हिमशैल (आइसबर्ग) से पीने का पानी

स्वालबर्डी ब्रांड अपने बोतलबंद ठंडे पानी का स्वाद “मुंह में बर्फ (स्नो) के एहसास” जैसा बताता है, जो उत्तरी ध्रुव से 1000 किलोमीटर दूर के एक हिमशैल को पिघलाकर तैयार किया जाता है। इसे नॉर्वे के स्वालबर्ड द्वीपसमूह के एक छोटे से महानगर लॉन्गइयरब्येन में बोतलबंद किया जाता है। स्वालबर्डी का बोतलबंद पानी लंदन, सिडनी, फ्लोरिडा और मकाऊ में समृद्ध स्थानों पर पहुंचाया जाता है। ‘आर्कटिक को बचाने के लिए आर्कटिक का स्वाद चखें’ यह बात बोलती इसकी वेबसाइट अपने पानी में कार्बन उदासीनता का बखान करती है, और 750 मिलीलीटर की पानी बोतल 107 डॉलर (8836 रुपए) में ऑनलाइन बेचती है।

इस कीमत का पानी दुनिया के अधिकांश लोगों की पहुंच से बहुत दूर है। इनमें वे भी शामिल हैं जिनके पास सुरक्षित और साफ पेयजल का अभाव है। कानून, संस्कृति और मानविकी के विशेषज्ञ मैथ्यू बर्कहोल्ड अपनी पुस्तक चेज़िंग आइसबर्ग्स में लिखते हैं कि क्या दुनिया की प्यास को हिमशैल और हिम-टोपियों में कैद विश्व के दो-तिहाई मीठे-साफ पानी से बुझाना संभव है?

कुछ लोग पहले से ही इस काम में लगे हुए हैं – न सिर्फ स्वालबर्डी जैसी कंपनियां जो विलासी प्यास बुझाने का काम रही हैं, बल्कि वहां भी जहां साफ पानी की कमी है। बर्कहोल्ड ने न्यूफाउंडलैंड के ‘आइसबर्ग काउबॉय’ एड कीन से साक्षात्कार किया, जो बर्फीले समुद्र से हिमशिलाओं को लाते हैं और सौंदर्य प्रसाधन कंपनियों और शराब निर्माता कंपनियों को इसका पानी बेचते हैं। गौरतलब है कि ग्रीनलैंड के सबसे उत्तरी शहर कानाक में सार्वजनिक जल आपूर्ति हिमशिला के पिघले हुए पानी को फिल्टर और उपचारित करके की जाती है।

यह विचार कहां से आया? एक अनुमान है कि अंटार्कटिका से हर साल करीब 2300 घन किलोमीटर बर्फ टूटकर अलग होती है। 2022 की संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार आर्कटिक और अंटार्कटिक से हर साल 1,00,000 से अधिक हिमशिलाएं पिघलकर समुद्र में पहुंचती हैं। लगभग 11.3 करोड़ टन का एक हिमशैल अंटार्कटिका से दक्षिण अफ्रीका के केप टाउन तक खींचकर लाने से एक वर्ष के लिए इस शहर की 20 प्रतिशत पानी की आपूर्ति हो सकती है। तो फिर क्यों न यही किया जाए?

बर्कहोल्ड लिखते हैं कि इस किताब को लिखने के लिए मैंने दर्जनों वैज्ञानिकों से बात की है। और वे सभी हिमशैल से पेयजल लेने के बारे में संशय में है। पुरापाषाण विज्ञानी एलेन मोस्ले-थॉम्पसन ने अंटार्कटिका से हिमशैल निकाल लाने के नौ अभियानों और ग्रीनलैंड में छह अभियानों का नेतृत्व किया है। लेकिन फिर भी वे इस कार्य को लेकर संशय में हैं।

केप टाउन योजना बनाने वाले निक स्लोन थोड़े कम आशंकित लगते हैं। उनकी हिमनद विशेषज्ञों, इंजीनियरों और समुद्र विज्ञानियों की टीम सर्वश्रेष्ठ हिमशैल को खोजने के लिए उपग्रह डैटा का उपयोग करेगी। फिर हिमशैल को एक विशाल जाल से पकड़ कर टगबोट द्वारा शक्तिशाली अंटार्कटिक परिध्रुवीय धारा तक खींचकर लाएगी, और वहां से इसे उत्तर की ओर बहती हुई बेंगुएला धारा में ले जाएगी।

स्लोन का अनुमान है कि इसमें तकरीबन 10 करोड़ डॉलर की लागत आएगी। इसके अलावा अतिरिक्त 5 करोड़ डॉलर की लागत बर्फ को पिघलाने में और मीठे पानी को ज़मीन तक भेजने में आएगी, बशर्ते हिमशैल समुद्र में न तो पिघले और न ही रास्ता भटके। लेकिन केप टाउन के अधिकारी इस काम के लिए कम उत्साही दिखे।

स्लोन की इस योजना पर अभी तक अमल नहीं हुआ है। इस बीच, बर्लिन की एक कंपनी पोलवाटर लगभग एक दशक से इसी तरह की योजना – जमे हुए मीठे पानी को अफ्रीका और कैरिबियन के पश्चिमी तट पर रहने वाले सख्त ज़रूरतमंद लोगों तक पहुंचाने की योजना पर काम कर रही है। वे भी उम्दा हिमशैलों का पता उपग्रह डैटा की मदद से लगाएंगे। लेकिन इनका पता लगने के बाद उनकी योजना पिघले हुए पानी को आसानी से परिवहनीय विशाल बैग में भरने की है।

फिर संयुक्त अरब अमीरात का आइसबर्ग प्रोजेक्ट है, जो आविष्कारक अब्दुल्ला अलशेही का सपना है: हिमशैल को अंटार्कटिक से फुजैराह तट पर लाना। प्रचार सामग्री में पेंगुइन और ध्रुवीय भालू – दोनों अलग-अलग ध्रुव के जीव – हिमशैल पर उदास खड़े दिखाई देते हैं। अलशेही का कहना है खारे समुद्री पानी को लवणमुक्त करके मीठे पानी में बदलने की तुलना में हिमशैलों को यहां लाना सस्ता होगा।

लवणमुक्ति से हर साल वैश्विक स्तर पर कम से कम 35 ट्रिलियन लीटर पेयजल प्राप्त किया जाता है। बर्कहोल्ड बताते हैं कि यह कई जगहों पर अत्यधिक महंगा है। यह ऊर्जा के लिए जीवाश्म ईंधनों पर निर्भर करता है, और इसके द्वारा निकला अतिरिक्त लवण वापस समुद्र में ही डाला जाता है जो समुद्र को प्रदूषित करता है। लेकिन वे ऐसे विकल्पों की ज़्यादा बात नहीं करते जो संभवत: हिमशैल खींचकर लाने की तुलना में बेहतर हैं, जैसे अपशिष्ट जल का पुनर्चक्रण (रीयसाकलिंग) या फसल सिंचाई के लिए खारे पानी की आपूर्ति। वे पानी के अन्य स्रोतों, जैसे कोहरे से पानी के दोहन पर कोई आंकड़े नहीं देते। इन स्रोतों का उपयोग चिली, मोरक्को और दक्षिण अफ्रीका के दूरस्थ समुदायों द्वारा किया जाता है। और न ही वे पानी की बर्बादी को कम करने या पानी के उपयोग को अधिक कार्यकुशल बनाने के बारे में बात करते हैं।

बर्कहोल्ड का अनुमान है कि यदि हिमशैल से पानी का दोहन सफल हो जाता है, तो पानी के प्यासे बड़े-बड़े उद्यमी अपनी मुनाफा-कमाऊ सोच के साथ यहां आएंगे। हिमशैल के दोहन या उपयोग को लेकर नियम-कानून बहुत कम है: कुछ राष्ट्रीय कानून हिमशैल के उपयोग पर बात करते हैं, लेकिन ऐसा कोई अंतर्राष्ट्रीय नियम या समझौता नहीं है जो यह स्पष्ट करता हो कि कौन मीठे पानी के इस स्रोत का किस तरह इस्तेमाल कर सकता है या बेच सकता है।

यदि इनका निष्पक्ष रूप से उपयोग किया जाना है, तो हमें यह तय करना होगा कि न्यायसंगत तरीके से हिमशैलों का उपयोग कौन, कैसे और कितना कर सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भूगर्भीय धरोहर कानून से शोध समुदाय में हलचल

हाल ही में मध्य प्रदेश के धार जिले में एक नीड़ स्थल से वैज्ञानिकों ने टाइटेनोसौर के 256 अंडे खोज निकाले हैं। इस नई खोज ने एक बार फिर भारत में विशाल भूगर्भीय और जीवाश्म संपदा की उपस्थिति का संकेत दिया है। लेकिन भूगर्भीय धरोहर सम्बंधी विधेयक के हालिया मसौदे से वैज्ञानिक इन विरासतों तक पहुंच, उनके संरक्षण और जन शिक्षण में उपयोग को लेकर काफी चिंतित हैं।

इस विधेयक में भारत के भूगर्भ वैज्ञानिक स्थलों और जीवाश्मों की रक्षा, किसी स्थल को राष्ट्रीय महत्व का घोषित करने और उनके रखरखाव का अधिकार केंद्र सरकार को दिया गया है। विधेयक में ऐसे स्थलों को नष्ट या विरूपित करने पर भारी दंड का प्रावधान भी रखा गया है। लंबे समय से अपेक्षित भू-विरासत कानून का कई वैज्ञानिकों ने समर्थन किया है। जीवाश्मों की लूटपाट रोकने के लिए जीवाश्म वैज्ञानिकों ने एक कानून बनाने के लिए काफी संघर्ष किया है।

लेकिन कई वैज्ञानिक इस विधेयक में भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई) को अत्यधिक शक्ति देने को लेकर चिंतित हैं। उनके अनुसार यह विधेयक जीएसआई को तलछट, चट्टानों, खनिजों, उल्कापिंडों और जीवाश्मों सहित भूवैज्ञानिक महत्व के स्थलों को नियंत्रित करने और पहुंच को सीमित करने का अधिकार देता है। शोधकर्ताओं को अंदेशा है कि जीएसआई के एकाधिकार से नौकरशाही को बढ़ावा मिलेगा और ऐसी सामग्री पर विश्वविद्यालयों तथा शोध संस्थानों सहित निजी-संग्राहकों की स्वायत्तता खत्म हो जाएगी।

टाइटेनोसौर के अंडों की खोज करने वाली टीम के प्रमुख गुंटूपल्ली वी. आर. प्रसाद भी जीएसआई को दिए गए व्यापक अधिकारों से चिंतित हैं। भू-विरासतों का अध्ययन करने वाले गैर-जीएसआई शोधकर्ताओं तथा अन्य व्यक्तिगत अध्ययनकर्ताओं का शोध कार्य प्रभावित होगा। प्रसाद, दरअसल, भू-विरासतों के निरीक्षण के लिए एक स्वतंत्र बोर्ड बनाने के पक्ष में हैं जिसमें विभिन्न हितधारक शामिल हों।

2019 में सोसाइटी ऑफ अर्थ साइंस (एसओईएस) द्वारा तैयार मसौदे में भी यही सुझाव दिया गया था। इसमें एक राष्ट्रीय भू-विरासत प्राधिकरण के तहत जीएसआई, कई मंत्रालयों, स्वतंत्र विशेषज्ञों और राज्य के भू-धरोहर विभागों को शामिल करने का विचार रखा गया था। इसमें वैज्ञानिक उद्देश्यों के लिए नए प्राधिकरण द्वारा स्थलों तक पहुंच प्रदान करने का भी प्रावधान था। वैसे तो हालिया मसौदा एसओईएस के उसी मसौदे पर आधारित है लेकिन इसमें कई महत्वपूर्ण बदलाव किए गए हैं। खास तौर से, विभिन्न हितधारकों की भागीदारी को खत्म कर दिया गया है।   

जीएसआई द्वारा नियंत्रण के मुद्दे से हटकर भू-विरासत के प्रबंधन को लेकर भी गंभीर सवाल उठाए गए हैं। जीएसआई द्वारा संरक्षित कुछ स्थलों का रख-रखाव ठीक ढंग से नहीं किया जा रहा है। इन स्थलों से जीवाश्मों की चोरी की रिपोर्टें सामने आई हैं। इसके अलावा जीएसआई ने अपने कब्ज़े में रखी काफी सामग्री खो दी है।   

विधेयक ने निजी संरक्षकों में भी डर की स्थिति पैदा की है जो कई वर्षों से जीवाश्म एकत्रित करने और निजी संग्रहालय बनाने का काम करते आए हैं। देखा जाए तो इस नए विधेयक के तहत जीएसआई उनके जीवनभर के कामों पर अपना दावा कर सकता है। अचानक ये संरक्षक अपराधी हो जाएंगे। संभावना यह है कि वन विभागों द्वारा संचालित जीवाश्म संग्रहालय भी जीएसआई के नियंत्रण में आ जाएंगे।

वैसे कई वैज्ञानिकों का मत है कि जीएसआई ने उनको और उनके सहयोगियों को ऐसे जीवाश्म नमूनों तक पहुंचने में मदद दी जिन्हें गुम मान लिया गया था। उसी की मदद से टाइटेनोसॉरस इंडिकस के जीवाश्मों को फिर से खोज निकाला गया जो 1828 में भारत में पाए गए थे, लेकिन बाद में गुम हो गए थे। शोधकर्ताओं को कोलकाता स्थित जीएसआई मुख्यालय में अन्य विशाल कशेरुक जीवाश्म संग्रहों के बीच ये जीवाश्म मिले थे।

बहरहाल वैज्ञानिक मानते हैं कि इन स्थलों तक शोधकर्ताओं की पहुंच की प्रक्रिया को पारदर्शी, समयबद्ध और सुव्यवस्थित होना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जोशीमठ: सुरंगों से हिमालय में हुई तबाही का नतीजा – प्रमोद भार्गव

मूचे हिमालय क्षेत्र में बीते एक दशक से जल विद्युत संयंत्रों और रेल परियोजनाओं की बाढ़ आई हुई है। इन योजनाओं के तहत हिमालय क्षेत्र में रेल यातायात और कई छोटी हिमालयी नदियों को बड़ी नदियों में डालने के लिए सुरंगें निर्मित की जा रही हैं। बिजली परियोजनाओं के लिए जो संयंत्र लग रहे हैं, उनके लिए हिमालय को खोखला किया जा रहा है। इस अनियोजित आधुनिक औद्योगिक और प्रौद्योगिकी विकास का ही परिणाम है कि आज हिमालय दरकने लगा है जहां मानव बसाहटें जीवन-यापन करने के साथ हिमालय और वहां रहने वाले अन्य जीव-जगत की भी रक्षा करती चली आ रही थीं। हमने कथित भौतिक सुविधाओं के लिए अपने आधार को ही नष्ट किया और उसे विकास का नाम दे दिया। जोशीमठ संकट इसी ‘विकास’ का नतीजा है।

उत्तराखंड के चमोली ज़िले में स्थित जोशीमठ शहर ने कई अप्रिय कारणों से नीति-नियंताओं का ध्यान अपनी ओर खींचा है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा जारी उपग्रह तस्वीरों ने जोशीमठ के बारह दिनों में 5.4 सेंटीमीटर धंस जाने की जानकारी दी है। धंसती धरती की इस सच्चाई को छिपाने के लिए राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण और उत्तराखंड सरकार ने इसरो समेत कई सरकारी संस्थानों को निर्देश दिया है कि वे मीडिया के साथ जानकारी साझा न करें। नतीजतन इसरो की बेवसाइट से ये चित्र हटा दिए गए हैं। सरकार का यह उपाय भूलों से सबक लेने की बजाय उन पर धूल डालने जैसा है।

भारत सरकार और राज्य सरकार ने स्थानीय लोगों के विरोध के बावजूद हठपूर्वक पर्यावरण के प्रतिकूल जिन विकास योजनाओं को चुना है, उनके चलते यदि लोग अपने गांव और आजीविका के साधनों से हाथ धो रहे हैं, तो सवाल है कि ये परियोजनाएं किसलिए और किसके लिए हैं?

नेशनल थर्मल पॉवर कॉर्पोरेशन  तथा रेल और बिजली के विकास से जुड़ी तमाम कंपनियों का दावा है कि धरती धंसने में निर्माणाधीन परियोजनाओं की कोई भूमिका नहीं है।

उत्तराखंड में गंगा और उसकी सहायक नदियों पर एक लाख तीस हज़ार करोड़ की जल विद्युत परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं। इन संयंत्रों की स्थापना के लिए लाखों पेड़ों को काटने के बाद पहाड़ों को निर्ममता से छलनी किया जा रहा है और नदियों पर बांध निर्माण के लिए नींव हेतु गहरे गड्ढे खोदकर खंभे व दीवारें खड़े किए जा रहे हैं। कई जगह सुरंगें बनाकर पानी की धार को संयंत्र के टर्बाइन पर डालने के उपाय किए गए हैं। इन गड्ढों और सुरंगों की खुदाई में ड्रिल मशीनों से जो कंपन होता है, वह पहाड़ की परतों की दरारों को खाली कर देता है और पेड़ों की जड़ों से जो पहाड़ गुंथे होते हैं, उनकी पकड़ भी इस कंपन से ढीली पड़ जाती है। नतीजतन तेज़ बारिश के चलते पहाड़ों के ढहने और हिमखंडों के टूटने की घटनाएं पूरे हिमालय क्षेत्र में लगातार बढ़ रही हैं। यही नहीं, कठोर पत्थरों को तोड़ने के लिए किए जा रहे भीषण विस्फोट भी हिमालय को थर्रा रहे हैं।

हिमालय में अनेक रेल परियोजनाएं भी निर्माणाधीन हैं। सबसे बड़ी रेल परियोजना के कारण उत्तराखंड के चार ज़िलों (टिहरी, पौड़ी, रुद्रप्रयाग और चमोली) के तीस से ज़्यादा गांवों को विकास की कीमत चुकानी पड़ रही है। छह हज़ार परिवार विस्थापन की चपेट में आ गए हैं। रुद्रप्रयाग ज़िले के मरोड़ा गांव के सभी घर दरक गए हैं। रेल विभाग ने इनके विस्थापन की तैयारी कर ली है। यदि ये विकास इसी तरह जारी रहते हैं तो बर्बादी का नक्शा बहुत विस्तृत होगा। दरअसल ऋषिकेश से कर्णप्रयाग रेल परियोजना 125 किमी लंबी है। इसके लिए सबसे लंबी सुरंग देवप्रयाग से जनासू तक बनाई जा रही है, जो 14.8 कि.मी. लंबी है। केवल इसी सुरंग का निर्माण बोरिंग मशीन से किया जा रहा है। बाकी 15 सुरंगों में ड्रिल तकनीक से बारूद लगाकर विस्फोट किए जा रहे हैं। इस परियोजना का दूसरा चरण कर्णप्रयाग से जोशीमठ की बजाय अब पीपलकोठी तक होगा। भू-गर्भीय सर्वेक्षण के बाद रेल विकास निगम ने जोशीमठ क्षेत्र की भौगोलिक संरचना को परियोजना के अनुकूल नहीं पाया था। अच्छी बात है कि अब इस परियोजना का अंतिम पड़ाव पीपलकोठी कर दिया है। हिमालय की ठोस व कठोर अंदरूनी सतहों में ये विस्फोट दरारें पैदा करके पेड़ों की जड़ें भी हिला रहे हैं। कई अन्य ज़िलों के गांवों के नीचे से सुरंगें निकाली जा रही हैं। इनके धमाकों से घरों में दरारें आ गई हैं। वैसे भी पहाड़ी राज्यों में घर ढलानयुक्त ज़मीन पर ऊंची नींव देकर बनाए जाते हैं जो निर्माण के लिहाज से ही कमज़ोर होते हैं। ऐसे में विस्फोट इन घरों को और कमज़ोर कर रहे हैं। हिमालय की अलकनंदा नदी घाटी ज़्यादा संवेदनशील है। रेल परियोजनाएं इसी नदी से सटे पहाड़ों के नीचे और ऊपर निर्माणाधीन हैं। 

दरअसल उत्तराखंड का भूगोल बीते डेढ़ दशक में तेज़ी से बदला है। चौबीस हज़ार करोड़ रुपए की ऋषिकेश-कर्णप्रयाग परियोजना ने विकास और बदलाव की ऊंची छलांग तो लगाई है, लेकिन इन योजनाओं ने खतरों की नई सुरंगें भी खोल दी हैं। उत्तराखंड के सबसे बड़े पहाड़ी शहर श्रीनगर के नीचे से भी सुरंग निकल रही है। नतीजतन धमाकों के चलते 150 से ज़्यादा घरों में दरारें आ गई हैं। पौड़ी जिले के मलेथा, लक्ष्मोली, स्वोत और डेवली में 771 घरों में दरारें आ चुकी है।

रेल परियोजनाओं के अलावा यहां बारह हज़ार करोड़ रुपए की लागत से बारहमासी मार्ग निर्माणाधीन हैं। इन मार्गों पर पुलों के निर्माण के लिए भी कहीं सुरंगें बनाई जा रही हैं, तो कहीं घाटियों के बीच पुल बनाने के लिए मज़बूत आधार स्तंभ बनाए जा रहे हैं।

उत्तराखंड में देश की पहली ऐसी परियोजना पर काम शुरू हो गया है, जिसमें हिमनद (ग्लेशियर) की एक धारा को मोड़कर बरसाती नदी में पहुंचाने का प्रयास हो रहा है। यदि यह परियोजना सफल हो जाती है तो पहली बार ऐसा होगा कि किसी बरसाती नदी में सीधे हिमालय का बर्फीला पानी बहेगा। हिमालय की अधिकतम ऊंचाई पर नदी जोड़ने की इस महापरियोजना का सर्वेक्षण शुरू हो गया है। इस परियोजना की विशेषता है कि पहली बार उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल की एक नदी को कुमाऊं मंडल की नदी से जोड़कर बड़ी आबादी को पानी उपलब्ध कराया जाएगा। यही नहीं, एक बड़े भू-भाग को सिंचाई के लिए भी पानी मिलेगा। ‘जल जीवन मिशन‘ के अंतर्गत इस परियोजना पर काम किया जा रहा है। लेकिन इस परियोजना के क्रियान्वयन के लिए जिस सुरंग से होकर पानी नीचे लाया जाएगा, उसके निर्माण में हिमालय के शिखर-पहाड़ों को खोदकर सुरंगों एवं नालों का निर्माण किया जाएगा, उनके लिए ड्रिल मशीनों से पहाड़ों को छेदा जाएगा और विस्फोट से पहाड़ों को शिथिल किया जाएगा। यह स्थिति हिमालयी पहाड़ों के पारिस्थितिकी तंत्र के लिए नया बड़ा खतरा साबित हो सकती है। बांधों के निर्माण हिमालय के लिए पहले से ही खतरा बनकर कई मर्तबा बाढ़, भू-स्खलन और केदारनाथ जैसी प्रलय की आपदा का कारण बन चुके हैं।

उत्तराखंड भूकंप के सबसे खतरनाक ज़ोन-5 में आता है। कम तीव्रता के भूकंप यहां निरंतर आते रहते हैं। मानसून में हिमाचल और उत्तराखंड के पहाड़ी ज़िलों में भू-स्खलन, बादल फटने और बिजली गिरने की घटनाएं निरंतर सामने आ रही हैं। पहाड़ों के दरकने के साथ छोटे-छोटे भूकंप भी देखने में आ रहे हैं। उत्तराखंड और हिमाचल में बीते सात सालों में 130 से ज़्यादा छोटे भूकंप आए हैं। हिमाचल और उत्तराखंड में जल विद्युत और रेल परियोजनाओं ने बड़ा नुकसान पहुंचाया है। टिहरी पर बने बांध को रोकने के लिए तो लंबा अभियान चला था। पर्यावरणविद और भू-वैज्ञानिक भी हिदायतें देते रहे हैं कि गंगा और उसकी सहायक नदियों की अविरल धारा बाधित हुई तो गंगा तो अस्तित्व खोएगी ही, हिमालय की अन्य नदियां भी अस्तित्व के संकट से जुझेंगी। अतएव जोशीमठ का जो भयावह मानचित्र आज दिखाई दे रहा है, वह और-और विस्तृत होता चला जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

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पाकिस्तान में सदी की सबसे भीषण बाढ़

स वर्ष पाकिस्तान सदी की सबसे भीषण बाढ़ का सामना कर रहा है। देश का एक-तिहाई हिस्सा जलमग्न हो गया है। बाढ़ ने लगभग 3.3 करोड़ लोगों को विस्थापित किया और 1200 से अधिक लोग मारे गए। कई ऐतिहासिक इमारतों को भी काफी नुकसान पहुंचा है।

शोधकर्ताओं के अनुसार इस तबाही की शुरुआत इस वर्ष भीषण ग्रीष्म लहर से हुई। अप्रैल और मई माह के दौरान कई स्थानों पर काफी लंबे समय तक तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर रहा। जैकबाबाद शहर में तो तापमान 51 डिग्री सेल्सियस से भी अधिक रहा। पाकिस्तान के कुछ स्थान विश्व के सबसे गर्म स्थानों में रहे।

गर्म हवा अधिक नमी धारण कर सकती है। लिहाज़ा गर्म मौसम को देखते हुए कई मौसम विज्ञानियों ने इस वर्ष की शुरुआत में ही जुलाई से सितंबर के बीच देश में सामान्य से अधिक वर्षा होने की चेतवानी दी थी।

जलवायु वैज्ञानिक अतहर हुसैन के अनुसार भीषण गर्मी से हिमनदों के पिघलने से सिंधु की सहायक नदियों में जल-प्रवाह बढ़ा जो अंततः सिंधु नदी में पहुंचा। सिंधु नदी पाकिस्तान की सबसे बड़ी नदी है जो देश के उत्तरी क्षेत्र से शुरू होकर दक्षिण तक बहती है। इस नदी से कई शहरों और कृषि की ज़रूरतें पूरी होती हैं। जुलाई माह में हिमाच्छादित क्षेत्रों का दौरा करने पर सिंधु की सहायक हुनज़ा नदी में भारी प्रवाह और कीचड़ भरा पानी देखा गया। कीचड़ वाला पानी इस बात का संकेत था कि हिमनद काफी तेज़ी से पिघल रहे हैं और तेज़ी से बहता पानी अपने साथ तलछट लेकर बह रहा है। इसके अलावा कई झीलों की बर्फीली मेड़ें फूट गईं और उनका पानी सिंधु में पहुंचा।

ग्रीष्म लहर के साथ ही एक और बात हुई – अरब सागर में कम दबाव का सिस्टम बना जिसकी वजह से जून की शुरुआत में ही पाकिस्तान के तटीय प्रांतों में भारी बारिश हुई। इस तरह का सिस्टम बनना काफी असामान्य था। इस वर्ष पाकिस्तान के अधिकांश क्षेत्रों में सामान्य से तीन गुना और दक्षिण पाकिस्तान स्थित सिंध और बलूचिस्तान में औसत से पांच गुना वर्षा हुई। एक बार ज़मीन पर आने के बाद इस पानी को जाने के लिए कोई जगह नहीं थी, सो इसने तबाही मचा दी।

कुछ मौसम एजेंसियों ने ला-नीना जलवायु घटना की भी भविष्यवाणी की थी जिसका सम्बंध भारत और पाकिस्तान में भारी मानसून से देखा गया है। संभवत: ला-नीना प्रभाव इस वर्ष के अंत तक जारी रहेगा।

शायद मानव-जनित ग्लोबल वार्मिंग ने भी वर्षा को तेज़ किया होगा। इस संदर्भ में 1986 से 2015 के बीच पाकिस्तान के तापमान में 0.3 डिग्री सेल्सियस प्रति दशक की वृद्धि हुई है जो वैश्विक औसत से अधिक है।

तबाही को बढ़ाने में कमज़ोर चेतावनी प्रणाली, खराब आपदा प्रबंधन, राजनीतिक अस्थिरता और बेतरतीब शहरी विकास सहित अन्य कारकों की भी भूमिका रही है। जल निकासी और जल भंडारण के बुनियादी ढांचे की कमी के साथ-साथ बाढ़ संभावित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की बड़ी संख्या भी एक गंभीर समस्या के रूप में उभरी है। (स्रोत फीचर्स)
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भारत की खोज में जंतुओं ने समंदर लांघा था – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

हॉलीवुड की एनिमेशन फिल्मों में नाचते, गाते, शरारत करते लीमर ज़रूर दिखेंगे। ये सिर्फ मैडागास्कर द्वीप पर ही पाए जाते हैं जो प्रकृतिविदों के लिए हमेशा से दिलचस्प जंतुओं का आवास स्थल रहा है।

मैडागास्कर में पाए जाने वाले कई जंतुओं का सम्बंध दूरस्थ भारत (दूरी 3800 कि.मी.) में पाए जाने वाले वंशों से दिखता है, बनिस्बत अफ्रीका के जंतुओं से जबकि अफ्रीका यहां से महज 413 कि.मी. दूर है। यह प्रकृतिविदों के लिए एक ‘अबूझ पहेली’ रही है।

प्राणि वैज्ञानिक फिलिप स्क्लेटर हैरान थे कि लीमर और सम्बंधित जंतु व उनके जीवाश्म मैडागास्कर और भारत में तो पाए जाते हैं लेकिन मैडागास्कर के निकट स्थित अफ्रीका या मध्य पूर्व में अनुपस्थित हैं। 1860 के दशक में उन्होंने प्रस्तावित किया था कि किसी समय भारत और मैडागास्कर के बीच एक बड़ा द्वीप या महाद्वीप मौजूद रहा होगा, जो दोनों स्थानों के बीच सेतु का कार्य करता था। समय के साथ यह द्वीप डूब गया। इस प्रस्तावित जलमग्न द्वीप को उन्होंने लेमुरिया नाम दिया था।

स्क्लेटर की इस परिकल्पना ने हेलेना ब्लावात्स्की जैसे तांत्रिकों को आकर्षित किया, जिनका यह मानना था कि यही वह स्थान होना चाहिए जहां मनुष्यों की उत्पत्ति हुई थी।

देवनेया पवनर जैसे तमिल धार्मिक पुनरुत्थानवादियों ने भी इस विचार को अपनाया और इसे एक तमिल सभ्यता की संज्ञा दी। साहित्य और पांडियन दंतकथाओं में यह समुद्र में जलगग्न सभ्यता के रूप में वर्णित है। वे इस जलमग्न महाद्वीप को कुमारी कंदम कहते थे।

महाद्वीपों का खिसकना

स्क्लेटर के विचारों ने तब समर्थन खो दिया जब एक अन्य ‘हैरतअंगेज़’ सिद्धांत – महाद्वीपीय खिसकाव या विस्थापन – ने स्वीकृति प्राप्त करना शुरू किया। प्लेट टेक्टोनिक्स नामक इस सिद्धांत के अनुसार बड़ी-बड़ी प्लेट्स – जिन पर हम खड़े हुए हैं (या चलते-फिरते हैं, रहते हैं) – पिघली हुई भूमिगत चट्टानों पर तैरती हैं और एक-दूसरे के सापेक्ष ये प्रति वर्ष 2-15 से.मी. खिसकती हैं। तकरीबन 16.5 करोड़ वर्ष पहले गोंडवाना नामक विशाल भूखंड दो हिस्सों में बंट गया था – इसके एक टुकड़े में वर्तमान के अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका थे और दूसरे टुकड़े में भारत, मैडागास्कर, ऑस्ट्रेलिया और अंटार्कटिका थे।

फिर लगभग 11.5 करोड़ साल पूर्व मैडागास्कर और भारत एक साथ इससे टूटकर अलग हो गए थे। लगभग 8.8 करोड़ साल पहले, भारत उत्तर की ओर बढ़ने लगा और इसने रास्ते में कुछ छोटे-छोटे भू-भाग (द्वीप) छोड़ दिए जिससे सेशेल्स बना। यह टूटा हुआ हिस्सा लगभग 5 करोड़ साल पहले युरेशियन भू-भाग से टकराया जिससे हिमालय और दक्षिण एशिया बने।

लगभग 11.5 करोड़ साल पहले डायनासौर का राज था। इस समय तक कई जीव रूपों का विकास भी नहीं हुआ था। भारत और मैडागास्कर में पाए जाने वाले डायनासौर के जीवाश्म काफी एक जैसे हैं, और ये अफ्रीका और एशिया में पाई जाने वाली डायनासौर प्रजातियों के समान नहीं हैं जो गोंडवाना के टूटने का समर्थन करता है। भारत और मैडागास्कर दोनों जगहों पर लैप्लेटोसॉरस मेडागास्करेन्सिस के अवशेष पाए गए हैं।

आणविक घड़ियां

आणविक घड़ी एक शक्तिशाली तकनीक है जिसका उपयोग यह पता लगाने के लिए किया जाता है कि जैव विकास के दौरान कोई दो जीव एक-दूसरे से कब अलग हुए थे। यह तकनीक इस अवलोकन पर आधारित है कि आरएनए या प्रोटीन अणु की शृंखला में वैकासिक परिवर्तन काफी निश्चित दर पर होते हैं। जैसे दो जीवों के हीमोग्लोबिन जैसे प्रोटीन में अमीनो एसिड में अंतर आपको यह बता सकता है कि उनके पूर्वज कितने वर्ष पहले अलग हो गए थे। आणविक घड़ियां अन्य साक्ष्यों (जैसे जीवाश्म रिकॉर्ड) से काफी मेल खाती हैं।

दक्षिण भारत और श्रीलंका में मीठे पानी और खारे पानी की मछलियों के सिक्लिड परिवार के केवल दो वंश हैं – एट्रोप्लस (जो केरल की एक खाद्य मछली है, जहां इसे पल्लती कहा जाता है) और स्यूडेट्रोप्लस। आणविक तुलना से पता चलता है कि एट्रोप्लस के निकटतम सम्बंधी मैडागास्कर में पाए जाते हैं, और इनके साझा पूर्वज 16 करोड़ वर्ष पहले अफ्रीकी सिक्लिड्स से अलग हो गए थे। चौथे तरह के सिक्लिड दक्षिण अमेरिका में पाए जाते हैं, इस प्रकार ये गोंडवाना के छिन्न-भिन्न होने का समर्थन करते हैं।

एशिया, मैडागास्कर और अफ्रीका में जीवों के वितरण में भारत एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। गोंडवाना के जीव भारत से निकलकर फैले। कुछ अन्य जीव यहां आकर बस गए। उदाहरण के लिए, मीठे पानी के एशियाई केंकड़े (जेकार्सिन्यूसिडी कुल)अब समूचे दक्षिण पूर्व एशिया में पाए जाते हैं लेकिन उनके सबसे हालिया साझा पूर्वज भारत में विकसित हुए थे। सूग्लोसिडे नामक मेंढक कुल सिर्फ भारत और सेशेल्स में पाया जाता है।

गढ़वाल के एचएनबी विश्वविद्यालय, पंजाब विश्वविद्यालय और जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने गुजरात की वस्तान लिग्नाइट खदान से प्राप्त जीवाश्म में प्रारंभिक भारतीय स्तनधारी – चमगादड़ की एक प्रजाति, और प्रारंभिक युप्राइमेट – एक आदिम लीमर की पहचान की है। ये लगभग 5.3 करोड़ वर्ष पूर्व के जीवाश्म हैं, जो भारत-युरेशियन प्लेट्स के टकराने (या उससे ठीक पहले) का समय है।

लीमर्स के बारे में क्या? मैडागास्कर बहुत बड़ा द्वीप है, यहां विविध तरह की जलवायु परिस्थितियां हैं। साक्ष्य बताते हैं कि अफ्रीका से समुद्र पार करके एक पूर्वज प्राइमेट यहां आया था। कोई बंदर, वानर या बड़े शिकारी इसे पार नहीं कर सके थे, इसलिए यहां दर्जनों लीमर प्रजातियां फली-फूलीं।

भारत में लोरिस पाए जाते हैं, जो लीमर के निकटतम सम्बंधी हैं। ये शर्मीले, बड़ी और आकर्षक आंखों वाले निशाचर वनवासी हैं। माना जाता है कि ये भी समुद्री रास्ते से अफ्रीका से यहां की यात्रा में जीवित बच गए। सुस्त लोरिस ज़्यादातर पूर्वोत्तर राज्यों में पाए जाते हैं, और छरहरे लोरिस कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु के सीमावर्ती क्षेत्र में पाए जाते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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परमाणु युद्ध हुआ तो अकाल पड़ेगा

युद्धों के दौरान परमाणु हमले के खतरे ने सभी देशों में भय और चिंता की स्थिति पैदा कर दी है, क्योंकि परमाणु हमले के विनाशकारी प्रभावों से सभी वाकिफ हैं। अब, परमाणु सर्दियों पर अब तक का सबसे व्यापक मॉडल कहता है कि परमाणु युद्ध वैश्विक जलवायु को इतनी बुरी तरह प्रभावित कर सकता है कि इसके चलते अरबों लोग भूखे मर जाएंगे। वैसे यह मॉडल एकदम सटीक भविष्यवाणी तो नहीं करता लेकिन परमाणु युद्ध के खतरों को रेखांकित करने के अलावा अन्य आपदाओं के लिए तैयारियों का खाका पेश करता है।

यह तो विदित है कि भीषण विस्फोट वायुमंडल में इतनी धूल, राख और कालिख उड़ा सकते हैं कि पृथ्वी की जलवायु प्रभावित हो सकती है। 1815 में माउंट तंबोरा के ऐतिहासिक ज्वालामुखी विस्फोट से निकली राख ने पूरी पृथ्वी को ढंक दिया था, जिसने धरती तक पर्याप्त धूप नहीं आने दी। नतीजतन एक साल जाड़े का मौसम बना रहा था। परिणामस्वरूप दुनिया भर में बड़े पैमाने पर फसलें बर्बाद हुई थीं और अकाल पड़ा था।

दशकों से वैज्ञानिक चेता रहे हैं कि परमाणु हमले भी इसी तरह के हालात पैदा कर सकते हैं। भीषण परमाणु विस्फोट से लगी आग वायुमंडल में लाखों टन कालिख छोड़ेगी, जो सूर्य के प्रकाश को रोकेगी जिसके वैश्विक पर्यावरणीय प्रभाव दिखेंगे। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ही परमाणु युद्ध के जलवायु सम्बंधी प्रभाव को लेकर चिंताएं उभरने लगी थीं और इस पर अध्ययन शुरू हुए।

परमाणु सर्दियों पर अध्ययन के लिए रटजर्स विश्वविद्यालय के एलन रोबॉक और कोलेरैडो विश्वविद्यालय के ब्रायन टून ने विभिन्न विषयों के वैज्ञानिकों की एक टीम जुटाई। परमाणु सर्दी के मॉडलिंग के लिए उन्होंने उसी जलवायु मॉडल को आधार बनाया जिससे ग्लोबल वार्मिंग के अनुमान लगाए जाते हैं।

इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने जलवायु मॉडल में वैश्विक खाद्य उत्पादन के मॉडल को शामिल किया। उन्होंने इसमें परमाणु युद्ध के 6 परिदृश्य बनाए, और इसमें खेती के साथ-साथ मत्स्य पालन को भी शामिल किया ताकि विस्तृत प्रभाव पता चल सके।

शोधकर्ताओं ने अनुमान लगाया कि विभिन्न परमाणु हमलों से 50 लाख टन से 1.5 करोड़ टन के बीच कालिख वायुमंडल में पहुंचेगी। फिर उन्होंने इसे सूर्य के प्रकाश, तापमान और वर्षा मॉडल पर लागू किया, और इसके परिणामों को खेती और मत्स्य उत्पादन मॉडल में डाला। शोधकर्ताओं ने मक्का, चावल, सोयाबीन, गेहूं उत्पादन और मत्स्य उत्पादन में संभावित कमी के आधार पर कुल कैलोरी क्षति का अनुमान लगाया। इसके आधार पर उन्होंने गणना की कि कितने लोग भूखे रहेंगे। शोधकर्ताओं ने माना था कि ऐसी स्थिति में अंतर्राष्ट्रीय खाद्य व्यापार ठप हो जाएगा और देशों के अंदर उपलब्ध संसाधनों का अच्छा-से-अच्छा वितरण होगा।

फूड नेचर में शोधकर्ता बताते हैं कि यदि संयुक्त राज्य अमेरिका, उसके सहयोगी देश और रूस के बीच परमाणु युद्ध होता है तो उसके कुछ साल बाद वैश्विक औसत कैलोरी उत्पादन में लगभग 90 प्रतिशत की कमी आएगी – इस अकाल से लगभग 5 अरब लोग मारे जाएंगे। यदि भारत-पाकिस्तान के बीच भयंकर युद्ध की स्थिति बनी तो कैलोरी उत्पादन 50 प्रतिशत कम हो जाएगा जिससे 2 अरब लोगों की मौत हो सकती है। शोधकर्ताओं ने अपने मॉडल में आपातकाल के लिए खाद्य-बचत रणनीतियों के प्रभाव को भी जोड़कर देखा (जैसे चारा और घरेलू कचरे को भोजन में परिवर्तित करना) और पाया कि बड़े युद्ध की स्थिति में ये प्रयास ऊंट के मुंह में जीरे के समान होंगे।

कुछ शोधकर्ता इन अनुमानों की व्याख्या करने में सावधानी बरतने का आग्रह करते हैं क्योंकि काफी कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि इस तरह की वैश्विक तबाही पर मानव समाज किस तरह प्रतिक्रिया देगा।

देखा जाए तो मॉडल में सुधार की गुंजाइश है। लेकिन शोधकर्ताओं का उद्देश्य तबाही के सटीक अनुमान प्रस्तुत करने की बजाय जोखिम के स्तर को सामने लाना था।

इन भयावह स्थिति की संभावनाओं ने लोगों को इससे निपटने के तरीके तलाशने के लिए प्रेरित किया है। उदाहरण के लिए समुद्री शैवाल जैसे खाद्य को बढ़ाना, कागज कारखानों को शकर उत्पादन के लिए ढालना, बैक्टीरिया की मदद से प्राकृतिक गैस को प्रोटीन में परिवर्तित करना और परिवर्तित जलवायु के हिसाब से फसलों को स्थानांतरित करना। ऐसे तरीके भोजन की उपलब्धता में नाटकीय वृद्धि कर सकते हैं। भूखे मरने से अच्छा है बेस्वाद खाना। और इस तरह के ख्याली अभ्यास मनुष्य को परमाणु युद्ध से उपजी आपदा के लिए ही नहीं बल्कि जलवायु परिवर्तन और अन्य आपदाओं के लिए भी तैयार कर सकते हैं।

बहरहाल, सबसे बेहतर उपाय तो यही होगा कि किसी भी कीमत पर परमाणु युद्ध टाले जाएं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विद्युत सुरक्षा: राष्ट्र स्तरीय योजना की आवश्यकता – श्रीकुमार नालूर

ज़ादी के बाद से भारत ने विद्युत क्षेत्र में काफी विकास किया है। इस दौरान बुनियादी ढांचे में महत्वपूर्ण सुधार के साथ लगभग सभी घरों में बिजली कनेक्शन प्रदान किए गए। इसके अलावा वर्ष 2070 तक नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन और हफ्ते के सातों दिन चौबीस घंटे बिजली आपूर्ति के वायदे भी हैं। हालांकि ये सभी प्रयास प्रसंसनीय हैं लेकिन अभी भी विद्युत क्षेत्र कई समस्याओं का सामना कर रहा है। इसमें बिजली से होने वाली दुर्घटनाएं सबसे दुर्भाग्यपूर्ण समस्या है।

विकास और सफलता के लिए समस्याओं और विफलताओं को समझना आवश्यक है। यह काफी दुर्भाग्यपूर्ण है कि विद्युत सम्बंधी दुर्घटनाओं की दर में निरंतर वृद्धि के बावजूद विद्युत क्षेत्र के योजनाकारों, नियामक एजेंसियों और संचालकों ने इस ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है। राष्ट्रीय या प्रांतीय नीतियों या कार्यक्रमों में विद्युत सुरक्षा के लिए न तो कोई लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं और न ही कोई संसाधन विशिष्ट रूप से आवंटित किए गए हैं। जिन चंद मामलों में संसाधनों का आवंटन किया गया है वहां या तो इनका पूरी तरह उपयोग नहीं किया गया है या फिर इनका बहुत कम हिस्सा कर्मचारियों के प्रशिक्षण या सुरक्षा किट के लिए उपयोग किया गया है।

मौतों में वृद्धि

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आकड़ों के अनुसार पिछले कुछ वर्षों से बिजली के झटके या बिजली के कारण लगी आग से मरने वालों की संख्या और मृत्यु दर में निरंतर वृद्धि हो रही है। वर्ष 1990 में ऐसी दुर्घटनाओं में मरने वालों की संख्या 2957 (0.36 मौतें प्रति लाख) थी जो 2020 में बढ़कर 15,258 (1.13 मौतें प्रति लाख) हो गई। मृत्यु दर के सम्बंध में केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (सीईए) द्वारा जारी आंकड़े भी ऐसी ही स्थिति दर्शाते हैं। गौरतलब है कि पिछले कुछ वर्षों में कई विकसित देशों में विद्युत-सम्बंधी दुर्घटनाओं से मृत्यु दर में काफी कमी आई है और वर्तमान मृत्यु दर प्रति लाख लोगों पर 0.03 या उससे भी कम है।

उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि विद्युत दुर्घटनाओं में मरने वालों में 90 प्रतिशत से अधिक आम लोग होते हैं। लिहाज़ा, दुर्घटनाओं को कम करने के प्रयासों में आम लोगों की सुरक्षा को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

भौगोलिक दृष्टि से देखें तो अधिकांश विद्युत-सम्बंधी दुर्घटनाएं ग्रामीण क्षेत्रों में होती हैं लेकिन तेज़ी से हो रहे शहरीकरण को देखते हुए गरीब शहरी क्षेत्रों पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। अधिकांश दुर्घटनाएं वितरण प्रणाली और गैर-औद्योगिक उपभोक्ताओं वाले क्षेत्रों में होती हैं। इसमें भी अधिकांश मौतें वितरण नेटवर्क (विशेष रूप से 11 केवी और लो-टेंशन प्रणालियों) और लो-टेंशन उपभोक्ता वाले क्षेत्रों में होती है। अत: इन क्षेत्रों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।

गौरतलब है कि अधिकांश मौतें लाइव कंडक्टर के संपर्क में आने से होती हैं। इसका कारण यह हो सकता है कि लाइव कंडक्टर नीचे तक झूलते होते हैं या खुले स्विच बोर्ड कम ऊंचाई पर लगे होते हैं। दुर्घटनाओं का दूसरा प्रमुख कारण विद्युतीय फाल्ट के कारण आग लगना है जो लगभग 12 प्रतिशत दुर्घटनाओं के लिए ज़िम्मेदार है। इसके अलावा, डिज़ाइन एवं निर्माण में खराबी, अपर्याप्त रख-रखाव, अपर्याप्त सुरक्षा प्रणाली और सुरक्षा जागरूकता में कमी भी इसके प्रमुख कारण हैं।          

सुरक्षा की व्यवस्थाएं

सीईए ने सुरक्षा सम्बंधी नियम तैयार किए हैं और सभी बिजली संचालकों से इनका पालन करने की अपेक्षा की जाती है। लेकिन संचालकों द्वारा इन नियमों का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए कोई ठीक-ठाक व्यवस्था नहीं है। उदाहरण के लिए वितरण कंपनियों से अपेक्षा की जाती है कि वे सुरक्षा अधिकारी नियुक्त करें जो समय-समय पर सुरक्षा ऑडिट करें। लेकिन इस तरह का कोई ऑडिट नहीं किया जाता है क्योंकि वितरण कंपनियों की प्राथमिकता हमेशा से राजस्व की वसूली और फाल्ट की मरम्मत करना रही है। राज्यों के विद्युत निरीक्षकों से अपेक्षा होती है कि वे कनेक्शनों को स्वीकृति देंगे तथा इलेक्ट्रीशियनों को लाइसेंस प्रदान करेंगे और दुर्घटनाओं की जांच-पड़ताल करेंगे। लेकिन उनके पास कर्मचारियों की भारी कमी रहती है। जहां तक सुरक्षा अधिकारियों का सवाल है, तो उनका ध्यान औद्योगिक सुरक्षा की ओर अधिक तथा ग्रामीण जनता की सुरक्षा की ओर कम होता है। कई ज़मीनी स्तर के संगठन भी दुर्घटना की रोकथाम की बजाय पीड़ितों को मुआवज़ा राशि दिलवाने में अधिक रुचि लेते हैं।        

विद्युत सुरक्षा जनहित के लिए एक बड़ी चुनौती है जिससे सभी हितधारकों के सहयोग से ही निपटा जा सकता है। बेहतर डैटा संग्रहण, राष्ट्र स्तरीय कार्यक्रमों में सुरक्षा के पहलुओं को शामिल करके, सुरक्षा संस्थानों के सशक्तिकरण, वितरण कंपनियों के लिए सुरक्षा नियमन के विकास, सुरक्षा सम्बंधित प्रस्तावों में जनता और पेशेवरों की भागीदारी और तकनीकी नवाचार के माध्यम से वर्तमान सुरक्षा नियामक व्यवस्था के क्रियांवयन को मज़बूत किया जा सकता है।   

वर्तमान परिस्थिति में ज़रूरत इस बात की है कि वितरण क्षेत्र में दुर्घटनाओं को कम करने के लिए एक राष्ट्रीय कार्यक्रम विकसित किया जाए जिसका कार्यक्षेत्र सुपरिभाषित हो, संसाधन का पर्याप्त आवंटन हो और मज़बूत निगरानी एवं सत्यापन व्यवस्था हो। राज्यों को अधिक दुर्घटनाओं वाले जिलों को चिन्हित करके दुर्घटनाओं को कम करने के लिए कार्यक्रम तैयार करने चाहिए। इन्हीं उपायों से हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि बिजली न केवल सबको मिले, सस्ती और अच्छी गुणवत्ता वाली और सुरक्षित भी हो। (स्रोत फीचर्स)

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समुद्री ज्वालामुखी विस्फोट से पानी पहुंचा वायुमंडल में

नवरी में दक्षिणी प्रशांत महासागर में टोंगा द्वीप के नज़दीक समुद्र के नीचे स्थित टोंगा-हुंगा हाआपाई ज्वालामुखी में ज़ोरदार विस्फोट हुआ। इस विस्फोट ने दक्षिण प्रशांत क्षेत्र को हिलाकर रख दिया था, दुनिया भर में सुनामी की तरंगें दौड़ गईं। यह अब तक का सबसे शक्तिशाली विस्फोट था जिसका मलबा वायुमंडल में लगभग 50 किलोमीटर से अधिक ऊंचाई तक गया था।

एक नया अध्ययन बताता है कि विस्फोट से निकलने वाली राख और गैसों के साथ अरबों किलोग्राम पानी भी वायुमंडल में गया है। यह संभवतः वर्षों तक वायुमंडल में बना रहकर ओज़ोन परत को नुकसान पहुंचाएगा और पृथ्वी के तापमान में वृद्धि करेगा।

यह अध्ययन नासा के ऑरा सैटेलाइट में लगे माइक्रोवेव लिम्ब साउंडर (MLS) उपकरण की मदद से संभव हुआ है। MLS पृथ्वी के वायुमंडल में लगभग 100 किलोमीटर तक की ऊंचाई पर मौजूद विभिन्न यौगिकों को मापता है। वैज्ञानिकों की विशेष रुचि विस्फोट से वायुमंडल में पहुंचे सल्फर डाईऑक्साइड और पानी में थी, क्योंकि ये जलवायु को प्रभावित कर सकते हैं। MLS के आंकड़ों की मदद से शोधकर्ता ज्वालामुखी का गुबार, इसमें पानी की मात्रा, और गुबार की वृद्धि को देख पाए।

जियोफिज़िकल रिसर्च लेटर्स में नासा की जेट प्रपल्शन लेबोरेटरी के लुइस मिलन के दल ने बताया है कि इस गुबार ने पृथ्वी के समताप मंडल (स्ट्रेटोस्फीयर) में लगभग 146 अरब किलोग्राम पानी फेंका है। समताप मंडल समुद्र सतह से कई किलोमीटर ऊपर होता है और प्राय: शुष्क रहता है। पानी इतना था कि इससे तकरीबन 58,000 ओलंपिक स्विमिंग पूल भरे जा सकते हैं, और यह समताप मंडल में मौजूद संपूर्ण नमी का लगभग 10 प्रतिशत है।

शोधकर्ता बताते हैं कि अन्य ज्वालामुखी विस्फोट भी वायुमंडल में पानी फेंकते हैं, लेकिन इस विस्फोट ने अभूतपूर्व मात्रा में पानी फेंका है। यह पानी समताप मंडल में संभवत: पांच वर्ष या उससे अधिक समय तक रहेगा।

बड़े ज्वालामुखी विस्फोट अक्सर जलवायु को ठंडा करते हैं, क्योंकि इनमें निकलने वाली सल्फर डाईऑक्साइड वायुमंडल में जाकर ऐसे यौगिक बनाती है जो सूरज से आने वाली ऊष्मा को परावर्तित करते हैं। लेकिन साथ में इतनी अधिक जलवाष्प वायुमंडल में पहुंची है तो प्रभाव अलग हो सकता है। पानी एक ग्रीनहाउस गैस की तरह काम करेगा और पृथ्वी पर गर्मी बढ़ाएगा। विस्फोट से छाई सल्फर डाईऑक्साइड तो जल्दी ही समाप्त हो जाएगी, जबकि पानी 5 वर्ष या उससे भी अधिक समय तक वायुमंडल में टिका रहेगा।

अन्य वैज्ञानिकों का कहना है कि जलवायु पर विस्फोट के वास्तविक प्रभावों का आकलन करने में समय लगेगा। संभव है कि वायुमंडल में गया यह पानी अन्य रसायनों के साथ प्रतिक्रिया करके ओज़ोन परत को भी नुकसान पहुंचाए, और मौसम के पैटर्न को नियंत्रित करने वाली पवन धाराओं के प्रवाह को भी बदल दे। (स्रोत फीचर्स)

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नेपाल ने किफायती मौसम विज्ञान संस्थान खड़ा किया

हाल ही में नेपाल में सूखा अनुसंधान संस्थान शुरू हुआ है। काठमांडू इंस्टीट्यूट ऑफ एप्लाइड साइंसेज़ के सेंटर फॉर वॉटर एंड एटमॉस्फेरिक रिसर्च की हेमू काफले ने इसे स्थापित करने में काफी योगदान दिया है।

नेपाल के काठमांडू इंस्टीट्यूट ऑफ एप्लाइड साइंसेज़ द्वारा डिज़ाइन और विकसित किया गया यह मौसम विज्ञान स्टेशन कम लागत वाले स्टेशनों में शुमार है। इसका पहला मॉडल तीन साल पहले बना था। यहां तापमान, आर्द्रता, दबाव, हवा की गति और दिशा, और वर्षा को मापा जाता है।

काफले बताती हैं कि बचपन के दिनों में उन्होंने नेपाल के सूखे (नेपाली में खदेरी) के बारे में सुना था। लेकिन जब उन्होंने नेपाल में सूखे पर शोध करने की कोशिश की, तो पाया कि इस बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। नेपाली लोग बाढ़ और भूस्खलन जैसी आपदाओं के बारे में तो बात करते हैं, लेकिन वे सूखे के बारे में बात नहीं करते। जबकि तथ्य यह है कि सूखा फसल उत्पादन को बुरी तरह प्रभावित कर सकता है, खास कर असिंचित क्षेत्रों की बरसाती खेती को।

नेपाल में बहुत कम मौसम विज्ञान केंद्र थे। और चूंकि यहां का भूगोल काफी पर्वतीय है, तो लोग बाहर जाकर अपने उपकरणों को अंशांकित नहीं कर सकते हैं; इसलिए मौसम सम्बंधी पर्याप्त डैटा था ही नहीं। काफले ने नेपाल के बाहर (जापान के नागोया युनिवर्सिटी से) रिमोट सेंसिंग पर पीएच.डी. की थी। उनका विचार था कि उपग्रह डैटा का उपयोग करके मौसम सम्बंधी डैटा की पूर्ति कर सकते हैं और नेपाल के सूखे की संपूर्ण तस्वीर उकेर सकते हैं। लेकिन इसके लिए मॉडलिंग कंप्यूटर की ज़रूरत थी, और उनके तत्कालीन संस्थान ने यह सुविधा देने से इन्कार कर दिया था।

सिर्फ वे ही नहीं, नेपाल के बाहर के संस्थानों में अध्ययन करने वाले अन्य शोधकर्ता भी नेपाल की विशिष्ट समस्याओं पर शोध करना चाहते थे। आखिरकार 2015 में विदेशी अनुदान की मदद से अपना संस्थान स्थापित किया गया जो वन्यजीव संरक्षण, चरम जलवायु परिस्थितियों और पर्यावरण प्रदूषण में अनुसंधान को समर्थन देता है।

मौसम सम्बंधी अनुसंधान के लिए अपना कंप्यूटर मिला, और संस्थान ने नेपाल के साथ-साथ भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान के भी कुछ हिस्सों के सूखों विश्लेषण किया। काफले आगे बताती हैं कि विकासशील देशों में स्थानीय स्तर पर बहुत सारा शोध कार्य करने की आवश्यकता है। आगे यह संस्थान युवाओं को भी प्रशिक्षित करना चाहता है ताकि नेपाल को विकासशील देश से विकसित देश की श्रेणि में लाने के लिए अच्छे वैज्ञानिक और दूरदर्शी लोग तैयार किए जा सकें। (स्रोत फीचर्स)

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भू-जल में रसायनों का घुलना चिंताजनक – अली खान

हाल में जारी केंद्रीय भूजल बोर्ड की रिपोर्ट के मुताबिक देश के 18 राज्यों के 249 ज़िलों का भूजल खारा है, जबकि 23 राज्यों के 370 ज़िलों में मानक से अधिक फ्लोराइड पाया गया है। 21 राज्यों के 154 ज़िलों में आर्सेनिक की शिकायत है। इसी तरह 24 ज़िलों के भूजल में कैडमियम, 94 ज़िलों में लेड, 341 ज़िलों में आयरन और 23 राज्यों के 423 ज़िलों के भूजल में नाइट्रेट की मात्रा स्वीकार्य से अधिक मिली है। कृषि प्रधान राज्य उत्तर प्रदेश के 59, पंजाब के 19, हरियाणा के 21 और मध्य प्रदेश के 51 ज़िलों के भूजल में नाइट्रेट की मात्रा अधिक पाई गई है।

बता दें कि इन ज़िलों में उर्वरकों के अंधाधुंध उपयोग और सिंचाई की अवैज्ञानिक तकनीक के चलते यह समस्या पैदा हो रही है। जल में बढ़ती नाइट्रेट की मात्रा पाचन क्रिया और सांस लेने की तकलीफ को बढ़ा रही है। संसद में पूछे गए सवाल के जवाब में जल संसाधन मंत्रालय ने केंद्रीय भूजल आयोग की रिपोर्ट के आधार पर भूजल प्रदूषण का ब्यौरा दिया। इसके मुताबिक देश के चार सौ से अधिक ज़िलों के भूजल में घातक रसायन घुलने से पीने के स्वच्छ व शुद्ध जल का गंभीर संकट पैदा हो गया है। कई ज़िलों के भूजल में पहले से ही फ्लोराइड, आर्सेनिक, आयरन और भारी धातुएं निर्धारित मानक से अधिक थीं, वहीं ज़्यादातर ज़िलों में नाइट्रेट और आयरन की मात्रा बढ़ रही है।

भूजल में नाइट्रेट बढ़ने के पीछे मानवजनित अतिक्रमण को ज़िम्मेदार बताया गया है। उल्लेखनीय है कि उन राज्यों के भूजल में नाइट्रेट ज़्यादा बढ़ रहा है जहां सघन खेती में उर्वरकों का बेतहाशा उपयोग हो रहा है। भारी धातुओं और अन्य घातक रसायनों के जल में घुलने से पेयजल की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है। यदि समय रहते प्रदूषण की रोकथाम न की गई तो पेयजल संकट खड़ा हो जाएगा।

मालूम हो, प्राकृतिक संसाधन सीमित होते हैं और इनके असीमित उपयोग से संकट खड़ा होना स्वाभाविक है। मानव ने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति के साम्राज्य का भयानक विनाश किया है। इसका परिणाम है कि पृथ्वी के लगभग तीन-चौथाई भाग पर जल होने के बावजूद राष्ट्र संघ की ताज़ा रिपोर्ट बताती है कि विश्व की आधी आबादी को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। भारत में स्थिति और भी अधिक भयावह है। ऐसी विकट परिस्थितियों में भूजल में नाइट्रेट की मात्रा का बढ़ना चिंताजनक है।

लोक सभा में लिखित उत्तर में मंत्रालय ने बताया कि 24 सितंबर 2020 की एक अधिसूचना के मुताबिक भूजल ‌की गुणवत्ता के लिए कई सख्त प्रावधान किए गए हैं। जिनमें सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट स्थापित करना और जलाशयों व नदियों में गंदा पानी डालने के सारे स्रोतों को बंद करना शामिल है। इसी अधिसूचना के तहत केंद्र व राज्य सरकारें संयुक्त रूप से जल जीवन मिशन का संचालन कर रहीं हैं ताकि लोगों को उनके घर तक नल से सुरक्षित पेयजल की आपूर्ति की जा सके। गौरतलब है कि इस मिशन की शुरुआत अगस्त 2019 में की गई थी। इसके तहत वर्ष 2024 तक देश के सभी ग्रामीण घरों को जलापूर्ति सुनिश्चित की जानी है।

स्वास्थ्य संगठन के प्रतिवेदन के मुताबिक लगभग 80 फीसदी रोगों का कारण जल है। इसी प्रकार, आयुर्वेद के अनुसार जल कई रोगों का शामक है।

जानकारी के लिए बता दें कि नाइट्रेट नाइट्रोजन तथा ऑक्सीजन के संयोग से बने हुए ऐसे यौगिक होते हैं जो कई खाद्य पदार्थों, विशेषतः सब्ज़ियों, मांस एवं मछलियों में पाए जाते हैं। वस्तुतः नाइट्रेट जैविक नाइट्रोजन के स्थिरीकरण के अंतिम उत्पाद होते हैं। पानी में नाइट्रेट की अत्यधिक घुलनशीलता तथा मृदा कणों की कम धारण क्षमता के कारण अति सिंचाई या अति वर्षा से खेतों में से बहता पानी अपने साथ नाइट्रेट को भी बहाकर कुंओं, नालों एवं नहरों में ले जाता है। इस प्रकार मनुष्य और पशुओं के पीने का पानी नाइट्रेट प्रदूषित हो जाता है।

देश की जनसंख्या के लिए अनाज उत्पादन हेतु रासायनिक उर्वरकों का अधिकतम उपयोग हो रहा है। विगत वर्षों में देश में नाइट्रोजन उर्वरकों की खपत बहुत बढ़ी है। वैज्ञानिकों ने भूजल में बढ़ती हुई नाइट्रेट सांद्रता का प्रमुख कारण नाइट्रोजन उर्वरक को ही माना है। यह भी देखा गया है कि उर्वरकों के संतुलित उपयोग की अपेक्षा मात्र नाइट्रोजन उर्वरक के उपयोग की वजह से ऐसी स्थिति पैदा होती है।

पेयजल में नाइट्रेट की अधिक सांद्रता मानव, मवेशी, जलीय जीव तथा औद्योगिक क्षेत्र को भी प्रभावित करती है। वस्तुतः नाइट्रेट स्वयं स्वास्थ्य पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालता है, परंतु इसके अपचयन से बने नाइट्राइट की वजह से इसकी अत्यल्प मात्रा भी घातक हो जाती है। नाइट्रेट जब जल या भोजन के माध्यम से शरीर मे प्रवेश करता है तो शरीर के जीवाणुओं द्वारा नाइट्राइट में परिवर्तित कर दिया जाता है जो एक सशक्त ऑक्सीकारक होता है। यह रक्त में हीमोग्लोबिन को मेट-हीमोग्लोबिन में बदल देता है, जिसके कारण हीमोग्लोबिन अपनी ऑक्सीजन परिवहन की क्षमता गंवा देता है। अत्यधिक रूपांतरण की स्थिति में आंतरिक श्वास-अवरोध हो सकता है जिसके लक्षण चमड़ी तथा म्यूकस झिल्ली के हरे-नीले रंग से पहचाने जा सकते हैं। इसे ब्ल्यू बेबी सिंड्रोम या साइनोसिस भी कहते हैं। छोटे बच्चों में यह रूपांतरण दुगनी गति से होता है। दूध पीते बच्चों की माताओं द्वारा उच्च नाइट्रेट युक्त जल पीने से दूध भी विषाक्त हो जाता है।

रूस के वैज्ञानिकों ने नाइट्रेट विषाक्तता के दुष्प्रभाव केंद्रीय तंत्रिका तंत्र पर भी देखे हैं। ये प्रभाव मात्र 105 से 182 मिलीग्राम प्रति लीटर नाइट्रेट सांद्रण पर ही दिखने लगते हैं। इसी प्रकार हृदय संवहनी तंत्र पर भी प्रतिकूल प्रभाव देखे गए हैं।

नाइट्रेट के परिवर्तन से बना नाइट्राइट एन-नाइट्रोसो यौगिक बनाता है जो कैंसरकारी होते हैं। अनुसंधान से पता चला है कि उच्च नाइट्रेट युक्त जल तथा पाचन तंत्र के कैंसर में गहरा सम्बंध है। कुल मिलाकर, जल में नाइट्रेट की बढ़ती मात्रा विभिन्न रोगों को न्यौता देती है।

जल में बढ़ती नाइट्रेट की मात्रा मवेशियों के स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालती है। एक अध्ययन में गाय, भैंस, बकरी जैसे दुधारू मवेशियों में नाइट्रेट विषाक्तता देखी गई है। जई, बाजरा, मक्का, गेहूं, जौ, सूडान ग्रास तथा राई ग्रास ऐसे पौधे हैं जिनमें नाइट्रेट की मात्रा अधिक होती है। यदि चारे को ऐसी भूमि में उगाया जाए जिसमें कार्बनिक तथा नाइट्रोजन तत्व अधिक हों और नाइट्रोजन उर्वरक अधिक मात्रा में प्रयोग किए गए हों तो ऐसी स्थिति में चारे में नाइट्रेट विषाक्तता अधिक हो जाती है। नाइट्रेट विषाक्तता पशुओं में जठर आंत्र शोथ उत्पन्न करती है। चारागाह में चरते पशुओं की अचानक मृत्यु भी देखी गई है। तेज़ दर्द, लार-गिरना, कभी-कभी पेट फूलना तथा बहुमूत्रता जैसे लक्षणों के साथ रोग का एकाएक प्रकोप होता है। श्वास का तेज़ी से चलना तथा श्वास में कष्ट होेना, तेज़ नाड़ी, लड़खड़ाना एवं तापमान का कम हो जाना भी इस रोग के अन्य लक्षण हैं। भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान इज़्ज़तनगर (बरेली) के वैज्ञानिकों ने पाया है कि पैरा घास या अंगोला (ब्रैकिएरिया म्यूटिका) खाने से बछड़ों में अति तीव्र नाइट्रेट विषाक्तता और बकरियों में चिरकालिक नाइट्रेट विषाक्तता हो जाती है। देश के शुष्क क्षेत्रों में गर्मियों के दिनों में प्यासे पशु जब एक साथ अत्यधिक नाइट्रेट युक्त पानी पी लेते हैं तो उनमें नाइट्रेट विषाक्तता उत्पन्न हो जाती है जो कभी-कभी उनकी मृत्यु का कारण भी बन जाती है। कई दुधारू पशुओं में नाइट्रेट युक्त पानी पीने से दुग्धस्राव में कमी एवं गर्भपात भी देखे गए हैं।

सवाल यह है कि जल में बढ़ती नाइट्रेट की मात्रा को कैसे कम किया जाए? जल में नाइट्रेट की उपस्थिति पर सरकारें गंभीर क्यों नहीं हैं? गौरतलब है कि जल राज्य सूची का विषय है। राज्य सरकारें जल में बढ़ते प्रदूषक तत्वों के प्रति ढिलाई बरत रही हैं। केंद्र सरकार का रवैया उदासीन रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि पानी को समवर्ती सूची में शामिल किया जाए। ऐसा होने पर व्यापक कार्य योजना विकसित करने में मदद मिलेगी। केंद्र और राज्यों के बीच सहमति से भूजल सहित जल का बेहतर संरक्षण, विकास और प्रबंधन संभव होगा।

जल में नाइट्रेट के कहर को देखते हुए इसके अधिक सांद्रण को कम किया जाना चाहिए। जल में नाइट्रेट की अत्यधिक घुलनशीलता के कारण इसका जल से अपनयन दुष्कर कार्य होता है। कृषि प्रधान देशों में नाइट्रेट प्रदूषण एक बड़ी समस्या बन चुका है। वर्तमान में किए गए सर्वेक्षण के आधार पर हमारे देश के 16 राज्यों के भूजल में नाइट्रेट का सांद्रण 45 मिलीग्राम प्रति लीटर से अधिक है। इनमें कई राज्यों के भूजल में कुल घुलनशील ठोस का मान भी अधिक है। पेयजल आपूर्ति में नाइट्रेट मुक्त जल प्राप्त करने हेतु वैकल्पिक विधियां अपनाए जाने की दरकार है। ऐसे क्षेत्रों में जहां जल में नाइट्रेट स्तर अधिक हो वहां नलकूप खोदकर जलापूर्ति करना, सपाट कुओं को चौड़ा करना अथवा अधिक गहराई से जल प्राप्त करने की कोशिशें होनी चाहिए। साथ ही जल संसाधन मंत्रालय को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल के सहयोग से डार्क ब्लॉक्स में स्थित गंभीर रूप से प्रदूषित क्षेत्रों को चिंहित करने के लिए कारगर तंत्र विकसित करना चाहिए। सतही जल और भूमिगत जल स्रोतों में औद्योगिक कचरे की डंपिंग को कम करने और नियंत्रित करने के लिए कदम उठाए जाने चाहिए। साथ ही केंद्रीय भूजल प्राधिकरण ने जिन उद्योगों को अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी किए हैं, उनकी नियमित निगरानी के लिए एक व्यवस्था कायम की जानी चाहिए। इससे यह सुनिश्चित होगा कि प्रमाण पत्र में दर्ज शर्तों का पालन किया जा रहा है। सभी राज्य प्रदूषण नियंत्रण मंडलों को उपयुक्त और प्रभावी निगरानी तंत्र गठित करना चाहिए। आज जल संरक्षण हमारा विशेष सरोकार होना चाहिए, जिससे इस समस्या को विकराल रूप धारण करने से रोका जा सके।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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