास अपने हाथ होते हैं, और उन हाथों से मिलने वाले तमाम अनुभव होते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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बैक्टीरिया की ‘याददाश्त’!

हा जाता है कि ‘बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि ले’। लेकिन पिछली बातों को याद रखना कई मामलों में फायदेमंद होता है, जैसे यदि हम पहले कभी गर्म चीज़ से जले हैं तो हम इस स्मृति के आधार पर आगे सतर्क रहते हैं और अन्य को भी सावधान करते हैं। ये स्मृतियां हमारे जीवन को सुरक्षित बनाती हैं।

अब हाल ही में वैज्ञानिकों ने पाया है कि बैक्टीरिया भी अपने पिछले अनुभवों को याद रखते हैं: एशरिशिया कोली (ई.कोली.) बैक्टीरिया अपने आसपास मौजूद पोषक तत्व का स्तर याद रखते हैं। साथ ही वे इन स्मृतियों को अपनी आने वाली पीढ़ियों में हस्तांतरित भी करते हैं, जो संभवत: उनकी संतति को एंटीबायोटिक दवाओं से बचने में मदद करता है।

आम तौर पर हमें लगता है कि एक-कोशिकीय सूक्ष्मजीव अकेले-अकेले बस अपना-अपना काम करते रहते हैं। लेकिन बैक्टीरिया अक्सर मिल-जुल काम करते हैं जो उन्हें अधिक सुरक्षित रखता है। स्थायी ‘घर’ (बायोफिल्म) की तलाश में बैक्टीरिया के झुंड अक्सर घूमते हैं। झुंड में रहने से बैक्टीरिया को यह फायदा होता है कि वे एंटीबायोटिक के असर को बेहतर ढंग से झेल पाते हैं।

टेक्सास विश्वविद्यालय के सौविक भट्टाचार्य जब ई. कोली बैक्टीरिया में झुंड के व्यवहार का अध्ययन कर रहे थे, तब उन्होंने उनकी कॉलोनियों में ‘अजीब से पैटर्न’ देखे। फिर जब उन्होंने इन कालोनियों से एक-एक बैक्टीरिया को अलग करके देखा तो उन्होंने पाया कि बैक्टीरिया अपने पिछले अनुभवों के आधार पर अलग-अलग व्यवहार कर रहे थे। कॉलोनी में जिन बैक्टीरिया ने पहले झुंड बनाए थे, उनके दोबारा झुंड में आने की संभावना उन बैक्टीरिया की तुलना में अधिक थी जिन्होंने पहले झुंड नहीं बनाए थे। और यह प्रवृत्ति कम से कम उनकी अगली चार पीढ़ियों (जो दो घंटे में अस्तित्व में आ गईं थी) ने भी दिखाई थी।

ई. कोली के जीनोम में फेर-बदल करने पर शोध दल ने पाया कि उनकी इस क्षमता के पीछे दो जीन्स हैं जो मिलकर लौह के ग्रहण और नियमन को नियंत्रित करते हैं। बैक्टीरिया के लिए लौह अहम पोषक तत्व है। लौह का स्तर कम होने पर बैक्टीरिया में अपने झुंड की जगह बदलने की प्रवृत्ति दिखी, जो उनमें सहज रूप से निहित थी। ऐसा अनुमान है कि लौह स्तर कम होने पर बैक्टीरिया का झुंड आदर्श लौह स्तर वाले नए स्थान की तलाश में था।

हालांकि यह मालूम था कि कुछ बैक्टीरिया अपने आसपास के भौतिक पर्यावरण (जैसे टिकाऊ सतह) को याद रखते हैं और यह जानकारी अपनी संतानों को दे सकते हैं लेकिन इस अध्ययन में यह नई बात मालूम चली कि बैक्टीरिया पोषक तत्वों की उपस्थिति को भी याद रखते हैं। टिकाऊ, सुरक्षित और उपयुक्त स्थान तलाशने के लिए बैक्टीरिया इन स्मृतियों का उपयोग करते हैं और बायोफिल्म बनाते हैं।

बहरहाल, यह देखने की ज़रूरत है कि क्या अन्य सूक्ष्मजीव भी लौह स्तर को याद रखते हैं? बैक्टीरिया लौह स्तर अनुपयुक्त पाने पर कैसे अपना व्यवहार बदलते हैं? शोधकर्ताओं का मानना है कि इस मामले में अधिक अध्ययन रोगजनक संक्रमणों से निपटने में मदद कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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विज्ञान: 2023 के टॉप टेन व्यक्ति – चक्रेश जैन

विज्ञान जगत की प्रतिष्ठित शोध पत्रिका नेचर ने साल 2023 के टॉप टेन व्यक्तियों की सूची जारी की है। इस सूची में वे लोग हैं जिन्होंने विदा हो चुके साल में अदभुत अनुसंधान किया है या अहम वैज्ञानिक मुद्दों की ओर ध्यान खींचा है। गौरतलब है कि टॉप टेन व्यक्तियों का चयन पुरस्कार देने के लिए नहीं किया गया है वरन इसका उद्देश्य बीते साल में विज्ञान से जुड़े उन चुनिंदा व्यक्तियों के विलक्षण योगदान को रेखांकित करना है, जिनका समाज के हितों से सरोकार रहा है या जिनका सामाजिक जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा है।

इस साल नेचर ने पहली बार टॉप टेन लोगों के अलावा आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का भी चयन किया है। तो मिलिए साल 2023 के टॉप टेन व्यक्तियों से।

कल्पना कलाहस्ती

टॉप टेन की सूची में भारतीय महिला वैज्ञानिक कल्पना कलाहस्ती प्रथम स्थान पर हैं। उन्होंने पिछले साल चंद्रयान-3 के चंद्रमा के दक्षिण ध्रुव पर सफलतापूर्वक अवतरण में अहम भूमिका निभाई है। उन्होंने चंद्रयान-3 में एसोसिएट प्रोजेक्ट डायरेक्टर के रूप में काम किया। कलाहस्ती के सामने दो बड़ी चुनौतियां थीं। पहली, चंद्रयान-3 का कुल वज़न कम करना और दूसरी, उपलब्ध बजट में चंद्रयान-3 का निर्माण करना। चंद्रयान-2 की असफलता से सबक लेते हुए उन्होंने अपनी टीम के साथ पूरी लगन से चंद्रयान-3 का निर्माण किया। इसके बाद चंद्रयान-3 के कई परीक्षण एवं इसरो के एक दर्जन केंद्रों के साथ उसके परिणामों का समन्वय किया। यह काम ऐसा था मानो पांच-छह उपग्रहों का एक साथ निर्माण!

कलाहस्ती को प्रोजेक्ट मैनेजमेंट एवं सिस्टम्स इंजीनियर का व्यापक तर्जुबा है। उन्होंने इसके पहले कई पृथ्वी-प्रेक्षण उपग्रहों के विकास में नेतृत्व की भूमिका निभाई है।

मरीना सिल्वा: अमेज़ॉन संरक्षक

ब्राज़ील की पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्री मरीना सिल्वा ने अमेज़ॉन वनों के विनाश को रोकने में अहम और पुरज़ोर भूमिका निभाई है। उन्होंने 3 अगस्त को अपने संबोधन में बताया था कि वन विनाश सम्बंधी चेतावनियों में 43 फीसदी कमी आई है। ये चेतावनियां उपग्रह चित्रों के आधार पर चेतावनी जारी की जाती है।

कात्सुहिको हयाशी: दो पिता की संतान का जनन

कात्सुहिको हयाशी ओसाका युनिवर्सिटी में डेवलपमेंट बायोलॉजिस्ट हैं, जिन्हें पहली बार बिना मादा के दो नर चूहों से एक चुहिया पैदा करने में कामयाबी मिली है। आम तौर पर किसी भी जीव में प्रजनन के लिए नर और मादा दोनों की ज़रूरत होती है।

इस कामयाबी से भविष्य में विलुप्तप्राय प्रजातियों को बचाना संभव हो सकेगा। हालांकि कात्सुहिको हयाशी की इस अभिनव सफलता से यह सवाल भी उठा है कि क्या लैंगिक प्रजनन विज्ञान के नियमों को फिर से परिभाषित करना पड़ेगा।

अपने अध्ययन के लिए हयाशी ने नर चूहे की पूंछ से कोशिकाएं निकालीं, जिनमें ‘एक्स’ और ‘वाय’ सेक्स गुणसूत्र मौजूद थे। फिर इन कोशिकाओं को स्टेम कोशिकाओं में बदल दिया। इस प्रक्रिया में तीन फीसदी कोशिकाओं में स्वत: ही ‘वाय’ गुणसूत्र नष्ट हो गया। ‘वाय’ गुणसूत्र रहित कोशिकाओं को पृथक कर एक ऐसे रसायन से उपचारित किया, जो कोशिका विभाजन के दौरान त्रुटियां पैदा करता है। कुछ त्रुटियां ऐसी हुई थीं जिनके कारण ऐसी कोशिकाओं का निर्माण हुआ, जिनमें दो ‘एक्स’ गुणसूत्र थे यानी एक मायने में वे मादा कोशिकाएं बन चुकी थीं। अनुसंधान टीम ने इन कोशिकाओं को अंडों में परिवर्तित किया और अंडों को निषेचित करके भ्रूण को मादा चुहिया के गर्भाशय में प्रत्यारोपित कर दिया। 630 प्रत्यारोपित भ्रूणों में से 7 ही विकसित होकर चूहे बने।

एनी क्रिचर: नाभिकीय संलयन

साल 2023 में नाभिकीय साइंस की अध्येता एनी क्रिचर ने नाभिकीय संलयन के क्षेत्र में बड़ी सफलता हासिल की। क्रिचर का अपने शोध दल के साथ पहली बार कैलिर्फोनिया स्थित लॉरेंस लिवरमोर नेशनल लेबोरेटरी में हाइड्रोजन के भारी आइसोटोप्स के नाभिकीय संलयन का प्रयोग सफल रहा। इसमें जितनी ऊर्जा दी गई थी उससे अधिक ऊर्जा पैदा की गई। उनका यह प्रयोग साफ-सुथरी ऊर्जा उत्पादन की दिशा में गेमचेंजर की तरह देखा जा रहा है।

एलेनी मायरिविली: ऊष्मा अधिकारी

एलेनी मायरिविली राष्ट्र संघ की प्रथम ऊष्मा अधिकारी हैं, जिन्होंने जलवायु परिवर्तन की गंभीर चुनौतियों का सामना करने के लिए पुरज़ोर पहल करते हुए अपनी अलग पहचान बनाई है। उन्हें जुलाई 2021 में एथेंस सरकार द्वारा मुख्य ग्रीष्म लहर अधिकारी नियुक्त किया गया था। उनका विचार है कि ग्रीष्म लहर या लू को गंभीरता से लेने के साथ ही लोगों को संवेदनशील और जागरूक बनाने की ज़रूरत है। उन्होंने इस पद पर रहते हुए एक ऐसी कार्य योजना बनाई जिसमें स्वास्थ्य, बीमारी और मृत्यु दर के डैटा और मौसम सम्बंधी डैटा को एक साथ प्रस्तुत किया गया है। उनका मानना है कि लू से बचाव के लिए छायादार सार्वजनिक स्थानों के निर्माण की ज़रूरत है। उन्होंने भीषण गर्मी की चुनौतियों का सामना करने के लिए डिजिटल समाधान अपनाने का सुझाव भी दिया है।

मायरिविली ने अपने करियर की शुरुआत सांस्कृतिक मानव विज्ञानी के रूप में की थी। उन्होंने अपना पूरा ध्यान ग्रीष्म लहर के अध्ययन पर केंद्रित किया। साल 2007 में उनके जीवन में नया मोड़ आया। उन्होंने ग्रीष्म लहरों के बारे में सूचनाओं के अभाव से नाराज़ और असंतुष्ट होने के बाद राजनीति में प्रवेश करने का फैसला किया। उन्हें दिसंबर 2023 में दुबई में आयोजित कॉप-28 में भाग लेने के लिए न्यौता केवल इसलिए दिया गया था, क्योंकि उन्होंने वैश्विक तापमान बढ़ोतरी में एयर कंडीशनिंग को दोषी मानते हुए इस उपकरण का बहिष्कार किया।

इल्या सटस्केवर: चैट-जीपीटी के प्रथम अन्वेषक

वैज्ञानिक और ओपन एआई कंपनी के सह-संस्थापक इल्या सटस्केवर ने चैट-जीपीटी सहित संवाद करने वाली कृत्रिम बुद्धि प्रणालियों के विकास में मुख्य भूमिका निभाई है। वर्ष 2022 में इल्या सटस्केवर द्वारा सृजित चैट-जीपीटी एक साल के भीतर ही लोकप्रियता के चरम पर पहुंच गया था। इल्या सटस्केवर डीप लर्निंग और लार्ज लैंग्वेज मॉडल अनुसंधान में अग्रणी रहे हैं।

1986 में सोवियत संघ में पैदा हुए सटस्केवर ने इस्रायल में विश्वविद्यालय स्तर पर कोडिंग विषय पढ़ाया है। उन्होंने कृत्रिम बुद्धि के समाज पर पड़ने वाले प्रभावों पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। उन्होंने इस प्रौद्योगिकी के खतरों और भविष्य को लेकर भी बड़ी चिंता जताई है। उन्होंने 2022 में यह घोषणा कर दी थी कि कृत्रिम बुद्धि में ‘मामूली चेतना’ आ चुकी है। सटस्केवर ने अल्फागो के विकास में भी मदद की है। उन्हें 2018 में जीपीटी के प्रथम अवतार के बाद जनरेटिव प्री-ट्रेन्ड ट्रांसफॉर्मर (जीपीटी) के विकास और संवारने में अत्यधिक योगदान का श्रेय जाता है।

जेम्स हेमलिन: अतिचालकता शोध में फर्ज़ीवाड़े का भंडाफोड़

भौतिक शास्त्री जेम्स हेमलिन ने साल 2023 में अतिचालकता सम्बंधी एक शोध पत्र में धोखाधड़ी का भंडाफोड़ करने में बड़ी सफलता प्राप्त की है। जेम्स हेमलिन भौतिकी के प्राध्यापक हैं तथा उच्च दाब प्रयोग करते हैं और अतिचालकता के विशेषज्ञ हैं।

दरअसल, मार्च 2023 में नेचर में रोचेस्टर युनिवर्सिटी के शोधकर्ता रंगा डायस की रिपोर्ट छपी थी, जिसमें उन्होंने कमरे के तापमान पर अतिचालकता हासिल करने का दावा किया था। हेमलिन ने नेचर पत्रिका के संपादकीय विभाग से संपर्क किया और इस शोध पत्र में फर्ज़ीवाड़े की आशंका जताई। नवंबर में इस शोध पत्र को हटा दिया गया था।

स्वेतलाना मोजसोव: गुमनाम औषधि अन्वेषक

नेचर ने मधुमेह और वज़न घटाने वाली औषधियों की अनुसंधानकर्ता स्वेतलाना मोजसोव को टॉप टेन में शामिल किया है, जबकि साइंस ने वर्ष 2023 की उपलब्धियों में प्रथम स्थान पर रखा है। उन्होंने ग्लूकॉन-लाइक पेप्टाइड-1 (जीएलपी-1) हारमोन की खोज में योगदान दिया है। यह हारमोन भूख का दमन करता है। यही हारमोन ओज़ेम्पिक और वीगोवी जैसी वज़न घटाने वाली औषधियों का प्रमुख घटक है। दरअसल, स्वेतलाना मोजसोव उन गुमनाम व्यक्तियों में शामिल हैं, जिन्हें नई औषधि खोजने के बावजूद लंबे समय तक यथोचित मान्यता और शोहरत नहीं मिली। 

स्वेतलाना मोजसोव ने दशकों तक रॉकफेलर युनिवर्सिटी में संश्लेषित पेप्टाइड्स और प्रोटीनों पर काम किया है। उन्होंने बोस्टन स्थित मेसाचूसेट्स जनरल हॉस्पिटल में संश्लेषित प्रोटीनों पर अनुसंधानकर्ताओं का मार्गदर्शन करने के साथ उन्हें रिसर्च टूल्स भी उपलब्ध करवाए थे। मोजसोव ने चूहों पर प्रयोग किए थे और जीएलपी-1 की जैविक सक्रियता को उजागर किया था।

मोजसोव ने लंबे अंतराल के बाद साल 2023 में अपनी उपेक्षा को देखते हुए मुखर होने का मार्ग चुना और जीएलपी-1 हारमोन पर अपना शोध पत्र सेल और नेचर पत्रिका को भेजा। ये शोध पत्र इन दोनों पत्रिकाओं के अलावा साइंस में भी प्रकाशित हुए।

हलीदू टिन्टो: मलेरिया योद्धा

मलेरिया योद्धा के रूप में पहचान स्थापित कर चुके हलीदू टिन्टो ने लंबे शोध प्रयासों के बाद मलेरिया से लड़ने के लिए टीका बनाने में बड़ी सफलता प्राप्त की है। अब मलेरिया रोग से लड़ने के लिए दो टीके उपलब्ध हैं। एक ‘आरटीएस,एस’ है, जिसे ग्लैैक्सोस्मिथक्लाइन ने विकसित किया है। दूसरा ‘आर-21’ बुर्किना फासो स्थित क्लीनिकल रिसर्च युनिट ऑफ नैनोरो ने विकसित किया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार मलेरिया से लड़ने में दोनों ही टीके कारगर साबित हुए हैं। हलीदू टिन्टो ने टीके बनाकर अफ्रीका महाद्वीप में लाखों लोगों का जीवन बचाने में असाधारण भूमिका निभाई है। टिन्टो के अनुसार अफ्रीका के विकास में अनुसंधान की भूमिका को समझने का यह सबसे अच्छा उदाहरण है। इन दिनों टिन्टो आर-21 टीके पर और अधिक अनुसंधान कार्य में जुटे हुए हैं। उम्मीद की जा रही है कि यह टीका 2024 के मध्य तक पूरे अफ्रीका महाद्वीप में उपलब्ध हो जाएगा।

थॉमस पॉवेल्स: कैंसर अध्येता

चिकित्सा वैज्ञानिक थॉमस पॉवेल्स ने घातक ब्लैडर कैंसर की दिशा में बड़ी उपलब्धि हासिल की है। वस्तुत: उन्होंने आने वाले दिनों में इस रोग पर विजय पाने के लिए इम्युनोथैराप्युटिक ड्रग्ज़ का मार्ग प्रशस्त किया है।

प्रोफेसर थॉमस पॉवेल्स आरंभ में हृदय रोग चिकित्सक थे। उन्होंने बाद में ब्लैडर कैंसर की चपेट में आ चुके लोगों के क्लीनिकल परीक्षणों पर ध्यान केंद्रित किया। उन्होंने दो नई दवाओं के मिश्रण से एक नई दवा तैयार की और इसका क्लीनिकल परीक्षण किया। इस दवा के इस्तेमाल से पीड़ित व्यक्तियों का जीवनकाल सोलह माह से लेकर ढाई वर्ष तक बढ़ गया। इस परीक्षण को लगभग चार दशकों के बाद घातक ब्लैडर कैंसर के इलाज में बड़ी सफलता के रूप देखा गया है।

थॉमस पॉवेल्स के अनुसंधान से प्रेरणा लेकर युवा अनुसंधानकर्ताओं ने आगे कदम बढ़ाए और एंटीबॉडी ड्रग कांजुगेट्स (एडीसी) उपचार विकसित कर लिया। दरअसल एडीसी में कैंसर-रोधी औषधि होती है, जिसे एंटीबॉडी से जोड़ा गया होता है। एंटीबॉडी औषधि को सही लक्ष्य पर पहुंचने में मदद करती है। अमेरिका के खाद्य एवं औषधि प्रशासन ने साल 2023 के आरंभ में ही इस ड्रग को मंज़ूरी दे दी थी।

टॉप टेन में चैट-जीपीटी क्यों?

नेचर ने पहली बार टॉप टेन की लिस्ट में चैट-जीपीटी को भी शामिल किया है। बीते वर्ष 2023 में चैटजीपीटी का विज्ञान और समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ा है। यह वैज्ञानिक शोध पत्र लिख सकता है, व्याख्यानों के प्रस्तुतीकरण की रूपरेखा बना सकता है, अनुदान हेतु प्रस्ताव तैयार कर सकता है। चैटजीपीटी एक विशाल भाषा मॉडल (लार्ज लैंग्वेज मॉडल) है, जिसे जटिल जिज्ञासाओं का उत्तर देने में सक्षम बनाया गया है। इसके ज़रिए गणित के सूत्रों को समझा जा सकता है, राजनीतिक टीका-टिप्पणी की जा सकती है। यह मनोरंजन कर सकता है। चिकित्सा सम्बंधी अनुमान लगा सकता है। इसके उपयोगों की सूची दिन-ब-दिन लंबी होती जा रही है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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