हर साल डे-लाइट सेविंग टाइम प्रथा के चलते मार्च में अमेरिका में घड़ियां एक घंटा आगे बढ़ाई जाती हैं (daylight saving time USA)। संयुक्त राज्य अमेरिका में डे-लाइट सेविंग टाइम सबसे पहले 1918 में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अपनाया गया था। उद्देश्य था ऊर्जा की बचत (energy saving policy) और दिन की रोशनी का अधिकाधिक उपयोग करना। गर्मी और वसंत ऋतु में घड़ियां आगे बढ़ाकर लोग प्राकृतिक रोशनी का अधिक उपयोग कर सकते थे और बिजली की खपत कम की जा सकती थी।
लेकिन देखा गया है कि घड़ियां आगे बढ़ने पर लाखों लोग थकान और नींद की कमी से जूझते हैं (sleep disruption, DST)। नींद में एक घंटे की कमी कोई छोटी समस्या नहीं है – यह स्वास्थ्य पर गंभीर असर (health effects of DST) डाल सकती है। 54 प्रतिशत अमरीकियों का मत है कि डे-लाइट सेविंग टाइम (DST) को पूरी तरह से समाप्त कर दिया जाए (End DST USA)।
इसके दो विकल्प हैं: DST को पूरे साल लागू रखा जाए। या स्थायी मानक समय – पूरे साल वही समय रखना जो प्राकृतिक दिन की रोशनी के अनुसार हो (permanent standard time)।
कई स्वास्थ्य विशेषज्ञ स्थायी DST का विरोध करते हैं। उनका कहना है कि देर रात तक रोशनी और अंधेरी सुबह जैविक लय (circadian rhythm disruption) को प्रभावित कर सकती है। इसकी बजाय, आधे से अधिक अमरीकियों और कई वैज्ञानिक संगठनों का मानना है कि स्थायी मानक समय अधिक स्वस्थ विकल्प होगा (healthier time choice)। रॉयलसोसाइटीओपनसाइंस में प्रकाशित एक अध्ययन DST समाप्त करने के विचार को चुनौती देता है।
सेविले विश्वविद्यालय की भौतिक विज्ञानी जोस मारिया मार्टिन-ओलाला का मानना है कि DST सिर्फ ऊर्जा की बचत से कहीं अधिक है (social impact of DST)। उनके अनुसार घड़ी में मौसमी बदलाव से आधुनिक समाजों को काम के निर्धारित समय और प्राकृतिक दिन के बदलाव के बीच सामंजस्य बैठाने में मदद मिलती है। लेकिन आजकल की भागमभाग वाली दिनचर्या मौसमी बदलावों की अनदेखी करती है। ऐसे में DST हमें सर्दियों में काम और स्कूल बहुत जल्दी शुरू करने और गर्मियों में बहुत देर से शुरू करने से रोकता है, खासकर उन क्षेत्रों में जो भूमध्य रेखा से दूर हैं (day length variation), जहां दिन की अवधि में बड़े बदलाव होते हैं।
इन तर्कों के बावजूद, चिकित्सा विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि DST हमारी जैविक घड़ी को प्रभावित करता है। पिट्सबर्ग विश्वविद्यालय की न्यूरोलॉजिस्ट जोआना फोंग-इसरियावोंगसे का कहना है कि सुबह की धूप (morning sunlight benefits) मेलाटोनिन स्तर को नियंत्रित करने और लोगों को सतर्क रखने के लिए महत्वपूर्ण है (melatonin regulation)। अध्ययनों में DST से जुड़े कुछ गंभीर स्वास्थ्य जोखिमों की पहचान की गई है; जैसे, दिल का दौरा और स्ट्रोक के मामलों में वृद्धि (heart attach risks); उनींदेपन के कारण कार दुर्घटनाओं में वृद्धि (car accidents due to DST), कार्यस्थल दुर्घटनाओं में वृद्धि; सालाना स्वास्थ्य सेवा खर्च में वृद्धि और उत्पादकता में क्षति।
अमेरिकन एकेडमी ऑफ स्लीप मेडिसिन (American academy of sleep medicine) और अन्य चिकित्सा संगठनों ने स्थायी मानक समय का समर्थन किया है, जो मानव जैविकी के अनुसार बेहतर है।
सभी वैज्ञानिक इस पर सहमत नहीं हैं। कुछ शोधकर्ता मानते हैं कि DST के नकारात्मक प्रभावों (DST criticism) को बढ़ा-चढ़ा कर बताया गया है। नींद में विघ्न डालने के लिए अकेला DST ज़िम्मेदार नहीं है; आधुनिक इनडोर जीवनशैली (indoor lifestyle sleep impact), कृत्रिम रोशनी, और देर रात तक स्क्रीन का उपयोग नींद को कहीं अधिक प्रभावित करते हैं।
बहरहाल, अधिकांश स्वास्थ्य विशेषज्ञ मानते हैं कि स्थायी मानक समय सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए सबसे अच्छा विकल्प (public health policy) है।
बहरहाल, फैसला चाहे जो हो, यह बहस इस दृष्टि से वैश्विक महत्व की है कि हम समय का प्रबंधन कैसे करते हैं, यह हमारे दैनिक क्रियाकलापों के साथ-साथ हमारे स्वास्थ्य को भी प्रभावित करता है (global time management debate)। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.z0vspqy/full/_20250318_on_daylightsavings-1742829506453.jpg
वैसे तो अभी जाड़े का मौसम आने वाला है लेकिन गर्मियां भी दूर नहीं हैं। और भारत की चिलचिलाती गर्मी नागरिकों के लिए एक बड़ा खतरा बनती जा रही है। बढ़ती गर्मी न सिर्फ असुविधा पैदा कर रही है बल्कि जानलेवा भी साबित हो रही है। निरंतर बढ़ते तापमान और अत्यधिक आर्द्रता के परिणामस्वरूप हीट स्ट्रोक (लू लगने) से मृत्यु की घटनाओं में वृद्धि हो रही है।
पिछले वर्ष दी लैंसेट में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार भारत में 2000-04 और 2017-21 के बीच गर्मी से मरने वाले लोगों की संख्या में 55 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसका सबसे अधिक प्रभाव शहरी क्षेत्रों पर हो रहा है जहां टार और कांक्रीट जैसी गर्मी सोखने वाली निर्माण सामग्री का भरपूर उपयोग हो रहा है।
विशेषज्ञों के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग और तेज़ी से बढ़ते शहरी क्षेत्रों के चलते यह जोखिम बढ़ने की संभावना है। अनुमान है कि 2025 तक भारत की आधी से अधिक आबादी शहरों में निवास करेगी। इसका सबसे अधिक प्रभाव शहरी गरीबों पर होगा जो न एयर कंडीशनिंग का खर्च उठा सकते हैं और बाहर खुले में काम करते हैं। इस स्थिति को देखते हुए शोधकर्ता और नीति निर्माता अब इस बढ़ते संकट को समझने और इसके प्रभाव को कम करने के लिए विभिन्न रणनीतियां विकसित कर रहे हैं।
ऐतिहासिक रूप से भारत में आपदा नियोजन प्रयास चक्रवातों और बाढ़ से निपटने पर केंद्रित रहे हैं। लेकिन वर्ष 2015 से राष्ट्रीय स्तर पर ग्रीष्म लहरों को प्राकृतिक आपदा की श्रेणी में शामिल किया गया है। कुछ शहरों में शोधकर्ता आपातकालीन योजनाओं को बेहतर बनाने के लिए अधिकारियों के साथ ग्रीष्म-लहर की चेतावनी जारी करने और शीतलता केंद्र खोलने पर विचार कर रहे हैं। कुछ शोधकर्ता तो घरों को ठंडा बनाने के लिए सस्ते तरीके भी आज़मा रहे हैं। कुछ अन्य शोधकर्ता कोशिश कर रहे हैं कि आसपास के तापमान पर भूमि उपयोग और वास्तुकला का प्रभाव समझकर शहरों के विस्तार के लिए समुचित डैटा जुटा सकें।
इसी तरह का एक प्रयास नागपुर में अर्बन हीट रिसर्च प्रोजेक्ट के तहत शोधकर्ताओं द्वारा किया गया; 30 लाख की आबादी वाला यह शहर भारत के सबसे गर्म शहरों में से एक है।
तापमान के दैनिक पैटर्न से मानव स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। कई अध्ययन दर्शाते हैं कि गर्म दिनों के साथ रातें भी गर्म रहें तो स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ती हैं क्योंकि ऐसा होने पर शरीर को गर्मी से कभी राहत नहीं मिलती है। अध्ययनों से यह भी पता चला है कि भारत में लगातार गर्म दिन और गर्म रातें आम बात होती जा रही हैं।
इसके साथ ही सामाजिक-आर्थिक कारकों और गर्मी के प्रति संवेदनशीलता के सम्बंध को भी समझने का प्रयास किया जा रहा है। उदाहरण के लिए गरीब लोग घर को ठंडा रखने के उपकरण खरीदने में सक्षम नहीं होते। यह भी संभव है कि बुज़ुर्गों को ऐसी बीमारियां होती हों जो उन्हें गर्मी के प्रति अधिक संवेदनशील बनाती हैं। कुछ क्षेत्रों में पानी की आपूर्ति या स्वास्थ्य केंद्रों की कमी है जो गर्मी से सम्बंधित बीमारी से निपटने में मदद कर सकते हैं। जैसे नागपुर के बाहरी इलाकों में लोगों के पास स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच कम है।
टीम ने गर्मी के बारे में लोगों की समझ को भी महत्वपूर्ण माना है। पिछले साल ग्रीष्म लहर के दौरान शोधकर्ताओं ने पैदल लोगों से बातचीत की। 45 डिग्री सेल्सियस तापमान पर भी अधिकांश लोगों ने कम ही चिंता व्यक्त की क्योंकि उनके लिए इसमें कुछ नया नहीं है, मौसम तो हमेशा से ऐसा ही रहा है। यह काफी चिंताजनक है क्योंकि आम जनता को गर्मी से होने वाले जोखिमों के बारे में पर्याप्त समझ नहीं है। संभव है कि वे ग्रीष्म लहर से सम्बंधित चेतावनियों पर भी ध्यान नहीं देंगे। इस स्थिति में हीट एक्शन प्लान (एचएपी) तैयार करना और भी ज़रूरी हो जाता है।
मुख्य तौर पर एचएपी का उद्देश्य अधिकारियों को ग्रीष्म-लहर की चेतावनी जारी करने के लिए तैयार करने और अस्पतालों एवं अन्य संस्थानों को सचेत करना है। इसके तहत अस्पतालों को गर्मी के मौसम में लू के रोगियों के इलाज के लिए कोल्ड वार्ड बनाने और बिल्डरों को अत्यधिक गर्म दिनों में मज़दूरों को छुट्टी देने का सुझाव दिया गया है।
एचएपी सबसे पहले 2013 में अहमदाबाद में स्थानीय वैज्ञानिक संस्थानों और गैर-मुनाफा संस्था नेचुरल रिसोर्स डिफेंस काउंसिल (एनआरडीसी) द्वारा शुरू किया गया था। 2018 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार इस योजना के तहत कम से कम 1190 लोगों की जान बचाई गई। आपदा प्रबंधन एजेंसी अब देश के 28 में से 23 राज्यों में एचएपी विकसित करने के लिए काम कर रही है।
अलबत्ता, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) की एक रिपोर्ट के अनुसार मौजूदा एचएपी का कार्यान्वयन असमान रहा है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि इस योजना में पर्याप्त धन की कमी है। इसके अलावा योजना के तहत निर्धारित सीमाएं स्थानीय जलवायु के अनुरूप नहीं हैं। कुछ क्षेत्रों में तो केवल दिन का उच्चतम तापमान ही अलर्ट के लिए पर्याप्त माना गया है। उदाहरण के लिए अहमदाबाद में प्रारंभिक अलर्ट के लिए सीमा 41 डिग्री सेल्सियस निर्धारित की गई है। लेकिन कई अन्य स्थानों पर, रात का तापमान या आर्द्रता भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितना कि दिन का तापमान लेकिन इस ओर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है।
जैसे, मुंबई में अप्रैल माह में देर सुबह और बिना किसी छाया के आयोजित एक समारोह में 11 लोगों की लू से हुई मौतों ने अधिक सूक्ष्म और स्थान-आधारित चेतावनियों की आवश्यकता को रेखांकित किया है। उस दिन का अधिकतम तापमान 36 डिग्री सेल्सियस था, जो राष्ट्रीय मौसम विज्ञान विभाग द्वारा तटीय शहरों के लिए निर्धारित अलर्ट सीमा से 1 डिग्री सेल्सियस कम था। लेकिन गर्मी का प्रभाव आर्द्रता के कारण अधिक बढ़ गया था जिसे गर्मी चेतावनी प्रणालियों में अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है। विडंबना यह है कि मुंबई सहित महाराष्ट्र में इस त्रासदी से सिर्फ 2 महीने पहले एचएपी अपनाया गया था। इसमें गर्म दिनों में बाहरी कार्यक्रमों को अलसुबह करने की सलाह दी गई थी।
एचएपी को बेहतर बनाने में मदद के लिए शोधकर्ता एक मॉडल योजना पर काम कर रहे है जिसे स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार ढाला जा सके। साथ ही सभी शहरों की अधिक जोखिम वाली आबादी पर ध्यान केंद्रित करने के लिए एक जोखिम मानचित्र का भी सुझाव दिया गया है।
ऐसा मानचित्र बड़ी आसानी से बनाया जा सकता है। इसमें अधिक बुजुर्ग आबादी वाले या अनौपचारिक आवासों वाले इलाकों को चिंहित किया जा सकता है ताकि उन्हें विशेष चेतावनी मिल सके या पर्याप्त शीतलन केंद्रों की व्यवस्था की जा सके। नागपुर परियोजना के तहत एक जोखिम मानचित्र तैयार किया गया है जो यह बता सकता है कि ग्रीष्म लहर की स्थिति में किन इलाकों पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए।
शोधकर्ताओं का मानना है कि एचएपी में केवल अल्पकालिक आपातकालीन सेवाओं के अलावा मध्यम से दीर्घकालिक उपायों पर भी काम किया जाना चाहिए। जैसे छाया प्रदान करने के लिए पेड़ लगाने के स्थान तय करना। एचएपी के तहत घरों के पुनर्निर्माण या भवन निर्माण नियमों में बदलाव के प्रयासों को भी बढ़ावा दिया जा सकता है। शहरों को ठंडा रखने के लिए उनके निर्माण के तरीके बदलना होंगे। नागपुर की टीम ने शहर की ऐसी इमारतों के उदाहरण भी प्रस्तुत किए हैं। लेकिन ऐसे घरों के निर्माण के लिए पर्याप्त ज़मीन नहीं है और इनके रख-रखाव का खर्च भी बहुत ज़्यादा होता है।
हाल के वर्षों में, आवास मंत्रालय ने जलवायु अनुकूल इमारतों के निर्माण के लिए विस्तृत दिशानिर्देश तैयार किए हैं। इसमें पारंपरिक वास्तुकला के कुछ सिद्धांत शामिल किए गए हैं। लेकिन ये दिशानिर्देश ज़्यादातर कागज़ों पर ही हैं। बिल्डर और स्थानीय सरकारें अपने तौर-तरीकों को बदलने में धीमी या अनिच्छुक लगते हैं।
वैसे, शहरों में रहने वाले कम आय वाले कई परिवारों के लिए नवनिर्मित, जलवायु-अनुकूल निवास में जाने की संभावना बहुत कम है। इसलिए मौजूदा घरों में ही कुछ परिवर्तन किया जा सकता है। सबसे सस्ता और जांचा-परखा तरीका छतों को सफेद परावर्तक पेंट से ढंकना है। एचएपी के तहत इस तकनीक का सबसे पहला उपयोग 2017 में अहमदाबाद में किया गया था। एक अध्ययन के अनुसार पेंट की हुई टीन की छत वाले घर बिना पेंट वाली छतों की तुलना में 1 डिग्री सेल्सियस ठंडे रहते हैं जबकि अधिक महंगी तकनीक का उपयोग करके घरों को 4.5 डिग्री सेल्सियस तक ठंडा किया जा सकता है।
2020 में, 15,000 कम आय वाले घरों तक कूल रूफ कार्यक्रम का विस्तार किया गया था। इस साल, जोधपुर ने इसी तरह की पहल की है। इसी तरह तेलंगाना ने 2028 तक 300 वर्ग किलोमीटर ठंडी छतें बनाने का संकल्प लिया है। मुंबई और अन्य शहरों में, सीबैलेंस नामक एक निजी फर्म गरीब परिवारों के लिए कम लागत वाली शीतलन तकनीकों का परीक्षण कर रही है।
इस तकनीक में घर को ठंडा रखने के लिए टीन की छत को एल्यूमीनियम पन्नी से ढंककर गर्मी से इन्सुलेशन दिया जाएगा। इन घरों में एक बड़ा परिवर्तन छत के थोड़ा ऊपर पुनर्चक्रित प्लास्टिक कचरे के पैनलों से निर्मित दूसरी छत बनाना है। रसोई की खिड़की के लिए सुबह के समय पैनलों को बंद करने की व्यवस्था होगी जिससे धूप को रोका जा सकेगा और रात में उन्हें फिर से खोलकर गर्मी को बाहर किया जा सकेगा।
फिलहाल तो एक गैर-सरकारी परोपकारी संस्था ने इन परिवर्तनों के लिए धन प्रदान किया है। लेकिन भारत में शीतलन संसाधनों के भुगतान के लिए पैसा एकत्रित करना एक चुनौती है। विशेष पेंट काफी महंगा है। पैसे बचाने के लिए कुछ लोगों ने अपनी छतों को साधारण सफेद पेंट से रंगने की कोशिश की है। लेकिन यह तापमान को उतना कम नहीं करता है।
वैसे कई अन्य समस्याएं भी हैं। जैसे मुंबई की बस्तियों में बेतरतीब बिजली के तारों से कुछ छतों पर शेडिंग पैनल स्थापित नहीं किए जा सकते। यह भी सुनिश्चित करना होगा कि छत पर किए जाने वाले परिवर्तनों से वॉटरप्रूफिंग को नुकसान न पहुंचे। इन चुनौतियों के बावजूद, शोधकर्ता और इंजीनियर भारत के शहरों और उसमें भी सबसे कमज़ोर नागरिकों के लिए कूलिंग समाधान खोजने के लिए प्रयास कर रहे हैं। वर्तमान परिस्थितियों में कूलिंग कोई सुविधा नहीं बल्कि सामाजिक न्याय का मामला बन गया है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adl0080/abs/_20230929_nf_climate_india_sunset.jpg
जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग जैसे शब्द अब हमारे लिए अनजाने नहीं हैं। बढ़ते हुए वैश्विक तापमान से निकट भविष्य में होने वाली समस्याओं के संकेत दिखने लगे हैं। इनको सीमित करने के लिए समय-समय पर सम्मेलन आयोजित होते रहे हैं। हाल ही में ग्लासगो में ऐसा सम्मेलन हुआ था। आम तौर पर इन सम्मेलनों में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन, वनों की कटाई, पारिस्थितिक तंत्र आदि मुद्दे सुर्खियों में रहते हैं। लेकिन कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिन पर चर्चा नहीं होती है। हाल ही में कुछ शोधकर्ताओं ने हमारे खानपान के तरीकों से पृथ्वी पर होने वाले प्रभावों का अध्ययन किया है।
तथ्य यह है कि विश्व में लगभग दो अरब लोग (अधिकांश पश्चिमी देशो में) अधिक वज़न या मोटापे से ग्रस्त हैं। इसके विपरीत करीब 80 करोड़ ऐसे लोग (अधिकांश निम्न व मध्यम आमदनी वाले देशों में) भी हैं जिनको पर्याप्त पोषण नहीं मिल रहा है। 2017 में अस्वस्थ आहार से विश्व स्तर पर सबसे अधिक मौतें हुई थीं। राष्ट्र संघ खाद्य व कृषि संगठन के अनुसार जनसंख्या में वृद्धि और पश्चिमी देशों के समान अधिक से अधिक भोजन का सेवन करने के रुझान को देखते हुए अनुमान है कि वर्ष 2050 तक मांस, डेयरी और अंडे के उत्पादन में लगभग 44 प्रतिशत वृद्धि ज़रूरी होगी।
यह स्वास्थ्य के साथ-साथ पर्यावरण की भी समस्या है। गौरतलब है कि वर्तमान औद्योगीकृत खाद्य प्रणाली वैश्विक ग्रीनहाउस उत्सर्जन के लगभग एक-चौथाई के लिए ज़िम्मेदार है। इसके लिए विश्व भर के 70 प्रतिशत मीठे पानी और 40 प्रतिशत भूमि का उपयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त इसके लिए इस्तेमाल किए जाने वाले उर्वरक नाइट्रोजन और फॉस्फोरस चक्र को बाधित करते हैं और नदियों तथा तटों को भी प्रदूषित करते हैं।
वर्ष 2019 में 16 देशों के 37 पोषण विशेषज्ञों, पारिस्थितिकीविदों और अन्य विशेषज्ञों के एक समूह – लैंसेट कमीशन ऑन फूड, प्लेनेट एंड हेल्थ – ने एक रिपोर्ट जारी की है जिसमें पोषण और पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए व्यापक आहार परिवर्तन का आह्वान किया गया है। लैंसेट समूह द्वारा निर्धारित आहार का पालन करने वाले व्यक्ति को लचीलाहारी कहा जाता है जो अधिकांश दिनों में तो पौधों से प्राप्त आहार लेता है और कभी-कभी थोड़ी मात्रा में मांस या मछली का सेवन करता है।
इस रिपोर्ट ने निर्वहनीय आहार पर ध्यान तो आकर्षित किया है लेकिन यह सवाल भी उठा है कि क्या यह सभी के लिए व्यावहारिक है। इस संदर्भ में कुछ वैज्ञानिक पोषण और आजीविका को नुकसान पहुंचाए बिना स्थानीय माहौल के हिसाब से पर्यावरणीय रूप से निर्वहनीय आहार का परीक्षण करने का प्रयास कर रहे हैं।
खानपान से होने वाला उत्सर्जन
खाद्य उत्पादन से होने वाला ग्रीनहाउस उत्सर्जन इतना अधिक है कि वर्तमान दर पर सभी राष्ट्र गैर-खाद्य उत्सर्जन को पूरी तरह खत्म भी कर देते हैं तब भी तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित नहीं किया जा सकता है। खाद्य प्रणाली उत्सर्जन का 30 से 50 प्रतिशत हिस्सा तो केवल जंतु सप्लाई चेन से आता है। इसके अतिरिक्त कुछ विशेषज्ञों के अनुसार 2050 तक शहरीकरण और जनसंख्या वृद्धि के कारण भोजन सम्बंधी उत्सर्जन में 80 प्रतिशत तक वृद्धि होने की सम्भावना है।
यदि सभी लोग अधिक वनस्पति-आधारित आहार का सेवन करने लगें और अन्य सभी क्षेत्रों से उत्सर्जन को रोक दिया जाए तो वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लक्ष्य को पूरा करने की 50 प्रतिशत उम्मीद होगी। यदि भोजन प्रणाली में व्यापक बदलाव के साथ आहार में भी सुधार किया जाता है तो यह संभावना बढ़कर 67 प्रतिशत हो जाएगी।
अलबत्ता, ये निष्कर्ष मांस उद्योग को नहीं सुहाते। 2015 में यूएस कृषि विभाग की सलाहकार समिति ने आहार सम्बंधी दिशानिर्देशों में संशोधन करते समय शोधकर्ताओं के हस्तक्षेप के चलते पर्यावरणीय पहलू को भी शामिल करने पर विचार किया था। लेकिन उद्योगों के दबाव के कारण इस विचार को खारिज कर दिया गया। फिर भी इस मुद्दे पर लोगों का ध्यान तो गया।
यूके-आधारित वेलकम संस्थान द्वारा वित्तपोषित EAT-लैंसेट कमीशन ने एक मज़बूत केस प्रस्तुत किया। पोषण विशेषज्ञों ने संपूर्ण खाद्य पदार्थों से बना एक बुनियादी स्वस्थ आहार तैयार किया जिसमें कार्बन उत्सर्जन, जैव-विविधता हानि और मीठे पानी, भूमि, नाइट्रोजन तथा फॉस्फोरस के उपयोग को शामिल किया गया। इस प्रकार से टीम ने आहार की पर्यावरणीय सीमाएं निर्धारित की। टीम के अनुसार इन पर्यावरणीय सीमाओं का उल्लंघन करने का मतलब इस ग्रह को मानव जाति के लिए जीवन-अयोग्य बनाना होगा।
इस आधार पर उन्होंने एक विविध और मुख्यतः वनस्पति आधारित भोजन योजना तैयार की है। इस योजना के तहत औसत वज़न वाले 30 वर्षीय व्यक्ति के लिए 2500 कैलोरी प्रतिदिन के आहार के हिसाब से एक सप्ताह में 100 ग्राम लाल मांस खाने की अनुमति है। यह एक आम अमेरिकी की खपत से एक-चौथाई से भी कम है। यह भी कहा गया है कि अत्यधिक परिष्कृत खाद्य पदार्थ (शीतल पेय, फ्रोज़न फूड और पुनर्गठित मांस, शर्करा और वसा) के सेवन से भी बचना चाहिए।
आयोग का अनुमान है कि इस प्रकार के आहार के ज़रिए पारिस्थितिकी तंत्र को क्षति पहुंचाए बिना 10 अरब लोगों को अधिक स्वस्थ भोजन दिया जा सकता है। कई वैज्ञानिकों ने EAT-लैंसेट द्वारा तैयार किए गए आहार प्लान की सराहना की है। लेकिन एक सवाल यह भी है कि क्या यह आहार कम संसाधन वाले लोगों के लिए भी पर्याप्त पोषण प्रदान करेगा। जैसे वाशिंगटन स्थित ग्लोबल एलायंस फॉर इम्प्रूव्ड न्यूट्रिशन के टाय बील का निष्कर्ष है कि यह आहार 25 वर्ष से ऊपर की आयु के व्यक्ति के लिए आवश्यक जिंक का 78 प्रतिशत और कैल्शियम का 86 प्रतिशत ही प्रदान करता है और प्रजनन आयु की महिलाओं को आवश्यक लौह का केवल 55 प्रतिशत प्रदान करता है।
इन आलोचनाओं के बावजूद, यह आहार पर्यावरण सम्बंधी चिंताओं को केंद्र में रखता है। रिपोर्ट के प्रकाशन के बाद विश्व भर के जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक इस आहार को सभी तरह के लोगों के लिए व्यावहारिक बनाने पर अध्ययन कर रहे हैं।
समृद्ध आहार
कई पोषण शोधकर्ता जानते हैं कि अधिकांश उपभोक्ता आहार सम्बंधी दिशानिर्देशों का पालन नहीं करते। कई वैज्ञानिक लोगों को यह संदेश देने के कारगर तरीके तलाश रहे हैं। कुछ पोषण वैज्ञानिक स्कूलों में बगैर हो-हल्ले के एक निर्वहनीय आहार का परीक्षण कर रहे हैं, जिसमें मौसमी सब्ज़ियों और फ्री-रेंज मांस (जिन जंतुओं को दड़बों में नहीं रखा जाता) जैसे पारंपरिक और निर्वहनीय खाद्य की खपत को बढ़ावा दिया जाता है।
इस कार्यक्रम में प्राथमिक विद्यालय के 2000 छात्रों के स्कूल लंच का विश्लेषण करने के लिए कंप्यूटर एल्गोरिदम का उपयोग किया गया है। जिससे उन्हें आहार को अधिक पौष्टिक और जलवायु के अनुकूल बनाने के तरीकों के सुझाव मिले, जैसे मांस की मात्रा को कम करके फलियों और सब्ज़ियों की मात्रा में वृद्धि। शोधकर्ताओं ने बच्चों और उनके अभिभावकों को लंच में सुधार की सूचना दी लेकिन उनको इसका विवरण नहीं दिया गया। इसकी ओर बच्चों ने भी ध्यान नहीं दिया और पहले के समान भोजन की बर्बादी भी नहीं हुई। इस कवायद के माध्यम से शोधकर्ता बच्चों में टिकाऊ आहार सम्बंधी आदतें विकसित करना चाहते हैं जो आगे भी जारी रहें। वैसे यह आहार EAT-लैंसेट से काफी अलग है। यह EAT-लैंसेट आहार को स्थानीय परिस्थितियों के आधार पर तैयार करने के महत्व को रेखांकित करता है।
इसी तरह से कुछ शिक्षाविद और रेस्तरां भी कम आय वाली परिस्थिति में मुफ्त आहार का परीक्षण कर रहे हैं। इस संदर्भ में जॉन हॉपकिंस युनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन के शोधकर्ताओं ने इस तरह का आहार लेने वाले 500 लोगों का सर्वेक्षण किया और पाया कि 93 प्रतिशत लोगों ने इस आहार को काफी पसंद किया। देखा गया कि प्रत्येक मुफ्त आहार की कीमत 10 अमेरिकी डॉलर है जो वर्तमान में यूएस फूड स्टैम्प द्वारा प्रदान की जाने वाली राशि का पांच गुना है। इससे पता चलता है कि यदि आप आहार में व्यापक बदलाव करें तो पर्यावरण पर एक बड़ा प्रभाव डाल सकते हैं लेकिन इसमें सांस्कृतिक और आर्थिक बाधाएं रहेंगी।
पेट पर भारी
फिलहाल शोधकर्ता कम या मध्यम आय वाले देशों में भविष्य का आहार खोजने का प्रयास कर रहे हैं। इसमें सबसे बड़ी बाधा यह पता लगाना है कि इन देशों के लोग वर्तमान में कैसे भोजन ले रहे हैं। देखा जाए तो भारत के लिए यह जानकारी काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि वैश्विक भूख सूचकांक में 116 देशों में भारत का स्थान 101 है। और तो और, यहां अधिकांश बच्चे ऐसे हैं जो अपनी काफी दुबले हैं।
इस मामले में उपलब्ध डैटा का उपयोग करते हुए आई.आई.टी. कानपुर के फूड सिस्टम्स वैज्ञानिक अभिषेक चौधरी, जो EAT-लैंसेट टीम का हिस्सा भी रहे हैं, और उनके सहयोगी स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के वैभव कृष्णा ने भारत के सभी राज्यों के लिए आहार डिज़ाइन तैयार करने के लिए स्थानीय पानी, उत्सर्जन, भूमि उपयोग और फॉस्फोरस एवं नाइट्रोजन उपयोग के पर्यावरणीय डैटा का इस्तेमाल किया। इस विश्लेषण ने एक ऐसे आहार का सुझाव दिया जो पोषण सम्बंधी आवश्यकताओं को पूरा करता है, खाद्य-सम्बंधी उत्सर्जन को 35 प्रतिशत तक कम करता है और अन्य पर्यावरणीय संसाधनों पर दबाव भी नहीं डालता है। लेकिन आवश्यक मात्रा में ऐसा भोजन उगाने के लिए 35 प्रतिशत अधिक भूमि की आवश्यकता होगी या उपज बढ़ानी होगी। इसके अलावा भोजन की लागत 50 प्रतिशत अधिक होगी।
भारत ही नहीं स्वस्थ और टिकाऊ आहार अन्य स्थानों पर भी महंगा है। EAT-लैंसेट द्वारा प्रस्तावित विविध आहार जैसे नट, मछली, अंडे, डेयरी उत्पाद आदि को लाखों लोगों तक पहुंचाना असंभव है। यदि खाद्य कीमतों के हालिया आंकड़ों (2011) को देखा जाए तो इस आहार की लागत एक सामान्य पौष्टिक भोजन की लागत से 1.6 गुना अधिक है।
कई अन्य व्यावहारिक दिक्कतों के चलते फिलहाल वैज्ञानिकों को कम और मध्यम आय वाले देशों में पर्यावरण संरक्षण से अधिक ध्यान पोषण प्रदान करने पर देना चाहिए। वर्तमान में एक समिति के माध्यम से EAT-लैंसेट के विश्लेषण पर एक बार फिर विचार किया जा रहा है।
कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि गरीब देशों में वहनीय आहार की खोज समुदायों और किसानों के साथ मिलकर काम करने से ही संभव है। खाद्य प्रणाली से जुड़े वैज्ञानिकों को लोगों को बेहतर आहार प्रदान करने के लिए स्थानीय परिस्थितियों से तालमेल बनाने के तरीके खोजने की भी आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/w1248/magazine-assets/d41586-021-03565-5/d41586-021-03565-5_19903594.jpg
विश्वभर में वृद्ध लोगों की बढ़ती आबादी के लिए वित्तीय सहायता और देखभाल का विषय राजनैतिक रूप से काफी पेचीदा है। इस संदर्भ में विभिन्न देशों ने अलग-अलग प्रयास किए हैं।
यू.के. में 2017 में और उसके बाद 2021 में सरकार द्वारा सोशल-केयर नीति लागू की गई थी। इसमें सामाजिक सुरक्षा हेतु धन जुटाने के मकसद से राष्ट्रीय बीमा की दरें बढ़ा दी गई थीं। यह एक प्रकार का सामाजिक सुरक्षा टैक्स है जो सारे कमाऊ वयस्क और उनके नियोक्ता भरते हैं।
कोविड-19 के दौरान वृद्धाश्रमों में मरने वाले लोगों की बड़ी संख्या ने इस मॉडल पर सवाल खड़े दिए। तो सवाल यह है कि बढ़ती बुज़ुर्ग आबादी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए स्वास्थ्य सेवाओं में किस तरह के पुनर्गठन की ज़रूरत है।
लगभग सभी उन्नत और बढ़ती हुई अर्थव्यवस्थाएं इस चुनौती का सामना कर रही हैं। जैसे 2050 तक यूके की 25 प्रतिशत जनसंख्या 65 वर्ष से अधिक आयु की होगी जो वर्तमान में 20 प्रतिशत है। इसी तरह अमेरिका में वर्ष 2018 में 65 वर्ष से अधिक आयु के 5.2 करोड़ लोग थे जो 2060 तक 9.5 करोड़ हो जाएंगे। इस मामले में जापान का ‘अतिवृद्ध’ समाज अन्य देशों के लिए विश्लेषण का आधार प्रदान करता है। 2015 से 2065 के बीच जापान की आबादी 12.7 करोड़ से घटकर 8.8 करोड़ होने की संभावना है जिसमें 2036 तक एक तिहाई आबादी 65 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों की होगी।
हालांकि भारत, जो विश्व का दूसरा सबसे अधिक वाली आबादी वाला देश है, की वर्तमान स्थिति थोड़ी बेहतर है लेकिन अनुमान है कि 2050 तक 32 करोड़ भारतीयों की उम्र 60 वर्ष से अधिक होगी।
मुंबई स्थित इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पापुलेशन साइंसेज़ के प्रमुख कुरियाथ जेम्स बताते हैं कि भारत में बुज़ुर्गों की देखभाल मुख्य रूप से परिवारों के अंदर ही की जाती है। वृद्धाश्रम अभी भी बहुत कम हैं। भारत में संयुक्त परिवार आम तौर पर पास-पास ही रहते हैं जिससे घर के वृद्ध लोगों की देखभाल करना आसान हो जाता है। लेकिन इस व्यवस्था को अब जनांकिक रुझान चुनौती दे रहे हैं।
गौरतलब है कि भारत अंतर्राष्ट्रीय प्रवासियों का सबसे बड़ा स्रोत है। 1990 के दशक की शुरुआत से लेकर अब तक विदेशों में काम करने वाले भारतीयों की संख्या दुगनी से अधिक होकर 2015 तक 1.56 करोड़ हो गई थी। इसके अलावा कई भारतीय काम के सिलसिले में देश के ही दूसरे शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। 2001 की जनगणना के अनुसार 30 प्रतिशत आबादी अपने जन्म स्थान पर नहीं रह रही थी। यह संख्या 2011 में बढ़कर 37 प्रतिशत हो गई थी। जेम्स के अनुसार इस प्रवास में आम तौर पर व्यस्क युवा होते हैं जो अपने माता-पिता को छोड़कर दूसरे शहर चले जाते हैं। नतीजतन घर पर ही वृद्ध लोगों की देखभाल और कठिन हो जाती है।
2020 में लॉन्गीट्यूडिनल एजिंग स्टडी इन इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार 60 वर्ष से अधिक आयु के 26 प्रतिशत लोग या तो अकेले या सिर्फ अपने जीवनसाथी (पति-पत्नी) के साथ रहते हैं। फिलहाल भारत में पारिवारिक जीवन अभी भी अपेक्षाकृत रूप से आम बात है जिसमें 60 से अधिक उम्र के 41 प्रतिशत लोग अपने जीवनसाथी और व्यस्क बच्चों दोनों के साथ रहते हैं जबकि 28 प्रतिशत लोग अपने व्यस्क बच्चों के साथ रहते हैं और उनका कोई जीवनसाथी नहीं है।
वैसे, घर पर देखभाल की कुछ समस्याएं हैं। देखभाल का काम मुख्य रूप से महिलाओं के ज़िम्मे होता है और अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी काफी कम है क्योंकि वे घर से बाहर काम करने नहीं जा पाती हैं।
यदि प्रवासन में उपरोक्त वृद्धि जारी रही तो जल्दी ही देश की बुज़ुर्ग आबादी के पास कोई परिवार नहीं होगा और उनको देखभाल के लिए वृद्धाश्रम की आवश्यकता होगी। ऐसे में खर्चा बढ़ेगा और इन खर्चों को पूरा करने के लिए अधिक महिलाओं को काम की तलाश करना होगी।
भारत के वृद्ध लोग अपने संयुक्त परिवारों के साथ रहना अधिक पसंद करते हैं। ऐसे परिवारों में रहने वाले ज़्यादा बुज़ुर्ग (80 प्रतिशत) अपने रहने की व्यवस्था से संतुष्ट हैं बनिस्बत अकेले रहने वाले बुज़ुर्गों (53 प्रतिशत) के। नर्सिंग-होम जैसी संस्थाओं में संतुष्टि के संदर्भ में कोई डैटा तो नहीं है लेकिन परिवार द्वारा देखभाल को बहुत अधिक महत्व दिया जाता है क्योंकि यह समाज की अपेक्षा भी है। फिर भी देश के अंदर और विदेशों की ओर प्रवास की प्रवृत्ति और कोविड-19 के दीर्घकालिक प्रभाव को देखते हुए विशेषज्ञ मानते हैं कि व्यवस्था में बदलाव की दरकार है।
महामारी के दौरान कई देशों के केयर-होम्स वायरस संक्रमण के भंडार रहे हैं। भारत के संदर्भ में पर्याप्त आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। लंदन आधारित इंटरनेशनल लॉन्ग टर्म केयर पालिसी नेटवर्क ने हाल ही में एक समीक्षा में बताया है कि परिवार के वृद्ध जन के कोविड-19 संक्रमित होने पर परिवार को अतिरिक्त तनाव झेलना पड़ा था। इस महामारी ने एक ऐसी व्यवस्था की सीमाओं को उजागर किया है जो वृद्ध लोगों की देखभाल के लिए मुख्यत: परिवारों पर निर्भर है।
घर पर देखभाल के लिए देश के आधे कामगारों (महिलाओं) की उपेक्षा करना अर्थव्यवस्था पर एक गंभीर बोझ है।
इसी कारण जापान ने अपने वृद्ध लोगों की देखभाल करने के तरीके में बदलाव किए हैं। भारत की तुलना में जापान में आंतरिक प्रवास की दर कम है – वहां केवल 20 प्रतिशत लोग उस प्रांत में नहीं रहते हैं जहां वे पैदा हुए थे। लेकिन वहां भी औपचारिक अर्थव्यवस्था में महिलाओं की कम उपस्थिति एक बड़ा मुद्दा है। वर्ष 2000 में, 25 से 54 वर्ष की आयु के बीच की 67 प्रतिशत महिलाएं अधिकारिक तौर पर नौकरियों में थी जो अमेरिका से 10 प्रतिशत कम था। वैसे भी जापान सामान्य रूप से घटते कार्यबल का सामना कर रहा है।
इस सहस्राब्दी की शुरुआत में जापान ने लॉन्ग-टर्म केयर इंश्योरेंस (एलटीसीआई) योजना की शुरुआत की थी जिसका उद्देश्य देखभाल को परिवार-आधारित व्यवस्था से दूर करके बीमा पर आधारित करना है। एलटीसीआई के तहत, 65 वर्ष से अधिक उम्र के सभी लोग जिन्हें किसी भी कारण देखभाल की आवश्यकता है, उन्हें सहायता प्रदान की जाती है। इसके लिए कोई विशेष विकलांगता की शर्त नहीं है। इसकी पात्रता एक सर्वेक्षण द्वारा निर्धारित की जाती है। इसके बाद चिकित्सक के इनपुट के आधार पर लॉन्ग-टर्म केयर अप्रूवल बोर्ड द्वारा निर्णय लिया जाता है। इसके बाद दावेदार को उसकी व्यक्तिगत आवश्यकताओं के अनुसार देखभाल प्रदान की जाती है जो नर्सिंग-होम में निवास से लेकर उनके दैनिक कार्यों में मदद के लिए सेवाएं प्रदान करने तक हो सकती हैं।
एलटीसीआई के वित्तपोषण का 50 प्रतिशत हिस्सा कर से प्राप्त राजस्व से और बाकी का हिस्सा 40 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों पर अनिवार्य बीमा प्रीमियम आरोपित करके किया जाता है। यह आयु सीमा इसलिए निर्धारित की गई है क्योंकि 40 वर्ष की आयु तक पहुंचने पर व्यक्ति के बुज़ुर्ग रिश्तेदारों को देखभाल की आवश्यकता होगी, ऐसे में वह व्यक्ति इस व्यवस्था का लाभ देख पाएगा। हितग्राही को कुल खर्च के 10 प्रतिशत का भुगतान भी करना होता है।
यदि अप्रूवल बोर्ड दीर्घकालिक देखभाल की आवश्यकता नहीं देखता तो उन्हें ‘रोकथाम देखभाल’ की पेशकश की जा सकती है। इन सेवाओं में पुनर्वास और फिज़ियोथेरेपी शामिल हैं। रोकथाम सेवा इसलिए भी आवश्यक हो गई क्योंकि एलटीसीआई योजना की सफलता के चलते नामांकन की संख्या में काफी तेज़ी से वृद्धि हुई। वर्ष 2000 में जापान सरकार ने एलटीसीआई भुगतानों पर लगभग 2.36 लाख करोड़ रुपए खर्च किए थे जो 2017 में बढ़कर 7.02 लाख करोड़ हो गए। अनुमान है कि 2025 यह आंकड़ा 9.84 लाख करोड़ रुपए हो सकता है। खर्च कम करने के लिए सरकार ने 2005 में कुछ लाभों को कम कर दिया। 2015 में सक्षम लोगों के लिए 20 प्रतिशत भुगतान भी शामिल किया गया। सरकार ने प्रीमियम योगदान की उम्र घटाने की भी कोशिश की जिसका काफी विरोध हुआ।
कुल मिलाकर सबक यह है कि इतनी व्यापक योजना का आकार समय के साथ बढ़ती ही जाएगा। एलटीसीआई के लिए उच्च स्तर का उत्साह पैदा करना आसान नहीं था। लोगों की मानसिकता में बदलाव लाना पड़ा क्योंकि घर पर वृद्ध रिश्तेदारों की देखभाल न करना एक शर्म की बात माना जाता था। हालांकि, जापान ने जो समस्याएं एलटीसीआई की मदद से दूर करने की कोशिश की थी उनमें से कई समस्याएं अभी भी मौजूद हैं।
एक रोचक तथ्य यह है कि जहां 2000 से 2018 के बीच जापान की कामकाजी उम्र की आबादी में 1.1 करोड़ से अधिक लोगों की कमी आई है वहीं कार्यबल में 6 लाख की वृद्धि हुई है। इस वृद्धि का श्रेय महिलाओं की बढ़ती भागीदारी को दिया जाता है क्योंकि एलटीसीआई ने पारिवारिक देखभाल की चिंताओं को कम किया जिससे महिलाओं को काम करने के अवसर मिले।
हालांकि, अभी भी जापान में बढ़ती उम्र की समस्या बनी हुई है और इसी कारण उसका श्रम-बाज़ार का संकट खत्म भी नहीं हुआ है। अधिक महिलाओं को रोज़गार देने के बाद भी देश के स्वास्थ्य, श्रम और कल्याण मंत्रालय का अनुमान है कि 2040 तक कार्यबल घटकर 5.3 करोड़ रह जाएगा जो 2017 से 20 प्रतिशत कम होगा। साथ ही वृद्ध लोगों की संख्या बढ़ने के साथ एलटीसीआई के लिए पात्र लोगों की संख्या बढ़ने की उम्मीद है। ऐसे में भविष्य में योजना को वित्तपोषित करना एक बड़ी चुनौती होगी। (स्रोत फीचर्स)
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क्रमिक जैव विकास के फलस्वरूप आज से लगभग पच्चीस लाख साल पहले मानव के विकास की शृंखला की शुरुआत अफ्रीका में होमो वंश के उद्भव के साथ हुई। फिर काल क्रम में इसकी कई प्रजातियां विकसित हुर्इं और अंत में आधुनिक मानव प्रजाति (होमो सेपिएंस) का विकास आज से करीब दो लाख वर्ष पूर्व पूर्वी अफ्रीका में हुआ।
आधुनिक मनुष्य के इतिहास की शुरुआत आज से सत्तर हजार पहले संज्ञानात्मक क्रांति (Cognitive revolution) के रूप में हुई जब उसने बोलने की, शब्द गठन करने की क्षमता पाई। और तब वह अपने मूल स्थान से अन्य क्षेत्रों — युरोप, एशिया वगैरह में पसरता गया।
इतिहास का अगला पड़ाव करीब 12 हज़ार साल पहले कृषि क्रांति के साथ आया, जब मनुष्य ने खेती करना शुरू किया। मनुष्य अब यायावर नहीं रह गया, वह स्थायी बस्तियों में रहने लगा। सभ्यता और संस्कृति के विकास की कहानियां बनने लगीं।
अब जब मनुष्य ने समझने और अपनी समझ ज़ाहिर करने की क्षमता हासिल कर ली थी, तो उसने अपने चारों ओर के परिवेश के साथ अपने रिश्ते को समझने की कोशिश की। धरती, आसमान और समंदर को समझने की कोशिश की। जानकारियां इकठ्ठी होती चली गर्इं। ये जानकारियां विभिन्न समय में अनेक धाराओं में प्रतिष्ठित हुई। ये धाराएं धर्म कहलार्इं।
अब मनुष्य के पास अपनी समस्याओं, कौतूहल और सवालों के जवाब पाने का एक जरिया हासिल हो गया था।
जीवनयापन के लिए आवश्यक सारी महत्वपूर्ण जानकारियां प्राचीन काल के मनीषियों द्वारा हमें धार्मिक ग्रंथों अथवा मौखिक परंपराओं में उपलब्ध कराई जा चुकी हैं। मान्यता यह बनी कि इन ग्रंथों और परंपराओं के समीचीन अध्ययन और समझ के ज़रिए ही हम ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। लोगों की आस्था थी कि वेद, कुरान और बाइबिल जैसे धर्मग्रंथों में विश्व ब्राहृांड के सारे रहस्यों का विवरण उपलब्ध है। इन धर्मग्रंथों के अध्ययन या किसी जानकार, ज्ञानी व्यक्ति से संपर्क करने पर सारे सवालों के जवाब मिल जाएंगे। इसलिए नया कुछ आविष्कार करने की ज़रूरत नहीं रह गई है।
ज़िम्मेदारी के साथ कहा जा सकता है कि सोलहवीं सदी के पहले मनुष्य प्रगति और विकास की आधुनिक अवधारणा में विश्वास नहीं करते थे। उनकी समझ थी कि स्वर्णिम काल अतीत में था और विश्व अचर है। जो पहले नहीं हुआ, वह भविष्य में नहीं हो सकता। युगों की प्रज्ञा के श्रद्धापूर्वक अनुपालन से स्वर्णिम अतीत को वापस लाया जा सकता है और मानवीय विदग्धता हमारी रोज़मर्रा ज़िंदगी के कई पहलुओं में सुधार ज़रूर ला सकती है लेकिन दुनिया की बुनियादी समस्याओं से उबरना मनुष्य की कूवत में नहीं है। जब सर्वज्ञाता बुद्ध, कन्फ्यूशियस, ईसा मसीह, और मोहम्मद तक अकाल, भुखमरी, रोग और युद्ध रोकने में नाकामयाब रहे तो इन्हें रोकने की उम्मीद करना दिवास्वप्न ही है।
हालांकि तब की सरकारें और संपन्न महाजन शिक्षा और वृत्ति के लिए अनुदान देते थे, किंतु उनका उद्देश्य उपलब्ध क्षमताओं को संजोना और संवारना था, न कि नई क्षमता हासिल करना। तब के शासक पुजारियों, दार्शनिकों और कवियों को इस आशा से दान दिया करते थे कि वे उनके शासन को वैधता प्रदान करेंगे और सामाजिक व्यवस्था को कायम रखेंगे। उन्हें इनसे ऐसी कोई उम्मीद नहीं रहती थी कि वे नई चिकित्सा पद्धति का विकास करेंगे या नए उपकरणों का आविष्कार करेंगे और आर्थिक वृद्धि को प्रोत्साहित करेंगे। सोलहवीं शताब्दी से जानकारियों की एक स्वतंत्र धारा उभरी। इसे वैज्ञानिक धारा के रूप में पहचाना जाता है।
वैज्ञानिक क्रांति ने सन 1543 में कॉपर्निकस की विख्यात पांडुलिपि डी रिवॉल्युशनिबस ऑर्बियम सेलेस्चियम (आकाशीय पिंडों की परिक्रमा) के प्रकाशन के साथ आहट दी थी। इस पांडुलिपि ने स्पष्टता के साथ ज्ञान की पारंपरिक धाराओं की स्थापित मान्यता (कि पृथ्वी ब्राहृांड का केंद्र है) के साथ अपनी असहमति की घोषणा की। कॉपर्निकस ने कहा कि पृथ्वी नहीं, बल्कि सूर्य ब्राह्मांड का केंद्र है। पारंपरिक प्रज्ञा (wisdom) के साथ असहमति वैज्ञानिक नज़रिए की पहचान है।
कॉपर्निकस की पांडुलिपि के प्रकाशन के 21 साल पहले मेजेलान का अभियान पृथ्वी की परिक्रमा कर स्पेन लौटा था। इससे यह स्थापित हुआ कि पृथ्वी गोल है। इससे इस विचार को आधार मिला कि हम सब कुछ नहीं जानते। नई जानकारियां हमारी जानकारियों को गलत साबित कर सकती हैं। कोई भी अवधारणा, विचार या सिद्धांत ऐसा नहीं होता जो पवित्र और अंतिम हो और जिसे चुनौती न दी जा सके।
अगली सदी में फ्रांसीसी गणितज्ञ रेने देकार्ते ने वैज्ञानिक तरीकों से सारे स्थापित सत्य की वैधता का परीक्षण करने की वकालत की। अंतत: सन 1859 में चार्ल्स डार्विन द्वारा प्राकृतिक वरण से विकास के महत्वपूर्ण सिद्धांत का प्रतिपादन किए जाने के साथ ही वैज्ञानिक विचारधारा को व्यापक स्वीकृति और सम्माननीयता मिली।
विज्ञान की पहचान इस बात में निहित है कि वह सबसे अधिक महत्वपूर्ण विषयों के बारे में सामूहिक अज्ञान को खुले तौर पर स्वीकार करता है। विज्ञान का वक्तव्य है कि डार्विन ने कभी नहीं दावा किया कि वे जीव वैज्ञानिकों की आखिरी मोहर हैं और उनके पास सारे सवालों के अंतिम जवाब हैं। धर्म का आधार आस्था है, विज्ञान का आधार है परंपरा से मिली प्रज्ञा से असहमति। विज्ञान सवाल पूछने को प्रोत्साहित करता है, जबकि धर्म सवाल उठाने को निरुत्साहित करता है।
आधुनिक विज्ञान का आधार यह स्वीकृति है कि हम सब कुछ नहीं जानते। और भी अधिक महत्वपूर्ण है कि विज्ञान स्वीकार करता है कि नई जानकारियां हमारी जानकारियों को गलत साबित कर सकती हैं।
विज्ञान अज्ञान को कबूल करने के साथ-साथ नई जानकारियां इकट्ठा करने का लक्ष्य रखता है। अवलोकनों को इकट्ठा कर उन्हें व्यापक सिद्धातों में बदलने के लिए गणितीय उपकरणों का उपयोग कर ऐसा किया जाता है। आधुनिक विज्ञान नए सिद्धांत देने तक सीमित नहीं रहता, इन सिद्धांतों का उपयोग नई क्षमताएं हासिल करने और नई तकनीकों को विकसित करने में होता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सभी मांओं की एक ही कहानी है – मेरा बच्चा सब्ज़ियां नहीं खाता। उसे तो केवल क्रीम बिस्किट्स, चॉकलेट और आईसक्रीम ही चाहिए। और फिर शुरू होता है धमकी और रिश्वत का एक सौदा। मां अपने बच्चे से कहती है कि जब तक तुम सब्ज़ी नहीं खाओगे तब तक मिठाई नहीं मिलेगी। इस रणनीति में कुछ बच्चे आलू और भिंडी तो खाने के लिए हां कर देते हैं और बाकी बेचारों को पालक, गिलकी, लौकी-कद्दू और टिन्डों की ज़बरदस्ती स्वीकार करते बड़ा होना पड़ता है।
हम सभी को मीठा पसंद है। मीठे की ओर आकर्षण हमें हमारे पूर्वज प्रायमेट्स से विरासत में मिला है। उस समय हमारे पूर्वज भी आज के बंदरों और वनमानुष की तरह खुशबूदार पके मीठे फलों को खोजते दिन बिताते थे। अधिक ऊर्जा और पानी के लिए पके और मीठे फल को कच्चे और कड़वे फल पर प्राथमिकता मिलती थी। पेड़ों पर पके मीठे फल मिलने पर पानी की खोज भी पूरी हो जाती थी।
तो आपका बच्चा अगर मिठाई की ओर ललचाई निगाह से देखता है तो इसमें बच्चे का दोष नहीं है। दोष है हमारे प्रायमेट पूर्वजों और उनको मिली परिस्थितियों का और हमारे आनुवंशिक लक्षणों का।
आज भी हमारे नज़दीकी रिश्तेदार चिम्पैंज़ी जंगलों में जब भी मधुमक्खी के छत्ते को देखते हैं, तो सैकड़ों मधुमक्खियों के दंश की परवाह न करते हुए शहद खाने के मौके को कभी भी हाथ से जाने नहीं देते। शहद को खाने की उत्कंठा चिम्पैंज़ियों में इतनी तीव्र होती है कि अफ्रीका के विभिन्न स्थानों पर पाए जाने वाले स्थानीय चिम्पैंज़ियों ने शहद को खाने के लिए उपयुक्त तरीके भी निकाल लिए हैं। पूर्वजों के समान अगर हम भी मीठे की ओर आकर्षित होते हैं तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यही कारण है कि मानव के पूर्वजों ने गन्ने को पूरे विश्व में फैला दिया है।
अधिकांश ज़हरीले भोज्य पदार्थ कड़वे होते हैं और हमारे पूर्वजों ने भी कड़वे पदार्थों से दूरी बनाना सीख लिया था। मीठे, खट्टे और नमकीन की तुलना में कड़वे पदार्थों के स्वाद के लिए मनुष्यों में अन्य सभी प्राणियों से 25 जीन्स अधिक पाए जाते हैं।
तो मांओं की यह चिंता जायज़ है कि बच्चे सब्ज़ियां नहीं खाते जो स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं। कई प्रकार के खाद्य पदार्थ तो अधिकता में शरीर के लिए नुकसानदायक होते हैं। वसा एवं शर्करा ज़्यादा मात्रा में लेने पर वे चयापचय को धीमा करते हैं, वज़न बढ़ाते हैं तथा धमनियों में जमा होकर उन्हें कठोर कर देते हैं, खासकर जब बच्चे खेलना-कूदना छोड़ देते हैं। तो क्या हम बच्चों को मिठाई की बजाय सब्ज़ी खाने के लिए तैयार कर सकते हैं। उत्तर है, हां।
विज्ञान की नई शाखा ऑप्टोजेनेटिक्स इसमें बहुत उपयोगी होगी। ऑप्टोजेनेटिक्स एक ऐसी तकनीक है जिसमें प्रकाश द्वारा जीवित ऊतक, खासकर जेनेटिक तौर पर बदले गए न्यूरॉन्स को प्रकाश संवेदी बनाकर कार्य करने के लिए उकसाया जाता है।
ऑप्टोजेनेटिक्स के भोजन सम्बंधी कुछ प्रयोग फलों पर पाई जाने वाली छोटी एवं लाल आंखों वाली फ्रूट फ्लाय (ड्रॉसोफिला) पर किए गए हैं। मनुष्य को मीठे लगने वाले विभिन्न प्रकार के रसायन अन्य प्रजातियों के प्राणियों को भी मीठे लगें यह ज़रूरी नहीं है। उदाहरण के लिए मनुष्यों द्वारा मीठे के लिए उपयोग किया जाने वाला रसायन एस्पार्टेम चूहों और बिल्लियों को मीठा नहीं लगता। आश्चर्यजनक रूप से मीठे के मामले में ड्रॉसोफिला एवं मानव की पसंद एक जैसी ही है। दोनों की पसंद इतनी मिलती है कि हमारे नज़दीकी रिश्तेदार कई बंदरों को भी वे चीज़ें मीठी नहीं लगती जो हमें और ड्रॉसोफिला को मीठी लगती हैं। यह भी पता लगा है कि मनुष्य एवं ड्रॉसोफिला दोनों के पूर्वज सर्वाहारी एवं मुख्य रूप से मीठे फल खाने वाले थे।
मीठे की तुलनात्मक अनुभूति कराने वाले रसायन में से 21 पोषक और अपोषक रसायन जो मानव को मीठे लगते हैं वे मक्खियों को कैसे लगते हैं यह जानने के लिए प्रयोग किए गए।
क्या स्वाद ग्रंथियां सब्ज़ियों का स्वाद लेने पर भी मस्तिष्क को मीठा खाने जैसी अच्छी अनुभूति दे सकती है? हां। इसे सिद्ध करने के लिए ड्रॉसोफिला पर एक प्रयोग किया गया। मक्खियों के उपयोग में लाए जाने वाले आयपैड (जिसे फ्लायपैड कहते हैं) का उपयोग किया गया। पैड के दो कक्षों में से एक में हरी ब्रोकली तथा दूसरे में केले का गूदा रखा गया। अब मक्खियों को छोड़कर यह देखा गया कि वे किस प्रकार का खाद्य पदार्थ पसंद करती हैं। मक्खी जिस खाद्य पदार्थ की ओर जाती थी फ्लायपैड उस परिणाम को आंकड़े के रूप में एकत्रित कर लेता था। निष्कर्षों में यह पता चला कि मक्खियों ने भी बच्चों की तरह ब्रोकली की बजाय केले को मीठे स्वाद के कारण ज़्यादा पसंद किया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि मानव में जीभ पर पाए जाने वाली स्वाद कलिकाएं स्वाद ग्राहियों से बनी होती है जो विशेष न्यूरॉन्स होते हैं। जब भी जीभ पर भोज्य पदार्थ लगता है तो स्वाद ग्राही मस्तिष्क तक एक संदेश भेजते हैं। मीठे पदार्थ के अणु मीठे स्वाद ग्राहियों से जुड़कर तुरंत संदेश को मस्तिष्क में पहुंचाते हैं जिससे सुखद अनुभूति होती है। किंतु ड्रॉसोफिला में ब्रोकली पदार्थ के अणु मीठे स्वाद ग्राहियों से नहीं जुड़ते। इस कारण मस्तिष्क को संदेश नहीं मिलते हैं। हम ब्रोकली के जीनोम में कुछ जीन जोड़कर उन्हें ऑप्टोजेनेटिक्स से ब्रोकली खाने पर भी मीठे होने जैसी अनुभूति दे सकते हैं।
नए जीन डालने पर ड्रॉसोफिला के स्वाद ग्राही के न्यूरॉन्स प्रकाश के प्रति संवेदी हो जाते हैं। अब प्रयोग में एक परिवर्तन किया गया। जब भी ड्रॉसोफिला ब्रोकली खाने के लिए आती है तभी एक लाल लाइट के जलने से मीठे स्वाद ग्राही मस्तिष्क को संदेश भेजते हैं। ब्रोकली खाने पर भी ड्रॉसोफिला को मीठे खाने जैसी ही अनुभूति होती है। प्रयोगों द्वारा पाया गया कि जीन परिवर्तित ड्रॉसोफिला अब ब्रोकली को भी केले के बराबर पसंद करने लगी थी।
क्या ऑप्टोजेनेटिक्स के द्वारा आपके बच्चे भी मिठाई की बजाय सब्ज़ियां पसंद करने लगेंगे? कही नहीं जा सकता। लेकिन ऑप्टोजेनेटिक्स की सहायता से अब दृष्टिबाधित भी देखने लगे हैं और आने वाले समय में भूलने की समस्या का निदान भी ऑप्टोजेनेटिक्स द्वारा संभव हो जाएगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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देश में लगातार फैल रहे बोतलबंद पानी के कारोबार पर संसद की स्थाई समिति ने कई सवाल खड़े किए हैं। समिति की रिपोर्ट से खुलासा हुआ है कि पेयजल के कारोबार से अरबों रुपए कमाने वाली कंपनियों से सरकार भूजल के दोहन के बदले में न तो कोई शुल्क ले रही है और न ही कोई टैक्स वसूलने का प्रावधान है। समिति ने व्यावसायिक उद्देश्य के लिए भूजल का दोहन करने वाली इन कंपनियों से भारी-भरकम जल-कर वसूलने की सिफारिश की है। समिति का विचार है कि इससे जल की बरबादी पर भी अंकुश लगेगा। भाजपा सांसद राजीव प्रताप रूडी की अध्यक्षता में जल संसाधन सम्बंधी इस समिति ने अपनी रिपोर्ट लोकसभा में पेश की है।
रिपोर्ट का शीर्षक है ‘उद्योगों द्वारा जल के व्यावसायिक दोहन के सामाजिक-आर्थिक प्रभाव’। इसमें केंद्रीय जल संसाधन, नदी विकास व गंगा संरक्षण मंत्रालय की खूब खिंचाई की गई है। समिति ने सरकार को आड़े हाथों लेते हुए कहा है कि जनता को शुद्ध पेयजल की आपूर्ति करना सरकार का नैतिक और प्राथमिक कर्तव्य है। किंतु सरकार इस दायित्व के पालन में कोताही बरत रही है।
रिपोर्ट के मुताबिक केंद्रीय भूजल प्राधिकरण (सीजीडब्ल्यूए) ने भूजल के दोहन के लिए 375 बोतलबंद पेयजल को अनापत्ति प्रमाण-पत्र दिए हैं। इसके इतर 5,873 पेयजल इकाइयों को बीआईएस से बोतलबंद पानी उत्पादन के लायसेंस मिले हैं। ये कंपनियां हर साल 1.33 करोड़ घनमीटर भूजल जमीन से निकाल रही हैं। चिंताजनक पहलू यह है कि ये कंपनियां कई ऐसे क्षेत्रों में भी जल के दोहन में लगी हैं जहां पहले से ही जल का अधिकतम दोहन हो चुका है।
समिति ने सवाल उठाया है कि न तो सरकार के पास ऐसा कोई प्रामाणिक रिकॉर्ड है कि वाकई ये इकाइयां कुल कितना पानी निकाल रही हैं और न ही इनसे किसी भी प्रकार के टैक्स की वसूली की जा रही है जबकि ये देशी-विदेशी कंपनियां करोड़ों-अरबों रुपए का मुनाफा कमा रही हैं और इनसे राजस्व प्राप्त करके जन-कल्याण में लगाने की ज़रूरत है। समिति ने यह भी सिफारिश की है कि जनता को शुद्ध और स्वच्छ जल की आपूर्ति को केवल निजी उद्योगों के हवाले नहीं छोड़ा जा सकता है।
संविधान का अनुच्छेद 21 प्रत्येक नागरिक को जीने का अधिकार देता है। लेकिन जीने की मूलभूत सुविधाओं को बिंदुवार परिभाषित नहीं किया गया है। इसीलिए आज़ादी के 70 साल बाद भी पानी की तरह भोजन, आवास, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे जीने के बुनियादी मुद्दे पूरी तरह संवैधानिक अधिकार के दायरे में नहीं आए हैं। यही वजह रही कि 2002 में केंद्र सरकार ने औद्योगिक हितों को लाभ पहुंचाने वाली ‘जल-नीति’ पारित की और निजी कंपनियों को पेयजल का व्यापार करने की छूट दे दी गई। भारतीय रेल भी ‘रेलनीर’ नामक उत्पाद लेकर बाज़ार में उतर आई।
पेयजल के इस कारोबार की शुरुआत छत्तीसगढ़ से हुई। यहां शिवनाथ नदी पर देश का पहला बोतलबंद पानी संयंत्र स्थापित किया गया। इस तरह एकतरफा कानून बनाकर समुदायों को जल के सामुदायिक अधिकार से अलग करने का सिलसिला चल निकला। यह सुविधा युरोपीय संघ के दबाव में दी गई थी। पानी को वि·ा व्यापार के दायरे में लाकर पिछले एक-डेढ़ दशक के भीतर एक-एक कर विकासशील देशों के जल रुाोत अंधाधुंध दोहन के लिए इन कंपनियों के हवाले कर दिए गए। इसी युरोपीय संघ ने दोहरा मानदंड अपनाकर ऐसे नियम-कानून बनाए हुए हैं कि वि·ा के अन्य देश पश्चिमी देशों में आकर पानी का कारोबार नहीं कर सकते हैं।
युरोपीय संघ विकासशील देशों के जल का अधिकतम दोहन करना चाहता है, ताकि इन देशों की प्राकृतिक संपदा का जल्द से जल्द नकदीकरण कर लिया जाए। पानी अब केवल पीने और सिंचाई का पानी नहीं रह गया है, बल्कि विश्व बाज़ार में ‘नीला सोना’ के रूप में तब्दील हो चुका है। पानी को लाभ का बाज़ार बनाकर एक बड़ी आबादी को जीवनदायी जल से वंचित करके आर्थिक रूप से सक्षम लोगों को जल उपभोक्ता बनाने के प्रयास हो रहे हैं। यही कारण है कि दुनिया में देखते-देखते पानी का कारोबार 40 हज़ार 500 अरब डॉलर का हो गया है।
प्रमुख राज्यों में बोतलों में भरने के लिए भूजल निकासी
प्रांत
कंपनियों की संख्या
प्रतिदिन निकासी (घन मीटर)
आंध्र प्रदेश
41
55
उत्तर-प्रदेश
111
941
गुजरात
24
—-
कर्नाटक
63
—-
तमिलनाड़ु
374
1000
भारत में पानी और पानी को शुद्ध करने के उपकरणों का बाज़ार लगातार फैल रहा है। देश में करीब 85 लाख परिवार जल शोधन उपकरणों का उपयोग करने लगे हैं। भारत में बोतल और पाउच में बंद पानी का 11 हज़ार करोड़ का बाजार तैयार हो चुका है। इसमें हर साल 40 से 50 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो रही है। देश में इस पानी के करीब एक सौ ब्रांड प्रचलन में हैं और 1200 से भी ज्यादा संयंत्र लगे हुए हैं। देश का हर बड़ा कारोबारी समूह इस व्यापार में उतरने की तैयारी में है। कंप्यूटर कंपनी माइक्रोसाफ्ट के संस्थापक बिल गेट्स भारत में ओम्नी प्रोसेसर संयंत्र लगाना चाहते हैं। इस संयंत्र से दूषित मलमूत्र से पेयजल बनाया जाएगा।
भारतीय रेल भी बोतलबंद पानी के कारोबार में शामिल है। इसकी सहायक संस्था इंडियन रेलवे कैटरिंग एंड टूरिज़्म कार्पोरेशन (आईआरसीटीसी) ‘रेल नीर’ नाम से पानी पैकिंग करती है। इसके लिए दिल्ली, पटना, चैन्नई और अमेठी सहित कई जगह संयंत्र लगे हैं। उत्तम गुणवत्ता और कीमत में कमी के कारण रेल यात्रियों के बीच यह पानी लोकप्रिय है। अलबत्ता, निजी कंपनियों की कुटिल मंशा है कि रेल नीर को घाटे के सौदे में तब्दील कराकर सरकारी क्षेत्र के इस उपक्रम को बाज़ार से बेदखल कर दिया जाए। तब कंपनियों को रेल यात्रियों के रूप में नए उपभोक्ता मिल जाएंगे।
वर्तमान में भारत दुनिया में भूजल का सबसे बड़ा उपभोक्ता देश है। यहां हर साल 250 घन किमी पानी धरती के गर्भ से खींचा जाता है, जो विश्व की कुल खपत के एक चौथाई से भी ज़्यादा है। इस पानी की खपत 60 फीसदी खेतों की सिंचाई और 40 प्रतिशत पेयजल के रूप में होती है। इस कारण 29 फीसदी भूजल के रुाोत अधिकतम दोहन की श्रेणी में आकर सूखने की कगार पर हैं। औद्योगिक इकाइयों के लिए पानी का बढ़ता दोहन इन रुाोतों के हालात और नाज़ुक बना रहा है। कई कारणों से पानी की बर्बादी भी खूब होती है। आधुनिक विकास और रहन-सहन की पश्चिमी शैली अपनाना भी पानी की बर्बादी का बड़ा कारण बन रहा है। 25 से 30 लीटर पानी सुबह मंजन करते वक्त नल खुला छोड़ देने से व्यर्थ चला जाता है। 300 से 500 लीटर पानी टब में नहाने से खर्च होता है। जबकि परंपरागत तरीके से स्नान करने में महज 25-30 लीटर पानी खर्चता है। एक शौचालय में एक बार फ्लश करने पर कम से कम दस लीटर पानी खर्च होता है। 50 से 60 लाख लीटर पानी मुंबई जैसे महानगरों में रोज़ाना वाहन धोने में खर्च हो जाता है जबकि मुंबई भी पेयजल का संकट झेल रहा है। 17 से 44 प्रतिशत पानी दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, बैंगलुरु और हैदराबाद जैसे महानगरों में वॉल्वों की खराबी से बर्बाद हो जाता है।
पेयजल की ऐसी बर्बादी और पानी के निजीकरण पर अंकुश लगाने की बजाय सरकारें पानी को बेचने की फिराक में ऐसे कानूनी उपाय लागू करने को तत्पर हैं। संयुक्त राष्ट्र भी कमोबेश इसी विचार को समर्थन देता दिख रहा है। हालांकि संयुक्त राष्ट्र ने पानी और स्वच्छता को बुनियादी मानवाधिकार घोषित किया हुआ है लेकिन इस बाबत उसके अजेंडे में पानी एवं स्वच्छता के अधिकार का वास्ता मुफ्त में मिलने से कतई नहीं है। बल्कि इसका मतलब यह है कि ये सेवाएं सबको सस्ती दर पर हासिल हों। साफ है, पानी को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बाज़ार के हवाले करने की साजि़श रची जा रही है। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://guardian.ng/wp-content/uploads/2016/12/stored-bottled-water.jpg
पी.जी. वुडहाउस के प्रशंसकों को याद होगा कि ऑन्ट डहलिया कहानी के नायक बर्टी वूस्टर को उनकी अपनी साप्ताहिक पत्रिका “मिलेडीज़ बुडवार” के लिए “what the well dressed man is wearing” (बने–ठने आदमी ने क्या पहना है?) विषय पर लेख लिखने को राज़ी कर लेती हैं। यह बात 1920 के दशक की है और तब लोगों के पास फुरसत के पल भी थे। पर आज, लगभग 100 साल बाद, भागदौड़ भरा समय है। और हाल ही में साइंस न्यूज़ नामक पाक्षिक पत्रिका ने “फैशन फॉरवर्ड – आधुनिक वस्त्र उद्योग परिधानों में गैजेट्स लगा सकेगा” नामक एक लेख प्रकाशित किया है। इसकी लेखक मारिया टेमिंग और मारियाह क्वांटानिला हैं।
मारिया और मारियाह ने अपने इस लेख में आने वाले समय में गैजेट से लैस ‘स्मार्ट’कपड़ों के बारे में लिखा है। उन्होंने अमेरिका में हुई तकनीकी बैठक में कई डेवलपर्स और अन्वेषकों द्वारा प्रस्तुत कुछ उदाहरण दिए हैं। लेख के कुछ अंश प्रस्तुत हैं।
रंग बदलते कपड़े
साठ–सत्तर साल पहले ‘ब्लीडिंग मद्रास’कहलाने वाली शर्ट बिकती थी। यह हर धुलाई पर रंग बदलती थी (और रंग हल्का पड़ता जाता था)। पर यहां जिन कपड़ों के बारे में बात की जा रही है वे धोने पर नहीं बल्कि रोशनी (सूरज वगैरह की रोशनी) पड़ने पर रंग बदलते हैं और यह बदलाव पलटा जा सकता है। इसके लिए पहनने वाले को अपने स्मार्टफोन के स्क्रीन को क्लिक करना होता है। पर यह रंग बदलता कैसे है?
दरअसल इन कपड़ों को बनाने के लिए ऐसे धागों का उपयोग किया जाता है जिनमें तांबे के अत्यंत पतले तार पॉलीस्टर (या नायलॉन) में लिपटे होते हैं। पॉलीस्टर के रेशों पर रंजक (पिगमेंट) होते हैं, ठीक उसी तरह जैसे सामान्य कपड़ों पर होते हैं। परिधान इन्हीं रंजक युक्त धागों से बनाए जाते हैं, और इन परिधानों पर छोटी बैटरी भी लगी होती है। यह बैटरी धागे में लिपटे तांबे के तार को गर्म करती है। परिधान पहना व्यक्ति अपने स्मार्टफोन से एक वाई–फाई सिग्नल भेजता है, तो बैटरी चालू हो जाती है और तांबे का तार गर्म होने लगता है। इसके चलते कपड़े का रंग बदल जाता है या कपड़े पर नया पैटर्न (धारियां, चौखाने वगैरह) उभर आता है। अमेरिका स्थित सेंट्रल फ्लोरिडा विश्वविद्यालय के डॉ. जोशुआ कॉफमैन और डॉ. अयमान अबॉरेड्डी द्वारा बनाए ये कपड़े, बैग और अन्य चीज़ें जल्द ही बाज़ार में पहुंच जाएंगी।
गुजरात और राजस्थान की महिलाएं वहां की पारंपरिक पोशाक लहंगा या घाघरा पहनती हैं, इनमें छोटे–छोटे कांच जड़े होते हैं। जब इन कांच के टुकड़ों पर रोशनी पड़ती है तो ये चमकते हैं। पर अब जल्द ही इन कपड़ों का हाई–टेक संस्करण आएगा जिनमें कपड़ों पर पारंपरिक निर्जीव कांच की जगह जलते–बुझते एलईडी लगे होंगे जो प्रकाश उत्सर्जित करेंगे। इन एलईडी को शोधकर्ताओं ने ओएलईडी का नाम दिया है। ये ओएलईडी पॉलीस्टर कपड़े पर ही बनाए जाते हैं और परंपरागत एलईडी की तुलना में कहीं अधिक लचीले होते हैं। इसे दक्षिण कोरिया के डीजॉन में कोरिया एडवांस्ड इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के डॉ. एस. क्वोन और उनके सहयोगियों ने विकसित किया है। स्मार्टफोन से विद्युत सिग्नल भेजकर इन ओएलईडी को चालू करके कपड़ों को रोशन किया जा सकता है। इस तरह कपड़ों पर पैटर्न, संदेश वगैरह बनाए जा सकते है या रात में पैदल चलने वाले राहगीरों के लिए रोशनी की जा सकती है।
तेज़ चाल से चलने या दौड़ने के बाद हमें गर्मी लगती है – चलने–फिरने से ऊष्मीय ऊर्जा उत्पन्न होती है। इसी तरह कुछ देर धूप में खड़े रहने पर भी हमें गर्मी लगती है, उर्जा उत्पन्न होती है। यह ऊर्जा गर्मी के रूप में खो जाती है। इस तरह गर्मी के माध्यम से ऊर्जा खोने की बजाय क्या हम इस गर्मी या शरीर की गति को विद्युत उर्जा में परिवर्तित कर सकते हैं? इस सवाल पर स्टैनफोर्ड और जॉर्जिया टेक विश्वविद्यालय के डॉ. जून चेन और डॉ. झोंग लिन वांग ने काम किया है। उन्होंने कपडों में फोटोवोल्टेइक तार गूंथ दिए। इन तारों पर सूर्य का प्रकाश पड़ने पर वे सोलर सेल की तरह, कुछ मात्रा में बिजली उत्पन्न कर सकते हैं। इस बिजली को कपड़ों में लगी बैटरी में स्टोर किया जा सकता है। डॉ. चेन का कहना है कि आपकी टी–शर्ट पर सौर सेल कपड़े का 4 सेमी × 5 सेमी टुकड़ा सिल दिया जाए, और आप सूर्य की रोशनी में दौड़ें तो एक सेलफोन चार्ज करने लायक बिजली उत्पन्न की जा सकती है। सोचिए अगर आपने पूरी तरह इस कपड़े से बनी शर्ट या जैकेट पहनी हो तब!
डॉ. चेन ने एक और विशेष प्रकार के पॉलीमर या बहुलक (जिसे पीटीएफई कहा जाता है) से कपड़ा तैयार किया है। यह शरीर की गति से उत्पन्न उर्जा को सोखता है और इसे विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित करता है। मारिया और मारियाह लिखती हैं: “इस तरह के ऊर्जा उत्पन्न करने वाले यंत्र तंबुओं में भी लगाए जा सकते हैं। इन पर सूरज की रोशनी पड़ने या हवा के चलने पर ये शिविर में रहने वाले लोगों के उपकरणों को चार्ज कर सकते हैं।”
मारिया और मारियाह का यह लेख इंटरनेट पर (https://www.sciencenews.org/article/future-smart-clothes-could-pack-serious-gadgetry) मुफ्त में उपलब्ध है और अत्यंत पठनीय है। लेख में और भी ऐसे अध्ययनों का उल्लेख किया गया है जो इस तरह के उपकरणों के माध्यम से पर्यावरण की ऊर्जा को विद्युत उर्जा में परिवर्तित करके संग्रहित कर उसका उपयोग करते हैं।
हल्के–फुल्के सेल फोन
कुछ लोग भारी भरकम सेलफोन संभालने के बजाए कलाई में पहने जाने वाले फोन उपयोग करना पसंद कर रहे हैं। कुछ लोग लैपटॉप की जगह स्मार्टफोन का उपयोग करने लगे हैं। (हाल ही में नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो. मार्टिन चाफी ने हैदराबाद में तीन अलग–अलग व्याख्यान दिए। व्याख्यान से जुड़ी स्लाइड, फिल्में वगैरह लैपटाप में नहीं स्मार्टफोन में थीं। पहनने योग्य उपकरण (कम्प्यूटर तक) तेज़ी से लोकप्रिय और सुविधाजनक हो जाएंगे। इन्हें अब आपके कपड़ों में लगे उपकरणों की मदद से चार्ज किया जा सकेगा। तो देखते हैं, अगले साल का फैशन क्या होगा।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ब्रिटेन के अधिकांश टापू चूने (चॉक) के टीले हैं। यह चूना प्राचीन ठोस चट्टानों पर जमा होता गया है और इसके ऊपर मिट्टी की परत है। सिर्फ सेलिसबरी और डॉवर में ही चूने की इस परत पर मिट्टी की परत नहीं है और यहां इन चट्टानों की सफेदी दिखाई पड़ती है। चॉक की यह दीवार इंग्लिश चैनल के नीचे-नीचे पूर्व की ओर फैली हुई है और फ्रांस के तट पर कैप ग्रिस नेज़ में एक बार फिर ऊपर उभरती है। माना जाता है कि कभी डॉवर से लेकर कैप ग्रिस नेज़ तक यह एक पूरी पर्वत श्रृंखला रही होगी। इस पर्वत श्रृंखला में दरार कैसे पड़ी, इसको लेकर अटकलें ही रही हैं।
जिस सप्ताह प्रधान मंत्री टेरेसा मे ने युरोपीय संघ से ब्रिटेन के आर्थिक अलगाव का प्रस्ताव रखा था, उसी सप्ताह संजीव गुप्ता और उनके साथी शोधकर्ताओं ने नेचर कम्युनिकेशंस पत्रिका में रिपोर्ट किया था कि इस मामले में हमारी समझ बेहतर हुई है कि कैसे भौतिक चॉक कनेक्शन में टूटन हुई और यूरोप और ब्रिटेन के बीच इंगलिश चैनल के लिए जगह तैयार हुई थी। गुप्ता व साथियों के अनुसार, यह ब्रेक्सिट 1.0 था जिस पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया था।
उत्तर-पूर्वी फ्रांस तक फैली हुई डॉवर की सफेद क्लिफ लगभग दस करोड़ वर्ष पूर्व नीचे की चट्टानों पर जमना शुरु हुई थी। उस वक्त दुनिया अपेक्षाकृत गर्म थी और यह इलाका समुद्र में डूबा हुआ था। एक-कोशिकीय समुद्री शैवाल की कैल्शियम कार्बोनेट से बनी खोल (कोकोलिथ) समुद्र की तलछटी में जमने लगी और धीरे-धीरे चॉक के बड़े-बड़े टीले बन गए जो आज ब्रिटेन के अधिकांश हिस्से में पाए जाते हैं। जब पृथ्वी की ऊपरी परत (भू-पर्पटी) ऊपर उठने लगी और तापमान में गिरावट की वजह से समुद्र का पानी उतरने लगा तो ये टीले दिखाई देने लगे। इस तरह ब्रिटेन द्वीप चॉक की पर्वत श्रृंखला से युरोप से जुड़ गया। और लगभग साढ़े चार लाख वर्ष पूर्व हिमयुग के दौरान पानी और भी कम होता गया और इंग्लिश चैनल सूख-सी गई और बर्फीली ज़मीन पर झाड़ियां पनपने लगीं।
चॉक की पर्वत श्रृंखला और इंग्लिश चैनल कैसे बनी, इसके बारे में वर्तमान समझ यह है कि आइसबर्ग (हिमपर्वतों) के पिघलने के कारण उत्तरी सागर में विशाल तालाब बन गया होगा और चूने की दीवार ने पानी को दक्षिण की ओर, युरोप व ब्रिटेन के बीच पहुंचने से रोक दिया होगा। बर्फ के लगातार पिघलने और नदियों के बहाव के कारण पानी छलकने लगा होगा और दीवार टूट गई होगी। दीवार के टूटने से ढेर सारा पानी बहने लगा होगा, जिसे महाबाढ़ कहते हैं। गुप्ता व साथियों के उक्त शोध पत्र के अनुसार इंग्लिश चैनल की तलछटी में बनी कई घाटियां इस ओर इशारा करती हैं कि वे पानी के तेज़ बहाव के कारण बनी होंगी। शोध पत्र के अनुसार पूर्व में इन घाटियों की व्याख्या पिघलते हिमनदों से उत्पन्न पानी की वजह से आई ‘विनाशकारी बाढ़’ के परिणाम के आधार पर की गई थी।
इस बारे में कुछ अन्य मॉडल भी हैं जो कम विनाशकारी हैं और अचानक चूने की दीवार टूटने पर आधारित नहीं हैं। इन मॉडल्स में चूने की चट्टान के उत्तर में किसी झील बनने का विचार नहीं है। या इन मॉडल्स में निचले इलाके में बनी घाटियों की भी अन्य व्याख्याएं हैं। अलबत्ता, इन मॉडल का परीक्षण नहीं हो पाया है क्योंकि जिन जगहों पर चूने की पर्वत श्रृंखला फूटने की बात कही जा रही है, वहां के समुद्री पेंदे के बारे में भूगर्भीय जानकारी बहुत कम है।
इंग्लिश चैनल के समुद्री पेंदे के बारे में पहली महत्वपूर्ण जानकारी तब पता चली जब इंग्लैंड और फ्रांस के बीच समुद्र के अंदर से रेल सुरंग बनाने के लिए सर्वेक्षण किया जा रहा था। इंग्लैड और फ्रांस को जोड़ती हुई इंग्लिश चैनल में यह सुरंग समुद्र के पेंदे से 75 मीटर नीचे है। सर्वेक्षण के दौरान चट्टान में कई किलोमीटर लंबे-लंबे गड्ढों के बारे में पता चला। ये गड्ढे रेत और बजरी से भरे हुए थे। इन गड्ढों को फोसे डेनगीयर्ड (फोसे का मतलब होता है गहरा) नाम दिया गया। ये गड्ढे कैसे पड़े यह तो समझ में नहीं आया लेकिन सुरंग के मार्ग में बदलाव करना पड़ा। चट्टान में इन गड्ढों के होने के पीछे एक कारण जल प्रपातों को बताया गया। यह विचार लगभग सही था किंतु उस समय ज़्यादा प्रमाण या जानकारी ना होने की वजह से इस विचार को छोड़ दिया गया था।
जानकारी की राह
नेचर कम्युनिकेशंस में लेखकों ने अब किया यह है कि समुद्री पेंदे के मानचित्रों, भूभौतिकी सूचनाओं और चट्टानी धरातल के मानचित्र से प्राप्त सारी नवीनतम जानकारियों को एक साथ रखकर देखा है। ये जानकारियां समुद्र के पेंदे पर शॉक तरंगें भेजकर परावर्तित होकर आई तरंगों के आधार पर प्राप्त की गई हैं। शोधकर्ताओं ने इन सारी जानकारियों को जोड़कर एक व्याख्या विकसित करने का प्रयास किया है।
विभिन्न स्थानों पर समुद्र की गहराइयों का नक्शा समुद्र के पेंदे का सोनार सर्वेक्षण करके बनाया गया था। दूसरी ओर, धरातल की चट्टानों का नक्शा परावर्तित भूकंपीय तरंगों का उपयोग करके बनाया गया था। समुद्री पेंदे से होकर गुज़रने वाला कम्पन्न जब धरातल की चट्टानों से टकराता है तो आंशिक रूप से परावर्तित होता है। परावर्तित तरंगों की मदद से परावर्तन करने वाली सतह की संरचना बना ली जाती है।
समुद्र पेंदे की गहराई के मानचित्र से बहाव के पथ – लोबोर्ग चैनल – पता चलता है। लोबोर्ग चैनल डॉवर जलडमरुमध्य से होती हुई घाटियों का एक नेटवर्क कुरेदते हुए आगे दक्षिण-पश्चिम में जाती है। लोबोर्ग चैनल और घाटियों के नेटवर्क से लगता है कि वे एक ही ड्रेनेज सिस्टम का हिस्सा हैं। इसके आगे डॉवर जलडमरुमध्य के बीच में 1 कि.मी. से 4 कि.मी. चौड़े रहस्यमय गड्ढे हैं। फोसे डेनगीयर्ड नामक इस समूह में सात मुख्य गड्ढे हैं जो लगभग 140 मीटर गहरे हैं और इनकी ढ़लान 15 डिग्री की है।
लंदन स्थित बैडफोर्ड कॉलेज के प्रोफेसर एलेक स्मिथ का कहना है कि इन गड्ढों में जमी तलछट की जमावट और संघटन से पता चलता है कि वे कई कि.मी. लंबे जलप्रपात के कारण बने होंगे। इतने गहरे गड्ढों का बनना पानी के बहाव या लहरों के कारण अपरदन से संभव नहीं है। शोध पत्र के अनुसार, इन गड्ढों की गहराई को देखते हुए लगता है कि जल-प्रपात काफी ऊंचाई से नीचे गिरता होगा।
तो तस्वीर कुछ इस तरह है – चूने की एक पर्वत श्रृंखला थी जो ब्रिाटेन को फ्रांस से जोड़ती थी। यह पर्वत श्रृंखला साइबेरिया के बर्फीले टुंड्रा प्रदेश की तरह दिखती थी जबकि आज यह काफी हरी-भरी है। यह एक ठंडी दुनिया थी जिसमें जगह-जगह ऊंचाई से डॉवर की सफेद चॉक चट्टान पर जलप्रपात गिरते थे। गिरते जलप्रपात की यह धारणा चट्टान में गड्ढों की व्याख्या कर देता है। मगर यह शायद पहला चरण मात्र था। इसके बाद दूसरा चरण आया जब दीवार टूटी और बाढ़ आई। इसके कारण उत्पन्न तेज़ बहाव के कारण घाटियों का नेटवर्क बना। ऐसा प्रतीत होता है कि शायद बर्फ की चादर का एक बड़ा हिस्सा टूटकर झील में गिर गया था जिसकी वजह से पानी में तेज़ हिलोरें उठी होगी जिससे चूने की पर्वत श्रृंखला के ऊपर से पानी के गिरने का रास्ता बना होगा… भूकंप ने पर्वत श्रृंखला को कमज़ोर कर दिया… और वह टूट गई होगी।
डॉवर जलडमरुमध्य के बनने की बेहतर समझ से यह समझने में मदद मिली है कि उत्तर पश्चिमी युरोप से पिघला हुआ पानी उत्तरी अटलांटिक में कैसे पहुंचा होगा। शोधकर्ताओं के मुताबिक यह समझना भी मददगार होगा कि ब्रिटेन युरोप के मुख्य भूभाग से कब अलग हुआ और इंसानों ने यहां कब बसना शुरू किया। ((स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।