बरसों से सजीवों (वनस्पति और जंतुओं) के नाम एक द्विनाम पद्धति के अंतर्गत रखे जाते हैं। जैसे इस पद्धति के तहत आलू को सोलेनमट्यूबरोसम (Solanum tuberosum) और कुत्ते को कैनिसल्यूपसफेमिलिएरिस(Canis lupus familiaris) कहा जाता है। इन नामों में पहला हिस्सा जीनस या वंश का होता है और दूसरा हिस्सा प्रजाति। वंश एक ज़्यादा बड़ा समूह होता है जिसमें मोटे तौर पर एक समान जीव रखे जाते हैं। इस वंश के अंदर ज़्यादा बारीक भेद वाले जीवों को प्रजाति के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। अर्थात सोलेनम एक जीनस या वंश है जिसमें लगभग 1500 प्रजातियां – जैसे टमाटर, बैंगन, धतूरा वगैरह शामिल हैं।
वायरस सजीव-निर्जीव के बीच कहीं स्थित हैं और अब तक वे इस पद्धति में शामिल नहीं किए गए थे। लेकिन अब इंटरनेशनल कमिटी ऑन टेक्सॉनॉमी ऑफ वायरसेस (आईसीटीवी) (International Committee on Taxonomy of Viruses – ICTV) ने निर्णय लिया है कि वायरसों को भी द्विनाम पद्धति के अनुसार नाम दिए जाएंगे। हालांकि अभी वैज्ञानिक वायरसों को कुल व वंश के स्तर तक वर्गीकृत करते हैं लेकिन प्रजाति स्तर के वर्गीकरण तक आते-आते बात बिखर जाती है। आम तौर पर वायरस प्रजातियों को नाम उनके द्वारा पैदा की गई किसी बीमारी के नाम पर, या उनके द्वारा संक्रमित किसी जीव प्रजाति के नाम पर या उन्हें पहली बार खोजे जाने के स्थान के नाम पर दिया जाता है। जैसे सेवीयर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (सार्स) (Severe Acute Respiratory Syndrome – SARS) पैदा करने वाले वायरस को सार्स-सीओवी-2 कहा गया है। इसी प्रकार से ईस्टर्स एक्वाइन एंसिफेलाइटिस वायरस है जो घोड़ों को संक्रमित करता है। ज़िका वायरस को उसका नाम युगांडा में एक जंगल में खोजे जाने के फलस्वरूप मिला था। इस मामले में ऐसा माना जाता है कि यह नाम उस इलाके को बेवजह बदनाम करता है।
यह व्यवस्था तब तक तो ठीक-ठाक चली जब तक ज्ञात वायरसों की संख्या सैकड़ों या हज़ारों तक सीमित थी। लेकिन फिर जीनोम विश्लेषण (genome analysis) की तकनीक के आगमन के साथ एक-एक अध्ययन में हज़ारों वायरसों की खोज होने लगी। इतनी बड़ी संख्या के चलते वैज्ञानिकों के बीच वार्तालाप को आसान बनाने के लिए एक मानक नामकरण व्यवस्था (standard nomenclature system) की ज़रूरत महसूस की जाने लगी।
तब आईसीटीवी ने 2016 में विचार-विमर्श शुरू किया। दरअसल आईसीटीवी इंटरनेशनल यूनियन ऑफ माइक्रोबायोलॉजिकल सोसायटीज़ (International Union of Microbiological Societies) का अंग है। अंतत: आईसीटीवी में इस बात पर सहमति बनी कि वायरसों को भी सामान्य द्विनाम पद्धति (binomial nomenclature for viruses) से नाम दिए जाएं।
बहरहाल, कई वायरस वैज्ञानिकों को लगता है कि सचमुच इसकी कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि वायरसों को नाम दिए गए हैं और ये काफी प्रचलन में आ चुके हैं। कई वैज्ञानिकों को तो लगता है कि ये ज़बान के लिए अत्यंत कठिन साबित होंगे। एक उदाहरण के रूप में बताते हैं कि सार्स वायरस का नाम होगा बीटाकोरोनावायरसपेंडेमिकम (Betacoronavirus pandemicum) या एड्स वायरस यानी ह्यूमैन इम्यूनोडेफिशिएंसी वायरस (Human Immunodeficiency Virus) को लेंटीवायरसह्यूमिमडेफ1 (Lentivirus humimdef1) कहा जाएगा। जो लोग नई व्यवस्था का मखौल बनाना चाहते हैं उन्होंने ऐसे कई उदाहरण पेश किए हैं। जैसे वेस्टनाइल वायरस को ऑर्थोफ्लेविवायरसनाइलेंस (Orthoflavivirus nilense) कहना या शार्क रिवर वायरस को ऑर्थोबन्यावायरसस्क्वेलोफ्लवी (Orthobunyavirus squalofluvii) कहना उनके अनुसार मूर्खतापूर्ण है। इस निर्णय के आलोचक कहते हैं कि पहले से प्रचलित नाम हमें वायरस को पहचानने में अधिक सहायक हैं।
दूसरी ओर, कई वैज्ञानिक मानते हैं कि इन नए नामों के आ जाने से वायरस वैज्ञानिकों को काम करने में आसानी होगी। जब भी किसी शोध पत्र में किसी वायरस का द्विनाम पद्धति का नाम आएगा तो दुनिया भर में पता चल जाएगा कि किस वायरस की बात हो रही है। और इस नई व्यवस्था के समर्थक शुरुआती अफरा-तफरी को एक ज़रूरी परेशानी भर मानते हैं।
फिलहाल, इस समस्या का एक मध्यमार्ग निकाला गया है। यह फैसला हुआ है कि सारे वायरस डैटाबेस (virus database) में दोनों नामों का उपयोग किया जाएगा और सारी जानकारी दोनों नामों (existing and binomial names) से खोजी जा सकेगी।(स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.z91vc33/full/_20241213_on_virusnaming-1734362695117.jpg
कोविड-19 वायरस और प्रयोगशाला लीक थ्योरी (Lab Leak Theory) कोविड-19 महामारी (COVID-19 pandemic) की जांच कर रही एक अमेरिकी संसदीय समिति (US congressional committee) ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि वायरस संभवत: चीन (China lab leak) की एक प्रयोगशाला (laboratory) से लीक हुआ था। हालांकि, रिपोर्ट में कोई ठोस सबूत (concrete evidence) नहीं हैं, केवल परिस्थितिजन्य प्रमाण (circumstantial evidence) दिए गए हैं। 520 पन्नों की इस रिपोर्ट में वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी (Wuhan Institute of Virology) में किए गए गेन-ऑफ-फंक्शन रिसर्च (gain-of-function research) पर ध्यान दिया गया है। एक नए खुलासे में, रिपोर्ट ने ईमेल का उल्लेख किया है, जो वायरस की उत्पत्ति (origin of the virus) से जुड़े अपराधों (potential crimes) पर एक ग्रैंड जूरी जांच (grand jury investigation) की ज़रूरत बताते हैं। इसके विपरीत, वैज्ञानिकों (scientists) और समिति के असहमत सदस्यों (dissenting members) ने प्रयोगशाला से लीक होने के सिद्धांत (lab leak hypothesis) को लेकर रिपोर्ट के निष्कर्षों को चुनौती (challenged conclusions) दी है। (स्रोत फीचर्स)
महामारी का शैक्षणिक प्रदर्शन पर असर
ट्रेंड्स इन इंटरनेशनल मैथेमेटिक्स एंड साइंस स्टडी (Trends in International Mathematics and Science Study – TIMSS) की ताज़ा रिपोर्ट (latest report) बताती है कि 2019 के मुकाबले 2023 में 8वीं कक्षा (Grade 8) के गणित (Mathematics scores) के प्राप्तांक 39 प्रतिशत देशों में और विज्ञान (Science scores) के प्राप्तांक 42 प्रतिशत देशों में घटे हैं। वहीं, चौथी कक्षा (Grade 4) के विद्यार्थियों के अंक कुछ बेहतर (improved scores) रहे, जबकि अधिकांश देशों (most countries) में अंक स्थिर (stable scores) रहे। संयुक्त राज्य अमेरिका (United States) में दोनों कक्षाओं के अंक 1995 में पहले टेस्ट (first test in 1995) के बाद से सबसे निचले स्तर (lowest level) पर पहुंचे हैं। वहीं, सिंगापुर (Singapore), ताइवान (Taiwan), और दक्षिण कोरिया (South Korea) वैश्विक रैंकिंग (global rankings) में शीर्ष पर (top positions) बने हुए हैं। (स्रोत फीचर्स)
नारंगी बिल्लियां का रहस्य खुला
वैज्ञानिकों ने नारंगी रंग (orange color) की बिल्लियों (cats) के फर (fur) के पीछे की आनुवंशिक गुत्थी (genetic mystery) को सुलझा लिया है, जो 60 सालों से एक रहस्य (decades-old mystery) बनी हुई थी। दो शोध टीमों ने स्वतंत्र रूप से पाया कि एक्स गुणसूत्र (X chromosome) पर एक उत्परिवर्तन (mutation) रंजक बनाने वाली कोशिकाओं (pigment-producing cells) में Arhgap36 प्रोटीन (protein) के उत्पादन को बढ़ा देता है। यह प्रोटीन एक ऐसा मार्ग सक्रिय करता है, जो हल्के लाल रंग का रंजक (light red pigment) बनाता है, जिससे बिल्लियों का नारंगी रंग का फर (orange fur) बनता है। यह खोज (discovery) जीवों में आनुवंशिकी (genetics) और फर के रंग (fur color) को समझने में एक नई दिशा (new insights) है। (स्रोत फीचर्स)
अल्ज़ाइमर की दवा परीक्षण में असफल
अल्ज़ाइमर रोग (Alzheimer’s disease) के लिए बनाई गई प्रयोगात्मक दवा सिम्यूफिलम (Simufilam experimental drug) ने अंतिम चरण के क्लीनिकल परीक्षण (clinical trial) में कोई सकारात्मक असर नहीं दिखाए। प्लेसिबो (placebo) लेने वाले रोगियों से तुलना में, एक साल तक सिम्यूफिलम लेने वाले रोगियों में न तो संज्ञानात्मक क्षमता (cognitive ability) में सुधार दिखा, और न ही रोज़मर्रा के कार्यों (daily tasks) में कोई बेहतरी दिखी। दवा बनाने वाली कंपनी कसावा साइंस (Cassava Sciences) पर शोध में धोखाधड़ी (fraud in research) और वित्तीय कदाचार (financial misconduct) के आरोप तक लगे हैं। परीक्षण (trial) में असफलता के बाद इस दवा के विकास (drug development) को रोक दिया गया है। (स्रोत फीचर्स)
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साल 2024 में कृत्रिम बुद्धि (artificial intelligence) यानी एआई के उपयोग का दायरा बढ़ता रहा – मौलिक कविता लेखन से लेकर चुनाव में मतदाताओं को लुभाने तक इसका इस्तेमाल हुआ। कहना मुश्किल है कि यह विस्तार कहां पहुंच कर थमेगा।
यह वही वर्ष है, जब जनरेटिव एआई से सृजित लार्ज लैंग्वैज मॉडल द्वारा शोध पत्रों की समकक्ष समीक्षा (peer review) ने नए सवालों को जन्म दिया। 2024 के भौतिकी और रसायन विज्ञान के नोबेल पुरस्कारों (nobel prize) ने एआई आधारित अनुसंधान कार्य को मुहर अचंभित कर दिया।
इस वर्ष पेरिस में आयोजित ओलंपिक खेलों (Olympic games) में एआई का जलवा दिखा। खिलाड़ियों के प्रशिक्षण से लेकर कार्यक्रमों के प्रसारण में एआई शामिल रहा। वर्जीनिया युनिवर्सिटी के गणितज्ञ केन ओनो ने गणितीय मॉडलिंग के ज़रिए अमेरिकी तैराकों को इस लायक बनाया कि वे शानदार प्रदर्शन करते हुए पदक बटोरने में कामयाब रहे।
वर्ष 2024 में जापान ने अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में दो ऐतिहासिक सफलताएं हासिल कीं। 20 जनवरी को वह चंद्रमा पर सफलतापूर्वक सॉफ्ट लैंडिंग करने वाला दुनिया का पांचवा देश बन गया। 5 नवंबर को लकड़ी से बना उपग्रह अंतरिक्ष में भेज कर इतिहास रचा। ऐसा कर जापान ने इको फ्रेंडली उपग्रहों का मार्ग प्रशस्त किया है। इस उपग्रह को ‘लिगनोसैट’ नाम दिया गया है।
इसी वर्ष साइंस एडवांसेज़ में प्रकाशित एक अध्ययन में यह खुलासा किया गया कि मंगल ग्रह (mars) पर अरबों साल पहले पानी मौजूद था। सच तो यह है कि काफी समय से यह माना जाता रहा है कि मंगल ग्रह के आरंभिक इतिहास में पानी की अहम भूमिका रही है।
साल की शुरुआत में ही नासा(NASA) ने आर्टिमिस चंद्र मिशन कार्यक्रम एक वर्ष के लिए स्थगित कर दिया। इस मिशन का उद्देश्य अंतरिक्ष यात्रियों को चंद्रमा पर पुन: उतारना है।
वर्ष 2024 में अंतरिक्ष में पहली बार एक निजी कंपनी ने अपने शक्तिशाली रॉकेट से एक केला भेजा, इसका उद्देश्य अंतरिक्ष में शून्य गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव का अध्ययन करना है।
इसी वर्ष चीन का अंतरिक्ष यान चांग-ए-6 (chang’e-A-6) यान 53 दिनों की यात्रा पूरी कर चंद्रमा के सुदूर क्षेत्र से मिट्टी और चट्टानों के नमूने एकत्रित करके पृथ्वी पर लौट आया है। चीन को इस दिशा में पहली बार बड़ी सफलता मिली है। अमेरिका और सोवियत संघ पहले ही चंद्रमा के निकटस्थ भाग से नमूने ला चुके हैं।
विदा हो चुके वर्ष 2024 में पहली बार प्रतिपदार्थ (anti matter)को प्रयोगशाला से बाहर ले जाने का प्रयास किया गया। इस असाधारण उपलब्धि के लिए सर्न (CERN) प्रयोगशाला के अनुसंधानकर्ताओं की दो टीमों में होड़ जारी रही। हर पदार्थ-कण का एक प्रतिपदार्थ होता है। भौतिकशास्त्र के अध्येताओं का मानना है कि बिग बैंग के दौरान प्रतिपदार्थ और पदार्थ समान मात्रा में बने थे। प्रतिपदार्थ को पृथ्वी पर सबसे महंगा पदार्थ माना जाता है। एक ग्राम प्रतिपदार्थ बनाने की लागत खरबों डॉलर आएगी।
इसी वर्ष अनुसंधानकर्ताओं ने एक फोटॉन से दुनिया का सबसे छोटा क्वांटम कंप्यूटर (quantum computer) बनाने में सफलता हासिल की। क्वांटम कंप्यूटर क्वांटम यांत्रिकी सिद्धांत पर आधारित होते हैं।
साल 2024 में पहली बार मनुष्य में जेनेटिक रूप से संशोधित सुअर के गुर्दे का सफलतापूर्वक प्रत्यारोपण (pig kidney transplant) किया गया। अंग प्रत्यारोपण के क्षेत्र में इसे बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है।
वर्ष 2024 में जीवविज्ञान की सबसे महत्वपूर्ण और महत्वाकांक्षी परियोजना मानव कोशिका एटलस (ATLAS) का पहला मसौदा जारी किया गया। इस परियोजना का उद्देश्य मनुष्य की प्रत्येक कोशिका का जेनेटिक मानचित्र तैयार करना है। फिलहाल इसमें 620 लाख मानव कोशिकाओं का डैटा है। इस अनुसंधान से आगे चलकर गंभीर बीमारियों के बारे में सटीक जानकारियां उपलब्ध हो सकेंगी। ‘विकिपीडिया फॉर सेल्स’ नाम की इस परियोजना की शुरुआत 2016 में हुई थी। दस वर्षीय परियोजना पूरी होने की दहलीज पर है। इसमें 102 देशों ने सहभागिता की है।
नेचर के अनुसार पहली बार माइटोकॉन्ड्रिया के दो प्रकारों का पता चला। माइटोकॉन्ड्रिया को कोशिका का ऊर्जा भण्डार कहा जाता है। वहीं अनुसंधानकर्ताओं ने टमाटर में से दो जीन हटाकर मीठे टमाटर (sweet tomato) का सृजन किया, जिसका उपयोग मधुमेह रोग से लड़ने में हो सकता है।
नेचर पत्रिका के अनुसार पहली बार एक महिला वैज्ञानिक ने प्रयोगशाला में वायरस का सृजन कर अपने कैंसर का इलाज किया। यह अपने ढंग का अनूठा और चुनौतीपूर्ण प्रयोग था।
इसी साल जनवरी में कंपनी न्यूरालिंक (neuralink) ने पहली बार किसी मनुष्य में इलेक्ट्रॉनिक चिप प्रत्यारोपित (electronic chip transplant) किया। यह पहला मानव परीक्षण था।
पुरस्कार(awards) वसमारोह
साल 2024 के विज्ञान के नोबेल पुरस्कारों के लिए सात वैज्ञानिकों का चयन किया गया। चिकित्सा विज्ञान के नोबेल पुरस्कार के लिए विक्टर एम्ब्रोस और गैरी रूवकुन को संयुक्त रूप से चुना गया। दोनों वैज्ञानिकों को यह सम्मान माइक्रो आरएनए (mRNA) पर अनुसंधान के लिए दिया गया है।
भौतिकशास्त्र में नोबेल सम्मान जेफ्री हिंटन और जॉन हॉपफील्ड को मशीन लर्निंग को सक्षम बनाने के लिए मिला है। वस्तुत: दोनों अनुसंधानकर्ताओं ने आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क (neural network) को प्रशिक्षित किया है ताकि वह मनुष्यों की भांति सोच सके और सीख सके।
इस साल का रसायन विज्ञान का नोबेल सम्मान डेविड बेकर, डेमिस हस्साबिस और जॉन जम्पर को संयुक्त रूप से प्रदान किया गया है। जहां डेविड बेकर ने कंप्यूटेशनल प्रोटीन (computational protein) डिज़ाइन पर अनुसंधान किया है, वहीं डेमिस हस्साबिस और जॉन जम्पर ने प्रोटीन संरचना की भविष्यवाणी को लेकर शोधकार्य किया है।
ब्रिटिश भौतिकीविद सर रिचर्ड हेनरी फ्रेंड को अर्द्ध चालक पदार्थों के क्षेत्र में शोध के लिए इंस्टीट्यूट ऑफ फिज़िक्स द्वारा आइज़ैक न्यूटन मेडल (Isaac newton medal) से पुरस्कृत किया गया।
साल 2024 का बुनियादी चिकित्सा अल्बर्ट लास्कर पुरस्कार चीनी-अमेरिकी जैव रसायनविद ज़िजियान जेम्स चेन को दिया गया है। इस वर्ष का लास्कर (lasker award) ब्लूमबर्ग लोकसेवा पुरस्कार कुरैशा अब्दुल करीम और सलीम अब्दुल करीम को संयुक्त रूप से दिया गया है। दोनों ही अध्येता कोलंबिया युनिवर्सिटी में रोग प्रसार विज्ञान के विशेषज्ञ हैं।
साल 2024 का एबेल पुरस्कार (Abel prize) फ्रांसीसी गणितज्ञ मिशेल पियरे टैलाग्रेंड (Michel Talagrand) को दिया गया है। उन्हें यह सम्मान गणितीय भौतिकी और सांख्यिकी में संभाव्यता सिद्धांत व कार्यात्मक विश्लेषण में विशेष योगदान के लिए मिला है।
अजरबैजान की राजधानी बाकू में 29वां संयुक्त राष्ट्र वार्षिक शिखर सम्मेलन (COP-29) हुआ। इसमें जलवायु परिवर्तन के लिए उत्तरदायी विभिन्न मुद्दों पर चर्चा हुई। सबसे ज़्यादा ज़ोर जलवायु वित्त पोषण पर रहा। सम्मेलन को दी फाइनेंस कॉप नाम दिया गया है। सम्मेलन में विकसित और विकासशील देशों के बीच गहरे मतभेदों के कारण प्रमुख मुद्दों पर प्रगति अवरुद्ध रही।
वर्ष 2024 ‘इंटरनेशनल ईयर ऑफ कैमेलिड्स’ (international year of camelids) के रूप में मनाया गया। संयुक्त राष्ट्र के आव्हान पर अंतर्राष्ट्रीय ऊंट वर्ष मनाने का मुख्य उद्देश्य पारिस्थितिकी तंत्र की सुरक्षा, जैव विविधता संरक्षण, खाद्य सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में ऊंट की अहम भूमिका उजागर करना था।
इस वर्ष अमेरिकन केमिकल सोसायटी द्वारा प्रकाशित पत्रिका केमिकल रिव्यूज़ के सौ साल पूरे हुए। यह रसायन विज्ञान का शीर्षस्थ जर्नल है, जिसका प्रकाशन 1924 में शुरू हुआ था।
इसी साल 25 नवंबर को दक्षिण कोरिया के बुसान में आयोजित संयुक्त राष्ट्र वैश्विक प्लास्टिक संधि (plastic treaty) पर आयोजित वार्ता में दुनिया भर के देशों के प्रतिनिधि जुटे। इस बार कुछ प्रस्तावों पर सहमति दिखाई दी, लेकिन महत्वपूर्ण मुद्दे नहीं सुलझे और वार्ता बिखर गई।
इसी साल मेक्सिको में चुनाव संपन्न हुए, जिसमें देशवासियों ने पहली बार महिला वैज्ञानिक (women scientist) क्लॉडिया शीनबॉम को राष्ट्रपति चुना। उन्होंने वैज्ञानिक से राष्ट्रपति पद तक पहुंचने के सफर में कई चुनौतियों का सामना किया है।
स्मृतिशेष
साल 2024 में हमने कई नोबेल पुरस्कार विजेताओं को खो दिया। 8 अप्रैल को ब्रिटिश भौतिकशास्त्री और तथाकथित गॉड पार्टिकल (God Particle) के खोजकर्ता पीटर हिग्ज़ (Peter Higgs) का निधन हो गया। उन्हें 2013 में भौतिकशास्त्र के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
अतिचालकता (superconductivity) सिद्धांत के अनुसंधानकर्ता लियान कूपर (leon cooper) का 23 अक्टूबर को 94 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्हें इस क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए 1972 में नोबेल सम्मान (Nobel Prize) मिला था।
इसी वर्ष 4 अगस्त को विख्यात भौतिकीविद(physicist) प्रोफेसर त्संग दाओ ली (Tsung Dao Lee) का 97 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्हें 1957 में भौतिकी का नोबेल सम्मान मिला था। वे सबसे कम उम्र में नोबेल पुरस्कार के लिए चुने गए दूसरे वैज्ञानिक थे। उन्होंने कण भौतिकी में विशेष योगदान दिया था।
स्वीडिश जैव रसायनज्ञ बेंग्ट सैमुएलसन (Bengt samuelsson) की 5 जुलाई और जे. रॉबिन वारेन की 23 जुलाई को मृत्यु हो गई। दोनों वैज्ञानिकों को चिकित्सा विज्ञान के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया था। 17 अक्टूबर को चिकित्सा विज्ञान में नोबेल विजेता एंड्रयू वी. स्काली (Andrew v. schally) का देहांत हो गया। उन्होंने दो दशकों तक मस्तिष्क में मौजूद हारमोन की भूमिका पर अनुसंधान किया था। उन्हें इस शोधकार्य के लिए 1975 में अल्बर्ट लास्कर पुरस्कार और 1977 में चिकित्सा विज्ञान का नोबेल सम्मान प्रदान किया गया था। (स्रोत फीचर्स)
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बेजिंग स्थित चाइनीज़ एकेडमी ऑफ एग्रीकल्चर साइन्सेज़ के जिंज़े झांग और साथियों द्वारा नेचर में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक टमाटर में जेनेटिक इंजीनियरिंग (Genetic Engineering) की मदद से ऐसे परिवर्तन किए गए हैं कि उनमें शर्करा (Glucose और Fructose) की मात्रा 30 प्रतिशत तक अधिक हो गई है। इन शर्कराओं की मात्रा बढ़ने से टमाटर ज़्यादा मीठे हो गए हैं। और तो और, इनका आकार (Size), वज़न (Weight) वगैरह भी फिलहाल उपलब्ध टमाटरों जैसा ही है।
गौरतलब है कि दुनिया भर में करीब 19 करोड़ टन टमाटर का उत्पादन होता है और यह कई व्यंजनों (Recipes), चटनियों (Chutneys), सॉस (Sauces) वगैरह का प्रमुख घटक है। टमाटर को सदियों पहले पालतू (Domesticated) बनाया गया था और लगातार चयन का परिणाम है कि आज हमें जो टमाटर मिलते हैं वे अपने मूल कुदरती पूर्वजों (Wild Ancestors) की तुलना में कई गुना बड़े होते हैं। लेकिन साइज़ बढ़ने के साथ उनमें शर्करा की मात्रा कम होती जाती है। झांग की टीम इसी चीज़ का अध्ययन कर रही थी। वे यही जानना चाहते थे कि फलों में शर्कराओं का संश्लेषण (Sugar Synthesis) कैसे होता है और उन्हें भंडारित (Storage) कैसे किया जाता है। यह समझने के लिए झांग की टीम ने वर्तमान में उगाए जाने वाले टमाटर (Cultivated Tomatoes) (Solanum lycopersicum) के जीनोम (Genome) की तुलना अधिक मीठे टमाटर किस्मों से की। उन्होंने पाया कि मिठास का बिंदु दो जीन्स (Genes) में हैं। ये दो जीन्स ऐसे प्रोटीन (Proteins) का निर्माण करते हैं जो उस एंज़ाइम (Enzyme) को नष्ट करते हैं जो शर्करा उत्पादन के लिए ज़िम्मेदार होता है। यानी ये शर्करा का उत्पादन रोकते हैं।
बस, फिर क्या था। शोधकर्ताओं ने जीन संपादन (Gene Editing) की क्रिस्पर-कास 9 (CRISPR-Cas9) नामक तकनीक का उपयोग करके इन दो जीन्स को निष्क्रिय कर दिया। नतीजतन जो पौधे विकसित हुए उन पर लगने वाले टमाटर कहीं अधिक मीठे थे।
इस अध्ययन का प्रत्यक्ष परिणाम तो टमाटर को मीठा करेगा लेकिन इसके कुछ व्यापक निहितार्थ (Implications) भी हैं। ये दो जीन्स कई पादप प्रजातियों (Plant Species) में पाए जाते हैं। यदि शर्करा निर्माण की यह क्रियाविधि विभिन्न फलों (Fruits) में काम करती है, तो ज़ाहिर है कि इस अध्ययन के निष्कर्षों का इस्तेमाल अन्यत्र भी संभव होगा। वैसे भी यह अध्ययन हमें यह समझने की दिशा में आगे ले जाएगा कि फलों में शर्करा का संश्लेषण कैसे होता है। (स्रोत फीचर्स)
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गुज़रे साल 2024 में भारत के विज्ञान परिदृश्य पर गौर करें तो लगता है अंतरिक्ष विज्ञान (space science) में सफलताओं का विस्तार हुआ। साल 2024 की शुरुआत में ही भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के वैज्ञानिकों ने आदित्य एल-1 को निर्धारित कक्षा में स्थापित कर बड़ी सफलता प्राप्त की। आदित्य एल-1 मिशन लैग्रेंजियन बिंदु एल-1 (Lagrangian Point L1) पर स्थित भारतीय सौर वेधशाला (solar observatory) है। 2 जुलाई को आदित्य एल-1 ने सूर्य और पृथ्वी के बीच के एल-1 बिंदु के चारों ओर परिक्रमा पूरी की। यह भारत का पहला मिशन है, जिसे सूर्य की गतिविधियों को समझने के लिए भेजा गया है।
जनवरी में इसरो ने एक्सपोसैट (XPoSat) को अंतरिक्ष में भेजा। इसका उद्देश्य ब्लैक होल (black hole) के रहस्यों पर से पर्दा हटाना है। जून के अंतिम सप्ताह में इसरो ने पुन: उपयोग में लाए जा सकने वाले प्रक्षेपण यान आरएलवी पुष्पक (Reusable Launch Vehicle – RLV) का लगातार तीसरी बार सफल परीक्षण किया। इस मिशन में अंतरिक्ष से लौटने वाले यान को तेज़ हवा के बीच उतारने का अभ्यास किया गया था। इससे आरएलवी के विकास के लिए ज़रूरी महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकियां प्राप्त करने में मदद मिली है।
नवंबर में इसरो ने पहली बार एक निजी कंपनी की सहायता से जीसैट एन-2 संचार उपग्रह (communication satellite) अंतरिक्ष में भेजा। यह आधुनिक संचार उपग्रह है, जिसका जीवनकाल 14 वर्ष है। इससे ब्रॉडबैंड सेवाओं (broadband services) का विस्तार होगा।
16 अगस्त को इसरो ने अर्थ ऑब्ज़र्वेशन सैटेलाइट-8 (Earth Observation Satellite – EOS-8) को अंतरिक्ष में स्थापित किया। इससे छोटे उपग्रहों (small satellites) के व्यावसायिक प्रक्षेपण का मार्ग प्रशस्त हो गया।
इसरो ने लेह में देश का प्रथम एनालॉग अंतरिक्ष मिशन (analog space mission) शुरू किया है। यहां अंतरिक्ष यात्रियों को प्रशिक्षण (astronaut training) दिया जाएगा। इसके साथ ही यहां चंद्रमा और मंगल ग्रह पर बेस स्टेशन स्थापित करने में आने वाली चुनौतियों का अध्ययन भी किया जाएगा।
वर्ष 2024 में मानव अभियान गगनयान मिशन (Gaganyaan Mission) की तैयारियां जारी रहीं। इसके लिए परीक्षणों की एक शृंखला तैयार की गई थी। अगस्त में एक्सिओम-4 मिशन (Axiom-4 Mission) के लिए चुने गए दो गगन यात्रियों शुभांशु शुक्ला और प्रशांत बालकृष्ण नायर ने अंतरिक्ष यात्रा के लिए अमेरिका में प्रारंभिक दौर का प्रशिक्षण पूरा किया। यह मिशन इसरो-नासा (ISRO-NASA) की संयुक्त उड़ान के तहत अगले वर्ष अप्रैल में अंतरिक्ष यात्रा पर रवाना होगा।
मई में चेन्नई की अंतरिक्ष स्टार्ट-अप कंपनी अग्निकुल कॉसमॉस (Agnikul Cosmos) ने अपने प्रथम एक मंज़िला रॉकेट अग्निबाण सब-ऑर्बाइटल टेक्नॉलॉजी डिमॉन्स्ट्रेटर (Agnibaan Sub-orbital Technology Demonstrator) का सफल परीक्षण किया। इसे स्वदेशी तकनीकी विकास (indigenous technology development) की दिशा में बड़ी सफलता कहा जा सकता है। इसके पहले 2022 में निजी अंतरिक्ष स्टार्ट-अप कंपनी स्काइरूट (Skyroot) ने अपना प्रथम सब-ऑर्बाइटल रॉकेट अंतरिक्ष में भेजा था। अग्निबाण रॉकेट में अनेक विशेषताएं हैं। इसमें थ्री-डी प्रिटेंड सेमी-क्रायोजेनिक इंजन (3D-printed semi-cryogenic engine), मॉड्यूलर डिज़ाइन, कम लागत और स्वदेशी प्रौद्योगिकी प्रमुख हैं।
इसी साल के अंत में इसरो ने प्रोबा-3 (Proba-3) को सफलतापूर्वक तैनात किया। प्रोबा-3 युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (European Space Agency – ESA) का महत्वपूर्ण कार्यक्रम है, जिसके अंतर्गत दो उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजा गया है। ये दोनों एक-दूसरे से बराबर दूरी बनाए रखेंगे और सूर्य के बाहरी वातावरण का अध्ययन करेंगे।
इस वर्ष पहली बार 23 अगस्त को प्रथम राष्ट्रीय अंतरिक्ष विज्ञान दिवस मनाया गया, जो 2023 में भारत के चंद्रयान-3 (Chandrayaan-3) के चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर सफलतापूर्वक उतरने की याद में मनाया गया। इस उत्सव की थीम थी: ‘चंद्रमा का स्पर्श करते हुए जीवन का स्पर्श: भारत की अंतरिक्ष गाथा’ (Touching the Moon, Touching Lives: India’s Space Saga)। अंतरिक्ष विज़न 2047 (Space Vision 2047) के अनुसार, 2035 तक चंद्रमा पर भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन (Indian Lunar Space Station) की स्थापना और 2040 तक भारतीय अंतरिक्ष यात्री (Indian Astronaut) को चंद्रमा पर उतारना शामिल है।
साल 2024 में भारतीय मूल की अंतरिक्ष वैज्ञानिक सुनीता विलियम्स विज्ञान जगत की खबरों की सुर्खियों में बनी रहीं। सुनीता विलियम्स(Sunita williams) 5 जून को लगभग एक सप्ताह के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्पेस स्टेशन (international space station) पर पहुंची थीं, लेकिन स्टारलाइनर अंतरिक्ष यान में तकनीकी समस्या आने के कारण अभी तक पृथ्वी पर वापस नहीं लौटी हैं। उनकी वापसी अगले साल फरवरी में होगी। उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय स्पेस स्टेशन का कंमाडर बनने और लंबा समय अंतरिक्ष में बिता कर मनुष्य की सेहत पर पड़ने वाले विभिन्न प्रभावों के अध्ययन को समृद्ध किया है। भारत सरकार ने 2008 में सुनीता विलियम्स को पद्मभूषण(Padma Bhushan) से सम्मानित किया था।
सुपरकंप्यूटर ‘परम रुद्र’ (Supercomputer ‘Param Rudra’) 26 सितंबर को देश में ही विकसित तीन परम रुद्र सुपर कंप्यूटर (supercomputers) राष्ट्र को समर्पित किए गए। इनका विकास नेशनल सुपरकंप्यूटिंग मिशन (National Supercomputing Mission) के तहत किया गया है। ये सुपरकंप्यूटिंग (supercomputing) के क्षेत्र में भारत को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में आगे ले जाएंगे। मिशन 2015 में शुरू किया गया था। तीन सुपर कंप्यूटरों के विकास पर 130 करोड़ रुपए खर्च हुए हैं। इन्हें वैज्ञानिक अनुसंधान (scientific research) के लिए नई दिल्ली, कोलकाता और पुणे में स्थापित किया जाएगा। दिल्ली में इंटर युनिवर्सिटी एक्सलरेटर सेंटर (Inter University Accelerator Centre) में पदार्थ विज्ञान (material science) और परमाणु भौतिकी (nuclear physics) जैसे क्षेत्रों में शोध के लिए; पुणे में विशाल मीटर रेडियो टेलीस्कोप (Giant Metrewave Radio Telescope), फास्ट रेडियो बर्स्ट (fast radio bursts) और अन्य खगोलीय घटनाओं (astronomical events) के अध्ययन के लिए; और कोलकाता स्थित सत्येन्द्रनाथ बोस केंद्र (Satyendra Nath Bose Centre) में भौतिक विज्ञान (physical sciences), ब्रह्मांड (cosmology) और पृथ्वी विज्ञान (earth sciences) जैसे क्षेत्रों में उन्नत शोधकार्यों के लिए।
पहली अंडरवाटर मेट्रो लाइन (First Underwater Metro Line) इस वर्ष मार्च में कोलकाता में देश की पहली अंडरवाटर मेट्रो लाइन (underwater metro line) का शुभारंभ हुआ। इसी के साथ हुगली नदी (Hooghly River) में सुरंग बनाने और मेट्रो ट्रेन (metro train) चलाने का 105 वर्ष पुराना सपना साकार हो गया। मेट्रो ट्रेन ज़मीन से 33 मीटर नीचे और हुगली नदी के तल से 13 मीटर नीचे बने ट्रेक पर दौड़ रही है। इसके लिए हावड़ा से लेकर महाकरण स्टेशन (Mahakaran Station) तक 520 मीटर लंबी सुरंग बनाई गई है। मेट्रो इस सुरंग को 80 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से 45 सेकंड में पार करती है।
मौसम विभाग के 150 साल (Indian Meteorological Department 150 years) 1875 में स्थापित भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (Indian Meteorological Department – IMD) के 150 वर्ष 2025 में पूरे हो रहे हैं। 2024 में विभाग ने राष्ट्र सेवा के 150वें वर्ष का उत्सव मनाया। यह देश का सबसे पुराना वैज्ञानिक विभाग (scientific department) है। बीते वर्षों में मौसम विज्ञान विभाग (meteorological services) की सेवाओं का विस्तार हुआ है। मानसून पूर्वानुमानों (monsoon forecasting) से लेकर अंतरिक्ष विज्ञान (space science) और कृषि (agriculture) से लेकर पर्यटन (tourism) तथा पर्यावरण (environment) से लेकर परिवहन (transportation) में इसकी सेवाओं का उपयोग हो रहा है। विभाग ने किसानों को पंचायत मौसम सुविधा (Panchayat Weather Services) उपलब्ध कराई है।
बायो ई-3 नीति (Bio E3 Policy) इसी वर्ष भारत की जैव अर्थव्यवस्था (bioeconomy) को मंज़ूरी दी गई, जिसे संक्षेप में बायो-ई3 नीति (Bio E3 Policy) कहा जाता है। नीति में अर्थव्यवस्था (economy), रोज़गार (employment) और पर्यावरणीय प्रतिबद्धता (environmental commitment) को बढ़ावा देने का वादा किया गया है। बायो ई-3 नीति को जलवायु परिवर्तन (climate change) से निपटने की सोच के साथ तैयार किया गया है। यह नीति विभिन्न क्षेत्रों में उद्यमिता (entrepreneurship) को प्रोत्साहित करती है।
योजनाएं इसी वर्ष 5 जनवरी को केंद्र सरकार ने 4797 करोड़ रुपए की ‘पृथ्वी विज्ञान योजना’ (Earth Sciences Scheme) को मंज़ूरी प्रदान की। योजना का उद्देश्य भू-प्रणाली और परिवर्तन के महत्वपूर्ण संकेतों (Key Indicators) को रिकॉर्ड करने के लिए वायुमंडल (Atmosphere), समुद्र (Ocean), भू-मंडल (Lithosphere), हिम मंडल (Cryosphere) और पृथ्वी के ठोस हिस्से का दीर्घकालिक अवलोकन करना है। साथ ही मौसम, समुद्र और जलवायु खतरों (Climate Hazards) को समझने और अनुमान लगाने तथा जलवायु परिवर्तन (Climate Change) के विज्ञान को समझने के लिए मॉडलिंग प्रणालियों का विकास भी सम्मिलित है।
गुज़रे साल 11-13 सितंबर के दौरान ग्रेटर नोएडा में ‘सेमीकंडक्टर भविष्य को आकार देना’ (Shaping the Future of Semiconductors) विषय पर सेमिनार आयोजित किया गया, जिसका उद्देश्य देश में ही सेमीकंडक्टर उद्योग (Semiconductor Industry) को प्रोत्साहन देना था। सरकार द्वारा देश में ही सेमीकंडक्टर चिप (Chip Manufacturing) बनाने के लिए गुजरात के साणंद और धोलेरा तथा असम के मोरीगांव में संयंत्र स्थापित किए जा रहे हैं। वर्ष 2025 में उत्पादन शुरू होने की उम्मीद है।
भारतीय सेमीकंडक्टर मिशन (Indian Semiconductor Mission) की घोषणा 2021 में की गई थी। हमारे देश में सेमीकंडक्टर चिप निर्माण की प्रयोगशाला चंडीगढ़ में है। दुनिया में सेमीकंडक्टर चिप बनाने वाले पांच देश हैं, जिनमें ताइवान (Taiwan) की हिस्सेदारी सबसे ज़्यादा है। मोबाइल से लेकर मिसाइलों तक में सेमीकंडक्टर चिप हमारे रोज़मर्रा के जीवन (Everyday Life) का अभिन्न हिस्सा बन चुके हैं।
नई प्रजाति की खोज (Discovery of New Species) अरुणाचल प्रदेश की सियांग घाटी (Siang Valley) में चींटी की एक नई प्रजाति मिली है। यह जगह जैव विविधता केंद्र (Biodiversity Hotspot) के रूप में विख्यात है। नई प्रजाति को पैरापैराट्रेचिना नीला (Paraparatrechina neela) नाम दिया गया है। विज्ञान पत्रिका ज़ुओकीस (Scientific Journal Zookeys) ने बताया है कि चींटी की नई प्रजाति लाल अथवा भूरी चींटियों जैसी नहीं है। इस छोटी चींटी की लंबाई दो मिलीमीटर से भी कम है और इसका शरीर धातुई नीले रंग का है। अनुसंधानकर्ता चींटी के नीले रंग (Blue Coloration) को लेकर उत्साहित हैं और इसके कारण की खोज में हैं।
गुज़रे साल वैज्ञानिकों ने पश्चिम हिमालय में सांप की एक नई प्रजाति की खोजी है। इसका नाम एंगइकुलसडिकेप्रियोई (Anguiculus dicaprioi) रखा गया है। एंगइकुलस लैटिन भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है छोटा सांप। यह सांप कोलुब्रिडे परिवार का सदस्य है जो पृथ्वी पर सांपों का सबसे बड़ा कुल है। इसमें 1938 प्रजातियां सम्मिलित हैं।
इसी वर्ष भारत अपने यहां के सभी जीव-जंतुओं की सूची बनाने वाला पहला देश बन गया है। इस सूची में लगभग एक लाख प्रजातियां शामिल हैं। यह सूची वर्गीकरण विज्ञानियों, संरक्षण प्रबंधकों, शिक्षाविदों, शोधार्थियों और नीति निर्माताओं के लिए एक अमूल्य संदर्भ ग्रंथ है। इस सूची में विलुप्तप्राय जीवों को भी शामिल किया गया है।
सम्मान व समारोह (Awards and Celebrations)
पहली बार नव-स्थापित राष्ट्रीय विज्ञान पुरस्कार (National Science Awards) प्रदान किए गए। राष्ट्रीय विज्ञान पुरस्कारों की स्थापना 2023 में की गई थी। चार श्रेणियों में दिए जाने वाले इन पुरस्कारों के लिए 33 वैज्ञानिकों का चयन किया गया। प्रथम विज्ञान रत्न सम्मान विख्यात जैव रसायनविद प्रोफेसर जी. पद्मनाभन को दिया गया। 13 वैज्ञानिकों को विज्ञानश्री से सम्मानित किया गया। विज्ञान और प्रौद्योगिकी में असाधारण योगदान के लिए 18 वैज्ञानिकों को युवा शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार प्रदान किया गया। इसरो की चंद्रयान-3 की टीम को विज्ञान टीम पुरस्कार से नवाज़ा गया।
इस वर्ष वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) की प्रयोगशालाओं के तीन वैज्ञानिकों को राष्ट्रीय विज्ञान पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरडिसिप्लीनरी साइंस एंड टेक्नॉलॉजी (एनआईआईएसटी), तिरुवनंतपुरम के निदेशक डॉ. आनंदरामकृष्णन और नेशनल बॉटेनिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट (एनबीआरआई), लखनऊ के प्रोफेसर सैय्यद वजीह अहमद नकवी को विज्ञानश्री से पुरस्कृत किया गया है। नेशनल मैटलर्जिकल लैबोरेटरी (एनएमएल), जमशेदपुर के डॉ. अभिलाष को विज्ञान युवा शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार से नवाज़ा गया है।
इसी वर्ष विख्यात वैज्ञानिक एम. एस. स्वामीनाथन को मरणोपरांत देश के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया।
इसी वर्ष विज्ञान लोकप्रियकरण की अंग्रेज़ी पत्रिका साइंसरिपोर्टर के प्रकाशन के साठ वर्ष पूरे हुए। इसका पहला अंक 1964 में प्रकाशित हुआ था।
जिन्हें हमने खो दिया (Remembering Those We Lost) वर्ष 2024 में हमने भारतीय विज्ञान जगत की कई महान हस्तियों को खो दिया। 25 अक्टूबर को पार्टिकल फिज़िक्स (Particle Physics) की अध्येता प्रोफेसर रोहिणी गोडबोले का निधन हो गया। उन्होंने महिलाओं में विज्ञान शिक्षा के प्रसार में सक्रिय योगदान दिया। उन्हें पद्मश्री सहित कई सम्मान मिले हैं।
इसी वर्ष 27 जनवरी को देश में ही विकसित गर्भ निरोधक गोली ‘सहेली’ के जनक और सीएसआईआर की लखनऊ स्थित प्रयोगशाला सेंट्रल ड्रग रिसर्च इंस्टीट्यूट (सीडीआरआई) के पूर्व निदेशक डॉ. नित्यानन्द का देहांत हो गया।
15 अगस्त को अग्नि मिसाइल के जनक डॉ. रामनारायण अग्रवाल नहीं रहे। पहली स्वदेशी क्लॉट बस्टर ड्रग के विकास में अहम भूमिका निभा चुके डॉ.गिरीश साहनी का इस वर्ष 19 अगस्त को निधन हो गया।
बीते वर्ष विज्ञान के क्षेत्र में कई नई सफलताएं देखने को मिलीं, वहीँ दूसरी ओर पृथ्वी पर जलवायु परिवर्तन (climate change), प्रदूषण (pollution), और जैव विविधता ह्रास (biodiversity loss) जैसी चिंताओं की लकीर भी लंबी होती चली गई। साल 2024 में जीएम खाद्य फसलों (GM food crops) के विरोध में एक प्रस्ताव पारित किया गया, जिसमें इन फसलों को भारत के लिए अवांछित (undesirable for India) बताया गया। प्रस्ताव में जीएम फसलों को लेकर व्यापक विचार-विमर्श (wider discussions) की मांग की गई। बीटी कपास (BT cotton) की मंजूरी के अलावा अन्य जीएम फसल को स्वीकृति नहीं मिली है। विदा हो चुके वर्ष में भारतीय विज्ञान कांग्रेस एसोसिएशन (Indian Science Congress Association) का जनवरी में होने वाला वार्षिक सम्मेलन स्थगित हो गया। यह विज्ञान कांग्रेस के 100 वर्षों के इतिहास में पहली बार हुआ है। साल 2021 और 2022 में कोविड महामारी के कारण यह सम्मेलन नहीं हुआ था। हालांकि, साल 2023 में इसका आयोजन हुआ, लेकिन प्रधानमंत्री इसमें ऑनलाइन (online) शामिल हुए थे। भारतीय विज्ञान कांग्रेस एसोसिएशन का सालाना आयोजन विज्ञान जगत की महत्वपूर्ण घटनाओं में शामिल है, जिसके शुभारंभ कार्यक्रम में अभी तक प्रधानमंत्री सम्मिलित होते रहे हैं। सम्मेलन में मुख्य विषय पर विचार मंथन के बाद की गई सिफारिशों का उपयोग सरकार की विज्ञान नीति तैयार करने में किया जाता है। विज्ञान जगत के समीक्षकों के अनुसार अब इस आयोजन से देश के नामचीन वैज्ञानिकों ने दूरी बना ली है और यह आयोजन विश्वविद्यालयों और कॉलेज शिक्षकों का मंच बन कर रह गया है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.hindustantimes.com/ht-img/img/2023/08/30/1600×900/aditya_l1_sun_mission_isro_latest_update_1693360404282_1693360404459.png
वैसे तो एक व्यक्ति का खून दूसरे को देना यानी रक्ताधान (Blood Transfusion) सत्रहवीं शताब्दी के शुरू में ही किया जाने लगा था लेकिन यह मरीज़ों की बदकिस्मती थी कि सुप्रसिद्ध ‘ए, बी, ओ’ रक्त समूहों (Blood Groups) की जानकारी हमें 1901 में ही मिली थी। इससे पहले रक्ताधान का सफल होना या न होना संयोग की बात होती थी। अलबत्ता, इसके बाद किए गए तमाम अनुसंधान के बावजूद आज भी वैज्ञानिक इस गुत्थी से जूझ रहे हैं कि ये रक्त समूह होते ही क्यों हैं।
यह तो पता है कि ए, बी और ओ रक्त समूह के जो जीनोटाइप (Genotype) पाए जाते हैं, उनका असर कई बीमारियों के परिणामों पर होता है। जैसे एडिनबरा विश्वविद्यालय के एलेक्स रोवे और उनके साथियों ने दर्शाया है कि ‘ओ’ रक्त समूह (O Blood Group) के लोगों में मलेरिया (Malaria) के गंभीर लक्षण प्रकट होने की संभावना कम होती है। इसका कारण यह बताते हैं कि ‘ओ’ किस्म की लाल रक्त कोशिकाओं में संक्रमण के बाद रोज़ेट (Rosette Formation) नामक झुंड बनाने की क्षमता कम होती है। रोज़ेट बनने पर पतली रक्त नलिकाओं में रुकावट पैदा होती है।
तो शायद ऐसा लगे कि मलेरिया के संक्रमण से निपटने के चक्कर में रक्त समूह बने होंगे। लेकिन कई वैज्ञानिक बताते हैं कि मलेरिया परजीवी प्लाज़्मोडियम फाल्सीपैरम (Plasmodium Falciparum) ने चिम्पैंज़ियों से मनुष्यों में छलांग करीब 10,000 वर्ष पहले लगाई थी जबकि रक्त समूह तो संभवत: 2 करोड़ साल पहले से अस्तित्व में हैं।
बहरहाल, रक्त समूह और बीमारियों के प्रति दुर्बलता का सम्बंध मलेरिया से काफी आगे तक है। और तो और ए, बी तथा ओ एंटीजेन (Antigens) सिर्फ लाल रक्त कोशिकाओं की सतह पर नहीं बल्कि सफेद रक्त कोशिकाओं पर भी पाए जाते हैं और कई अंगों की सतह पर एपीथीलियल कोशिकाओं (Epithelial Cells) पर भी पाए जाते हैं। और तो और, ये रक्त समूह कई ऐसी बीमारियों के परिणामों को भी प्रभावित करते हैं जिनका सम्बंध लाल रक्त कोशिकाओं से नहीं होता। जैसे, हैजा (Cholera), टीबी (Tuberculosis), हेपेटाइटिस (Hepatitis) तथा अल्सर पैदा करने वाले हेलिकोबैक्टर पायलोरी (Helicobacter Pylori) के मामले में।
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि करोड़ों वर्ष पूर्व संक्रामक बीमारियों के दबाव में रक्त समूहों का विकास हुआ था लेकिन यह पता नहीं है कि वह कौन-सी बीमारी या बीमारियां थीं जिसने विकास को इस दिशा में मोड़ा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://stanfordbloodcenter.org/wp-content/uploads/2023/02/blood-grouping-test.jpg
2024 का लास्कर-डीबेकी पुरस्कार (Lasker-DeBakey Award 2024) तीन वैज्ञानिकों को दिया गया है – मैसाचुसेट्स जनरल हॉस्पिटल के जील हेबनर (Joel Habener), रॉकफेलर विश्वविद्यालय की स्वेतलाना मोजसोव (Svetlana Mojsov) और नोवो लॉरडिस्क की लोटे ब्येरो नडसन (Lotte Bjerre Knudsen)। इन्होंने जीएलपी-1 (GLP-1 hormone) नामक हॉर्मोन के सक्रिय रूप को पहचाना और उसे वज़न घटाने की औषधि (weight loss medication) के रूप में विकसित किया।
दुनिया भर में अनुमानित 90 करोड़ वयस्क मोटापे से ग्रस्त हैं। मोटापा कई घातक रोगों का कारण बनता है। पूर्व में मोटापे से निपटने के लिए कारगर औषधियों के विकास को ज़्यादा सफलता नहीं मिली थी। उक्त तीन वैज्ञानिकों ने जीएलपी-1 आधारित औषधियों का मार्ग प्रशस्त किया जो काफी उम्मीदें जगाता है।
एक नया हॉर्मोन
1970 के दशक में मैसाचुसेट्स जनरल हॉस्पिटल में कार्यरत एंडोक्रायनोलॉजिस्ट हेबनर का ध्यान डायबिटीज़ ने आकर्षिक किया था। आम तौर पर ग्लूकोज़ की उपस्थिति अग्न्याशय (pancreas) को इंसुलिन स्रावित करने के लिए प्रेरित करती है। यह इंसुलिन शर्करा को रक्त प्रवाह में से हटाकर कोशिकाओं में पहुंचाता है।
डायबिटीज़(diabetes) में होता यह है कि इंसुलिन की कमी के चलते रक्त प्रवाह में ग्लूकोज़ की मात्रा अधिक बनी रहती है जबकि कोशिकाएं भूखी मरती हैं। इंसुलिन की आपूर्ति करना डायबिटीज़ के एक उपचार के रूप में उभरा था लेकिन वैकल्पिक चिकित्सा की तलाश जारी रही। पैंक्रियास द्वारा स्रावित एक अन्य हॉर्मोन – ग्लूकागोन – रक्त में शर्करा की मात्रा को बढ़ाता है। तो एक विचार यह आया कि यदि ग्लूकागोन को बाधित कर दिया जाए तो डायबिटीज़ रोगियों को मदद मिलेगी।
हेबनर ने सोचा कि वे ग्लूकागोन का जीन पृथक करेंगे। लेकिन उस समय नियमों के तहत यूएस में स्तनधारी जीन्स के साथ छेड़छाड़ की अनुमति नहीं थी। तो हेबन ने एंगलरफिश का सहारा लिया। एंगलरफिश के इस्तेमाल का एक फायदा यह भी था कि इसमें एक विशिष्ट अंग होता है जो भरपूर मात्रा में ग्लूकागोन बनाता है।
वैज्ञानिक यह तो जानते थे कि पेप्टाइड हॉर्मोन बड़े प्रोटीन अणुओं में से बनते हैं, जब एंज़ाइम उन्हें विशिष्ट स्थानों पर काट देते हैं। 1982 में हेबनर ने रिपोर्ट किया कि एंगलरफिश का ग्लूकागोन जीन एक ऐसे पूर्ववर्ती प्रोटीन का निर्माण करवाता है जिसमें ग्लूकागोन के अलावा एक और पेप्टाइड होता है जो ग्लूकागोन जैसा ही है। इस प्रोटीन में दो अमीनो अम्ल – लायसीन-आर्जिनीन – जोड़ियां कई स्थानों पर पाई जाती हैं। यह वही जोड़ी है जो कई हॉर्मोन के पूर्ववर्ती प्रोटीन्स में कटान स्थल दर्शाती हैं। विचार यह बना कि इन स्थलों पर काटने से ग्लूकागोन भी मुक्त होगा और वह दूसरा पेप्टाइड भी।
इसके अगले वर्ष चिरॉन कॉर्पोरेशन (Chiron Corporation) के ग्रेम बेल ने पाया कि हैमस्टर का ग्लूकागोन जीन भी फिश पेप्टाइड के एक अन्य संस्करण को कोड करता है – इसे उन्होंने नाम दिया ग्लूकागोन-लाइक पेप्टाइड-1 (GLP-1)। आगे चलकर मनुष्यों तथा अन्य स्तनधारियों में भी ऐसे ही परिणाम मिले।
एक उपेक्षित चरण
स्वेतलाना मोजसोव ने ग्लूकागोन की क्रियाविधि का अध्ययन करने के लिए बड़ी मात्रा में इसके निर्माण के प्रयास में इस हॉर्मोन की संरचना का विस्तृत अध्ययन किया था। उन्होंने प्रोटीन संश्लेषण की एक नई विधि का उपयोग किया जो शुद्ध पदार्थ की पर्याप्त मात्रा बनाने के लिए पसंदीदा विधि बन चुकी थी।
1983 के आसपास मोजसोव ने मैसाचुसेट्स जनरल हॉस्पिटल में जीएलपी-1 के काम को आगे बढ़ाया। 1990 के दशक की शुरुआत में वैज्ञानिकों ने सुझाया था कि आंतों में उपस्थित कतिपय पदार्थ पैंक्रियास को यह हॉर्मोन बनाने को उकसाते हैं। 1964 में किए गए प्रयोगों में यह देखा गया था कि यदि ग्लूकोज़ को मुंह से लिया जाए तो वह ज़्यादा इंसुलिन उत्पादन को प्रेरित करता है बनिस्बत उसे इंजेक्शन के माध्यम से लेने पर। निष्कर्ष यह था कि आंतों में उपस्थित कोई चीज़ इंसुलिन स्राव को प्रेरित करती है। इन पदार्थों को इंक्रेटिन कहते हैं। उस समय तक ऐसे इंक्रेटिन्स की पहचान नहीं हो पाई थी। अब जीएलपी-1 एक उम्मीदवार के रूप में उभरा क्योंकि यह एक ऐसे हॉर्मोन (glucagon) से मेल खाता है जो रक्त-शर्करा के स्तर को प्रभावित करता है।
जीएलपी-1 के लिए 37 अमीनो अम्लों (amino acids) की शृंखला सुझाई गई थी और उन अमीनो अम्लों के अनुक्रम की भविष्यवाणी भी कर दी गई थी। यदि अलग-अलग प्रोटीन्स में एक से अमीनो अम्ल एक-से स्थानों पर पाए जाएं, तो माना जाता है कि वे कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभाते होंगे। लेकिन जीएलपी-1 की शृंखला की शुरुआत में ऐसे अमीनो अम्ल पाए गए थे जो ग्लूकागोन में नहीं पाए जाते। जीएलपी-1 में पोज़ीशन 6 पर आर्जिनीन था। आर्जिनीन को जाने-माने मानव एंज़ाइमों द्वारा काटा जाता है। यदि इन प्रथम 6 अमीनो अम्लों को काटकर अलग कर दिया जाए तो शेष पेप्टाइड 37 नहीं बल्कि 31 अमीनो अम्ल लंबा होगा और यह ग्लूकागोन कुल के सदस्यों से पूरी तरह मेल खाएगा। मोजसोव ने यह पता करने के प्रयास शुरू कर दिए कि क्या जीएलपी-1 का लघु संस्करण [GLP-1 (7-37)] जीएलपी-1 के लंबे संस्करण [GLP-1 (1-37)] से मुक्त होकर उस अज्ञात इंक्रेटिन की भूमिका निभा सकेगा। इसके लिए उन्होंने दोनों शुद्ध पेप्टाइड का बड़ी मात्रा में संश्लेषण एक ही मिश्रण में किया। उन्होंने ऐसी एंटीबॉडीज़ भी बनाईं जो एक साझा स्थान पर इन दोनों पेप्टाइड्स से जुड़ें – अर्थात वे दोनों संस्करणों को पहचानने में मददगार थीं। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि उन्होंने मिश्रण में से GLP-1 (1-37) और GLP-1 (7-37) को अलग-अलग करने का तरीका भी खोज निकाला। अंतत: वे सक्रिय पेप्टाइड को पहचान पाईं।
इसके बाद मोजसोव ने पेप्टाइड्स(peptides) को रेडियोधर्मी (radioactive) परमाणुओं से चिंहित किया और फिर जीएलपी-1 एंटीबॉडीज़ की मदद से यह पता किया कि क्या जीएलपी-1 जंतुओं में दिखाई देता है। इसके बाद उन्होंने पेप्टाइड्स को अलग-अलग करके यह स्थापित किया कि लघु संस्करण [GLP-1 (7-37)] ही प्रमुख अंश है। यही आंतों में पाया जाता है।
मोजसोव और हेबनर द्वारा चूहों पर किए गए प्रयोगों से स्पष्ट हो गया कि लघु संस्करण GLP-1 (7-37) ही कार्यिकीय रूप से प्रासंगिक पेप्टाइड है।
तब हेबनर और मोजसोव ने मनुष्यों पर अध्ययन शुरू किए। पाया गया कि GLP-1 (7-37) इंसुलिन स्राव को उकसाता है और रक्त शर्करा का स्तर कम करता है। इसके डायबिटीज़ में उपयोग का रास्ता खुल गया।
वसा अम्ल (fatty acid), मोटापे में संभावनाएं
डायबिटीज़ के अलावा मोटापे से निपटने में जीएलपी-1 की भूमिका को लेकर नडसन पहले से सोच रहे थे। 1996 में एक शोध पत्र में बताया गया था कि चूहों के मस्तिष्क में जीएलपी-1 का इंजेक्शन लगाने पर उनका भोजन लेना एकदम से कम हो गया। शोध पत्र का निष्कर्ष था कि यह पेप्टाइड तृप्ति का संदेश देता है।
दिक्कत यह थी कि इंसानों में रक्त संचार में प्रवेश करने के मिनटों के अंदर जीएलपी-1 गायब हो जाता है। एक एंज़ाइम डीपीपी-4 इसे नष्ट कर देता है। बाकी बचे जीएलपी-1 को गुर्दे बाहर निकाल देते हैं। एक औषधि के रूप में इस्तेमाल करने के लिए इसे इन प्रक्रियाओं से बचाना होगा।
अंतत: रणनीति यह बनी कि जीएलपी-1 के साथ वसा अम्ल जोड़ दिए जाएं। ये वसा अम्ल रक्त संचार में काफी मात्रा में उपस्थित एलब्यूमिन नामक प्रोटीन से कुदरती रूप से जुड़ जाते हैं। एलब्यूमिन पदार्थों को पूरे शरीर में पहुंचाता है। नडसन का विचार था कि एलब्यूमिन जीएलपी-1 को रक्त संचार में ढोएगा और उसे डीपीपी-4 द्वारा विनाश से तथा गुर्दों द्वारा निष्कासन से भी बचाकर रखेगा।
नडसन की टीम ने कई सारे अलग-अलग जीएलपी-1 समरूप बनाए। अंतत: वे लिराग्लुटाइड नामक एक पदार्थ तक पहुंचे। इसका अर्ध जीवन काल 1.2 घंटे से बढ़ाकर 13 घंटे किया जा सका और 2010 में 1300 डायबिटीज़ टाइप-2 मरीज़ों के एक क्लीनिकल परीक्षण में इसका प्रदर्शन अच्छा रहा और साइड प्रभाव न्यूनतम रहे। 2009 में युरोपियन मेडिसिन एजेंसी और 2010 में यूएस खाद्य व औषधि प्रशासन ने लिराग्लूटाइड को अनुमति दे दी।
इसी दौरान इस बात के प्रमाण भी मिलने लगे थे कि जीएलपी-1 भूख कम करता है और वज़न घटाता है। एक महत्वपूर्ण अध्ययन में देखा गया कि डायबिटीज़-मुक्त लेकिन मोटे व अधिक वज़न वाले लोगों में लिराग्लूटाइड देने पर एक वर्ष में साढ़े पांच किलोग्राम तक वज़न कम हुआ। अंतत: इसे भी मंज़ूरी मिल गई। कोशिश यह चल रही थी कि दवा शरीर में ज़्यादा देर तक बनी रहे ताकि प्रतिदिन एक गोली की बजाय कम बार लेनी पड़े।
काफी मशक्कत के बाद एक ऐसा अणु मिल गया जो शरीर में पूरे 165 घंटे तक बना रहता था। इसे नाम मिला सेमाग्लूटाइड। इसे 2017 में डायबिटीज़ के उपचार के लिए तथा 2021 में मोटापे के इलाज के लिए अनुमति मिली। लिराग्लूटाइड के मुकाबले सेमाग्लूटाइड का असर लगभग दुगना होता है। परीक्षण के दौरान 16 महीने में प्रतिभागियों के वज़न में 12 किलोग्राम की कमी देखी गई और साइड प्रभाव न के बराबर देखे गए। लिराग्लूटाइड और सेमाग्लूटाइड ने नई दवाइयों का मार्ग प्रशस्त किया है।
मज़ेदार बात यह है कि जीएलपी-1 का डायबिटीज़ सम्बंधी असर तो पैंक्रियास पर होता है लेकिन भूख कम करने के असर को मस्तिष्क में देखा जा सकता है। इस असर की क्रियाविधि को समझने के प्रयास जारी हैं। यह भी बताया जा रहा है कि शायद यह औषधि कई अन्य बीमारियों में भी कारगर हो सकती है। जैसे जीर्ण गुर्दा रोग, फैटी लीवर रोग, अल्ज़ाइमर व पार्किंसन रोग तथा व्यसन सम्बंधी दिक्कतें। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://tecscience.tec.mx/es/wp-content/uploads/sites/8/2024/09/Lakster-Awards-.jpg
2024 के लिए बुनियादी चिकित्सा अल्बर्ट लास्कर पुरस्कार (Albert Lasker Award) टेक्सास विश्वविद्यालय (University of Texas) के साउथवेस्टर्न मेडिकल सेंटर के ज़िजियान ‘जेम्स’ चेन को दिया गया है। चेन ने अपने प्रयोगों से इस बाबत बुनियादी समझ विकसित की है कि आसपास फैले रोगजनक (pathogens) के बीच हमारा शरीर सुरक्षित कैसे रहता है। इस समझ के औषधीय महत्व जो भी हों, लेकिन इसने प्रतिरक्षा (immune system) को समझने में बहुत मदद की है।
उन्होंने इस बात का खुलासा किया है कि आनुवंशिक पदार्थ डीऑक्सी रायबोन्यूक्लिक एसिड (DNA) प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया (immune response) और शोथ (inflammation) को कैसे उकसाता है। उन्होंने दर्शाया है कि cGAS एंजाइम (cGAS enzyme) उस क्रियाविधि का प्रमुख घटक होता है जिसका उपयोग स्तनधारी प्राणी सूक्ष्मजीवी घुसपैठियों से निपटने में करते हैं और यही एंज़ाइम ट्यूमर-रोधी प्रतिरक्षा (anti-tumor immunity) को भी बढ़ावा देता है। अलबत्ता, कभी-कभी cGAS की अनुपयुक्त सक्रियता स्व-प्रतिरक्षा एवं शोथ सम्बंधी समस्याओं को भी जन्म देती है।
डीएनए की विविध भूमिकाएं
वैसे तो पाठ्यपुस्तकों में बताया जाता है कि डीएनए (DNA) जेनेटिक सूचनाओं का वाहक होता है। लेकिन सच्चाई यह है कि यही डीएनए कई अन्य कार्यों को भी अंजाम देता है। सामान्यत: जंतुओं में डीएनए उनकी कोशिकाओं के केंद्रकों (nucleus) या माइटोकॉण्ड्रिया (mitochondria) में बंद होता है। जब डीएनए इन कोशिकांगों के बाहर – यानी कोशिका द्रव्य में – मिले तो वह एक चेतावनी होती है कि या तो कोई सूक्ष्मजीवी मेहमान (microbial invader) कोशिका में पहुंच गया है या दुर्दम (malignant) कोशिकाएं उपस्थित हैं या कोई अन्य रोग-सम्बंधी स्थिति बन रही है।
जैसे, 1908 में नोबेल विजेता इल्या मेक्निकोव ने कहा था कि डीएनए सूक्ष्मजीवों को दूर रखने के लिए ‘भक्षी कोशिकाओं’ (phagocytes) की रक्षात्मक फौज तैनात कर लेता है। लेकिन यह कोई नहीं जानता था कि यह काम होता कैसे है। इस कोशिकीय फौज में मूलत: जन्मजात (innate) प्रतिरक्षा तंत्र के घटक होते हैं। ये रोगजनक (pathogen) को देखते ही उसे निपटा देते हैं। साथ ही साथ ये अनुकूली प्रतिरक्षा तंत्र की बी कोशिकाएं (B cells) व टी कोशिकाएं (T cells) को सक्रिय कर देते हैं जो आगे की कार्रवाई करती हैं और जो कुछ देखती हैं उसे ‘याद’ रखती हैं।
2006 में शोधकर्ताओं ने दर्शाया कि यदि स्तनधारी कोशिकाओं के कोशिका द्रव्य में दोहरे सूत्र वाला यानी डबल स्ट्रेंडेड डीएनए (dsDNA) [double-stranded DNA] प्रविष्ट कराया जाए, तो उनमें जन्मजात प्रतिरक्षा तंत्र [innate immune system] के घटकों की मात्रा में खूब वृद्धि हो जाती है। इन अणुओं में टाइप-1 इंटरफेरॉन (जैसे इंटरफेरॉन-β) शामिल होते हैं।
इस खोज के साथ ही कोशिका द्रव्य में dsDNA की शिनाख्त करके टाइप-1 इंटरफेरॉन [type-1 interferon] का निर्माण शुरू करवाने वाले अणु की खोज शुरू हो गई। 2008 में अंततः दो शोधकर्ताओं ने स्वतंत्र रूप से इंटरफेरॉन उत्पादन मार्ग [interferon pathway] के एक प्रमुख अणु की खोज कर ली। इस प्रोटीन को स्टिम्यूलेटर ऑफ इंटरफेरॉन जीन्स (स्टिंग) [STING – Stimulator of Interferon Genes] नाम दिया गया। अगले ही वर्ष पता चला कि इस प्रक्रिया की शुरुआत डीएनए करवाता है। एक दिक्कत यह थी कि पूरी प्रक्रिया में महत्वपूर्ण होते हुए भी स्टिंग स्वयं dsDNA से नहीं जुड़ता।
इसके बाद शुरू हुई अत्यंत कल्पनाशील प्रयोगों की एक शृंखला – ज़िजियान ‘जेम्स’ चेन के नेतृत्व में। चेन ने इस काम में जो तरीका अपनाया उसकी खासियत थी कि वे संभावित ग्राही [receptor] की पहचान या गुणों को लेकर कोई मान्यता लेकर नहीं चले थे। वे तो सिर्फ एक ऐसे अणु की खोज में लगे थे जो वांछित कार्य – स्टिंग को सक्रिय करना [activating STING] – को अंजाम देता हो।
सबसे पहले तो उन्होंने कुछ चूहों की कोशिकाओं में स्टिंग को समाप्त कर दिया ताकि वे मात्र उसको सक्रिय करने वाले अणुओं को देख सकें, उसके बाद बनने वाले अणुओं को नहीं। dsDNA को इन स्टिंग-रहित कोशिकाओं [STING-deficient cells] में डाला गया और उसमें उपस्थित पदार्थों की जांच की। इस पदार्थ को उन्होंने अन्य कोशिकाओं में डाला और उनमें स्टिंग-सक्रियता [STING activation] का मापन किया। मापन के लिए उन्होंने एक ऐसे प्रोटीन की स्थिति को देखा जो स्टिंग के द्वारा निर्मित किया जाता है – IRF3 जो इंटरफेरॉन-β नियमनकर्ता है।
उन कोशिकाओं से प्राप्त पदार्थ ने IRF3 का निर्माण करवाया। इससे चेन व साथियों को समझ में आ गया कि वे जिस पदार्थ की खोज कर रहे हैं, वह स्टिंग-रहित कोशिकाओं [STING-deficient cells] से प्राप्त मिश्रण में मौजूद है। उन्होंने इस मिश्रण के घटकों को अलग-अलग किया। पृथक्करण से उन्हें मनचाहा रसायन मिल ही गया।
आगे विश्लेषण से इस पदार्थ की पहचान हो गई – यह सायक्लिक GMP-AMP (cGAMP) [cyclic GMP-AMP] किस्म का यौगिक था। इस तरह के अणु स्तनधारी कोशिकाओं में पहले कभी नहीं देखे गए थे। इस अणु में दो न्यूक्लिओटाइड [nucleotides] (गुआनोसीन मोनो फॉस्फेट – GMP और एडिनोसीन मोनो फॉस्फेट- AMP) आपस में एक वृत्त के रूप में जुड़ जाते हैं। चेन ने यह खोज 2012 में प्रकाशित की थी और बताया था कि cGAMP में स्टिंग को सक्रिय करने के लिए समुचित गुण होते हैं। इस अणु का एक संश्लेषित संस्करण संवर्धित स्तनधारी कोशिकाओं में इंटरफेरॉन-β के निर्माण को प्रेरित करता है। यह भी देखा गया कि cGAMP का उत्पादन तभी बढ़ता है जब स्तनधारी कोशिका में किसी डीएनए वायरस [DNA virus] का संक्रमण हुआ हो, जबकि आरएनए वायरस [RNA virus] संक्रमित कोशिकाओं में ऐसा नहीं होता। इन प्रयोगों के आधार पर चेन का निष्कर्ष था कि कोशिका द्रव्य में डीएनए की उपस्थिति से एक प्रक्रिया शुरू होती है – cGAMP प्रकट होता है जो स्टिंग को उकसाता है, स्टिंग IRF3 को टाइप-1 इंटरफेरॉन व सम्बंधित जीन्स को सक्रिय करने को धकेलता है।
इतना हो जाने के बाद चेन यह जानना चाहते थे कि वह कौन-सा एंज़ाइम है जो cGAMP का निर्माण करवाता है। इसके लिए उन्होंने ऐसी कोशिकाएं लीं जो डीएनए [DNA] के उकसावे पर cGAMP बनाती हों। इनका चूर्ण बनाकर उनके घटकों को अलग-अलग कर लिया। फिर हर नमूने का परीक्षण किया कि क्या वह डीएनए की उपस्थिति में cGAMP बनवा सकता है। ऐसा कई बार करने के बाद चेन को तीन ऐसे प्रोटीन मिले जिनकी मात्रा उन नमूनों में अधिक होती थी जिनमें एंज़ाइम की सक्रियता भी सबसे अधिक दिखती थी।
इन तीन प्रोटीन में से एक का अनुमानित अमीनो अम्ल अनुक्रम खास तौर से रोमांचक था। यह एक अन्य एंज़ाइम 2´-5´-ओलिगोएडिनायलेट सिंथेज़ से मिलता-जुलता था। यह एंज़ाइम सायक्लिक AMP [cyclic AMP] का निर्माण करवाता है। गौरतलब है कि सायक्लिक AMP एक संकेतक अणु है। चेन का तर्क था कि यह नया-नया खोजा गया प्रोटीन लगभग एडिनायलेट सायक्लेज़ [adenylate cyclase] के समान का काम करेगा; अंतर सिर्फ इतना होगा कि यह दो ATP को जोड़ने की बजाय एक GTP और एक ATP को जोड़कर cGAMP का निर्माण करवाएगा।
तब चेन ने इस प्रोटीन के लिए ज़िम्मेदार जीन पृथक किया जिसे उन्होंने नाम दिया है – GMP-AMP सिंथेज़ (cGAS) [GMP-AMP synthase]. वे यह भी दर्शा पाए कि cGAS का अति-उत्पादन उन कोशिकाओं में इंटरफेरॉन-β [interferon-beta] के निर्माण को प्रेरित करता है जिनमें स्टिंग [STING] उपस्थित हो। लेकिन स्टिंग न हो तो इसका कोई असर नहीं होता। यह भी देखा गया है कि इसके उन हिस्सों को बदल दिया जाए जो उत्प्रेरण के लिए महत्वपूर्ण हैं तो यह अपनी क्षमता गंवा देता है।
तरह-तरह से चेन ने दर्शाया है कि मानव तथा चूहा कोशिकाओं के कोशिका द्रव्य में डीएनए या वायरल डीएनए [viral DNA] से संपर्क होने पर cGAMP के निर्माण तथा इंटरफेरॉन-β को उकसाने के लिए cGAS की उपस्थिति अनिवार्य है। वे यह भी पता लगा पाए हैं कि cGAS डीएनए से जुड़ जाता है और आगे की क्रियाएं संपन्न करवाता है।
कोशिका द्रव्य में डीएनए कई स्रोतों से आ सकता है। जैसे किसी सूक्ष्मजीव [microorganism] के साथ या केंद्रक अथवा माइटोकॉण्ड्रिया [mitochondria] में से रिसाव के कारण। कोशिका द्रव्य में उपस्थित डीएनए cGAS से जुड़ जाता है और cGAMP का उत्पादन शुरू करवा देता है। यह cGAMP स्टिंग के ज़रिए TANK-बाइंडिंग काइनेज़ (TBK1) तथा IκB काइनेज़ नामक एंज़ाइमों को सक्रिय कर देता है। इसके बाद दो अन्य एंज़ाइम सक्रिय हो जाते हैं और दोनों केंद्रक में पहुंचकर शोथ को बढ़ावा देने वाले जीन्स को सक्रिय कर देते हैं। इनमें टाइप-1 इंटरफेरॉन [type-1 interferon] का जीन भी होता है जो जन्मजात प्रतिरक्षा प्रणाली [innate immune system] को उकसाता है। यह प्रतिक्रिया रोगजनक सूक्ष्मजीवों [pathogens] से तो बचाव करती है लेकिन कुछ मामलों में स्व-प्रतिरक्षा तकलीफों और शोथ सम्बंधी गड़बड़ियों का भी कारण बन सकती है।
चेन के इस काम ने एक नया अनुसंधान क्षेत्र खोल दिया। कुछ ही महीनों में चेन व अन्य वैज्ञानिकों ने cGAS की संरचना का खुलासा किया और यह भी पता कर लिया कि डीएनए उसे सक्रिय कैसे करता है। यह भी स्पष्ट हुआ कि cGAMP कैसे स्टिंग को सक्रिय कर देता है।
अपने काम को आगे बढ़ाते हुए चेन ने यह भी स्पष्ट किया कि cGAS→cGAMP→STING क्रियामार्ग सिर्फ डीएनए वायरसों [DNA viruses] को ही नहीं ताड़ता बल्कि एच.आई.वी. [HIV] जैसे रिट्रोवायरसों को भी ताड़ लेता है। रिट्रोवायरसों की जेनेटिक सामग्री डीएनए [DNA] के रूप में नहीं बल्कि आरएनए [RNA] के रूप में होती है। मेज़बान कोशिका में प्रवेश के बाद वायरस के आरएनए को डीएनए में बदला जाता है। वैसे तो ये रिट्रोवायरस जन्मजात प्रतिरक्षा तंत्र को चकमा देने के लिए बदनाम हैं लेकिन कुछ फेरबदल एच.आई.वी. को इस तरह बदल सकते हैं कि वह टाइप-1 इंटरफेरॉन [type-1 interferon] व अन्य सम्बंधित अणुओं की हलचल पैदा कर सकता है। इनमें एक तरीका यह है कि वायरस के आवरण (कैप्सिड) को कमज़ोर बना दिया जाए। चेन ने दर्शाया कि कतिपय परिस्थितियों में cGAS एच.आई.वी. व अन्य रिट्रोवायरसों को भी ताड़ सकता है। इससे यह आशा पैदा हुई है कि cGAMP के उपयोग से एच.आई.वी. द्वारा प्रतिरक्षा तंत्र को चकमा देने की समस्या से बचाव संभव होगा।
चेन ने इन प्रयोगों को परखनलियों के अलावा वास्तविक जंतुओं में भी करके देखा। पता चला कि डीएनए वायरस [DNA viruses] से संक्रमित करने पर cGAS-रहित कृंतकों में इंटरफेरॉन [interferon] आधारित प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया निहायत कमज़ोर रही और अधिकांश मारे गए जबकि जिन चूहों में cGAS सामान्य मात्रा में था, उनकी प्रतिरक्षा अधिक सुदृढ़ रही। cGAMP इंजेक्शन [cGAMP injection] ने भी अच्छा असर दिखाया। इसका अर्थ है कि यह अणु एंटीबॉडी [antibodies] और टी-कोशिका प्रतिक्रिया [T-cell response] को सुदृढ़ करता है।
धीरे-धीरे स्पष्ट हुआ है कि cGAS जंतुओं में डीएनए वायरस को ताड़कर जन्मजात प्रतिरक्षा को शुरू करवाता है। इस समझ के आधार पर न सिर्फ सूक्ष्मजीवी संक्रमण [microbial infections] के खिलाफ लड़ाई के रास्ते खुले हैं बल्कि कैंसर से रक्षा [cancer protection] की आशा भी जगी है।
शोथ को बढ़ावा
यह सही है कि जन्मजात प्रतिरक्षा तंत्र [innate immune system] घुसपैठियों से निपटकर फायदा पहुंचाती है लेकिन इसका एक नकारात्मक पक्ष तब सामने आता है जब शरीर स्वयं पर आक्रमण करने लगता है। वैज्ञानिकों का अनुमान था कि इसका कारण एक एंज़ाइम Trex1 में गड़बड़ी से है। यह एंज़ाइम कोशिका द्रव्य में पाए गए डीएनए को नष्ट कर देता है। इन्हें स्व-प्रतिरक्षी रोग [autoimmune diseases] कहते हैं। इन रोगों में इंटरफेरॉन-प्रेरित जीन्स [interferon-induced genes] की अति सक्रियता देखी गई है।
इन अध्ययनों से पता चलता था कि कोशिका द्रव्य में पाए गए डीएनए को नष्ट करने में असमर्थता इंटरफेरॉन क्रियामार्ग [interferon pathway] को सक्रिय कर देती है। जिन चूहों में Trex1 जीन नहीं होता उनमें इंटरफेरॉन-प्रेरित जीन अति-उत्तेजित हो जाता है और वे गंभीर शोथ के कारण जल्दी मर जाते हैं।
इस मामले में चेन ने 2015 में दर्शाया कि Trex1 विहीन चूहों में cGAS एंज़ाइम को हटा देने पर Trex1 की अनुपस्थिति के जानलेवा असर समाप्त हो जाते हैं। इससे स्पष्ट हुआ कि Trex1 की अनुपस्थिति में cGAS एंज़ाइम ही जानलेवा असर का पैदा करता है और यदि cGAS को रोक दिया जाए तो कुछ स्व-प्रतिरक्षा रोगों से बचाव हो सकता है।
स्व-प्रतिरक्षा तकलीफों के अलावा cGAS को शोथ सम्बंधी बीमारियों [inflammatory diseases] में भी लिप्त पाया गया है। इनमें उम्र के साथ आंखों में मैक्यूलर ह्रास [macular degeneration], पार्किंसन [Parkinson’s], अल्ज़ाइमर [Alzheimer’s], और एमायोट्रॉफिक लेटरल स्क्लेरोसिस (ALS) जैसे रोग शामिल हैं। लिहाज़ा, cGAS→cGAMP→STING क्रियामार्ग को बाधित करके संभवत: इन रोगों पर काबू पाया जा सकेगा।
इन संभावनाओं के मद्देनज़र कई दवा कंपनियां cGAS को बाधित करने के लिए दवाइयों की खोज में जुट गई हैं। लेकिन इस पक्ष पर भी ध्यान देना ज़रूरी है कि cGAS ही प्रतिरक्षा की प्रथम पंक्ति को तैनात करवाता है एवं ट्यूमर-रोधी प्रतिरक्षा [tumor immunity] में भी योगदान देता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.pnas.org/cms/10.1073/pnas.2415810121/asset/ee6cd1ce-017e-431b-93dd-457bc37f3ef5/assets/images/large/pnas.2415810121unfig01.jpg
शोधकर्ता लंबे समय से प्लेसिबो प्रभाव (Placebo) से हैरान हैं। प्लेसिबो का मतलब है कि किसी मरीज़ को दवा के नाम पर कोई गोली दी जाए (Placebo Pill) और इससे मरीज़ को तकलीफ से राहत महसूस हो। सवाल यह रहा है कि किसी औषधि के बिना भी राहत कैसे मिलती है। हाल ही में चूहों पर हुए एक अध्ययन (Research on Mice) से इस घटना के पीछे मस्तिष्क तंत्र सम्बंधित नई जानकारी प्राप्त हुई है।
नेचर पत्रिका (Nature Journal) में प्रकाशित एक अध्ययन में, वैज्ञानिकों ने चूहों में दर्द-राहत (Pain Management) को समझने के लिए मस्तिष्क की गतिविधि को समझने का प्रयास किया है, जिससे मानव प्लेसिबो प्रभाव (Human Placebo Effect) को भी समझने में मदद मिल सकती है। शोधकर्ताओं ने पाया कि मस्तिष्क के सेरिबेलम (Cerebellum) और ब्रेनस्टेम (Brainstem) नामक हिस्से, जिन्हें आम तौर पर शारीरिक गतियों (Motor Coordination) से जुड़ा माना जाता है, दर्द के अनुभव और राहत में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
हारवर्ड विश्वविद्यालय के तंत्रिका विज्ञानी क्लिफर्ड वूल्फ के अनुसार इस अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ है कि प्लेसिबो प्रभाव एक वास्तविक परिघटना है।
पूर्व में मनुष्यों पर किए गए इमेजिंग अध्ययनों से पता चला है कि प्लेसिबो-आधारित दर्द निवारण ब्रेनस्टेम और एंटीरियर सिंगुलेट कॉर्टेक्स (Anterior Cingulate Cortex) में तंत्रिका-सक्रियता से सम्बंधित है। इस पर अधिक जांच करते हुए चैपल हिल स्थित उत्तरी कैरोलिना विश्वविद्यालय के तंत्रिका-जीव वैज्ञानिक ग्रेगरी शेरर और उनकी टीम ने चूहों में दर्द निवारण के लिए प्लेसिबो जैसा प्रभाव उत्पन्न करने के उद्देश्य से एक प्रयोग विकसित किया।
उन्होंने कुछ चूहों को इस तरह तैयार किया कि वे प्लेसिबोनुमा दर्द निवारण की अपेक्षा (Pain Relief Expectation) करने लगें। उन चूहों को सिखाया गया कि तपते गर्म फर्श वाले प्रकोष्ठ से हल्के गर्म फर्श वाले प्रकोष्ठ में जाने से राहत मिलती है। इसके बाद प्रयोग में दोनों फर्शों को अत्यधिक गर्म (Extreme Heat) रखा गया। इसके बावजूद चूहों ने जब उस कक्ष में प्रवेश किया जो पहले ठंडा (Cold Room) रखा गया था, तो उन्होंने दर्द-सम्बंधी व्यवहार कम दर्शाया जबकि अब उसका फर्श भी दर्दनाक स्तर तक गर्म था।
लाइव-इमेजिंग टूल (Live-Imaging Tool) का उपयोग करते हुए, शोधकर्ताओं ने प्रयोग के दौरान सक्रिय तंत्रिकाओं की पहचान की। इसमें एक प्रमुख क्षेत्र पोंटाइन न्यूक्लियस (Pontine Nucleus) का पता चला जो ब्रेनस्टेम का एक हिस्सा है और पूर्व में दर्द से सम्बंधित नहीं माना जाता था। Pn सेरेब्रल कॉर्टेक्स को सेरेबेलम से जोड़ता है। इन तंत्रिकाओं की गतिविधि को अवरुद्ध करने से चूहों ने गर्म फर्श पर दर्द से राहत पाने की कोशिश का व्यवहार ज़्यादा जल्दी दर्शाया – जैसे पंजा चाटना और पैर को फर्श से दूर करना। इससे पता चलता है कि वे दर्द में वृद्धि का अनुभव कर रहे थे। दूसरी ओर, सक्रिय Pn न्यूरॉन्स वाले चूहों ने ऐसा व्यवहार देरी से दर्शाया था।
Pn तंत्रिकाओं के आगे विश्लेषण से पता चला कि 65 प्रतिशत तंत्रिका कोशिकाओं में ओपियोइड ग्राही (Opioid Receptors) थे, जो शरीर में प्राकृतिक रूप से बनने वाले दर्द निवारकों (Endogenous Painkillers) और शक्तिशाली दर्द दवाओं (Strong Analgesics) पर प्रतिक्रिया करते हैं। ये तंत्रिका कोशिकाएं सेरिबेलम के तीन हिस्सों में फैली हुई होती हैं। यह दर्द से राहत की अपेक्षा (Placebo Effect) में इस क्षेत्र की एक नई भूमिका दर्शाती हैं।
इस खोज से दर्द के उपचार (Pain Therapy) को समझने और विकसित करने के तरीके में बड़ा बदलाव लाया जा सकता है। वूल्फ का सुझाव है कि यह अध्ययन प्लेसिबो गोलियों पर निर्भर हुए बिना, शरीर के अपने दर्द नियंत्रण तंत्र (Pain Control Mechanisms) को अधिक मज़बूती से सक्रिय करने के तरीके खोजने में मदद कर सकता है।
इस शोध से यह समझने में भी मदद मिल सकती है कि संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा (Cognitive Behavioral Therapy) और ट्रांसक्रैनियल चुंबकीय उद्दीपन (Transcranial Magnetic Stimulation) जैसे कुछ दर्द उपचार (Pain Treatment Methods) क्यों प्रभावी हैं। इन मस्तिष्क परिपथों को समझने से अधिक लक्षित और प्रभावी दर्द निवारण विधियां तैयार की जा सकती हैं।
हालांकि, एक सवाल अभी भी बना हुआ है कि कौन सी चीज़ प्लेसिबो प्रभाव को शुरू करती है और यह व्यक्ति-दर-व्यक्ति (Person-to-Person) अलग-अलग क्यों है। वूल्फ ने इसे समझने के लिए अधिक शोध की आवश्यकता पर ज़ोर दिया है। (स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में नासा ने 3800 करोड़ रुपए के वाइपर मिशन (वोलेटाइल्स इन्वेस्टिगेटिंग पोलर एक्सप्लोरेशन रोवर) को रद्द कर दिया है। इस मिशन का उद्देश्य चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर बर्फ का मानचित्र तैयार करना और कुछ क्षेत्रों में बर्फ में ड्रिल करना था। मिशन को रद्द करने का कारण बजट की कमी, रोवर और उसके लैंडर के निर्माण में देरी व इसके चलते रोवर की बढ़ती लागत, और अतिरिक्त परीक्षण व्यय बताए गए हैं।
गौरतलब है कि वाइपर मिशन नासा के व्यावसायिक लूनर पेलोड सर्विसेज़ (सीएलपीएस) कार्यक्रम का हिस्सा था, जो चंद्रमा पर वैज्ञानिक उपकरण भेजने के लिए निजी एयरोस्पेस कंपनियों के साथ मिल-जुलकर काम कर रहा था। इसके लिए 3640 करोड़ रुपए का आवंटन हुआ था और 2023 में प्रक्षेपित करने की योजना थी। वाइपर को एक कंपनी एस्ट्रोबोटिक टेक्नॉलॉजी के ग्रिफिन यान की मदद से भेजा जाना था। उद्देश्य चंद्रमा की बर्फ में दबी रासायनिक जानकारी को उजागर करने व सौर मंडल की उत्पत्ति को समझने के अलावा भविष्य के चंद्रमा मिशनों के लिए संसाधनों की व्यवस्था के लिए चंद्रमा के ठंडे, अंधेरे क्षेत्रों से बर्फ का नमूना प्राप्त करना था।
अलबत्ता, निर्माण में देरी ने प्रक्षेपण को 2025 के अंत तक धकेल दिया, जिससे मिशन की लागत करीब 1500 करोड़ रुपए तक बढ़ गई। लागत में वृद्धि की आंतरिक समीक्षा के बाद मिशन को रद्द कर दिया गया।
एक कारण यह भी बताया जा रहा है कि 50 वर्षों के अंतराल के बाद पहले अमेरिकी चंद्रमा लैंडर वाइपर का निर्माण एस्ट्रोबोटिक टेक्नॉलॉजी नामक कंपनी को करना था। इस कंपनी का पेरेग्रीन अंतरिक्ष यान प्रोपेलर लीक होने के कारण अनियंत्रित हो गया था और चंद्रमा की धरती तक पहुंचने में विफल रहा था। इससे वाइपर को सुरक्षित रूप से चांद पर पहुंचाने की एस्ट्रोबोटिक की क्षमता पर संदेह पैदा हुआ।
इन असफलताओं के बावजूद, एस्ट्रोबोटिक अगले साल अपने ग्रिफिन चंद्रमा लैंडर को लॉन्च करने की तैयारी कर रहा है और वह कोशिश कर रहा है कि उसे चंद्रमा पर पहुंचाने हेतु अन्य उपकरण मिल जाएं। इसके लिए वह अन्य अन्वेषकों से प्रस्ताव आमंत्रित कर रहा है।
गौरतलब है कि मिशन रद्द करने की घोषणा ऐसे समय पर हुई जब वाइपर ने अंतरिक्ष की कठोर परिस्थितियों का सामना करने के लिए परीक्षण शुरू ही किया था। फिलहाल, नासा भविष्य के मिशनों के लिए रोवर या उसके पुर्ज़ों का उपयोग करने में रुचि रखने वाले भागीदारों की तलाश में है। यदि कोई उपयुक्त प्रस्ताव प्राप्त नहीं होता है तो रोवर को खोलकर उसके पुर्ज़ों का फिर से इस्तेमाल किया जाएगा। हालांकि, कई विशेषज्ञ रोवर को नष्ट करने के बजाय इसे सहेजने का सुझाव देते हैं।
वाइपर मिशन के रद्द होने के बावजूद, नासा चंद्रमा पर पानी और बर्फ की खोज के लिए प्रतिबद्ध है। पोलर रिसोर्सेज़ आइस माइनिंग एक्सपेरीमेंट-1 (प्राइम-1) को इस साल के अंत में इंट्यूटिव मशीन द्वारा निर्मित एक व्यावसायिक लैंडर पर चंद्रमा मिशन के लिए निर्धारित किया गया है। (स्रोत फीचर्स)
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