बहुत पहले, जब मनुष्य ने खेती (farming) करना सीखा भी नहीं था, तब कुछ दीमक प्रजातियां खेती (termite farming) में माहिर हो चुकी थीं। लगभग 5 करोड़ साल पहले दीमकों ने अपने भूमिगत बिलों में एक खास फफूंद (Termitomyces) उगाना शुरू किया था, जो उनका मुख्य भोजन बना। लेकिन खेती में इन्हें भी वही समस्या पेश आती थी – ‘खरपतवार’ यानी ऐसी फफूंद (weed fungus) पनपने की जो उनकी फसल को बर्बाद कर दे।
हालिया शोध (research) से पता चला है कि दीमक अपने खेतों को सुरक्षित रखने के लिए एक खास तरीका अपनाती हैं। जब उनकी फसल में खरपतवार फफूंद लग जाती है तो वे उतने हिस्से को ऐसी मिट्टी से ढंक देती हैं जिसमें प्राकृतिक फफूंदरोधी सूक्ष्मजीव (antifungal microbes) मौजूद होते हैं।
यह अध्ययन दीमक की प्रजाति Odontotermes obesus पर किया गया, जो दक्षिण एशिया में पाई जाती है। ये सूखी पत्तियों को चबा-चबाकर उनका कचूमर बिल के खास कक्षों में भर देती हैं। इन कक्षों का तापमान व नमी फफूंद (fungus growth) के पनपने के लिए एकदम सही रहती है। धीरे-धीरे पत्तियों के कचूमर (कॉम्ब) पर पनपती फफूंद को दीमक खा लेती हैं।
लेकिन जब कोई बाहरी हानिकारक फफूंद, जैसे Pseudoxylaria, हमला करती है तो दीमक तुरंत सक्रिय हो जाती हैं। प्रयोगशाला (laboratory) अध्ययनों में देखा गया कि दीमक संक्रमित हिस्से को मिट्टी में दबा देती हैं, जबकि स्वस्थ हिस्सों को नहीं। यह भी पता चला कि साधारण कीटाणुविहीन (स्टरलाइज़्ड – sterilized) मिट्टी हानिकारक फफूंद को नहीं रोक पाती। लेकिन दीमक के टीलों से ली गई मिट्टी में मौजूद प्राकृतिक फफूंदरोधी सूक्ष्मजीव हमलावर फफूंद को पूरी तरह रोक देते हैं।
शोधकर्ताओं को सबसे अधिक प्रभावित दीमकों के लचीले व्यवहार ने किया। जब संक्रमण सीमित होता है तो वे सिर्फ संक्रमित हिस्से को साफ कर हटाती हैं। लेकिन अगर संक्रमण ज़्यादा फैल जाता है तो पूरे ‘कॉम्ब’ को दफना देती हैं ताकि बाकी बस्ती सुरक्षित रहे। एक और प्रयोग में, जब स्वस्थ हिस्सा संक्रमित हिस्से से जोड़ा गया तो दीमकों ने बहुत सावधानी से बीमार हिस्से को काटकर मिट्टी में दबा दिया और स्वस्थ फसल (healthy crop) को बढ़ने दिया।
IISER मोहाली के जीवविज्ञानी ऋत्विक रायचौधरी और उनकी टीम के अनुसार यह छोटे-छोटे जीवों की निर्णय लेने की अद्भुत क्षमता को दर्शाता है। कोपेनहेगन विश्वविद्यालय के माइकल पॉल्सन का कहना है कि दीमकों की यह कुशलता उनके पारिस्थितिक महत्व (ecological importance) को दर्शाती है। अपनी भूमिगत खेती (underground farming) संभालकर दीमक न केवल खुद का भोजन तैयार करती हैं, बल्कि पौधों के अवशेषों को उपजाऊ मिट्टी में बदलकर प्राकृतिक संतुलन (natural balance) में भी मदद करती हैं। शोधकर्ता यह जानना चाहते हैं कि दीमक खेती के तरीके कैसे तय करती हैं और सूक्ष्मजीवों (microbes) द्वारा हानिकारक फफूंद रोकने की क्रियाविधि क्या है।(स्रोत फीचर्स)
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जीवाश्म (fossils) हमेशा से वैज्ञानिकों के लिए अतीत में झांकने की खिड़की रहे हैं। ये अतीत में दुनिया कैसी थी, कौन-सी वनस्पतियां थीं, कौन-से जीव थे, विकास (evolution) किस तरह से हुआ वगैरह समझने का एक मौका देते हैं। अब, दक्षिण अमेरिका में मिले एम्बर भंडार और उनमें कैद कीटों ने 11.2 करोड़ वर्ष पूर्व के गोंडवाना महाद्वीप के पारिस्थितिक तंत्र की एक झलक दिखलाई है।
दरअसल, मध्य इक्वाडोर (Ecuador) में खनन के दौरान प्राचीन एम्बर का भंडार मिला है, और उनमें से कई एम्बर में कीट भी कैद मिले हैं। गौरतलब है कि पेड़ों से रिसती राल (रेज़िन) में छोटे-छोटे कीट, वनस्पति अवशेष आदि फंस जाते हैं और उनके अंदर सुरक्षित हो जाते हैं।
सम्भालकर निकाले गए 60 एम्बर (amber specimens) में से 21 में कई तरह के जीव कैद थे: मक्खियां, गुबरैला, चींटियां, ततैया, यहां तक कि मकड़ी के जाले का टुकड़ा भी।
एम्बर (amber) का रासायनिक विश्लेषण (chemical analysis) करने पर पता चला कि यह रेज़िन विशाल, नुकीले शंकुधारी वृक्षों, (जैसे मंकी पज़ल वृक्ष – Monkey Puzzle Tree) से रिसा था। चूंकि एम्बर में जो प्रजातियां कैद हैं उनके लार्वा पानी में फलते-फूलते हैं, इसलिए शोधकर्ताओं (researchers) को लगता है कि तब आसपास की जलवायु आर्द्र रही होगी। आसपास की चट्टानों में पाए गए बीजाणुओं (spores) और पराग के आधार पर लगता है कि दक्षिण अमेरिका के क्रेटेशियस वनों में उस समय ऊंचे शंकुधारी वृक्ष, फर्न का फैलाव और विविध तरह के कीट रहे होंगे। ये नतीजे कम्युनिकेशंस अर्थ एंड एनवायरनमेंट (Communications Earth & Environment) में प्रकाशित हुए हैं।(स्रोत फीचर्स)
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जब हम खतरनाक जीवों की बात करते हैं तो आम तौर पर शेर, सांप या शार्क का नाम आता है। लेकिन असली खतरा तो एक छोटे-से मच्छर (mosquito) से है – एडीज़एजिप्टी (Aedes aegypti)। इसे येलो फीवर मच्छर (yellow fever mosquito) भी कहते हैं। यह बेहद छोटा कीट डेंगू, चिकनगुनिया, ज़ीका और पीत ज्वर जैसी 50 से अधिक बीमारियां फैला सकता है। आज भी लगभग चार अरब लोगों पर इन बीमारियों का खतरा मंडरा रहा है।
शुरुआत में यह मच्छर अफ्रीकी जंगलों में पाया जाता था। वहां यह प्राकृतिक जलस्रोतों (water sources) में प्रजनन और अलग-अलग जीवों पर रक्तभोज करता था। लेकिन जैसे ही यह अफ्रीका से बाहर फैला, इसकी आदतें बदल गईं। अब यह शहरों और गांवों में पुराने टायर, प्लास्टिक की बाल्टियों और घरों के पास जमा पानी में पनपने लगा और सबसे खतरनाक बदलाव यह हुआ कि इसने लगभग पूरी तरह इंसानों का खून पीना शुरू कर दिया। यही वजह है कि यह आज घातक बीमारियों का सबसे बड़ा वाहक (vector) बन गया है। वैज्ञानिक इस प्रजाति को दो किस्मों में बांटते हैं: Aedes aegypti formosus – अफ्रीकी जंगलों में पाया जाने वाला मच्छर, जो अलग-अलग जीवों का खून पीता है। Aedes aegypti aegypti – शहरों में पनपने वाला मच्छर, जो लगभग केवल इंसानों को काटता है। भले ही इन दोनों की आदतों और जीन्स में अंतर हैं, लेकिन ये आपस में प्रजनन कर सकते हैं।
गौरतलब है कि 5000 वर्ष पूर्व जब सहारा मरुस्थल फैलने लगा और पानी के प्राकृतिक स्रोत सूखने लगे तो इंसानों ने बर्तनों और कंटेनरों (containers) में पानी जमा करना शुरू किया। ऐसे में कुछ मच्छर इन कृत्रिम जलस्रोतों में पनपने लगे और धीरे-धीरे उन्होंने इंसानों का खून पीना पसंद किया।
सदियों बाद, गुलामों को अफ्रीका से अमेरिका भेजे जाने वाले जहाज़ों (slave ships) पर चुपके से लदकर ये मच्छर अमेरिका पहुंच गए। यहीं से उनके वैश्विक फैलाव की शुरुआत हुई। लेकिन वैज्ञानिक लंबे समय तक यह नहीं समझ पाए कि ये मच्छर इंसानों के लिए पहले से अनुकूलित थे या फिर अमेरिका पहुंचने के बाद उनमें नए गुण विकसित हुए।
इस रहस्य को समझने के लिए 9 देशों के वैज्ञानिकों ने विश्व के 73 स्थानों से 1206 मच्छरों के जीनोम का अध्ययन (genome study) किया। साइंस पत्रिका में प्रकाशित इस अध्ययन में एडीज़एजिप्टी मच्छर के फैलाव और उसमें आए परिवर्तनों पर चर्चा की गई है।
अध्ययन से प्राप्त नतीजे काफी चौंकाने वाले थे। अर्जेंटीना में मिले मच्छरों का जीनोम सेनेगल और अंगोला के मच्छरों के जीनोम से मेल खाता पाया गया। यानी, केवल अटलांटिक सफर ने ही उन्हें नहीं बदला, बल्कि अमेरिका की कठिन परिस्थितियों ने भी उनमें नए बदलाव (genetic changes) पैदा किए। अफ्रीका में उन्हें कई स्थानीय प्रजातियों से मुकाबला करना पड़ता था, लेकिन अमेरिका में उनके लिए जीवित रहने का एकमात्र तरीका इंसानों के पास रहना और उन्हीं पर निर्भर होना था। धीरे-धीरे ये मच्छर लगभग पूरी तरह इंसानों पर निर्भर हो गए।
मच्छरों का यह बदलाव सुनने में मामूली लग सकता है, लेकिन यह एक बड़ी क्रांति थी। सोचिए, एक कीट जो कभी जंगलों में रहता था, अब शहरों की भीड़-भाड़ में पुराने टायरों या प्लास्टिक की बाल्टियों (plastic containers) में पनप रहा है। कुछ छोटे जेनेटिक बदलावों (genetic evolution) ने इनके जीवन और व्यवहार को पूरी तरह बदल दिया है। इंसानों के साथ यह नज़दीकी, तेज़ी से बढ़ते शहरों (urbanization) और वैश्विक व्यापार (global trade) ने एडीज़एजिप्टी मच्छरों को फैलने का मौका दिया।
अध्ययन में एक और चिंताजनक तथ्य सामने आया: अमेरिका में कीटनाशकों (insecticides) के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता वाले मच्छर वैश्विक व्यापार के ज़रिए अब वापस अफ्रीका पहुंच गए हैं। और वहां डेंगू व अन्य बीमारियों का खतरा बढ़ा रहे हैं।
देखा जाए तो एडीज़एजिप्टी की कहानी सिर्फ मच्छर (mosquito species) की कहानी नहीं है। इससे यह सपष्ट होता है कि पर्यावरण, इंसानी आदतों और वैश्विक आवाजाही (human mobility) में छोटे बदलाव कैसे प्रकृति को बदल सकते हैं।(स्रोतफीचर्स)
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वैज्ञानिकों ने हाल ही में मस्तिष्क (Brain) में एक खास ‘ब्रेन डायल’ (Brain Dial) खोजा है, जो खाने की इच्छा (Food Craving) को जगा या शांत कर सकता है – कम से कम चूहों में। यह छोटा-सा दिमागी हिस्सा जीवों को पेट भरा होने पर भी खाने के लिए मजबूर कर सकता है।
यह ब्रेन डायल मस्तिष्क के बेड न्यूक्लियस ऑफ स्ट्रिआ टर्मिनेलिस (Bed Nucleus of the Stria Terminalis, BNST) नामक हिस्से में पाया गया है। यह हिस्सा शरीर की तंत्रिकाओं से कई तरह की जानकारियां प्राप्त करके उनका समन्वय करता है – जैसे भूख का स्तर (Hunger Level), विशिष्ट पोषक तत्वों की कमी और भोजन के बारे में निर्णय करना कि वह खाने योग्य है या नहीं। यह एक तरह का कंट्रोल सेंटर (Brain Control Center) है, जो भूख, पोषण और स्वाद से जुड़ी जानकारियों से लेकर खाने के व्यवहार को नियंत्रित करता है। पहले वैज्ञानिकों को शक था कि BNST भूख में भूमिका निभाता है, लेकिन सेल पत्रिका (Cell Journal) में प्रकाशित इस अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि यह खाने की आदतों को दोनों दिशाओं में नियंत्रित कर सकता है।
अध्ययन में कोलंबिया युनिवर्सिटी (Columbia University) के तंत्रिका वैज्ञानिक चार्ल्स ज़ुकर की टीम ने चूहों में स्वाद से जुड़े मस्तिष्कीय परिपथों का नक्शा तैयार किया। उन्होंने पाया कि केंद्रीय एमिग्डेला (Amygdala) और हायपोथैलेमस (Hypothalamus) की तंत्रिकाएं मीठा स्वाद पहचानती हैं और सीधे BNST न्यूरॉन्स से जुड़ी होती हैं। जब BNST तंत्रिकाओं को बाधित किया गया तब भूख होते हुए भी चूहों ने मीठा खाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। लेकिन जब इन्हें सक्रिय किया गया तो पेट भरे चूहों ने सामने आने वाली हर चीज़ खाना शुरू कर दिया जैसे नमक, कड़वी चीज़ें, वसा, पानी, यहां तक कि प्लास्टिक की टिकलियां भी।
विशेषज्ञों के अनुसार यह शोध इसलिए अहम है क्योंकि इसमें भूख और स्वाद (Hunger and Taste) के असर को अलग-अलग समझकर दिखाया गया है, और यह भी बताया गया है कि दोनों का सम्बंध एक ही दिमागी हिस्से से है।
हालांकि ये प्रयोग चूहों पर हुए हैं, लेकिन इंसानों (Humans) के लिए भी इनके बड़े मायने हो सकते हैं। अगर वैज्ञानिक इस ब्रेन डायल को सुरक्षित रूप से नियंत्रित (Brain Dial Control) करना सीख जाते हैं, तो एक दिन यह मोटापा (Obesity), ज़्यादा खाना और खाने से जुड़ी बीमारियों (Eating Disorders) से निपटने में मदद कर सकता है। बहरहाल, इसे इंसानों पर लागू करने से पहले काफी अध्ययन की ज़रूरत होगी।(स्रोतफीचर्स)
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जंगली मधुमक्खियां (wild bees) यूं ही किसी भी फूल पर नहीं जातीं। एक नए अध्ययन से पता चला है कि ये नन्हे परागणकर्ता (pollinators) अलग-अलग फूल चुनकर अपने भोजन में प्रोटीन, वसा और कार्बोहाइड्रेट का संतुलन बनाए रखते हैं। ठीक वैसे ही जैसे इंसान कभी भरपेट खाना पसंद करते हैं तो कभी हल्का-फुल्का; जैसे सलाद।
यह शोध आठ साल तक अमेरिका के कोलोराडो रॉकीज़ (Colorado Rockies) पहाड़ों में किया गया, जहां वैज्ञानिकों ने आठ तरह की मधुमक्खियों पर अध्ययन किया। इन मधुमक्खियों द्वारा इकट्ठा किए गए पराग का विश्लेषण कर उन्होंने एक ‘पोषण मानचित्र’ बनाया, जिससे पता चला कि मधुमक्खियां कैसे और क्यों अलग-अलग फूल चुनती हैं।
कुछ फूलों के पराग में सिर्फ 17 प्रतिशत प्रोटीन था, जबकि कुछ में 86 प्रतिशत तक प्रोटीन पाया गया। मौसम का असर भी साफ दिखा: वसंत के फूलों में प्रोटीन ज़्यादा था, जबकि गर्मी के अंत में मिलने वाले फूलों में वसा और कार्बोहाइड्रेट (carbohydrates) अधिक थे। यही मौसमी बदलाव तय करता है कि मधुमक्खियां किस समय कौन-सा भोजन चुनेंगी।
इस अध्ययन से यह भी पता चला कि मधुमक्खियों की अलग-अलग प्रजातियां (bee species) अपने शरीर के आकार (body size) और जीभ की लंबाई के आधार पर अलग-अलग भोजन रणनीति अपनाती हैं। बड़ी और लंबी जीभ वाली मधुमक्खियां ज़्यादा प्रोटीन वाले पराग चुनती हैं, जबकि छोटी मधुमक्खियां कार्बोहाइड्रेट और वसा वाला पराग पसंद करती हैं। इसके अलावा, अलग-अलग मधुमक्खियां अपनी कॉलोनी (bee colony) के विकास की अवस्था के हिसाब से भी भोजन बदलती हैं।
इस अध्ययन के मुख्य शोधकर्ता जस्टिन बैन (Justin Baen) के अनुसार पराग (pollen nutrition) में यह विविधता वैसी ही है जैसी इंसानों के खाने में होती है। यानी मधुमक्खियों को भी इंसानों की तरह संतुलित आहार (balanced diet) चाहिए।
हालांकि यह अध्ययन पथरीले पर्वतीय स्थल (mountain ecosystem) पर हुआ है, लेकिन यह दुनिया भर में परागणकर्ताओं (pollinators worldwide) की पोषण ज़रूरतों को समझने के लिए उपयोगी है। सबसे अहम बात यह है कि मधुमक्खियों के लिए एक जैसा भोजन काम नहीं करता – उनके लिए फूलों की विविधता ज़रूरी है ताकि उनकी आबादी स्वस्थ बनी रहे।
बागवान (gardeners) और संरक्षणकर्ता (conservationists) इस जानकारी के आधार पर ऐसे बगीचे और प्राकृतवास बना सकते हैं जो साल भर मधुमक्खियों की बदलती पोषण ज़रूरतों को पूरा करें। आज परागण करने वाले कीट (pollinator insects) जलवायु परिवर्तन (climate change), प्राकृतवास के नष्ट होने और पोषण की कमी जैसी बड़ी चुनौतियों से जूझ रहे हैं। ऐसे में यह अध्ययन बताता है कि विविधता बनाए रखना कितना ज़रूरी है।(स्रोत फीचर्स)
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अजीब लगता है लेकिन शायद यह सच है। यह सही है कि 1 करोड़ साल पहले हमारे वानर पूर्वज (ape ancestors) दारु (alcohol) बनाना तो नहीं जानते थे लेकिन उन्होंने उसका स्वाद परोक्ष रूप से चख लिया था। बायोसाइन्स में प्रकाशित एक रिपोर्ट इस बात को प्रमाणित करती लगती है।
जीव वैज्ञानिक रॉबर्ट डूडले द्वारा प्रस्तुत एक परिकल्पना रही है – शराबखोर बंदर (drunken monkey hypothesis), जिसके अनुसार कई लाख साल पहले हमारे वानर पूर्वज गिरे हुए फल खाते थे, जो कुछ हद तक किण्वित होकर मदिरा (fermented fruit) से भर गए होंगे। इस अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओं ने इस प्रवृत्ति को एक अच्छा सा नाम भी दे दिया है – स्क्रम्पिंग (फलचोरी) (fruit foraging)।
वैसे तो किण्वित होते फलों (fermentation) को सूंघ लेना काफी आसान है। जब फलों, पेड़ों से रिसते रस या मकरंद पर खमीर पनपता है तो वह अल्कोहल (ethanol) पैदा करता है। कई जानवर और पक्षी इसका सेवन करके थोड़े धुत तो हो जाते हैं। और फिर मनुष्यों ने लगभग 8000 साल पहले फलों से और अनाज से शराब बनाना (wine making) सीख लिया था। तो हो सकता है कि हमारे वानर पूर्वजों ने प्राकृतिक रूप से बनती शराब को चखा हो। दरअसल, यदि वे ऐसे किण्वित होते फलों को खाने लगते तो उन्हें अन्य जंतुओं से प्रतिस्पर्धा में लाभ मिलता क्योंकि अन्य जंतु इन्हें नहीं खाते। और तो और, ऐसे फलों को उनकी हवा में फैलती गंध की मदद से दूर से ताड़ लेना भी आसान रहा होगा।
हमारे पूर्वजों ने यह क्षमता हासिल कर ली थी, इसका सर्वप्रथम प्रमाण 2015 में 18 प्रायमेट प्रजातियों के एक जेनेटिक विश्लेषण (genetic analysis) से मिला था। इस अध्ययन में पता चला था कि मनुष्य, चिम्पैंज़ी तथा गोरिल्ला में एक ऐसा उत्परिवर्तन पाया जाता है जो अल्कोहल पचाने वाले एंज़ाइम (alcohol metabolism enzyme) की कार्यक्षमता को 40 गुना बढ़ा देता है। और गणनाओं से अन्दाज़ लगा था कि यह उत्परिवर्तन करीब 1 करोड़ साल पहले हुआ था।
लेकिन इस बाबत आंकड़े उपलब्ध नहीं थे कि क्या हमारे वानर पूर्वज पर्याप्त मात्रा में किण्वित खाद्य पदार्थ (fermented food) का भक्षण करते थे। परोक्ष अनुमानों के आधार पर तो 40 प्रजातियों के भोजन में यह 3 प्रतिशत से भी कम था। शोधकर्ताओं का विचार था कि यह अनुमान वास्तविकता से थोड़ा कम है क्योंकि इसमें उन फलों को शामिल नहीं किया गया है जो किण्वन की प्रारंभिक अवस्था में खाए जाते हैं।
फिर शोधकर्ताओं को एक आइडिया सूझा। उन्होंने विचार किया कि यदि वे गिरे हुए फलों (fallen fruits) पर ध्यान केन्द्रित करें तो बेहतर अनुमान मिल सकता है। मैदानी रिपोर्ट्स में अक्सर यह ज़रूर बताया जाता है कि जानवर क्या खा रहे थे और खाते समय वे कितनी ऊंचाई पर थे। यानी उस समय वे पेड़ पर बैठे थे या ज़मीन पर। इसके आधार पर शोधकर्ताओं ने यह अनुमान लगाया कि कितनी बार ये वानर पूर्वज (यानी एप्स) ज़मीन से फल उठाकर खाते हैं। इसे उन्होंने स्क्रम्पिंग की संज्ञा दी यानी गिरे हुए फल एकत्रित करना। इन गिरे हुए फलों को किण्वन की प्रारंभिक अवस्था में माना गया।
अब इस नई परिभाषा को लेकर डार्टमाउथ कॉलेज के मानव वैज्ञानिक नाथेनियल डोमिनी और उनके साथियों ने चार प्रायमेट प्रजाति आबादियों (ape populations) के पहले से उपलब्ध आंकड़ों को एक बार फिर से टटोला – बोर्नियो के ओरांगुटान, युगांडा के चिम्पैंज़ी और पहाड़ी गोरिल्ला तथा गैबन के गोरिल्ला।
देखा गया कि इन चारों प्रजातियों के भोजन में फलों की मात्रा लगभग एक बराबर (15 से 60 प्रतिशत के बीच) थी लेकिन गिरे हुए या पेड़ से तोड़े गए फलों की मात्रा में काफी विविधता थी। अफ्रीकी एप्स (African apes), गोरिल्ला व चिम्पैंज़ी ने जो फल खाए उनमें से गिरे हुए फल 25 से 62 प्रतिशत तक थे जबकि ओरांगुटान (orangutans) ने ऐसे फल कभी-कभार ही खाए थे। गौरतलब है कि ओरांगुटान हमारे दूर के रिश्तेदार हैं और उनमें अल्कोहल का कुशलतापूर्वक पाचन करने के लिए ज़रूरी जेनेटिक उत्परिवर्तन नहीं होता। लिहाज़ा, उपरोक्त जानकारी काफी महत्वपूर्ण है।
अलबत्ता, कई वैज्ञानिकों का कहना है कि चंद स्थलों के आंकड़ों के आधार पर निष्कर्ष निकालना उचित नहीं है। हो सकता है यह प्रवृत्ति चंद आबादियों तक सीमित हो। जैसे हारवर्ड विश्वविद्यालय (Harvard University) के मानव वैज्ञानिक रिचर्ड रैंगहैम बताते हैं कि उन्होंने दशकों से युगांडा के जिन चिम्पैंज़ियों (chimpanzees) का अध्ययन किया है उनमें गिरे हुए फल के प्रति हिकारत ही देखी है। बहरहाल, वे मानते हैं कि इस अध्ययन ने अल्कोहल सेवन (alcohol consumption) की ओर जो ध्यान आकर्षित किया है वह महत्वपूर्ण है। यह बताता है कि जब आज से करीब 10,000 साल पहले हमने इरादतन अल्कोहल बनाना शुरू किया तब हम इसका सेवन करने को लेकर जीव वैज्ञानिक रूप से तैयार थे।(स्रोत फीचर्स)
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अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN, conservation) ने हाल ही में इस बात की पुष्टि की है कि जिराफ (giraffe) की एक नहीं चार प्रजातियां हैं। यह रिपोर्ट जिराफ के संरक्षण (wildlife protection) के लिहाज़ से महत्वपूर्ण मानी जा रही है।
दरअसल कुछ साल पहले तक समस्त जिराफ को बस एक ही प्रजाति, जिराफा कैमिलोपार्डेलिस (Giraffa camelopardalis), और उनकी नौ उप-प्रजातियों के रूप में वर्गीकृत किया गया था। लेकिन 2016 में, नामीबिया स्थित जिराफ संरक्षण फाउंडेशन (Giraffe Conservation Foundation) के शोधकर्ताओं ने संपूर्ण अफ्रीका (Africa) के जिराफों का जेनेटिक अनुक्रमण (genetics) किया था। इसमें उन्हें विभिन्न जिराफ आबादियों के बीच बहुत अंतर मिला था।
विश्लेषण में उन्हें चार अलग-अलग प्रजातियां समझ आई थीं जिन्हें उन्होंने मसाई (Giraffa tippelskirchi), उत्तरी (Giraffa camelopardalis), जालीदार (Giraffa reticulata) और दक्षिणी जिराफ (Giraffa giraffa) के रूप में वर्गीकृत किया था।
IUCN की हालिया रिपोर्ट (IUCN Red List) ने इसी अध्ययन को आगे बढ़ाया है। हालिया अध्ययन में विशेषज्ञों ने जिराफ का जेनेटिक डैटा (DNA) तो देखा ही, साथ ही उन्होंने विभिन्न जिराफ आबादियों की अस्थि संरचना भी देखी और उनके भौगोलिक वितरण पर हुए अध्ययनों की समीक्षा भी की। उनके निष्कर्ष भी जिराफ की चार प्रजातियां होने की ओर इशारा करते हैं।
ये निष्कर्ष जिराफ संरक्षण (endangered species) के लिहाज़ से महत्वपूर्ण हैं। दरअसल जिराफ की हर प्रजाति के सामने अलग-अलग खतरे होंगे। यदि हमें उनकी विशिष्ट आवश्यकताएं पता होंगी तो उसी के अनुरूप हम संरक्षण रणनीतियां (conservation strategy) बना सकते हैं।
मसलन, मध्य अफ्रीकी गणराज्य और दक्षिण सूडान (South Sudan, Central African Republic) के बीच चल रहे सशस्त्र संघर्ष के चलते उत्तरी जिराफों की संख्या में 1995 के बाद से 70 प्रतिशत की कमी आई है और आज महज 7037 रह गई है। वहीं, उम्दा संरक्षण कार्यक्रमों (conservation programs) की बदौलत दक्षिणी जिराफ की आबादी इसी अवधि में दुगनी होकर 68,837 पर पहुंच गई है।
यदि समस्त जिराफ को एक ही प्रजाति (species) के रूप में देखा जाए तो किसी एक स्थान के जिराफ की तादाद में कमी इतनी चिंताजनक नहीं लगेगी क्योंकि अन्य स्थान पर तो वे फलते-फूलते दिखेंगे। लेकिन अब जब हमें पता है कि उत्तरी और दक्षिणी जिराफ दो अलग-अलग प्रजातियां हैं तो उत्तरी जिराफ की संख्या में कमी चिंता (population decline) जगाती है, उनके संरक्षण के प्रयासों (protection efforts) को तेज़ करने की ज़रूरत को रेखांकित करती है।(स्रोत फीचर्स)
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लगभग 40 करोड़ साल पूर्व सबसे पहले कशेरुकी (vertebrates) जीव समुद्र (ancient ocean) में रहते थे। उस समय मछलियां ही समुद्र की सबसे बड़ी जीव थीं, लेकिन उनमें ज़मीन पर चलने के लिए मज़बूत टांगें (strong limbs) विकसित नहीं हुई थीं। वैज्ञानिकों का मानना था कि विकास की प्रक्रिया में काफी समय लगा जिसके बाद मछलियां ज़मीन पर आईं। लेकिन पोलैंड में हुई एक खोज से पता चला है कि कुछ मछलियों ने हमारी सोच से कहीं पहले ही ज़मीन पर जीने की कोशिश की थी।
2021 में वैज्ञानिकों को पोलैंड स्थित होली क्रॉस पर्वतों में अजीब से जीवाश्म (fossil evidence) निशान मिले। ये पत्थर कभी समुद्र तट (ancient seashore) का हिस्सा थे। इनमें 240 से ज़्यादा गड्ढे और खरोंचें मिलीं। जांच से पता चला कि ये निशान शायद मछलियों के ज़मीन या बहुत उथले पानी (shallow water habitat) पर रेंगते हुए बने थे। ये जीवाश्म 41 से 39.3 करोड़ साल पुराने हैं — यानी पहले मिले सबूतों से करीब 1 करोड़ साल पहले।
ये निशान आज की लंगफिश (lungfish evolution) से बहुत मिलते-जुलते हैं। लंगफिश ऐसी मछली है जो हवा में सांस ले सकती है और अपने मीनपक्षों (पंखों) का इस्तेमाल करके ज़मीन पर रेंग सकती है। माना जाता है कि लंगफिश थलचर चौपाया जीवों (early tetrapods) के शुरुआती पूर्वजों की करीबी रिश्तेदार है। चलने के लिए यह मछली अपना मुंह ज़मीन पर टिकाकर लीवर की तरह दबाती है और फिर मीनपक्ष और पूंछ की मदद से शरीर को आगे खींचती है। यही अजीब तरीका पोलैंड में मिले जीवाश्मों के निशानों से मेल खाता है।
अध्ययन के मुख्य लेखक और पोलिश जियोलॉजिकल इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक पिओत्र श्रेक बताते हैं कि ऐसा तभी संभव था जब वे पूरी तरह पानी के उछाल (buoyancy) पर निर्भर नहीं रह गई हों।
वैज्ञानिकों की टीम ने इन जीवाश्मों के निशानों को बारीकी से समझने के लिए 3-डी स्कैनिंग (3D fossil scanning) की। फिर उन्होंने इनकी तुलना आज की पश्चिम अफ्रीकी लंगफिश (Protopterus annectens) द्वारा बनाए गए निशानों (trace fossils) से की। नतीजा यह रहा कि नाक, पंख, पूंछ और शरीर के हिस्सों से बने दबाव के निशान लगभग वैसे ही मिले। इससे साफ हुआ कि प्राचीन समय की कुछ मछलियां लंगफिश जैसी ही रही होंगी।
एक और दिलचस्प बात यह सामने आई: वैज्ञानिकों को ‘हैंडेडनेस’ यानी शरीर के एक ओर की वरीयता (lateral preference) के सबूत भी मिले। 240 निशानों में से 36 में सिर झुकाने के संकेत थे, जिनमें से 35 बाईं ओर झुके थे। इसका मतलब यह हो सकता है कि वे मछलियां ज़्यादातर बाईं ओर झुककर चलती थीं (movement patterns), ठीक वैसे ही जैसे इंसानों में कोई दाएं या बाएं हाथ का ज़्यादा इस्तेमाल करता है। यह जानवरों में ‘हैंडेडनेस’ का अब तक का सबसे पुराना (ancient behavior) प्रमाण हो सकता है।
अलबत्ता, एक तर्क यह है कि आज की लंगफिश 40 करोड़ साल पुरानी मछलियों से बहुत अलग हैं, इसलिए सीधे-सीधे तुलना मुश्किल है। चीन और ऑस्ट्रेलिया (fossil discoveries) में मिले ऐसे ही जीवाश्मों पर अधिक शोध इन निष्कर्षों की पुष्टि करने में सहायक हो सकते हैं। बहरहाल, यह खोज हमें याद दिलाती है कि विकास (evolution process) कभी सीधी रेखा में नहीं होता।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.z3bb3qq/full/_20250814_on_fish_land_lede-1755294760050.jpg
भारत में जगंली (wild) बिल्ली परिवार (wild cat family) की 15 प्रजातियां पाई जाती हैं। लेकिन ज़्यादा ध्यान अमूमन बड़ी बिल्ली प्रजातियों जैसे शेर, बाघ पर दिया जाता है। लोगों को छोटी जंगली बिल्लियों, जैसे स्याहगोश (कैरकाल, caracal), रोहित-द्वीपी बिल्ली (rusty spotted cat), मछुआरा बिल्ली (fishing cat) आदि के बारे में ज़्यादा मालूमात नहीं है। ये छोटी और गुमनाम बिल्लियां भी उचित पहचान की हकदार हैं, क्योंकि ये अपने से कहीं ज़्यादा बड़े और बढ़ते खतरों से भरी दुनिया में विचरण कर रही हैं।
भारत की आर्द्रभूमियां (wetlands) मछुआरा बिल्लियों (Prionailurus viverrinus) के घर हैं। देश में इनके कई नाम हैं: बनबिरल, खुप्या बाघ, माचा बाघा वगैरह। यह पश्चिम बंगाल की राज्य पशु है और इसे बघरोल या मेचो बिराल कहा जाता है।
ये बिल्लियां आकार में घरेलू बिल्ली (domestic cat) से दुगनी होती हैं, वज़न 7 से 12 किलोग्राम होता है, और इनके भूरे-भूरे रंग के बालों पर काले चित्ते (black spots) होते हैं। अपने अधिकार-क्षेत्र (इलाके) में यह बिल्ली अक्सर शीर्ष शिकारी (apex predator) होती है, यानी कोई अन्य प्राणी इनका शिकार नहीं करता। आर्द्रभूमियां जीवंत पारिस्थितिक तंत्र होती हैं, नदी के बाढ़ क्षेत्र या मैंग्रोव (mangroves) और दलदल (swamps) जहां ये पाई जाती है।
मछुआरा बिल्ली में हुए कुछ असामान्य अनुकूलन (adaptations) उन्हें नम परिवेश में जीवित रहने में सक्षम बनाते हैं। आंशिक रूप से जालीदार पंजे (webbed paws), घना जलरोधी आवरण (फर – waterproof fur) और पानी में पूरी तरह डूबे होने पर भी तैरने की क्षमता इसकी जलीय प्रवृत्ति बताती है। उभरे हुए पंजे, जिन्हें पूरी तरह से अंदर नहीं खींचा जा सकता, बिल्ली को फिसलन भरी मिट्टी (slippery mud) में पकड़ बनाने और मछलियों को पकड़ने में मदद करते हैं। बिल्लियों का आहार मुख्य रूप से मछली है, हालांकि कृंतक (rodents), मुर्गियां (chickens) और अन्य छोटे जानवर खाने से भी ये परहेज़ नहीं करती हैं।
शिकार (hunting) की फिराक में मछुआरा बिल्ली का आधा समय जलस्रोत (water source) के किनारे खड़े, बैठे या दुबके हुए बीतता है। इसके शिकार करने का बमुश्किल 5 प्रतिशत समय ही पानी के अंदर बीतता है। उथले पानी में बिल्ली धीरे-धीरे चलती रहती है, अपने पंजों से मछली को उचकाती है और फिर उसे मुंह से पकड़ लेती है।
मछुआरा बिल्लियों को फैलाव (distribution) काफी बिखरा हुआ है: हिमालय का तराई क्षेत्र (Terai region), पश्चिमी भारत के कुछ दलदली क्षेत्र (marshes), सुंदरवन (Sundarbans), पूर्वी तट (east coast) और श्रीलंका (Sri Lanka)।
इन निशाचर (nocturnal), छुपी रुस्तम (elusive) बिल्ली की बिखरी हुई आबादी पर नज़र रखने के लिए वन्यजीव सर्वेक्षणकर्ता जलस्रोतों के नज़दीक कैमरा ट्रैप लगाते हैं। फिशिंग कैट प्रोजेक्ट (Fishing Cat Project) की तियासा आद्या और उनके सहयोगियों के एक नेटवर्क (fishingcat.org) द्वारा चिल्का झील (Chilika Lake) में विस्तृत गिनती की गई है, जहां मछलियां बहुतायत में हैं और मनुष्यों के साथ उनका टकराव सीमित है। उनके परिणामों का विस्तार करने पर ऐसा अनुमान है कि मछुआरा बिल्लियों की संख्या झील के 1100 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में करीबन 750 है।
यह आशाजनक संख्या सुंदरबन में बिल्लियों की तेज़ी से घटती संख्या के विपरीत है। इस साल की शुरुआत में केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान (भरतपुर) (Keoladeo National Park, Bharatpur) में मछुआरा बिल्ली देखी गई है, इसके दिखने के पहले तक ऐसा माना जाता था कि मछुआरा बिल्लियां राजस्थान (Rajasthan) में विलुप्त हो चुकी हैं।
यह गिरावट मुख्यत: उनके प्राकृतवास (habitat) में कमी के कारण है। ऐसा अनुमान है कि पिछले चार दशकों में भारत की 30-40 प्रतिशत आर्द्रभूमियां खत्म हो गई हैं या बहुत अधिक सिमट गई हैं। इसलिए, आर्द्रभूमि पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा करना मछुआरा बिल्लियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। मनुष्यों के अतिक्रमण (human encroachment) ने भी मछुआरा बिल्लियों और उनके प्राकृतवास को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। कई लोग उन्हें मछलियों और मुर्गियों के शिकारी के रूप में देखते हैं, नतीजतन मनुष्य अपने पालतुओं के शिकार का बदला इन्हें मारकर लेते हैं। मनुष्यों द्वारा बदले की भावना से की गई हत्याओं (retaliatory killings) की एक बड़ी संख्या दर्ज है। समुदाय-आधारित संरक्षण (community-based conservation) कार्यक्रम इस शत्रुभाव को कम करने में मुख्य भूमिका निभा सकते हैं।
इस वर्ष, देहरादून स्थित भारतीय वन्यजीव संस्थान (Wildlife Institute of India) ने आंध्र प्रदेश में कोरिंगा वन्यजीव अभयारण्य (Coringa Wildlife Sanctuary) में गोदावरी नदी के मुहाने (Godavari river delta) पर मछुआरा बिल्लियों की निगरानी के लिए एक परियोजना शुरू की है। बिल्लियों में जीआईएस तकनीक (GIS technology) से लैस जीपीएस कॉलर (GPS collar) लगाकर उनका स्थान सम्बंधी सटीक डैटा एकत्र किया जाएगा। कॉलर से प्राप्त सतत डैटा उनके पसंदीदा आवासों, उनकी गतिविधियों और मानव बस्तियों के संपर्क में आने के स्थानों के बारे में जानकारी देगा। ये सभी जानकारियां मछुआरा बिल्लियों की के संरक्षण व आबादी बढ़ाने की रणनीतियां बनाने में उपयोगी होंगी।(स्रोतफीचर्स)
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कभी सर्फिंग (surfing destination) और पर्यटन (island tourism) के लिए मशहूर हिंद महासागर का फ्रांसीसी रीयूनियन द्वीप (Reunion Island) आज एक अलग ही वजह से वैज्ञानिकों का ध्यान खींच रहा है – शार्क हमलों (shark attacks) का खतरा।
हमलों का सिलसिला फरवरी 2011 में शुरू हुआ था; अगले आठ सालों में इस द्वीप के आसपास शार्क ने 30 लोगों पर हमला किया, जिनमें से 11 की मौत हो गई। इन हमलों के चलते इस द्वीप को ‘शार्क द्वीप’ या ‘शार्क संकट’ (shark crisis) कहा जाने लगा।
हमलों के चलते समुद्र तट बंद कर दिए गए, सर्फिंग और तैराकी पर रोक लगा दी गई। पर्यटन बुरी तरह प्रभावित हुआ। लेकिन इसी संकट ने वैज्ञानिक शोध (shark research) का एक मौका भी दिया। फ्रांस सरकार ने शार्क के व्यवहार को समझने, तटों की सुरक्षा बढ़ाने और नई तकनीकें विकसित करने के लिए करोड़ों यूरो का निवेश किया। रीयूनियन द्वीप शार्क अनुसंधान का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया।
शार्कहमलोंकोसमझना
शार्क की संख्या और उनकी गतिविधियों को लेकर ज़्यादा जानकारी नहीं थी, इसलिए इन हमलों का कोई कारण समझ नहीं आ रहा था। तब फ्रांस सरकार ने CHARC नामक एक रिसर्च प्रोग्राम (CHARC shark research program) शुरू किया। यह कार्यक्रम दो प्रमुख शार्क प्रजातियों – बुल शार्क (Carcharhinus leucas) एवं टाइगर शार्क (Galeocerdo cuvier) – पर केंद्रित था, जो ज़्यादातर हमलों के लिए ज़िम्मेदार मानी गई थीं। मकसद था इनके व्यवहार, प्राकृतवास और आवाजाही को समझना, ताकि भविष्य में ऐसे टकरावों को रोका जा सके।
CHARC प्रोजेक्ट से कई अहम जानकारियां मिलीं। वैज्ञानिकों ने पाया कि टाइगर शार्क एक तय मौसम में ही आती थीं और उन्हें गहरा पानी पसंद है। दूसरी ओर, बुल शार्क साल भर मौजूद रहती थीं और अक्सर तट के बेहद करीब तक आ जाती थीं।
हमलोंकाकारण
इन हमलों में बढ़ोतरी के पीछे कई कारण थे। सबसे बड़ा कारण इंसानों की बढ़ती गतिविधियां (human-shark interaction) थीं। 1980 से 2016 के बीच रीयूनियन द्वीप की आबादी 67 प्रतिशत बढ़ गई थी और साथ ही तैराकी और सर्फिंग भी, जिससे शार्क से सामना होने की संभावना भी बढ़ी।
इसके अलावा, ज़मीन के इस्तेमाल और नई निर्माण परियोजनाओं का भी प्रभाव पड़ा। 2000 के दशक में एक बड़ा सिंचाई प्रोजेक्ट (irrigation project) शुरू हुआ, जिससे द्वीप के पूर्वी हिस्से का पानी पश्चिमी हिस्से की ओर मोड़ा गया। इससे खेतों से निकला पानी समुद्र में बहने लगा और तटीय पानी की लवणीयता घट गई। बुल शार्क को कम लवण वाला पानी पसंद है। नतीजतन, वे पश्चिमी तटों पर ज़्यादा आने लगीं। यही तट सर्फरों के बीच भी सबसे लोकप्रिय थे।
शार्क हमलों में बढ़ोतरी के पीछे कुछ अन्य कारण भी हैं। जैसे, 2007 में समुद्री जीवन की रक्षा के लिए एक समुद्री संरक्षण क्षेत्र (marine protected area) बनाया गया था। इससे मछलियों की संख्या बढ़ी जो शार्क का भोजन हैं। साथ ही, 1990 के दशक के मध्य में मेडागास्कर द्वीप में विषैला संक्रमण फैलने से शार्क का मांस बेचना बंद कर दिया गया। इससे शार्क पकड़ने में कमी आई, और उनकी संख्या बढ़ने लगी।
यानी शार्क संकट पर्यावरणीय बदलाव, इंसानी गतिविधियों, और शार्क की स्थानीय स्थिति को ठीक से न समझने का मिला-जुला परिणाम था।
बचावकेनएप्रयास
जनता के बढ़ते दबाव को देखते हुए सरकार ने 2016 में शार्क सुरक्षा केंद्र (shark security center) की स्थापना की थी। इसका उद्देश्य एक ऐसा रास्ता निकालना था जिससे शार्क हमले कम हों, लेकिन समुद्री पर्यावरण भी सुरक्षित रहे।
इस दिशा में एक बड़ा कदम इलेक्ट्रिक डेटरेंट्स (electric shark deterrents) था। ये पहनने योग्य उपकरण होते हैं जो बिजली के हल्के झटके छोड़ते हैं जिससे शार्क दूर रहती है।
उपकरणों की जांच में नतीजे मिले-जुले रहे – एक उपकरण 43 प्रतिशत मामलों में कारगर रहा, बाकी उससे भी कम मामलों में। फिर आशंका इस बात की भी थी कि समय के साथ शार्क इन झटकों की आदी हो गईं तो? फिर भी इन निष्कर्षों के आधार पर नियम सख्त कर दिए गए हैं। अब रीयूनियन में कुछ क्षेत्रों में सर्फिंग करने वालों को इलेक्ट्रिक डेटरेंट पहनना अनिवार्य है।
इसके अलावा, ड्रोन (drone surveillance for sharks) का उपयोग भी शार्क की निगरानी के लिए किया गया, लेकिन यहां की गंदी और गहरे रंग की रेत के चलते ड्रोन से शार्क को पहचानना मुश्किल था। विकल्प के रूप में पानी के अंदर एआई तकनीक से लैस कैमरे (AI underwater cameras), गोताखोर और समुद्री जाल जैसी रक्षात्मक व्यवस्थाएं भी आज़माई गईं।
दुनिया भर में जो एक तकनीक सबसे खास रही, वह थी SMART ड्रमलाइन (Shark Management Alert in Real Time)। इसमें चारा लगे हुक होते हैं जो शार्क को पकड़ते हैं, लेकिन जैसे ही कोई जीव फंसता है, यह उपकरण सैटेलाइट से तुरंत अलर्ट भेज देता है। फिर अधिकारी तुरंत मौके पर पहुंचकर देखते हैं, यदि कोई अन्य जीव फंसा हो तो उसे छोड़ दिया जात है, और अगर शार्क खतरनाक हो तो स्थिति अनुसार उसे मार भी देते हैं।
शार्क सिक्यूरिटी सेंटर के निदेशक माइकल होरॉ मानते हैं कि सुरक्षा और समुद्री जीवन संरक्षण के बीच संतुलन बनाना आसान नहीं है। अब रीयूनियन प्रशासन का रुख थोड़ा नरम हुआ है। अब वे छोटी टाइगर शार्क को छोड़ देते हैं, और उन्हें टैग कर ट्रैक करने की योजना बना रहे हैं।
बहरहाल, 2019 के हमले के बाद से अब तक रीयूनियन द्वीप पर कोई जानलेवा शार्क हमला नहीं हुआ है। द्वीप का समुद्री पर्यटन धीरे-धीरे बहाल हो रहा है। तैराकी पर लगे प्रतिबंधों में भी ढील दी गई है। और दुनिया भर से वैज्ञानिक रीयूनियन आ रहे हैं ताकि इस द्वीप से पूरी दुनिया के लिए कुछ सबक ले सकें।
एकसबक
समुद्र जीवविज्ञानी (marine biologist) अर्नो गॉथियर कहते हैं कि लोग शार्क को अक्सर दो नज़रियों देखते हैं – या तो बेचारी के रूप में, या फिर हमलावर (shark predator perception) के रूप में। लेकिन सच्चाई इन दोनों के बीच कहीं है। वे समुद्र में स्वतंत्र रूप से विचरने वाले जीव हैं, शायद खतरनाक भी हो सकते हैं, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वे हर इंसान को मारने की फिराक में रहते हैं।
ज़रूरत तो इस बात की है कि हम न सिर्फ शार्क के व्यवहार को समझें बल्कि प्रकृति के कामकाज (marine ecosystem balance) में टांग अड़ाने के अपने व्यवहार पर भी थोड़ा नियंत्रण करें।(स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thesun.co.uk/wp-content/uploads/2021/05/KH-COMPOSITE-SHARK-REUNION-ISLAND-v2.jpg?w=620