जीवजगत में तमाम किस्म के सम्बंध पाए जाते हैं। सारे जंतु परपोषी (heterotrophic organisms) होते हैं यानी वे अपने भोजन के लिए किसी अन्य पर निर्भर रहते हैं। अधिकांश जंतु तो वनस्पतियों को खाते हैं (शाकाहारी) लेकिन कई जीव दूसरों का भक्षण करते हैं (मांसाहारी- carnivores), कुछ जंतु दूसरे जंतुओं से भोजन चुराते हैं लेकिन उन्हें मारते नहीं (परजीवी), जबकि कई जीव किसी अन्य जीव के साथ परस्पर फायदे का सम्बंध बना लेते हैं (symbiosis)।
लंबे समय से कीट सूक्ष्मजीवों (microorganisms) पर निर्भर रहे हैं। जैसे एम्ब्रोसिया गुबरैले (ambrosia beetles) पेड़ों में बिल बनाते समय साथ में फफूंद भी जमा कर लेते हैं, जो उन्हें भोजन मुहैया कराती हैं। कुछ गुबरैले अपने अंडों और इल्लियों को मकड़ियों से बचाने के लिए उन पर घातक बैक्टीरिया (bacteria) का लेप कर देते हैं। और अब इसी क्रम में एक और उदाहरण खोजा गया है।
स्टिंकबग (बदबूदार कीड़ा – stink bug) अपने अंडों पर फफूंद (protective fungus) का एक आवरण चढ़ा देता है जो उस अंडे में पनपते भ्रूण को परजीवी ततैया (parasitic wasp) से सुरक्षा प्रदान करता है।
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड इंडस्ट्रियल साइन्स एंड टेक्नॉलॉजी (National Institute of Advanced Industrial Science and Technology) के टेकेमा फुकात्सु (Takema Fukatsu) कई वर्षों से कीटों में सहजीविता का अध्ययन कर रहे हैं। उन्हें खास तौर से स्टिंकबग की प्रजाति मेजिमेनम ग्रेसिलिकोर्न (Megymenum gracilicorne) ने आकर्षित किया था। वैसे फुकात्सु के अध्ययन का मकसद इस कीट और फफूंद के सम्बंधों को समझना नहीं था। वे तो संयोगवश यहां तक पहुंच गए।
इसी से सम्बंधित अन्य कीटों के समान मेजिमेनम ग्रेसिलिकोर्न की पिछली टांगों का एक हिस्सा काफी फूला हुआ होता है। ऐसा माना जाता था कि यह रचना कान के पर्दे (टिम्पेनल झिल्ली – tympanal membrane) के समान है और कई तरह के कीटों में पाई जाती है। लेकिन फुकात्सु को इस बात पर हैरानी हुई कि यह रचना सिर्फ मादा कीट (female insect) में पाई जाती है। आम तौर पर ऐसी श्रवण संरचनाएं (hearing structures) दोनों लिंगों में पाई जाती हैं।
तब फुकुत्सा का संपर्क एक सेवानिवृत्त स्टिंकबग विशेषज्ञ (stink bug expert) शुजी ताचीकावा (Shuji Tachikawa) से हुआ। ताचीकावा ने अपने अध्ययनों में देखा था मेजिमेनम ग्रेसिलिकोर्न की मादा की टांगों पर एक सफेद पदार्थ पाया जाता है और यह पदार्थ उनके अंडों पर भी पुता होता है।
जब फुकात्सु और उनके साथियों ने एक नदी के किनारे खीरे की बेल से मेजिमेनम ग्रेसिलिकोर्न के नमूने एकत्रित किए तो उन्होंने भी देखा कि लैंगिक रूप से परिपक्व मादाओं पर ऐसे रेशे चिपके हुए थे। यह पट्टी चावल के दाने से भी छोटी थी और इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी (electron microscope) से देखने पर पता चला कि इसकी सतह कान के पर्दे के समान चिकनी नहीं बल्कि खुरदरी है और उस पर महीन छिद्र थे जिनमें से फफूंद पनप रही थी। सावधानीपूर्वक विच्छेदन करने पर दिखा कि हरेक छिद्र में एक ग्रंथि है जिसमें से तरल रिस रहा है।
इसी दौरान कीट के एक विचित्र व्यवहार (insect behavior) ने शोधकर्ताओं का ध्यान खींचा। अंडे देते समय मादा हरेक टांग पर उग रही फफूंद को कुरेद रही थी। इसके बाद मादा ने प्रत्येक नवीन अंडे को रगड़ा। यह देखा गया कि इसके बाद हरेक अंडे पर फफूंद फैल गई। तीन दिनों के अंदर फफूंद ने अंडों पर 2-2 मिलीमीटर मोटी परत बना डाली। ज़ाहिर था कि फफूंद की परत अंडे से कहीं अधिक वज़नी थी।
प्रयोगशाला (laboratory experiment) में देखा गया कि मादा स्टिंकबग अपने नखरों से अपनी पिछली टांगों पर बनी फफूंद की पट्टी को छूती है और फिर उसे अंडों पर पोत देती है।
देखा जाए तो अंडों पर फफूंद का उगना अच्छी बात नहीं है। लेकिन डीएनए अनुक्रमण (DNA sequencing) से पता चला कि वहां उपस्थित सारी फफूंदें कीट के लिए लाभदायक (beneficial microbes) हैं। तो सवाल उठा कि क्या यह फफूंद आवरण उस ततैया (Trissolcus brevinotaulus) को अंडों से दूर रखने काम करेगी जो स्टिंकबग के अंडों के अंदर अपने अंडे देती है। यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने प्रयोगशाला में तैयार की गई पांच ततैया मादाओं (wasp females) को एक चेम्बर में रख दिया। इस चेम्बर में स्टिंकबग के करीब 20 अंडे रखे गए थे। इनमें से आधे अंडों पर फफूंद का आवरण था जबकि शेष आधे अंडों पर से फफूंद को पोंछकर हटा दिया गया था।
यानी फफूंद का आवरण स्टिंकबग के अंडों को सुरक्षा (egg protection) प्रदान करता है। लेकिन एक आश्चर्यजनक बात सामने आई है। शोधकर्ताओं को फफूंद आवरण में किसी रासायनिक सुरक्षा (जैसे कोई बैक्टीरिया वगैरह) (chemical defense) के संकेत नहीं मिले। दूसरा, शोधकर्ताओं का विचार है कि संभवत: फफूंद को उस ग्रंथि के स्राव से कुछ पोषण (nutrient secretion) मिलता है।
आगे और प्रयोगों में पता चला कि जब फफूंद आवरण वाले अंडे फूटते हैं, तो उनमें से निकलने वाले शिशु स्टिंकबग थोडी फफूंद साथ लेकर जाते हैं (fungal transfer) लेकिन निर्मोचन के बाद वे उसे झड़ा देते हैं। यानी वयस्क होने पर अगली पीढ़ी को यह फफूंद फिर से हासिल करनी होगी। तो एक सवाल जिस पर फुकुत्सा काम करने जा रहे हैं, वह यही है कि हर मादा स्टिंकबग दोस्ताना फफूंद (symbiotic fungi) का चयन कैसे करती है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.zlhmcem/full/_20251016_on_stinkbugs.jpg
अर्जेंटीना के तट पर स्थित एक छोटा-सा समुद्री पार्क आज संसार के सबसे गूंगे श्रुति-स्थलों में से एक बन चुका है। पार्क के कॉन्क्रीट के टैंक में लहरों की आवाज़ें नहीं, बल्कि एक स्थिर सन्नाटा पसरा है। उस सन्नाटे का नाम है क्षामेन्क। यह एक नर ओर्का व्हेल (समुद्री व्याघ्र मछली) (orca captivity) है, जो पिछले तैंतीस वर्षों से कैद में है और बीस वर्षों से पूरी तरह अकेला है। यह दक्षिण अमेरिका में सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए रखा हुआ है।
टैंक का आकार क्षामेन्क के शरीर के हिसाब से बहुत छोटा है – एक निर्जीव अंडाकार कटघरा, जिसमें धूप से चमकता कॉन्क्रीट और क्लोरीनयुक्त पानी है। घंटों तक क्षामेन्क बिल्कुल निष्क्रिय तैरता रहता है। वहां लहरें नहीं, वहां जीवन नहीं, वहां सिर्फ प्रतीक्षा है। उसकी कहानी आज सिर्फ एक जीव की नहीं, बल्कि उन अनगिनत समुद्री प्रजातियों की कहानी है जिन्हें हमारी तमाशा देखने की भूख ने समुद्र से काट दिया है(marine animal captivity)।
व्हेल, डॉल्फिन और ओर्का जैसी प्रजातियां पृथ्वी के सबसे जटिल, सबसे सामाजिक और सबसे बुद्धिमान जीवों में गिनी जाती हैं। जंगल में नहीं, समुद्र की अनंत गहराई में ये प्रजातियां मातृवंशीय समूहों में रहती हैं, ध्वनि-भाषा सीखती हैं, शोक मनाती हैं, सहयोग करती हैं। रोज़ाना सौ किलोमीटर से अधिक दूरी तय करना इनके लिए सहज है। किंतु जब इन्हें समूह से अलग कर कैद में रखा जाता है, तो यह केवल बंदीकरण नहीं, बल्कि उनका संवेदनात्मक ध्वंस है(animal welfare issues)।
आंकड़ों के अनुसार, ओर्का की वैश्विक आबादी अनुमानित पचास हज़ार है। कुछ स्थानों पर यह संख्या और अधिक बताई गई है, किंतु निरंतर गिरावट की आशंका (orca population decline) भी जताई गई है। उदाहरण के लिए, अंटार्कटिक सागर के दक्षिणी भाग में लगभग 25 हज़ार ओर्का हो सकते हैं।
इन विशाल और बुद्धिमान जीवों के लिए समुद्र-आश्रय उपयुक्त था लेकिन मानव गतिविधियों ने उन्हें उनके प्राकृतिक घर से बेदखल कर दिया।
क्षामेन्क की ही तरह, ये जीव न केवल प्राकृतिक घर से बेदखल हो रहे हैं, बल्कि उनका जीवन भी मानव मनोरंजन के लिए नुमाया किया जा रहा है। पार्कों में बताया जाता है कि ये व्हेल-डॉल्फिन हमारी पृथ्वी के राजदूत हैं, प्रकृति और मनुष्य के बीच सेतु हैं। परंतु हर टिकट, हर शो उस संदेश के विपरीत सिद्ध हो रहा है। यह मात्र दर्शनीय-मनोरंजन बन जाता है और उस मनोरंजन के पीछे पसरी है एक भय, विषाद और उपेक्षा से भरी कहानी(marine theme parks impact)।
भारत ने इस संदर्भ में एक साहसिक कदम उठाया है। वर्ष 2013 में भारत सरकार ने डॉल्फिनों को ‘गैर-मानव व्यक्ति’ का दर्जा दिया था(non-human person dolphins)। यह दुनिया में ऐसा पहला कदम था, जिसने यह माना कि अत्यधिक बुद्धिमान और संवेदनशील प्रजातियों को मनोरंजन-उद्देश्य से कैद में रखना न केवल अनैतिक है, बल्कि समय की मांग के अनुरूप नहीं है। इसके बाद भारत ने डॉल्फिन शो व मनोरंजन-उद्देश्य से प्रदर्शन पर प्रतिबंध लगा दिया। भारत की गंगा-डॉल्फिन का संरक्षण भी इसी दृष्टिकोण का उदाहरण है, जहां नदी का सफाई अभियान और जलीय परितंत्र का पुनरुद्धार करते हुए इन जीवों की भूमिका ध्यान में रखी गई है(river dolphin conservation)।
शायद यही बदलाव संसार के लिए संकेत है कि मनोरंजन के नाम पर वन्यजीवों को कैद में रखना अब विवेचना का विषय बन गया है। फ्रांस ने डॉल्फिन शो बंद कर दिए हैं; कनाडा ने मनोरंजन-उद्देश्य के लिए व्हेलों व डॉल्फिनों का प्रजनन व आयात बंद कर दिया है; अमेरिका में कुछ समुद्री पार्कों ने अपने गेट बंद कर दिए हैं। परंतु क्षामेन्क जब तक उस टैंक में तैरता रहेगा, हमारा सवाल अनुत्तरित रहेगा कि क्या हमने वास्तव में उसकी आज़ादी की ओर कदम उठाया है (end captivity movement)।
मण्डो मरीनो नामक उस पार्क का तर्क है कि क्षामेन्क को 1992 में किनारे पर फंसे होने से बचाया गया था और वह अब प्राकृतवास में जीवित नहीं रह पाएगा। हालांकि यह तर्क भावनात्मक दिखता है, पर न्याय-विचार के तहत यह उचित नहीं कि जीवनभर का कारावास ही एकमात्र विकल्प हो। ठीक यही विचार विश्व स्तर पर फैल रहा है। अब ‘कैद बंद करो’ और ‘प्राकृतिक आश्रय दो’ की आवाज़ें तेज़ हो रही हैं (marine sanctuary concept)।
उदाहरण के रूप में, उत्तर अटलांटिक क्षेत्र में ‘व्हेल सेंक्चुरी प्रोजेक्ट’ नामक पहल ने कैद से लाई गई व्हेलों के लिए समर्पित प्राकृतिक ठंडे पानी का संरक्षण-स्थल स्थापित करने की तैयारी शुरू की है। गहरे समुद्री जल, खुले समुद्री प्रवाह और पेशेवर देखभाल, यह वहां का आधार होगा जहां ये जीव नियंत्रण से करुणा की ओर बढ़ेंगे।
समुद्री पार्कों का स्वरूप आज मनोरंजन और संरक्षण के बीच बहुत धुंधला गया है। वे कहते हैं कि यह शोध है, पुनर्वास है, शिक्षा है। लेकिन उनकी आमदनी प्रदर्शन और तमाशे पर टिकी है। परिणामस्वरूप, हमारी नैतिकता को धोखा दिया जा रहा है।
और हम पूछते हैं, जब कोई बच्चा उस ऐक्रेलिक शीशे को छूकर अंदर तैरते व्हेल को देखता है, तो क्या उसे यह संदेश नहीं मिलता कि वर्चस्व और आनंद के नाम पर किसी जीव की स्वतंत्रता छीनी जा सकती है? क्षामेन्क की कहानी अब असाधारण नहीं रही। यह एक आईना है जो दिखाता है कि हम क्या जानते हैं, किन्ही नियमों में बंधे हुए हैं, किन बातों को स्वीकार कर लेते हैं।
वैज्ञानिक शोध स्पष्ट कर चुके हैं व्हेल-डॉल्फिन जैसी प्रजातियों को सामाजिक समूह, गहरी समुद्री गतियां, सुनने-सुनाने का तरीका, संवाद की भाषा प्राप्त है। प्राकृतिक परिस्थितियों में उनका जीवन अलग हैै। कैद में इनके लिए वह जीवन मजबूरी-सा हो जाता है। हमने कानूनी ढांचा तो बना लिया है, उदाहरण मौजूद हैं, लेकिन अब वक्त है कार्रवाई करने का।
क्षामेन्क बहुत लंबे समय से अकेला है। हमें यह तय करना होगा कि अगली सुर्खियां उसके बारे में क्या होंगी। क्या यह अंत की खबर होगी “एक ओर्का की मृत्यु” या यह घोषणा होगी “कैद से मुक्ति, स्वाभाविक जीवन की ओर पहला कदम”? हमें स्वीकार करना होगा कि करुणा कमज़ोरी नहीं, बल्कि सभ्यता की सच्ची पहचान है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.cnn.com/api/v1/images/stellar/prod/03-mundo-marino.jpg?q=w_1160,c_fill/f_webp
पृथ्वी पर जीवन सबसे पहले सूक्ष्मजीव (microorganisms) के रूप में प्रकट हुआ था। ये मिट्टी, पानी, हवा, मानव शरीर, गर्म झरनों से लेकर गहरे समुद्र तक हर जगह पाए जाते हैं। हाल ही में अमेरिका के कैंसास और नॉटिंघम विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं का एक अध्ययन नेचर माइक्रोबायोलॉजी जर्नल (Nature Microbiology) में प्रकाशित हुआ है, जो दिखाता है कि सूखी मिट्टी, देशी पौधों को 20-30 प्रतिशत बेहतर अनुकूलन देती है। इस अध्ययन का दूसरा पहलू, सूक्ष्मजीवों का तनाव, उनके याद रखने की क्षमता से जुड़ा हुआ है।
जैसा कि हम जानते हैं, जलवायु परिवर्तन (climate change) के कारण सूखे की घटनाएं बढ़ रही हैं, जो पौधों और फसलों की वृद्धि को बुरी तरह प्रभावित करती हैं। शोधकर्ताओं ने बताया कि मिट्टी में मौजूद सूक्ष्मजीव (जैसे बैक्टीरिया और कवक) (soil microbes) पिछले पर्यावरणीय तनावों को ‘याद’ रख सकते हैं, और पौधों को भविष्य के सूखों से लड़ने में मदद कर सकते हैं। इसे ‘सूक्ष्मजीवी स्मृति’ या विरासत प्रभाव (लेगसी इफेक्ट) कहते हैं।
इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने कैंसास के छह घास के मैदानों (प्रेयरी) से मिट्टी (prairie soils) के नमूने लिए। नमूना स्थल पूर्वी कैंसास (पर्याप्त वर्षा) से लेकर पश्चिमी हाई प्लेन्स (सूखा) तक फैले हुए थे। विभिन्न वर्षा इतिहास वाली इन सूक्ष्मजीवी मिट्टियों में दो प्रकार के पौधे उगाए गए – देशी पौधे गैमाग्रास, जो कैंसास की देशज घास है और गैर-देशी फसल मक्का, जो मध्य अमेरिका से आया है और कैंसास में केवल कुछ हज़ार वर्ष पुराना है। इन सूक्ष्मजीवी समुदायों को प्रयोगशाला में दो स्थितियों में रखा गया – एक में पर्याप्त पानी और दूसरे में सीमित पानी। प्रयोग के बाद पता चला कि इससे सूक्ष्मजीवों में सूखे की यादें विकसित हुईं। वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया कि ये यादें (microbial memory) हज़ारों पीढ़ियों के बाद भी बनी रह सकती हैं।
कैसेसंजोतेहैंयादें
इस अध्ययन के निष्कर्ष में पाया गया कि सूखा इतिहास वाली मिट्टी के सूक्ष्मजीव पौधों को सूखे के दौरान बेहतर वृद्धि और उत्तरजीविता प्रदान करते हैं। ये यादें समुदाय की संरचना और जीन अभिव्यक्ति (gene expression) में बदलाव के रूप में प्रकट होती हैं। सूखे वाली मिट्टी के सूक्ष्मजीव पौधों में निकोटियानामाइन सिंथेज़ जीन को सक्रिय करते हैं, जो सूखे में लौह की कमी को दूर करता है। इससे पौधे अधिक मज़बूत हो जाते हैं। सामान्य पानी वाली मिट्टी के सूक्ष्मजीव यह लाभ नहीं देते।
अध्ययन में देशी पौधे (जैसे गैमाग्रास) (native plants) में सूक्ष्मजीवी विरासत प्रभाव बहुत मज़बूत पाया गया। ये पौधे स्थानीय सूक्ष्मजीवों के साथ लंबे समय से सह-विकास के कारण बेहतर अनुकूलित होते हैं। सूखे इतिहास वाले सूक्ष्मजीव इनकी वृद्धि को 20-30 प्रतिशत तक बढ़ा सकते हैं। वहीं मक्का जैसे गैर-देशी पौधों में प्रभाव कमज़ोर रहा। मक्का सूखे में उतना लाभ नहीं उठा पाता, क्योंकि यह स्थानीय सूक्ष्मजीवों से कम जुड़ा हुआ है। इससे पता चलता है कि बाहरी फसलें जलवायु तनाव में कम अनुकूलित होती हैं। यह अध्ययन दिखाता है कि मिट्टी के सूक्ष्मजीव जलवायु परिवर्तन के प्रति पौधों की स्मृति का काम करते हैं। इससे पारिस्थितिकी तंत्र अधिक लचीले बन सकते हैं; कार्बन संग्रहण और पोषण चक्रण बेहतर होगा। यह अध्ययन पर्यावरणीय स्मृति के महत्व को रेखांकित करता है और दर्शाता है कि प्रकृति खुद को कैसे अनुकूलित करती है (plant-microbe interaction)।
खोजकावैज्ञानिकइतिहास
सूक्ष्मजीवों में पारिस्थितिक स्मृति की वैज्ञानिक खोजबीन का इतिहास नया नहीं है। इसकी शुरुआती बुनियाद पादप उत्तराधिकार और भूमि उपयोग विरासत के रूप में रखी गई थी। 1916 में फ्रेडरिक क्लेमेंट्स ने पादप उत्तराधिकार (प्लांट सक्सेशन) (plant succession) का सिद्धांत प्रस्तुत किया, जो बताता है कि अतीत के वनस्पति समुदाय भविष्य की संरचना को प्रभावित करते हैं। यह विरासत प्रभाव की मूल अवधारणा का आधार बना, हालांकि इसमें सूक्ष्मजीव पहलू अनुपस्थित था। 1980-90 में भूमि उपयोग परिवर्तनों के लंबे प्रभावों पर फोकस रहा। 1997 में, जॉन अबर और सहयोगियों ने वन पारिस्थितिक तंत्रों में नाइट्रोजन संतृप्ति के मॉडल विकसित किए, जो कृषि या कटाई जैसी प्रथाओं के सदियों तक चलने वाले प्रभाव दिखाते थे। लेगसी इफेक्ट शब्द 1990 के दशक में पादप उत्तराधिकार और आक्रामक प्रजातियों (ecosystem legacy effects) के अध्ययनों से प्रचलित हुआ था।
1998-2003 में पारिस्थितिक स्मृति का औपचारिक आगाज़ हुआ। जे. के. हार्डिंग ने 1998 में अतीत के विक्षोभों को स्मृति के रूप में वर्णित किया, जो पारिस्थितिक लचीलापन बढ़ाती है। 2003 में, जे. बेंग्टसन और ड्रू फोस्टर ने इसे वैश्विक परिवर्तन के संदर्भ में विस्तारित किया – अतीत के तनाव वर्तमान प्रतिक्रियाओं को प्रभावित करते हैं।
2005 में मृदा संपीड़न के प्रभावों पर अध्ययन (बैसेट एवं साथियों) ने दिखाया कि अतीत के भूमि उपयोग से जड़ विकास बाधित होता है, जो मिट्टी की स्मृति को दर्शाता है। इसी वर्ष, डेन्समोर ने नाइट्रोजन स्थिरीकरण के माध्यम से मिट्टी विरासत को पादप-वृद्धि से जोड़ा। 2008 में पादप-मृदा फीडबैक (plant–soil feedback) पर महत्वपूर्ण खोज हुई। जैकबिया वल्गेरिस के अध्ययन में प्रजातियों के बीच नकारात्मक फीडबैक दिखे – अतीत के पौधे सूक्ष्मजीव समुदाय को बदलते हैं, जो उत्तराधिकार को प्रभावित करते हैं।
2009-2010 में पूरा ध्यान सूक्ष्मजीवी विरासत पर रहा। जापानी बरबेरी के आक्रामक प्रभावों ने मृदा की सूक्ष्मजीवी संरचना और एंज़ाइम गतिविधियों में स्थायी बदलाव दिखाए। 2010 में, जंगलों की अंडरस्टोरी वनस्पति के प्रयोग से पता चला कि अतीत की सूक्ष्मजीवी संरचना वनस्पति और पोषक चक्रण को निर्धारित करती है।
2011-2020 के काल को सूक्ष्मजीवी स्मृति का उदय माना जाता है। 2011 में पी. कडोल और सहयोगियों ने भूमि उपयोग विरासतों को जैव विविधता से जोड़ा, जो सूक्ष्मजीवी स्मृति की दिशा में एक कदम था। 2014 में सूखे पर प्रारंभिक सूक्ष्मजीवी अध्ययन हुए। एस. ई. इवांस ने बैक्टीरियल नमी निशे का वर्णन किया, जो समुदाय में दीर्घकालिक परिवर्तनों की भविष्यवाणी करता है। एल. फुच्स्लूगर ने दिखाया कि सूखा होने पर पौधे मृदा सूक्ष्मजीवों तक कम कार्बन पहुंचाते हैं, जो समुदाय की संरचना को बदलता है। 2017 के अध्ययनों में कुल और सक्रिय मृदा सूक्ष्मजीवी समुदायों की सूखे के प्रति संवेदनशीलता (soil drought response) दिखाई दी। वहीं, 2020 में सूखे से सूक्ष्मजीवी जीन अभिव्यक्ति और मेटाबोलाइट उत्पादन में बदलाव दिखा, जो स्मृति निर्माण के आणविक आधार को इंगित करता है।
2021 में नेचर कम्यूनिकेशन में प्रकाशित एक लैंडमार्क अध्ययन से ज्ञात हुआ कि बार-बार सूखे से सूक्ष्मजीवी समुदायों में विविधता बढ़ी, जो मिट्टी बहुकार्यता को मज़बूत करती है। इससे साबित होता है कि सूखे की स्मृति पारिस्थितिक प्रक्रियाओं को संशोधित करती है। 2022 में सूखे के सूक्ष्मजीवी लक्षण वितरण पर प्रभाव अध्ययन ने एक लक्षण-आधारित फ्रेमवर्क प्रदान किया। सूखा धीमी-वृद्धि वाले सूक्ष्मजीवों को चुनता है। 2023 में अल्पाइन घासभूमियों की सूखी मिट्टी में सूक्ष्मजीव वृद्धि के एक अध्ययन से भविष्य की जलवायु परिस्थितियों में सूक्ष्मजीवों की प्रतिक्रिया का अनुमान मिला। 2025 में कैंसास प्रेयरी पर किया गया अध्ययन वर्षा विरासत प्रभावों को पौधे की जीन अभिव्यक्ति से जोड़ता है।
समग्र विकास और महत्व की बात की जाए तो 1990 से 2010 के दौरान यह क्षेत्र सामान्य पारिस्थितिकी से सूक्ष्मजीव-केंद्रित खोजों तक विकसित हुआ। जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में, ये खोजें बताती हैं कि स्मृति पारिस्थितिक लचीलापन बढ़ाती है, लेकिन गहन तनाव से हम इसे खो सकते हैं।
सूक्ष्मजैविककृषिउद्योग
किसानों के लिए अच्छी खबर है कि अब सूखा-सहिष्णु सूक्ष्मजीवों (microbial biofertilizer) को व्यावसायिक रूप से विकसित किया जा सकता है। जैसे, गैमाग्रास के जीन मक्का में डाले जा सकते हैं ताकि फसलें सूखे में बेहतर उगें। सूक्ष्मजैविक कृषि उद्योग (जो जैव उर्वरकों, कीटनाशकों और मिट्टी सुधारकों का उत्पादन करता है) में यह स्मृति एक क्रांतिकारी तत्व है। यह उद्योग टिकाऊ कृषि को बढ़ावा देगा।
स्मृति वाले सूक्ष्मजीव समुदाय फसल उपज और पोषण दक्षता बढ़ाते हैं। जैसे, चावल उत्पादन में सूक्ष्मजीव-आधारित एकीकृत पोषक प्रबंधन से मृदा स्वास्थ्य संरक्षित होता है। सूखे जैसे वैश्विक परिवर्तनों के प्रति सूक्ष्मजीवों की चयनात्मक प्रतिक्रियाएं पौधों की रक्षा करती हैं। यही नहीं, गोबर प्रबंधन से मृदा सूक्ष्मजीव संसार का प्रबंधन करके कृषि उत्सर्जन कम किया जा सकता है।
भविष्यकीचुनौतियां
शोधकर्ता चेतावनी देते हैं कि सूक्ष्मजीवों की स्मृति लाभदायक होने के बावजूद, जलवायु परिवर्तन की अनियमितताएं (जैसे अचानक वर्षा) (extreme rainfall) नई समस्याएं पैदा कर सकती हैं। यह दृष्टिकोण पारिस्थितिकी, आनुवंशिकी और कृषि को एकीकृत करके एक बहु-विषयी सोच प्रदान करता है। जैसे, सूखे के बाद अचानक भारी वर्षा सूक्ष्मजीवों के लिए शॉक की तरह काम करती है। सूखे में सूक्ष्मजीव निष्क्रिय हो जाते हैं और ऊर्जा संरक्षित रखते हैं। लेकिन अचानक पानी आने पर उनकी गतिविधि तेज़ी से बढ़ जाती है, जिससे मिट्टी से कार्बन डाईऑक्साइड का विस्फोटक उत्सर्जन होता है। यह मिट्टी के कार्बन स्टॉक को 10-20 प्रतिशत तक कम कर सकता है। इससे जीवाणु और कवक की कोशिकाएं फट सकती हैं। अध्ययन में पाया गया कि सूखा-स्मृति वाली मिट्टी में यह तनाव अधिक गंभीर होता है, क्योंकि सूक्ष्मजीव अनुकूलित हो चुके होते हैं लेकिन अचानक बदलाव के लिए तैयार नहीं। इससे पौधों की जड़ें जल-जमाव के चलते ऑक्सीजन की कमी का सामना कर सकती हैं, जो वृद्धि रोकता है। जलवायु मॉडल्स के अनुसार, 2050 तक अनियमित वर्षा 30 प्रतिशत बढ़ सकती है। तब मृदा-स्मृति का लाभ उल्टा पड़ सकता है, कार्बन संग्रहण घटेगा और ग्रीनहाउस गैसें बढ़ेंगी।
इस दिशा में संतुलित जल प्रबंधन (water management) की आवश्यकता पर बल दिया जा रहा है। सूक्ष्मजीवों की स्मृति को बनाए रखने के लिए धीमी और नियंत्रित जल आपूर्ति ज़रूरी है। इससे सूक्ष्मजीवों को अनुकूलन का समय मिलता है, और कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन 40 प्रतिशत तक कम हो सकता है। इससे मिट्टी की बहुकार्यता को संरक्षित रखा जा सकता है।
हमारे देश में किसानों को प्रशिक्षण और सस्ती तकनीक की आज भी कमी है। विकासशील देशों में, जहां 60 प्रतिशत कृषि वर्षा-निर्भर है, जल प्रबंधन नीतियों का अभाव एक बड़ा जोखिम है। शोधकर्ता सुझाते हैं कि कृत्रिम-बुद्धि आधारित मौसम पूर्वानुमान से स्मार्ट इरिगेशन (smart irrigation) अपनाने की ज़रूरत है।
स्मृति को व्यावसायिक रूप से स्थिर रखना (भंडारण और क्षेत्र अनुकूलन) मुश्किल है। 2025 में, क्रिस्पर (CRISPR) जैसी तकनीकों से सुपर सूक्ष्मजीव विकसित हो रहे हैं, जो स्मृति को बढ़ाकर टिकाऊ कृषि को नया आयाम देंगे। जैविक खेती के बढ़ते चलन में यह उद्योग किसानों की आय बढ़ा सकता है। (स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.nature.com/articles/s41564-025-02148-8/figures/1
कीचड़ में सूक्ष्मजीवों का एक अद्भुत संसार छिपा होता है जिन्हें ‘कैबल बैक्टीरिया’ (cable bacteria) कहते हैं। ये बैक्टीरिया मिट्टी के भीतर ऐसे कैबल बनाते हैं जो विद्युत (electricity) संचारित कर सकते हैं। हाल ही में यह पता चला है कि ये बैक्टीरिया ये कैबल बनाते कैसे हैं।
गौरतलब है कि कैबल बैक्टीरिया झीलों, नदियों और समुद्रों के तलछट (sediment) में पाए जाते हैं। वे हाइड्रोजन सल्फाइड (hydrogen sulfide) गैस से इलेक्ट्रॉन लेते हैं। यह गैस मिट्टी की गहराई में होती है। फिर वे इन इलेक्ट्रॉन्स को ऑक्सीजन को हस्तांतरित कर देते हैं जो केवल सतह पर मिलती है। हाइड्रोजन सल्फाइड में इलेक्ट्रॉन उच्च ऊर्जा स्तर पर होते हैं जबकि ऑक्सीजन में उनका ऊर्जा स्तर कम होता है। अत: इस हस्तातंतरण में ऊर्जा मुक्त होती है जिसमें से कुछ का उपयोग बैक्टीरिया अपने कामकाज के लिए कर लेते हैं।
इलेक्ट्रॉन को यह दूरी पार करवाने के लिए ये बैक्टीरिया लंबी, धागे जैसी संरचनाएं (filament structures) बनाते हैं, जो नीचे की सल्फाइड गैस से इलेक्ट्रॉन लेकर ऊपर ऑक्सीजन तक पहुंचाती हैं। इस तरह मिट्टी के भीतर विद्युत धारा (electric current) बनती है।
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि सिर्फ एक वर्ग मीटर कीचड़ में इन जैविक कैबल्स की कुल लंबाई 20,000 किलोमीटर तक हो सकती है। प्रत्येक तंतु लगभग 5 सेंटीमीटर लंबा होता है और उसमें लगभग 25,000 कोशिकाएं होती हैं। ये सब मिलकर एक सुपर-जीव (super-organism) के रूप में काम करती हैं, और इन सारे बैक्टीरिया की कोशिका झिल्ली एक ही होती है।
युनिवर्सिटी ऑफ एंटवर्प के फिलिप माइस्मन की टीम ने इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप (electron microscope) और एक्स-रे इमेजिंग तकनीकों की मदद से देखा कि ये तार बेहद पतले रेशों (मोटाई मात्र 50 नैनोमीटर) (nanofibers) से बने होते हैं। प्रत्येक रेशा ‘चोटी’ के रूप में गूंथा होता है और वह भी बारीक नैनोरिबन के गुच्छों से बना होता है।
अध्ययन से पता चला कि ये बैक्टीरिया मिट्टी से निकल तत्व इकट्ठा करके उसे सल्फर-युक्त यौगिकों के साथ मिलाते हैं, जिससे पतली प्लेट जैसी संरचनाएं बनती हैं। ये प्लेटें जुड़कर रिबन बनाती हैं और फिर गुंथकर मज़बूत, लचीली विद्युत प्रवाहित करने वाली जैविक कैबल (bio-cable) तैयार करती हैं, ठीक वैसे ही जैसे इंसान तांबे के तार गूंथकर कैबल बनाते हैं। आश्चर्य की बात है कि कोई सूक्ष्मजीव इतनी जटिल संरचना बना सकता है।
ये कैबल मेटल ऑर्गेनिक फ्रेमवर्क (MOF) के समान कार्बन डाईऑक्साइड जैसी गैसों को कैद कर सकते हैं, ऊर्जा संचित कर सकते हैं। MOF सम्बंधी शोध के लिए इस वर्ष का नोबेल पुरस्कार (Nobel Prize) मिल चुका है। यह भी देखा गया कि इन तारों की विद्युत चालकता प्रयोगशाला में बने जैविक तारों से 100 गुना अधिक है।
ये न सिर्फ प्रभावी हैं बल्कि पर्यावरण के अनुकूल भी हैं, क्योंकि इन्हें बहुत कम धातु और ऊर्जा की आवश्यकता होती है। उम्मीद है कि इस खोज से ऐसे जैव-अनुकूल और लचीले इलेक्ट्रॉनिक उपकरण (flexible electronics) विकसित किए जा सकेंगे, जो जीवित ऊतकों के साथ सुरक्षित रूप से काम कर सकें।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.aed8005/full/_20251107_on_cable_bacteria-1762794885023.jpg
कोपी लुवाक (Kopi Luwak) नामक कॉफी (specialty coffee) का एक कप भी किसी आलीशान डिनर जितना महंगा हो सकता है। यह कॉफी अपने कड़क और अनोखे स्वाद के लिए जानी जाती है, जिसमें गिरियों, मिट्टी, चॉकलेट और कभी-कभी मछली की हल्की महक आती है (coffee flavor profile)।
इस कॉफी को स्वाद तब मिलता है जब एक एशियाई बिल्ली – पाम सिवेट (Paradoxurus hermaphroditus) – पकी हुई कॉफी बेरी (लाल गूदेदार फल) खाती है। सिवेट के पेट के एंज़ाइम इन बेरी (coffee cherry) की बाहरी परत को थोड़ा पचा देते हैं, लेकिन अंदर के बीज (बीन्स) साबुत ही रहते हैं। इन्हें सिवेट की विष्ठा से निकाल लिया जाता है, फिर उन्हें साफ करके भूना जाता है और इसी से बनती है कॉफी ‘कोपी लुवाक’।
इतनी लंबी श्रमसाध्य प्रक्रिया और इसकी कम उपलब्धता के कारण इसका एक प्याला जेब से 75 डॉलर (लगभग 6600 रुपए) खर्च करवाता (expensive coffee) है। लेकिन ऐसा स्वाद आता कैसे है?
यह पता लगाया है भारतीय वैज्ञानिकों की एक टीम ने। केरल स्थित सेंट्रल युनिवर्सिटी के प्राणी विज्ञानी पालट्टी अलेश सीनू और उनकी टीम ने कर्नाटक के कोडगु जिले में पाए जाने वाले जंगली सिवेट के मल से कॉफी बीन्स इकट्ठे किए और उनकी तुलना सीधे पौधों से तोड़े गए कॉफी बीन्स से की (wild civet coffee)।
गैस क्रोमैटोग्राफी-मास स्पेक्ट्रोमेट्री तकनीक (GC–MS analysis) का इस्तेमाल करके वैज्ञानिकों ने सिवेट के पाचन तंत्र से गुज़रे बीन्स में कैप्रिलिक एसिड और कैप्रिक एसिड की मात्रा सामान्य बीन्स की तुलना में कहीं अधिक पाई। ये वही फैटी एसिड हैं जो डेयरी उत्पादों को स्वादिष्ट बनाने के काम आते हैं। सिवेट के पेट में मौजूद ग्लूकोनोबैक्टर नामक बैक्टीरिया और एंज़ाइम इन यौगिकों को बनाते या बढ़ाते हैं, जिससे कॉफी के स्वाद और खुशबू में परिवर्तन आता है।
पूर्व में किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि सिवेट के पाचन तंत्र से गुज़रे कॉफी बीन्स सामान्य बीन्स की तुलना में ज़्यादा भुरभुरे होते हैं, उनमें प्रोटीन की मात्रा कम लेकिन वसा की मात्रा अधिक होती है (coffee bean chemistry)। इसके अलावा, यह भी देखा गया कि जंगली सिवेट हमेशा पकी और बड़ी कॉफी बेरी ही चुनते हैं।
फिलहाल यह अध्ययन भारत में मौजूद रोबस्टा कॉफी पर किया गया था लेकिन वाणिज्यिक तौर पर कोपी लुवाक अधिकतर अरेबिका (Arabica coffee) से बनती है। इसलिए वैज्ञानिक इसे अरेबिका बीन्स पर दोहराने का सुझाव देते हैं। इसके साथ ही, वे यह भी समझना चाहते हैं कि भूनने की प्रक्रिया के दौरान ये फैटी एसिड कैसे बदलते हैं और अंतिम स्वाद को कैसे प्रभावित करते हैं।
बेशक यह कॉफी स्वादिष्ट है जिसके मंहगे दाम चुकाकर हम इसे पी सकते हैं, लेकिन इस स्वाद का खामियाजा सिवेट को चुकाना (animal cruelty) पड़ता है। बीन्स के लिए सिवेट को छोटे पिंजरों में बंद कर जबरन कॉफी बेरी खिलाई जाती हैं। उम्मीद है सिवेट के पेट में होने वाली पाचन और किण्वन प्रक्रिया को समझकर सिवेट को इस अत्याचार से बचाया जा सकेगा और हमें स्वाद भी मिलेगा(स्रोत फीचर्स)
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डायनासौर के जितने जीवाश्म (dinosaur fossils) मिलें, कम हैं। जितनी अधिक संख्या में ये मिलेंगे, जैव वैकास (evolution research) के कुछ अनसुलझे रहस्य उतनी आसानी से सुलझेंगे। लेकिन दिक्कत यह है कि हर किसी को इनकी पहचान नहीं होती, इनकी पहचान के लिए नज़रों को पैना और पारखी होना पड़ता है। यदि नज़रें तेज़ हों तो भी पत्थरों और झाड़-झंखाड़ वाले विशाल भूभाग में बिखरे इन जीवाश्मों को खोजना मुश्किल होता है।
लेकिन करंट बायोलॉजी में प्रकाशित हालिया अध्ययन से ऐसा लगता है कि अब यह मुश्किल दूर होने वाली है। जीवाश्मों को खोज निकालने में वैज्ञानिकों का साथ देने वाले हैं चटख रंग के लाइकेन (lichen detection technology) (फफूंद और शैवाल के संगम से बने जीव)।
हाल ही में, कनाडा के डायनासौर प्रोविन्शियल पार्क (Dinosaur Provincial Park) में शोधकर्ताओं ने चटख नारंगी रंग की ऐसी लाइकेन की पहचान की है जो डायनासौर की हड्डियों पर फलती-फूलती हैं, जबकि उसके आसपास के पत्थरों और चट्टानों को अपेक्षाकृत अछूता छोड़ देती हैं। इससे जीवाश्म को पहचानना आसान हो सकता है।
ऐसा शायद इसलिए होता है क्योंकि खासकर क्रेटेशियस काल (Cretaceous period fossils) की अश्मीभूत हड्डियों की क्षारीय, कैल्शियम युक्त और छिद्रमय संरचना कनाडाई बैडलैंड्स जैसे अर्ध-शुष्क वातावरण में लाइकेन को पनपने के लिए माकूल परिस्थिति देती है।
वैसे तो लाइकेन कई तरह के जीवाश्मों पर फल-फूल कर उन्हें चटख रंगों से रंग सकती है, लेकिन यह शाकाहारी ऑर्निथिशियन डायनासौर (ornithischian dinosaurs) की बड़ी हड्डियों को सबसे अधिक उजागर करती हैं। और इन डायनासौर के जीवाश्म इस पार्क में बहुतायत में पाए जाते हैं। उम्मीद है, अब लाइकेन से ढंके जीवाश्मों को विशेष सेंसर से लैस ड्रोन (drone fossil mapping) की मदद से पहचाना जा सकेगा।(स्रोत फीचर्स)
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टोनी गोल्डबर्ग प्रायमेट प्राणियों में परजीवी प्रकोप का अध्ययन करते हैं। उनके अनुभव रोचक हैं, उनके द्वारा किए गए अध्ययन महत्वपूर्ण रहे हैं और उनके पास आपके लिए कई सलाहें हैं।
हमारे शरीर पर कोई कीड़ा (insect) रेंगे तो हम क्या करेंगे? तुरंत उसे झटक कर फेंक देंगे। उसका बारीकी से अवलोकन (observe) तो दूर की बात है, अक्सर तो यह भी नहीं देखते कि कीड़ा था कौन-सा। लेकिन कीड़े-मकोड़ों (कीटों) में रुचि रखने वाले चंद लोग ऐसे मौके नहीं गंवाते। बल्कि ऐसे मौके उनके लिए कुछ नया खोजने का अवसर बन जाते हैं, जो कीटों के बारे में हमारी समझ को बढ़ाते हैं।
ऐसे ही मौकापरस्त हैं टोनी गोल्डबर्ग (Tony Goldberg)। वे पेशे से वन्यजीव महामारी विज्ञानी (wildlife epidemiologist) हैं और विस्कॉन्सिन-मैडिसन विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं। परजीवियों में उनकी खासी रुचि है। उन्होंने अपनी पिछली कुछ खोजी यात्राओं के दौरान उनके शरीर पर सवार हुए परजीवी कीटों का अध्ययन कर कुछ गुत्थियां सुलझाईं हैं।
2013 में जब वे युगांडा के किबले राष्ट्रीय उद्यान (Kibale National Park) गए थे तो उनकी नाक में एक किलनी (टिक) घुस गई थी। उन्होंने उसे निकाल फेंकने की बजाय उसका जेनेटिक अनुक्रमण (genetic sequencing) किया, और पता चला कि वह तो किलनी की एक नई प्रजाति (new species) है।
पिछले दिनों जब वे किबले राष्ट्रीय उद्यान की यात्रा से लौटे तो उनकी कांख में मक्खी का लार्वा (fly larva) फंसकर आ गया। सरसरी तौर पर देखा तो लगा वह उस क्षेत्र में आम तौर पर पाई जाने वाली मक्खी का लार्वा है। लेकिन जब उन्होंने उसका जीन अनुक्रमण किया पता चला कि ये लार्वा आम अफ्रीकी बॉट फ्लाई (African botfly) के लार्वा नहीं बल्कि एक दुर्लभ प्रजाति के लार्वा हैं।
इसी प्रकार से, वे किबले राष्ट्रीय उद्यान के जंगल में प्राइमेट्स (primates) का अध्ययन कर रहे थे। जिन प्राइमेट्स का वे उपचार/देखभाल कर रहे थे, उनके शरीर में उन्हें कुछ परजीवी कीट (parasitic insects) मिले। इन कीटों को देखने पर वे उप-सहारा अफ्रीका में बहुतायत में पाई जाने वाली सामान्य परजीवी मक्खी कॉर्डिलोबिया एंथ्रोपोफैगा (Cordylobia anthropophaga) लग रहे थे। लेकिन इन मक्खियों को प्राइमेट्स को संक्रमित करते कभी देखा नहीं गया था और इस बात के ज़्यादा सबूत नहीं थे कि यह प्रजाति प्राइमेट्स को संक्रमित करती है।
लिहाज़ा, उन्होंने वे कीट अध्ययन के लिहाज़ से इकट्ठा कर लिए। इन्हें जमा करने में उनके साथियों ने भी खूब साथ दिया – उन्होंने अपने-अपने शरीर पर चढ़ आए कीटों को निकाल-निकाल कर गोल्डबर्ग देना शुरू कर दिया। वापिस आकर जब उन्होंने इन कीटों का अनुक्रमण (DNA sequencing) किया तो पता चला कि ये कीट वे मक्खियां नहीं हैं बल्कि यह उन्हीं से सम्बंधित एक अन्य दुर्लभ प्रजाति है – कॉर्डिलोबिया रोडेनी (Cordylobia rodhaini)
दिलचस्प बात यह है कि परजीवी विज्ञान (parasitology) में 120 सालों से यह रहस्य रहा है कि अफ्रीकी बॉट मक्खी की यह दूसरी प्रजाति (कॉर्डिलोबिया रोडेनी) रहती कहां है। और यह अध्ययन पहला ऐसा ठोस प्रमाण है कि गैर-मानव प्राइमेट इस प्रजाति के एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक मेज़बान (natural host) हैं।
एक और गौरतलब बात जो गोल्डबर्ग कहते हैं वह यह कि पूरी दुनिया में देखा जाए तो बॉट मक्खियां दुर्लभ हो सकती हैं, लेकिन हो सकता है कि जहां उनके लिए माकूल परिस्थितियां हों वहां वे प्रचुरता में मौजूद हों, जैसे किबले नेशनल पार्क। यहां उनके मेज़बान गैर-मानव प्राइमेट (यानी जिन पर उनके लार्वा पनपते हैं), अच्छी जलवायु (climate), और उन्हें फैलने की आदर्श परिस्थिति है, जो इन मक्खियों और अन्य बॉट मक्खियों के लिए एक आकर्षक जगह हो सकती है।
तेज़ी से बदलती जलवायु (climate change) और बढ़ते मानव हस्तक्षेप (human interference) के मद्देनज़र बॉट मक्खियों (botflies) समेत तमाम परजीवियों के बारे में जानना सिर्फ वैज्ञानिकों की रुचि का मामला नहीं है। यह कृषि और जीव-जंतुओं के स्वास्थ्य के लिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इनका अनियंत्रित प्रसार कृषि और जीव-जंतुओं को प्रभावित करेगा।
कुछ सामान्य बातें…
यदि आप ऐसी जगह जा रहे हैं जहां परजीवियों (parasites) के आपके ऊपर सवार होकर आने की संभावना है तो आप थोड़ी ऐहतियात बरतें ताकि आप और अन्य सुरक्षित रहें। जैसे आप किबले राष्ट्रीय उद्यान या ऐसे ही जलवायु और परिस्थिति (tropical forest conditions) वाले किसी स्थान पर जा रहे हैं तो झाड़ियों, पेड़ों से सटकर न गुज़रे। ऐसा कर आप अपने साथ इन्हें लाने की संभावना बढ़ाते हैं। दूसरा कपड़ों को बाहर न सुखाएं। क्योंकि वयस्क मक्खी मिट्टी या अन्य गीली जगहों पर अंडे देती है। आपके गीले कपड़े अंडे देने की बढ़िया जगह बन सकते हैं। और यदि आप कपड़े बाहर सुखा भी रहे हैं तो उन्हें बिना अच्छे से इस्तरी किए न पहने यहां तक कि अंत:वस्त्र भी। इस संदर्भ में गोल्डबर्ग ने अपने साथियों के कुछ अनुभव साझा किए हैं।
और खुदा न ख्वास्ता आप किसी परजीवी (parasite infection) को अपने संग ले आते हैं, तो जूं के काटने-रेंगने जैसे एहसास से आपको उनकी मौजूदगी का पता चल जाएगा। जैसे ही आपको उनकी मौजूदगी का एहसास हो उनसे बचने का सबसे अच्छा उपाय है कि आप उन्हें निकाल कर अलग कर दें। कई लोग पेट्रोलियम जेली (petroleum jelly) लगाने की सलाह देते हैं जो प्राय: कारगर होता है क्योंकि सांस न ले पाने के कारण लार्वा मर जाता है। लेकिन अगर लार्वा अपने किए घाव में मर जाए तो आपकी त्वचा में संक्रमण (skin infection) फैल सकता है।(स्रोत फीचर्स)
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वैसे तो यह पता ही है कि कई मामलों में स्थिर विद्युत (static electricity) पेड़-पौधों और जंतुओं की मदद करती है। जैसे यह देखा जा चुका है कि स्थिर विद्युत परागकणों (pollen transfer) को कीटों पर चिपकने में मदद करती है, कीटों को मकड़ी के जालों (spider web) में फंसाने में काम आती है और मकड़ियों को समुद्र पार करने में मददगार होती है।
अब इसी स्थिर विद्युत का एक और करिश्मा (scientific discovery) उजागर हुआ है। वैसे स्थिर विद्युत काफी जानी-पहचानी चीज़ है। जब कंघी को सूखे बालों पर रगड़ते हैं या मोरपंख को कागज़ में से घसीटते हैं तो उनमें आसपास पड़े कागज़ के टुकड़ों को आकर्षित करके चिपकाने का गुण आ जाता है। आजकल प्लास्टिक की कुर्सियों को किसी ऊनी कपड़े से रगड़कर चिंगारियां (electric sparks) पैदा करना बच्चों का पसंदीदा खेल बन गया है। और चिंगारियां इसलिए पैदा होती हैं क्योंकि कुर्सी पर स्थिर विद्युत आवेश पैदा हो जाता है।
प्रोसीडिंग्सऑफदीनेशनलएकेडमीऑफसाइंसेस (यूएस) (PNAS study) में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया है कि आधा मिलीमीटर साइज़ का एक गोल कृमि (Steinernema carpocapsae) भी इससे लाभान्वित होता है। यह कृमि अपनी साइज़ से 20 गुना तक ऊंची छलांग लगाकर उड़ते कीटों (flying insects) को निशाना बना लेता है और उनके शरीर में जानलेवा बैक्टीरिया डालकर उन्हें मार देता है।
दरअसल इल्लियों और अन्य नुकसानदेह कीटों को मारने के लिए किसान अपने खेतों में गोल कृमि (nematode parasite) छोड़ते हैं। ये जीव खेत में विचरती इल्लियों और कीटों (जैसे फलमक्खियों) को मारने के लिए इनकी ओर हवा में लंबी छलांग लगाते हैं, और अपने मेज़बानों के शरीर में घातक बैक्टीरिया (pathogenic bacteria) छोड़ देते हैं।
अलबत्ता, निशाना थोड़ा भी चूका तो जानलेवा हो सकता है क्योंकि वहां पहुंचकर भोजन नहीं मिलेगा और सूखने की नौबत आ सकती है। शोधकर्ता यह समझना चाहते थे कि निशाना चूकने की वारदात क्यों नहीं होती।
जांच करने के लिए शोधकर्ताओं ने जीवित फलमक्खी (fruit fly) को लिया और उसे तांबे के तारों से जोड़ दिया। यह फलमक्खी गोल कृमि का आम शिकार है। तांबे का तार फलमक्खी के स्थिर विद्युत आवेश का नियंत्रण करता था। इसके बाद उन्होंने इस मक्खी को Steinernema carpocapsae की एक बस्ती से करीब 6 मिलीमीटर ऊपर लटका दिया। आगे की वारदात स्लो मोशन कैमरा (slow motion camera) पर रिकॉर्ड की गई। देखा गया कि जब मक्खी पर आवेश एक सामान्य उड़ते हुए कीट के आवेश के स्तर का था, तब सारे के सारे 18 गोल कृमि अपने शिकार पर पहुंच गए थे। दूसरी ओर स्थिर विद्युत की अनुपस्थिति में सफलता की दर बहुत कम रही। पूरी वारदात का वीडियो देखने के लिए: https://phys.org/news/2025-10-fatal-electric-worm-aerial-prey.html (स्रोत फीचर्स)
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लगभग 3.7 करोड़ साल पूर्व अर्जेंटीना के पेटागोनिया क्षेत्र (Patagonia region) के घास के मैदान जीवन से समृद्ध थे। यहां मैदानों में घोड़े (prehistoric horses) और टेपर जैसे बड़े-बड़े शाकाहारी से लेकर नुकीले दांतों वाले मार्सुपियल प्राणि (marsupial animals) और पक्षी विचरते थे। लेकिन पैरों के नीचे एक अलग कहानी चल रही थी। गोबर (विष्ठा) खाने वाले छोटे गुबरैले धीरे-धीरे सड़े हुए मांस (rotting meat) का रुख कर रहे थे। क्यों?
कई दशकों तक वैज्ञानिकों का मानना था कि गुबरैलों ने लगभग 1,30,000 से 12,000 साल पहले ही मांस खाना शुरू किया था। यह भी माना जाता था कि जब दक्षिण अमेरिका के बड़े जीव जलवायु परिवर्तन (climate change) और मानव शिकार (human hunting) के कारण विलुप्त हो गए, तो विष्ठा की कमी से गुबरैलों को मजबूरन लाशों पर निर्भर होना पड़ा।
लेकिन कई वैज्ञानिकों का मानना था कि ऐसा बड़ा बदलाव इतनी जल्दी संभव नहीं है, क्योंकि इसके लिए कई एंज़ाइम (enzymes) और नई संवेदी क्षमताओं (sensory adaptations) की ज़रूरत होती है, जिन्हें विकसित होने में बहुत समय लगता है। हालिया अध्ययन (scientific study) ने कुछ नए तथ्य उजागर किए हैं जिनसे लगता है कि गुबरैलों ने मांस खाना तभी शुरू कर दिया था जब बड़े जंतु और उनकी विष्ठा प्रचुरता से उपलब्ध थी।
समस्या यह है कि गुबरैलों के जीवाश्म (fossils) बहुत कम मिलते हैं, इसलिए उनके अतीत के बारे में जानकारी सीमित थी। लेकिन उनकी एक चीज़ ज़रूर बची रही – ‘ब्रूड बॉल्स’, यानी मिट्टी के वे गोले जिन्हें वे अपने अंडों की सुरक्षा और नवजातों के भोजन के लिए बनाते हैं। यही अब उनके विकास की कहानी समझने की अहम कड़ी (evolutionary link) बन गए हैं।
अर्जेंटीना स्थित बर्नार्डिनो रिवादाविया नेचुरल साइंसेज़ म्यूज़ियम (Bernardino Rivadavia Natural Sciences Museum) की डॉ. लिलियाना कैंटिल के नेतृत्व में टीम ने अर्जेंटीना, चिली, उरुग्वे और इक्वाडोर से मिले लगभग 5 करोड़ साल पुराने 5000 से ज़्यादा अश्मीभूत ब्रूड बॉल्स का अध्ययन किया। पाया कि इनमें से कुछ ब्रूड बॉल्स की बनावट में एक खास तरह की संरचना थी। इनके अंदर एक छोटी-सी बाहर निकली मचान-सी (पर्च) (perch-like structure) थी। आज के गुबरैलों में यह संरचना सिर्फ उन्हीं प्रजातियों में पाई जाती है जो सड़े हुए मांस (carrion-feeding beetles) पर निर्भर रहते हैं। इनके लार्वा इस मचान पर बैठकर पास पड़े सड़े मांस को खाते हैं, न कि सीधे गोबर को।
पैलियोंटोलॉजी (paleontology study) में प्रकाशित नतीजों के अनुसार ये विशेष संरचनाएं लगभग 3.77 करोड़ वर्ष पुराने जीवाश्मों में मिलीं। इसका मतलब है कि कुछ गुबरैलों ने बड़े जीवों के विलुप्त होने से बहुत पहले ही मांस खाना शुरू कर दिया था: गुबरैलों के भोजन में बदलाव तभी हो गया था जब घास के मैदान और बड़े शाकाहारी जीव खूब फल-फूल रहे थे। शोध दल के अनुसार यह परिवर्तन प्रतिस्पर्धा (ecological competition) के कारण हुआ। जब बहुत-सी प्रजातियां गोबर पर निर्भर थीं, तो कुछ प्रजातियों ने मांसाहार का रास्ता अपना लिया।
यह खोज 2020 के एक जेनेटिक अध्ययन (genetic study) से मेल खाती है, जिसमें पाया गया था कि मांस खाने वाले गुबरैले लगभग 3.5 से 4 करोड़ साल पहले दक्षिण अमेरिका (South America evolution) में विकसित हुए थे।(स्रोत फीचर्स)
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बहुत पहले, जब मनुष्य ने खेती (farming) करना सीखा भी नहीं था, तब कुछ दीमक प्रजातियां खेती (termite farming) में माहिर हो चुकी थीं। लगभग 5 करोड़ साल पहले दीमकों ने अपने भूमिगत बिलों में एक खास फफूंद (Termitomyces) उगाना शुरू किया था, जो उनका मुख्य भोजन बना। लेकिन खेती में इन्हें भी वही समस्या पेश आती थी – ‘खरपतवार’ यानी ऐसी फफूंद (weed fungus) पनपने की जो उनकी फसल को बर्बाद कर दे।
हालिया शोध (research) से पता चला है कि दीमक अपने खेतों को सुरक्षित रखने के लिए एक खास तरीका अपनाती हैं। जब उनकी फसल में खरपतवार फफूंद लग जाती है तो वे उतने हिस्से को ऐसी मिट्टी से ढंक देती हैं जिसमें प्राकृतिक फफूंदरोधी सूक्ष्मजीव (antifungal microbes) मौजूद होते हैं।
यह अध्ययन दीमक की प्रजाति Odontotermes obesus पर किया गया, जो दक्षिण एशिया में पाई जाती है। ये सूखी पत्तियों को चबा-चबाकर उनका कचूमर बिल के खास कक्षों में भर देती हैं। इन कक्षों का तापमान व नमी फफूंद (fungus growth) के पनपने के लिए एकदम सही रहती है। धीरे-धीरे पत्तियों के कचूमर (कॉम्ब) पर पनपती फफूंद को दीमक खा लेती हैं।
लेकिन जब कोई बाहरी हानिकारक फफूंद, जैसे Pseudoxylaria, हमला करती है तो दीमक तुरंत सक्रिय हो जाती हैं। प्रयोगशाला (laboratory) अध्ययनों में देखा गया कि दीमक संक्रमित हिस्से को मिट्टी में दबा देती हैं, जबकि स्वस्थ हिस्सों को नहीं। यह भी पता चला कि साधारण कीटाणुविहीन (स्टरलाइज़्ड – sterilized) मिट्टी हानिकारक फफूंद को नहीं रोक पाती। लेकिन दीमक के टीलों से ली गई मिट्टी में मौजूद प्राकृतिक फफूंदरोधी सूक्ष्मजीव हमलावर फफूंद को पूरी तरह रोक देते हैं।
शोधकर्ताओं को सबसे अधिक प्रभावित दीमकों के लचीले व्यवहार ने किया। जब संक्रमण सीमित होता है तो वे सिर्फ संक्रमित हिस्से को साफ कर हटाती हैं। लेकिन अगर संक्रमण ज़्यादा फैल जाता है तो पूरे ‘कॉम्ब’ को दफना देती हैं ताकि बाकी बस्ती सुरक्षित रहे। एक और प्रयोग में, जब स्वस्थ हिस्सा संक्रमित हिस्से से जोड़ा गया तो दीमकों ने बहुत सावधानी से बीमार हिस्से को काटकर मिट्टी में दबा दिया और स्वस्थ फसल (healthy crop) को बढ़ने दिया।
IISER मोहाली के जीवविज्ञानी ऋत्विक रायचौधरी और उनकी टीम के अनुसार यह छोटे-छोटे जीवों की निर्णय लेने की अद्भुत क्षमता को दर्शाता है। कोपेनहेगन विश्वविद्यालय के माइकल पॉल्सन का कहना है कि दीमकों की यह कुशलता उनके पारिस्थितिक महत्व (ecological importance) को दर्शाती है। अपनी भूमिगत खेती (underground farming) संभालकर दीमक न केवल खुद का भोजन तैयार करती हैं, बल्कि पौधों के अवशेषों को उपजाऊ मिट्टी में बदलकर प्राकृतिक संतुलन (natural balance) में भी मदद करती हैं। शोधकर्ता यह जानना चाहते हैं कि दीमक खेती के तरीके कैसे तय करती हैं और सूक्ष्मजीवों (microbes) द्वारा हानिकारक फफूंद रोकने की क्रियाविधि क्या है।(स्रोत फीचर्स)
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