भारत में नियंत्रित मानव संक्रमण मॉडल की आवश्यकता – मनीष मनीष और स्मृति मिश्रा

ज विज्ञान इस स्तर तक पहुंच चुका है कि मलेरिया और टाइफाइड जैसी संक्रामक बीमारियों का इलाज मानक दवाइयों के नियमानुसार सेवन से किया जा सकता है। हालांकि भारत में अतिसंवेदनशील आबादी तक अच्छी स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में अभी भी मलेरिया के कारण मौतें हो रही हैं। एक अप्रभावी उपचार क्रम एंटीबायोटिक-रोधी किस्मों को जन्म दे सकता है। यह आगे चलकर देश की जटिल स्वास्थ्य सम्बंधी चुनौतियों को और बढ़ा देगा।

भारत में रोग निरीक्षण सहित वर्तमान स्वास्थ्य सेवा प्रणाली अभी भी मध्य युग में हैं। भारत ने आर्थिक रूप से और अंतरिक्ष अन्वेषण जैसे कुछ अनुसंधान क्षेत्रों में बेहद उन्नत की है। किंतु विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की मलेरिया रिपोर्ट 2017 के अनुसार, भारतीय मलेरिया रोग निरीक्षण प्रणाली केवल 8 प्रतिशत मामलों का पता लगा पाती है, जबकि नाइजीरिया की प्रणाली 16 प्रतिशत मामलों का पता लगा लेती है। इसलिए भारत सरकार बीमारी के वास्तविक बोझ का अनुमान लगाने और उसके आधार पर संसाधन आवंटन करने में असमर्थ है। जबकि किसी भी अन्य राष्ट्र की तरह, भारत को भी सतत विकास के लिए एक स्वस्थ आबादी की आवश्यकता है।

भारत टीकों का सबसे बड़ा निर्माता है। भारत सरकार का राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम, हाल ही में शुरू किए गए इंद्रधनुष कार्यक्रम सहित, एक मज़बूत प्रणाली है जिसने स्वच्छता एवं स्वास्थ्य सेवा के कमतर स्तर, उच्च तापमान, बड़ी विविधतापूर्ण आबादी और भौगोलिक परिस्थितियों के बावजूद सफलतापूर्वक पोलियो उन्मूलन का लक्ष्य हासिल किया है। इसके अलावा, भारत सरकार द्वारा टीकाकरण क्षेत्र को मज़बूत करने के लिए विभिन्न शोध कार्यक्रम शुरू किए जा रहे हैं, जैसे इम्यूनाइज़ेशन डैटा: इनोवेटिंग फॉर एक्शन (आईडीआईए)।

भारत में मूलभूत अनुसंधान उस स्थिति में पहुंच चुका है, जहां वह विकास की चुनौती के बावजूद सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार समाधान विकसित कर सकता है। अकादमिक शोध में कम से कम तीन संभावित मलेरिया वैक्सीन तैयार हुए हैं, जबकि एक भारतीय कंपनी (भारत बायोटेक) द्वारा हाल ही में डब्ल्यूएचओ प्रीक्वालिफाइड टाइफाइड वैक्सीन विकसित किया गया है। अलबत्ता, आश्चर्य की बात तो यह है कि इस डब्ल्यूएचओ प्रीक्वालिफाइड टाइफाइड वैक्सीन की रोकथाम-क्षमता का डैटा ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में नियंत्रित मानव संक्रमण मॉडल (CHIM) का उपयोग करके हासिल किया गया है। इसका कारण यह हो सकता है कि भारत में नैदानिक परीक्षण व्यवस्था कमज़ोर और जटिल है।

भारत की पारंपरिक नैदानिक परीक्षण व्यवस्था बहुत जटिल है। 2005 के बाद से चिकित्सा शोध पत्रिका संपादकों की अंतर्राष्ट्रीय समिति मांग करती है कि किसी भी क्लीनिकल परीक्षण का पूर्व-पंजीकरण (यानी प्रथम व्यक्ति को परीक्षण में शामिल करने से पहले पंजीकरण) किया जाए ताकि प्रकाशन में पक्षपात को रोका जा सके। हालांकि भारत की क्लीनिकल परीक्षण रजिस्ट्री अभी भी परीक्षण के बाद किए गए पंजीकरण को स्वीकार करती है। ह्रूमन पैपिलोमा वायरस (एचपीवी) वैक्सीन के क्लीनिकल परीक्षण पर काफी हल्ला-गुल्ला हुआ था जिसके चलते संसदीय स्थायी समिति और एक विशेषज्ञ समिति द्वारा जांच हुई, मीडिया में काफी चर्चा हुई और सबसे महत्वपूर्ण बात यह हुई कि सार्वजनिक विश्वास में गिरावट आई। भारत में एचपीवी परीक्षणों की जांच करने वाली विशेषज्ञ समिति ने पाया कि गंभीर घटनाओं का पता लगाने में हमारी क्लीनिकल अनुसंधान प्रणाली विफल है।

टीकों के उपयोग से रोग का प्रकोप कम हो जाता है जिसके चलते दवा का उपयोग कम करना पड़ता है। इस प्रकार टीकाकरण एंटीबायोटिक प्रतिरोध की समस्या को भी कम कर सकता है। भारत में बेहतर टीकाकरण कार्यक्रम, वैक्सीन उत्पादन सुविधाओं और बुनियादी वैक्सीन अनुसंधान को देखते हुए, सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भारत में वैक्सीन विकास को किस तरह तेज़ किया जा सकता है? जब हमारे पास टीके की रोकथाम-क्षमता पर पर्याप्त डैटा न हो तो क्या हम एक बड़ी आबादी को एक संभावित टीका देने का खतरा मोल ले सकते हैं? या क्या यह बेहतर होगा कि पहले अत्यधिक नियंत्रित परिस्थिति में टीके की रोकथाम-क्षमता का मूल्यांकन किया जाए और फिर बड़ी जनसंख्या पर परीक्षण शुरू किए जाएं?

सीएचआईएम (मलेरिया के लिए, नियंत्रित मानव मलेरिया संक्रमण, सीएचएमआई) एक संभावित वैक्सीन की रोकथाम-क्षमता का ठीक-ठाक मूल्यांकन करने के लिए एक मंच प्रदान करता है, जिसमें बड़े परीक्षण की ज़रूरत नहीं है। सीएचएमआई में ‘नियंत्रित’ शब्द अत्यधिक नियंत्रित परिस्थिति का द्योतक है। जैसे भलीभांति परिभाषित परजीवी स्ट्रेन, संक्रमण उन्मूलन के लिए प्रभावी दवा और कड़ी निगरानी के लिए अत्यधिक कुशल निदान प्रणाली। ‘संक्रमण’ शब्द से आशय है कि परीक्षण के दौरान संक्रमण शुरू किया जाएगा, बीमारी नहीं। शब्द ‘मानव’ का मतलब है कि प्रयोग इंसानों पर होंगे जैसा कि किसी भी क्लीनिकल टीका अनुसंधान में रोकथाम-क्षमता के आकलन में किया जाता है।

अमेरिका, ब्रिाटेन, जर्मनी, तंजानिया और केन्या जैसे कई देशों में सीएचआईएम अध्ययन करने की क्षमता विकसित की गई है। संयुक्त राज्य अमेरिका में पिछले 25 वर्षों से सीएचएमआई परीक्षण में 1000 से अधिक वालंटियर्स ने भाग लिया है और कोई प्रतिकूल घटना सामने नहीं आई है। पहले संक्रामक बीमारी के लिए हम ज़्यादातर दवाइयां/टीके बाहर से मंगाते थे, लेकिन स्थिति तेज़ी से बदल रही है। उदाहरण के लिए भारत में रोटावायरस टीके का विकास हुआ है। 

यह सही है कि स्वदेशी समाधान विकसित करने की बजाय आयात करना हमेशा आसान होता है लेकिन यदि पोलियो टीका भारत में विकसित किया गया होता, तो हम एक पीढ़ी पहले पोलियो से मुक्त हो सकते थे। भारत में सीएचआईएम अध्ययन विकसित करने के लिए कड़ी मेहनत की आवश्यकता होगी। वर्तमान स्थिति में, यह मलेरिया और टाइफाइड जैसी बीमारियों के लिए किया जा सकता है लेकिन शायद ज़ीका, डेंगू और टीबी के लिए नहीं। अलबत्ता, यदि उच्चतम मानकों को पालन नहीं किया जा सकता है तो बेहतर होगा कि सीएचआईएम अध्ययन न किए जाएं।

सीएचआईएम में सबसे बड़ी बाधा लोगों की धारणा की है। इस धारणा को केवल तभी संबोधित किया जा सकता है जब हम सीएचआईएम अध्ययन के लिए वैज्ञानिक, नैतिक और नियामक ढांचा विकसित कर सकें जिसमें बुनियादी अनुसंधान, क्लीनिकल अनुसंधान, नैतिकता, विनियमन, कानून और सामाजिक विज्ञान में सर्वश्रेष्ठ विशेषज्ञता का समावेश हो। यह भी सुनिश्चित करना होगा कि यह ढांचा सीएचआईएम के लिए उच्चतम मानकों को परिभाषित करे। मीडिया को उनकी मूल्यवान आलोचना और कार्यवाही के व्यापक पारदर्शी प्रसार की अनुमति दी जानी चाहिए।

इसकी शुरुआत किसी सरकारी संगठन द्वारा की जानी चाहिए ताकि जनता में यह संदेह पनपने से रोका जा सके कि यह दवा कंपनियों द्वारा वाणिज्यिक लाभ के लिए किया जा रहा है। एक या दो उत्कृष्ट अकादमिक संस्थानों को चुना जाना चाहिए और सीएचआईएम अध्ययन करने की क्षमता विकसित की जानी चाहिए। चूंकि संक्रामक बीमारियां निरंतर परिवर्तनशील हैं, भारत में सीएचआईएम अध्ययन पर चर्चा के लिए गहन प्रयासों की तत्काल आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक लाख वर्षों से बर्फ के नीचे छिपे महासागर की खोज

जुलाई 2017 में, अंटार्कटिक प्रायद्वीप के पूर्वी भाग में लार्सन सी आइस शेल्फ से एक विशाल हिमखंड टूट गया था। इसके टूटने के साथ ही वर्षों से बर्फ के नीचे ओझल समुद्र की एक बड़ी पट्टी सामने आ गई। इस समुद्र में जैव विकास और समुद्री जीवों की गतिशीलता तथा जलवायु परिवर्तन के प्रति उनकी प्रतिक्रिया के सुराग मिल सकते हैं।

जर्मनी के अल्फ्रेड वेगेनर इंस्टीट्यूट फॉर पोलर एंड मरीन रिसर्च के वैज्ञानिक बोरिस डोर्सेल के नेतृत्व में 45 वैज्ञानिकों की एक अंतर्राष्ट्रीय टीम इस समुद्र की खोजबीन के लिए रवाना होने की योजना बना रही है। किंतु इस दूरस्थ क्षेत्र तक पहुंचना और इतने कठिन मौसम में शोध करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है, अलबत्ता यह काफी रोमांचकारी भी होगा।

लार्सन सी से अलग हुआ बर्फ का यह टुकड़ा 5,800 वर्ग किलोमीटर का है और 200 किलोमीटर उत्तर की ओर बह चुका है। वैज्ञानिक यह जानने को उत्सुक हैं कि कौन-सी प्रजातियां बर्फ के नीचे पनप सकती हैं, और उन्होंने अचानक आए इस बदलाव का सामना कैसे किया होगा। छानबीन के लिए पिछले वर्ष कैंब्रिज विश्वविद्यालय की जीव विज्ञानी कैटरीन लिनसे की टीम का वहां पहुंचने का प्रयास समुद्र में जमी बर्फ के कारण सफल नहीं हो पाया था। परिस्थिति अनुकूल होने पर नई टीम वहां समुद्र और समुद्र तल के नमूने तो ले पाई, लेकिन ज़्यादा आगे नहीं जा पाई।

अल्फ्रेड वेगेनर इंस्टीट्यूट द्वारा संचालित पोलरस्टर्न जर्मनी का प्रमुख ध्रुवीय खोजी पोत है और दुनिया में सबसे अच्छा सुसज्जित अनुसंधान आइसब्रोकर है। इसमें मौजूद दो हेलीकॉप्टर सैटेलाइट इमेजरी और उड़ानों का उपयोग करके बर्फ की चादर में जहाज़ का मार्गदर्शन करेंगे।

यदि बर्फ और मौसम की स्थिति सही रहती है तो टीम कुछ ही दिनों में वहां पहुंच सकती है। वहां दक्षिणी गर्मियों और विभिन्न आधुनिक उपकरणों की मदद से वैज्ञानिकों को काफी समय मिल जाएगा जिससे वे समुद्र के जीवों और रसायन के नमूने प्राप्त कर सकेंगे। टीम का अनुमान है कि वेडेल सागर जैसे गहरे समुद्र का पारिस्थितिकी तंत्र बर्फ के नीचे अंधेरे में विकसित हुआ है।

यदि नई प्रजातियां इस क्षेत्र में बसना शुरू करती हैं, तो कुछ वर्षों के भीतर पारिस्थितिकी तंत्र में काफी बदलाव आ सकता है। गैस्ट्रोपोड्स और बाईवाल्व्स जैसे जीवों के ऊतक के समस्थानिक विश्लेषण से आइसबर्ग के टूटने के बाद से खाद्य  शृंखला में बदलाव का पता लगाया जा सकता है, क्योंकि जानवरों के ऊतकों में रसायनों की जांच से उनके आहार के सुराग मिल जाते हैं।

मानवीय गतिविधियों से अप्रभावित इस क्षेत्र से लिए जाने वाले नमूने शोधकर्ताओं के लिए एक अमूल्य संसाधन साबित होंगे। इस डैटा से वैज्ञानिकों को समुद्री समुदायों के विकास से जुड़े प्रश्नों को सुलझाने में तो मदद मिलेगी ही, यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि इस समुद्र के नीचे पाई जाने वाली ये प्रजातियां कितनी जल्दी बर्फीले क्षेत्र में रहने के सक्षम हो जाएंगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बीमारियों को सूंघने के लिए इलेक्ट्रॉनिक नाक

ह तो जानी-मानी बात है कि कुत्तों की सूंघने की क्षमता ज़बरदस्त होती है। मगर जिस इलेक्ट्रॉनिक नाक की बात हो रही है वह कुत्तों को सूंघने का काम करती है। यह इलेक्ट्रॉनिक नाक खास तौर से लेश्मानिएसिस नामक रोग से ग्रस्त कुत्तों को पहचानने के लिए विकसित की गई है। इस रोग को भारत में कालाज़ार या दमदम बुखार के नाम से भी जाना जाता है।

लेश्नानिएसिस एक रोग है जो कुत्तों और इंसानों में एक परजीवी लेश्मानिया की वजह से फैलता है और इस परजीवी की वाहक एक मक्खी (सैंड फ्लाई) है। मनुष्यों में इस रोग के लक्षणों में वज़न घटना, अंगों की सूजन, बुखार वगैरह होते हैं। कुत्तों में दस्त, वज़न घटना तथा त्वचा की तकलीफें दिखाई देती हैं। सैंड फ्लाई इस रोग के परजीवियों को कुत्तों से इंसानों में फैलाने का काम करती है। यह रोग ब्राज़ील में ज़्यादा पाया जाता है और इसका प्रकोप लगातार बढ़ रहा है।

इलेक्ट्रॉनिक नाक दरअसल वाष्पशील रसायनों का विश्लेषण करने का उपकरण है। इसमें नमूने के वाष्पशील रसायनों के द्वारा उत्पन्न वर्णक्रम के आधार पर उनकी पहचान की जाती है। फिलहाल स्वास्थ्य विभाग के पास लेश्मानिएसिस की जांच के लिए जो तरीका है उसमें काफी समय लगता है। इलेक्ट्रॉनिक नाक इसमें मददगार हो सकती है।

पिछले दिनों शोधकर्ताओं ने 16 लेश्मानिया पीड़ित कुत्तों और 185 अन्य कुत्तों के बालों के नमूनों पर प्रयोग किया। इन बालों को एक पानी भरी थैली में रखकर गर्म किया गया ताकि इनमें उपस्थित वाष्पशील रसायन वाष्प बन जाएं। इसके बाद प्रत्येक नमूने का विश्लेषण इलेक्ट्रॉनिक नाक द्वारा किया गया। ई-नाक ने लेश्मानिएसिस पीड़ित कुत्तों की पहचान 95 प्रतिशत सही की। अब इसे और सटीक बनाने के प्रयास चल रहे हैं।

वैज्ञानिकों का मानना है कि जल्दी ही इलेक्ट्रॉनिक नाक रोग निदान का एक उम्दा उपकरण साबित होगा। उम्मीद तो यह है कि इसका उपयोग मलेरिया, मधुमेह जैसे अन्य रोगों की पहचान में भी किया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

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नैनोपार्टिकल से चूहे रात में देखने लगे

वैज्ञानिकों ने माउस (एक किस्म का चूहा) की आंखों में कुछ परिवर्तन करके उन्हें रात में देखने की क्षमता प्रदान करने में सफलता प्राप्त की है। किया यह गया है कि इन चूहों की आंख में कुछ अतिसूक्ष्म कण (नैनोकण) जोड़े गए हैं जो अवरक्त प्रकाश को दृश्य प्रकाश में बदल देते हैं।

आंखों में प्रकाश को ग्रहण करके उसे विद्युतीय संकेतों में बदलने का काम रेटिना में उपस्थित प्रकाश ग्राही कोशिकाओं द्वारा किया जाता है। जब ये संकेत मस्तिष्क में पहुंचते हैं तो वहां इन्हें दृश्य के रूप में परिवर्तित कर दिया जाता है। रेटिना पर विभिन्न किस्म के प्रकाश ग्राही होते हैं जो अलग-अलग रंग के प्रकाश के प्रति संवेदनशील होते हैं। मनुष्यों में तीन प्रकार के प्रकाश संवेदी रंजक पाए जाते हैं जो हमें रंगीन दृष्टि प्रदान करते हैं और एक रंजक होता है जो काले और सफेद के बीच भेद करने में मदद करता है। यह वाला रंजक खास तौर से कम प्रकाश में सक्रिय होता है। इसके विपरीत चूहों में तथा कुछ वानरों में मात्र दो रंगीन रंजक होते हैं और एक रंजक मद्धिम प्रकाश के लिए होता है।

पहले वैज्ञानिकों ने चूहों में तीसरे रंजक का जीन जोड़कर उन्हें मनुष्यों के समान दृष्टि प्रदान की थी। मगर यह पहली बार है कि किसी जंतु को अवरक्त यानी इंफ्रारेड प्रकाश को देखने में सक्षम बनाया गया है। आम तौर पर प्रकाश का अवरक्त हिस्सा गर्मी पैदा करने के लिए ज़िम्मेदार होता है।

हेफाई स्थित चीनी विज्ञान व टेक्नॉलॉजी विश्वविद्यालय के ज़्यू तिएन ने मैसाचुसेट्स मेडिकल स्कूल के गांग हान के साथ मिलकर उपरोक्त अनुसंधान किया है। हान ने कुछ समय पहले ऐसे नैनोकण विकसित किए थे जो अवरक्त प्रकाश को नीले प्रकाश में तबदील कर सकते हैं। इस सफलता से प्रेरित होकर हान और ज़्यू ने सोचा कि यदि ऐसे नैनोकण चूहों के प्रकाश ग्राहियों में जोड़ दिए जाएं तो वे रात में भी देख सकेंगे।

अगला कदम यह था कि नैनोकणों में इस तरह के परिवर्तन किए गए कि वे अवरक्त प्रकाश को नीले की बजाय हरे प्रकाश में तबदील करें। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि जंतुओं के हरे प्रकाश ग्राही नीले की अपेक्षा ज़्यादा संवेदनशील होते हैं। इसके बाद इन नैनोकणों पर एक ऐसे प्रोटीन का आवरण चढ़ाया गया जो प्रकाश ग्राही कोशिकाओं की सतह पर उपस्थित एक शर्करा अणु से जुड़ जाता है। जब ये नैनोकण चूहों के रेटिना के पिछले भाग में इंजेक्ट किए गए तो ये प्रकाश ग्राही कोशिकाओं से जुड़ गए और 10 हफ्तों तक जुड़े रहे। और परिणाम आशा के अनुरूप रहे। चूहों की आंखें अवरक्त प्रकाश के प्रति वैसी ही प्रतिक्रिया देने लगी जैसी वह दृश्य प्रकाश के प्रति देती है। इसके अलावा रेटिना और मस्तिष्क के दृष्टि सम्बंधी हिस्से में विद्युतीय सक्रियता देखी गई। इसके बाद इन चूहों को सामान्य दृष्टि सम्बंधी परीक्षणों से गुज़ारा गया और यह स्पष्ट हो गया कि वे अंधेरे में देख पा रहे थे।

सेल में प्रकाशित इस पर्चे के निष्कर्षों की चर्चा करते हुए ज़्यू ने कहा है कि उन्हें यकीन है कि यह मनुष्यों में कारगर होगा और यदि होता है तो सैनिकों को रात में बेहतर देखने की क्षमता प्रदान की जा सकेगी। इसके अलावा यह आंखों की कुछ खास दिक्कतों के संदर्भ में उपयोगी साबित होगा। (स्रोत फीचर्स)

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जीवन की बारहखड़ी में चार नए अक्षर

कुछ वर्ष पहले यह खबर आई थी कि वैज्ञानिकों ने आनुवंशिक पदार्थ डीएनए में 2 नए क्षार जोड़ने में सफलता प्राप्त की है। अब फ्लोरिडा स्थित फाउंडेशन फॉर एप्लाइड मॉलीक्यूलर इवॉल्यूशन के स्टीवन बेनर की टीम ने साइन्स में रिपोर्ट किया है कि उन्होंने आनुवंशिक अणु में चार नए क्षार जोड़ने में सफलता प्राप्त की है और यह नया डीएनए अणु कुदरती अणु के समान कई कार्य करने में सक्षम है और काफी स्थिर है।

दरअसल, किसी भी जीव की शारीरिक क्रियाएं प्रोटीन्स के दम पर चलती हैं। इन प्रोटीन्स के निर्माण का सूत्र डीएनए में होता है। डीएनए की रचना मूलत: चार क्षारों एडीनीन, ग्वानीन, सायटोसीन और थायमीन से बनी होती है। इन क्षारों की विशेषता है कि डीएनए में सदा एडीनीन के सामने थायमीन तथा सायटोसीन के सामने ग्वानीन होता है। इस प्रकार से यदि डीएनए की एक शृंखला मौजूद हो तो उसके अनुरूप दूसरी शृंखला बनाई जा सकती है। यही आनुवंशिक गुणों के हस्तांतरण की बुनियाद है। तीन-तीन क्षारों की तिकड़ियां एक-एक अमीनो अम्ल की द्योतक होती है। इस प्रकार से डीएनए अमीनो अम्लों की एक विशिष्ट शृंखला का निर्देश दे सकता है और अमीनो अम्लों के जुड़ने से प्रोटीन बनते हैं। कुदरत का काम चार क्षार-अक्षरों से चल जाता है।

बेनर की टीम ने सामान्य क्षारों की संरचना में फेरबदल करके चार नए क्षार बनाए और इन्हें डीएनए के अणु में जोड़ दिया। इस आठ अक्षर वाले डीएनए को उन्होंने हचिमोजी नाम दिया है – जापानी भाषा में हचि मतलब आठ और मोजी मतलब अक्षर। प्रत्येक कृत्रिम क्षार किसी एक कुदरती क्षार के समान रचना वाला है। सबसे पहले उन्होंने यह दर्शाया कि नए क्षार कुदरती क्षारों के साथ जोड़ियां बना लेते हैं। डीएनए के हज़ारों अणु बनाकर वे यह दर्शा पाए कि प्रत्येक क्षार एक ही जोड़ीदार से जुड़ता है। प्रयोगों के दौरान उन्होंने यह भी देखा कि इस संश्लेषित डीएनए की रचना काफी स्थिर है।

इसके बाद बेनर की टीम ने यह भी करके दिखाया कि उनके संश्लेषित डीएनए से एक अन्य अणु आरएनए भी बनाया जा सकता है। दरअसल, डीएनए में उपस्थित सूचना का उपयोग आरएनए के माध्यम से होता है। यानी उनके संश्लेषित डीएनए में न सिर्फ सूचना (प्रोटीन निर्माण के निर्देश) संग्रहित रहती है बल्कि उसे प्रोटीन के रूप में अनूदित भी किया जा सकता है।

इस शोध के द्वारा बेनर ने एक तो यह दर्शा दिया है कि जीवन का आधार डीएनए अन्य क्षारों से भी काम चला सकता है। इसके अलावा, यह भी दर्शाया जा चुका है ऐसा संश्लेषित डीएनए कैंसर कोशिकाओं से निपटने में भूमिका निभा सकता है। और इस नए डीएनए की मदद से सर्वथा नए प्रोटीन भी बनाए जा सकेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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कैंसर के उपचार के दावे पर शंकाएं

स्राइल की एक कंपनी एक्सलरेटेड इवॉल्यूशन बायोटेक्नॉलॉजीस लिमिटेड (एईबीआई) के वैज्ञानिकों ने हाल ही में दावा किया है कि वे एक साल के अंदर हर किस्म के कैंसर का एक इलाज पेश करेंगे। खास बात यह है कि उन्होंने चूहों पर किए गए जिन प्रयोगों के आधार पर यह दावा किया है, उनके परिणाम कहीं प्रकाशित नहीं किए गए हैं। उनका यह दावा अखबार के एक लेख में घोषित किया गया है। वैज्ञानिक समुदाय के बीच इस दावे के लेकर शंका का माहौल बन गया है।

एईबीआई के वैज्ञानिकों ने कहा है कि उन्होंने एक नए तरीके का इस्तेमाल किया है जो रामबाण साबित होगा। इस नए तरीके को बहुलक्षित विष (मल्टी-टारगेटेड टॉक्सिन यानी मूटोटो) नाम दिया गया है। यह एक ऐसा पेप्टाइड अणु है जो कैंसर कोशिका की सतह पर मौजूद कई सारे अणुओं से एक साथ जुड़ जाता है। इस वजह से कैंसर कोशिका में परिवर्तन की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती और फिर एक विषैला अणु उस कोशिका को मार डालता है।

शोधकर्ताओं का मत है कि उन्होंने एक इकलौते अध्ययन में चूहों पर इस तरीके को आज़माया जिसमें अप्रत्याशित सफलता मिली है और वे जल्दी ही इसे इंसानों पर भी आज़माने जा रहे हैं।

इस विषय पर काम कर रहे अन्य वैज्ञानिकों को लगता है कि चूंकि उक्त प्रयोग के आंकड़े प्रकाशित नहीं किए गए हैं, इसलिए दावे की जांच करना असंभव है। वैसे भी चूहों पर प्रयोग के आधार पर इंसानों के बारे में दावा करना तर्कसंगत नहीं है क्योंकि अनुभव बताता है कि ज़रूरी नहीं है कि चूहों पर मिले परिणाम इंसानों में मिलें। कुछ वैज्ञानिक तो एईबीआई के दावे को विज्ञान की परंपराओं के विपरीत व गैर-ज़िम्मेदाराना मान रहे हैं। अलबत्ता, इन सारी आशंकाओं के बारे में एईबीआई ने कहा है कि एक साल के अंदर वे पहले इंसान के कैंसर का इलाज करके दिखा देंगे। उनके मुताबिक कैंसर का यह नया उपचार सस्ता होगा और इसके कोई साइड प्रभाव भी नहीं होंगे। (स्रोत फीचर्स)

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मधुमक्खियां जोड़-घटा भी सकती हैं

वैज्ञानिक यह तो पता कर चुके हैं कि मधुमक्खियां 4 तक गिन सकती हैं और शून्य को समझती हैं। लेकिन हाल ही में साइंस एडवांसेस पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन बताता है कि मधुमक्खियां जोड़ना-घटाना भी कर सकती हैं। अंतर इतना है कि इसके लिए वे धन-ऋण के चिंहों की जगह अलग-अलग रंगों का उपयोग करती हैं।

जीव-जगत में गिनना या अलग-अलग मात्राओं की पहचान करना कोई अनसुनी बात नहीं है। ये क्षमता मेंढकों, मकड़ियों और यहां तक कि मछलियों में भी देखने को मिलती है। लेकिन प्रतीकों की मदद से समीकरण को हल कर पाने की क्षमता दुर्लभ है। अब तक ये क्षमता सिर्फ चिम्पैंज़ी और अफ्रिकन भूरे तोते में देखी गई है।

शोधकर्ता जानना चाहते थे कि मधुमक्खियों (Apis mellifera) का छोटा-सा दिमाग गिनने के अलावा और क्या-क्या कर सकता है। शोघकर्ताओं ने पहले तो मधुमक्खियों को नीले और पीले रंग का सम्बंध जोड़ने और घटाने की क्रिया से बनाने के लिए प्रशिक्षित किया। उन्होंने 14 मधुमक्खियों को Y-आकृति की भूलभुलैया में प्रवेश यानी Y-आकृति की निचली भुजा (जहां से दो में से एक रास्ते का चुनाव करना होता था) में रखा और वहां उन्हें नीले और पीले रंग की वस्तुएं दिखाई गर्इं। जब उन्हें नीले रंग की कुछ वस्तुएं दिखाई जातीं और मधुमक्खियां उस ओर जातीं जहां दिखाई गई वस्तु से एक अधिक वस्तु है तो उन्हें इनाम मिलता था। Y-आकार की दूसरी भुजा के अंत में एक कम वस्तु होती थी। पीले रंग की वस्तुएं दिखाने पर यदि मक्खियां एक कम वस्तु वाली भुजा की तरफ जातीं तो उन्हें इनाम मिलता था।

इसके बाद उन्हें जांचा गया। मधुमक्खियों ने 63-72 प्रतिशत मामलों में सही जवाब दिए। पीला रंग दिखाने पर उन्होंने एक वस्तु ‘घटाई’ या नीला रंग दिखाने पर एक वस्तु ‘जोड़ी’ तब माना गया कि उन्होंने सही जवाब दिया है। यह प्रयोग मात्र 14 मधुमक्खियों पर किया गया है किंतु शोधकर्ताओं का मत है कि मनुष्य की तुलना में बीस हज़ार गुना छोटे दिमाग के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि है। (स्रोत फीचर्स)

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विज्ञान, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और छद्म विज्ञान – अरविंद

भारतीय विज्ञान कांग्रेस संघ का उद्देश्य भारत में विज्ञान को बेहतर करना और बढ़ावा देना रहा है। विज्ञान कांग्रेस संघ की स्थापना 1914 में हुई थी। स्थापना के बाद से ही विज्ञान कांग्रेस का आयोजन किया जाता रहा है। 1947 में तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने विज्ञान कांग्रेस को, विज्ञान आधारित राष्ट्रीय एजेंडे और संविधान में उल्लेखित समाज में व्यापक पैमाने पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित और पोषित करने की प्रतिबद्धता से जोड़कर, बढ़ावा दिया था। 1976 में, विज्ञान कांग्रेस के एजेंडे में ऐसे मुद्दे शामिल किए गए थे जिनका सम्बंध विज्ञान व टेक्नॉलॉजी से था। आगे चलकर विज्ञान संचारकों की बैठक, स्कूल छात्रों के लिए विज्ञान और विज्ञान में महिलाएं वगैरह शामिल किए गए।

विज्ञान कांग्रेस में राजनीतिक नेताओं के शामिल होने का उद्देश्य था कि नेता चर्चाओं में भागीदारी करें और विज्ञान की दुनिया में हो रहे विकास को जानें और समझें कि कैसे राष्ट्र खुद को इनके अनुसार उन्मुख कर सकता है और आगे बढ़ सकता है। भारतीय वैज्ञानिकों की उपलब्धियों का प्रदर्शन भी विज्ञान कांग्रेस के एजेंडे का हिस्सा है। हाल में प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों की भागीदारी को भी जगह दी गई है।

विज्ञान कांग्रेस पिछले कुछ वर्षों में अपने एजेंडे या उद्देश्य से दूर होती गई है। आज़ादी के बाद राजनेता आयोजन में इसलिए शामिल होते थे ताकि वे विज्ञान से राष्ट्र निर्माण की योजनाओं या कार्यों के लिए वैधता हासिल कर सकें। लेकिन आजकल भूमिकाएं पलट गई हैं। अब राजनेता विज्ञान कांग्रेस के आयोजन में विज्ञान कांग्रेस का इस्तेमाल करने और उसे प्रभावित करने के उद्देश्य से शामिल होते हैं। राजनेता विज्ञान कांग्रेस के एजेंडे को निर्धारित करने को उत्सुक रहते हैं और चाहते हैं कि वैज्ञानिक इसे अपनाएं। पिछले कुछ वर्षों में वैज्ञानिक लोग विज्ञान कांग्रेस के आयोजन से अलग होते गए हैं। नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर वेंकटरमन रामकृष्णन ने विज्ञान कांग्रेस को एक सर्कस बताया था जिसमें अधिकांश प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक शामिल नहीं होते। वैज्ञानिकों के इससे अलग होने के कई कारण हैं: पहला, भारतीय वैज्ञानिकों को लगता है कि उनके लिए ऐसे आयोजनों में शामिल होना संभव नहीं है जो एक वैज्ञानिक आयोजन की जगह सरकार द्वारा प्रायोजित आयोजन लगे; दूसरा, वैज्ञानिकों में जनता के साथ जुड़ने के प्रति उदासीनता भी है, उन्हें अपने क्षेत्र में अपनी तरक्की अधिक महत्वपूर्ण लगती है। बहुत थोड़े से भारतीय वैज्ञानिक सार्वजनिक क्षेत्र में कदम रखने, विज्ञान को लोकप्रिय बनाने, वैज्ञानिक सोच फैलाने, या समाज के विभिन्न वर्गों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित करने को आगे आते हैं।

इन हालात में विज्ञान कांग्रेस के मंच को छदम विज्ञान के समर्थकों ने अगवा कर लिया है, जो हमेशा से बड़े-बड़े दावे करते रहे हैं। दुर्भाग्य से, हाल ही में फगवाड़ा में आयोजित 106वीं विज्ञान कांग्रेस में स्कूली छात्रों के लिए सत्र के दौरान उनका यह एजेंडा खुलकर सामने आया।

छदम विज्ञान क्या करना चाहता है? वह यह दिखाना चाहता है कि प्राचीन भारत में आधुनिक विज्ञान पहले से ही मौजूद था। ऐसा मानना प्राचीन सभ्यता के ज्ञान और आधुनिक विज्ञान, दोनों के साथ ही अन्याय है। इतिहास में किसी दावे की ऐतिहासिकता को प्रमाणित करने के लिए साधनों/विधियों का उपयोग किया जाता है। इन दावों की ऐतिहासिकता और सत्यता की जांच के लिए उन्हें वैज्ञानिक तार्किकता की कसौटी पर भी कसा जाना चाहिए। अब तक, विज्ञान कांग्रेस की बैठकों में छदम विज्ञान के समर्थकों द्वारा किए गए टेस्ट-ट्यूब बेबी, पुष्पक विमान और मिसाइल प्रौद्योगिकी सम्बंधी बड़े-बड़े दावे इन परीक्षणों में विफल रहे हैं।

विज्ञान, एक निरंतर परिवर्तनशील और विकासमान ज्ञान प्रणाली है। इसमें ज्ञान का निर्माण तर्कसंगत जांच, प्रयोग द्वारा प्राप्त प्रमाणों और वैज्ञानिक समुदाय में आपसी सहमति के आधार पर होता है। विज्ञान में पहले की कई अवधारणाएं जो वैज्ञानिक रूप से सही मानी जाती थीं, उनकी जगह अब नई अवधारणाओं को मान्यता मिली है। जैसे, पिछले कुछ वर्षों में वैज्ञानिकों ने यह महसूस किया है कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी सूचनाओं का हस्तांतरण मात्र डीएनए के माध्यम से नहीं होता है। वैज्ञानिक पहले डीएनए को ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी सूचना हस्तांतरण का एकमात्र ज़रिया मानते थे।

जिस तरह वैज्ञानिक ज्ञान में लगातार नया ज्ञान जुड़ता जा रहा है, क्या उसी तरह हम अपने पवित्र धार्मिक ग्रंथों को अपडेट करने के लिए तैयार हैं? यह तो कुफ्र माना जाएगा! जब आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान और धार्मिक ग्रंथों को एक साथ रखने का प्रयास करते हैं तब इस तरह की समस्या समाने आती हैं। इन दो ज्ञान प्रणालियों के बीच मतभेद और भी गहरे है; विज्ञान वैज्ञानिक पद्धति के आधार पर वैज्ञानिक समुदाय द्वारा विकसित मानवीय ज्ञान प्रणाली है, इसलिए यह ज्ञान हमेशा अधूरा रहेगा और इसमें हमेशा नया ज्ञान जुड़ता रहेगा। दूसरी ओर, धार्मिक ग्रंथों का ज्ञान आध्यात्मिक ज्ञान है। माना जाता है कि यह देवताओं से उत्पन्न ज्ञान है। इसलिए वह संपूर्ण, अपरिवर्तनशील और अंतिम है। इसलिए इन दो ज्ञान प्रणालियों के एक साथ मिलने की बात निहित रूप से विरोधाभासी है।

इसके अलावा, ज़रूरत इस बात की है कि हम विज्ञान को सिर्फ तकनीक निर्माण के साधन के रूप में न देखकर जीवन जीने के एक तरीके के रूप में देखना शुरू करें। वैज्ञानिक विधि व्यक्ति को वैज्ञानिक तर्क के आधार पर स्थितियों का विश्लेषण करने के लिए तैयार करती है। विज्ञान का पाठ्यक्रम बनाते वक्त नीति-निर्माताओं और शिक्षाविदों, यहां तक कि खुद वैज्ञानिकों द्वारा इस पहलू को अनदेखा कर दिया गया है। भारत में ऐसी संस्थाएं हैं जो आम लोगों के बीच वैज्ञानिक दृष्टिकोण और वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने के लिए काम करती हैं – विज्ञान कांग्रेस भी इन्हीं में से एक है – लेकिन इस काम को गंभीरता से नहीं किया जा रहा है।

विज्ञान कांग्रेस के आयोजकों को सुनिश्चित करना चाहिए कि ये आयोजन सही वैज्ञानिक भावना से हो। वैज्ञानिक समुदाय को और बेहतर तरीके से शामिल करने के प्रयास किए जाने चाहिए। देश की तीन विज्ञान अकादमियों – भारतीय विज्ञान अकादमी, भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी और राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी – की विज्ञान कांग्रेस में ज़्यादा सघन भागीदारी होना चाहिए। सरकार को विज्ञान को बढ़ावा देने के उद्देश्य से एक मददगार के रूप में भाग लेना चाहिए, न कि अपने किसी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि वार्ता और प्रस्तुतियां उन लोगों द्वारा दी जाएं जो सम्बंधित क्षेत्र में पेशेवर हों। विज्ञान अकादमियां इसमें मदद कर सकती हैं। विज्ञान के इतिहास और भारत में विज्ञान में प्राचीन योगदान के इतिहास का मूल्यांकन विज्ञान के इतिहासकारों के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए। ऐसा करके विज्ञान कांग्रेस को पटरी पर लाया जा सकता है और विज्ञान कांग्रेस भारतीय समाज में विज्ञान को एकीकृत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या युवा खून पार्किंसन रोग से निपट सकता है?

चूहों पर किए गए अध्ययनों से पता चल चुका है कि यदि बूढ़े चूहों को युवा चूहों का खून दिया जाए, तो उनके मस्तिष्क में नई कोशिकाएं बनने लगती हैं और उनकी याददाश्त बेहतर हो जाती है। वे संज्ञान सम्बंधी कार्यों में भी बेहतर प्रदर्शन करते हैं। स्टेनफोर्ड के टोनी वाइस-कोरे द्वारा किए गए परीक्षणों से यह भी पता चल चुका है कि युवा खून का एक ही हिस्सा इस संदर्भ में प्रभावी होता है। खून के इस हिस्से को प्लाज़्मा कहते हैं।

उपरोक्त परिणामों के मद्दे नज़र वाइस-कोरे अब मनुष्यों में युवा खून के असर का परीक्षण कर रहे हैं। दिक्कत यह है कि खून के प्लाज़्मा नामक अंश में तकरीबन 1000 प्रोटीन्स पाए जाते हैं और वाइस-कोरे यह पता करना चाहते हैं कि इनमें से कौन-सा प्रोटीन प्रभावी है। सामान्य संज्ञान क्षमता के अलावा वाइस-कोरे की टीम यह भी देखना चाहती है कि क्या पार्किंसन रोग में इस तकनीक से कोई लाभ मिल सकता है।

उम्र बढ़ने के साथ शरीर में होने वाले परिवर्तनों में से कई का सम्बंध रक्त से है। उम्र के साथ खून में लाल रक्त कोशिकाओं और सफेद रक्त कोशिकाओं की संख्या घटने लगती है। सफेद रक्त कोशिकाएं हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली का महत्वपूर्ण अंग हैं। अस्थि मज्जा कम लाल रक्त कोशिकाएं बनाने लगती है। अबतक किए गए प्रयोगों से लगता है कि युवा खून इन परिवर्तनों को धीमा कर सकता है।

वाइस-कोरे जो परीक्षण करने जा रहे हैं उसमें प्लाज़्मा के प्रोटीन्स को अलग-अलग करके एक-एक का प्रभाव आंकना होगा। यह काफी श्रमसाध्य होगा। एक प्रमुख दिक्कत यह है कि इतनी मात्रा में युवा खून मिलने में समस्या है। उनकी टीम ने 90 पार्किंसन मरीज़ों को शामिल कर लिया है और पहले मरीज़ को युवा खून का इंजेक्शन दे भी दिया गया है। उम्मीद है कि वे खून के प्रभावी अंश को पहचानने में सफल होंगे। इसके बाद कोशिश होगी कि इस अंश को प्रयोगशाला में संश्लेषित करके उसके परीक्षण किए जाएं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रोगों की पहचान में जानवरों की भूमिका – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

कुछ हफ्तों पहले काफी दिलचस्प खबर सुनने में आई थी कि कुत्ते मलेरिया से संक्रमित लोगों की पहचान कर सकते हैं। ऐसा वे अपनी सूंघने की विलक्षण शक्ति की मदद से करते हैं। यह रिपोर्ट अमेरिका में आयोजित एक वैज्ञानिक बैठक में ‘मेडिकल डिटेक्शन डॉग’संस्था द्वारा प्रस्तुत की गई थी। मेडिकल डिटेक्शन डॉग यूके स्थित एक गैर-मुनाफा संस्था है। इसी संदर्भ में डोनाल्ड जी. मैकनील ने न्यू यार्क टाइम्स में एक बेहतरीन लेख लिखा है। (यह लेख इंटरनेट पर उपलब्ध है।)

मेडिकल डिटेक्शन डॉग कुत्तों में सूंघने की खास क्षमता की मदद से अलग-अलग तरह के कैंसर की पहचान पर काम कर चुकी है। इसके लिए उन्होंने कुत्तों को व्यक्ति के ऊतकों, कपड़ों और पसीने की अलग-अलग गंध की पहचान करवाई ताकि कुत्ते इन संक्रमणों या कैंसर को पहचान सकें। इस समूह ने पाया कि मलेरिया और कैंसर पहचानने के अलावा कुत्ते टाइप-1 डाइबिटीज़ की भी पहचान कर लेते हैं। कुछ अन्य समूहों का कहना है कि उन्होंने कुत्तों को इस तरह प्रशिक्षित किया है कि वे मिर्गी के मरीज़ में दौरा पड़ने की आशंका भांप लेते हैं। उम्मीद है कि कुत्तों की मदद से कई अन्य बीमारियों की पहचान भी की जा सकेगी। कुत्तों में रासायनिक यौगिकों (खासकर गंध वाले) को सूंघने और पहचानने की विलक्षण शक्ति होती है। उनकी इस विलक्षण क्षमता के कारण ही एयरपोर्ट पर सुरक्षा के लिए, कस्टम विभाग में, पुलिस में या अन्य भीड़भाड़ वाले स्थानों पर ड्रग्स, बम या अन्य असुरक्षित चीज़ों को ढूंढने के लिए कुत्तों की मदद ली जाती है। सदियों से शिकारी लोग कुत्तों को साथ ले जाते रहे हैं, खासकर लोमड़ियों और खरगोश पकड़ने के लिए।

शुरुआत कैसे हुई

पिछले पचासेक वर्षों में रोगों की पहचान के लिए कुत्तों की सूंघने की क्षमता की मदद लेने की शुरुआत हुई है। इस सम्बंध में वर्ष 2014 में क्लीनिकल केमिस्ट्री नामक पत्रिका में प्रकाशित ‘एनिमल ऑलफैक्ट्री डिटेक्शन ऑफ डिसीज़: प्रॉमिस एंड पिट्फाल्स’लेख बहुत ही उम्दा और पढ़ने लायक है। यह लेख कुत्तों और अन्य जानवरों (खासकर अफ्रीकन थैलीवाले चूहे) में रोग की पहचान करने के विभिन्न पहलुओं पर बात करता है। (इंटरनेट पर उपलब्ध है: DOI:10.1373/clinchem.2014.231282)। कैंसर की पहचान में कुत्तों की क्षमता का पता 1989 में लगा था, जब एक कुत्ता अपनी देखरेख करने वाले व्यक्ति के पैर के मस्से को लगातार सूंघ रहा था। जांच में पाया गया कि त्वचा का यह घाव मेलेनोमा (एक प्रकार का त्वचा कैंसर) है। इसी लेख में डॉ. एन. डी बोर ने बताया है कि किस प्रकार कुत्ते हमारे शरीर के विभिन्न अंगों के कैंसर को पहचान सकते हैं। प्रयोगों और जांचों में इन सभी कैंसरों की पुष्टि भी हुई। हाल ही में कुत्तों को कुछ सूक्ष्मजीवों (टीबी के लिए ज़िम्मेदार बैक्टीरिया और आंतों को प्रभावित करने वाले क्लॉस्ट्रिडियम डिफिसाइल बैक्टीरिया) की पहचान करने के लिए भी प्रशिक्षित किया गया है।

जानवरों में इंसान के मुकाबले कहीं अधिक तीक्ष्ण और विविध तरह की गंध पहचानने की क्षमता होती है। (जानवर पृथ्वी पर मनुष्य से पहले आए थे और पर्यावरण का सामना करते हुए विकास में उन्होने सूंघने की विलक्षण शक्ति हासिल की है।) डॉ. एस. के. बोमर्स पेपर में इस बात पर ध्यान दिलाते हैं कि बीडोइन्स ऊंट (अरब के खानाबदोशों के साथ चलने वाले ऊंट) 80 किलोमीटर दूर से ही पानी का स्रोत खोज लेते हैं। ऊंट ऐसा गीली मिट्टी में मौजूद जियोसिमिन रसायन की गंध पहचान कर करते हैं।

चूहे भी मददगार

लेकिन विभिन्न गंधों की पहचान के लिए ऊंटों की मदद हर जगह तो नहीं ली जा सकती। डॉ. बी. जे. सी. विटजेन्स के अनुसार अफ्रीकन थैलीवाले चूहे की मदद ली जा सकती है। चूहों में दूर ही से और विभिन्न गंधों को पहचानने की बेहतरीन क्षमता होती है, इन्हें आसानी से कहीं भी ले जाया जा सकता है और इनके रहने के लिए जगह भी कम लगती है। साथ ही ये चूहे उष्णकटिबंधीय इलाकों के रोगों की पहचान में पक्के होते हैं। इतिहास की ओर देखें तो मनुष्य ने गंध पहचान के लिए कुत्तों को पालतू बनाया। कुछ चुनिंदा बीमारियों की पहचान के लिए कुत्तों की जगह अफ्रीकन थैलीवाले चूहों की मदद ली जाती है। तंजानिया स्थित एक गैर-मुनाफा संस्था APOPO इन चूहों पर सफलतापूर्वक काम कर रही है। चूहों के साथ फायदा यह है कि उनकी ज़रूरतें कम होती हैं – एक तो आकार में छोटे होते हैं, उनकी इतनी देखभाल नहीं करनी पड़ती, उन्हें प्रशिक्षित करना आसान है, और उन्हें आसानी से कहीं भी ले जाया जा सकता है। फिलहाल तंजानिया और मोज़ेम्बिक में इन चूहों की मदद से फेफड़ों के टीबी की पहचान की जा रही है (https://www.flickr.com/photos/42612410@N05>)। दुनिया भर में भी स्थानीय चूहों की मदद रोगों की पहचान के लिए ली जा सकती।

कुत्तों, ऊंटों, चूहों जैसे जानवरों में रोग पहचानने की यह क्षमता उनकी नाक में मौजूद 15 करोड़ से 30 करोड़ गंध ग्रंथियों के कारण होती है। जबकि मनुष्यों में इन ग्रंथियों की संख्या सिर्फ 50 लाख होती है। इतनी अधिक ग्रंथियों के कारण ही जानवरों की सूंघने की क्षमता मनुष्य की तुलना में 1000 से 10 लाख गुना ज़्यादा होती है। अधिक ग्रंथियों के कारण ही जानवर विभिन्न प्रकार गंध की पहचान पाते हैं और थोड़ी-सी भी गंध को ताड़ने में समर्थ होते हैं। इसी क्षमता के चलते कुत्ते जड़ों के बीच लगी फफूंद भी ढूंढ लेते हैं, जो पानी के अंदर होती हैं।

भारत में क्यों नहीं?

भारत में कुत्तों के प्रशिक्षण के लिए अच्छी सुविधाएं हैं, जिनका इस्तेमाल क्राइम ब्रांच, कस्टम वाले और अपराध वैज्ञानिक एजेंसियां करती हैं। जनसंख्या के घनत्व और चूहों के उपयोग की सरलता को देखते हुए ग्रामीण इलाकों में चूहों की मदद रोगों की पहचान के लिए ली जा सकती है। APOPO की तर्ज पर हमारे यहां भी स्थानीय जानवरों को महामारियों की पहचान के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है। ज़रूरी होने पर रोग की पुष्टि के लिए विश्वसनीय उपकरणों की मदद ली जा सकती है। इस तरह की ऐहतियात से हमारे स्वास्थ्य केंद्रों और स्वास्थ्य कर्मियों को सतर्क करने में मदद मिल सकती है। स्वास्थ्य केंद्र और स्वास्थ्य कार्यकर्ता शुरुआत में ही बीमारी या महामारी पहचाने जाने पर दवा, टीके या अन्य ज़रूरी इंतज़ाम कर सकते हैं और रोग को फैलने से रोक सकते हैं। हमारे पशु चिकित्सा संस्थानों को इस विचार की संभावना के बारे में सोचना चाहिए। पशु चिकित्सा संस्थान उपयुक्त और बेहतर स्थानीय जानवर चुनकर उन्हें रोगों की पहचान के लिए प्रशिक्षित कर सकते हैं। और इन प्रशिक्षित जानवरों को उपनगरीय और ग्रामीण इलाकों, खासकर घनी आबादी वाले और कम स्वास्थ्य सुविधाओं वाले इलाकों में रोगों की पहचान के लिए तैनात किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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