खून की जांच से अल्ज़ाइमर की पहचान संभव है?

हाल ही में अल्ज़ाइमर रोग (Alzheimer test) के लिए एक नए रक्त परीक्षण (blood test) को मंज़ूरी मिली है। अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन द्वारा स्वीकृति प्राप्त इस जांच को बीमारी की पहचान में एक बड़ा कदम माना जा रहा है। Elecsys pTau181 नामक यह परीक्षण दो दवा कंपनियों (रोश और एली लिली) ने मिलकर विकसित किया है। इस जांच से डॉक्टर यह बता पाएंगे कि किसी मरीज़ की याददाश्त कम होना या भ्रम अल्ज़ाइमर (Alzheimer diagnosis) की वजह से है या इसका कोई और कारण है।

गौरतलब है कि अल्ज़ाइमर का कारण (Alzheimer cause) दो हानिकारक प्रोटीन, एमिइलॉइड-बीटा (amyloid-β) और टाउ (tau), का मस्तिष्क में जमाव है। यह जांच रक्त में टाउ प्रोटीन के एक विशेष – pTau181) – को मापता है: इस प्रोटीन का अधिक स्तर यानी अल्ज़ाइमर रोग।

यह जांच 97.9 प्रतिशत मामलों (312 लोग) में ठीक-ठीक बता पाई कि व्यक्ति को अल्ज़ाइमर नहीं है। अर्थात अगर टेस्ट का परिणाम नकारात्मक आता है, तो लगभग निश्चित है कि व्यक्ति को अल्ज़ाइमर नहीं है। इस वजह से यह टेस्ट प्राथमिक स्वास्थ्य चिकित्सकों (primary care doctors) के लिए जांच का बेहतरीन तरीका है। ज़ाहिर है, यह परीक्षण अल्ज़ाइमर की पुष्टि करने के लिए नहीं, बल्कि इसे खारिज (screening test) करने के लिए बनाया गया है।

गौरतलब है कि अल्ज़ाइमर की जांच के लिए एकमात्र Elecsys टेस्ट नहीं है। मई में Lumipulse (blood biomarker test) नाम का एक और रक्त परीक्षण आया है जो दो प्रोटीन, pTau217 (protein marker) और amyloid-β (1–42) के अनुपात को मापता है। इसके ज़रिए अल्ज़ाइमर की पुष्टि और खारिज दोनों किए जा सकते हैं।

वैज्ञानिक ने चेताया देते हैं कि रक्त आधारित अल्ज़ाइमर परीक्षण (Alzheimer blood tests) पूरी तरह सटीक नहीं हैं। कई लोगों के परिणाम ‘ग्रे ज़ोन’ में आते हैं, यानी उन्हें ब्रेन स्कैन (brain scan) या स्पाइनल फ्लूइड टेस्ट (spinal fluid test) की ज़रूरत पड़ती है। उदाहरण के लिए, Quanterix कंपनी के एक अन्य pTau217 आधारित टेस्ट (diagnostic accuracy) में लगभग 30 प्रतिशत व्यक्ति ऐसे थे जिनके नतीजे अनिश्चित रहे।

विशेषज्ञों के अनुसार परीक्षणों के परिणाम उत्साहजनक तो हैं और अल्ज़ाइमर के पारंपरिक (Alzheimer detection) और अधिक जटिल परीक्षणों से मेल खाते हैं। लेकिन जब तक ट्रायल के सभी आंकड़े (clinical data) उपलब्ध नहीं होते, तब तक टेस्ट की सटीकता को पूरी तरह स्पष्ट मानना मुश्किल है।

लेकिन इन परीक्षणों का फायदा तो तभी होगा जब बीमारी का इलाज (Alzheimer treatment) मौजूद हो। इसलिए इलाज खोजने की दिशा में प्रयास भी ज़रूरी हैं। बहरहाल, इन परीक्षणों से इतना तो किया जा सकता है कि अल्ज़ाइमर की संभावना (risk detection) पता कर ऐहतियात बरती जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विज्ञान के नोबेल पुरस्कार 9 वैज्ञानिकों को दिए गए

स साल के नोबेल पुरस्कारों (Nobel Prize 2025) की घोषणा कर दी गई है। विज्ञान के तीन क्षेत्रों – भौतिकी, रसायन और कार्यिकी अथवा चिकित्सा – में पुरस्कार उन खोजों के लिए दिए गए हैं जो वर्षों पहले की गई थीं लेकिन विज्ञान और समाज में उनके असर का खुलासा होते देर लगी। तो एक नज़र इस वर्ष के नोबेल सम्मान पर डालते हैं।

भौतिकी (Physics Nobel Prize)

भौतिकी में क्वांटम (Quantum Physics) शब्द अब जाना-पहचाना है। क्वांटम भौतिकी का प्रादुर्भाव 1900 में मैक्स प्लांक द्वारा ब्लैक बॉडी विकिरण की व्याख्या के साथ माना जा सकता है। आगे चलकर अल्बर्ट आइंस्टाइन, नील्स बोर, एर्विन श्रोडिंजर जैसे वैज्ञानिकों ने इसे आगे बढ़ाया। यह पदार्थ और ऊर्जा को एकदम बुनियादी स्तर पर समझने का प्रयास है। इसके कई विचित्र पहलुओं में से एक है क्वांटम टनलिंग (Quantum Tunneling)।

आम तौर पर जब हम किसी गेंद को दीवार पर मारते हैं तो वह सौ फीसदी बार टकराकर वापिस लौट आती है। लेकिन अत्यंत सूक्ष्म स्तर (जैसे इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन जैसे कण) पर पदार्थ का व्यवहार थोड़ा विचित्र हो जाता है। जब एक इकलौते कण को दीवार पर मारा जाए तो कभी-कभी वह टकराकर लौटने की बजाय दीवार के पार चला जाता है। इसे टनलिंग कहते हैं। ऐसा व्यवहार सूक्ष्म कणों के संदर्भ में ही देखा गया था। लेकिन इस वर्ष के नोबेल विजोताओं ने इसे स्थूल स्तर पर भी प्रदर्शित करके सबको चौंका दिया और क्वांटम कंप्यूटर (Quantum Computer Technology) जैसी टेक्नॉलॉजी का मार्ग खोल दिया है।

इस वर्ष का भौतिकी नोबेल संयुक्त रूप से कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (बर्कले) के जॉन क्लार्क, येल विश्वविद्यालय के माइकेल डेवोरेट तथा कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (सांटा बारबरा) के जॉन मार्टिनिस को दिया गया है। इन्होंने यह दर्शाया कि टनलिंग स्थूल स्तर पर भी संभव है। दरअसल उनके प्रयोगों से स्पष्ट हुआ कि कुछ मामलों में बुनियादी कणों का पुंज भी क्वांटम कण की तरह व्यवहार कर सकता है। उनके प्रयोग विद्युत परिपथ से सम्बंधित थे और वे दर्शा पाए कि विद्युत परिपथ क्वांटम परिपथ (Quantum Circuit Research) की तरह व्यवहार कर सकता है।

रसायन (Chemistry Nobel Prize)

वर्ष 2025 का रसायन नोबेल पुरस्कार क्योतो विश्वविद्यालय के सुसुमु कितागावा, मेलबर्न विश्वविद्यालय के रिचर्ड रॉबसन और कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (बर्कले) के ओमर एम. यागी को दिया गया है।

इन वैज्ञानिकों ने ऐसी आणविक संरचनाएं निर्मित की हैं जिनमें अंदर विशाल खाली स्थान होते हैं। इसके लिए उन्होंने धातु के आयन और कार्बनिक अणुओं के संयोजन से नवीन आणविक रचनाएं बनाने में सफलता प्राप्त की है। इन्हें मेटल ऑर्गेनिक फ्रेमवर्क (एमओएफ)) (Metal Organic Framework – MOF) नाम दिया गया है। इनकी विशेषता यह है कि इनमें उपस्थित खाली स्थानों में कई अन्य पदार्थ समा सकते हैं। जैसे इनमें कार्बन डाईऑक्साइड (Carbon Dioxide Storage) भर सकती है, विभिन्न प्रदूषणकारी पदार्थ जमा हो सकते हैं, पर्यावरण में उपस्थित कणीय पदार्थ भरे रह सकते हैं। अर्थात एमओएफ जलवायु परिवर्तन(Climate Change Solutions), वातावरण के प्रदूषण वगैरह जैसी कई चुनौतियों से निपटने में मददगार साबित हो सकते हैं।

चिकित्सा विज्ञान (Medicine Nobel Prize)

इस वर्ष का चिकित्सा नोबेल इंस्टीट्यूट फॉर सिस्टम्स बायोलॉजी (सिएटल) की मैरी ई. ब्रन्कॉव, सोनोमा बायोथेराप्युटिक्स के फ्रेड राम्सडेल और ओसाका विश्वविद्यालय के शिमोन साकागुची को संयुक्त रूप से दिया गया है।

इन्होंने मिलकर इस बात का खुलासा किया है कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र (Immune System Research) अफरा-तफरी क्यों नहीं मचा देता। दरअसल हमारे प्रतिरक्षा तंत्र (इम्यूनिटी) के लिए लाज़मी है कि वह बाहर से आने वाली विभिन्न चुनौतियों (जैसे बैक्टीरिया, फफूंद, वायरस वगैरह) से निपटने को तत्पर रहे। इस काम को अंजाम देने के लिए प्रतिरक्षा तंत्र में विभिन्न किस्म की कोशिकाएं होती हैं – कुछ कोशिकाएं घुसपैठियों को पहचानने का काम करती हैं, कुछ उन्हें बांध कर अन्य मारक कोशिकाओं के समक्ष पेश करती हैं। बाहर से तो कुछ भी आ सकता है। इसलिए पहचानने वाली प्रतिरक्षा कोशिकाओं पर ऐसे अणु होते हैं जो हर उस चीज़ को पहचान लेते हैं जो पराई है। यानी उनमें अपने-पराए का भेद करने की क्षमता होनी चाहिए।

इस साल के नोबेल विजेताओं का प्रमुख योगदान यह समझाने में रहा है कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र स्वयं का नियमन करके कैसे अनुशासित व्यवहार करता है। पहले माना जाता था कि पहचानने वाली प्रतिरक्षा कोशिकाओं का प्रशिक्षण थायमस नामक ग्रंथि (Thymus Gland Function) में होता है। वहां समस्त पहचान कोशिकाओं को शरीर की कोशिकाओं से जोड़कर परखा जाता है। जो कोशिका अपने शरीर की कोशिका से जुड़ती है, उसे नष्ट कर दिया जाता है। इस प्रकार से प्रतिरक्षा तंत्र की वही कोशिकाएं बचती हैं जो अपने ही शरीर की कोशिकाओं को हमलावर के रूप में नहीं पहचातीं।

फिर ब्रन्कॉव, राम्सडेल और साकागुची ने चूहों पर प्रयोगों के दम पर प्रतिरक्षा तंत्र में एक नई किस्म की कोशिकाएं पहचानी जो अन्य कोशिकाओं के निरीक्षण व नियमन का काम करती हैं। इन्हें नियामक टी-कोशिकाएं कहते हैं। तब से नियामक टी-कोशिकाओं (Regulatory T Cells – Tregs) पर काफी अनुसंधान से कई रोगों के उपचार की दिशा में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है। इनमें खास तौर से तथाकथित आत्म-प्रतिरक्षा रोग (Autoimmune Diseases) और कैंसर शामिल हैं। आत्म प्रतिरक्षा रोगों में टाइप-ए डायबिटीज़, आर्थ्राइटिस, ल्यूपस वगैरह शामिल हैं। इन रोगों का कारण यह है कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र स्वयं अपनी कोशिकाओं और ऊतकों पर हमला कर देता है। नियामक टी-कोशिकाओं की खोज और आगे शोध ने ऐसे रोगों (Cancer Immunotherapy) के प्रबंधन के रास्ते प्रदान किए हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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युद्ध, पाबंदियों और चिंताओं के साये में इगनोबेल पुरस्कार

प्रतिका गुप्ता

हालांकि दौर नोबेल पुरस्कारों (Nobel Prize) की घोषणा का चल रहा है, लेकिन इसके कुछ दिनों पहले इगनोबेल पुरस्कार (Ig Nobel Prize) की घोषणा भी हुई थी।

धीर-गंभीर लगने वाली वैज्ञानिक खोजों (Scientific Discoveries) के लिए दिए जाने वाले नोबेल पुरस्कारों के विपरीत इगनोबेल पुरस्कार उन वैज्ञानिक अनुसंधानों के लिए दिए जाते हैं जिनके विषय/सवाल पहली नज़र में तो थोड़े मज़ाकिया लगते हैं, लेकिन फिर उन्हें लेकर शोध उतनी ही शिद्दत से किया जाता है जितनी शिद्दत से वे अनुसंधान किए जाते हैं जो नोबेल के हकदार बनते हैं।

इन पुरस्कार विजेताओं का चयन एनल्स ऑफ इम्प्रॉबेबल रिसर्च (Annals of Improbable Research) पत्रिका द्वारा किया जाता है। लेकिन कोई भी व्यक्ति किसी ‘मज़ेदार लेकिन विचारशील’ लगने वाले शोधकार्य को इस पते पर भेज कर पुरस्कार के लिए नामित कर सकता है: marc@improbable.com)। (पर ध्यान रहे, उनकी वेबसाइट पर जारी चेतवानी के अनुसार, स्वयं को नामित किए गए बहुत ही कम शोधकार्य इस पुरस्कार के हकदार बने हैं।)

एक तरह से इगनोबेल पुरस्कार पिछले 35 सालों से मज़े से विज्ञान करने और विज्ञान में मज़ा (Fun Science) करने का मौका बनाते हैं। हर साल जब ये पुरस्कार दिए जाते हैं तो इनको पाने वाले अपने खर्चे पर बोस्टन में आयोजित अवॉर्ड समारोह (Award Ceremony) में शामिल होते हैं। समारोह का माहौल एकदम हल्का-फुल्का होता है; यहां ओपेरा, सर्कस जैसे कार्यक्रम होते हैं; पुरस्कार प्राप्त करने वाले वैज्ञानिकों को व्याख्यान के लिए महज 24 सेकंड का समय दिया जाता है; और कागज़ का हवाई जहाज़ उड़ाकर समारोह का समापन हो जाता है।

लेकिन इस साल दुनिया भर में चल रही तमाम तरह की समस्याओं, सख्तियों, पाबंदियों और युद्ध (War & Restrictions) के चलते लगभग आधे इगनोबेल विजेता इस समारोह में शामिल नहीं हो सके। ऐसा इस समारोह के इतिहास में पहली बार हुआ है कि पुरस्कार विजेताओं ने इस समारोह में शामिल न हो सकने की बात कही है।

दुर्गंधरहित शू-रैक बनाने (Shoe Rack Design) के लिए (इंजीनियरिंग का) इगनोबेल पाने वाले भारत के विकास कुमार (Vikas Kumar) के लिए समारोह में शामिल होने में दो बाधाएं थीं: पहली तो समारोह में शामिल होने का खर्चा; लेकिन उससे बड़ी बाधा थी यह खबर कि भारत के अपंजीकृत प्रवासियों को बेड़ियों में जकड़कर अमेरिका से निर्वासित किया जा रहा है। इस खबर ने उन्हें डरा दिया कि कहीं उनके साथ भी ऐसा सलूक न हो जाए। और यदि, इस डर से उबरकर वे और उनके साथी समारोह में शामिल होने का फैसला करते, तो भी अमेरिका द्वारा भारत के लिए लागू सख्त वीज़ा नियमों (US Visa Rules) के चलते उन्हें वीज़ा हासिल करने में ही 7-8 महीनों का समय लग जाता, तब तक समारोह का वक्त निकल जाता और चाहते हुए भी वे समारोह में शामिल नहीं हो पाते। इसकी बजाय उन्होंने अपने साथी के साथ भारत में ही इस पुरस्कार की खुशी मना ली।

इगनोबेल शांति पुरस्कार (Peace Prize) विजेता भी अमेरिकी राजनीति के चलते इस समारोह का हिस्सा नहीं बन सकीं। जर्मनी के चिकित्सा मनोवैज्ञानिक फ्रिट्ज़ रेनर और जेसिका वर्थमैन इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं कर पा रहे थे कि कैसे अमेरिकी सरकार विश्वविद्यालयों के वित्तपोषण में दखलंदाज़ी कर रही है और उनकी स्वतंत्रता एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर असर डाल रही है। साथ ही वे सीमा पर चल रहे संघर्षों को लेकर भी चिंतित थे। और घर पर अपने तीन बच्चों को छोड़कर अमेरिका में फंस जाने का जोखिम नहीं उठाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने समारोह में शामिल होने से इंकार कर दिया।

इस्राइल के बायोफिज़िकल इकॉलॉजिस्ट (Biophysical Ecologist) बेरी पिनशो और उनकी टीम को एविएशन में इगनोबेल पुरस्कार मिला। लेकिन उन्होंने भी समारोह में शामिल न होने का फैसला लिया, कुछ तो स्वास्थ्य और पारिवारिक कारणों से और कुछ इस चिंता से कि इस्राइल-हमास (Israel Hamas War) युद्ध के कारण इस समारोह में उनकी मौजूदगी अन्य देशों में युद्ध के खिलाफ हो रहे प्रदर्शनों को और भड़का सकती है या वहां मौजूद लोगों को विचलित कर सकती है। मौजूदा राजनीतिक माहौल में उन्होंने न जाना ही ठीक समझा। हालांकि टीम से कोलंबिया के पारिस्थितिकीविद फ्रांसिस्को सांचेज़ और मूल रूप से अर्जेंटीना की जीवविज्ञानी मारू मेलकॉन ने इस समारोह में शामिल होने का फैसला किया। मेलकॉन का कहना था कि दुनिया में समस्याएं तो चल ही रही हैं, लेकिन विज्ञान भी हो रहा है। यह हम पर है कि हम किसे ज़्यादा तवज्जो देते हैं। हालांकि अंत में मेलकॉन इस समारोह में शामिल नहीं हो पाईं क्योंकि सैन डिएगो अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर एक आपात स्थिति के कारण उनकी उड़ान रद्द हो गई।

मनोविज्ञान में इगनोबेल विजेता मनोवैज्ञानिक मार्सिन ज़ाजेनकोव्स्की (Marcin Zajenkowski) रूस-युक्रेन युद्ध (Russia Ukraine Conflict) के चलते जाने से कतरा रहे थे। हालांकि अंत में वे समारोह में शामिल हुए, लेकिन कब उनके देश के ऊपर के उड़ान क्षेत्र को बंद कर दिया जाएगा, कब उड़ान रद्द हो जाएगी यह चिंता उन्हें लगातार सताती रही।

इस समारोह के आयोजक मार्क अब्राहम्स के लिए यह बहुत दुखद बात रही कि माहौल को हल्का-फुल्का और मज़ेदार बनाने वाले समारोह पर दुनिया भर कि चिंताएं भारी पड़ गईं और इसके कई विजेता समारोह में शामिल नहीं हो सके। फिर भी वे अलग-अलग जगह समारोह आयोजित करने की योजना बना रहे हैं ताकि जो विजेता बोस्टन के मुख्य समारोह में शामिल नहीं हो पाए थे वे कम से कम इनमें से किसी एक समारोह में आ सकें।

इस साल मिले इगनोबेल पुरस्कार (Ig Nobel Prize 2025 Winners) पर एक नज़र

साहित्य के लिए इस साल इगनोबेल दिवंगत चिकित्सक विलियम बीन को मिला है, जिन्होंने 35 वर्षों तक लगातार अपने एक नाखून (बाएं हाथ के अंगूठे के नाखून) की वृद्धि दर को रिकॉर्ड किया और उसका विश्लेषण किया। उन्होंने बताया कि उम्र बढ़ने के साथ नाखून बढ़ने की गति धीमी पड़ जाती है। 32 वर्ष की उम्र में नाखून हर रोज़ 0.123 मिलीमीटर बढ़ते थे जबकि 67 साल की उम्र में नाखून हर रोज़ 0.095 मिलीमीटर ही बढ़ रहे थे।

मनोविज्ञान में इगनोबेल पुरस्कार मार्सिन ज़ाजेनकोव्स्की और गाइल्स गिग्नैक को मिला जिन्होंने इस बात की जांच की कि जब आप किसी आत्ममुग्ध/सामान्य व्यक्ति को यह बताते हैं कि वे बुद्धिमान हैं तो इसका असर क्या होता है। इसके लिए उन्होंने 360 प्रतिभगियों को दो समूहों में बांटा। कुछ टेस्ट और आईक्यू टेस्ट के बाद दोनों समूह को फीडबैक दिए। एक समूह को पॉज़िटिव या उच्च आई-क्यू फीडबैक (औसत से बेहतर) होने का फीडबैक दिया और दूसरे समूह को नेगेटिव या निम्न आई-क्यू फीडबैक (औसत से कमतर) दिया। पाया गया कि जो लोग आत्ममुग्ध थे और उन्हें पॉज़ीटिव फीडबैक मिला तो उनका आत्मसम्मान और बढ़ा था (Personality Psychology)।

पोषण का इगनोबल (Nutrition Research) डेनियल डेंडी, गेब्रियल सेग्नियागबेटो, रोजर मीक और लुका लुइसेली को मिला है। उन्होंने बताया कि एक खास तरह की इंद्रधनुषी छिपकली (Agama agama) एक खास टॉपिंग वाला पिज़्ज़ा खाना पसंद करती है। अफ्रीका में पाए जानी वाली इन छिपकलियों का मुख्य भोजन वैसे तो आर्थ्रोपोड जीव होते हैं लेकिन टोगो शहर के एक तटीय रिसॉर्ट में शोधकर्ताओं ने इसके एक समूह को नियमित रूप से मानव-निर्मित भोजन (पिज़्ज़ा) खाते हुए देखा है: वो भी किसी भी टॉपिंग वाला पिज़्ज़ा नहीं बल्कि एक विशेष प्रकार की टॉपिंग वाला (फोर-चीज़) पिज़्ज़ा, जिसमें चार तरह की चीज़ की टॉपिंग्स होती है। उनका अनुमान है कि समूह की सभी छिपकलियों द्वारा एक खास तरह का पिज़्ज़ा खाना किन्हीं खास रसायनों के प्रति आकर्षण का संकेत हो सकता है।

जूली मेनेला और गैरी बोचैम्प को शिशु रोग (Infant Studies) में इगनोबेल यह बताने के लिए मिला है कि जब एक दूध पीते बच्चे की मां लहसुन खाती है तो बच्चे को कैसा अनुभव होता है। उन्होंने स्तनपान कराने वाली महिलाओं के लहसुन खाने के बाद उनके दूध में लहसुन के गंध/स्वाद की तीव्रता मापी। पाया कि लहसुन खाने के एक घंटे बाद लहसुन की उतनी गंध नहीं आती; दो घंटे बाद गंध की तीव्रता अपने चरम पर होती है और उसके बाद कम होने लगती है। पाया गया कि बच्चा मां के दूध में इन बदलावों को पहचान लेता है; यह इस आधार पर कहा गया कि जब मां के दूध में लहसुन की गंध आई तो शिशु ज़्यादा देर तक स्तन से जुड़े रहे और उन्होंने ज़्यादा दूध चूसा।

जीवविज्ञान (Biology Research) का इगनोबेल तोमोकी कोजिमा, काज़ातो ओइशी और उनकी टीम को यह पता लगाने के लिए मिला है कि गायों में ज़ेब्रा जैसी धारियां पोतने से क्या गाय मक्खियों से निजात पा सकती हैं। उन्होंने अध्ययन के लिए यह विषय चुना क्योंकि मक्खियों (कीट) के चलते मवेशियों का बहुत नुकसान होता है। उन्होंने प्रयोग जापान की काली गायों पर किया। कुछ गायों पर ज़ेब्रा की तरह काले-सफेद रंग के पेंट से धारियां बनाई, कुछ गायों पर सिर्फ काले रंग की धारियां बनाईं और कुछ पर कोई रंग नहीं पोता। फिर उन्होंने गायों के मक्खियां हटाने वाले व्यवहार पर नज़र रखी, जैसे पूंछ से फटकारना, सिर झटकना, लात पटकना, कान फड़फड़ाना या त्वचा हिलाना। उन्होंने पाया कि जिन गायों को काली-सफेद धारियों से पोता था उनमें मक्खियां हटाने का व्यवहार कम दिखा।

रसायन विज्ञान (Chemistry Study) में इगनोबेल रोटेम नफ्तालोविक, डैनियल नफ्तालोविक और फ्रैंक ग्रीनवे को यह पता लगाने के लिए मिला है कि क्या एक तरह का प्लास्टिक (टेफ्लॉन) भोजन में कैलोरी की मात्रा बढ़ाए बिना पेट भरने का एहसास और तृप्ति दे सकता है। दरअसल मोटापे की समस्या से निजात पाने के लिए शोधकर्ता एक ऐसे पदार्थ की तलाश में थे जो पेट भरने का एहसास तो दे लेकिन उसके खाने से कैलोरी की खपत न बढ़े। वे ऐसे विकल्प की तलाश में थे जिसे पेट का अम्ल ना पचा सके, जो स्वादहीन हो, शरीर की गर्मी का असर न पड़े, चिकना हो और सस्ता हो। टेफ्लॉन में उन्हें यह संभावना दिखी, तो चूहों पर उन्होंने इसकी कारगरता जांची। पाया कि 75 प्रतिशत खाने में यदि 25 प्रतिशत टेफ्लॉन मिलाकर खाया जाए तो वज़न घटाने में मददगार होता है। 90 दिनों तक किए इस परीक्षण में चूहों पर इसके कोई दुष्प्रभाव देखने को नहीं मिले हैं।

शांति का इगनोबल पुरस्कार (Peace Research) फ्रिट्ज़ रेनर, इंगे केर्सबर्गेन और उनकी टीम को यह दिखाने के लिए मिला है कि शराब पीकर व्यक्ति विदेशी (या नई) भाषा थोड़ा अच्छे से बोलने लगता है। यह अध्ययन उन्होंने 50 ऐसे जर्मन लोगों के साथ किया जिन्होंने नई-नई डच भाषा बोलना सीखा था। उनमें से कुछ को शराब और कुछ को कंट्रोल के तौर पर कोई पेय पीने को दिया। और फिर उनके द्वारा डच में की जा रही चर्चा को रिकॉर्ड किया गया। इस रिकॉर्डिंग को दो डचभाषी लोगों को और खुद प्रतिभागियों को सुनाया गया, और उनसे उसका आकलन करने कहा गया। डचभाषी लोगों ने कहा कि जिन लोगों ने शराब पी थी उनकी भाषा, खासकर उच्चारण, अन्य की तुलना में बेहतर थे। हालांकि सेल्फ रेटिंग में ऐसा कोई फर्क नहीं दिखा।

इंजीनियरिंग डिज़ाइन (Engineering Innovation) में विकास कुमार और सार्थक मित्तल को यह बताने के लिए इगनोबेल मिला है कि बदबूदार जूते शू-रैक के इस्तेमाल पर क्या असर डालते हैं। उन्होंने यह देखा था कि शू-रैक होने के बावजूद भी लोग उसमें जूते-चप्पल नहीं रखते और वे बाहर पड़े रहते हैं। कारण: बदबूदार जूते। उन्होंने इसका एक समाधान भी दिया है: यदि शू-रैक में यूवी लाइट की व्यवस्था हो तो बदबू कम हो सकती है।

एविएशन (Aviation Research) में फ्रांसिस्को सांचेज़, बेरी पिनशो और उनकी टीम को यह पता लगाने के लिए इगनोबेल मिला है कि क्या शराब पीने से चमगादड़ों की उड़ने और इकोलोकेशन की क्षमता (Echolocation Study) कम हो सकती है। देखा गया था कि फलों में एथेनॉल की मात्रा 1 प्रतिशत से अधिक होने (फल पकने) पर मिस्र के रूसेटस एजिपियाकस चमगादड़ इन फलों का सेवन सीमित कर देते हैं। अनुमान था कि 1 प्रतिशत से अधिक एथेनॉल युक्त भोजन इन चमगादड़ों के लिए विषाक्त/नशीला होगा जिससे उनका नेविगेशन और इकोलोकेशन से जगह का अंदाज़ा लेने का कौशल प्रभावित होता होगा। पाया गया कि एथेनॉल युक्त भोजन खाने के बाद चमगादड़ अन्य की तुलना में काफी धीमी गति से उड़ते हैं। इससे चमगादड़ों की इकोलोकशन क्षमता भी प्रभावित होती है।

भौतिकी (Physics Research) में जियाकोमो बार्टोलुची, डैनियल मारिया और उनकी टीम को परफेक्ट पास्ता सॉस की रेसिपी (Pasta Sauce Science) बताने के लिए इगनोबेल मिला है। आसान सी लगने वाली यह रेसिपी दरअसल है थोड़ी मुश्किल, खासकर नौसिखियों के लिए। यदि सारे अवयव सही मात्रा में न पड़ें तो सॉस या तो थक्केदार बनता है या उसमें गुठलियां पड़ जाती हैं। शोधकर्ताओं ने कई विधियां आज़माने के बाद बताया है कि बढ़िया टेक्सचर वाला सॉस बनाने में चीज़ के साथ स्टार्च की मात्रा का अनुपात बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जब स्टार्च की मात्रा चीज़ की मात्रा के 2-3 प्रतिशत के बीच रहती है, तो सॉस एकदम बढ़िया बनता है। स्टार्च की मात्रा 1 प्रतिशत से कम होने पर सॉस थक्केदार बनता है और 4 प्रतिशत से ज़्यादा होने पर उसमें कड़क गुठलियां पड़ जाती हैं।

ये विवरण पढ़कर आपको भी हंसी आई होगी कि ये भी कोई शोध के विषय हैं। लेकिन देखने वाली बात यह है कि सम्बंधित शोधकर्ताओं ने इन्हें कितनी गंभीरता से लेकर कितनी गहनता से इन विषयों पर काम किया। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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इगनोबेल पुरस्कार: मज़े-मज़े में विज्ञान

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

हालिया सुर्खियां बताती हैं कि दो भारतीय वैज्ञानिकों (Indian scientists) को इंजीनियरिंग डिज़ाइन (design) श्रेणी में 2025 का इगनोबेल (Ig Nobel) पुरस्कार दिया गया है। हम सब नोबेल पुरस्कारों के बारे में तो जानते हैं, लेकिन क्या इगनोबेल पुरस्कार के बारे में जानते हैं?

साइंस पत्रिका (science magazine) की एक रिपोर्ट के अनुसार, इगनोबेल पुरस्कार ऐसा हल्का-फुल्का आयोजन है जो पुरस्कार पर एक प्रहसन-सा है। ‘इग (Ig)’ उपसर्ग का मतलब होता है गैर-सम्माननीय या निम्न दर्जे का। यहां पुरस्कार का नाम (Ig Nobel) दरअसल ‘ignoble’ शब्द पर एक तंज है। ज्ञानवर्धी (संजीदा) विज्ञान (science), प्रौद्योगिकी (technology), साहित्य (literature), शांति (peace) और अर्थशास्त्र (economics) में दिए जाने वाले वास्तविक नोबेल पुरस्कारों (Nobel Prizes) के विपरीत इगनोबेल पुरस्कार हास्य (humor) का पुट देते हैं।

इगनोबेल पुरस्कार वर्ष 1991 से हर साल दिए जा रहे हैं; मकसद है वैज्ञानिक अनुसंधान (scientific research) के साथ आम लोगों (general public) के जुड़ाव को बढ़ावा देना। ये ऐसे अनुसंधान के लिए दिए जाते हैं जो पहले-पहल तो लोगों को हंसाते हैं लेकिन फिर उन्हें सोचने पर मजबूर करते हैं। प्रत्येक विजेता को 10 ट्रिलियन ज़िम्बाब्वे डॉलर (Zimbabwe dollar) का एक बैंकनोट मिलता है, जिसकी कीमत इसके चलन के समय 40 अमेरिकी सेंट थी लेकिन अब यह विमुद्रीकृत कर दिया गया है और अब ये प्रचलन में नहीं हैं। इसके विपरीत, प्रत्येक नोबेल पुरस्कार (Nobel prize) विजेता को एक स्वर्ण पदक (जिस पर पुरस्कार के संस्थापक अल्फ्रेड नोबेल की तस्वीर उकेरी होती है) और लगभग 1.1 करोड़ स्वीडिश क्रोनर मिलते हैं, जिसे अधिकतम तीन विजेताओं के बीच साझा किया जा सकता है।

प्रत्येक नोबेल विजेता को हर साल दिसंबर में स्वीडिश एकेडमी ऑफ साइंसेज़ (Swedish Academy of Sciences) में एक समारोह में अपना व्याख्यान देने का अवसर भी मिलता है। इसके विपरीत, इगनोबेल पुरस्कार बोस्टन, मैसाचुसेट्स में आयोजित एक समारोह में दिए जाते हैं और प्रत्येक विजेता को अपनी उपलब्धियां प्रस्तुत करने के लिए केवल एक मिनट का समय दिया जाता है।

2025 के इगनोबेल विजेता

इगनोबेल पुरस्कारों (Ig Nobel awards) का चयन एनल्स ऑफ इम्प्रॉबेबल रिसर्च (Annals of Improbable Research) पत्रिका द्वारा किया जाता है। उनकी वेबसाइट के अनुसार, 2025 के इगनोबेल पुरस्कार विजेता ये हैं:

  • जीव विज्ञान (biology) के लिए तोमोकी कोजिमा और उनके साथी, जिन्होंने अपने प्रयोगों के ज़रिए दिखाया है कि गायों पर ज़ेबरा जैसी काली-सफेद धारियां पोतने से मक्खियां उन्हें कम काटती हैं।
  • इंजीनियरिंग डिज़ाइन (engineering design)  या एर्गोनॉमिक्स (ergonomics) में उत्तर प्रदेश के विकास कुमार और सार्थक मित्तलऐ, जिन्होंने बताया कि यदि जूते बदबूदार हों तो कैसे लोग उन्हें शू-रैक में रखने से कतराते हैं।
  • साहित्य (literature) में अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय (Columbia University) के चिकित्सा इतिहासकार और इंटर्निस्ट प्रोफेसर विलियम बीन, जिन्होंने अपने नाखूनों के बढ़ने का दस्तावेज़ीकरण किया; (गौरतलब है कि प्रोफेसर बीन का 2020 में निधन हो गया था और यह पुरस्कार उनके बेटे ने लिया।
  • मनोविज्ञान (psychology) में पोलैंड के मार्सिन ज़ाजेनकोव्स्की और ऑस्ट्रेलिया के गाइल्स गिग्नैक, जिन्होंने दिखाया कि जो लोग आत्ममुग्ध (narcissistic) होते हैं उन्हें यदि कहा जाए कि वे बुद्धिमान (intelligent) हैं तो उनका आत्म-सम्मान बढ़ जाता है।
  • पोषण (nutrition) में नाइजीरिया, टोगो, इटली और फ्रांस के शोधकर्ता, जिन्होंने दिखाया कि इंद्रधनुषी छिपकलियां (rainbow lizards) कुछ प्रकार के पिज्ज़ा का स्वाद पसंद करती हैं।
  • बालरोग (pediatrics)  में अमेरिका की जूली मेनेला और गोरी बोचैम्प, जिन्होंने बताया कि स्तनपान (breastfeeding) कराने वाली माताएं यदि लहसुन खाती हैं तो उनके शिशु अधिक दूध पीते हैं।
  • रसायन विज्ञान (chemistry) में अमेरिका के रोटेम नफ्तालोविक, डैनियल नफ्तालोविक और फ्रैंक ग्रीनवे की टीम, जिन्होंने बताया कि खाने के साथ टेफ्लॉन (Teflon) (जिसका इस्तेमाल नॉन-स्टिक कलई चढ़ाने के लिए किया जाता है) का सेवन कैलोरी की मात्रा बढ़ाए बिना भरपेट भोजन और तृप्ति पूरी करने का एक अच्छा तरीका है।
  • शांति (peace) में नीदरलैंड, यूके और जर्मनी के शोधकर्ता, जिन्होंने यह दिखाया कि कैसे थोड़ी मात्रा में शराब पीने से विदेशी (नई) भाषा (foreign language) बोलने की क्षमता बेहतर हो सकती है।

प्रसंगवश, अब तक केवल एक वैज्ञानिक ऐसे हैं जिन्होंने इगनोबेल और नोबेल दोनों पुरस्कार जीते हैं। वे हैं मैनचेस्टर विश्वविद्यालय (University of Manchester) के भौतिक विज्ञानी आंद्रे जेम। आंद्रे जेम और माइकल बेरी को वर्ष 2000 में, एक मेंढक को उसके आंतरिक चुंबकत्व का उपयोग करके एक शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र में हवा में उड़ा देने के लिए भौतिकी श्रेणी में इगनोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। 2010 में, प्रो. जेम और कॉन्स्टेंटिन नोवोसेलोव (Konstantin Novoselov) को द्वि-आयामी पदार्थ ग्रैफीन से सम्बंधित अभूतपूर्व प्रयोगों के लिए भौतिकी का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मस्तिष्क में मिला भूख का मास्टर स्विच

वैज्ञानिकों ने हाल ही में मस्तिष्क (Brain) में एक खास ‘ब्रेन डायल’ (Brain Dial) खोजा है, जो खाने की इच्छा (Food Craving) को जगा या शांत कर सकता है – कम से कम चूहों में। यह छोटा-सा दिमागी हिस्सा जीवों को पेट भरा होने पर भी खाने के लिए मजबूर कर सकता है।

यह ब्रेन डायल मस्तिष्क के बेड न्यूक्लियस ऑफ स्ट्रिआ टर्मिनेलिस (Bed Nucleus of the Stria Terminalis, BNST) नामक हिस्से में पाया गया है। यह हिस्सा शरीर की तंत्रिकाओं से कई तरह की जानकारियां प्राप्त करके उनका समन्वय करता है – जैसे भूख का स्तर (Hunger Level), विशिष्ट पोषक तत्वों की कमी और भोजन के बारे में निर्णय करना कि वह खाने योग्य है या नहीं। यह एक तरह का कंट्रोल सेंटर (Brain Control Center) है, जो भूख, पोषण और स्वाद से जुड़ी जानकारियों से लेकर खाने के व्यवहार को नियंत्रित करता है। पहले वैज्ञानिकों को शक था कि BNST भूख में भूमिका निभाता है, लेकिन सेल पत्रिका (Cell Journal) में प्रकाशित इस अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि यह खाने की आदतों को दोनों दिशाओं में नियंत्रित कर सकता है।

अध्ययन में कोलंबिया युनिवर्सिटी (Columbia University) के तंत्रिका वैज्ञानिक चार्ल्स ज़ुकर की टीम ने चूहों में स्वाद से जुड़े मस्तिष्कीय परिपथों का नक्शा तैयार किया। उन्होंने पाया कि केंद्रीय एमिग्डेला (Amygdala) और हायपोथैलेमस (Hypothalamus) की तंत्रिकाएं मीठा स्वाद पहचानती हैं और सीधे BNST न्यूरॉन्स से जुड़ी होती हैं। जब BNST तंत्रिकाओं को बाधित किया गया तब भूख होते हुए भी चूहों ने मीठा खाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। लेकिन जब इन्हें सक्रिय किया गया तो पेट भरे चूहों ने सामने आने वाली हर चीज़ खाना शुरू कर दिया जैसे नमक, कड़वी चीज़ें, वसा, पानी, यहां तक कि प्लास्टिक की टिकलियां भी।

विशेषज्ञों के अनुसार यह शोध इसलिए अहम है क्योंकि इसमें भूख और स्वाद (Hunger and Taste) के असर को अलग-अलग समझकर दिखाया गया है, और यह भी बताया गया है कि दोनों का सम्बंध एक ही दिमागी हिस्से से है।

हालांकि ये प्रयोग चूहों पर हुए हैं, लेकिन इंसानों (Humans) के लिए भी इनके बड़े मायने हो सकते हैं। अगर वैज्ञानिक इस ब्रेन डायल को सुरक्षित रूप से नियंत्रित (Brain Dial Control) करना सीख जाते हैं, तो एक दिन यह मोटापा (Obesity), ज़्यादा खाना और खाने से जुड़ी बीमारियों (Eating Disorders) से निपटने में मदद कर सकता है। बहरहाल, इसे इंसानों पर लागू करने से पहले काफी अध्ययन की ज़रूरत होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या सबका मस्तिष्क रंगों को एक ही तरह से देखता है?

ह तो हम जानते हैं कि भाषा (Language), संस्कृति (Culture), अनुभव (Experience) और वर्णांधता (Color Blindness) के चलते विभिन्न लोग रंगों को अलग तरह से देखते-समझते हैं। हरियाली से घिरे परिवेश में रहने वालों के पास शायद हरे की हर छटा के लिए अलग-अलग नाम हों, लेकिन किसी और के पास सभी हरे के लिए सिर्फ एक ही नाम हो – हरा। लेकिन क्या सभी के मस्तिष्क रंगों को अलग-अलग तरह से प्रोसेस करते हैं, या एक ही तरह से?

जर्मनी के ट्यूबिंगन विश्वविद्यालय में संज्ञान तंत्रिका विज्ञानी (Neuroscientist) एंड्रियास बार्टेल्स और उनके साथी माइकल बैनर्ट यह जानना चाहते थे कि मस्तिष्क के दृष्टि से सम्बंधित हिस्सों में विभिन्न रंग कैसे निरूपित होते हैं, और लोगों के बीच इसमें कितनी एकरूपता है।

इसके लिए उन्होंने 15 प्रतिभागियों को विभिन्न रंग दिखाए और उस समय उनकी मस्तिष्क गतिविधि को फंक्शनल मैग्नेटिक रिज़ोनेन्स इमेज़िंग (fMRI) की मदद से रिकॉर्ड किया। फिर उन्होंने मस्तिष्क गतिविधि का एक नक्शा बनाया, जिसे देखकर अंदाज़ा मिलता था कि प्रत्येक रंग देखने पर मस्तिष्क के कौन से हिस्से सक्रिय होते हैं। इन आंकड़ों से उन्होंने मशीन-लर्निंग मॉडल (Machine Learning Model)  को प्रशिक्षित किया, और इसकी मदद से उन्होंने एक अन्य समूह की मस्तिष्क गतिविधि के रिकॉर्ड देखकर अनुमान लगाया कि प्रतिभागियों ने कौन से रंग देखे होंगे।

अधिकांश अनुमान सही निकले। देखा गया कि दृश्य से जुड़े अलग-अलग रंगों को मस्तिष्क के एक ही क्षेत्र के अलग-अलग हिस्सों में प्रोसेस किया जाता हैं, और विभिन्न रंगों के लिए अलग-अलग मस्तिष्क कोशिकाएं प्रतिक्रिया करती हैं। लेकिन मस्तिष्क का कौन-सा हिस्सा और कौन-सी कोशिकाएं किस रंग के लिए सक्रिय होंगी इसके नतीजे सभी प्रतिभागियों में एकसमान थे। अर्थात अलग-अलग लोगों में रंगों की प्रोसेसिंग एक ही तरह से होती है। शोधकर्ताओं ने अपने ये नतीजे जर्नल ऑफ न्यूरोसाइंस (Journal of Neuroscience) में प्रकाशित किए हैं।

इस अध्ययन से विभिन्न रंगों के प्रोसेसिंग और नामकरण (Color Perception) को देखने का एक नया नज़रिया मिलता है। अलबत्ता पूरी बात समझने के लिए और अध्ययन (Scientific Research) की ज़रूरत होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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परीक्षा देने का सबसे अच्छा समय क्या है?

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

कार्मेलो विकारियो एवं उनके साथियों ने फ्रंटियर्स इन साइकोलॉजी पत्रिका (Frontiers in Psychology) के जुलाई 2025 के अंक में एक शोधपत्र प्रकाशित किया था, जिसका शीर्षक था ‘Timing Matters! Academic assessment changes throughout the day’ (समय मायने रखता है! शैक्षणिक मूल्यांकन दिन भर बदलता रहता है)।

इस अध्ययन में उन्होंने संपूर्ण इटली के 1,04,552 विद्यार्थियों के शैक्षणिक प्रदर्शन का विश्लेषण प्रस्तुत किया है, जो कहता है कि परीक्षा का समय मायने रखता है। अध्ययन में पाया गया कि सुबह 11 बजे से दोपहर 1 बजे के बीच आयोजित परीक्षाओं के परिणाम (exam results) बहुत अच्छे आए थे, और उनमें मध्यान्ह (12 बजे) के आसपास आयोजित परीक्षाएं सबसे अच्छी रहीं। जबकि सुबह 8 से 9 बजे के बीच और दोपहर 2 से 5 बजे के बीच आयोजित परीक्षाओं के परिणाम खराब रहे।

यानी नतीजों पर इस बात का असर पड़ता है कि महत्वपूर्ण निर्णय दिन के किस समय लिए गए हैं। ग्राफ पर परीक्षा में सफलता दर (success rate) घंटाकार वक्र रेखा के रूप में प्रदर्शित हुई थी, जिसके शिखर पर मध्यान्ह (12 बजे) का समय था। अर्थात, यदि सुबह 11 बजे या दोपहर 1 बजे परीक्षा हो तो उत्तीर्ण होने की संभावना में कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन यदि परीक्षा सुबह 8-9 बजे या दोपहर 3-4 बजे ली जाती है तो उत्तीर्ण होने की संभावना अपेक्षाकृत कम हो जाएगी। उत्तीर्ण होने की संभावना सुबह और देर दोपहर में बराबर थी।

इस अध्ययन के एक सह लेखक बोलोग्ना विश्वविद्यालय के प्रोफसर एलेसियो एवेनंती का कहना है कि “इन निष्कर्षों के व्यापक निहितार्थ हैं। ये नतीजे इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि कैसे जैविक लय (biological rhythms) महत्वपूर्ण मूल्यांकन परिणाम (assessment results) को सूक्ष्म रूप से लेकिन काफी प्रभावित कर सकती है जबकि इस बात को अक्सर निर्णय लेने के संदर्भ में अनदेखा कर दिया जाता है।”

हालांकि अध्ययन में इस पैटर्न के पीछे के क्रियाविधि का खुलासा नहीं किया गया है; लेकिन दोपहर के समय उत्तीर्ण होने वाले विद्यार्थियों की संख्या में अधिकता इस बात के प्रमाण के समान है कि संज्ञानात्मक प्रदर्शन (cognitive performance) सुबह के दौरान बेहतर होने लगता है और दोपहर के दौरान कम होता जाता है। देर-दोपहर में विद्यार्थियों के ऊर्जा स्तर में गिरावट के कारण उनकी एकाग्रता कम हो सकती है, जिससे उनका प्रदर्शन प्रभावित हो सकता है। प्रोफेसर/शिक्षक भी (जांच के दौरान) निर्णय लेने में थकान का अनुभव कर सकते हैं, जिसके कारण उत्तरों मूल्यांकन प्रभावित हो सकता है।

वहीं, सुबह के समय में खराब परिणाम क्रोनोटाइप (chronotype) या जैविक घड़ी की विविधता के कारण हो सकते हैं। 20 की उम्र के लोग आम तौर पर रात में जागने वाले होते हैं, जबकि 40 या उससे ज़्यादा उम्र के लोग सुबह जल्दी उठने वाले होते हैं। यानी जब प्रोफेसर/शिक्षक सबसे ज़्यादा चेतन/फुर्तीले हैं तब विद्यार्थी उनींदे से होते हैं: नतीजा होता है संज्ञानात्मक प्रदर्शन में गिरावट।

इटली के मेसिना विश्वविद्यालय के डॉ. विकारियो का सुझाव है कि दिन के समय के प्रभावों (time of day effect) का मुकाबला करने के लिए, विद्यार्थियों को अच्छी नींद लेना चाहिए, दिन के जिस समय वे खुद को सबसे कम ऊर्जावान महसूस करते हैं उस दौरान महत्वपूर्ण परीक्षाओं/साक्षात्कार रखने से बचना चाहिए, परीक्षा से पहले दिमाग को आराम देने जैसी रणनीतियां अपनाना चाहिए; और संस्थानों द्वारा सत्र देर-सुबह शुरू करने या प्रमुख मूल्यांकन देर-सुबह रखने से परिणाम में सुधार हो सकता है।

लेकिन शैक्षणिक प्रदर्शन (student performance) पर दिन के समय के प्रभाव को पूरी तरह से समझने और वाजिब मूल्यांकन सुनिश्चित करने के तरीके विकसित करने के लिए अधिक शोध की आवश्यकता है।

शोध पत्र के वरिष्ठ लेखक मेस्सिना विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मासिमो मुच्चियार्डी का कहना है कि अध्ययन में “हम अन्य कारकों को पूरी तरह से शामिल नहीं कर पाए हैं। जैसे हम विद्यार्थियों या परीक्षकों के विस्तृत डैटा (जैसे सोने-जागने की आदतें, तनाव या जैविक लय सम्बंधी जानकारी) (student data) नहीं हासिल कर पाए। यही कारण है कि हम अंतर्निहित तंत्रों को उजागर करने के लिए शारीरिक या व्यवहारिक कारकों को शामिल कर आगे के अध्ययनों का सुझाव देते हैं।”

हालांकि यह शोध इटली में हुआ है, लेकिन इसके निष्कर्ष भारत (India study relevance) में भी भलीभांति लागू हो सकते हैं। भारत में भी कई प्रवेश परीक्षाएं आम तौर पर सुबह और दोपहर के समय में आयोजित की जाती हैं। उदाहरण के लिए, कॉमन युनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट (CUET exam) दो स्लॉट में आयोजित किया जाता है – सुबह 9-12 बजे और दोपहर 3-6 बजे। यदि हम उपरोक्त इतालवी अध्ययन को देखें, तो स्लॉट सुबह 9-11 बजे और दोपहर 12-2 बजे के बीच रखना बेहतर परिणाम दे सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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मन की बात बोल देने वाला यंत्र

म मन ही मन कई बातें सोचते हैं लेकिन वे किसी को सुनाई नहीं पड़ती। क्या हो यदि मन की इन बातों को बाहर सुना जा सके? और हाल ही में सेल पत्रिका में प्रकाशित एक शोध पत्र में इसी करिश्मे का उल्लेख किया गया है। इसमें शोधकर्ताओं ने मस्तिष्क (brain) में लगाए गए इम्प्लांट्स और डैटा विश्लेषण (data analysis) की मदद से चार लोगों की मन की बातों से सम्बंधित तंत्रिका संकेतों को अलग करने की जुगाड़ जमाई है। ये चारों व्यक्ति गति सम्बंधी दिक्कतों से पीड़ित थे जो उनकी बोलने की क्षमता को बाधित कर रही थी। शोधकर्ताओं ने मस्तिष्क-कंप्यूटर इंटरफेस (brain computer interface) स्थापित किया जो उनके मन की बातों को वाणी दे सकता है। आप देख ही सकते हैं कि इसकी अपनी समस्याएं हैं – यह तकनीक किसी व्यक्ति के ऐसे विचारों को भी मुखर कर सकती है जो वह मन में ही रखना चाहे।

दरअसल शोध पत्र में इस बात को समझने की कोशिश हुई है कि आंतरिक वाणी (inner speech) कैसे निर्मित होती है। पिछले कुछ दशकों में इंजीनियर्स ऐसे लोगों के लिए कंप्यूटर सिस्टम्स बनाने में सफल हुए हैं जो लकवाग्रस्त (paralyzed) होने की वजह से बोल नहीं पाते। इन सिस्टम्स में यह क्षमता है कि वे मस्तिष्क में चल रही गतिविधियों से शब्द निर्मित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ महीने पहले कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने एक यंत्र प्रस्तुत किया था जो एमायोट्रॉफिक लेटरल स्क्लेरोसिस (ALS disease) से पीड़ित एक व्यक्ति के दिमाग के मोटर कॉर्टेक्स में लगे इलेक्ट्रोड्स के संकेतों से शब्दों का सटीक व त्वरित पुनर्निर्माण कर सकता था।

इस मशीन को गति देने के लिए उस व्यक्ति को अपने मुंह से उन शब्दों को बोलने की भरसक कोशिश करनी होती थी – यानी उसे बोलने का प्रयास होता है। इस गतिविधि के संकेतों को यंत्र पकड़ सकता है। लेकिन सहभागियों का कहना था कि बोलने की कोशिश करना काफी थकाने वाला होता है।

हालांकि, अंदरुनी वाणी (internal speech) उत्पन्न करना कम थकाने वाले होता है लेकिन उसके संकेतों से शोधकर्ता बहुत थोड़े से शब्द पकड़ पाए थे। शोधकर्ताओं ने कोशिश जारी रखी। स्टैनफर्ड विश्वविद्यालय (Stanford University) के एरिन कुंज़ ने सबसे पहले तो गति-बाधित लोगों के मस्तिष्क में लगे इलेक्ट्रोड्स का विश्लेषण किया। ये इलेक्ट्रोड मोटर कॉर्टेक्स के उस हिस्से में लगे थे जिसका सम्बंध बोलने के प्रयास से है। शोधकर्ताओं ने दो स्थितियों के रिकॉर्डिंग की तुलना की – एक तब जब सहभागी शब्दों को ज़ोर से बोलने का प्रयास कर रहे थे और दूसरी तब जब वे मन ही मन वे शब्द सोच रहे थे। शोधकर्ताओं ने पाया कि इन दोनों स्थितियों (बोलने का प्रयास और मन में सोचना यानी अंदरुनी वाणी) में इसी क्षेत्र की तंत्रिकाएं सक्रिय हुईं।

अंदरुनी वार्तालाप (internal conversation) पर ध्यान केंद्रित करके कुंज़ व साथियों ने एक एल्गोरिद्म (algorithm) विकसित किया जो इन संकेतों को ध्वनि में बदल सकता था। अब बारी आई इस मॉडल को प्रशिक्षित करने की। टीम ने सहभागियों से कहा कि वे सवा लाख शब्दों की एक सूची के शब्दों को मन ही मन बोलें और उनकी तंत्रिका गतिविधि को रिकॉर्ड कर लिया। फिर सहभागियों से कहा गया कि वे उन शब्दों का इस्तेमाल करते हुए कुछ पूरे-पूरे वाक्य बोलने की कल्पना करें।

परिणाम यह रहा कि उनका मॉडल अंदरुनी वार्तालाप को तत्काल वाक्यों में बदल सका। इसमें गलती होने की दर 26 से 54 प्रतिशत रही जो आज तक के प्रयासों में सबसे बेहतर है।

हालांकि गलती की दर काफी अधिक है, लेकिन यह अध्ययन मनोगत वार्तालाप (thought decoding) की अच्छी छानबीन है। वैसे इस तरह के अध्ययनों के साथ एक समस्या निजता (privacy issue) सम्बंधी भी है। कहीं ऐसा न हो कि वाणी-बाधित लोगों के सारे विचार खुलकर उजागर होने लगें। एक विचार तो यह है कि सारे मनोगत विचारों को नहीं बल्कि सिर्फ उन विचारों को एल्गोरिद्म तक पहुंचने दिया जाए, जिन्हें बोलने की कोशिश वह व्यक्ति कर रहा हो। दूसरा विचार है कि कोई ऐसा पासवर्ड (password) हो जो वह व्यक्ति सोचे तभी विचारों को ध्वनि में तबदील किया जाए। एक व्यक्ति के मामले में यह पासवर्ड वाली व्यवस्था 99 प्रतिशत बार कारगर रही।

मस्तिष्क-कंप्यूटर इंटरफेस (BCI technology) के विकास के साथ ऐसी व्यवस्थाएं निजता को सुरक्षित रखने के लिए अधिकाधिक ज़रूरी होती जा रही हैं। (स्रोत फीचर्स)

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क्या सूरज की ऊर्जा से उड़ान संभव है?

ल्पना कीजिए एक धातु की चादर (metal sheet) की जो मात्र प्रकाश की शक्ति (light energy) से उड़ती जा रही है। कल्पना की उड़ान थोड़ी ज़्यादा ही लगती है लेकिन वैज्ञानिकों ने हथेली की साइज़ की एक छिद्रमय झिल्ली बनाई है जो ऊपरी वायुमंडल (upper atmosphere) में लगातार उड़ती रह सकती है। इसकी उड़ान का राज़ है इसकी दोनों सतहों पर तापमान का अंतर। इसका खुलासा नेचर के हालिया अंक में किया गया है।

दरअसल, हारवर्ड विश्वविद्यालय (Harvard University) के मटेरियल्स इंजीनियर बेन शेफर ऐसे उपकरण की तलाश में थे जो पृथ्वी के वायुमंडल के 50 से 80 किलोमीटर ऊंचाई वाले हिस्से की तहकीकात कर सके। इस परत को मीसोस्फीयर (मध्यमंडल – (mesosphere)) कहते हैं। मीसोस्फीयर में वायुमंडल इतना घना है कि वहां कृत्रिम उपग्रह (artificial satellites) नहीं रह सकते लेकिन इतना घना भी नहीं है कि हवाई जहाज़ उड़ सकें।

कुछ साल पहले पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय (Pennsylvania University) के इंजीनियर आइगॉर बार्गेटिन के दल ने इस समस्या के समाधान के लिए एक विचार प्रस्तुत किया था। इसमें फोटोफोरेसिस (photophoresis) नामक एक भौतिक प्रभाव के उपयोग की बात थी। पोटोफोरेसिस का मतलब होता है प्रकाश-प्रेरित गति (light induced motion)। इसका सबसे बढ़िया प्रदर्शन क्रुक्स रेडियोमीटर (Crookes radiometer) में दिखता है (देखने के लिए: https://en.wikipedia.org/wiki/Crookes_radiometer#/media/File:Radiometer_9965_Nevit.gif)। कांच के एक खोखले गोले में लगभग निर्वात की स्थिति पैदा की जाती है और अंदर एक चकरी लगी होती है, जिसकी चारों भुजाओं पर एक पतली चादर लगी होती है। इनके आसपास प्रकाश के ज़रिए तापमान में फर्क पैदा करने पर चकरी को घुमाने के लिए पर्याप्त बल मिल जाता है। बार्गेटिन ने बताया था कि उन्होंने ऐसे फोटोफोरेटिक उड़ान में समर्थ एक छोटा-सा यंत्र बना लिया है। लेकिन वह बहुत ही छोटा था।

शेफर की टीम ने जो यंत्र (device) बनाया है उसमें एल्युमिनियम ऑक्साइड (aluminium oxide) की दो छिद्रित चादरों को बीच में खूंटे लगाकर आपस में जोड़ दिया गया है। ये दोहरी चादरें एक ओर प्रकाश अवशोषित करती हैं जबकि दूसरी सतह से उसे उत्सर्जित कर देती हैं। इसके चलते तापमान में जो अंतर पैदा होता है वह ऊपरी वायुमंडल में विरल हवा में धाराएं उत्पन्न कर सकता है और यंत्र तैरता रहता है। लगता है कि मीसोस्फीयर इसकी उड़ान (flight experiment) के लिए अनुकूल है; वहां सूर्य की रोशनी पर्याप्त होती है तथा हवा भी एकदम सही मात्रा में है।

अभी तो टीम ने इसे प्रयोगशाला (laboratory test) में मीसोस्फीयर जैसा वातावरण तैयार करके आज़माया है। अभी उनके यंत्र का व्यास करीब 6 से.मी. है। टीम का कहना है कि उनका यंत्र ध्रुवीय अक्षांशों पर तो दिन-रात काम कर सकता है लेकिन भूमध्य रेखा के आसपास सिर्फ दिन में। फिलहाल यह यंत्र मात्र 10 मिलीग्राम का वज़न ढो सकता है। फिर भी बताते हैं कि यह लघु दूरसंचार व्यवस्था (telecommunication system), जलवायु संवेदी यंत्रों और छोटे सौर पैनल (solar panel) के लिए पर्याप्त होगा। हज़ारों ऐसे यंत्र उड़ाए जाएं तो मौसम भविष्यवाणी (weather prediction) में सहायक हो सकते हैं। विचार तो इन्हें मंगल (Mars mission) के अवलोकन के लिए भेजने का भी है। (स्रोत फीचर्स)

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हकलाने के जीन की तलाश

म तौर पर हकलाने (Stuttering) को एक व्यवहारगत दिक्कत (Behavioral Problem) माना जाता है और डांट-फटकारकर उसे दुरुस्त करने के प्रयास किए जाते हैं या उस व्यक्ति को शांत रहकर अपनी वाणि पर नियंत्रण करने की सलाह दी जाती है। हकलाने की समस्या दुनिया भर में लगभग 1 प्रतिशत लोगों को परेशान करती है। ये 7 करोड़ लोग विभिन्न भाषाएं बोलते हैं और विभिन्न पूर्वज समुदायों के वंशज हैं। यह समस्या आम तौर पर शुरुआती बचपन में शुरू होती है और अधिकांश लोग जल्दी ही इससे उबर जाते हैं लेकिन कुछ लोग बड़प्पन में प्रभावित रहते हैं।

दशकों के अनुसंधान से पता चला है कि हकलाना एक अनैच्छिक दिक्कत है और यह विरासत (Genetic Disorder) में भी मिल सकती है। इसके कारणों पर से कुछ धुंध छंटी है। इसमें एक कंपनी 23andMe के पास उपलब्ध सूचना से मदद मिली है। यह कंपनी डीएनए (DNA Testing) सम्बंधी निजी मदद करती है। लगभग 11 लाख लोगों के डीएनए के 57 खंडों को पहचाना गया है जिनके बारे में अंदाज़ था कि उनका सम्बंध हकलाने से है।

नेचर जेनेटिक्स (Nature Genetics) में प्रकाशित इस अध्ययन में बताया गया है कि इसमें जो जीन्स शामिल हैं उनका सम्बंध दिमाग (Brain Function) के कामकाज और लय-ताल के एहसास से है। अध्ययन से यह भी लगता है कि शायद हकलाने का सम्बंध ऑटिज़्म (Autism) और अवसाद जैसे स्थितियों से भी है। माना जा रहा है कि इस खोज से हमें हकलाने के जैविक कारकों और उसके उपचार (Treatment) के लिए दिशा मिलेगी।

2000 के दशक की शुरुआत में शोधकर्ताओं के पास न तो इतना बड़ा जेनेटिक डैटाबेस (Genetic Database) था और न ही उसके विश्लेषण के लिए सशक्त कंप्यूटर थे कि वे आम आबादी में हकलाने का सम्बंध जीन्स से खोज सकें। लिहाज़ा वे पाकिस्तान और अफ्रीका के एकरूप समुदायों में जेनेटिक पैटर्न पर ध्यान देते थे। उन्होंने कुछ संभावित डीएनए खंड और कुछ उत्परिवर्तन खोजे भी थे। लेकिन उन छोटे-छोटे अध्ययनों को सामान्य आबादी पर लागू करना संभव नहीं था।

ताज़ा अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 23andMe की मदद ली। उन्होंने दो समूहों के लोगों के जेनेटिक पैटर्न (Genetic Pattern) की तुलना की – 99,076 ऐसे लोग जिन्होंने कहा था कि वे हकलाते हैं और 9,81,944 ऐसे लोग थे जिन्होंने ‘ना’ कहा। इस तुलना के परिणामस्वरूप 57 ऐसे जेनेटिक खंड निकले जो थोड़ी हद तक हकलाने की संभावना बढ़ा सकते हैं। यानी हकलाना एक जटिल, बहुजीन आधारित समस्या है, अनिद्रा (Insomnia) और टाइप-2 मधुमेह के समान।

इस अध्ययन में कुछ जीन्स ऐसे भी पहचाने गए हैं जो शायद यह समझने में मदद करें कि हकलाने की समस्या की उत्पत्ति कहां से होती है। ऐसा सबसे सशक्त संकेत VRK2 जीन (VRK2 Gene) में मिला। इस जीन का सम्बंध शुरुआती तंत्रिका विकास से देखा गया है और इसके परिवर्तित रूप शिज़ोफ्रेनिया (Schizophrenia), मिर्गी, और मल्टीपल स्क्लेरोसिस से जुड़े पाए गए हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसका सम्बंध संगीत की ताल के साथ ताली देने में दिक्कत से देखा गया है।

यह शोध का विषय रहा है कि ताल (Rhythm) के साथ कदमताल न कर पाने का सम्बंध हकलाने से हो सकता है और यह अध्ययन इसे बल देता है।

अध्ययन में चिंहित 20 जीन्स एक और सुराग देते हैं। इनका सम्बंध पहले भी ऑटिज़्म, एकाग्रता के अभाव व अति-सक्रियता (ADHD) वगैरह से देखा गया है। यानी संभव है कि इन सबमें एक से विकास पथ शामिल हैं।

अध्ययन से एक बात तो साफ है। हकलाना कोई व्यवहारगत या भावनात्मक समस्या (Emotional Disorder) नहीं है और इसकी बुनियाद में तंत्रिका का कामकाज है। वैसे इस अध्ययन की कई सीमाएं हैं। इसमें पुरुषों की भागीदारी ज़्यादा थी और एशियाई तथा अफ्रीकी लोगों का प्रतिनिधित्व भी कम था। शोधकर्ताओं का कहना है कि वे फिलहाल कोई ‘ऑन-ऑफ’ स्विच नहीं दे सकते। बहरहाल, यह अध्ययन हकलाने के साथ जुड़े सामाजिक पूर्वाग्रहों (Social Stigma) और धारणाओं को दूर करने में ज़रूर मदद कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.z78m5m5/full/_20250728_on_stuttering-1753902911443.jpg