युरोप के नीचे एक डूबा हुआ महाद्वीप है

हाल ही में वैज्ञानिकों ने दक्षिण युरोप के नीचे एक डूबा हुआ महाद्वीप खोजा है। ग्रेटर एड्रिया नामक यह महाद्वीप 14 करोड़ वर्ष पहले मौजूद था। शोधकर्ताओं ने इसका विस्तृत मानचित्र बनाया है।

साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, ग्रेटर एड्रिया 24 करोड़ वर्ष पहले गोंडवाना से टूटने के बाद उभरा था। गौरतलब है कि गोंडवाना वास्तव में अफ्रीका, अंटार्कटिका, दक्षिण अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और अन्य प्रमुख भूखंडों से बना एक विशाल महाद्वीप था।

ग्रेटर एड्रिया काफी बड़ा था जो मौजूदा आल्प्स से लेकर ईरान तक फैला हुआ था। लेकिन यह पूरा पानी के ऊपर नहीं था। उट्रेक्ट विश्वविद्यालय में डिपार्टमेंट ऑफ अर्थ साइंसेज़ के प्रमुख वैन हिंसबरगेन और उनकी टीम ने बताया है कि यह छोटे-छोटे द्वीपों के रूप में नज़र आता होगा। उन्होंने लगभग 30 देशों में फैली ग्रेटर एड्रिया की चट्टानों को इकट्ठा कर इस महाद्वीप के रहस्यों को समझने की कोशिश की।

गौरतलब है कि पृथ्वी कई बड़ी प्लेटों से ढंकी हुई है जो एक दूसरे के सापेक्ष खिसकती रहती हैं। हिंसबरगेन बताते हैं कि ग्रेटर एड्रिया का सम्बंध अफ्रीकी प्लेट से था, लेकिन यह अफ्रीका महाद्वीप का हिस्सा नहीं थी। यह प्लेट धीरे-धीरे युरेशियन प्लेट के नीचे खिसकते हुए दक्षिणी युरोप तक आ पहुंची थी।

लगभग 10 से 12 करोड़ वर्ष पहले ग्रेटर एड्रिया युरोप से टकराया और इसके नीचे धंसने लगा। अलबत्ता कुछ चट्टानें काफी हल्की थीं और वे पृथ्वी के मेंटल में डूबने की बजाय एक ओर इकठ्ठी होती गर्इं। इसके फलस्वरूप आल्प्स पर्वत का निर्माण हुआ।

हिंसबरगेन और उनकी टीम ने इन चट्टानों में आदिम बैक्टीरिया द्वारा निर्मित छोटे चुंबकीय कणों के उन्मुखीकरण को भी देखा। बैक्टीरिया इन चुंबकीय कणों की मदद से खुद को पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र की सीध में लाते हैं। बैक्टीरिया तो मर जाते हैं, लेकिन ये कण तलछट में बचे रह जाते हैं। समय के साथ यह तलछट चट्टान में परिवर्तित हो जाती और चुंबकीय कण उसी दिशा में फिक्स हो जाते हैं। टीम ने इस अध्ययन से बताया कि यहां की चट्टानें काफी घुमाव से गुजरी थीं।

इसके बाद के अध्ययन में टीम ने कई बड़ी-बड़ी चट्टानों को जोड़कर एक समग्र तस्वीर बनाने के लिए कंप्यूटर की मदद ली ताकि इस महाद्वीप का विस्तृत नक्शा तैयार किया जा सके और यह पुष्टि की जा सके कि यूरोप से टकराने से पहले यह थोड़ा मुड़ते हुए उत्तर की ओर बढ़ गया था।

इस खोज के बाद, हिंसबरगेन अब प्रशांत महासागर में लुप्त हुई अन्य प्लेट्स की तलाश कर रहे हैं। अध्ययन की जटिलता को देखते हुए, किसी निष्कर्ष के लिए 5-10 साल की प्रतीक्षा करनी होगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रांगा: प्रागैतिहासिक काल से आधुनिक काल तक – डॉ. विजय कुमार उपाध्याय

रांगा एक बहुत ही उपयोगी धातु है जिसे संस्कृत में वंग या त्रपुस तथा अंग्रेज़ी में टिन कहा जाता है। लैटिन भाषा में इसे स्टैनम कहा जाता है जिसका अर्थ है सख्त। इसका रासायनिक संकेत Sn, परमाणु संख्या 50 है और परमाणु भार 118.7 है। इसका घनत्व 7.31 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर, द्रवणांक 231.9 डिग्री सेल्सियस, तथा क्वथनांक 2602 डिग्री सेल्सियस है।

यह बताना कठिन है कि मानव ने रांगे का उपयोग सर्वप्रथम कब तथा कहां प्रारंभ किया। शुरू-शुरू में रांगे का उपयोग सिर्फ तांबे के साथ मिलाकर एक मिश्र धातु (एलॉय) बनाने के लिए किया जाता था। इस मिश्र धातु का नाम था कांसा (बेल मेटल)। कांसे के बर्तन तथा औज़ार शुद्ध तांबे से बने बर्तनों तथा औज़ारों की तुलना में अधिक मज़बूत होते थे। परंतु आज यह किसी को मालूम नहीं कि उस काल में कांसे के निर्माण हेतु जो टिन उपयोग में लाया जाता था वह धात्विक अवस्था में होता था अथवा टिनयुक्त अयस्क को ही अवकारक परिस्थितियों में मिश्रित कर कांसे का निर्माण किया जाता था।

ऐतिहासिक साक्ष्यों से पता चलता है कि रांगे का उपयोग सर्वप्रथम पूर्वी देशों (जैसे भारत, चीन वगैरह) में शुरू हुआ। भारत में लगभग साढ़े तीन हज़ार वर्ष ईसा पूर्व रांगे को उपयोग में लाए जाने के प्रमाण मिलते हैं। गुजरात में लोथल नामक स्थान पर कुछ हड़प्पा कालीन पुरातात्विक अवशेष मिले हैं जिनसे पता चलता है कि वहां मालाओं में उपयोग हेतु धातु के मनके बनाए जाते थे। इन धातुओं में रांगा भी शामिल था। ये अवशेष लगभग पांच हज़ार वर्ष पुराने बताए जाते हैं। महाभारत काल में भी अन्य धातुओं के साथ कांसे का उपयोग किया जाता था।

मौर्य तथा गुप्त काल में भी अन्य धातुओं के साथ कांसे का काफी अधिक उपयोग किया जाता था। गुप्त काल में कांसे से बर्तन तथा मूर्तियों के अलावा सिक्कों का भी निर्माण किया जाता था। गुप्त काल में निर्मित कांसे की मूर्तियां भारत में कई स्थानों पर पुरातात्विक खुदाई के दौरान पाई गई हैं। बिहार में भागलपुर ज़िले के बटेश्वर नामक पहाड़ी स्थल पर प्राचीन काल के कुछ पुरातात्विक अवशेष मिले हैं जिनमें कांस्य मूर्तियां भी शामिल हैं। ये मूर्तियां पाल एवं गुप्त काल की बताई जाती हैं। इन मूर्तियों में शामिल हैं ध्यान तथा भूमि स्पर्श मुद्रा में गौतम बुद्ध की कांस्य प्रतिमा। इसी काल की कुछ कांस्य प्रतिमाएं भागलपुर ज़िले में ही एक अन्य स्थान सुल्तानगंज में भी मिली हैं। दूसरी इस्वीं शताब्दी में भारत के महान आयुर्वेदाचार्य चरक ने वंग भस्म (टिन ऑक्साइड) को औषधि निर्माण हेतु उपयोगी पाया था। कहा जाता है कि चीन में भी लगभग 1800 ईसा पूर्व कांस्य उद्योग काफी पनप चुका था।

मिरुा में एक स्थान पर पुरातात्विक खुदाई से 3700 ईसा पूर्व में निर्मित कांसे की एक छड़ पाई गई है। इसके रासायनिक विश्लेषण से पता चला है कि इसमें 9.1 प्रतिशत रांगा उपस्थित है। मिरुा में ही 600 ईसा पूर्व रांगे की चादर का उपयोग किसी व्यक्ति के मृत शरीर को लपेटकर कब्र में दफनाने के लिए किया गया था।

शुद्ध रांगे से निर्मित जो सबसे पुरानी वस्तुएं मिली हैं उनमें शामिल हैं अंगूठी तथा तीर्थ यात्रियों द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली बोतलें। ये वस्तुएं मिरुा में अनेक स्थानों पर की गई खुदाई से मिली हैं। ये चीजें लगभग 1500 वर्ष ईसा पूर्व निर्मित बताई जाती हैं। रांगा मिरुा में कहीं नहीं पाया जाता। अत: यह निष्कर्ष निकाला गया है कि यहां रांगे का आयात अन्य देशों से किया जाता था। ऐसा माना जाता है कि भूमध्य सागरीय क्षेत्र के देशों में रांगा या रांगे से बनी वस्तुएं एशियाई देशों से मंगाई जाती थीं।

प्रारंभिक हिब्रू, ग्रीक तथा लैटिन साहित्य में जो ‘टिन’ शब्द व्यवहार में लाया जाता था उसका अर्थ आज से भिन्न था। बाइबल में वर्णित ‘टिन’ शब्द हिब्रू शब्द ‘बेडिल’ के अर्थ में आया है। बेडिल शब्द का उपयोग तांबे तथा टिन की मिश्र धातु के लिए किया जाता था। यूनान के महान कवि होमर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक इलियाड में कांसे तथा टिन को अलग-अलग धातुओं के रूप में माना है।

युरोप में कई देशों में रांगे का खनन एवं व्यापार कई सदियों से चलता रहा है। लगभग 15वीं शताब्दी ईसा पूर्व में टिन के खनन प्रारंभ किए जाने के संकेत मिले हैं। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि इंग्लैंड में कॉर्नवाल की खानों से टिन का काफी अधिक खनन किया जाता था। फिर उस टिन को पूर्वी भूमध्य सागरीय क्षेत्र के देशों में स्थित धातुकर्म केन्द्रों पर पहुंचाया जाता था। कुछ उपलब्ध साक्ष्यों से पता चलता है कि लगभग 500 ईसा पूर्व तक कॉर्नवाल की खानों से लगभग 30 लाख टन रांगे का खनन किया गया। उस काल में ब्रिाटेन से प्रति वर्ष लगभग एक हज़ार टन टिन का निर्यात अन्य देशों को किया जाता था। 1925 इस्वीं में इंग्लैंड के पुरात्ववेत्ताओं को ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में निर्मित एक दुर्ग की खुदाई करते समय प्रगलन भट्टियां मिलीं जिनके अंदर टिन-युक्त धातु-मल पड़ा हुआ था। इससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि आज से लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व इंग्लैंड में टिन का उपयोग काफी विकसित अवस्था में था। जूलियस सीज़र ने अपनी पुस्तक डी बैलो गैलिको में भी इस बात की चर्चा की है कि इंग्लैंड के कुछ क्षेत्रों में टिन का उत्पादन किया जाता था।

पेरू के रेड इंडियन (जिन्हें इन्का कहा जाता है) लोगों द्वारा निर्मित एक पुराने किले में वैज्ञानिकों को शुद्ध टिन मिला है। उन लोगों ने यह टिन शायद कांसे के निर्माण के लिए रखा होगा। यहां की वस्तुएं काफी उच्च कोटि की मानी जाती थीं। 16वीं शताब्दी में जब स्पैनिश विजेता कार्टेस मेक्सिको पहुंचा तो स्थानीय लोगों द्वारा टिन से बने सिक्कों का उपयोग होते देखा।

प्राचीन काल में टिन का उपयोग प्राय: कांसे के निर्माण के लिए किया जाता था। फिर कांसे से दैनिक उपयोग के सामान (जैसे चाकू, हथियार, बर्तन तथा आभूषण) बनाए जाते थे। मध्यकाल में कांसे का उपयोग घंटियों के निर्माण के लिए व्यापक स्तर पर किया जाने लगा। टिन में कुछ विशेष गुण होते हैं। जैसे इसमें जंग नहीं लगता। यह आघातवर्धनीय है (यानी इसकी चादरें बनाई जा सकती हैं) तथा इसका द्रवणांक भी कम है। ये सभी गुण मिल कर रांगे को काफी उपयोगी बना देते हैं। सन् 79 में प्लीनी ने बताया था कि टिन तथा लेड की मिश्र धातु को आसानी से पिघलने वाले सोल्डर के रूप में उपयोग में लाया जा सकता है। रोमवासी अपने तांबे के बर्तनों पर टिन की कलई किया करते थे। इंग्लैंड में 17वीं सदी के मध्य के दौरान रांगे की कलई युक्त इस्पात का निर्माण किया जाने लगा। रांगे में यह विशेषता है कि यह हवा में रहने पर ऑक्सीजन के संयोग से अपने चारों ओर टिन ऑक्साइड की एक सूक्ष्म परत का निर्माण कर लेता है। यह परत स्थाई होती है जो पानी, नाइट्रोजन, हाइड्रोजन, कार्बन डाईऑक्साइड तथा अमोनिया आदि से प्रतिक्रिया नहीं करती।

अभी संसार में उत्पादित कुल रांगे का लगभग आधा भाग टिन प्लेट के निर्माण में खर्च हो जाता है जिसे मुख्यत: डिब्बों के निर्माण के लिए उपयोग किया जाता है। यही कारण है कि टिन को डिब्बों की धातु कहा जाता है।

विभिन्न उपयोगों में टिन के रासायनिक यौगिकों का उपयोग व्यापक स्तर पर किया जाता है। स्टैनस तथा स्टैनिक क्लोराइड रूई तथा रेशम को रंगने में रंग को पक्का बनाने का काम करते हैं। चीनी मिट्टी के बर्तनों तथा कांच में लाली लाने के लिए ‘कारियस पर्पल’ नामक पदार्थ को उपयोग में लाया जाता है। यह स्टैनस क्लोराइड तथा स्वर्ण क्लोराइड के विलयन से बनाया जाता है। सुनहरे रंग में किसी वस्तु को रंगने के लिए स्टैनस डाईसल्फाइड का उपयोग किया जाता है।  इसे ‘मोज़ैक स्वर्ण’ भी कहा जाता है।

भूपटल में रांगा सिर्फ 0.004 प्रतिशत उपस्थित है। यह प्राय: ग्रैनाइट के साथ पाया जाता है। ग्रैनाइट की एक पट्टी दक्षिण पूर्व एशिया, चीन, मलाया, इंडोनेशिया तथा पूर्वी ऑस्ट्रेलिया से होकर गुज़रती है जिसमें रांगे के अयस्क पाए जाते हैं। युरोप में रांगायुक्त ग्रैनाइट सैक्सोनी, चेकोस्लोवाकिया, इंग्लैंड, फ्रांस तथा स्पेन में पाया जाता है। दक्षिणी अमेरिका में रांगायुक्त ग्रैनाइट बोसीनिया में मिलता है। अफ्रीका में नाइजीरिया तथा कांगो में रांगायुक्त ग्रैनाइट पाया जाता है। प्राचीन काल से ही टिन का प्रमुख अयस्क कैसीटेराइट रहा है। टिन के उत्पादन में मलेशिया का योगदान सबसे अधिक है। टिन का उत्पादन करने वाले अन्य प्रमुख देश हैं रूस, चीन, इंडोनेशिया, थाइलैंड तथा ऑस्ट्रेलिया। नीदरलैंड में भी काफी टिन मिलता है।

भारत में टिन खनिजों के उत्खनन के प्रयास प्रागैतिहासिक काल से ही चलते रहे हैं। भारत में रांगे का प्रमुख उपयोग था कांसे का निर्माण। उस काल में हमारे देश में रांगे का खनन छिटपुट ढंग से तथा गृह उद्योग स्तर पर किया जाता था। प्राचीन काल के दौरान भारत के किसी भाग में व्यापक स्तर पर रांगे के खनन के संकेत नहीं मिलते। मैक्सीलैंड नामक एक भूविज्ञानवेत्ता ने सन् 1849 में पारसनाथ (झारखंड) के निकट पुरगो नामक स्थान पर कैसीटेराइट खनिज का लौह भट्टी में प्रगलन कुटीर उद्योग स्तर पर होते देखा था। लुइस फर्मोर नामक भूविज्ञानवेत्ता ने सन् 1906 में बताया कि पुरगो क्षेत्र में कैसीटेराइट ग्रेनुलाइट नामक शैल की एक पतली परत लगभग 15 सेंटीमीटर मोटी है जिसमें कैसीटेराइट 30 से 50 प्रतिशत तक उपलब्ध है।

बिहार के गया जिले में धनरास तथा ढकनहवा पहाड़ियों में कैसीटेराइट की प्राप्ति के समाचार कुछ समय पूर्व मिले थे। यहां पर टिन अयस्कयुक्त शैल की परत लगभग चार किलोमीटर लम्बी तथा 0.36 किलोमीटर चौड़ी है। झारखंड के हज़ारीबाग जिले में अनेक स्थानों पर कैसीटेराइट पाया जाता है। राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में सोनियाना नामक स्थान पर कैसीटेराइट पाया जाता है। भीलवाड़ा जिले में परोली नामक स्थान पर पेगमेटाइट नामक शैल में कैसीटेराइट पाया जाता है। कर्नाटक में धारवाड़ जिले के डम्बल नामक स्थान पर भी कैसीटेराइट पाया जाता है। मध्य प्रदेश के बस्तर जिले में गोविन्दपाल, चीतलनार, मुंडवाल तथा जोगपाल नामक स्थानों पर उच्च दर्जे का कैसीटेराइट पाया जाता है जिसमें टिन की मात्रा 55 से 67 प्रतिशत तक है। फिलहाल भारत में टिन का खनन कहीं भी नहीं हो रहा है। (स्रोत फीचर्स)

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जारी है मौसम की भविष्यवाणी के प्रयास – नरेन्द्र देवांगन

टली के आल्प्स पर्वतीय क्षेत्र में चार इंजनों वाला एक टर्बाइन चालित विमान उड़ान भर रहा था। विमान ने 1524 मीटर की ऊंचाई से गोता लगाया। इससे पहले कि वह फिर से अपनी सही अवस्था में आए, विमान सिर्फ 90 सेकंड में 213 मीटर की ऊंचाई तक आ चुका था। कुछ ही मिनटों में वह स्विट्ज़रलैंड के सेंट गाटहार्ड दर्रे में ऊपर-नीचे होता हुआ अपने पूर्व निश्चित लक्ष्य की ओर उड़ान भर रहा था। वह चारों ओर से बहुत ही खराब मौसम से घिर चुका था। 7 घंटे से भी अधिक समय तक यह विमान हिचकोले भरता हुआ आल्प्स के इर्द-गिर्द उड़ता रहा और अंत में भूमध्य सागर तथा 4 देशों की सीमाएं पार कर जेनेवा के कोयनट्रिन हवाई अड्डे पर उतरा।

विमान में सवार युरोप और अमरीका के 12 वायुमंडलीय वैज्ञानिकों में से किसी के भी चेहरे पर परेशानी का भाव नहीं था। उनके लिए यह कष्टकारी उड़ान उनके मिशन का एक हिस्सा थी। एल्पाइन एक्सपेरिमेंट (एलपेक्स) के अंतर्गत उड़ान भर रहे इस विमान का उद्देश्य यह अध्ययन करना था कि पर्वतमालाएं एक बड़े क्षेत्र के मौसम को किस तरह प्रभावित करती हैं। इस कार्य के लिए विमान में पूरी प्रयोगशाला थी जिसमें वायु गति मापने से ले कर बादलों में पानी की मात्रा आदि सभी चीज़ें दर्ज करने के लिए कंप्यूटर व अनेक सूक्ष्म यंत्र लगे हुए थे जो उन कारणों का पता लगा रहे थे जिनसे आल्प्स के मौसम से तेज़ हवाएं पैदा होती हैं और दक्षिण फ्रांस से होती हुई इटली के एड्रियाटिक सागर तट पर पहुंच कर तबाही मचाती हैं।

किसी भी वैज्ञानिक चुनौती की अपेक्षा मौसम की भविष्यवाणी करना अधिक रहस्यमय है। खेती-बाड़ी, परिवहन, जहाज़रानी, उड्डयन और यहां तक कि सैर-सपाटे के लिए भी मौसम की पूर्व जानकारी होना महत्वपूर्ण है। अनुमान है कि अकेले पश्चिमी युरोप के लिए ही मौसम की 7 दिन की पूर्ण विश्वसनीय भविष्यवाणी करने से हर साल करोड़ों डॉलर का फर्क पड़ जाता है।

मनुष्य सदियों से मौसम की भविष्यवाणी करने का प्रयास कर रहा है। युरोप के कुछ देशों में तो वर्षा और तापमान के 300 वर्ष पुराने रिकार्ड मिले हैं। परंतु पुराने समय के मौसम वैज्ञानिक बड़े-बड़े यंत्रों और गणना करने की उच्च क्षमता के बिना अपने अनुभवों के आधार पर ही भविष्यवाणियां किया करते थे।

लगभग 60 वर्ष पहले ब्रिटिश वैज्ञानिक एल. एफ. रिचर्डसन ने यह प्रमाणित किया कि भौतिकी के नियमों पर आधारित गणित के समीकरणों की सहायता से मौसम की भविष्यवाणी की जा सकती है। परंतु रिचर्डसन ने एक छोटे से इलाके के मौसम की 6 घंटे पहले भविष्यवाणी करने का जो प्रयास किया, उसकी गणना करने में उन्हें कई सप्ताह तक कड़ी मेहनत करनी पड़ी। अपने इस प्रयास के उपरांत वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि पूरे विश्व के मौसम की निरंतर भविष्यवाणी करने के लिए 64,000 व्यक्तियों को गणना करने वाली साधारण मशीनों पर लगातार काम करते रहना होगा।

1950 में गणितज्ञ जान फॉन नॉइमान और उनके सहयोगियों ने इस समस्या को कंप्यूटर की मदद से हल किया। आज के सशक्त और तेज़ कंप्यूटर तो इस विधि के मुख्य आधार हैं। लेकिन उन्नत तकनीकों ने मौसम के पूर्वानुमान को अत्यधिक खर्चीला बना दिया है। दुनिया की समस्त मौसम विज्ञान सेवाओं को चलाने की सालाना लागत दो अरब डॉलर से अधिक है।

आफनबाक (पश्चिमी जर्मनी) स्थित प्रेक्षणशाला में पूरी कमान कंप्यूटरों के हाथ में है। यहां विश्व के 9000 से अधिक केंद्रों से वायु की दिशा, आद्रता और वायु दाब के बारे में सूचनाएं एकत्र कर कंप्यूटर में डाली जाती हैं। कभी-कभी तो हज़ारों किलोमीटर दूर दर्ज किए गए आंकड़े भी घंटे भर के अंदर कंप्यूटर में भर दिए जाते हैं। जेनेवा स्थित विश्व मौसम विज्ञान संगठन विभिन्न देशों से तथा विमान चालकों, व्यापारिक जहाज़ों और मौसम उपग्रहों से प्राप्त मौसम के सैकड़ों नक्शे जारी करता है। युरोप का मौसम उपग्रह मेटियोसैट-2 भूमध्य रेखा के ऊपर 36,000 कि.मी. की ऊंचाई से हर आधे घंटे बाद वायुमंडल के चित्र भेजता है।

उपग्रहों द्वारा मौसम के बारे में एकत्रित की गई जानकारी हमें अंकों के रूप में प्राप्त होती है। इन अंकों में वायुमंडल की निश्चित समय की परिस्थितियों का पूर्ण विवरण होता है। इस विवरण से कंप्यूटर पूरे वायुमंडल का एक काल्पनिक चित्र तैयार करता है। इस चित्र में विभिन्न स्थान बिंदुओं की सहायता से दर्शाए जाते हैं। इस मानचित्र को गणित समीकरणों की बहुत ही जटिल प्रणाली में फिट किया जाता है। इसी से यह पता चलता है कि प्रत्येक बिंदु पर मौसम में कैसा-कैसा परिवर्तन होगा।

ऐसा माना जाता है कि इंग्लैंड के रीडिंग शहर में स्थित युरोपियन सेंटर फॉर मीडियम रेंज वेदर फोरकास्ट (ईसीएमडब्लूएफ) मौसम की भविष्यवाणी करने वाला सर्वश्रेष्ठ केंद्र है। इस केंद्र में लगा शक्तिशाली कंप्यूटर प्रति दिन लगभग 8 करोड़ सूचनाएं प्राप्त करता है तथा प्रति सेकंड एक साथ 5 करोड़ क्रियाएं कर सकता है।

मध्यम दूरी के मौसम की भविष्यवाणी करना किसी भी अकेले देश के तकनीकी और वित्तीय साधनों के बस के बाहर है, अत: यह केंद्र स्थापित किया गया। केंद्र के निदेशक के अनुसार, बादलों के लिए राष्ट्रों की सीमाओं का कोई महत्व नहीं है। अब 5-6 दिन तक के मौसम की सही भविष्यवाणी की जा सकती है। पहले केवल 2-3 दिन की भविष्यवाणी सही होती थी।

मौसम के बारे में दो-तीन दिन पहले की सूचना भी बहुत महत्वपूर्ण हो सकती है। नवंबर में जब इटली के दक्षिणी भाग में भूकंप आया तो ईसीएमडब्लूएफ ने आने वाले सप्ताह के दौरान ठंडे मौसम और तेज़ तूफान आने की बिलकुल सही भविष्यवाणी की थी। स्थानीय अधिकारी सचेत हो गए कि ढाई लाख बेघर भूकंप पीड़ितों के लिए गरम कपड़ों और शरण स्थलों की आवश्यकता होगी।

ईसीएमडब्लूएफ तथा अन्य सभी राष्ट्रीय केंद्रों द्वारा इस्तेमाल में लाए जाने वाले कंप्यूटर मॉडलों की बराबर सूक्ष्म ट्यूनिंग की जाती है ताकि वे सटीक काम करें। कई मौसम कार्यालयों में और भी सूक्ष्म ग्रिड लगाए गए हैं ताकि छोटे-छोटे क्षेत्रों के बारे में भविष्यवाणी की जा सके। कहते हैं कि 1982 में मध्य फ्रांस में तबाही मचाने वाले बर्फीले तूफान के बारे में पहले से भविष्यवाणी नहीं की जा सकी थी क्योंकि वह इलाका ग्रिड के हिसाब से बहुत ही छोटा था।

इसके बाद फ्रांस में सूक्ष्म ग्रिड इस्तेमाल किया जाने लगा जो बहुत कम दूरी पर स्थित बिंदुओं को भी अलग-अलग दर्शा सकता है। मौसम वैज्ञानिकों का लक्ष्य इन मॉडलों को और अधिक सटीक बनाना तथा पूर्वानुमान लगाने की सीमा को 10 दिन तक बढ़ाना है।

वैज्ञानिक मौसम की भविष्यवाणी के दूसरे पहलुओं पर भी काम करने लगे हैं। जैसे बहुत ही कम अवधि यानी कुछ ही घंटों के मौसम की जानकारी देना। इसे ‘नाऊकास्टिंग’ यानी तत्काल पूर्वानुमान कहते हैं। अलबत्ता, अल्प अवधि की ये भविष्यवाणियां पूरी तरह पक्की नहीं होतीं। जैसे ब्रिाटेन का मौसम कार्यालय आसमान साफ रहने या कहीं-कहीं वर्षा होने की भविष्यवाणी तो कर सकता है परंतु ठीक-ठीक नहीं बता सकता कि छिटपुट वर्षा कहां होगी तथा कहां ज़्यादा होगी।

इन प्रश्नों के उत्तर नाऊकाÏस्टग द्वारा दिए जा सकते हैं। राडार और उपग्रहों से प्राप्त संकेतों के ज़रिए स्थानीय मौसम के बारे में 6 घंटे पहले भविष्यवाणी की जा सकती है। आंकिक मॉडल से मौसम सम्बंधी जानकारी जहां हमें केवल वायुमंडल के तापमान, नमी और हवा की दिशा के रूप में मिलती है, वहां राडार की आंखें वर्षा को भी देख सकती हैं तथा कुछ किलोमीटर तक उसकी स्थिति दर्शा सकती है। उपग्रहों से प्राप्त इंफ्रारेड चित्रों और राडार की मदद से मौसम वैज्ञानिक बिजली गिरने अथवा जल प्लावन जैसी छोटी-मोटी घटनाओं के बारे में भविष्यवाणी कर सकते हैं। इसके अलावा कंप्यूटरों द्वारा यह भी मालूम कर सकते हैं कि वर्षा तूफान का रुख किधर होगा तथा उसकी तीव्रता में क्या-क्या परिवर्तन आ सकते हैं।

बहुत ही छोटे क्षेत्रों के मौसम का अध्ययन दक्षिण फ्रांस के तूलूज स्थित न्यू मेटियोरलॉजिकल नेशनल सेंटर में भी किया जाता है। इस केंद्र में अनुसंधानकर्ता जिस स्केल मॉडल की सहायता से परीक्षण करते हैं, वह स्थानीय क्षेत्रों की रूपरेखा का आंकिक मॉडल न हो कर भौतिक मॉडल है। 10 मीटर लंबे और 3 मीटर चौड़े इन मॉडलों को पानी के एक बड़े टैंक में रखा जाता है। इसके बाद पानी में हलचल पैदा की जाती है ताकि मॉडल के ऊपर और आसपास से पानी ठीक उसी तरह गुज़रे जिस तरह वास्तविक पर्वतों और घाटियों में से हवा गुज़रती है। अनुसंधानकर्ता लेसर किरणों की सहायता से पानी के वेग और हलचल को माप कर उसके आधार पर स्थानीय मौसम का एक विस्तृत मानचित्र तैयार कर लेते हैं।

मौसम की भविष्यवाणी के क्षेत्र में प्रगति धीमी अवश्य है, लेकिन नाऊकॉस्टिंग से लेकर मध्यम दूरी की भविष्यवाणी तक का दृष्टिकोण मौसम विज्ञान की प्रगति के लिए अति महत्वपूर्ण है। एलपेक्स के वैज्ञानिक डॉ. योआकिम क्यूटनर का कहना है, ‘जब तक आप यह नहीं समझेंगे कि मौसम की रचना कैसे होती है, तब तक आप उसकी सही-सही भविष्यवाणी नहीं कर सकते।’ (स्रोत फीचर्स)

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पृथ्वी की कोर ढाई अरब वर्षों से रिस रही है

पृथ्वी की संरचना विभिन्न परतों से बनी है। सतह से चलें तो एक के बाद एक कई परत पार करने के बाद धरती के केंद्र में अत्यधिक गर्म क्षेत्र है जिसे कोर कहा जाता है। कई दशकों से वैज्ञानिकों में इस सवाल पर मतभेद रहा है कि क्या कोर और पृथ्वी की अन्य परतों (खासकर मैंटल) के बीच पदार्थ का आदान-प्रदान होता है या नहीं। हालिया अध्ययन से मालूम चला है कि कोर से कुछ रिसाव मैंटल में हो रहा है। इसका कुछ हिस्सा पृथ्वी की सतह पर भी पहुंच रहा है।

दी कंवर्सेशन में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार यह रिसाव लगभग 2.5 अरब वर्षों से हो रहा है। इस निष्कर्ष तक पहुंचने में मुख्य भूमिका टंगस्टन (W) नामक तत्व की रही। खास तौर पर टंगस्टन के दो समस्थानिक मददगार रहे – W-182 और W-184। गौरतलब है कि किसी भी तत्व के समस्थानिक उन्हें कहते हैं जिनकी परमाणु संख्या तो एक ही होती है किंतु परमाणु भार अलग-अलग होते हैं।

टंगस्टन धातु सिडरोफाइल है यानी यह लौहे से आकर्षित होती है। पृथ्वी का कोर मुख्य रूप से लोहे और निकल से बना है, इसलिए इसमें कोई अचरज की बात नहीं है कि उसमें काफी मात्रा में टंगस्टन पाया जाता है।

एक अन्य तत्व, हाफनियम (Hf), जो लिथोफाइल है यानी चट्टानों से आकर्षित होता है, पृथ्वी के सिलिकेट-समृद्ध मैंटल में ज़्यादा मात्रा में पाया जाता है।

हाफनियम का एक समस्थानिक Hf-182 है। यह रेडियोसक्रिय होता है और टूटकर W-182 में बदलता रहता है। इसके हिसाब से वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया कि कोर की तुलना में मैंटल में W-182:W-184 अनुपात अधिक होना चाहिए क्योंकि मैंटल में Hf-182 टूट-टूटकर W-182 में बदलता रहा होगा।

पृथ्वी की उम्र के साथ समुद्री द्वीपों के बैसाल्ट (एक प्रकार की आग्नेय चट्टान) में 182W/184W के अनुपात में अंतर से कोर और मैंटल के बीच रासायनिक आदान-प्रदान का पता लगाया जा सकता है। लेकिन यह अंतर बहुत कम होने की संभावना था।

एक मुश्किल और थी। कोर लगभग 2900 किलोमीटर की गहराई पर शुरू होता है, जबकि हम अभी तक 12.3 कि.मी. गहराई तक ही खोद पाए हैं।

इसलिए शोधकर्ताओं ने उन चट्टानों का अध्ययन किया जो पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के पिलबारा क्रेटन, हिंद महासागर स्थित रियूनियन द्वीप और केग्र्यूलन द्वीपसमूह में गहरे मैंटल से पृथ्वी की सतह तक पहुंची थीं।

पृथ्वी के जीवनकाल की अलग-अलग अवधियों में, मैंटल में टंगस्टन के समस्थानिकों का अनुपात बदलता रहा है। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से मालूम चला कि आधुनिक चट्टानों की तुलना में पृथ्वी की सबसे पुरानी चट्टानों में W-182 का अनुपात अधिक है। इसका मतलब यही हो सकता है कि कोर में से टंगस्टन निकलकर मैंटल में पहुंचा है। चूंकि कोर में W-182 कम और W-184 अधिक होता है इसलिए यदि वहां से टंगस्टन रिसकर मैंटल में पहुंचेगा तो मैंटल में भी W-182 का अनुपात कम होता जाएगा।

उपरोक्त अध्ययन में टंगस्टन के समस्थानिकों के अनुपात में अंतर करीब 2.5 अरब वर्ष पूर्व की चट्टानों में दिखे हैं, उससे पहले की चट्टानों में नहीं। यानी माना जा सकता है कि कोर से मैंटल में रिसाव 2.5 अरब वर्ष पूर्व ही शुरू हुआ है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भूकंप निर्मित द्वीप गायब

पाकिस्तान के तट के समीप 6 साल पहले भूकंप के कारण अस्तित्व में आया एक छोटा-सा द्वीप हाल ही में लहरों में समा गया है।

दरअसल साल 2013 में पाकिस्तान में आए तीव्र भूकंप के कारण तट के नज़दीक समुद्र में एक द्वीप बन गया था। रिक्टर पैमाने पर 7.7 की तीव्रता के इस प्रलयंकारी भूकंप में लगभग 320 लोग मारे गए थे और हज़ारों लोग बेघर हो गए थे। अरेबियन टेक्टॉनिक प्लेट के युरेशियन प्लेट पर रगड़ने के कारण नीचे दबी मिट्टी ज्वालामुखी से बाहर निकलने लगी। ऐसे ज्वालामुखी जो आग और लावा की बजाय कीचड़ उगलते हैं, उन्हें मड वॉल्केनो या पंक ज्वालामुखी कहते हैं। यह इतनी तेज़ी से बाहर निकली कि इसके साथ चट्टान और चिकने पत्थर भी ऊपर आ गए और इस द्वीप की सतह पर जमा हो गए। यह द्वीप 20 मीटर ऊंचा, 90 मीटर चौड़ा और 40 मीटर लंबा था। इस पंक ज्वालामुखी विस्फोट से निकले मलबे से बने इस द्वीप को ज़लज़ला कोह नाम दिया गया था।

इस दौरान लिए गए उपग्रह चित्रों से पता चलता है कि समय के साथ यह द्वीप किनारों से धीरे-धीरे खत्म होता गया और 27 अप्रैल के चित्रों में यह पूरी तरह ओझल हो गया। लेकिन ज़लज़ला कोह अभी पूरी तरह गायब नहीं हुआ है। द्वीप के स्थान के आसपास इस द्वीप के पदार्थ मंडरा रहे हैं। नासा के अनुसार इस क्षेत्र में पंक ज्वालामुखी विस्फोटों से द्वीपों के बनने और गायब हो जाने का लंबा इतिहास रहा है। तेज़ी से जमा हुई गाद से बने इस ज़लज़ला कोह द्वीप की लंबे समय तक रहने की संभावना वैसे भी नहीं थी। नासा के अनुसार इन दरारों से भविष्य में और भी द्वीप बनने की संभावना है। (स्रोत फीचर्स)

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हीरों का निर्माण महासागरों में हुआ था

क्सर कहा जाता है कि हीरे सदा के लिए होते हैं, और हों भी क्यों नहीं। ये अरबों वर्ष पुरानी परिवर्तित चट्टानें हैं जो पृथ्वी के अंदरूनी हिस्से में सदियों तक दबाव और झुलसाने वाले तापमान के संपर्क में रहने के बाद तैयार हुई हैं।

एक चमकदार हीरा बनने में काफी समय लगता है। वैज्ञानिकों के पास आज भी इनके बनने का कोई पक्का जवाब नहीं है। एक प्रचलित सिद्धांत के अनुसार हीरे तब बनते हैं जब समुद्र के पेंदे की प्लेट महाद्वीपीय प्लेटों के नीचे दब जाती हैं। इस प्रक्रिया के दौरान, समुद्री प्लेट और समुद्र के तल के सभी खनिज पृथ्वी के मेंटल में सैकड़ों कि.मी. गहराई में दब जाते हैं। यहां वे धीरे-धीरे उच्च तापमान और दबाव के कारण क्रिस्टलीकृत होते हैं। यह दबाव पृथ्वी की सतह की तुलना में दस हज़ार गुना अधिक होता है। अंतत: ये क्रिस्टल ज्वालामुखीय मैग्मा के साथ मिलकर ग्रह की सतह पर हीरे के रूप में बाहर आते हैं।

समुद्र के खनिजों में पाया जाने वाला नीला रत्न इस सिद्धांत का समर्थन करता है। ये हीरे सबसे दुर्लभ और सबसे महंगे हैं, इसलिए उनका अध्ययन करना मुश्किल हो जाता है। हाल ही में साइंस एडवांसेस जर्नल में प्रकाशित एक शोध में हीरे की समुद्री उत्पत्ति के लिए नए सबूत मिले हैं। अध्ययन के लिए, शोधकर्ताओं ने फाइब्रस हीरे नामक साधारण रत्नों के अंदर नमक के अवशेष का अध्ययन किया।

अधिकांश हीरों के विपरीत फाइब्रस हीरे नमक, पोटेशियम और अन्य पदार्थों के थोड़े से अवशेष के साथ बनते हैं। आभूषणों के हिसाब से तो ये कम मूल्यवान हैं, लेकिन वैज्ञानिक अध्ययन की दृष्टि से काफी कीमती हैं। इस अध्ययन के प्रमुख मैक्वेरी विश्वविद्यालय, ऑस्ट्रेलिया के प्रोफेसर माइकल फॉरस्टर के अनुसार एक सिद्धांत कहता है कि हीरे के अंदर नमक समुद्री पानी के कारण आता है लेकिन अभी तक इस सिद्धांत का परीक्षण नहीं किया जा सका था।  

वास्तविक हीरे की प्राचीन उत्पत्ति का पता लगाने के लिए फॉरस्टर और उनके सहयोगियों ने इसे अपनी प्रयोगशाला में बनाने का प्रयास किया। टीम ने समुद्री तलछट के नमूनों को पेरिडोटाइट नामक एक खनिज के साथ एक पात्र में रखा। पेरिडोटाइट एक आग्नेय चट्टान है जो व्यापक रूप उस गहराई पर मौजूद है जहां हीरे बनने का अनुमान है। इसके बाद उन्होंने मिश्रण को पृथ्वी के मेंटल के अनुमानित तापमान और दबाव पर रखा।

देखा गया कि जब मिश्रण को 4-6 गिगापास्कल (समुद्र सतह के वायुमंडलीय दबाव की तुलना में  40,000 से 60,000 गुना अधिक) दबाव और 800 से 1,100 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर रखा गया, तब जो हीरे बने उनमें नमक के लगभग वैसे ही क्रिस्टल मिले जैसे कुदरती फायब्रास हीरों में होते हैं।

वैज्ञानिक यह तो जानते थे कि हीरे बनने के लिए थोड़ा नमकीन तरल पदार्थ आसपास होना चाहिए, और अब इस परीक्षण से इस बात की पुष्टि भी हो गई है। फॉरस्टर और टीम द्वारा इस परीक्षण में उन खनिजों का भी निर्माण हुआ जो किम्बरलाइट का निर्माण करते हैं। यह वही किम्बरलाइट है जिसके साथ हीरे ज्वालामुखी मैग्मा के साथ बाहर आते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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पृथ्वी धुरी पर क्यों घूमती है?

पृथ्वी के अस्तित्व में आने से लेकर अभी तक वह लगातार अपनी धुरी पर घूम रही है। इसके घूमने से ही हम रोज़ सूर्योदय और सूर्यास्त देखते हैं। और जब तक सूरज एक लाल दैत्य में परिवर्तित होकर पृथ्वी को निगल नहीं जाता तब तक ऐसे ही घूमती रहेगी।  लेकिन सवाल यह है कि पृथ्वी घूमती क्यों है?

पृथ्वी का निर्माण सूर्य के चारों ओर घूमने वाली गैस और धूल की एक डिस्क से हुआ। इस डिस्क में धूल और चट्टान के टुकड़े आपस में चिपक गए और पृथ्वी का निर्माण हुआ। जैसे-जैसे इसका आकार बढ़ता गया, अंतरिक्ष की चट्टानें इस नए-नवेले ग्रह से टकराती रहीं और इन टक्करों की शक्ति से पृथ्वी घूमने लगी। चूंकि प्रारंभिक सौर मंडल में सारा मलबा सूर्य के चारों ओर एक ही दिशा में घूम रहा था, टकराव ने पृथ्वी और सौर मंडल की सभी चीज़ों को उसी दिशा में घुमाना शुरू कर दिया।

लेकिन सवाल यह उठता है सौर मंडल क्यों घूम रहा था? धूल और गैस के बादल का अपने ही वज़न से सिकुड़ने के कारण सूर्य और सौर मंडल का निर्माण हुआ था। अधिकांश गैस संघनित होकर सूर्य में परिवर्तित हो गई, जबकि शेष पदार्थ ग्रह बनाने वाली तश्तरी के रूप में बना रहा। इसके संकुचन से पहले, गैस के अणु और धूल के कण हर दिशा में गति कर रहे थे किंतु किसी समय पर कुछ कण एक विशेष दिशा में गति करने लगे। जिससे इनका घूर्णन शुरू हो गया। जब गैस बादल पिचक गया तब बादल का घूमना और तेज़ हो गया। जैसे जब कोई स्केटर अपने हाथों को समेट लेता है तो उसकी घूमने की गति बढ़ जाती है। अब अंतरिक्ष में चीज़ों को धीमा करने के लिए तो कुछ है नहीं, इसलिए, एक बार जब कोई चीज़ घूमने लगती है, तो घूमती रहती है। ऐसा लगता है कि शैशवावस्था में सौर मंडल के सारे पिंड एक ही दिशा में घूर्णन कर रहे थे।

अलबत्ता, बाद में कुछ ग्रहों ने अपने स्वयं का घूर्णन को निर्धारित किया है। शुक्र पृथ्वी के विपरीत दिशा में घूमता है, और यूरेनस की घूर्णन धुरी 90 डिग्री झुकी हुई है। वैज्ञानिकों के पास इसका कोई ठोस उत्तर तो नहीं है किंतु कुछ अनुमान ज़रूर हैं। जैसे, हो सकता है कि किसी पिंड से टक्कर के कारण शुक्र उल्टी दिशा में घूमने लगा हो। या यह भी हो सकता है कि शुक्र के घने बादलों पर सूर्य के गुरुत्वाकर्षण प्रभाव और शुक्र के अपने कोर व मेंटल के बीच घर्षण की वजह से ऐसा हुआ हो। यूरेनस के मामले में वैज्ञानिकों ने सुझाया है कि या तो एक पिंड से ज़ोरदार टक्कर या दो पिंडों से टक्कर ने उसे पटखनी दी है।

ऐसा नहीं है कि सिर्फ ग्रह ही अपनी धुरी पर घूमते हैं। सौर मंडल में मौजूद सभी चीज़ें (क्षुद्रग्रह, तारे, और यहां तक कि आकाश गंगा भी) घूमती हैं।

चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण से पृथ्वी की गति में भी कमी आती है। 2016 में प्रोसिडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसाइटी के अनुसार एक सदी में पृथ्वी का एक चक्कर 1.78 मिलीसेकंड धीमा हो गया है। (स्रोत फीचर्स)

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चौपाया व्हेल करती थी महाद्वीपों का सफर

शोधकर्ताओं ने कुछ समय पहले ही पेरू के समुद्र तट पर चार पैरों वाली प्राचीन व्हेल की हड्डियां खोज निकाली हैं। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित पेपर के अनुसार यह जीव राइनो और समुद्री ऊदबिलाव के मिश्रित रूप जैसा दिखता होगा। इसका सिर छोटा, लंबी मज़बूत पूंछ और चार छोटे मगर मोटे खुरदार पैर एवं झिल्लीदार पंजे रहे होंगे। एक नए अध्ययन का अनुमान है कि ये जीव आज के युग की व्हेल के पूर्वज रहे होंगे जो लगभग 4 करोड़ वर्ष पहले पाए जाते थे। 

रॉयल बेल्जियन इंस्टिट्यूट ऑफ नेचुरल साइंस, ब्रसेल्स के जंतु विज्ञानी और इस अध्ययन के प्रमुख ओलिवियर लैम्बर्ट के अनुसार यह प्रशांत महासागर में मिलने वाली चार पैरों वाली व्हेल का सबसे पहला प्रमाण है। 

जीवाश्म विज्ञानी पिछले एक दशक से भी अधिक समय से प्राचीन समुद्री स्तनधारियों के जीवाश्म की खोज करने के लिए पेरू के बंजर तटीय क्षेत्रों के आसपास खुदाई कर रहे थे। लैम्बर्ट और उनकी टीम को अधिक सफलता मिलने की उम्मीद नहीं थी लेकिन एक बड़े दांतों वाला जबड़ा मिलने के बाद उन्होंने खुदाई को आगे भी जारी रखा।

ये हड्डियां कई लाख वर्ष पुरानी थीं और कई टुकड़ों में टूटी हुई थीं, लेकिन काफी अच्छे से संरक्षित थीं और आस-पास की तलछट में इन्हें ढूंढना भी काफी आसान था। जब पूरा कंकाल इकट्ठा कर लिया गया तो कमर और भुजा वाले भाग को देखकर यह ज़मीन पर चलने वाले जीव सरीखा मालूम हुआ लेकिन इसके लंबे उपांग और पूंछ की बड़ी-बड़ी हड्डियों से इसके कुशल तैराक होने का अनुमान लगाया गया। लैम्बर्ट का ऐसा मानना है कि उस समय ये जीव ज़मीन पर चलने में भी सक्षम थे और साथ ही तैरने के लिए अपनी पूंछ का भी उपयोग करते होंगे।     

टीम ने इन तैरने और चलने वाली व्हेल प्रजाति को पेरेफोसिटस पैसिफिकस नाम दिया है जिसका अर्थ प्रशांत तक पहुंचने वाली यात्री व्हेल है।  

अब तक, वैज्ञानिकों का ऐसा मानना था कि प्राचीन व्हेल अफ्रीका से निकलकर पहले उत्तरी अमेरिका की ओर गर्इं और उसके बाद दक्षिणी अमेरिका और दुनिया के अन्य हिस्सों में फैली। लेकिन जीवाश्म की उम्र और स्थान को देखते हुए लैम्बर्ट और उनके साथियों का अनुमान है कि यह उभयचर व्हेल दक्षिण अटलांटिक महासागर को पार करते हुए पहले दक्षिण अमेरिका पहुंचीं और फिर उत्तरी अमेरिका और अन्य स्थानों पर।

अलबत्ता, शोधकर्ताओं के मुताबिक महत्वपूर्ण यह नहीं है कि वे किस दिशा में गर्इं, बल्कि यह काफी दिलचस्प है कि ये प्राचीन चार पैर वाले जीव अपनी शारीरिक रचना से इतना सक्षम थे कि दुनिया भर में फैल गए। आगे चलकर इस जीवाश्म से और अधिक जानकारियां प्राप्त की जा सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

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जल संकट से समूचा विश्व जूझ रहा है – डॉ. आर.बी. चौधरी

भारत के जल संसाधनों के संकट की शुरुआत आंकड़ों से होती है। भारत में जल विज्ञान सम्बंधी आंकड़े संग्रह करने का काम मुख्यत: केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) करता है। सीडब्लूसी का नाम लिए बगैर नीति आयोग की रिपोर्ट भारत में जल आंकड़ा प्रणाली को कठघरे में खड़ी करती है। नीति आयोग की रिपोर्ट में बातें तो खरी हैं: “यह गहरी चिंता की बात है कि भारत में 60 करोड़ से अधिक लोग ज़्यादा से लेकर चरम स्तर तक का जल दबाव झेल रहे हैं। भारत में तकरीबन 70 फीसदी जल प्रदूषित है, जिसकी वजह से पानी की गुणवत्ता के सूचकांक में भारत 122 देशों में 120वें स्थान पर है।”

हमारे यहां पानी के इस्तेमाल और संरक्षण से जुड़ी कई समस्याएं हैं। पानी के प्रति हमारा रवैया ही ठीक नहीं है। हम इस भ्रम में रहते हैं कि चाहे जितने भी पानी का उपयोग/दुरुपयोग कर लें, बारिश से हमारी नदियों और जलाशयों में फिर से नया पानी आ ही जाएगा। यह रवैया सरकारी एजेंसियों का भी है और आम लोगों का भी। अगर किसी साल बारिश नहीं होती तो इसके लिए हम जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग को ज़िम्मेदार ठहराने लगते हैं।

पानी के इस्तेमाल के मामले में घरेलू उपयोग की बड़ी भूमिका नहीं है लेकिन कृषि की है। 1960 के दशक में हरित क्रांति की शुरुआत के बाद से कृषि में पानी की मांग बढ़ी है। इससे भूजल का दोहन हुआ है, जल स्तर नीचे गया है। इस समस्या के समाधान के लिए पर्याप्त उपाय नहीं किए जा रहे हैं। जब भी बारिश नहीं होती तब संकट पैदा होता है। नदियों के पानी का मार्ग बदलने से भी समाधान नहीं हो रहा है। स्थिति काफी खराब है। इस वर्ष अच्छी वर्षा होने का अनुमान है तो जल संचय के लिए अभी से ही कदम उठाने होंगे। लोगों को चाहिए कि पानी की बूंद-बूंद को बचाएं।

गर्मियां आते ही जल संकट पर बातें शुरू हो जाती हैं लेकिन एक पूर्व चेतावनी उपग्रह प्रणाली के अध्ययन पर आधारित रिपोर्ट काफी डराने वाली है क्योंकि यह रिपोर्ट भारत में एक बड़े जल संकट की ओर इशारा कर रही है। भारत, मोरक्को, इराक और स्पेन में सिकुड़ते जलाशयों की वजह से इन चार देशों में नलों से पानी गायब हो सकता है। दुनिया के 5 लाख बांधों के लिए पूर्व चेतावनी उपग्रह प्रणाली बनाने वाले डेवलपर्स के अनुसार भारत, मोरक्को, इराक और स्पेन में जल संकट ‘डे ज़ीरो’ तक पहुंच जाएगा। यानी नलों से पानी एकदम गायब हो सकता है। अध्ययन में कहा गया है कि भारत में नर्मदा नदी से जुड़े दो जलाशयों में जल आवंटन को लेकर प्रत्यक्ष तौर पर तनाव है।

पिछले साल कम बारिश होने की वजह से मध्य प्रदेश के इंदिरा सागर बांध में पानी सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया। जब इस कमी को पूरा करने के लिए निचले क्षेत्र में स्थित सरदार सरोवर जलाशय को कम पानी दिया गया तो काफी होहल्ला मच गया था क्योंकि सरदार सरोवर जलाशय में 3 करोड़ लोगों के लिए पेयजल है। पिछले महीने गुजरात सरकार ने सिंचाई रोकते हुए किसानों से फसल नहीं लगाने की अपील की थी।

नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में विश्व की 17 प्रतिशत जनसंख्या रहती है, जबकि इसके पास विश्व के शुद्ध जल संसाधन का मात्र 4 प्रतिशत ही है। किसी भी देश में अगर प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता 1700 घन मीटर से नीचे जाने लगे तो उसे जल संकट की चेतावनी और अगर 1000 घन मीटर से नीचे चला जाए, तो उसे जल संकटग्रस्त माना जाता है। भारत में यह फिलहाल 1544 घन मीटर प्रति व्यक्ति हो गया है, जिसे जल की कमी की चेतावनी के रूप में देखा जा रहा है। नीति आयोग ने यह भी बताया है कि उपलब्ध जल का 84 प्रतिशत खेती में, 12 प्रतिशत उद्योगों में और 4 प्रतिशत घरेलू कामों में उपयोग होता है।

हम चीन और अमेरिका की तुलना में एक इकाई फसल पर दो से चार गुना अधिक जल उपयोग करते हैं। देश की लगभग 55 प्रतिशत कृषि भूमि पर सिंचाई के साधन नहीं हैं। ग्याहरवीं योजना के अंत तक भी लगभग 13 करोड़ हैक्टर भूमि को सिंचाई के अंतर्गत लाने का प्रवधान था। इसे बढ़ाकर अधिक-से-अधिक 1.4 करोड़ हैक्टर तक किया जा सकता है। इसके अलावा भी काफी भूमि ऐसी बचेगी, जहां सिंचाई असंभव होगी और वह केवल मानसून पर निर्भर रहेगी। भूजल का लगभग 60 प्रतिशत सिंचाई के लिए उपयोग में लाया जाता है। 80 प्रतिशत घरेलू जल आपूर्ति भूजल से ही होती है। इससे भूजल का स्तर लगातार घटता जा रहा है।

लगातार दो वर्षों से मानसून की खराब स्थिति ने देश के जल संकट को गहरा दिया है। आबादी लगातार बढ़ रही है, जबकि जल संसाधन सीमित हैं। अगर अभी भी हमने जल संरक्षण और उसके समान वितरण के लिए उपाय नहीं किए तो देश के तमाम सूखा प्रभावित राज्यों की हालत और गंभीर हो जाएगी। नीति आयोग द्वारा समय-समय पर जल समस्या पर अध्ययन किए जाते हैं किंतु आंकड़े जिस सच्चाई का चित्रण करते हैं उस पर ध्यान देने की तत्काल आवश्यकता है।

जल संरक्षण एवं प्रबंधन के समय-समय पर कई सुझाव दिए जाते हैं किंतु विशेषज्ञों की राय में निम्नलिखित बातों का स्मरण रखा जाना अति आवश्यक है। जैसे, लोगों में जल के महत्व के प्रति जागरूकता पैदा करना, पानी की कम खपत वाली फसलें उगाना, जल संसाधनों का बेहतर नियंत्रण एवं प्रबंधन एवं जल सम्बंधी राष्ट्रीय कानून बनाया जाना इत्यादि। हांलाकि, संवैधानिक तौर पर जल का मामला राज्यों से संबंधित है लेकिन अभी तक किसी राज्य ने अलग-अलग क्षेत्रों को जल आपूर्ति सम्बंधी कोई निश्चित कानून नहीं बनाए हैं।

अंतर्राष्ट्रीय जल दिवस की घोषणा ब्राज़ील के रियो दे जनेरो में 1992 में हुए पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (यूएनसीईडी) में हुई थी। इसके बाद संयुक्त राष्ट्र आम सभा ने 22 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय जल दिवस के रूप में घोषित किया। 2005-2016 के दशक को संयुक्त राष्ट्र ने अंतर्राष्ट्रीय जल अभियान का दशक घोषित किया था। इसी दशक के तहत पिछले दिनों दक्षिण अफ्रीकी शहर केप टाउन में पानी सूख जाने की खबर अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियों में रही।

पृथ्वी पर उपलब्ध कुल पानी का 2.6 फीसदी ही साफ पानी है। और इसका एक फीसदी पानी ही मनुष्य इस्तेमाल कर पाते हैं। वैश्विक पैमाने पर इसी पानी का 70 फीसदी कृषि में, 25 फीसदी उद्योगों में और पांच फीसदी घरेलू इस्तेमाल में निकल जाता है। भारत में साढ़े सात करोड़ से ज़्यादा लोग पीने के साफ पानी के लिए तरस रहे हैं। नदियां प्रदूषित हैं और जल संग्रहण का ढांचा चरमराया हुआ है। ग्रामीण इलाकों मे इस्तेमाल योग्य पानी का संकट हो चुका है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जल उपयोग का प्रति व्यक्ति आदर्श मानक 100-200 लीटर निर्धारित किया है। विभिन्न देशों में ये मानक बदलते रहते हैं। लेकिन भारत की बात करें तो स्थिति बदहाल ही कही जाएगी, जहां औसतन प्रति व्यक्ति जल उपयोग करीब 90 लीटर प्रतिदिन है। अगर जल उपलब्धता की बात करें, तो सरकारी अनुमान कहता है कि 2025 तक प्रति व्यक्ति 1341 घन मीटर उपलब्ध होगा। 2050 में यह और कम होकर 1140 रह जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

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प्रकाश प्रदूषण का हाल एक क्लिक से

दि आपको आकाश-दर्शन का शौक है और आप निराश हैं कि आपके इलाके में उजाले की वजह से तारे बहुत कम नज़र आते हैं तो आप एक वेबसाइट की मदद से पता कर सकते हैं कि आप जहां खड़े हैं वहां रात में कितना उजाला है। आप यह भी पता कर सकते हैं कि आकाश का अच्छा नज़ारा देखने के लिए कहां जाना उपयुक्त होगा।

पॉट्सडैम स्थित जर्मन रिसर्च सेंटर फॉर जियोसाइन्स के भौतिक शास्त्री क्रिस्टोफर कायबा ने एक ऐसा सॉफ्टवेयर तैयार किया है जो पूरी धरती पर कहीं भी रात के समय उजाले की स्थिति बता सकता है। आपको बस इतना करना है कि Radiance Light Trends पर जाएं और अपने इलाके का नाम टाइप करें। तत्काल आपको उस जगह में रात के प्रकाश का अनुमान मिल जाएगा।

इस सॉफ्टवेयर को विकसित करने के लिए कायबा ने उपग्रहों से प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण किया है। ये उपग्रह पृथ्वी पर लगातार नज़र रखते हैं। इनसे प्राप्त सूचनाओं से पता चलता है कि किसी स्थान पर स्ट्रीट लाइट्स, नियॉन साइन्स या अन्य किसी स्रोत से रात के समय कितना प्रकाश पैदा होता है। मगर इन आंकड़ों को हासिल करना और इनका विश्लेषण करके रात्रि-प्रकाश का अंदाज़ लगाना खासा मुश्किल काम है। कायबा ने इस काम को आसान बना दिया है।

कायबा ने इसके लिए पिछले पच्चीस वर्षों के उपग्रह आंकड़ों को शामिल किया है। यह सॉफ्टवेयर किसी भी स्थान के लिए पिछले पच्चीस वर्षों के रात्रि-प्रकाश का ग्राफ प्रस्तुत कर देता है। वैसे आप चाहें तो पर्यावरण के अन्य कारकों के आंकड़े भी यहां से प्राप्त कर सकते हैं और उनका विश्लेषण कर सकते हैं। यह सॉफ्टवेयर युरोपीय संघ की मदद से जियोएसेंशियल प्रोजेक्ट के तहत विकसित किया गया है।

यह सॉफ्टवेयर कई तरह से उपयोगी साबित होगा। जैसे एक अध्ययन से पता चला है कि प्रकाश-प्रदूषण लगभग 80 प्रतिशत धरती को प्रभावित करता है। इसका असर जलीय पारिस्थितिक तंत्रों पर पड़ता है। कुछ अध्ययनों से यह भी संकेत मिला है कि प्रकाश प्रदूषण मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करता है और यह संक्रामक रोगों के फैलने में भी भूमिका निभाता है। यह सॉफ्टवेयर इन सब मामलों में मददगार होगा। और शौकिया खगोल शास्त्री इसकी मदद से यह तय कर सकते हैं कि उनके आसपास आकाश को निहारने का सबसे अच्छा स्थान कौन-सा होगा। (स्रोत फीचर्स)

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