हाल ही में अमेरिकी खुफिया समुदाय ने राष्ट्रपति बाइडेन के आग्रह पर एक रिपोर्ट प्रस्तुत की है। इस दो-पृष्ठों की सार्वजनिक रिपोर्ट में टीम ने सभी उपलब्ध खुफिया रिपोर्टिंग और अन्य जानकारियों की जांच के बाद कुछ मुख्य परिणाम जारी किए हैं।
खुफिया समुदाय के अनुसार उसके पास
सार्स-कोव-2 के स्रोत का पता लगाने के लिए पर्याप्त जानकारी ही नहीं है जिससे यह
बताया जा सके कि यह जीवों से मनुष्यों में आया या फिर प्रयोगशाला से दुर्घटनावश
निकला है। महत्वपूर्ण बात यह है कि खुफिया समुदाय के अंदर ही कोविड के संभावित स्रोत
को लेकर सहमति नहीं है और दोनों परिकल्पनाओं के समर्थक मौजूद हैं।
फिर भी वे अपने मूल्यांकन के कुछ बिंदुओं
पर एकमत हुए हैं। जैसे, दिसंबर 2019 में चीन के वुहान प्रांत में वायरस प्रकोप से
पूर्व चीनी अधिकारियों को सार्स-कोव-2 की जानकारी नहीं थी। उनका अनुमान है कि
सार्स-कोव-2 नवंबर 2019 के पहले ही उभरा था। एजेंसियों का यह भी मत है कि वायरस को
जैविक हथियार के रूप में विकसित नहीं किया गया था।
इस दौरान बाइडेन ने चीनी सरकार से वुहान की
ऐसी प्रयोगशालाओं के स्वतंत्र ऑडिट की अनुमति देने का आग्रह किया था जहां
कोरोनावायरस पर अध्ययन किया जाता है। चीनी अधिकारियों ने इस प्रस्ताव को खारिज कर
दिया था। खुफिया समुदाय का भी ऐसा मानना है कि कोविड-19 की उत्पत्ति के निर्णायक
आकलन के लिए चीन के सहयोग की आवश्यकता होगी।
फ्रेड हचिंसन कैंसर रिसर्च सेंटर के जीव
विज्ञानी जेसी ब्लूम ने खुफिया समुदाय के इन निष्कर्षों का समर्थन किया है। ब्लूम
व 17 अन्य वैज्ञानिकों ने एक पत्र जारी करके वायरस उत्पत्ति की परिकल्पनाओं पर
संतुलित विचार करने का आह्वान किया है।
हारवर्ड युनिवर्सिटी के जीव विज्ञानी
विलियम हैनेज इस मूल्यांकन को काफी संतुलित मानते हैं और उनके अनुसार खुफिया
समुदाय का निष्कर्ष प्राकृतिक उत्पत्ति की ओर अधिक झुका प्रतीत होता है। उनका यह
भी कहना है कि किसी भी स्थिति में शुरुआती मनुष्यों के मामलों या वायरस-वाहक जीवों
के सबूतों के बिना एक स्पष्ट निष्कर्ष पर पहुंच पाना काफी मुश्किल होगा।
कुछ अन्य शोधकर्ताओं के अनुसार बाइडेन सरकार को इस महामारी की शुरुआत को समझने और इससे सम्बंधित सवालों का जवाब तलाशने के लिए ‘दुगने प्रयास’ की आवश्यकता होगी। हालांकि, अभी कोई ठोस जवाब तो हमारे नहीं है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि भविष्य में भी ऐसी ही अनिश्चितिता बनी रहेगी। वर्तमान में अमेरिकी सरकार भी समान विचारधारा वाले सहयोगियों के साथ मिलकर चीन सरकार पर दबाव बना रही है ताकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के नेतृत्व में सभी प्रासंगिक डैटा और साक्ष्यों की जांच करने की अनुमति मिल सके।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.abm1388/full/_20210827_on_covidoriginsreport.jpg
भारत के हर रसोईघर में पकने वाले भोजन में हल्दी किसी न किसी
रूप में इस्तेमाल होती है। हमारे दैनिक भोजन में या तो कच्ची हल्दी या हल्दी पाउडर
के रूप में डाली जाने वाली हल्दी में लगभग तीन प्रतिशत करक्यूमिन नामक सक्रिय घटक
होता है। करक्यूमिन एक पॉलीफिनॉल डाइकिटोन है (यह स्टेरॉयड नहीं है)। शोधकर्ता
बताते हैं कि हल्दी में पाइपेरीन नामक एक और घटक होता है, जो
क्षारीय होता है। हमारी रसोई में उपयोग होने वाले एक अन्य मसाले, कालीमिर्च,
के तीखेपन के लिए पाइपेरीन ही ज़िम्मेदार है। पाइपेरीन शरीर
में करक्यूमिन का अवशोषण बढ़ाता है। यह हल्दी को उसके विभिन्न उपचारात्मक और
सुरक्षात्मक गुण देता है।
हल्दी से भारतीय उपमहाद्वीप, पश्चिम एशिया, बर्मा,
इंडोनेशिया और चीन के लोग 4000 से भी अधिक सालों से परिचित
हैं। यह हमारे दैनिक भोजन का महत्वपूर्ण अंग है। सदियों से इसे एक औषधि के रूप में
भी जाना जाता रहा है। इसमें जीवाणु-रोधी, शोथ-रोधी और
एंटी-ऑक्सीडेंट गुण होते हैं। हर्बल औषधि विशेषज्ञ हल्दी का उपयोग गठिया, जोड़ों की जकड़न और जोड़ों के दर्द के पीड़ादायक लक्षणों के उपचार में करते थे।
उनका यह भी दावा रहा है कि हल्दी गुर्दे की गंभीर क्षति को ठीक करने में मदद करती
है। इनमें से कुछ दावों को नियंत्रित
क्लीनिकल परीक्षण कर जांचने की आवश्यकता है।
https://www.healthline.com पर हल्दी और उसके उत्पादों के कुछ साक्ष्य-आधारित लाभों की सूची दी गई है, जिनका उल्लेख यहां आगे किया गया है। इन लाभों के अलावा, हल्दी का सक्रिय अणु करक्यूमिन एक शक्तिशाली शोथ-रोधी और एंटी-ऑक्सीडेंट है; यह एक प्राकृतिक शोथ-रोधी है। लगातार बनी रहने वाली हल्की सूजन (शोथ) हमारे
स्वास्थ्य को प्रभावित करती है, और हृदय रोग और चयापचय
सिंड्रोम को बढ़ावा देती है। शुक्र है कि करक्यूमिन रक्त-मस्तिष्क अवरोध को पार कर
जाता है। (रक्त-मस्तिष्क अवरोध ऐसी कोशिकाओं की सघन परत है जो तय करती है कि रक्त
में मौजूद कौन से अणु मस्तिष्क में जाएंगे और कौन से नहीं।) रक्त-मस्तिष्क अवरोध
को पार करने की इसी क्षमता के चलते करक्यूमिन अल्ज़ाइमर के लिए ज़िम्मेदार एमीलॉइड
प्लाक नामक अघुलनशील प्रोटीन गुच्छों के निर्माण को कम करता है या रोकता है।
(हालांकि,
इस संदर्भ में उपयुक्त जंतु मॉडल पर और मनुष्यों पर
प्लेसिबो-आधारित अध्ययन की ज़रूरत है)। करक्यूमिन ब्रेन-डेराइव्ड न्यूरोट्रॉफिक
फैक्टर (BDNF) को बढ़ावा देता है। BDNF एक
ऐसा जीन है जो न्यूरॉन्स (तंत्रिका कोशिकाओं) को बढ़ाता है। BDNF को बढ़ावा देकर करक्यूमिन स्मृति और सीखने में मदद करता है। कुछ हर्बल औषधि
विशेषज्ञों का कहना है कि यह कैंसर से भी बचा सकता है। कैंसर कोशिकाओं के मरने के
साथ कैंसर का प्रसार कम होता है, और नई ट्यूमर कोशिकाओं का
निर्माण रुक जाता है। गठिया और जोड़ों की सूजन में करक्यूमिन काफी प्रभावी पाया गया
है। हर्बल औषधि चिकित्सक भी यही सुझाव देते आए हैं। यह अवसाद के इलाज में भी
उपयोगी है। 60 लोगों पर 6 हफ्तों तक किए गए नियंत्रित अध्ययन में पाया गया है कि
यदि अवसाद की आम दवाओं (जैसे प्रोज़ैक) को करक्यूमिन के साथ दिया जाए तो वे बेहतर
असर करती हैं।
युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के गैरी स्मॉल और उनके साथियों का एक पेपर अमेरिकन
जर्नल ऑफ जेरिएट्रिक साइकिएट्री में प्रकाशित हुआ है (doi: 10.1016/j.jagp.2017.10.10)। इस परीक्षण में शोधकर्ताओं ने 50 से 90 वर्ष की उम्र के 40 ऐसे वयस्कों पर
अध्ययन किया जिन्हें भूलने की थोड़ी समस्या थी। उन्होंने 18 महीनों तक दिन में दो बार
एक समूह को प्लेसिबो और दूसरे समूह को 90 मिलीग्राम करक्यूमिन दिया। अध्ययन की
शुरुआत में और 18 महीने बाद सभी प्रतिभागियों का मानक आकलन परीक्षण किया गया, और उनके रक्त में करक्यूमिन का स्तर जांचा गया। इसके अलावा, अध्ययन के शुरू और 18 महीने बाद सभी प्रतिभागियों का पीईटी स्कैन भी किया गया
ताकि उनमें अघुलनशील एमीलॉइड प्लाक का स्तर पता लगाया जा सके। अध्ययन में पाया गया
कि करक्यूमिन का दैनिक सेवन ऐसे लोगों में स्मृति और एकाग्रता में सुधार कर सकता
है जो मनोभ्रंश से पीड़ित न हों।
हाल ही में, मुंबई के एक समूह ने काफी रोचक अध्ययन प्रकाशित किया है, जो बताता है कि हल्दी कोविड-19 के रोगियों के उपचार में मदद करती है। शोधकर्ताओं ने कोविड-19 के 40 रोगियों पर अध्ययन किया और पाया कि हल्दी रुग्णता और मृत्यु दर को काफी हद तक कम कर सकती है। के. एस. पवार और उनके साथियों का यह पेपर फ्रंटियर्स इन फार्मेकोलॉजी में प्रकाशित हुआ है जिसका शीर्षक है: कोविड-19 के सहायक उपचार के रूप में पाइपेरीन और करक्यूमिन का मुख से सेवन: एक रैंडम क्लीनिकल परीक्षण। इसे नेट पर पढ़ा जा सकता है। अध्ययन महाराष्ट्र के एक 30-बेड वाले कोविड-19 स्वास्थ्य केंद्र में किया गया था। लाक्षणिक कोविड-19 के सहायक उपचार के रूप में पाइपेरीन के साथ करक्यूमिन का सेवन रुग्णता और मृत्यु दर को काफी हद तक कम कर सकता है, और स्वास्थ्य तंत्र का बोझ कम कर सकता है। (वैसे बैंगलुरू स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के जी. पद्मनाभन द्वारा किए गए विस्तृत अध्ययन में पता चला है कि करक्यूमिन एक बढ़िया प्रतिरक्षा सहायक है)। यह वास्तव में एक उल्लेखनीय प्रगति है। इसे देश भर के केंद्रों में आज़माया जा सकता है जहां महामारी अभी भी बनी हुई है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/vlav1h/article36035499.ece/ALTERNATES/LANDSCAPE_615/22TH-SCITURM-PLANTS1
हाल ही में एक दुर्लभ तंत्रिका रोग के लिए उपयोग की जाने वाली
जीन थेरेपी का क्लीनिकल परीक्षण रोक दिया गया है। परीक्षण में सहभागी एक व्यक्ति
में अस्थि मज्जा सम्बंधी समस्या विकसित होने लगी थी जिससे भविष्य में ल्यूकेमिया
की संभावना बढ़ सकती है। अध्ययन की आयोजक कंपनी ब्लूबर्ड बायो के अनुसार कैंसर शायद
एक वायरस के कारण हुआ है जिसका उपयोग रोगी की स्टेम कोशिकाओं में उपचारात्मक जीन
पहुंचाने में किया गया था।
हालांकि,
ब्लूबर्ड के शोधकर्ताओं और अन्य विशेषज्ञों का मानना है कि
यह समस्या शायद अन्य जीन उपचारों में उपयोग होने वाले इसी प्रकार के वायरस, (लेंटीवायरस) से उत्पन्न न हों क्योंकि इस अध्ययन में प्रयुक्त वायरस की एक
अनूठी विशेषता थी। वैसे आज तक लेंटीवायरस का सम्बंध कैंसर से नहीं देखा गया है।
दरअसल तीसरे चरण का यह परीक्षण सेरेब्रल एड्रेनोल्यूकोडिस्ट्रॉफी नामक बीमारी
के इलाज के लिए है। यह बीमारी एड्रेनोल्यूकोडिस्ट्रॉफी प्रोटीन (एएलडीपी) एंज़ाइम
के जीन में उत्परिवर्तन के कारण होती है। यह एंज़ाइम कुछ विशिष्ट वसाओं को तोड़ने का
काम करता है। जिन लोगों में इस जीन की क्रियाशील प्रतिलिपि नहीं होती उनके
मस्तिष्क में वसा जमा होने लगती है। यह जमाव तंत्रिकाओं के उस कुचालक आवरण को
क्षति पहुंचाता है जो तंत्रिकाओं को विद्युत संकेत तेज़ी से और दक्षतापूर्वक भेजने
में मदद करता है। यह जीन ‘X’ गुणसूत्र में होता है इसलिए यह समस्या लड़कों को ज़्यादा प्रभावित करती है।
क्योंकि यदि इस जीन की एक प्रति उत्परिवर्तित हो जाए तो लड़कों के पास दूसरा ‘X’ गुणसूत्र तो होता नहीं है।
उपचार के अभाव में एड्रेनोल्यूकोडिस्ट्रॉफी सुनने, देखने, याददाश्त और समन्वय की क्षमता को नुकसान पहुंचाती है और लक्षण प्रकट होने के
10 वर्षों के भीतर मृत्यु हो जाती है। कम उम्र में ही अस्थि मज्जा प्रत्यारोपण की
मदद जीन युक्त स्टेम कोशिकाएं डालकर तंत्रिका सम्बंधी क्षति को रोका जा सकता है।
लेकिन इसके लिए दानदाता ढूंढना मुश्किल होता है और इस तरह के प्रत्यारोपण से
प्रत्यारोपण-बनाम-मेज़बान बीमारियों का भी खतरा रहता है जिसमें दानदाता की कोशिकाएं
रोगी की कोशिकाओं पर हमला करने लगती हैं।
जीन थेरेपी में किया यह जाता है कि रोगी की अस्थि मज्जा की स्टेम कोशिकाएं
एकत्र की जाती हैं और उन्हें एएलडीपी के स्वस्थ जीन वाहक लेंटीवायरस के साथ एक डिश
में रखा जाता है ताकि वह जीन इन कोशिकाओं में पहुंच जाए। स्वयं मरीज़ के शरीर की
अस्थि मज्जा कोशिकाओं को नष्ट करने के बाद इन संशोधित कोशिकाओं को प्रत्यारोपित कर
दिया जाता है। पिछले माह इस इलाज के लिए ब्लूबर्ड बायो को 17 वर्ष से कम उम्र के
32 रोगियों पर युरोप में विपणन की स्वीकृति प्राप्त हुई थी। अब 35 रोगियों पर किया
जाने वाला दूसरा परीक्षण 2024 में पूरा होने की संभावना है।
ब्लूबर्ड कंपनी ने वर्तमान परीक्षण में एक व्यक्ति में इलाज के एक वर्ष बाद
मायलोडिसप्लास्टिक सिंड्रोम (एमडीएस) विकसित होते देखा। यह समस्या एक प्रकार का
रक्त-कोशिका विकार है जो आगे चलकर ल्यूकेमिया का रूप ले सकता है। ब्लूबर्ड बायो के
चीफ साइंटिफिक ऑफिसर फिलिप ग्रेगरी के अनुसार जीन थेरेपी लेने वाले दो अन्य
रोगियों की अस्थि मज्जा कोशिकाओं में गड़बड़ियां पाई गर्इं जो भविष्य में एमडीएस का
रूप ले सकती हैं। इसी कारण अमेरिका के खाद्य एवं औषधि प्रशासन ने इस अध्ययन को
ऐहतियात के तौर पर रोक दिया है।
यह बात काफी लम्बे समय से पता रही है कि जिस वायरस की मदद से आनुवंशिक सामग्री
को किसी व्यक्ति के जीनोम में पहुंचाया जाता है वह आसपास के किसी कैंसर जीन को
सक्रिय कर सकता है। 2000 के दशक की शुरुआत में प्रशासन ने ऐसे दर्जनभर जीन थेरेपी
परीक्षणों पर रोक लगा दी थी जब माउस से प्राप्त रेट्रोवायरस (लेंटीवायरस से भिन्न
किस्म का वायरस) के उपयोग से लोगों में ल्यूकेमिया विकसित हो गया था। इसलिए
वैज्ञानिकों ने इसके स्थान पर लेंटीवायरस का उपयोग करना शुरू किया। विशेषज्ञों का
मानना है कि इन वायरसों को इंजीनियर करके और अधिक सुरक्षित बनाया जा सकता है।
देखा जाए तो जीन थेरेपी के लिए लेंटीवायरस का रिकॉर्ड अच्छा रहा है। ग्रेगरी
के अनुसार इस नए मामले में शोधकर्ताओं को लेंटीवायरल डीएनए रोगी की रक्त कोशिकाओं
में उन स्थलों पर मिला जो एमडीएस से सम्बंधित हैं। इससे लगता है कि वायरल डीएनए ने
रक्त स्टेम कोशिकाओं को असामान्य रूप से बढ़ने के लिए प्रेरित किया होगा।
ग्रेगरी का मत है कि इस परीक्षण में समस्या का मुख्य कारण वायरस-वाहक की
डिज़ाइन का एक खास गुण है। इस वायरस में एक आनुवंशिक अनुक्रम है जिसे प्रमोटर कहा
जाता है। संभवत: यह प्रमोटर बहुत सामान्य किस्म का है। यह कई जीन्स को सक्रिय कर
देता है। इस शक्तिशाली प्रोमोटर का उपयोग करके मस्तिष्क कोशिकाएं बीमारी के इलाज के
लिए उच्च स्तर के एएलडीपी का निर्माण तो करती हैं लेकिन आसपास के कैंसर जीन को
सक्रिय करने का जोखिम बना रहता है। शोधकर्ताओं ने अन्य प्रमोटर्स की पहचान की है
जो कैंसर के जोखिम को कम करते हैं। लेकिन अभी तक इस प्रकार के प्रमोटर का उपयोग
नहीं किया गया है।
बहरहाल, ग्रेगरी का मत है कि सेरेब्रल एड्रेनोल्यूकोडिस्ट्रॉफी के दुर्बलताजनक प्रभाव को देखते हुए और अस्थि मज्जा प्रत्यारोपण के जोखिमों को देखते हुए जीन थेरेपी के फायदे उसके जोखिम से कहीं अधिक हैं। लेंटीवायरस आधारित जीन थेरेपी के फायदों को अनदेखा नहीं किया जा सकता। इस तरह के उपचार की मदद से एक दर्जन से अधिक स्वास्थ्य संबंधी समस्या वाले 300 से अधिक रोगियों का इलाज किया जा चुका है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.abl8782/full/_20210810_on_bluebirdgenetherapy.jpg
यह तो सभी अविभावक जानते हैं कि बच्चे ऊर्जा से भरे होते
हैं। अब एक अध्ययन में शोधकर्ताओं ने मानव के पूरे जीवन काल के दौरान खर्च होने
वाली ऊर्जा की दर की गणना की है। निष्कर्ष यह है कि 9 से 15 महीने की उम्र के शिशु
वयस्कों की तुलना में एक दिन में 50 प्रतिशत अधिक ऊर्जा खर्च करते हैं। ऊर्जा खपत
की दर को शरीर के डील-डौल के हिसाब से समायोजित किया गया था। यह भी पता चला कि
किशोरों और गर्भवती महिलाओं की तुलना में भी शिशु अधिक तेज़ी से ऊर्जा खर्च और
उपयोग करते हैं। यह संभवत: उनके ऊर्जा के लिहाज़ से महंगे मस्तिष्क और अंगों की
ज़रूरत पूरी करता है।
लेकिन बच्चे भी जल्दी थक (या चुक) जाते हैं। यदि उन्हें ज़रूरत के हिसाब से
कैलोरी न मिले तो उनकी उच्च चयापचय दर उनकी वृद्धि को बाधित करती है और उन्हें
बीमारियों के प्रति संवेदनशील बनाती है। इसके अलावा वयस्कों की तुलना में शिशुओं
की कोशिकाएं औषधियों को भी अधिक तेज़ी से पचा डालती हैं। जिसका अर्थ है कि उन्हें
बार-बार खुराक देने की ज़रूरत हो सकती है। वहीं दूसरी ओर, 60
वर्ष से अधिक आयु के व्यक्ति युवाओं की तुलना में प्रतिदिन कम ऊर्जा खर्च करते
हैं। यानी उन्हें कम भोजन की या औषधियों की कम खुराक की आवश्यकता हो सकती है। 90
से ऊपर के लोग मध्यम आयु के लोगों की अपेक्षा 26 प्रतिशत कम ऊर्जा का उपयोग करते
हैं।
हम अपने पूरे जीवन में कितनी ऊर्जा खर्च करते हैं, इस
बारे में वैज्ञानिक बहुत कम जानते हैं। क्योंकि यह पता करने का दोहरे चिंहाकित
पानी (डबली लेबल्ड वाटर) वाला तरीका काफी मंहगा है। इस तरीके में प्रतिभागियों को
हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के विशिष्ट समस्थानिक युक्त ‘भारी’ पानी एक हफ्ते या उससे
अधिक समय तक पिलाया जाता है। इस दौरान हर 24 घंटे के अंतराल में उनके मूत्र, रक्त और लार में इन ‘समस्थानिकों’ की मात्रा को मापकर पता लगाया जाता है कि एक
दिन में किसी व्यक्ति ने औसतन कितनी ऊर्जा खर्च की।
हालिया अध्ययन में ड्यूक युनिवर्सिटी के वैकासिक जीव विज्ञानी हरमन पोंटज़र और
उनके साथियों ने 29 देशों में 6421 लोगों पर हुए दोहरे चिंहाकित पानी अध्ययनों के
परिणामों का एक डैटाबेस तैयार किया। ये अध्ययन 8 दिन की उम्र के शिशु से लेकर 95
साल के व्यक्तियों पर किए गए थे। फिर उन्होंने इस डैटा से प्रत्येक व्यक्ति के लिए
दैनिक चयापचय दर की गणना की, और फिर इसे शरीर के आकार व
द्रव्यमान और अंग के आकार के हिसाब से समायोजित किया। अंगों के महीन ऊतक वसा ऊतकों
की तुलना में अधिक ऊर्जा का उपयोग करते हैं, और
वयस्कों की तुलना में बच्चों के अंगों का द्रव्यमान उनके बाकी शरीर के द्रव्यमान
की तुलना में अधिक होता है।
शोधकर्ताओं ने पाया कि जन्म के समय तो शिशुओं की चयापचय दर उनकी माताओं की
चयापचय दर के समान होती है। लेकिन 9 से 15 महीने के बीच शिशुओं की कोशिकाओं में
बदलाव होते हैं जिनके चलते वे तेज़ी से ऊर्जा खर्च करने लगती हैं।
साइंस पत्रिका में प्रकाशित नतीजों के अनुसार पांच वर्ष की आयु तक बच्चों की
चयापचय दर उच्च रहती है, फिर 20 वर्ष की आयु तक इसमें
धीरे-धीरे कमी आती है और फिर यह स्थिर हो जाती है। यह स्थिर दर 60 वर्ष की आयु तक
बनी रहती है और इसके बाद फिर से यह घटने लगती है। देखा गया कि 90 से अधिक उम्र के
व्यक्ति प्रतिदिन लगभग 26 प्रतिशत कम ऊर्जा उपयोग करते हैं।
यह तो जानी-मानी बात है कि गर्भवती महिलाएं अधिक कैलोरी खर्च करती हैं। लेकिन
अध्ययन में पाया गया कि गर्भवती महिलाओं की चयापचय दर अन्य वयस्कों से अधिक नहीं
होती। गर्भवती महिलाएं अधिक ऊर्जा और कैलोरी खपाती हैं क्योंकि उनके शरीर का आकार
बढ़ जाता है। इसी तरह बढ़ते किशोरों की भी चयापचय दर नहीं बढ़ती, जबकि ऐसा लगता था कि बच्चे किशोरावस्था में अधिक कैलोरी खर्च करते हैं। 30-40
की उम्र में लोग अक्सर सुस्ती महसूस करते हैं; और रजोनिवृत्ति
के समय तो महिलाओं को और अधिक सुस्ती लगती है। लेकिन इस समय भी चयापचय दर नहीं
बदलती। हारमोन्स में परिवर्तन, तनाव, बीमारी, वृद्धि और गतिविधि के स्तर में बदलाव भूख, ऊर्जा
और शरीर के वज़न को प्रभावित करते हैं।
शोधकर्ता है बताते हैं कि शिशुओं में चयापचय दर अधिक होती है क्योंकि संभवत:
उनके मस्तिष्क,
अन्य अंग या प्रतिरक्षा प्रणाली के विकास में बहुत अधिक
ऊर्जा खर्च होती है। और वृद्ध लोगों में यह कम हो जाती है क्योंकि उनके अंग सिकुड़
जाते हैं और उनके मस्तिष्क का ग्रे मैटर कम होने लगता है।
बच्चों का बढ़ता दिमाग बहुत ऊर्जा खपाता है। इस तर्क को मजबूती 2014 में हुआ एक
अन्य अध्ययन देता है, जिसमें पाया गया था कि छोटे बच्चों में
पूरे शरीर द्वारा उपयोग की जाने वाली कुल ऊर्जा में से लगभग 43 प्रतिशत ऊर्जा का
उपभोग मस्तिष्क करता है।
यह अध्ययन सार्वजनिक स्वास्थ्य की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है: इस तरह के आंकड़ों से यह पता लगाया जा सकता है कि शिशुओं, गर्भवती महिलाओं और वृद्ध जनों को कितनी कैलोरी की ज़रूरत है, और उन्हें दवा की कितनी खुराकें दी जाएं। इसके अलावा, हो सकता है कि कुपोषित बच्चों को हमारे पूर्वानुमान की तुलना में अधिक भोजन की आवश्यकता हो। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://laughsandlove.com/wp-content/uploads/2012/12/kids-running.png
भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (FSSAI) ने देश में पैकेज्ड खाद्य
तेल,
दूध और अनाज के अनिवार्य फोर्टिफिकेशन की योजना बनाई है।
फोर्टिफिकेशन यानी किसी खाद्य पदार्थ में अतिरिक्त पोषक तत्व मिलाना – सामान्यत:
ऐसे पोषक तत्व जो उस खाद्य में अनुपस्थित होते हैं। केंद्र सरकार ने फोर्टिफिकेशन
को पैकेज्ड खाद्य पदार्थों के लिए किफायती और वहनीय प्रणाली माना है। खाद्य तेल, अनाज और दूध की पहुंच भारत के 99 प्रतिशत घरों तक है। FSSAI का उद्देश्य उपरोक्त खाद्य
पदार्थों को अनिवार्य रूप से फोर्टिफाय करना है ताकि अधिक से अधिक लोगों तक आवश्यक
पौष्टिक तत्व पहुंच सकें। इन उत्पादों की पहचान आसान बनाने के लिए एक लोगो भी जारी
किया जाएगा। कहा जा रहा है कि इस रणनीति से कुपोषण पर अंकुश लगेगा और दैनिक ज़रूरत
(आरडीए) भी पूरी होगी।
गौरतलब है कि पिछले निर्णयों में किसी भी कंपनी को अपने उत्पादों को फोर्टिफाय
करने के लिए बाध्य नहीं किया गया था। राष्ट्रीय स्तर पर अभी तक लगभग 47 प्रतिशत
शोधित (रिफाइंड) पैकेज्ड तेल फोर्टिफाइड हैं। इस रणनीति को लागू करने के लिए विभिन्न
हितधारकों के साथ विचार-विमर्श चल रहा है।
पैकेज्ड खाद्य तेल
FSSAI का दावा है कि खाद्य तेल को
फोर्टिफाय करने की तकनीक आसानी से उपलब्ध है। इसके अलावा, FSSAI मुख्यालय के पास इस बारे में सहायता प्रदान करने के लिए एक
समर्पित टीम भी है। टाटा और ग्लोबल अलायन्स फॉर इम्प्रूव्ड न्यूट्रीशन (GAIN) जैसे कई संगठनों ने तो पहले
से ही खाद्य तेलों के फोर्टिफिकेशन के लिए कार्यक्रम विकसित कर लिए हैं।
FSSAI का यह भी दावा है कि भारत में
आहार के माध्यम से विटामिन डी प्राप्त करने के स्रोत सीमित हैं और भारतीय नागरिक
अपने दैनिक आहार में विविधता लाकर भी विटामिन डी की आवश्यकता को पूरा करने में
असमर्थ हैं। इसके अलावा, भारत में विटामिन ए की कमी भी
काफी व्यापक है। इसलिए तेल का फोर्टिफिकेशन आवश्यक है। भारत के दो राज्यों, राजस्थान और हरियाणा, ने पहले ही तेल का
फोर्टिफिकेशन अनिवार्य कर दिया है।
GAIN की रिपोर्ट बताती है कि भारत
की
– 80 प्रतिशत जनसंख्या दैनिक ज़रूरत का 50 प्रतिशत से कम का उपभोग करती है।
– 50-90 प्रतिशत जनसंख्या विटामिन डी की कमी से पीड़ित है।
– 61.8 प्रतिशत जनसंख्या विटामिन ए की गैर-लाक्षणिक कमी झेलती है।
खाद्य तेलों के फोर्टिफिकेशन का प्रस्ताव कई अन्य देशों में अपनाया जा चुका
है। मोरक्को,
तंज़ानिया, मोज़ांबिक, बोलीविया और नाइजीरिया सहित 27 देशों में फोर्टिफाइड पैकेज्ड खाद्य तेल
अनिवार्य है।
दूध व दुग्ध उत्पाद
दूसरे चरण में FSSAI
अनिवार्य दुग्ध फोर्टिफिकेशन की योजना बना रहा है। इस योजना के तहत विभिन्न दुग्ध
सहकारी समितियों (राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड, अमूल, मदर डेयरी आदि) को फोर्टिफाइड दूध बेचना होगा। फिलहाल अमेरिका, ब्राज़ील,
कनाडा, चीन, फिनलैंड, स्वीडन,
थाईलैंड, कोस्टा रिका और मलेशिया सहित
14 देशों में फोर्टिफाइड दूध अनिवार्य किया गया है।
विटामिन ए और डी
विटामिन ए और विटामिन डी दोनों ही मानव शरीर के लिए अनिवार्य हैं। इसलिए खाद्य
तेल और दूध का फोर्टिफिकेशन पूरी जनसंख्या के लिए फायदेमंद होगा। पूर्व में, FSSAI ने इसके लिए मानक और
दिशानिर्देश जारी किए थे और फोर्टिफाइड उत्पादों की आसानी से पहचान के लिए लोगो भी
जारी किया था।
कई नामी-गिरामी कंपनियां खाद्य (दूध, तेल और अनाज)
फोर्टिफिकेशन तकनीकों को अपनाने और लागू करने के लिए उत्सुक हैं। केंद्र सरकार भी
मध्यान्ह भोजन योजना के माध्यम से फोर्टिफिकेशन के लिए सहायता प्रदान करती है। FSSAI चावल, गेहूं
और नमक जैसे प्रमुख खाद्यों के फोर्टिफिकेशन पर भी विचार कर रहा है।
FSSAI का तर्क
FSSAI की निदेशक इनोशी शर्मा के
अनुसार,
नए FSSAI नियमों के बाद खाद्य पदार्थों में अधिक मात्रा में पोषक मिलाए जा सकेंगे
जिससे दैनिक अनुशंसित मात्रा के 20-50 प्रतिशत के बीच पूर्ति हो सकेगी। यह
अनिवार्यता खाद्य तेल, दूध, चावल
और अन्य अनाजों के क्षेत्र में काम करने वाली सभी खाद्य एवं पेय कंपनियों पर लागू
होगी।
फूड नेविगेटर एशिया ने इनोशी शर्मा से संपर्क करके इस फोर्टिफिकेशन नीति के
बारे में उनके विचार तथा संभावित विरोध को लेकर चर्चा की थी। इनोशी शर्मा का कहना
था कि कई बड़े निर्माता तो पहले से ही फोर्टिफाइड खाद्य पदार्थों का उत्पादन कर रहे
हैं;
रह जाती हैं छोटी कंपनियां। तो ज़्यादा विरोध की संभावना
नहीं है।
उन्होंने यह भी बताया कि वैसे भी FSSAI के पास साझेदारों का एक विस्तृत नेटवर्क और पर्याप्त संसाधन भी उपलब्ध हैं
जिससे इन परिवर्तनों को अपनाने वाली कंपनियों की सहायता की जा सके। इस निर्णय में
उपभोक्ताओं का समर्थन हासिल करने और सप्लाय चेन पर इसके प्रभाव के बारे में शर्मा
का कहना है कि सप्लाय चेन को आसान बनाना महत्वपूर्ण होगा। निर्माता, वितरक और खुदरा विक्रेता फोर्टिफाइड उत्पादों को बाज़ार में उतारेंगे तो
उपभोक्ताओं को तैयार करना करना आसान होगा। उपभोक्ता को जागरूक करना एक मुख्य कार्य
होगा।
फोर्टिफिकेशन के लिए +F
इनोशी शर्मा का यह भी कहना है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से प्रदान
किए जाने वाले चावल, गेहूं और नमक पर पहले से ही फोर्टिफिकेशन
अनिवार्य किया हुआ है। खुले बाज़ार के लिए इसे लागू नहीं किया गया है। जब उनसे
अनाजों के फोर्टिफिकेशन से किसानों पर पड़ने वाले प्रभाव और भविष्य में कृषि
क्षेत्र में FSSAI की योजना के बारे में पूछा
गया तो उन्होंने बताया कि वर्ष 2018 से इन नियमों को सार्वजनिक प्रणालियों में
अनिवार्य कर दिया गया है। आने वाले समय में भी सरकार किसानों तथा उत्पादकों से
चावल और गेहूं की खरीद करेगी और पिसाई एवं प्रसंस्करण के दौरान इनको फोर्टिफाय
किया जाएगा।
हालांकि इस आदेश को खुले बाज़ार में अनिवार्य नहीं किया गया है लेकिन कुछ
फोर्टिफाइड उत्पाद पहले से ही बाज़ार में उपलब्ध हैं। शर्मा के अनुसार इस विषय में
बड़े निर्माताओं को तैयार करने के प्रयास किए जा रहे हैं। कुछ बड़े चावल मिल-मालिकों
से संपर्क किया गया है और गेहूं मिल के मालिकों से भी चर्चा की जाएगी।
FSSAI के द्वारा एक ‘+F’ नामक ब्रांड लेबल भी शुरू करने की योजना
है जिससे उपभोक्ताओं को फोर्टिफाइड उत्पादों की जानकारी मिल सकेगी और वे ऐसे खाद्य
पदार्थों को अपने आहार में शामिल कर सकेंगे। FSSAI अपनी वेबसाइट पर ऐसे उत्पादों के नाम प्रकाशित कर उनकी
सहायता करेगा।
देश में फोर्टिफिकेशन की आवश्यकता और आहार विविधिकरण के माध्यम से पोषण को
सुदृढ़ बनाने के सवाल पर इनोशी शर्मा का मानना है कि देश की वर्तमान परिस्थितियों
में खाद्य पदार्थों का फोर्टिफिकेशन काफी महत्वपूर्ण है। पूर्व में किए गए
अध्ययनों से पता चलता है कि भारत की एक बड़ी आबादी, विशेष
रूप से महिलाओं और पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों, में
खून की कमी है। यानी वे लौह न्यूनता से तो पीड़ित हैं ही, साथ ही
विटामिन की कमी भी निरंतर बढ़ती जा रही है।
उनका कहना है कि पश्चिमी देशों के कई खाद्य पदार्थ फोर्टिफाइड होते हैं इसलिए
वहां ऐसी समस्याएं कम होती हैं। भारत में ऐसे खाद्य पदार्थों की उपलब्धता और उन तक
पहुंच के साथ-साथ उपभोक्ता की पसंद का मुद्दा भी काफी महत्वपूर्ण है। इसलिए चावल, गेहूं जैसे खाद्यान्नों को फोर्टिफाय करने पर ध्यान दिया जा रहा है क्योंकि
इनके माध्यम से आवश्यक पोषक तत्व आसानी से लोगों तक पहुंचाए जा सकते हैं।
सवाल भी हैं
अब तक की चर्चा से प्रतीत होता है कि भारत में कुपोषण की समस्या से लड़ने के
लिए खाद्य पदार्थों का अनिवार्य फोर्टिफिकेशन ही एकमात्र उपाय है। लेकिन मामला
उतना भी आसान नहीं है जितना इसको बताया जा रहा है। खाद्य पदार्थों के फोर्टिफिकेशन
से सम्बंधित कई मूलभूत समस्याएं हैं जिनको FSSAI अनदेखा कर रहा है। इसके साथ ही खाद्य पदार्थों का
फोर्टिफिकेशन कई कंपनियों के लिए भारी मुनाफा कमाने का भी ज़रिया है। ऐसा पहले भी
देखा गया है – नमक में आयोडीन मिलाने को अनिवार्य करने पर नमक की कीमतों में भारी
वृद्धि हुई थी। फोर्टिफिकेशन तकनीकों को प्राप्त और लागू करने में सक्षम बड़ी
कंपनियों के पक्ष में लिया गया यह निर्णय शंका पैदा करता है कि जन कल्याण की आड़
में एक बड़ा खेल खेला जा रहा है।
खाद्य तेलों और चावल के अनिवार्य फोर्टिफिकेशन पर विभिन्न खाद्य सुरक्षा
कार्यकर्ताओं ने FSSAI को
पत्र लिखा था जिसमें आम लोगों के स्वास्थ्य और आजीविका के बारे में कई चिंताएं
प्रस्तुत की गई थी। पत्र में निम्नलिखित चिंताओं पर चर्चा की गई थी:
– भारत में संतुलित आहार के अभाव में एक या दो कृत्रिम खनिज पदार्थों का
फोर्टिफिकेशन करना खाद्य पदार्थों को विषाक्त बना सकता है जिससे कुपोषित आबादी पर
प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकते हैं। उदाहरण के तौर पर, आयरन
फोर्टिफिकेशन से कुपोषित बच्चों की आंत में सूजन हो सकती है।
– FSSAI द्वारा कार्यकर्ताओं को
सम्बोधित करते हुए पिछले पत्र में बताया गया था कि प्रमुख खाद्यान्नों में जोड़े गए
सूक्ष्म पोषक तत्वों को 30-50 प्रतिशत दैनिक अनुशंसित ज़रूरत (आरडीए) प्रदान करने
के हिसाब से समायोजित किया गया है। इसके जवाब में कार्यकर्ताओं का कहना है कि
अल्पपोषित आबादी पर लागू करने के लिए आरडीए प्रणाली की कुछ सीमाएं हैं। आरडीए की
गणना तभी की जाती है जब अन्य सभी पोषक तत्वों की आवश्यकता पूरी हो रही हो। ऐसे में, प्रोटीन व कैलोरी की कमी से पीड़ित आबादी के लिए आरडीए लागू नहीं किया जा सकता
है।
– कुपोषित जनसंख्या में सिर्फ एक विशेष पोषक तत्व की कमी नहीं होती बल्कि कई
पोषक तत्वों की मिली-जुली कमी होती है। इसलिए सूक्ष्म पोषक तत्वों को शामिल करने
के लिए आरडीए का हवाला देते हुए अनिवार्य फोर्टिफिकेशन का तब तक कोई मतलब नहीं है
जब तक स्थूल पोषक तत्वों की कमी को ध्यान में नहीं रखा गया हो। उदाहरण के लिए –
हीमोग्लोबिन संश्लेषण के लिए न केवल आयरन बल्कि अच्छी गुणवत्ता वाले प्रोटीन्स और
अन्य सूक्ष्म पोषक तत्व (जैसे विटामिन ए, सी, ई,
बी2, बी6, बी12, फोलेट,
मैग्नीशियम, सेलेनियम, ज़िंक आदि) की आवश्यकता होती है।
– इन कार्यकर्ताओं द्वारा फोर्टिफिकेशन की प्रभाविता से सम्बंधित एक और तर्क
दिया गया है। उन्होंने आईसीएमआर, एम्स और स्वास्थ्य मंत्रालय के
विशेषज्ञों द्वारा वर्ष 2021 में जर्नल ऑफ न्यूट्रीशन में प्रकाशित एक
अध्ययन का हवाला दिया है। इसमें चावल खाने वाले देशों में किए गए व्यापक विश्लेषण
से पता चला है फोर्टिफिकेशन से जनसंख्या में उस विशिष्ट न्यूनता में कोई विशेष
अंतर देखने को नहीं मिला है।
– पत्र में कार्यकर्ताओं ने भारत में उच्च स्तर की कार्बोहायड्रेट खपत की ओर
ध्यान आकर्षित किया है जो मधुमेह, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग जैसी बीमारियों से सम्बंधित है। ऐसे में अनाजों का अनिवार्य
फोर्टिफिकेशन एक गलत निर्णय सिद्ध हो सकता है क्योंकि यह पोषक तत्वों से भरपूर
अनाजों पर अधिक निर्भरता पैदा करेगा।
कुपोषण से सम्बंधित रिपोर्ट देखें तो अक्सर विरोधाभासी निष्कर्ष मिलते हैं।
इसलिए विटामिन और खनिज तत्वों की अल्पता के बारे में एक आम सहमति का अभाव है। यह
तो स्पष्ट है कि भारत के विभिन्न राज्यों में विटामिन और खनिज पदार्थों की कमी की
स्थिति अलग-अलग है, इसलिए इससे निपटने के लिए देश भर में एकरूप
प्रणाली की बजाय अधिक विविधतापूर्ण और स्थानीय समाधानों की ज़रूरत है। FSSAI के निरूपण से पता चलता है कि वह अवसरवादी ढंग से
विरोधाभासी साक्ष्यों का उपयोग कर रहा है ताकि कुपोषण के मुद्दे को समग्रता से
सम्बोधित करने की बजाय कृषि-कारोबार से निकले टुकड़ा-टुकड़ा समाधानों की आड़ ले
सके।
स्थानीय अर्थव्यवस्था और आजीविका
खाद्य पदार्थों के फोर्टिफिकेशन से कृषि व्यवसाय के अंतर्गत अनौपचारिक क्षेत्र
में काम करने वाले छोटे किसानों और कम आय वाले उपभोक्ताओं पर भी प्रतिकूल प्रभाव
पड़ सकता है।
आम तौर पर किसानों के पास अपनी उपज को फोर्टिफाय करने के लिए आवश्यक साधन और
तकनीकें नहीं होती है। ऐसे में किसान और भारतीय खाद्य निर्माता तो आवश्यक वस्तुओं
के लिए कच्चा माल प्रदान करेंगे जबकि सूक्ष्म-पोषक तत्व और प्रौद्योगिकी तथा
फोर्टिफिकेशन के साधन अंतर्राष्ट्रीय बिज़नेस द्वारा प्रदान किए जाएंगे। हालांकि, इस पूरी प्रक्रिया में सूक्ष्म पोषक तत्वों या अंतिम उत्पाद के मूल्यों को
नियंत्रित करने के लिए न तो मूल्य-नियंत्रण तंत्र की कोई चर्चा की गई है और न ही
छोटे भारतीय उत्पादकों द्वारा मंडियों के बाहर अपना माल बेचने के लिए न्यूनतम
समर्थन मूल्य तय किया गया है।
एक और समस्या है जिस पर FSSAI ने विचार नहीं किया है। इस आदेश से सूक्ष्म पोषक तत्वों के आपूर्तिकर्ताओं को
सामूहिक रूप से कीमतों में वृद्धि करने के लिए अनौपचारिक उत्पादक संघ (कार्टल)
बनाने का प्रोत्साहन मिलेगा जिससे उपभोक्ताओं को परेशानी का सामना करना पड़ेगा। ऐसे
कार्टल बने तो फोर्टिफिकेशन का उद्देश्य विफल हो जाएगा। जिन देशों में इस तरह के
नियम लाए गए हैं,
वहां इस तरह के व्यवहार देखे जा चुके हैं और कुछ देशों में
तो अनुचित बाज़ार प्रथाओं के लिए कंपनियों पर भारी जुर्माना भी लगाया गया है। FSSAI को कोई भी आदेश जारी करने से
पूर्व वस्तुओं के मूल्य विनियमन के सवाल पर गंभीरता से विचार करना होगा।
फोर्टिफिकेशन से बाज़ार में औपचारिक खिलाड़ियों की हिस्सेदारी में वृद्धि हो सकती है
और अनौपचारिक लोगों की हिस्सेदारी में कमी आ सकती है।
कार्यकर्ताओं ने अपने पत्र में यह भी बताया है कि पंजाब और हरियाणा के राइस
मिलर्स एसोसिएशन्स मार्च 2021 से ही चावल के फोर्टिफिकेशन के नए मानदंडों का विरोध
कर रहे हैं और एफसीआई को इन मानदंडों में ढील देने के लिए मजबूर करने में कामयाब
भी रहे हैं।
अध्ययनों की दिक्कतें
FSSAI ने फोर्टिफिकेशन को एक अच्छा
विचार बताने के लिए जिस अध्ययन का हवाला दिया है, वह
नेस्ले न्यूट्रीशन इंस्टिट्यूट द्वारा वित्तपोषित है और ग्लोबल अलायन्स फॉर
इम्प्रूव्ड न्यूट्रीशन (गैन) के सदस्यों द्वारा लिखा गया है। यह काफी चिंताजनक है।
इन दोनों संस्थाओं के निहित स्वार्थ किसी से छिपे नहीं हैं।
इस विषय में अधिक स्वतंत्र अध्ययनों की तत्काल आवश्यकता है।
फोर्टिफिकेशन ज़रूरी है?
ऐसा प्रतीत होता है कि FSSAI अनिवार्य फोर्टिफिकेशन को किफायती और कुपोषण से लड़ने के उपाय के रूप में धकेल
रहा है लेकिन यह काफी दिलचस्प है कि FSSAI उतना ही प्रयास आहार विविधिकरण के लिए नहीं कर रहा है। इसका कारण यह है कि
आहार विविधिकरण से बड़ी कंपनियों को लाभ मिलने की बहुत कम संभावना है।
वास्तव में आहार विविधिकरण फोर्टिफिकेशन की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण है
क्योंकि फोर्टिफिकेशन अतिरिक्त पोषक तत्व प्रदान करने का एक कृत्रिम तरीका है जबकि
आहार विविधिकरण से शरीर को प्राकृतिक तरीकों से पोषण प्राप्त करने की अनुमति मिलती
है। लेकिन,
FSSAI का ‘ईट राइट इंडिया’ अभियान
आहार विविधिकरण की बजाय फोर्टिफिकेशन पर अधिक ज़ोर देता लग रहा है।
एक सत्य तो यह भी है कि फोर्टिफिकेशन से अपरिवर्तनीय और हानिकारक परिणाम हो
सकते हैं फिर भी हम अधिक लागतक्षम विकल्प की तलाश नहीं कर पा रहे हैं। FSSAI का दावा है कि फोर्टिफिकेशन
एक लागतक्षम उपाय है लेकिन वास्तव में इसके दीर्घकालिक स्थायी प्रभाव होंगे जिनमें
कॉर्पोरेट शक्ति में वृद्धि भी शामिल है।
फोर्टिफिकेशन का एक और चिंताजनक दीर्घकालिक प्रभाव यह भी है इसकी वजह से
पैकेज्ड खाद्य पदार्थों पर निर्भरता बढ़ेगी और स्थानीय खाद्य पदार्थों, उनकी उत्पादन प्रणाली और खानपान की प्रथाओं से ध्यान हटेगा। पैकेज्ड खाद्य
पदार्थों पर बड़े और विविध समुदायों की निर्भरता का मतलब कॉर्पोरेट खिलाड़ियों के
लिए आय का एक बड़ा स्रोत है जिनकी कीमतों में वृद्धि करने में वे संकोच नहीं
करेंगे। यह पूछने की ज़रूरत है कि क्या सरकार अल्पता की समस्या के समाधान के बाद
फोर्टिफिकेशन और उसके परिणामों को उलटने में सक्षम होगी। क्या सरकार अनाजों पर इस
कृत्रिम निर्भरता को पलट पाएगी?
निष्कर्ष और समाधान
यह तो स्पष्ट है कि फोर्टिफिकेशन वास्तव में बड़ी कंपनियों को लाभान्वित करने
की एक योजना है जो वर्तमान पारंपरिक कृषि व्यवसाय की कम कीमतों के साथ प्रतिस्पर्धा
करने में असमर्थ हैं। फोर्टिफिकेशन के आदेश का मुख्य उद्देश्य वास्तव में बड़ी
बहुराष्ट्रीय कंपनियों को मौके प्रदान करना है।
भारत में कुपोषण से लड़ने के बहुत सारे समाधान हैं जिनमें आहार का स्थानीयकरण
पोषण प्रदान करने के हिसाब से पहला सबसे महत्वपूर्ण कदम होना चाहिए। देश भर में
एकरूप अनाज को बढ़ावा देने की बजाय, विभिन्न क्षेत्रों में भोजन की
ऐसी उपयुक्त किस्मों को बढ़ावा दिया जाए तो अधिक प्रभावी होगा जो प्राकृतिक रूप से
विटामिन और खाद्य खनिजों से भरपूर होते हैं। उदाहरण के तौर पर हमारे पास आयरन से
भरपूर (20-300 पीपीएम) चावल की 68 देसी किस्में हैं, ऐसे
में पॉलिश किए गए चावलों को फोर्टिफाय करने की बजाय देसी किस्मों को बढ़ावा देना
बेहतर होगा।
इससे भी अधिक महत्वपूर्ण पोषक तत्वों से भरपूर पशु खाद्य पदार्थ जैसे अंडे, मांस,
डेयरी, मछली और यहां तक कि कीड़े हैं
जिनको भारत के कई भागों में भोजन के तौर पर खाया जाता है। इन्हें बढ़ावा देने की
बजाय सरकार फोर्टिफिकेशन को बढ़ावा दे रही है जो स्पष्ट रूप से कॉर्पोरेट-हितैषी
है।
एक अन्य उपाय के तहत पॉलिशिंग, प्रसंस्करण और परिष्करण को कम
करके,
विशेष रूप से चावल और तेल में, पोषण
तत्वों में वृद्धि की जा सकती है। सरकार को फोर्टिफिकेशन को बढ़ावा देने की बजाय इन
उपायों के प्रति भेदभाव रहित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।
सरकार को ऐसा रास्ता अपनाना चाहिए जिससे स्थानीय खाद्य प्रणालियों जैसे पशु खाद्य स्रोत, दालों, बाजरा, सब्ज़ियों, फलियों आदि में निवेश को बढ़ावा मिले और स्थानीय खाद्य उत्पादन के साथ-साथ स्थानीय आजीविका में भी सुधार हो सके। इसकी बजाय प्रस्तावित नीति विरोधाभासी साक्ष्यों और हितों के टकराव में विश्वास रखती है। ऐसी नीतियां पोषण की समस्या को सिर्फ कुछ कृत्रिम तत्व जोड़कर विराम दे देती हैं जबकि ज़रूरत समग्रता से पोषण पर विचार करने की है और फोर्टिफिकेशन इसका उपाय नहीं है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://miro.medium.com/max/1200/1*ikTh8GRumLpHRy6a7w4OWg.png
इन दिनों सोशल मीडिया और समाचार में कोविड-19 टीके से
टीकाकृत लोगों में ‘ब्रेकथ्रू संक्रमण’ की खबर सुर्खियों में है। ऐसे में टीके
द्वारा प्रदान की जाने वाली सुरक्षा को लेकर आम जनता के बीच एक गलत धारणा विकसित
हो रही है और लोग टीका लगवाने में संकोच कर रहे हैं। ब्रेकथ्रू संक्रमण का मतलब
होता है कि एक बार संक्रमित हो जाने या टीकाकरण के बाद फिर से संक्रमित हो जाना।
इन्फ्लुएंज़ा,
खसरा और कई अन्य बीमारियों में भी ब्रेकथ्रू संक्रमण देखे
गए हैं।
देखा जाए तो कोई भी टीका शत प्रतिशत प्रभावी नहीं होता है। हां, कुछ टीके अन्य की तुलना में अधिक प्रभावी हो सकते हैं लेकिन अधिकांश टीकों में
ब्रेकथ्रू संक्रमण होते हैं। वास्तव में ‘ब्रेकथ्रू संक्रमण’ का मतलब है कि किसी
टीकाकृत व्यक्ति में रोगकारक उपस्थित है, यह नहीं कि वह बीमार
पड़ेगा या संक्रमण फैलाएगा। टीकाकृत लोग संक्रमित होते हैं तो अधिकांश में बीमारी
के कोई लक्षण नहीं होते हैं, और यदि होते भी हैं तो वे
गंभीर रूप से बीमार नहीं पड़ते। यहां तक कि डेल्टा संस्करण के विरुद्ध भी टीका
गंभीर बीमारी या मौत के जोखिम के खिलाफ पर्याप्त सुरक्षा प्रदान करता है।
उदाहरण के लिए, अमेरिका में लगभग आधी आबादी का टीकाकरण हो
चुका है। फिर भी,
कोविड-19 के कारण अस्पताल में भर्ती होने वाले 97 प्रतिशत
मामले उन लोगों के हैं जिनका टीकाकरण नहीं हुआ है। यानी टीका न लगवाने वाले अधिक
संख्या में बीमार हुए हैं।
ब्रेकथ्रू संक्रमण के मामले में एक चिंता यह व्यक्त हुई है कि ऐसे लोग दूसरों
को वायरस फैलाएंगे। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि टीकाकृत लोगों द्वारा वायरस
फैलाने की संभावना कम होती है, यहां तक कि लक्षण विहीन लोगों
द्वारा भी। यानी यदि आप टीकाकृत हैं तो आपके संक्रमित होने की संभावना तो काफी कम
है ही,
और यदि आप संक्रमित हो भी जाते हैं तो आपके द्वारा वायरस
प्रसार का जोखिम काफी कम होगा। एक कारण यह है कि ऐसे संक्रमणों में वायरस की मात्रा
ही कम होती है।
गौरतलब है कि ब्रेकथ्रू के मामले टीके के अप्रभावी होने से नहीं होते हैं। समय
के साथ प्रतिरक्षा कम होना, या किसी विशेष रोगजनक के प्रति
टीके का अप्रभावी होना इसके कारण हो सकते हैं। जॉन्स हॉपकिंस ब्लूमबर्ग स्कूल ऑफ
पब्लिक हेल्थ में डिपार्टमेंट ऑफ इंटरनेशनल हेल्थ की एसोसिएट प्रोफेसर कौसर तलात
बताती हैं कि एमएमआर (मीज़ल्स-मम्स-रूबेला) का टीका एक ऐसा ही उदाहरण है। इसमें
खसरा के विरुद्ध तो मज़बूत सुरक्षा प्राप्त होती है लेकिन मम्स के विरुद्ध
प्रतिरक्षा क्षमता कम मिलती है। लेकिन खसरा के भी ब्रेकथ्रू संक्रमण देखे गए हैं।
इसी वजह से 1980 के दशक में खसरा के व्यापक प्रकोप के बाद से नीति में परिवर्तन
किया गया और एक के बजाय एमएमआर की दो खुराकें दी जाने लगीं।
इन्फ्लुएंज़ा टीके से तो सबसे अधिक ब्रेकथ्रू संक्रमण जुड़े हैं।
विशेषज्ञों के अनुसार यदि इन मामलों को बारीकी से ट्रैक किया जाने लगे तो
सार्स-कोव-2 से भी अधिक ब्रेकथ्रू मामले देखने को मिल जाएंगे। बल्कि वास्तविकता तो
यह है कि कोविड टीके इन्फ्लुएंज़ा टीकों से बेहतर प्रदर्शन करते प्रतीत हो रहे हैं।
अभी तक तो कोविड टीके नए संस्करणों के विरुद्ध काफी प्रभावी रहे हैं। यहां तक कि
कोविड प्रतिरक्षा पर उतना हावी नहीं हो पाता जितना इन्फ्लुएंज़ा होता है। कई बार कम
प्रभावी टीके के चलते कुछ मौसमों में बड़ी संख्या में ब्रेकथ्रू मामले होते हैं।
ब्रेकथ्रू दर का सम्बंध टीकाकृत जनसंख्या पर निर्भर करता है। यदि टीकाकृत
लोगों की संख्या कम है तो समुदाय में ब्रेकथ्रू की दर अधिक होगी। दूसरी ओर, उच्च टीकाकरण का मतलब होगा कि अधिकांश मामले टीकाकृत लोगों के होंगे।
ब्रेकथ्रू संक्रमण में टीकाकृत लोगों की बड़ी संख्या का एक अन्य कारक उनकी आयु, स्वास्थ्य स्थिति भी है, जिनका सम्बंध कमज़ोर प्रतिरक्षा
तंत्र से देखा गया है। ऐसे लोगों में टीकों के प्रति प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया थोड़ी
कमज़ोर होती है और वे अधिक जोखिम में होते हैं। ऐसे लोगों को कोविड के बूस्टर शॉट
की आवश्यकता हो सकती है। अंग प्रत्यारोपण किए गए रोगियों में टीके की तीसरी खुराक
से अच्छे परिणाम देखने को मिले हैं। फ्रांस और इस्राइल ने कमज़ोर प्रतिरक्षा वाले
लोगों में पहले से ही तीसरी खुराक देने का निर्णय लिया है और यूके भी इस पर विचार
कर रहा है। सीडीसी ने भी बूस्टर शॉट से सम्बंधित डैटा की समीक्षा के बाद विशेष
आबादी के लिए सहमति दी है।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि जब तक हमारे पास बूस्टर शॉट से सम्बंधित स्पष्ट और ठोस परिणाम नहीं है तब तक सबका टीकाकरण ही सबसे बेहतर उपाय है क्योंकि ऐसा करके आम लोगों के अलावा कमज़ोर प्रतिरक्षा वाले लोगों को भी सुरक्षा प्रदान की जा सकेगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://img.assets-d.propublica.org/v5/images/20210413-breakthrough-infections.jpg?crop=focalpoint&fit=crop&fp-x=0.2471&fp-y=0.4025&h=533&q=80&w=800&s=ef5b63d1cdd9ef2381765f97e7e82bed
गर्भस्थ शिशु को पोषण की ज़रूरत होती है, और इसकी पूर्ति सुनिश्चित करने के लिए गर्भावस्था के दौरान मां की शरीर क्रिया
में व्यापक परिवर्तन होते हैं। इनमें से एक परिवर्तन है इंसुलिन के प्रति
संवेदनशीलता में कमी है; यानी कोशिकाएं रक्त से ग्लूकोज़
लेने का संकेत देने वाले इंसुलिन संकेतों के प्रति कम संवेदी हो जाती हैं। पांच से
नौ प्रतिशत गर्भवती महिलाओं में कोशिकाएं इतनी इंसुलिन प्रतिरोधी हो जाती हैं कि
रक्त में शर्करा का स्तर नियंत्रित नहीं रह पाता। इसे गर्भकालीन मधुमेह (जीडीएम)
कहते हैं। अस्थायी होने के बावजूद यह गर्भवतियों और उनके बच्चे में भविष्य में
टाइप-2 मधुमेह और अन्य बीमारियां का खतरा बढ़ा देता है।
पूर्व में,
मैसाचुसेट्स विश्वविद्यालय की रेज़ील रोजास-रॉड्रिग्ज़ ने
जीडीएम से ग्रस्त और जीडीएम से मुक्त गर्भवतियों के वसा ऊतक में अंतर पाया था।
वैसे तो गर्भावस्था के दौरान गर्भवतियों में वसा की मात्रा में वृद्धि सामान्य बात
है,
लेकिन जीडीएम-पीड़ित गर्भवतियों में बड़ी-बड़ी वसा कोशिकाएं
अंगों के आसपास जमा हो जाती हैं। यह भी देखा गया था कि जीडीएम रहित गर्भवतियों की
तुलना में जीडीएम-पीड़ित गर्भवतियों के वसा ऊतकों में इंसुलिन संकेत से सम्बंधित
कुछ जीन्स की अभिव्यक्ति कम होती है। शोधकर्ता जानना चाहते थे कि क्या गर्भावस्था
के दौरान वसा ऊतकों के पुनर्गठन और इंसुलिन प्रतिरोध विकसित होने के बीच कोई
सम्बंध है?
यह जानने के लिए उन्होंने गर्भावस्था से जुड़े प्लाज़्मा प्रोटीन-ए (PAPPA) का अध्ययन किया। PAPPA मुख्य रूप से प्लेसेंटा
द्वारा बनाया जाता है, यह इंसुलिन संकेतों का नियंत्रण करता है और
गर्भावस्था के दौरान रक्त में इन संकेतों को बढ़ाता है। परखनली अध्ययन में पाया गया
कि PAPPA मानव वसा ऊतक के पुनर्गठन में
भूमिका निभाता है और रक्त वाहिनियों के विकास को बढ़ावा देता है। गर्भवती जंगली
चूहों पर अध्ययन में पाया गया कि PAPPA की कमी वाली चुहियाओं में उनके यकृत के आसपास अधिक वसा जमा थी, और उनमें इंसुलिन संवेदनशीलता भी कम पाई गई थी।
शोधकर्ताओं ने 6361 गर्भवती महिलाओं की प्रथम तिमाही में PAPPA परीक्षण और तीसरी तिमाही में
ग्लूकोज़ परीक्षण के डैटा का अध्ययन भी किया। टीम ने पाया कि PAPPA में कमी जीडीएम होने की
संभावना बढ़ाती है। इससे लगता है कि PAPPA जीडीएम की स्थिति बनने से रोक सकता है।
अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि PAPPA के स्तर और जीडीएम के बीच सम्बंध स्पष्ट नहीं है क्योंकि संभावना है कि किसी
व्यक्ति में जीडीएम किन्हीं अन्य वजहों से होता हो। और जिन चूहों में PAPPA प्रोटीन खामोश कर दिया गया था
वे चूहे मानव गर्भावस्था की सभी विशेषताएं भी नहीं दर्शाते। मसलन, भले ही PAPPA विहीन चूहों में अन्य की
तुलना में इंसुलिन के प्रति संवेदनशीलता कम हो गई थी, लेकिन उनमें
ग्लूकोज़ के प्रति सहनशीलता बढ़ी हुई थी। शोधदल का कहना है कि ऐसा इसलिए हो सकता है
क्योंकि इन चूहों की मांसपेशियां सामान्य से अधिक मात्रा में ग्लूकोज़ खर्च करती
हैं – शायद अधिक दौड़-भाग के कारण।
शोधकर्ता अब पूरी गर्भावस्था के दौरान PAPPA प्रोटीन को मापना चाहती हैं। वे बताती हैं कि इस प्रोटीन का उपयोग जीडीएम के बायोमार्कर की तरह किया जा सकता है और संभवत: गर्भकालीन मधुमेह के निदान के लिए उपयोग किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.the-scientist.com/assets/articleNo/69020/iImg/43045/Medilit-August2021-Infographic.jpg
एक ओर कोविड-19 की तीसरी लहर की बातें हो रही हैं और टीकाकरण
की रफ्तार बहुत धीमी है। वैज्ञानिकों और चिकित्सकों का मानना है कि वर्तमान में
टीकों को पूर्ण स्वीकृति की बजाय आपातकालीन उपयोग की मंज़ूरी मिलने की वजह से कई
लोग टीका लगवाने में झिझक रहे हैं। इसके अतिरिक्त कई देशों में टीका विरोधी
कार्यकर्ताओं,
टॉक शो और दक्षिणपंथी राजनेताओं द्वारा भी टीकाकरण का विरोध
किया जा रहा है।
कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी की संक्रामक रोग चिकित्सक मोनिका गांधी के अनुसार
यूएस के खाद्य एवं औषधि प्रशासन (एफडीए) द्वारा टीकों के पूर्ण अनुमोदन के बाद ही
लोगों में टीकाकरण के प्रति संदेह खत्म किया जा सकता है। वर्तमान में फाइज़र और
मॉडर्ना ने टीकों के पूर्ण अनुमोदन के लिए एफडीए में आवेदन दिया है लेकिन इस
प्रक्रिया में कई महीने लग सकते हैं। टीकों की पूर्ण स्वीकृति के संदर्भ में कुछ
सवालों पर चर्चा की गई है। चर्चा एफडीए के संदर्भ में है लेकिन दुनिया भर के सभी
नियामकों पर लागू होती है।
टीकों को अभी तक पूर्ण स्वीकृति क्यों नहीं मिली है?
महामारी के संकट को देखते हुए एफडीए तथा कई अन्य नियामकों ने फाइज़र, मॉडर्ना,
जॉनसन एंड जॉनसन (जे-एंड-जे) व अन्य द्वारा निर्मित टीकों
को आपातकालीन उपयोग की अनुमति (ईयूए) प्रदान की है। पूर्व में भी दवाओं को
आपातकालीन उपयोग की अनुमति दी गई थी लेकिन ऐसा पहली बार हुआ है कि टीकों को
आपातकालीन उपयोग की अनुमति दी गई है। गौरतलब है कि ईयूए प्राप्त करने के लिए भी
टीका निर्माताओं को कई दिशा-निर्देशों का पालन करना होता है। इसमें सैकड़ों-हज़ारों
प्रतिभागियों के साथ क्लीनिकल परीक्षणों से सुरक्षा और प्रभाविता डैटा के अलावा
टीकों की स्थिरता और उत्पादन की गुणवत्ता सम्बंधी जानकारी भी मांगी जाती है। फाइज़र
और मॉडर्ना को यह स्वीकृति दिसंबर 2020 में मिली थी जबकि जे-एंड-जे को फरवरी 2021
में। तब से लेकर अब तक जुटाए गए वास्तविक उपयोग के डैटा के आधार पर फाइज़र ने इस
वर्ष मई की शुरुआत में और मॉडर्ना ने जून में पूर्ण अनुमोदन के लिए आवेदन दिया है, और जे-एंड-जे जल्द ही आवेदन देने वाला है।
पूर्ण अनुमोदन और ईयूए में अंतर?
पूर्ण अनुमोदन प्रदान करने के लिए एफडीए को लंबी अवधि में एकत्रित किए गए
विस्तृत डैटा की समीक्षा करनी होती है। इसके तहत टीकों की प्रभाविता और सुरक्षा के
लिए अतिरिक्त क्लीनिकल परीक्षण डैटा के साथ-साथ वास्तविक उपयोग के डैटा का गहराई
से अध्ययन करना होता है। इसके साथ ही एफडीए द्वारा टीका उत्पादन सुविधाओं का
निरीक्षण और गुणवत्ता का बहुत ही सख्ती से ध्यान रखा जाता है। इसमें टीकों के
बिरले दुष्प्रभावों पर ध्यान दिया जाता है जो शायद क्लीनिकल परीक्षण में सामने न
आए हों।
स्वीकृति कब तक मिल सकती है?
16 जुलाई को एफडीए ने फाइज़र का आवेदन ‘प्राथमिकता’ के आधार पर स्वीकार किया
है। यानी इसकी समीक्षा जल्द की जाएगी; यह निर्णय अगले दो महीने
में आने की संभावना है। वहीं, मॉडर्ना द्वारा आवश्यक
दस्तावेज़ जमा न करने के कारण एफडीए ने कंपनी के आवेदन को औपचारिक रूप से स्वीकार
नहीं किया है।
टीके की जल्द से जल्द स्वीकृति की मांग क्यों की जा रही है?
ज़ाहिर है कि पूर्ण अनुमोदन से टीकाकरण के प्रति लोगों की हिचक कम हो सकती है।
ऐसे में कई चिकित्सक और जन स्वास्थ्य अधिकारी भी टीकों को जल्द से जल्द अनुमोदन की
प्रतीक्षा कर रहे हैं।
क्या पूर्ण अनुमोदन से अधिक लोग टीकाकरण के लिए तैयार होंगे?
कैसर फैमिली फाउंडेशन द्वारा जून में 1,888 लोगों पर किए गए सर्वेक्षण के
अनुसार लगभग 30 प्रतिशत लोग पूर्ण अनुमोदन के बाद टीका लगवाने के लिए तैयार हैं।
लेकिन अभी भी कई लोगों के लिए एफडीए द्वारा दिया जाने वाला अनुमोदन एक सामान्य
सुरक्षा का ही द्योतक होता है। ऐसा ज़रूरी नहीं कि जो लोग पूर्ण अनुमोदन का इंतज़ार
कर रहे हैं वो वास्तव में टीका लगवा ही लेंगे, क्योंकि
अनुमोदन प्रक्रिया को जल्दबाज़ी या राजनीतिक रूप से प्रेरित माना जा रहा है। जो लोग
पूरी तरह से टीकाकरण के विरोध में हैं उनके लिए एफडीए का अनुमोदन भी कोई मायने
नहीं रखता।
लेकिन पूर्ण स्वीकृति कुछ लोगों को प्रभावित भी कर सकती है। उदाहरण के तौर पर, कई लोगों को टीकाकरण के लिए एफडीए के सहमति फॉर्म पर हस्ताक्षर करना एक बड़ी
मनोवैज्ञानिक बाधा हो सकती है। एक ऐसे सहमति पत्र पर हस्ताक्षर करना जिसमें
‘प्रायोगिक’ शब्द का उपयोग किया गया हो, वह अश्वेत समुदायों में
एक गंभीर मुद्दा रहा है।
क्या अनुमोदन अनिवार्य टीकाकरण का मार्ग प्रशस्त करेगा?
देखा जाए तो अमेरिका के 500 से अधिक विश्वविद्यालयों और बड़े अस्पतालों ने अपने
छात्रों और कर्मचारियों को अनिवार्य टीकाकरण का आदेश जारी किया है। लेकिन तकनीकी
रूप से प्रायोगिक टीका लेने के लिए कई स्कूल, अस्पताल
और यहां तक कि अमेरिकी फौज भी संकोच कर रही है और पूर्ण अनुमोदन के इंतज़ार में है।
ऐसा दावा किया जा रहा है कि पूर्ण अनुमोदन मिलने पर कई संगठन और उद्योग टीकाकरण
अनिवार्य कर देंगे।
गौरतलब है कि फ्रांस में टीकाकरण के प्रति लोगों में संकोच के बाद भी सरकार ने
मॉल,
बार्स, रेस्टॉरेंट और अन्य सार्वजनिक
स्थानों पर ‘हेल्थ पास’ जारी करने की घोषणा की है जो टीकाकृत लोगों को प्रदान किया
जाएगा। इसके समर्थन में 10 लाख से अधिक लोग टीकाकरण के लिए तैयार हुए हैं जबकि
हज़ारों लोग इसके विरोध में सड़कों पर उतर आए हैं।
क्या एफडीए अनुमोदन की प्रक्रिया को तेज़ कर सकता है?
उच्च गुणवत्ता समीक्षा और मूल्यांकन की प्रक्रिया को पूरा किए बिना अनुमोदन
देना एफडीए की वैधानिक ज़िम्मेदारी को कमज़ोर करना होगा। इससे जनता के बीच एजेंसी पर
भरोसा कम होगा और टीकाकारण के प्रति झिझक और अधिक बढ़ जाएगी। mRNA आधारित टीकों के लिए तो यह और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि ये
पूरी तरह से नई तकनीक पर आधारित हैं।
क्या आपातकालीन मंज़ूरी वाले टीके लगवाना सुरक्षित है?
विशेषज्ञों का मत है कि अब तक एकत्र किए गए डैटा के अनुसार आपातकालीन मंज़ूरी प्राप्त सभी टीके सुरक्षित और प्रभावी हैं। गांधी के अनुसार क्लीनिकल परीक्षणों में टीकों के इतने अच्छे परिणाम काफी आश्चर्यजनक हैं। इन परिणामों को देखते हुए फिलहाल चिकित्सकों और विशेषज्ञों का सुझाव है कि हर वयस्क को अनिवार्य रूप से टीका लगवाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.npr.org/assets/img/2021/06/21/hbarczyk_npr_vaccines_finalrev2_wide-97832045a45081cb2483bdd2515ab9e394488872.jpg?s=1400
कोई व्यक्ति वर्तमान में कितना स्वस्थ है, यह पता लगाने के लिए वैज्ञानिक लंबे समय से आयु-घड़ी के विचार पर काम कर रहे
हैं। आयु-घड़ी का अर्थ है कि किसी व्यक्ति की अपनी वास्तविक उम्र की तुलना में
जैविक रूप से उम्र कितनी है। एपिजेनेटिक्स-आधारित घड़ियों ने इस क्षेत्र में कुछ
उम्मीद जगाई थी,
लेकिन डीएनए में हुए एपिजेनेटिक परिवर्तनों को मापकर किसी
व्यक्ति की जैविक उम्र पता करना थोड़ा जटिल काम है। एपिजेनेटिक परिवर्तन मतलब डीएनए
में अस्थायी परिवर्तन जो जीन्स की अभिव्यक्ति को प्रभावित करते हैं।
अब इस दिशा में शोधकर्ताओं ने एक नए तरह की आयु-घड़ी, iAge,
विकसित की है जो जीर्ण शोथ (इन्फ्लेमेशन) का आकलन कर यह बता
सकती है कि आपको उम्र-सम्बंधी किसी रोग, जैसे हृदय रोग या
तंत्रिका-विघटन सम्बंधी रोग, के विकसित होने का खतरा तो
नहीं है। यह घड़ी व्यक्ति की ‘जैविक आयु’ बताती है जो उसकी वास्तविक आयु से
कम-ज़्यादा हो सकती है।
दरअसल,
जब किसी व्यक्ति की उम्र बढ़ती है तो शरीर की कोशिकाएं
क्षतिग्रस्त होने लगती हैं और शोथ पैदा करने वाले अणु स्रावित करने लगती हैं, नतीजतन संपूर्ण देह में जीर्ण शोथ का अनुभव होता है। यह अंतत: ऊतकों और अंगों
की टूट-फूट का कारण बनता है। जिन लोगों की प्रतिरक्षा प्रणाली अच्छी होती है वे
कुछ हद तक इस शोथ को बेअसर करने में सक्षम होते हैं, लेकिन
कमज़ोर प्रतिरक्षा वाले लोगों की जैविक उम्र तेज़ी से बढ़ने लगती है।
इंफ्लेमेटरी एजिंग क्लॉक (iAge) को विकसित करने के लिए कैलिफोर्निया में स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी के सिस्टम
बायोलॉजिस्ट डेविड फरमैन और रक्त-वाहिनी विशेषज्ञ नाज़िश सैयद की टीम ने 8-96 वर्ष
की आयु के 1001 लोगों के रक्त के नमूनों का विश्लेषण किया। शोधकर्ताओं ने रक्त में
दैहिक शोथ का संकेत देने वाले प्रोटीन संकेतकों को पहचानने के लिए मशीन-लर्निंग
एल्गोरिदम की मदद ली। इसके अलावा उन्होंने प्रतिभागियों की वास्तविक उम्र और
स्वास्थ्य जानकारी का भी उपयोग किया। उन्होंने प्रतिरक्षा-संकेत प्रोटीन (या
साइटोकाइन) CXCL9 को
शोथ के मुख्य जैविक चिंह के तौर पर पहचाना; CXCL9 मुख्य रूप से रक्त वाहिकाओं
की आंतरिक परत द्वारा निर्मित होता है और इसके चलते हृदय रोग विकसित हो सकते हैं।
iAge के परीक्षण के लिए शोधकर्ताओं
ने कम से कम 99 वर्ष तक जीवित रहने वाले 19 लोगों के रक्त के नमूने लेकर iAge की मदद से उनकी जैविक आयु की
गणना की। ये लोग इम्यूनोम नामक एक प्रोजेक्ट के सदस्य थे। इस प्रोजेक्ट में इस बात
का अध्ययन किया जा रहा है कि उम्र बढ़ने के साथ लोगों में जीर्ण, तंत्रगत शोथ में कैसे परिवर्तन होते हैं। पाया गया कि उम्र की शतक लगाने वाले
इन लोगों की iAge आयु उनकी वास्तविक आयु से
औसतन 40 वर्ष कम थी – ये नतीजे इस विचार से मेल खाते हैं कि स्वस्थ प्रतिरक्षा
प्रणाली वाले लोग लंबे समय तक जीवित रहते हैं।
चूंकि रक्त परीक्षण करके शोथ को मापना आसान है, इसलिए
नैदानिक परीक्षण के लिए iAge जैसे साधन व्यावहारिक हो सकते हैं। इसके अलावा उम्मीद है कि iAge और अन्य आयुमापी घड़ियां
व्यक्ति के मुताबिक उपचार करना संभव कर सकती हैं।
दैहिक शोथ के जैविक चिंह के रूप में CXCL9 की जांच करते समय फरमैन और उनके साथियों ने मानव
एंडोथेलियल कोशिकाओं को विकसित किया है। उन्होंने तश्तरी में रक्त वाहिकाओं की
दीवारों को विकसित किया और उनमें बार-बार विभाजन करवाकर उनको कृत्रिम रूप से वृद्ध
बना दिया। शोधकर्ताओं ने पाया कि CXCL9 प्रोटीन का उच्च स्तर कोशिकाओं को निष्क्रिय कर देता है। जब शोधकर्ताओं ने CXCL9 को एनकोड करने वाले जीन की
अभिव्यक्ति को रोक दिया तो कोशिकाएं पुन: कुछ हद तक काम करने लगीं। इससे लगता है
कि प्रोटीन के हानिकारक प्रभाव को पलटा जा सकता है।
अगर शोथ की पहचान शुरुआत में ही कर ली जाए तो इसका इलाज किया जा सकता है। इसके
लिए हमारे पास कई साधन उपलब्ध हैं। जैसे सैलिसिलिक एसिड (एस्पिरिन बनाने की एक
प्रारंभिक सामग्री), और रूमेटोइड गठिया शोथ रोधी जैनस काइनेस
अवरोधक/सिग्नल ट्रांसड्यूसर एंड एक्टिवेटर ऑफ ट्रांसक्रिप्शन (JK/STAT) अवरोधक। चूंकि शोथ का उपचार किया जा सकता है इसलिए उम्मीद
है कि यह साधन यह निर्धारित करने में मदद कर सकता है कि उपचार से किसे लाभ हो सकता
है – संभवत: यह किसी व्यक्ति के तंदुरुस्त वर्षों में इज़ाफा कर सकता है। उम्मीद है
कि भविष्य में कोई भी व्यक्ति नियमित रूप से अपनी शोथ-जैविक चिंह प्रोफायलिंग करा
सकेगा ताकि वह आयु-सम्बंधी रोग होने की संभावना देख सके।
इसके अलावा, अध्ययन इस तथ्य को भी पुख्ता करता है कि प्रतिरक्षा प्रणाली महत्वपूर्ण है, न केवल स्वस्थ उम्र की भविष्यवाणी करने के लिए बल्कि इसका संचालन करने वाले तंत्र के रूप में भी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-021-01915-x/d41586-021-01915-x_19356396.jpg
विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि दुनिया की 15 प्रतिशत
आबादी (लगभग 78.5 करोड़ लोग) स्मृतिभ्रंश (डिमेंशिया), याददाश्त
की कमज़ोरी,
दुश्चिंता व तनाव सम्बंधी विकार, अल्ज़ाइमर
या इसी तरह की मानसिक अक्षमताओं से पीड़ित हैं। दी हिंदू में प्रकाशित एक
हालिया अध्ययन के अनुसार भारत में कोविड-19 महामारी और इसके कारण हुई तालाबंदी के
बाद 74 प्रतिशत वरिष्ठ नागरिकों (60 वर्ष से अधिक उम्र के लोग) में तनाव और 88
प्रतिशत वरिष्ठ नागरिकों में दुश्चिंता की समस्या देखी गई। वर्ष 2050 तक भारत में
वरिष्ठ नागरिकों की संख्या कुल जनसंख्या का लगभग 20 प्रतिशत होगी।
वृद्ध लोगों का इलाज
इस स्थिति में हमें वरिष्ठ नागरिकों में (साथ ही ‘कनिष्ठ नागरिकों’ में भी, उनके वरिष्ठ होने के पहले) इस तरह की मानसिक अक्षमताओं का पता लगाने और उनका
इलाज करने के विभिन्न तरीकों की आवश्यकता है। आयुर्वेद, यूनानी, योग और प्राणायाम जैसी कई पारंपरिक पद्धतियां सदियों से अपनाई जा रही हैं। फिर
भी,
हमें आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी, नई पहचान और उपचार विधियां अपनाने की आवश्यकता है।
दुश्चिंता में कमी
इस संदर्भ में इस्राइल के वाइज़मैन इंस्टीट्यूट के एक समूह की हालिया रिपोर्ट
काफी दिलचस्प है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि बीटा-सिटोस्टेरॉल (BSS) नामक यौगिक दुश्चिंता कम करता है और चूहों में यह जानी-मानी दुश्चिंता की औषधियों के सहायक की
तरह काम करता है। सेल रिपोर्ट्स मेडिसिन में प्रकाशित यह पेपर मस्तिष्क के
विभिन्न हिस्सों और उनके रसायन विज्ञान पर BSS के प्रभाव की जांच करता है (इसे इंटरनेट पर पढ़ सकते हैं – (Panayotis et al., 2021, Cell
Reports Medicine 2,100281)।
दुश्चिंता और तनाव सम्बंधी विकारों के इलाज के लिए हमें और भी औषधियों की
आवश्यकता है। इस तरह के यौगिकों की खोज करना और उन्हें विकसित करना एक चुनौती भरा
काम है। BSS एक फायटोस्टेरॉल है और पौधे
इसका मुख्य स्रोत हैं। पारंपरिक भारतीय औषधियों में फायटोस्टेरॉल्स का उपयोग होता
आया है। और चूंकि ये पौधों से प्राप्त की जाती हैं तो ये शाकाहार हैं। सबसे प्रचुर
मात्रा में BSS सफेद सरसों (कैनोला) के तेल
में पाया जाता है; प्रति 100 ग्राम सफेद सरसों के तेल में यह
400 मिलीग्राम से भी अधिक होता है। और लगभग इतना ही BSS मक्का और इसके तेल में भी पाया जाता है। हालांकि, सफेद
सरसों भारत में आसानी से उपलब्ध नहीं है। लेकिन BSS के सबसे सुलभ स्रोत हैं पिस्ता, बादाम, अखरोट और चने जो भारतीय दुकानों पर आसानी से मिल जाते हैं। इनमें प्रति 100
ग्राम में क्रमश: 198, 132, 103 और
160 मिलीग्राम BSS होता है।
स्मृतिभ्रंश,
मस्तिष्क के कामकाज में क्रमिक क्षति की स्थितियां दर्शाता
है। यह स्मृतिलोप, और संज्ञान क्षमता और गतिशीलता में गड़बड़ी
से सम्बंधित है। इस तरह की समस्या किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व भी बदल सकती हैं, और समस्या बढ़ने पर काम करने की क्षमता कम हो जाती है। स्मृतिभ्रंश की समस्या
पीड़ित और उसके परिवार पर बोझ बन सकती है। इस संदर्भ में इंडियन जर्नल ऑफ
साइकिएट्री में आर. साथियानाथन और एस. जे. कांतिपुड़ी ने एक उत्कृष्ट और व्यापक
समीक्षा प्रकाशित की है जिसका शीर्षक है स्मृतिभ्रंश महामारी: प्रभाव, बचाव और भारत के लिए चुनौतियां (The Dementia Epidemic: Impact, Prevention and
Challenges for India – Indian Journal of Psychiatry (2018, Vol
60(2), p 165-167)। इसे नेट पर मुफ्त में पढ़ा जा सकता है।
स्मृतिभ्रंश के जैविक चिंह
वैज्ञानिक और चिकित्सक स्मृतिभ्रंश और अल्ज़ाइमर को शुरुआती अवस्था में ही पता
लगाने की कोशिश में हैं। इसके लिए वे तंत्रिका-क्षति के द्योतक जैविक चिंहों की
तलाश कर रहे हैं – जैसे अघुलनशील प्लाक का जमाव। इसके अलावा, मैग्नेटिक रेसोनेंस इमेंजिंग (MRI) और पॉज़िट्रॉन एमिशन टोमोग्राफी (PET) जैसी इमेजिंग विधियां समय से पहले स्मृतिभ्रंश की स्थिति का पता लगा सकती
हैं। हमारे कई शहरों में MRI और PET स्कैनिंग के लिए केंद्र हैं।
लेकिन हमें ऐसी चिकित्सकीय व जैविक प्रयोगशालाओं की आवश्यकता है जो इमेजिंग
तकनीकों के उपयोग के पहले ही आनुवंशिक और तंत्रिका-जीव वैज्ञानिक पहलुओं की भूमिका
पता लगा सके। हमें ऐसे कार्बनिक रसायनज्ञों की भी आवश्यकता है, जो तंत्रिका सम्बंधी समस्याओं पर शुरुआती चरण में ही कार्य करने वाले नए और
अधिक कुशल औषधि अणु संश्लेषित करें, ताकि तंत्रिका तंत्र को विघटन
से बचाया जा सके।
भारत प्राकृतिक उत्पादों के रसायन विज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी रहा है – स्वास्थ्य के लिए लाभकारी अणुओं की पहचान तथा उनका संश्लेषण करके देश व दुनिया भर में विपणन करता रहा है। हमारे पास विश्व स्तरीय जीव विज्ञान प्रयोगशालाएं भी हैं जो आनुवंशिक और आणविक जैविक पहलुओं का अध्ययन करती हैं। हमारे पास सदियों पुराने जड़ी-बूटी औषधि केंद्र (आयुर्वेद और यूनानी प्रणाली के) भी हैं जो समृतिभ्रंश का प्रभावी इलाज विकसित करते रहते हैं। यदि केंद्र व राज्य सरकारें और निजी प्रतिष्ठान मिलकर अनुसंधान का समर्थन करें, तो कोई कारण नहीं कि हम स्मृतिभ्रंश और अल्ज़ाइमर के मामलों को कम न कर सकें। वरिष्ठ (और कनिष्ठ) नागरिक शरीर और दिमाग को चुस्त-दुरुस्त रखने वाले उपाय अपनाकर – जैसे BSS समृद्ध आहार, शाकीय भोजन और गिरियां खाकर, पैदल चलना, साइकिल चलाना, कोई खेल खेलना जैसे व्यायाम और योग अभ्यास करके इन रोगों से लड़ने में मदद कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/yicffh/article35513073.ece/ALTERNATES/LANDSCAPE_615/25TH-SCIDEMENTIAjpg