विभिन्न प्रकार के ईंधन और रासायनिक उत्पादों की रीढ़ मानी जाने वाली तेल रिफाइनरियां(Oil Refineries), आज भी वर्षों पुरानी पद्धति पर काम करती हैं। इसमें कच्चे तेल (Crude Oil) का प्रभाजी आसवन करके उसके घटक अलग-अलग प्राप्त किए जाते हैं। ऊष्मा आधारित इस विधि में भारी मात्रा में ऊर्जा की खपत होती है और यह पर्यावरण के लिए भी हानिकारक (Environmental Pollution) है।
अब इसे बदलने की दिशा में एक बड़ा कदम उठाया गया है। साइंस पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में बेहद पतली प्लास्टिक फिल्म (झिल्ली) (Membrane Technology) का उपयोग सुझाया गया है। इस झिल्ली की मदद से बहुत कम तापमान पर कच्चे तेल में से हल्के ईंधन घटक अलग किए जा सकते हैं। इससे तेल शोधन में ऊर्जा की खपत और प्रदूषण को काफी हद तक कम किया जा सकता है(Sustainable Refining)।
हालांकि प्लास्टिक की ये झिल्लियां वैसे ही काम करती हैं जैसे समुद्री पानी को पीने लायक बनाने वाले संयंत्रों (Desalination Membranes) में। फिर भी इस तकनीक को तेल उद्योग के अनुकूल बनाने में समस्याएं तो थीं। पूर्व में, कच्चे तेल के संपर्क में आने पर ये झिल्लियां फूल जाती थीं या खराब हो जाती थीं, जिससे इनके छानने की क्षमता कम हो जाती थी।
इस समस्या को दूर करने के लिए एमआईटी के वैज्ञानिकों ने झिल्ली में दो तरह के पॉलीमर का इस्तेमाल किया। एक में कांटेदार संरचना होती है जो तेल में भी झिल्ली की आकृति और उसके सूक्ष्म छिद्रों को टिकाए रखती है।
दूसरा, वैज्ञानिकों ने झिल्ली में ऐसे रासायनिक बंधों का इस्तेमाल किया जो तेल के साथ बेहतर काम करते हैं। इससे हल्के ईंधन अणु तो आसानी से पार हो जाते हैं, जबकि भारी अणु रोक दिए जाते हैं। नतीजतन, यह नई झिल्ली हल्के हाइड्रोकार्बन (Light Hydrocarbons) को छानने में पूर्व मॉडल्स से चार गुना ज़्यादा असरदार है।
एक और खास बात। साधारणत: पानी छानने की झिल्ली में दो तरह के मोनोमर को जोड़कर पोलीमर झिल्ली बनाई जाती है। इनमें से एक मोनोमर को पानी में और दूसरे को तेल में घोलकर जब आपस मिलाया जाता है तो मोनोमर तेल व पानी की संपर्क सतह पर क्रिया करके एक झिल्ली बना लेते हैं।
लेकिन पानी में घुलनशील मोनोमर तेल के पृथक्करण (Oil Separation) में काम नहीं करते। वैज्ञानिकों ने दोनों मोनोमर को तेल में घोला और फिर उसमें पानी तथा एक उत्प्रेरक मिलाया। उत्प्रेरक ने पानी-तेल की संपर्क सतह पर दोनों मोनोमर से क्रिया करके एक उम्दा झिल्ली बना दी।
तेल रिफाइनरियां पुराने तरीके को तुरंत तो नहीं छोड़ेंगी, लेकिन यह नई तकनीक भविष्य में रिफाइनिंग (Future of Oil Refining) का मुख्य तरीका बन सकती है।(स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://unescoalfozanprize.org/wp-content/uploads/2025/06/environmental-pollution-factory-exterior.jpg
तीन साल की बातचीत के बाद, दुनिया के देशों ने आखिरकार एक ऐतिहासिक संधि पर सहमति जताई है, जिसका उद्देश्य भविष्य की महामारियों (pandemic treaty) के लिए बेहतर तैयारी करना है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा समर्थित नई वैश्विक संधि, कोविड-19 (covid-19) महामारी के दौरान हुई गलतियों से सीखकर, खासकर टीकों (vaccines), दवाओं (drugs) और सूचनाओं के आदान-प्रदान को बेहतर बनाने की कोशिश है।
संधि का मुख्य उद्देश्य महामारी से निपटने के तरीकों को त्वरित और निष्पक्ष बनाना है एवं देशों को एकजुट करना है। गौरतलब है कि इस समझौते से एक महत्वपूर्ण पक्ष, यानी अमेरिका, गायब है। शुरुआती बातचीत में अहम भूमिका निभाने के बावजूद, अमेरिका ने इन वार्ताओं से दूरी बना ली है। फिर भी, अधिकांश देशों ने लोगों की भलाई के लिए समझौता वार्ता को जारी रखा। संधि की कुछ मुख्य बातें यहां दी प्रस्तुत हैं।
स्वास्थ्यकार्यकर्ताओंकीसुरक्षा
संधि की पहली सहमति स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को बेहतर सुरक्षा देने से सम्बंधित है। कोविड-19 संकट के दौरान, अग्रिम पंक्ति (healthcare frontline workers) के कई कार्यकर्ताओं (डॉक्टर, नर्स, लैब तकनीशियन वगैरह) को व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों (PPE) की गंभीर कमी का सामना करना पड़ा था। संधि में इन अग्रिम पंक्ति कार्यकर्ताओं के लिए बेहतर नीतियां बनाने की बात की गई है ताकि उन्हें सही उपकरण, प्रशिक्षण और समर्थन मिल सके। उनकी सुरक्षा महत्वपूर्ण है क्योंकि अगर स्वास्थ्य कार्यकर्ता बीमार पड़ते हैं तो पूरी स्वास्थ्य प्रणाली ठप हो जाती है।
नएटीकोंवदवाओंकोमंज़ूरी
संधि देशों से आव्हान करती है कि नए टीकों और दवाओं के परीक्षण और मंज़ूरी प्रक्रिया को, सुरक्षा से समझौता किए बगैर, गति दें। इसका उद्देश्य वैश्विक प्रणाली को अधिक प्रभावी बनाना है ताकि जीवन रक्षक उपचार (emergency vaccine approval) लोगों तक जल्दी पहुंच सकें। इसके लिए संधि में देशों को अपनी दवा नियामक प्रणालियां मज़बूत करने का सुझाव दिया गया है।
छलकनेकोथामना
कई महामारियां, जैसे कोविड-19, तब शुरू हुईं जब वायरस जीवों से मनुष्यों में पहुंचे। इसे (छलकना) ‘स्पिलओवर’ कहा जाता है। संधि में ऐसे स्पिलओवर का खतरे कम करने के लिए अधिक निवेश का सुझाव है। इसमें जंतुओं में रोगों की निगरानी, वन्यजीव व्यापार पर सख्त नियंत्रण और जीवित जंतुओं के बाज़ारों में स्वच्छता और निगरानी में सुधार शामिल है।
त्वरितडैटासाझेदारी
कोविड-19 के दौरान, वायरस के नमूनों और जेनेटिक जानकारी साझा करने में देरी से टीकों और परीक्षणों के विकास में बाधा आई। संधि में देशों से नए वायरसों और बैक्टीरिया के बारे में जानकारी तुरंत और सार्वजनिक करने (real-time data sharing) की अपील की गई है, ताकि दुनिया भर के वैज्ञानिक मिलकर उपचार विकसित कर सकें।
पहुंचमेंसमता
पिछली महामारी में, समृद्ध देशों ने ज़रूरत से ज़्यादा टीके जमा कर लिए थे, जबकि गरीब देशों को बहुत लंबा इंतज़ार करना पड़ा था। अमीर हो या गरीब, संधि सभी देशों को टीका, उपचार और निदान (vaccine quity) का उचित हिस्सा, उचित समय पर देने की बात करती है। संधि में उत्पादकों को टीकों वगैरह का एक हिस्सा आपातकालीन स्थितियों में आपूर्ति हेतु दान करने या सस्ती कीमतों पर उपलब्ध कराने के लिए प्रोत्साहित किया गया है।
इस संधि की मुख्य बात यह है कि यह कोविड-19 महामारी के अनुभव से जन्मी है। जिन देशों के पास टीका कारखाने थे, उनके पास टीकों की भरपूर खुराकें थीं, जबकि गरीब देशों को टीके मुश्किल से मिल रहे थे। यदि टीकों का समान वितरण होता तो लाखों संक्रमण और जानें बचाई जा सकती थीं। इसी समस्या के मद्देनज़र, WHO के 194 सदस्य देशों ने दिसंबर 2021 में एक वैश्विक संधि का मसौदा (draft pandemic accord) तैयार करना शुरू किया, ताकि भविष्य में ऐसी दिक्कतों से बचा जा सके।
संधि पर सहमति तक पहुंचना आसान नहीं था। वार्ता में सबसे मुश्किल मुद्दा समानता का था: यह कैसे सुनिश्चित किया जाए कि जो गरीब देश खतरनाक वायरस की जानकारी साझा करें, उन्हें उस जानकारी के आधार पर विकसित टीकों और उपचारों तक भी समान पहुंच मिले। इससे एक नया सिस्टम बना – रोगजनकों तक पहुंच व लाभों की साझेदारी (Pathogen Access and Benefit Sharing – PABS)। इसे इस तरह समझें: अगर कोई देश नया वायरस खोजता है और उसे पूरी दुनिया वैज्ञानिकों के साथ साझा करता है तो उसे इसके खिलाफ विकसित टीकों व दवाइयों का एक उचित हिस्सा मिलना चाहिए। न सिर्फ टीके मिलना चाहिए बल्कि टीका तैयार करने की विधि भी मिलना चाहिए ताकि ऐसे देश खुद अपना टीका बना सकें।
एक और प्रमुख बहस प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के बारे में थी। इसका उद्देश्य विकासशील देशों को अपनी खुद की दवाइयां और टीके बनाने के लिए सहायता प्रदान करना है। कई निम्न-आय वाले देशों का मानना था कि उन्हें भविष्य में महामारी के दौरान समृद्ध देशों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए, और उन्हें खुद को आत्मनिर्भर बनाना चाहिए।
लेकिन यह कैसे हो? प्रारंभिक मसौदों में कहा गया था कि प्रौद्योगिकी “आपसी सहमति से तय शर्तों” पर साझा की जाएगी। हालांकि, कुछ समृद्ध देशों ने इसमें “स्वैच्छिक” शब्द जोड़ने की इच्छा जताई, जिसका मतलब था कि किसी भी देश को प्रौद्योगिकी साझा करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। गरीब देशों के लिए यह अस्वीकार्य था क्योंकि उन्हें डर था कि इससे संधि कमज़ोर हो जाएगी और भविष्य के लिए गलत मिसाल बनेगी। लंबी चर्चाओं के बाद, दोनों पक्षों ने “आपसी सहमति से तय शर्तों” शब्द को बरकरार रखा और एक फुटनोट जोड़ा, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि इसका मतलब “इच्छा से लिया गया” है।
संधि के अंतिम संस्करण में निर्माताओं (दवा और टीका निर्माताओं) (vaccine manufacturers commitment) ने यह संकल्प लिया है: अपने महामारी उत्पादों (टीकों, दवाइयों, नैदानिक परीक्षणों) का 10 प्रतिशत हिस्सा WHO को वैश्विक वितरण के लिए दान करेंगे; इसके अलावा, 10 प्रतिशत सस्ती कीमतों पर ज़रूरतमंद देशों को उपलब्ध कराएंगे। अगले वर्ष इन प्रतिशतों पर अंतिम सहमति बनने के बाद ही सारे देश संधि पर हस्ताक्षर करेंगे।
इस संधि में कुछ कमियां भी लगती हैं; जैसे इसमें देशों के लिए नियम नहीं हैं, यह महज़ दिशानिर्देश देती है। फिर भी, केवल तीन वर्षों में एक नया अंतर्राष्ट्रीय समझौता (international health agreement) बनाना बड़ी बात है। सामान्यत: ऐसे समझौते बनाने में ज़्यादा समय लगता है। बहरहाल, संधि के अंतिम रूप में पहुंचने और मंज़ूरी का बेसब्री से इंतज़ार है। (स्रोत फीचर्स)
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पचास वर्ष पूर्व जैविक हथियारों (Bioweapons) पर रोक लगाने के लिए बायोलॉजिकल वेपन्स कन्वेंशन (BWC) नामक संधि अपनाई गई थी (biological weapons treaty)। इसका मकसद ऐसे हथियारों को प्रतिबंधित करना था जिनमें जीवित जीवों या उनके उत्पादों, जैसे बैक्टीरिया, वायरस और विषाक्त पदार्थों को जानबूझकर किसी शत्रु या समूह को मारने या नुकसान पहुंचाने के लिए उपयोग किया जाता है (bacteria virus weaponization)।
1975 में लागू हुई यह संधि दुनिया की पहली ऐसी कोशिश थी जिसने एक वर्ग के विनाशकारी हथियारों को गैरकानूनी (WMD ban) घोषित किया। इस संधि की वजह से 20 से ज़्यादा जैविक हथियार कार्यक्रम बंद हुए – जिनमें एंथ्रेक्स, स्मॉलपॉक्स (चेचक) जैसे घातक रोग और खेती या पशुओं को नुकसान पहुंचाने वाले वायरस भी शामिल थे (anthrax, smallpox weapons ban)।
लेकिन आज का दौर कहीं ज़्यादा खतरनाक साबित हो रहा है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) और आधुनिक तकनीकों की मदद से अब प्रयोगशाला में आसानी से ऐसे कृत्रिम वायरस बनाए जा सकते हैं (synthetic virus creation) जो पहले संभव नहीं था। और तो और, इन्हें वैज्ञानिक शोध की आड़ में छुपाया (biotech misuse) भी जा सकता है। चिंता की बात यह है कि BWC में इन नए खतरों को रोकने या पकड़ने के लिए कोई मज़बूत व्यवस्था नहीं है (BWC loopholes)।
दरअसल BWC की एक बड़ी कमज़ोरी यह है कि इसमें यह जांचने की कोई व्यवस्था ही नहीं है कि देश जैविक सुरक्षा के लिए बनाए गए नियमों का पालन (verification mechanism missing) कर रहे हैं या नहीं। न कोई औचक निरीक्षण, न पारदर्शिता, और न ही उल्लंघन पर सज़ा का प्रावधान (lack of enforcement in BWC)।
फिर, वर्तमान युग आधुनिक तकनीकों का ज़माना है। जीन संपादन, संश्लेषण जीव विज्ञान और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसी आधुनिक तकनीकों की मदद से अब खतरनाक जीवाणु और वायरस बनाना (gene editing bioweapons) पहले से कहीं आसान हो गया है। इसलिए विशेषज्ञों को डर है कि इन तकनीकों के दुरुपयोग से ऐसे जैविक हथियार बनाए जा सकते हैं जो प्राकृतिक रोगों से भी ज़्यादा संक्रामक, लाइलाज और खास समुदायों को निशाना बनाने वाले हो सकते हैं (targeted bioweapons risk)।
पहले की तरह अब बात सिर्फ देशों तक सीमित नहीं है। जैसे-जैसे जैव तकनीक सस्ती और आसान होती जा रही है, वैसे-वैसे आतंकवादी समूह या कोई भी व्यक्ति अपने मतलब के लिए इनका गलत इस्तेमाल कर सकता है (bioterrorism threats)। जो तकनीक पहले सिर्फ सरकारी प्रयोगशालाओं में थी, वो अब निजी कंपनियों और विश्वविद्यालयों में भी उपलब्ध (biotech democratization risk) है। यही बात जैव सुरक्षा विशेषज्ञों को सबसे ज़्यादा परेशान कर रही है।
हो सकता है कोई अपनी स्वार्थ-सिद्धी के लिए किसी व्यस्त बंदरगाह पर खतरनाक वायरस छोड़ दे, और बाद में पास की किसी प्रयोगशाला पर हादसे का इल्ज़ाम (biosecurity false flag attack) लगा दे। इससे जो भ्रम और डर फैलेगा वह खुद बीमारी से ज़्यादा नुकसान करेगा (public panic and misinformation)।
न्यूक्लियर थ्रेट इनिशिएटिव (NTI) जैसे कुछ संगठन इस संदर्भ में नई तकनीकों का इस्तेमाल कर रहे हैं, जैसे:
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI biosecurity monitoring) से व्यापारिक डैटा, शोध पत्र और उपग्रह तस्वीरों की मदद से संदेहास्पद गतिविधियां पकड़ी जा सकती हैं।
डीएनए बनाने वाली कंपनियां (DNA synthesis screening) खास सॉफ्टवेयर से खतरनाक जीन्स पकड़ सकती हैं।
कुछ दवा कंपनियां निरीक्षण कार्य में मदद कर सकती हैं ताकि संधि उल्लंघन का पता लगाया जा सके (pharma compliance support)।
लेकिन ये व्यवस्थाएं भी पूरी तरह सुरक्षित नहीं हैं। मिनेसोटा युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने दिखाया है कि कैसे सामान्य 20 के अलावा अन्य अमीनो एसिड्स से खतरनाक प्रोटीन्स बनाकर सॉफ्टवेयर को भी चकमा दिया जा सकता है (AI evasion by engineered proteins)। इससे पता चलता है कि हमारी मौजूदा सुरक्षा तकनीकों में अभी भी गंभीर खामियां (biosecurity gaps) हैं।
BWC को मज़बूत करने की कोशिशें ठप पड़ी हैं। 2024 की एक बैठक में रूस ने ज़रूरी प्रस्तावों को रोक दिया, जिससे निरीक्षण और सहयोग की योजनाएं आगे नहीं बढ़ सकीं (BWC stalemate 2024)। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि भले ही सीमित स्तर पर ही सही, निरीक्षण शुरू किए जाएं तो नियम तोड़ने वालों को हथियार छिपाना या नष्ट करना पड़ेगा। लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति की अब भी कमी है (lack of political will)।
फिर भी कुछ उम्मीदें ज़रूर हैं। NTI द्वारा शुरू की गई ‘इंटरनेशनल बायोसेक्योरिटी एंड बायोसेफ्टी इनिशिएटिव फॉर साइंस’ एक वैश्विक पहल है जो जैव तकनीक को दुरुपयोग से बचाने के लिए दिशा-निर्देश और उपकरण विकसित (global biosecurity initiative) कर रही है। यह मुफ्त स्क्रीनिंग सॉफ्टवेयर उपलब्ध कराता है और डीएनए बनाने वाली कंपनियों के लिए बेहतर मानक (biosecurity software tools) तय करता है। लेकिन इस पहल को वैश्विक समर्थन की ज़रूरत है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि नियमों का पालन करवाने के लिए शायद एकदम परिपूर्ण व्यवस्था न हो, बस इतनी सख्ती हो कि धोखाधड़ी करना बहुत भारी और महंगा पड़े (deterrence in biosecurity)। फिलहाल जैविक हथियारों को रोकने में शायद कानून नहीं बल्कि नैतिकता, डर और अंतर्राष्ट्रीय मान्यताएं काम कर रही हैं (ethics vs enforcement in bioweapons control)। लेकिन विशेषज्ञों की चेतावनी है कि सिर्फ नेक इरादों के भरोसे रहना खतरनाक है। दुनिया को अपनी जैविक सुरक्षा प्रणाली को मज़बूत करना होगा, इससे पहले कि बहुत देर हो जाए (strengthen global biosafety)। (स्रोत फीचर्स)
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इन दिनों अमेरिका में वैज्ञानिक समुदाय गंभीर संकट का सामना कर रहा है। नेचर (nature journal) पत्रिका के एक हालिया सर्वे के मुताबिक 75 प्रतिशत वैज्ञानिक अमेरिका छोड़ने पर विचार कर रहे हैं। इस निर्णय का मुख्य कारण राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के शासन द्वारा अनुसंधान फंडिंग (research funding crisis) और नीतियों (science policy USA) में बड़ा बदलाव बताया जा रहा है। युवा वैज्ञानिकों, खासकर पीएचडी छात्रों (PhD students in USA) और शोधकर्ताओं के लिए हालात और भी चिंताजनक है। इनमें से अधिकांश शोधकर्ता युरोप या कनाडा जाने (scientists migration Europe Canada) की योजना बना रहे हैं।
इस संकट की जड़ फंडिंग में भारी कटौती और वैज्ञानिकों की बड़े पैमाने पर छंटनी है, जो अरबपति एलन मस्क की लागत-कटौती योजना (Elon Musk Budget Cuts) का हिस्सा है। इसके तहत संघीय वित्त पोषित कई शोध परियोजनाएं बंद कर दी गई हैं, हज़ारों वैज्ञानिक नौकरी गंवा चुके हैं या फंडिंग के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इसके अलावा, आप्रवासन नीतियों में सख्ती (US immigration policy impact on science) और अकादमिक स्वतंत्रता पर लगे प्रतिबंधों ने स्थिति को और अस्थिर बना दिया है, जिससे कई वैज्ञानिक अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं।
एक शीर्ष विश्वविद्यालय में प्लांट जीनोमिक्स की छात्रा ने बताया कि यूएस एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (USAID research grants) की फंडिंग कटने के बाद उनका शोध अनुदान बंद हो गया। उनके प्रोफेसर ने आपातकालीन फंडिंग की व्यवस्था तो की, लेकिन अब उन्हें अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए शिक्षण-सहायक पदों (teaching assistant jobs USA) के लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। वे युरोप, ऑस्ट्रेलिया और मेक्सिको में अवसरों की तलाश कर रही हैं।
यह संकट खासकर युवा वैज्ञानिकों के लिए कठिन है। वरिष्ठ शोधकर्ताओं के पास तो स्थिर फंडिंग होती है, लेकिन शुरुआती करियर में वैज्ञानिकों (early career scientists) को भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है।
अब कई वैज्ञानिक ऐसे देशों की तलाश कर रहे हैं जहां शोध और विज्ञान को महत्व (countries supporting research) दिया जाता है। कुछ को उम्मीद है कि अगर अमेरिका में स्थिति सुधरती है, तो वे लौट सकते हैं, लेकिन कइयों के पास विदेश में बसने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचा है। निजी संगठनों से फंडिंग मिलना एक विकल्प हो सकता (private science funding) है, लेकिन सीमित संसाधनों के लिए बढ़ती प्रतिस्पर्धा इसे अनिश्चित बना रही है। अमेरिका में विज्ञान और शोध की स्थिति में आया यह संकट दर्शाता है कि सरकार की नीतियां अनुसंधान के भविष्य को किस कदर प्रभावित (impact of politics on science) कर सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)
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एक हालिया अध्ययन का दावा है कि पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र (Earth’s magnetic field) में घूर्णन से बिजली उत्पन्न (electricity generation) की जा सकती है। हालांकि अध्ययन में एक विशेष उपकरण से मात्र 17 माइक्रोवोल्ट (17 microvolts) की बेहद कम विद्युत धारा उत्पन्न की गई है, लेकिन वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि यह प्रभाव वास्तविक है और इसे बड़े पैमाने पर लागू किया जा सकता है, तो यह बिना प्रदूषण के ऊर्जा उत्पादन (pollution-free energy generation) का नया तरीका हो सकता है। खास तौर पर दूरदराज़ के इलाकों (remote areas) और मेडिकल उपकरणों (medical devices) के लिए यह तकनीक बेहद उपयोगी साबित हो सकती है। यह शोध प्रिंसटन यूनिवर्सिटी (Princeton University) के क्रिस्टोफर चायबा (Christopher Chyba) के नेतृत्व में किया गया और फिजिकल रिव्यू रिसर्च (Physical Review Research) में प्रकाशित हुआ है।
आम तौर पर चुंबकीय क्षेत्र (magnetic field) में एक सुचालक (conductor) को घुमा कर बिजली उत्पन्न की जाती है, जैसा कि पावर प्लांट्स (power plants) में होता है। पृथ्वी का भी एक चुंबकीय क्षेत्र (geomagnetic field) होता है, और जब पृथ्वी घूमती है (Earth’s rotation) तो इस चुंबकीय क्षेत्र का एक हिस्सा स्थिर बना रहता है। सैद्धांतिक रूप से (theoretically), यदि कोई चालक (conductor) पृथ्वी की सतह पर रखा जाए तो वह इस चुंबकीय क्षेत्र (magnetic field) से गुज़रकर विद्युत धारा (electric current) उत्पन्न कर सकता है। हालांकि, पृथ्वी के सामान्य चुंबकीय क्षेत्र (Earth’s magnetism) में ऐसा नहीं होता, क्योंकि चालक के अंदर मौजूद आवेश (electrons inside the conductor) खुद को इस तरह व्यवस्थित कर लेते हैं कि बिजली पैदा (electricity production) ही नहीं हो पाती।
लेकिन क्रिस्टोफर चायबा (Christopher Chyba) और उनकी टीम का दावा है कि उन्होंने इस समस्या का हल खोज लिया है। खास आकार में बना एक खोखला बेलन (hollow cylindrical conductor) पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र से बिजली उत्पन्न (electricity generation from Earth’s magnetic field) कर सकता है।
इस परिकल्पना को जांचने के लिए वैज्ञानिकों ने मैंगनीज़ (manganese), ज़िंक (zinc), और आयरन (iron) वाले चुंबकीय पदार्थ (magnetic material) से एक विशेष उपकरण बनाया। उन्होंने 17 माइक्रोवोल्ट (17 microvolts of electric current) की बहुत हल्की विद्युत धारा दर्ज की, जो पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र के सापेक्ष उपकरण की स्थिति बदलने पर भी बदल रही थी। लेकिन जब उन्होंने खोखले सिलेंडर (hollow cylinder) की जगह ठोस सिलेंडर (solid cylinder) का उपयोग किया तो बिजली पैदा (electricity production) नहीं हुई।
विस्कॉन्सिन-यूक्लेयर विश्वविद्यालय (University of Wisconsin-Eau Claire) के पॉल थॉमस (Paul Thomas) जैसे कुछ वैज्ञानिक इस प्रयोग को विश्वसनीय मानते हैं, लेकिन फ्री यूनिवर्सिटी ऑफ एम्स्टर्डम (Free University of Amsterdam) के रिंके विजनगार्डन (Rinke Wijngaarden) जैसे अन्य वैज्ञानिकों को संदेह है। विजनगार्डन ने 2018 में इसी तरह का प्रयोग करने की कोशिश की थी, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली थी। उनका मानना है कि चायबा (Chyba) की परिकल्पना सही नहीं हो सकती। उनके मुताबिक चायबा (Chyba) के दल ने काफी सावधानी बरती है, लेकिन यह भी संभव है कि दर्ज किया गया वोल्टेज (voltage measurement) तापमान में बदलाव (temperature variation) जैसी अन्य वजहों से आया हो।
फिलहाल, यह अध्ययन वैज्ञानिक समुदाय (scientific community) में बहस का विषय बन गया है। अगर आगे के प्रयोग इन नतीजों की पुष्टि कर पाते हैं तो यह बिजली उत्पादन (electricity generation technology) के नए रास्ते खोल सकता है। (स्रोत फीचर्स)
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विज्ञान को आम तौर पर तथ्यों और आंकड़ों पर आधारित सत्य की खोज माना जाता है। लेकिन क्या हो अगर आंकड़े एक ही हों लेकिन अलग-अलग वैज्ञानिक भिन्न नतीजों तक पहुंचें? बीएमसीबायोलॉजी (BMC Biology journal) में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन से ऐसी ही चौंकाने वाली सच्चाई सामने आई है – एक ही डैटा सेट (data set) का विश्लेषण करते हुए भी वैज्ञानिक अलग-अलग परिणाम पा सकते हैं। यह अंतर इस बात पर निर्भर करता है कि वे विश्लेषण के दौरान पद्धति (methodology) को लेकर क्या निर्णय लेते हैं और किन आंकड़ों को नज़रअंदाज़ करते हैं।
यह अध्ययन पारिस्थितिकी (ecology research) के क्षेत्र में अपनी तरह का पहला अध्ययन है। इससे स्पष्ट होता है कि वैज्ञानिक अनुसंधान (scientific research) में लिए गए कुछ व्यक्तिगत निर्णय नतीजों में अंतर पैदा कर सकते हैं।
मेलबर्न विश्वविद्यालय के पीएचडी छात्र एलियट गोल्ड के नेतृत्व में किए गए इस अध्ययन में 246 पारिस्थितिकीविदों की 174 टीमों को दो समान डैटा सेट्स (datasets) देकर विश्लेषण करने को कहा गया था। इसका उद्देश्य यह देखना था कि वैज्ञानिकों द्वारा लिए गए व्यक्तिगत निर्णयों का अंतिम निष्कर्षों (findings) पर कितना प्रभाव पड़ता है।
प्रकरण 1: पहलासवालयहथाकिक्याघोंसलेमेंचूज़ोंकेबीचप्रतिस्पर्धा(competition among chicks)काउनकेविकासपरअसरपड़ताहै।सवालब्लू–टिटपक्षी(blue tit bird)केचूज़ोंकेसंदर्भमेंथा। इस सवाल के विश्लेषण के लिए सभी समूहों को 452 पक्षी घोंसलों से सम्बंधित एक ही डैटा दिया गया था। लेकिन समूहों के परिणाम काफी अलग-अलग रहे:
5 टीमों ने सहोदरों की संख्या का विकास से कोई सम्बंध नहीं पाया।
5 टीमों के निष्कर्ष मिश्रित थे।
64 टीमों ने पाया कि अधिक सहोदरों की उपस्थिति से चूज़े धीमे बढ़ते हैं, लेकिन प्रभाव की निश्चितता और परिमाण को लेकर सहमति नहीं थी।
प्रकरण 2: दूसरासवालयहथाकिक्याआसपासकमयाअधिकघास(grass cover)होनेसेयूकेलिप्टसकेपौधों(eucalyptus)केबचने–बढ़नेकीसंभावनाप्रभावितहोतीहै। इसके विश्लेषण के लिए डैटा ऑस्ट्रेलिया के उन 18 स्थानों से लिया गया था, जो यूकेलिप्टस के पुनर्स्थापन (eucalyptus restoration) के काम में भाग ले रहे थे। यहां भी परिणाम विरोधाभासी थे:
18 टीमों ने पाया कि ज़्यादा घास हो तो पौधों के जीवित रहने की संभावना कम हो जाती है।
6 टीमों ने पाया कि ज़्यादा घास होने से पौधों को फायदा होता है।
31 टीमों ने निष्कर्ष दिया कि घास की मात्रा का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
तो सवाल है कि वैज्ञानिकों के निष्कर्ष (scientific conclusions) इतने अलग-अलग क्यों थे? इसका कारण एक ही डैटा सेट का विश्लेषण करते समय वैज्ञानिकों द्वारा अलग-अलग निर्णय लेना है। इसमें यह समझना महत्वपूर्ण है कि वैज्ञानिक:
कौन-सी सांख्यिकीय विधि (statistical method) अपना रहे हैं?
किन कारकों को नियंत्रित कर रहे हैं?
अनुपलब्ध डैटा (missing data) से कैसे निपट रहे हैं?
निर्णय लेने में शामिल विधियों में थोड़ा भी फर्क अंतिम निष्कर्ष में बड़ा अंतर ला सकता है। इस अध्ययन से स्पष्ट होता है कि विज्ञान पूरी तरह वस्तुनिष्ठ (objective science) नहीं होता, बल्कि विश्लेषण के तरीकों पर निर्भर करता है।
गौरतलब है कि यह समस्या केवल पारिस्थितिकी (ecology) तक सीमित नहीं है। मनोविज्ञान (psychology), तंत्रिका विज्ञान (neuroscience), समाजशास्त्र (sociology) और अर्थशास्त्र (economics) में भी ऐसे अलग-अलग निष्कर्ष निकल सकते हैं।
कुछ विशेषज्ञ इसे वैज्ञानिक विश्वसनीयता (scientific credibility) के लिए गंभीर समस्या मानते हैं। अगर परिणाम इस पर निर्भर करते हैं कि डैटा का विश्लेषण (data analysis) कौन कर रहा है, तो क्या निष्कर्षों पर भरोसा किया जा सकता है?
वहीं, कुछ विशेषज्ञों का तर्क है कि इन अध्ययनों में वैज्ञानिकों से ऐसे डैटा का विश्लेषण करवाया गया, जो उनके विशेषज्ञता क्षेत्र से बाहर थे। उदाहरण के लिए, ब्लू टिट पक्षियों पर शोध करने वाले वैज्ञानिक सामान्य पारिस्थितिकी वैज्ञानिकों की तुलना में बेहतर सांख्यिकीय विधियां चुन सकते हैं।
सौभाग्य से, यह स्थिति सुधारी जा सकती है। वैज्ञानिक निम्नलिखित तरीकों से निष्कर्षों की विश्वसनीयता बढ़ा सकते हैं:
अधिक स्पष्ट प्रश्न (research question) पूछकर
विश्लेषण के तरीके मानकीकृत (standardized methodology) करके
डैटा विश्लेषण (data analysis training) का बेहतर प्रशिक्षण देकर
इस अध्ययन का यह मतलब नहीं कि विज्ञान विफल हो रहा है। बल्कि, यह दर्शाता है कि डैटा विश्लेषण (data interpretation) उतना सीधा-सरल नहीं होता, जितना हम सोचते हैं। इस समस्या को स्वीकार करना वैज्ञानिक अनुसंधान (scientific research) को अधिक पारदर्शी (transparent), विश्वसनीय (reliable) और भरोसेमंद (trustworthy) बना सकता है।
तो, अगली बार जब आप किसी अध्ययन का बड़ा दावा देखें, तो याद रखें कि इन फैसलों को देने वाला आखिर इंसान ही है, और हर इंसान थोड़ी अलग सोच और समझ रख सकता है। नतीजतन, इसके अलग परिणाम भी हो सकते हैं। (स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.zoajpuc/full/_20250226_on_many_analysts-1741202622150.jpg
एक बेहतरीन उबले अंडे की खूबी होती है कि उसकी ज़र्दी (egg yolk) एकदम मखमली-मुलायम पकी हो – ऐसी कि उसे ब्रेड (bread) पर मक्खन (butter) की तरह फैलाया जा सके – और उसकी सफेदी (egg white) नर्म-नर्म हो।
लेकिन इतना परफेक्ट अंडा (perfect egg) पकाना मुश्किल काम है। या तो ज़र्दी एकदम परफेक्ट मक्खन की तरह पकती है और सफेदी लिजलिजी जेली (jelly-like texture) जैसी हो जाती है। या सफेदी एकदम बढ़िया पकती है और ज़र्दी अजीब रंगत के साथ भुरभुरी (crumbly texture) सी हो जाती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि सफेदी की तुलना में अंडे की ज़र्दी कम तापमान (low temperature cooking) पर पकती है; सफेदी को अच्छा पकाने के चक्कर में तेज़ आंच (high heat) पर उबालने से ज़र्दी भुरभुरा जाती है, जबकि धीमी आंच (low heat cooking) पर पकाने से सफेदी लिजलिजी हो जाती है।
पर अब, युनिवर्सिटी ऑफ नेपल्स फेडरिको-2 (University of Naples Federico II) के वैज्ञानिकों (scientists), एमिला डी लॉरेन्ज़ो एवं अर्नेस्टो डी माइओ, ने एकदम परफेक्ट अंडा उबालने की विधि खोज ली है। इसे उन्होंने ‘पीरियोडिक कुकिंग’ (Periodic Cooking) नाम दिया है यानी थोड़े-थोड़े अंतराल पर पकाना। और इस तरीके से सिर्फ वैज्ञानिक ही नहीं, हम-आप भी अंडा उबाल सकते हैं।
उनकी खोजी विधि में ज़रूरत पड़ेगी दो बर्नर (two burners), दो पतीली (two pots) की और एक ऐसे जालीदार बर्तन (strainer or wire basket) की जो पतीली में रखा जा सके, और हां, अंडे (eggs) तो ज़रूरी हैं ही।
विधि यह है कि एक पतीली में पानी उबलता (boiling water) रहेगा और दूसरी पतीली का पानी गुनगुना (warm water at 30°C) रहेगा। अंडों को परफेक्ट उबालने (ideal egg boiling technique) के लिए उन्हें जालीदार बर्तन में रखकर हर दो मिनट के अंतराल पर उबलते पानी (hot water) से गुनगुने पानी वाले बर्तन में और गुनगुने पानी से उबलते पानी वाले बर्तन में डालना होगा। यह प्रक्रिया कुल 32 मिनट (32-minute cooking process) तक दोहरानी होगी। 32 मिनट तक अंडों को यहां से वहां और वहां से यहां करने के बाद इन्हें ठंडे पानी (cold water) में डालेंगे तो छिलका छीलने में आसानी होगी।
शोधकर्ता (researchers) इस विधि पर सैकड़ों अंडों को कई विधियों से उबालने के बाद पहुंचे हैं। और ये विधियां आज़माने से पहले उन्होंने यह समझा था कि उबालते समय अंडे में ऊष्मा (heat transfer in eggs) कैसे संचारित होती है, और अंडा तरल से ठोस (liquid to solid transformation) में कैसे बदलता है।
उन्होंने इस बात की पुष्टि भी की है कि यह विधि वाकई कारगर है। ऐसा करने के लिए उन्होंने पीरियोडिक कुकिंग से उबले अंडों की रासायनिक संरचना (chemical composition) की तुलना पारंपरिक तरीके (traditional boiling method) से उबले अंडों की रासायनिक संरचना से की। साथ ही, दोनों तरीके से उबले अंडों को उन्होंने आठ फूड टेस्टर्स (food testers) को चखाया। दोनों तरीके से उबले अंडों में फर्क पाया गया।
कम्युनिकेशंस इंजीनियरिंग जर्नल (Communications Engineering Journal) में प्रकाशित नतीजे बताते हैं कि सफेदी और ज़र्दी इस विधि में परफेक्ट इसलिए पक पाते हैं क्योंकि अंडे की सफेदी अच्छी तरह सेट होने तक गर्म और ठंडी होती रहती है जबकि ज़र्दी को परफेक्ट पकने तक एक नियत तापमान (constant temperature) मिलता रहता है।
हालांकि यह बात तो है कि पारंपरिक विधि (traditional method) के मुकाबले इस विधि से अंडे उबालने में वक्त काफी लगेगा। पारंपरिक तरीके (traditional egg boiling) में अंडों को पानी से भरे बर्तन में उबलने के लिए रख दो और 10-15 मिनट (10-15 minutes boiling) बाद उतार लो, इस बीच आप कुछ और काम भी कर सकते हैं। लेकिन इस तरीके में पूरे 32 मिनट लगेंगे, वह भी पूरी मुस्तैदी के साथ सारा ध्यान अंडों पर लगाना होगा। लेकिन यदि आपके लिए स्वाद (perfect taste) अव्वल है तो अतिरिक्त समय और मेहनत फालतू नहीं जाएगी!
बहरहाल, यह अध्ययन भले ही बात तो अंडों को बेहतरीन स्वाद से पकाने की विधि की बात करता है, लेकिन यह पाक कला (culinary science) की उस महत्वपूर्ण प्रक्रिया की ओर ध्यान दिलाता है जिनके चलते आज हम व्यंजनों को स्वादिष्ट (tasty recipes) बनाने की विधियां जानते हैं। इन विधियों को भले ही ‘वैज्ञानिकों’ (food scientists) ने प्रयोगशाला (laboratory) में आज़मा-आज़माकर ‘परफेक्ट विधि’ (perfect cooking technique) होने की मुहर नहीं लगाई है, लेकिन जिन्होंने खाना पकाने की ज़िम्मेदारी निभाई उन्होंने नित नए प्रयोग (culinary innovations) से लज़ीज़ व्यंजन परोसे हैं।(स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://dims.apnews.com/dims4/default/3f0720a/2147483647/strip/true/crop/3726×2483+0+0/resize/599×399!/quality/90/?url=https%3A%2F%2Fassets.apnews.com%2F38%2F6c%2Faecf571df0ec34d667160b1a90ed%2Fe78c4e81e28c48a4903105ddcb58c3e5
जब आप कोई दस्तावेज़, पत्र या लेख संपादित करते हैं तो आप उसके अर्थ को अधिक स्पष्ट बनाने के लिए शब्दों और वाक्यों में कुछ बदलाव करते हैं। जीन संपादन (Gene Editing) में, विशिष्ट एंज़ाइम (enzymes) की मदद से डीएनए (DNA) को एक निश्चित स्थान से काट कर डीएनए का अनुक्रम बदला जाता है, इससे किसी जीन (gene) में कोई आनुवंशिक जानकारी हटाने, जोड़ने या बदलने में मदद मिलती है। यह प्रक्रिया किसी वाक्य में गलत हिज्जे (spelling) ठीक करने या किसी शब्द को अधिक उपयुक्त शब्द से बदलने के समान है। जीवों में, ऐसे संशोधन सीधे डीएनए में अंकित आनुवंशिक निर्देशों (genetic instructions) को बदल देते हैं।
पूर्व में, जब हमें किसी वांछित कार्य के लिए डीएनए में अंकित संदेश को बदलना होता था तो हमें दो एंज़ाइमों की ज़रूरत पड़ती थी – एक डीएनए को एक विशिष्ट (या वांछित) स्थान से काटकर हटाने के लिए, और दूसरा वांछित आनुवंशिक परिवर्तन (genetic modification) जोड़ने के लिए। हालांकि यह द्वि-एंज़ाइम आधारित तरीका कारगर था, लेकिन इसमें मेहनत बहुत लगती थी।
एकखोज(Discovery of CRISPR-Cas9)
फिर, अमेरिका के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (University of California) की डॉ. जेनिफर डाउडना (Dr. Jennifer Doudna) और जर्मनी के हम्बोल्ट विश्वविद्यालय (Humboldt University) की इमैनुएल शॉपान्टिए (Emmanuelle Charpentier) ने ये दोनों काम (काटना और जोड़ना) करने वाली जीन संपादन विधि, CRISRP-Cas9, विकसित की। यह एक ऐसी विधि है जो मनुष्यों, रोगाणुओं और पौधों के जीनोम को संपादित कर सकती है। CRISPR का फुल फॉर्म है क्लस्टर्ड रेगुलरली इंटरस्पर्स्ड शॉर्ट पैलिंड्रोमिक रिपीट्स (Clustered Regularly Interspaced Short Palindromic Repeats) और Cas9 से तात्पर्य है क्रिस्पर-एसोसिएटेड प्रोटीन-9 जो विशिष्ट स्थान पर डीएनए को काटता है जिससे वहां एक रिक्त स्थान बन जाता है, जिसे नए डीएनए खंड से भरा जा सकता है। डाउडना और शॉपान्टिए द्वारा 2012 में की गई इस खोज के लिए उन्हें 2020 में साझा रूप से नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
वैसे, साउथ कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (Southern California University) के प्रो. फेंग झेंग ने भी एक पेपर में CRISPR-Cas9 प्रणाली की मदद से जीनोम इंजीनियरिंग (genome engineering) के बारे में बताया था लेकिन नोबेल समिति ने उन्हें नोबेल के तीसरे साझेदार वैज्ञानिक के रूप में शामिल नहीं किया। इसके बाद उन्होंने साउथ कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय छोड़ दिया, इस कार्य का पेटेंट हासिल किया और बोस्टन चले गए। इसका पेटेंट अब ब्रॉड इंस्टीट्यूट (एमआईटी और हारवर्ड विश्वविद्यालय का संयुक्त उपक्रम) (Broad Institute – MIT and Harvard) के स्वामित्व में है। यह संस्थान विभिन्न अनुप्रयोगों के लिए CRISPR-Cas9 विधि का उपयोग करता है; जैसे कैंसर के लिए माउस मॉडल का विकास, कैंसर की दवाओं को निष्प्रभावी बनाने वाले जीन्स की पहचान, प्रतिरक्षा कोशिकाओं (immune cells) में संशोधन। यही ब्रॉड इंस्टीट्यूट अन्य वैज्ञानिकों को इस तकनीक का प्रशिक्षण भी प्रदान करता है।
पौधोंमेंजीनसंपादन(Gene Editing in Plants)
CRISPR-Cas9 पेटेंट तकनीक का उपयोग कृषि वैज्ञानिक और वनस्पति शोधकर्ता भी पौधों में जीनोम इंजीनियरिंग के लिए करते हैं। जर्मनी के कार्लस्रुहे बॉटेनिकल इंस्टीट्यूट (Karlsruhe Botanical Institute) के डॉ. होल्गर पुख्ता (Dr. Holger Puchta) के समूह ने कई ऐसे शोधपत्र प्रकाशित किए हैं, जो मुख्यत: बताते हैं कि पौधों के जीनोम को लक्षित करने के लिए Cas9, Cas12 और Cas13 का उपयोग कैसे किया जाए। हाल ही में, CRISPR-Cas9 की मदद से दो जीन्स को ‘निष्क्रिय’ कर, वज़न में कमी लाए बगैर टमाटर में मिठास बढ़ाई गई है। अवश्य ही अन्य पौधों और फलों पर भी इसी प्रकार के अध्ययन हो रहे होंगे।
बहरहाल, डॉ. अनुराग चौरसिया ने हाल ही में एक रिपोर्ट (‘How CRISPR patent issues block Indian farmers from accessing biotech benefits – क्रिस्पर पेटेंट की समस्या कैसे भारतीय किसानों को बायोटेक लाभ लेने से रोक रही है)’ में बताया है कि IPO ने डबलिन के ईआरएस जीनोमिक्स (ERS Genomics) को एक लोकल पेटेंट दिया है। लोकल पेटेंट भारतीय शोधकर्ताओं को CRISPR-Cas9 का उपयोग करने की अनुमति तो देता है लेकिन केवल अकादमिक या शोध सम्बंधी उद्देश्यों के लिए, इसके द्वारा हासिल किसी भी वैज्ञानिक उपलब्धि का व्यावसायीकरण नहीं किया जा सकता। तो, हमारे किसान (farmers) अभी भी ‘पुराने ज़माने’ के हिसाब से ही चल रहे हैं।
दृष्टिबाधितोंमें(Gene Editing for Vision Impairments)
नेत्र विकारों (vision disorders) से पीड़ित लोगों के लिए हैदराबाद स्थित एलवी प्रसाद नेत्र संस्थान (L.V. Prasad Eye Institute) के वैज्ञानिकों और चिकित्सकों ने इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स एंड इंटीग्रेटिव बायोलॉजी (IGIB) के एक समूह के साथ मिलकर जीन संपादन की एक विधि की मदद से रोगी-विशिष्ट स्टेम कोशिकाओं (patient-specific stem cells) में वंशानुगत उत्परिवर्तन को ठीक किया है। उनके ये परिणाम नेचरकम्युनिकेशंस जर्नल (Nature Communications Journal) के जून, 2024 के अंक में प्रकाशित हुए हैं। अध्ययन में उत्परिवर्तन-संशोधित इन स्टेम कोशिकाओं से रेटिना कोशिकाएं बनाने में सफलता मिली है, जिनमें लुप्त प्रोटीन की पुनः अभिव्यक्ति देखी गई है। इन परिणामों से कुछ वंशानुगत नेत्र विकारों के लिए स्व-कोशिका चिकित्सा विकसित करने की संभावना खुल गई है। शरीर के अन्य तरह के ऊतकों और कोशिकाओं को प्रभावित करने वाली अन्य बीमारियों के समाधान के लिए भी इसी तरह के तरीके अपनाए जा सकते हैं। (स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://th-i.thgim.com/public/incoming/gv987k/article69089232.ece/alternates/LANDSCAPE_1200/IMG_BL05_Quantum_Lead_2_1_AHA7JUDC.jpg
बरसों से सजीवों (वनस्पति और जंतुओं) के नाम एक द्विनाम पद्धति के अंतर्गत रखे जाते हैं। जैसे इस पद्धति के तहत आलू को सोलेनमट्यूबरोसम (Solanum tuberosum) और कुत्ते को कैनिसल्यूपसफेमिलिएरिस(Canis lupus familiaris) कहा जाता है। इन नामों में पहला हिस्सा जीनस या वंश का होता है और दूसरा हिस्सा प्रजाति। वंश एक ज़्यादा बड़ा समूह होता है जिसमें मोटे तौर पर एक समान जीव रखे जाते हैं। इस वंश के अंदर ज़्यादा बारीक भेद वाले जीवों को प्रजाति के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। अर्थात सोलेनम एक जीनस या वंश है जिसमें लगभग 1500 प्रजातियां – जैसे टमाटर, बैंगन, धतूरा वगैरह शामिल हैं।
वायरस सजीव-निर्जीव के बीच कहीं स्थित हैं और अब तक वे इस पद्धति में शामिल नहीं किए गए थे। लेकिन अब इंटरनेशनल कमिटी ऑन टेक्सॉनॉमी ऑफ वायरसेस (आईसीटीवी) (International Committee on Taxonomy of Viruses – ICTV) ने निर्णय लिया है कि वायरसों को भी द्विनाम पद्धति के अनुसार नाम दिए जाएंगे। हालांकि अभी वैज्ञानिक वायरसों को कुल व वंश के स्तर तक वर्गीकृत करते हैं लेकिन प्रजाति स्तर के वर्गीकरण तक आते-आते बात बिखर जाती है। आम तौर पर वायरस प्रजातियों को नाम उनके द्वारा पैदा की गई किसी बीमारी के नाम पर, या उनके द्वारा संक्रमित किसी जीव प्रजाति के नाम पर या उन्हें पहली बार खोजे जाने के स्थान के नाम पर दिया जाता है। जैसे सेवीयर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (सार्स) (Severe Acute Respiratory Syndrome – SARS) पैदा करने वाले वायरस को सार्स-सीओवी-2 कहा गया है। इसी प्रकार से ईस्टर्स एक्वाइन एंसिफेलाइटिस वायरस है जो घोड़ों को संक्रमित करता है। ज़िका वायरस को उसका नाम युगांडा में एक जंगल में खोजे जाने के फलस्वरूप मिला था। इस मामले में ऐसा माना जाता है कि यह नाम उस इलाके को बेवजह बदनाम करता है।
यह व्यवस्था तब तक तो ठीक-ठाक चली जब तक ज्ञात वायरसों की संख्या सैकड़ों या हज़ारों तक सीमित थी। लेकिन फिर जीनोम विश्लेषण (genome analysis) की तकनीक के आगमन के साथ एक-एक अध्ययन में हज़ारों वायरसों की खोज होने लगी। इतनी बड़ी संख्या के चलते वैज्ञानिकों के बीच वार्तालाप को आसान बनाने के लिए एक मानक नामकरण व्यवस्था (standard nomenclature system) की ज़रूरत महसूस की जाने लगी।
तब आईसीटीवी ने 2016 में विचार-विमर्श शुरू किया। दरअसल आईसीटीवी इंटरनेशनल यूनियन ऑफ माइक्रोबायोलॉजिकल सोसायटीज़ (International Union of Microbiological Societies) का अंग है। अंतत: आईसीटीवी में इस बात पर सहमति बनी कि वायरसों को भी सामान्य द्विनाम पद्धति (binomial nomenclature for viruses) से नाम दिए जाएं।
बहरहाल, कई वायरस वैज्ञानिकों को लगता है कि सचमुच इसकी कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि वायरसों को नाम दिए गए हैं और ये काफी प्रचलन में आ चुके हैं। कई वैज्ञानिकों को तो लगता है कि ये ज़बान के लिए अत्यंत कठिन साबित होंगे। एक उदाहरण के रूप में बताते हैं कि सार्स वायरस का नाम होगा बीटाकोरोनावायरसपेंडेमिकम (Betacoronavirus pandemicum) या एड्स वायरस यानी ह्यूमैन इम्यूनोडेफिशिएंसी वायरस (Human Immunodeficiency Virus) को लेंटीवायरसह्यूमिमडेफ1 (Lentivirus humimdef1) कहा जाएगा। जो लोग नई व्यवस्था का मखौल बनाना चाहते हैं उन्होंने ऐसे कई उदाहरण पेश किए हैं। जैसे वेस्टनाइल वायरस को ऑर्थोफ्लेविवायरसनाइलेंस (Orthoflavivirus nilense) कहना या शार्क रिवर वायरस को ऑर्थोबन्यावायरसस्क्वेलोफ्लवी (Orthobunyavirus squalofluvii) कहना उनके अनुसार मूर्खतापूर्ण है। इस निर्णय के आलोचक कहते हैं कि पहले से प्रचलित नाम हमें वायरस को पहचानने में अधिक सहायक हैं।
दूसरी ओर, कई वैज्ञानिक मानते हैं कि इन नए नामों के आ जाने से वायरस वैज्ञानिकों को काम करने में आसानी होगी। जब भी किसी शोध पत्र में किसी वायरस का द्विनाम पद्धति का नाम आएगा तो दुनिया भर में पता चल जाएगा कि किस वायरस की बात हो रही है। और इस नई व्यवस्था के समर्थक शुरुआती अफरा-तफरी को एक ज़रूरी परेशानी भर मानते हैं।
फिलहाल, इस समस्या का एक मध्यमार्ग निकाला गया है। यह फैसला हुआ है कि सारे वायरस डैटाबेस (virus database) में दोनों नामों का उपयोग किया जाएगा और सारी जानकारी दोनों नामों (existing and binomial names) से खोजी जा सकेगी।(स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.z91vc33/full/_20241213_on_virusnaming-1734362695117.jpg
कोविड-19 वायरस और प्रयोगशाला लीक थ्योरी (Lab Leak Theory) कोविड-19 महामारी (COVID-19 pandemic) की जांच कर रही एक अमेरिकी संसदीय समिति (US congressional committee) ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि वायरस संभवत: चीन (China lab leak) की एक प्रयोगशाला (laboratory) से लीक हुआ था। हालांकि, रिपोर्ट में कोई ठोस सबूत (concrete evidence) नहीं हैं, केवल परिस्थितिजन्य प्रमाण (circumstantial evidence) दिए गए हैं। 520 पन्नों की इस रिपोर्ट में वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी (Wuhan Institute of Virology) में किए गए गेन-ऑफ-फंक्शन रिसर्च (gain-of-function research) पर ध्यान दिया गया है। एक नए खुलासे में, रिपोर्ट ने ईमेल का उल्लेख किया है, जो वायरस की उत्पत्ति (origin of the virus) से जुड़े अपराधों (potential crimes) पर एक ग्रैंड जूरी जांच (grand jury investigation) की ज़रूरत बताते हैं। इसके विपरीत, वैज्ञानिकों (scientists) और समिति के असहमत सदस्यों (dissenting members) ने प्रयोगशाला से लीक होने के सिद्धांत (lab leak hypothesis) को लेकर रिपोर्ट के निष्कर्षों को चुनौती (challenged conclusions) दी है। (स्रोत फीचर्स)
महामारी का शैक्षणिक प्रदर्शन पर असर
ट्रेंड्स इन इंटरनेशनल मैथेमेटिक्स एंड साइंस स्टडी (Trends in International Mathematics and Science Study – TIMSS) की ताज़ा रिपोर्ट (latest report) बताती है कि 2019 के मुकाबले 2023 में 8वीं कक्षा (Grade 8) के गणित (Mathematics scores) के प्राप्तांक 39 प्रतिशत देशों में और विज्ञान (Science scores) के प्राप्तांक 42 प्रतिशत देशों में घटे हैं। वहीं, चौथी कक्षा (Grade 4) के विद्यार्थियों के अंक कुछ बेहतर (improved scores) रहे, जबकि अधिकांश देशों (most countries) में अंक स्थिर (stable scores) रहे। संयुक्त राज्य अमेरिका (United States) में दोनों कक्षाओं के अंक 1995 में पहले टेस्ट (first test in 1995) के बाद से सबसे निचले स्तर (lowest level) पर पहुंचे हैं। वहीं, सिंगापुर (Singapore), ताइवान (Taiwan), और दक्षिण कोरिया (South Korea) वैश्विक रैंकिंग (global rankings) में शीर्ष पर (top positions) बने हुए हैं। (स्रोत फीचर्स)
नारंगी बिल्लियां का रहस्य खुला
वैज्ञानिकों ने नारंगी रंग (orange color) की बिल्लियों (cats) के फर (fur) के पीछे की आनुवंशिक गुत्थी (genetic mystery) को सुलझा लिया है, जो 60 सालों से एक रहस्य (decades-old mystery) बनी हुई थी। दो शोध टीमों ने स्वतंत्र रूप से पाया कि एक्स गुणसूत्र (X chromosome) पर एक उत्परिवर्तन (mutation) रंजक बनाने वाली कोशिकाओं (pigment-producing cells) में Arhgap36 प्रोटीन (protein) के उत्पादन को बढ़ा देता है। यह प्रोटीन एक ऐसा मार्ग सक्रिय करता है, जो हल्के लाल रंग का रंजक (light red pigment) बनाता है, जिससे बिल्लियों का नारंगी रंग का फर (orange fur) बनता है। यह खोज (discovery) जीवों में आनुवंशिकी (genetics) और फर के रंग (fur color) को समझने में एक नई दिशा (new insights) है। (स्रोत फीचर्स)
अल्ज़ाइमर की दवा परीक्षण में असफल
अल्ज़ाइमर रोग (Alzheimer’s disease) के लिए बनाई गई प्रयोगात्मक दवा सिम्यूफिलम (Simufilam experimental drug) ने अंतिम चरण के क्लीनिकल परीक्षण (clinical trial) में कोई सकारात्मक असर नहीं दिखाए। प्लेसिबो (placebo) लेने वाले रोगियों से तुलना में, एक साल तक सिम्यूफिलम लेने वाले रोगियों में न तो संज्ञानात्मक क्षमता (cognitive ability) में सुधार दिखा, और न ही रोज़मर्रा के कार्यों (daily tasks) में कोई बेहतरी दिखी। दवा बनाने वाली कंपनी कसावा साइंस (Cassava Sciences) पर शोध में धोखाधड़ी (fraud in research) और वित्तीय कदाचार (financial misconduct) के आरोप तक लगे हैं। परीक्षण (trial) में असफलता के बाद इस दवा के विकास (drug development) को रोक दिया गया है। (स्रोत फीचर्स)
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