जोंक अपने चिपकूपने के लिए जानी जाती हैं। लेकिन शोधकर्ताओं द्वारा हाल ही में खोजी गई एक जोंक प्रजाति की खासियत है हवा में छलांग लगाना।
मेडागास्कर में खोजी गई यह जोंक (Chtonobdella fallax) यहां काफी पाई जाती है। शोधकर्ता बायोट्रॉपिका में इसकी छलांग के बारे में बताते हैं कि यह किसी पत्ती या झाड़ी पर से ज़मीन पर छलांग लगाने के लिए पहले तो किसी सांप की तरह पीछे की ओर सरकती है, और फिर सीधे तनकर अपने शरीर को आगे की ओर फेंकते हुए ज़मीन पर कूद जाती है। थोड़ी ही देर की रिकॉर्डिंग में शोधकर्ताओं ने इसे तीन बार यह करतब करते देखा, जिसके आधार पर उनका कहना है कि जोंक की यह प्रजाति संभवत: अक्सर छलांग लगाती होगी।https://www.amnh.org/explore/news-blogs/research-posts/leaping-leeches इस लिंक पर जाकर आप इसकी दिलचस्प कलाबाज़ी देख सकते हैं।
यह बहस सालों से चली आ रही थी कि ज़मीन पर रहने वाली जोंक अपने मेज़बानों पर कूद सकती हैं या नहीं। जोंक के इस व्यवहार के लिखित किस्से तो लगभग 14वीं सदी से मिलते हैं। लेकिन इन किस्सों की सच्चाई का कोई ठोस प्रमाण नहीं था। अब वैज्ञानिकों के पास छलांग लगाती जोंक के वीडियो हैं।
इनके बारे में तो अभी तो पता ही चला है। ये ऐसा व्यवहार क्यों प्रदर्शित करती हैं, क्या अपने मेज़बानों पर कूदने के लिए छलांग लगाती हैं या कोई और कारण है, उनका भोजन कौन से जानवर हैं? इन सभी सवालों के जवाब अभी अनुत्तरित हैं और शोधकर्ता इनके जवाब खोजने के लिए आगे अध्ययन कर रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.z87l4fd/abs/_20240620_on_jumping-leech_v1.jpg
हाल ही में साइन्सएडवांसेस में प्रकाशित एक अध्ययन में एक कीट की विभिन्न आबादियों का 10 वर्षों तक अध्ययन करके इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि कैसे जैव विकास के चक्र का नियमन होता है।
स्टिक इंसेक्ट नामक यह कीट (Timema cristinae) कैलिफोर्निया के जंगलों में बहुतायत में पाया जाता है। वहां यह तीन रूपों में मिलता है और तीनों रूप अपने परिवेश में ओझल होने में सक्षम होते हैं। एक रूप सादा हरा होता है और लिलैक की पत्तियों के बीच आसानी से छिप जाता है। इसी के एक रूप पर सफेद धारियां होती हैं और यह वहां के जंगलों में पाई जाने वाली सदाबहार चैमाइज़ झाड़ियों में छिपता है। तीसरा रूप गहरे रंग का होता है और दोनों वनस्पतियों पर पाया जाता है लेकिन इसका गहरा रंग जंगल के फर्श से ज़्यादा मेल खाता है।
अध्ययन के दौरान सबसे पहली बात तो यह स्पष्ट हुई कि जिन 10 आबादियों का अध्ययन किया गया था उनमें हरे रंग वाला कीट लिलैक बहुल इलाकों में ज़्यादा पाया जाता है जबकि धारीदार रूप चैमाइज़ इलाकों में। गहरे रंग वाला कीट कम मिलता है और दोनों ही तरह के पेड़ों पर मिलता है। यह तो कोई अचरज की बात नहीं थी लेकिन फ्रांस की राष्ट्रीय शोध संस्था सीएनआरएस के पैट्रिक नोसिल और उनके साथियों द्वारा किए गए इस अध्ययन का अगला अवलोकन चौंकाने वाला था।
देखा यह गया कि सारी 10 आबादियों में उपरोक्त अनुपात साल-दर-साल एक चक्र के रूप में बदलता है जिसका पूर्वानुमान किया जा सकता है। 10 साल के इस अध्ययन में देखा गया कि जो रूप एक वर्ष प्रचुरता में पाया जाता है, वह अगले वर्ष कम हो जाता है – जैसे, यदि किसी वर्ष धारीदार कीट अधिक संख्या में हैं तो अगले वर्ष सादे हरे रंग वाले कीट का बोलबाला होगा। गहरे रंग वाले कीटों की संख्या अपेक्षाकृत स्थिर बनी रही।
नोसिल की टीम ने कीट-रूपों को यहां-वहां बसाकर उनके अनुपात को बदलकर भी देखा। इस प्रयोग से उनका निष्कर्ष है कि किसी कीट-रूप के लिए बिरला होना फायदेमंद होता है। शायद इसलिए कि पक्षी अपने भोजन में उन कीटों को प्राथमिकता देते हैं जो प्रचुरता से उपलब्ध हों, जिसके चलते अगली पीढ़ी में उनकी संख्या कम हो जाती है। तब पक्षी अपना शिकार बदल देते हैं और चक्र चलता रहता है। जीव वैज्ञानिक इसे प्रचुरता-आधारित नकारात्मक चयन कहते हैं। यह कई प्रजातियों में देखा गया है।
कीटों के जेनेटिक विश्लेषण में पाया गया कि उनके पैटर्न में परिवर्तन उनके जीनोम में व्यापक उलट-पलट के ज़रिए होता है। दरअसल पर्यावरण के असर से ऐसे फेरबदल पहले भी रिपोर्ट किए गए हैं। जैसे स्टिकलबैक नामक मछलियां जब खारे पानी से मीठे पानी की ओर जाती हैं, तो उन सबमें एक से जेनेटिक परिवर्तनों के ज़रिए एक-से शारीरिक व कार्यिकीय परिवर्तन होते हैं। यह भी देखा गया है कि कतिपय एंटीबायोटिक के संपर्क में आने पर बैक्टीरिया जीवित रहने के लिए एक-से जेनेटिक परिवर्तनों का सहारा लेते हैं। खास बात यह है कि वर्तमान अध्ययन में इसे प्राकृतिक परिस्थितियों में देखा गया है। (स्रोत फीचर्स)
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आम तौर पर जेनेटिक सूचना एक ही दिशा में बहती है – डीएनए नामक अणु में जीन्स होते हैं, ये जीन्स एक सांचे की तरह काम करते हैं और एक अन्य अणु आरएनए का निर्माण करते हैं और आरएनए प्रोटीन बनवाता है। डीएनए से आरएनए बनने की प्रक्रिया को ट्रांसक्रिप्शन कहते हैं और यह जिन एंज़ाइमों के दम पर चलती है उन्हें ट्रांसक्रिप्टेस कहते हैं। यह सीधी-सरल कथा 1970 में पेचीदा हो गई। उस साल वैज्ञानिकों ने खोजा कि कुछ वायरसों में रिवर्स ट्रांसक्रिप्टेस नामक एंज़ाइम होता है। और यह एंज़ाइम उपरोक्त एकदिशीय प्रक्रिया को उल्टा चला सकता है यानी आरएनए से डीएनए बनवा सकता है।
अब नई खोज से इसमें एक और पेंच आ गया है। रिवर्स ट्रांसक्रिप्टेस का बैक्टीरिया संस्करण खोजा गया है। यह आरएनए अणु का इस्तेमाल सांचे के रूप में करके डीएनए में सर्वथा नए जीन्स जोड़ सकता है। ट्रांसक्रिप्शन के ज़रिए ये जीन फिर से आएनए में बदल सकते हैं और प्रोटीन का निर्माण करवा सकते हैं। ऐसे प्रोटीन का निर्माण तब किया जाता है जब कोई वायरस बैक्टीरिया को संक्रमित कर दे। यहां बताना मुनासिब है कि वायरस का रिवर्स ट्रांसक्रिप्टेस नए जीन्स का निर्माण नहीं करता; वह तो मात्र आरएनए में लिखी सूचना को डीएनए में बदलता है।
एक मायने में यह बैक्टीरिया के सुरक्षा तंत्र का हिस्सा है। वायरस संक्रमण के विरुद्ध बैक्टीरिया की एक और सुरक्षा व्यवस्था होती है जो आजकल क्रिस्पर नामक जीन संपादन तकनीक के रूप में मशहूर है। इस तकनीक से बैक्टीरिया वायरस के डीएनए/आरएनए के कुछ अंशों को अपने डीएनए में जोड़ लेता है और फिर ये उस वायरस की पहचान में काम आते हैं।
जिस नई व्यवस्था की खोज हुई है वह थोड़ी ज़्यादा रहस्यमय है। इस तंत्र की कार्यविधि का खुलासा कोलंबिया विश्वविद्यालय के स्टीफन टैंग और सैमुअल स्टर्नबर्ग ने किया है। यह देखा गया था कि कतिपय बैक्टीरिया के डीएनए में एक जीन होता है जो रिवर्स ट्रांसक्रिप्टेस का कोड होता है और आरएनए का छोटा-सा खंड होता है जिसका कोई प्रकट काम नहीं होता यानी यह किसी प्रोटीन का निर्माण नहीं करवाता। टैंग और स्टर्नबर्ग ने क्लेबसिएलान्यूमोनिए(Klebsiella pneumoniae) में रिवर्स ट्रांसक्रिप्टेस द्वारा बनाए गए डीएनए अणु की तलाश की। पता चला कि यह डीएनए की अति दीर्घ शृंखला थी जिसमें एक सरीखे खंड बार-बार दोहराए गए थे और प्रत्येक खंड का अनुक्रम उस रहस्यमय आरएनए के खंडों से मेल खाता था।
ऐसा कैसे होता है? शोधकर्ताओं का मत है कि लंबे-लंबे आरएनए सूत्र मुड़कर हेयरपिन का आकार ग्रहण कर सकते हैं। ऐसा होने पर एक ही शृंखला के दो दूर-दूर के खंड पास-पास आ जाते हैं। शोधकर्ताओं ने पाया कि क्लेबसिएलान्यूमोनिए का ट्रांसक्रिप्टेस इस आरएनए शृंखला को डीएनए में तबदील करते समय बार-बार उसी स्थान की नकल बनाता है और इस तरह दोहराव वाली डीएनए शृंखला बन जाती है।
इस तरह बनी दोहराव वाली शृंखला प्रोटीन-कोडिंग शृंखला बन जाती है जिसमें प्रोटीन निर्माण के समापन को दर्शाने वाला कोई संकेत नहीं होता – इसलिए इसे ओपन रीडिंग फ्रेम कहते हैं और शोधकर्ताओं ने इस शृंखला को नाम दिया है नेवर एंडिंग ओपन रीडिंग फ्रेम (neo – नीयो)। शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि वायरस का संक्रमण नीयो प्रोटीन के निर्माण को प्रेरित करता है। इस प्रोटीन का असर यह होता है कि उस प्रोटीन से युक्त कोशिका विभाजन करना बंद कर देती है। इससे तो लगता है कि यह उस कोशिका के लिए एक नया प्रोटीन है। अर्थात यहां रिवर्स ट्रांसक्रिप्टेस की मदद से एक सर्वथा नया जीन बैक्टीरिया के जीनोम में जुड़ रहा है। यह खोज जीव विज्ञान में एक नई कार्य प्रणाली की उपस्थिति का संकेत है। (स्रोत फीचर्स)
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वैसे तो पहले भी कुछ अध्ययनों में देखा जा चुका है कि कौवों में संख्या ताड़ने की क्षमता होती है। जैसे यदि उनके सामने कई डिब्बे रखकर मात्र 6 डिब्बों में खाने की चीज़ें रखी जाएं तो वे मात्र 6 डिब्बों को पलटाने के बाद रुक जाते हैं। या यदि कौवे किसी बगीचे में हैं और कुछ मनुष्य वहां घुसें तो वे छिप जाते हैं। और तब तक छिपे रहते हैं जब तक कि सारे मनुष्य निकल न जाएं। ऐसा देखा गया था कि वे यह ‘गिनती’ 16 तक कर पाते हैं। इसी प्रकार से एक प्रयोग में यह भी देखा गया था कि यदि किसी स्क्रीन पर कुछ बिंदु अंकित हों तो वे ताड़ सकते हैं कि दो समूहों में बिंदुओं की संख्या बराबर है या नहीं।
और अब जर्मनी के टुबिंजेन विश्वविद्यालय के जंतु वैज्ञानिक एंड्रियास नीडर और उनके साथियों ने इसमें एक नया आयाम जोड़ा है। साइन्स पत्रिका में प्रकाशित अपने शोधपत्र में इस टीम ने बताया है कि कौवों की यह क्षमता मनुष्यों में संख्या कौशल के विकास को समझने में सहायक हो सकती है।
जर्मनी के शोधकर्ताओं ने तीन कैरियन कौवों (Corvus corone) के साथ काम किया। इन कौवों को आदेशानुसार कांव करने का प्रशिक्षण दिया जा चुका था। इसके बाद अगले कुछ महीनों तक इन्हें यह सिखाया गया कि स्क्रीन पर 1, 2, 3 या 4 के दृश्य संकेत दिखने पर उन्हें उतनी ही संख्या में कांव करना है। उन्हें ऐसे श्रव्य संकेतों से भी परिचित कराया गया जो एक-एक अंक से जुड़े थे।
प्रयोग के दौरान ये कौवे स्क्रीन के सामने खड़े होते थे और उन्हें दृश्य या श्रव्य संकेत दिया जाता था। उनसे अपेक्षा की जाती थी कि वे उस संकेत से मेल खाती संख्या में कांव करेंगे और यह काम पूरा करने के बाद वे ‘एंटर कुंजी’ पर चोंच मारेंगे। यदि वे सही करते तो उन्हें पुरस्कार स्वरूप लजीज़ व्यंजन दिया जाता।
कौवे अधिकांश बारी सही रहे। कम से कम उनके प्रदर्शन को मात्र संयोग का परिणाम तो नहीं कहा जा सकता।
प्रयोग करते-करते शोधकर्ताओं को यह भी समझ आया कि वे कौवे की पहली कांव को सुनकर यह अंदाज़ लगा सकते हैं कि वह कुल कितनी बार कांव करेगा। इसका मतलब यह हुआ कि कौवा पहले से ही कांव की संख्या की योजना बना लेता है अर्थात यह प्रक्रिया सचमुच संज्ञानात्मक नियंत्रण में है। अलबत्ता, ऐसा नहीं था कि कौवे हर बार सटीक होते थे। कभी-कभार वे कम या ज़्यादा बार कांव भी कर देते थे। लेकिन यह भी पूर्वानुमान किया जा सकता था।
लिहाज़ा, यह तो नहीं कहा जा सकता कि ये तीन कौवे वास्तव में गिन रहे थे जिसके लिए संख्याओं की सांकेतिक समझ ज़रूरी है लेकिन हो सकता है कि उनका प्रदर्शन इस समझ के विकास का अग्रदूत हो। आगे और शोध ही इस सवाल पर रोशनी डाल सकेगा। (स्रोत फीचर्स)
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वर्ष 1893 में दक्षिण ऑस्ट्रेलिया की कैलाबोना झील से जीवाश्म विज्ञानियों को लगभग साबुत एक अश्मीभूत कंकाल मिला था। कंकाल का धड़ वाला हिस्सा तो पूरी तरह सलामत था, लेकिन इसकी खोपड़ी भुरभुरी, दबी-कुचली और विकृत स्थिति में थी।
वैज्ञानिकों ने कंकाल की बनावट देखकर इतना तो अनुमान लगा लिया था कि यह मुर्गे, एमू या शुतुरमुर्ग जैसे किसी बड़े पक्षी का कंकाल है, जो उड़ नहीं सकता था। नाम दिया था गेन्योर्निसन्यूटोनी (Genyornis newtoni)। लेकिन इसके बारे में और अनुमान लगाना अच्छी हालात की खोपड़ी के बिना मुश्किल था, क्योंकि सभी बड़े पक्षी गर्दन से नीचे लगभग एक जैसे दिखते हैं – बड़े शरीर पर छोटे पंख, चौड़ी दुम, वज़नी पैर। खोपड़ी से यह पता लगाना आसान हो जाता है कि कंकाल किस कुल का सदस्य है।
इसलिए ऑस्ट्रेलिया की फ्लिंडर्स युनिवर्सिटी की वैकासिक जीवविज्ञानी फीब मैकइनर्नी को एक सही-सलामत अश्मीभूत खोपड़ी की तलाश थी। अंतत: उन्हें ऐसी खोपड़ी मिल गई। हिस्टॉरिकल बायोलॉजी जर्नल में उन्होंने गेन्योर्निस की खोपड़ी का वर्णन और तस्वीर प्रकाशित की है और इसे ‘गीगा गूज़’ नाम दिया है। पता चला है कि गीगा गूज़ वर्तमान में जीवित या विलुप्त किसी पक्षी की तरह नहीं है बल्कि जल पक्षियों से सम्बंधित है, जिसमें बत्तख से लेकर हंस जैसे पक्षी आते हैं।
गीगा गूज़ की चोंच की पकड़ की चौड़ाई, दमदार काटने की क्षमता और मांसपेशियों के जुड़ाव से पता चलता है कि इसका पकड़ सम्बंधी (मोटर) नियंत्रण काफी अच्छा था, इससे लगता है कि गेन्योर्निस पानी के किनारे लगे पौधों से पत्तियों और फलों को तोड़कर खाता होगा। खोपड़ी में ऐसी संरचनाएं दिखीं जो पानी को कान में घुसने से रोकती थीं, इससे पता चलता है कि यह पक्षी जलीय आवासों के लिए अनुकूलित था, और इसका प्राकृतवास मीठे पानी में था।
इस पक्षी की सम्पूर्ण तस्वीर और विशेषताएं प्राचीन ऑस्ट्रेलियाई आदिवासियों द्वारा बनाए गए विशालकाय शैलचित्रों और कहानियों के पात्रों से मेल खाती हैं। इससे लगता है कि प्राचीन ऑस्ट्रेलियाई आदिवासियों के समय यह जीव ऑस्ट्रेलिया में रहता होगा और उन्होंने इसे देखा होगा। और तो और, एक आदिवासी भाषा में इस पक्षी के लिए शब्द भी मिलता है, जिसका अर्थ होता है ‘विशाल एमू’। बड़े पैमाने पर अंडों के जले हुए छिलकों के अवशेषों के आधार पर कुछ शोधकर्ताओं का अनुमान है कि मनुष्य गेन्योर्निस के अंडे पकाकर खाते होंगे, लेकिन इन छिलकों की पहचान अभी जांच का मुद्दा है।
बहरहाल गीगा गूज़ के चेहरे का तो अंदाज़ा मिल गया लेकिन यह सवाल अनसुलझा ही है कि गीगा गूज़ समेत अन्य जीव-जंतु विलुप्त क्यों हो गए। (स्रोत फीचर्स)
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मात्र 1.1 सें.मी. लंबा, खुरदुरा-सा दिखने वाला वुडलाउज़ (Porcellio scaber) एक अकशेरुकी प्राणी है, जो सड़ती-गलती वनस्पतियों पर अपना जीवन यापन करता है। यह एक प्रकार की दीमक है। पीपल, प्लांट्स, प्लेनेट पत्रिका में प्रकाशित एक ताज़ा अध्ययन बताता है कि वुडलाउज़ एक कुशल माली की तरह काम करता है; साथ ही यह मल के ज़रिए बीज फैलाने वाला अब तक का ज्ञात सबसे छोटा जीव है। बीजों को दूर-दूर तक फैलाने में बड़े जानवरों और पक्षियों की भूमिका तो काफी समय से पता है और सराही जाती है, लेकिन इसमें वुडलाउज़ और इस जैसे कई अन्य छोटे जीवों या कीटों की भूमिका को इतनी तवज्जो नहीं मिली है। इसलिए कोबे युनिवर्सिटी के केंजी सुएत्सुगु और उनके दल ने कीटों की भूमिका पर थोड़ा प्रकाश डालने के उद्देश्य यह अध्ययन किया। उन्होंने एक पौधे सिल्वर ड्रैगन (Monotropastrum humile) और अकशेरुकी जीवों के आपसी सम्बंध या लेन-देन को समझने का प्रयास किया। गौरतलब है कि सिल्वर ड्रैगन के बीज धूल के कणों जैसे महीन होते हैं। अध्ययन में उन्होंने पौधों के करीब कुछ स्वचालित डिजिटल कैमरे लगाकर इनके फलों को खाते कीटों व अन्य अकशेरुकी जीवों की 9000 से अधिक तस्वीरें प्राप्त कीं। अब, यह पता करने की ज़रूरत थी कि कीटों के पाचन तंत्र से गुज़रने के बाद क्या फलों के बीज साबुत बचे रहते हैं? इसके लिए शोधकर्ताओं ने तीन अकशेरुकी जीवों – ऊंट-झींगुर, रफ वुडलाउज़ और कनखजूरे – को सिल्वर ड्रैगन के फल खिलाए और सूक्ष्मदर्शी से इनके मल का विश्लेषण किया। अंत में उन्होंने यह पता किया कि मल से त्यागे गए बीज अंकुरित होने में सक्षम हैं या नहीं। ऊंट-झींगुर अंकुरण-क्षम बीजों को फैलाने में कुशल थे। इसके अलावा यह भी पता चला कि वुडलाउज़ और कनखजूरों द्वारा त्यागे गए बीजों में से करीब 30 प्रतिशत में अंकुरण की क्षमता बरकरार थी। शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि इस शोध से इसी तरह के बीज फैलाने वाले अन्य जीवों को पहचानने में और उनके महत्व के चलते उनका संरक्षण करने में मदद मिलेगी। क्योंकि किसी पौधे के जितने विविध बीज वाहक होंगे उतना उनके लिए बेहतर होगा। (स्रोत फीचर्स)
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एक हालिया अवलोकन में, वैज्ञानिकों ने सुमात्रा में पाए जाने वाले एक जंगली ओरांगुटान को चेहरे के घाव के इलाज के लिए एक औषधीय पौधे के पुल्टिस का लेप करते देखा है। साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित यह खोज किसी जंगली जीव द्वारा उपचार के लिए जड़ी-बूटी के उपयोग का पहला मामला है। इसका विडियो यहां देख सकते हैं: https://www.youtube.com/watch?v=xfYANAdmOrk.
इस औषधि का उपयोग करने वाले राकस नामक ओरांगुटान को सबसे पहले जर्मनी स्थित मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट ऑफ एनिमल बिहेवियर के शोधकर्ताओं ने देखा। गौरतलब है कि 2009 में जब राकस इस जंगल में आया था तब वह युवा था और गालों के पैड अविकसित थे। 2021 तक राकस वयस्क हो गया चुका था और उसके गालों पर फ्लैंज दिखाई देने लगे थे। इस जीव के अवलोकन के दौरान वर्ष 2022 में शोधकर्ताओं ने उसके चेहरे पर एक खुला घाव देखा, जो संभवत: अन्य नरों के साथ ‘इलाके’ के झगड़े के दौरान लगा था।
हैरानी की बात यह थी कि घाव लगने के कुछ दिनों बाद राकस को अकर कुनिंग नामक पौधे के तने और पत्तियों का सेवन करते देखा गया। इस पौधे का उपयोग मधुमेह और पेचिश जैसी विभिन्न बीमारियों के इलाज में किया जाता है। आश्चर्य इसलिए भी था क्योंकि इस क्षेत्र में ओरांगुटान शायद ही कभी इस पौधे को खाते हैं। राकस ने न केवल पत्तियों को खाया बल्कि पत्तियों को चबाकर घाव पर लगभग 7 मिनट तक लगाया भी। आठ दिनों के भीतर उसका घाव पूरी तरह ठीक हो गया।
यह व्यवहार पशु बुद्धिमत्ता और आत्म-चेतना की पिछली धारणाओं को चुनौती देता है। हालांकि स्वयं इलाज की प्रवृत्ति विभिन्न प्रजातियों में देखी गई है, लेकिन किसी जीव द्वारा कुछ दिनों तक घाव का इलाज करने के लिए किसी विशिष्ट पौधे का उपयोग करने का यह पहला अवलोकन है।
शोधकर्ताओं को लगता है कि संभवत: मनुष्यों ने जीवों के व्यवहार को देखकर उपचार के बारे में सीखा होगा। इस तरह के ज्ञान का संचार, चाहे मनुष्यों के बीच हो या विभिन्न पशु प्रजातियों के बीच, पीढ़ियों तक बना रह सकता है, और सभी जीवन रूपों के परस्पर सम्बंध को उजागर करता है। (स्रोत फीचर्स)
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दहियर या मैगपाई पक्षी कॉर्विडे (Corvidae) कुल के सदस्य हैं, जिसमें कौवा, नीलकण्ठ और रैवन आते हैं। आम तौर पर इस कुल के पक्षियों को कांव-कांव करने वाले और जिज्ञासु पक्षी के तौर पर देखा जाता है। दुनिया भर की लोककथाओं में अक्सर इन्हें शगुन-अपशगुन के साथ भी जोड़ा जाता है। जैसे कुछ युरोपीय संस्कृतियों में इन्हें चुड़ैलों का साथी माना जाता हैं। अंग्रेज़ी की एक तुकबंदी कहती है कि यदि एक अकेली मैगपाई दिखे तो बुरी खबर सुनने को मिलती है: “One for sorrow, two for joy; three for a girl, four for a boy; Five for silver, six for gold; Seven for a secret never to be told,” (हिंदी में यह कुछ इस तरह होगी: “एक यानी दुख, दो यानी खुशी; तीन यानी लड़की, चार यानी लड़का; पांच यानी चांदी, छह यानी सोना; सात यानी किसी को न बताने वाला राज़।”
लेकिन यह तो सभी मानेंगे कि मैगपाई दिखने में आकर्षक होती हैं। और इसकी कुछ सबसे सजीली (रंग-बिरंगी) प्रजातियां हिमालय में पाई जाती हैं।
नीली मैगपाई की कुछ निकट सम्बंधी प्रजातियां कश्मीर से लेकर म्यांमार तक में दिखना आम हैं। सुनहरी चोंच वाली मैगपाई (Urocissa flavirostris, जिसे पीली चोंच वाली नीली मैगपाई भी कहते हैं) की आंखें शरारती लगती हैं, और यह समुद्रतल से 2000 से 3000 मीटर ऊंचे स्थलों पर मिलती है। इससे थोड़ी कम ऊंचाई पर हमें लाल चोंच वाली मैगपाई दिखाई देती हैं, और नीली मैगपाई निचले इलाकों पर पाई जाती है जहां बड़ी तादाद में इंसान रहते हैं।
ट्रेकिंग पथ
पीली और लाल चोंच वाली मैगपाई सबसे अधिक दिखाई देती हैं पश्चिमी सिक्किम के ट्रैकिंग पथ पर, जो समुद्र तल से 1780 मीटर की ऊंचाई पर स्थित युकसोम कस्बे से शुरू होता है और लगभग 4700 मीटर की ऊंचाई पर गोचे ला दर्रे तक जाता है जहां से कंचनजंगा के शानदार नज़ारे दिखते हैं। इस ट्रेकिंग में आपका सफर थोड़ी ऊंचाई पर उष्णकटिबंधीय आर्द्र चौड़ी पत्ती वाले वन से शुरू होता है, उप-अल्पाइन जंगलों से गुज़रते हुए ऊंचाई पर आप वृक्षविहीन, जुनिपर झाड़ियों वाली जगह पर पहुंचते हैं। बीच में कहीं-कहीं ऐसे जंगल भी मिलते हैं जिनके घने आच्छादन से आप ढंके होते हैं, और जहां आपको पक्षियों की हैरतअंगेज़ विविधता और आबादी दिखती है।
सिक्किम गवर्नमेंट कॉलेज के प्राणी शास्त्रियों द्वारा किए गए क्षेत्रीय अध्ययनों से पता चला है कि इस क्षेत्र में पक्षियों की 250 से अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं, और समुद्र तल से लगभग 2500 मीटर की ऊंचाई पर आप हर पांच मिनट के अंतराल पर लगभग 60 अलग-अलग पक्षियों को देख या सुन सकते हैं। सुनहरी चोंच वाली मैगपाई की कूक अक्सर इन पक्षियों के कलरव के साथ सुनाई देती है। इस मैगपाई का शरीर लगभग कबूतर जितना बड़ा होता है, लेकिन इसकी पूंछ 45 सेंटीमीटर लंबी होती है, जिससे इसकी कुल लंबाई 66 सेंटीमीटर हो जाती है। ज़मीन पर कीड़े-मकोड़ों-कृमियों की तलाश करते समय इसकी पूंछ ऊपर की ओर उठी रहती है; लेकिन पेड़ों से जामुन तोड़ते समय इसकी पूंछ नीचे की ओर झुक जाती है। इसकी उड़ान भी खास होती है: शुरुआत में थोड़े समय तक यह लगातार पंख फड़फड़ाती है, और फिर उसके बाद देर तक हवा में शांत तैरती रहती है।
फूलदार बुरुंश
सुनहरी चोंच वाली मैगपाई बुरुंश वृक्ष पर उस जगह घोंसला बनाती है जहां शाखाएं दो में बंटती हैं। उसका घोंसला टहनियों पर जल्दबाज़ी में घास की मुलायम तह लगाकर बनाया गया लगता है। इन घोंसलों में मई-जून में तीन से छह अंडे दिए जाते हैं। चूज़ों का पालन-पोषण माता-पिता दोनों मिलकर करते हैं। अच्छी बात है, जैसा कि तुकबंदी में कहा गया है – ‘दो यानी खुशी’।
नीली मैगपाई और लाल चोंच वाली मैगपाई दिखने में बहुत हद तक एक जैसी दिखती हैं, बस एक थोड़ी छोटी होती है। नीली मैगपाई जंगलवासी पक्षी नहीं है, और अक्सर गांवों के आसपास पाई जाती हैं। मैगपाई की सभी प्रजातियां या तो अकेले फुदकते हुए, या जोड़े में, या शोरगुल मचाते हुए 8-10 के झुंड में देखी जा सकती हैं।
जैसे-जैसे इंसानों की जंगलों में मौजूदगी बढ़ रही है, इस बात की चिंता बढ़ रही है कि ये पक्षी इस दखल का कितना सामना कर पाएंगे। बुरुंश झाड़ी के रंग-बिरंगे फूल पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। पर्यटकों को ठहराने और उनकी सुविधाओं के लिए ग्रामीण अक्सर जलाऊ लकड़ी जैसे वन संसाधनों को दोहते हैं। आशा है कि कृषि की तरह पर्यटन भी एक वहनीय व्यापार करना सीखेगा। (स्रोत फीचर्स)
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सन 1847 में जर्मन जीवविज्ञानी कार्ल बर्गमैन ने प्राणि विज्ञान की एक प्रवृत्ति को एक नियम के रूप में व्यक्त किया था: ‘किसी भी प्रजाति में, अपेक्षाकृत बड़ी साइज़ के जानवर तुलनात्मक रूप से ठंडे वातावरण में पाए जाते हैं, जबकि गर्म क्षेत्रों में तुलनात्मक रूप से छोटे कद-काठी के जानवर पाए जाते हैं।’ यह नियम अक्सर पक्षियों और स्तनधारियों पर लागू किया जाता है।
मसलन, सबसे बड़े पेंगुइन अंटार्कटिका में पाए जाते हैं। उत्तर की ओर (यानी भूमध्य रेखा की ओर) थोड़ा बढ़ें तो वहां औसत साइज़ के पेंगुइन मिलते हैं, जैसे मैगेलैनिक पेंगुइन। और लगभग भूमध्य रेखा पर सबसे छोटे पेंगुइन, गैलापागोस पेंगुइन, मिलते हैं। ऐसी ही प्रवृत्ति मनुष्यों में भी देखी जा सकती है। ऊंचे कद के लोग उच्च अक्षांशों वाले स्थानों, जैसे स्कैंडिनेविया और उत्तरी युरोप, में पाए जाते हैं।
लेकिन नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित एक हालिया पेपर कहता है कि यह नियम हमेशा लागू नहीं होता है। अपने विश्लेषण में शोधकर्ताओं ने इस नियम को केवल समतापी जानवरों (जो अपने शरीर का तापमान स्थिर बनाए रखते हैं) के एक उपसमूह पर ही लागू होता पाया है, और वह भी तब जब अन्य कारकों को शामिल न कर सिर्फ तापमान पर विचार किया गया हो। इससे लगता है कि बर्गमैन का ‘नियम’ वास्तव में नियम की बजाय अपवाद ही है।
अलास्का फेयरबैंक्स विश्वविद्यालय के लॉरेन विल्सन देखना चाहते थे कि क्या बर्गमैन का नियम डायनासौर पर भी लागू होता है। यह देखने के लिए उन्होंने मीसोज़ोइक युग (साढ़े 25 करोड़ से साढ़े 6 करोड़ वर्ष पूर्व) में विभिन्न जलवायु परिस्थितयों में रहने वाले डायनासौर और स्तनधारियों का डैटा एक मॉडल में डाला – इसमें सबसे उत्तरी स्थल, प्रिंस क्रीक फॉर्मेशन, के डायनासौर फॉसिल का डैटा भी था। विश्लेषण में अक्षांश और जंतुओं की साइज़ के बीच कोई सम्बंध नहीं दिखा।
जब यही विश्लेषण आधुनिक स्तनधारियों और पक्षियों के लिए किया गया तो परिणाम काफी हद तक वैसे ही थे, हालांकि आधुनिक पक्षियों में कुछ हद तक बर्गमैन का नियम लागू होता दिखा।
बहरहाल यह अध्ययन पारिस्थितिकी सिद्धांतों को समझने में जीवाश्मों के महत्व को रेखांकित करता है और बताता है कि जैविक नियम प्राचीन प्राणियों पर उसी तरह लागू होने चाहिए जैसे वे वर्तमान में जीवित प्राणियों पर लागू होते हैं। यदि हम आधुनिक पारिस्थितिकी प्रणालियों की वैकासिक उत्पत्ति को नज़रअंदाज करेंगे तो हम उन्हें समझ नहीं सकते हैं। मामले को और स्पष्ट करने के लिए और विस्तृत तथा विभिन्न जंतुओं पर अध्ययन की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)
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हमारी याददाश्त एकदम पक्की हो, यह तो हम सभी की इच्छा होती है। लेकिन फिर भी हमारे दिमाग से कई बातें बिसर जाती हैं। बिसरना, स्मृति का दूसरा पहलू है जो जीवों को बदलते पर्यावरण के अनुरूप ढलने में मदद करता है। इसलिए स्मृति को पूरी तरह से समझने के लिए उनके बनने के साथ-साथ उनके बिसरने को भी समझने की ज़रूरत है, जिसके प्रयास वैज्ञानिक करते आए हैं।
ऐसे ही एक प्रयास में, तेल अवीव युनिवर्सिटी के अनुवांशिकीविद ओदेद रेचावी और उनकी एक छात्रा डैना लैंडशाफ्ट बर्लिनर ने गोलकृमि (Caenorhabditis elegans) की अल्पकालिक याददाश्त बढ़ाने का प्रयास किया। दरअसल, C. elegans कोई भी नई जानकारी सीखने के दो-तीन घंटे बाद ही उसे भूल जाते हैं।
तो, पहले तो शोधकर्ताओं ने कृमियों को उनकी एक पसंदीदा गंध को नापसंद करने के लिए प्रशिक्षित किया। इसके लिए उन्होंने इस गंध को कृमियों को तब सुंघाया जब वे बहुत देर के भूखे थे। गंध नापसंद करना सीखने के दो घंटे बाद कृमि गंध के साथ बने इस नकारात्मक सम्बंध को भूल जाते थे और गंध की ओर फिर खिंचे चले जाते थे। यानी यदि वे गंध की ओर जाने लगें तो माना गया कि वे नापसंदगी को भूल गए हैं।
फिर शोधकर्ताओं ने कृमियों को बर्फ में रखा। पाया कि कम से कम 16 घंटे तक ठंडे में रखने पर कृमियों की गंध सम्बंधी स्मृति बनी रहीं। लेकिन, जैसे ही उन्हें बर्फ से हटाया गया तो उनके स्मृति लोप की घड़ी चालू हो गई और तीन घंटे बाद वे गंध के प्रति अपनी घृणा को भूल गए।
एक अन्य प्रयोग में शोधकर्ताओं ने कृमियों को पहले रात भर बर्फ में रखा ताकि वे ठंडे वातावरण के प्रति अनुकूलित हो जाएं और फिर उन्हें गंध प्रशिक्षण दिया। और इसके बाद उनकी स्मृति बने रहने का समय मापा। वे हमेशा की तरह जल्दी ही गंध को भूल गए थे।
एक और प्रयोग में उन्होंने कृमियों के एक समूह को लीथियम औषधि (दरअसल लीथियम का लवण) दी और एक को कंट्रोल के तौर पर रखा। फिर उन्होंने कृमियों में गंध से नापसंद का सम्बंध बैठाया। उन्होंने पाया कि लीथियम ने सामान्य तापमान पर भी उनकी स्मृति 5 घंटे बरकरार रखी थी। लेकिन ठंडे वातावरण के प्रति अनुकूलित कृमियों में लीथियम देने से उनकी स्मृति पर कोई असर नहीं पड़ा था; उनकी स्मृति उसी रफ्तार से मिटी जितनी रफ्तार से गैर-लीथियम समूह की मिटी थी।
शोधकर्ताओं का कहना है कि इसमें डायएसाइलग्लिसरॉल नामक एक संकेतक अणु की भूमिका लगती है। C. elegans में यह अणु स्मृति और सीखने से सम्बंधित कोशिकीय प्रक्रिया को घटाने-बढ़ाने का काम करता है, और गंध-स्मृति के लिए अहम होता है। उनके इस निष्कर्ष का आधार यह है कि जब बर्फ एवं लीथियम से स्मृति लंबे समय तक बनी रही थी, तब उनमें डायएसाइलग्लिसरॉल के स्तर में कमी देखी गई थी। यह इसलिए भी उचित लगता है कि लीथियम उस एंज़ाइम को बाधित करने के लिए जाना जाता है जो डायएसाइलग्लिसरॉल का जनक है। बायपोलर समस्या-ग्रस्त व्यक्तियों में लीथियम की उपयोगिता का आधार शायद यही प्रक्रिया है।
यह भी दिखा कि स्मृति का बने रहना कोशिका झिल्ली की कठोरता से भी जुड़ा है, जो ठंड के कारण बढ़ जाती है। जिन कृमियों की कोशिका झिल्ली सामान्य कृमियों की कोशिका झिल्ली से अधिक सख्त थी, उनकी भूलने की दर सामान्य कृमियों की तुलना में धीमी थी, यहां तक कि सामान्य तापमान पर भी। इससे लगता है कि झिल्ली का सख्त होना भूलने को टालता है।
ये नतीजे बायोआर्काइव प्रीप्रिंट में प्रकाशित हुए हैं और समकक्ष समीक्षा के मुंतज़िर है। स्मृति बनने-बिगड़ने के महत्व के मद्देनज़र शोधकर्ता अन्य जीवों पर भी प्रयोग कर रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://en.wikipedia.org/wiki/Caenorhabditis_elegans#/media/File:CelegansGoldsteinLabUNC.jpg