बायोमार्कर देगा सिलिकोसिस की जानकारी – नवनीत कुमार गुप्ता

गातार और लंबे समय तक सिलिका धूलकणों के संपर्क में रहने से सिलिकोसिस रोग होता है। सिलिकोसिस के लक्षण सिलिका धूलकणों के संपर्क में आने के कुछ हफ्तों से लेकर कई वर्षों बाद तक प्रकट हो सकते हैं। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक लगभग 30 लाख लोग सिलिका के संपर्क में रहने का गंभीर जोखिम झेलते हैं। 95 प्रतिशत ज्ञात चट्टानों में सिलिका मुख्य रूप से पाया जाता है। यह भी देखा गया है कि खनन एवं खदानों में लगे 50 प्रतिशत से अधिक मज़दूरों पर सिलिका के संपर्क का खतरा मंडराता रहता है।

सिलिका कणों के फेफड़ों में पहुंचने पर फेफड़ों में धब्बे पड़ने लगते हैं। खांसी इसका शुरुआती लक्षण है जो सिलिका के निरंतर प्रवेश से बढ़ती जाती है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने सिलिकोसिस की पुष्टि के लिए पारंपरिक एक्स-रे, मेडिकल हिस्ट्री और स्टैंडर्ड लंग फंक्शन टेस्ट आवश्यक बताए हैं। दुर्भाग्यवश इन जांचों से भी इसकी पुष्टि तभी संभव हो पाती है जब रोग अंतिम चरण में पहुंच चुका होता है।

भारत में सिलिकोसिस के निदान के लिए सही ढंग से एक्स-रे को समझने में प्रशिक्षित व माहिर रेडियोलाजिस्ट की कमी मुख्य चुनौती है। इस रोग से प्रभावित लोगों के सिलिका धूलकणों के लगातार संपर्क में रहने के कारण चिकित्सकों के लिए इसकी रोकथाम और भी मुश्किल हो जाती है। यही नहीं, भारत में ज़्यादातर चिकित्सक पेशेजनित स्वास्थ्य रोगों की रोकथाम के लिए प्रशिक्षित भी नही हैं।

सिलिकोसिस के रोगियों में अन्य बीमारियों, जैसे टीबी, फेफड़ों में कैंसर और जीर्ण दमा का जोखिम भी बढ़ जाता है। सिलिकोसिस के लक्षण टीबी के लक्षणों से मिलते-जुलते होने के कारण भी इसकी पहचान आसान नहीं है। टीबी रोगाणुओं की घुसपैठ के कारण सिलिकोटिक नोड्यूल्ज़ की गलत पहचान होने से भी सिलिकोसिस के रोगियों के एक्स-रे की व्याख्या करना मुश्किल हो जाता है।

कुल मिलाकर, सिलिकोसिस का जल्दी पता लगाने की कोई भी उपयुक्त निदान पद्धति उपलब्ध नहीं है। इस संदर्भ में अहमदाबाद के राष्ट्रीय व्यावसायिक स्वास्थ्य संस्थान के निदेशक  डॉ. कमलेश सरकार और उनकी टीम ने सिलिकोसिस के लिए एक संभावित बायोमार्कर खोजने पर शोध किया है। उन्होंने फेफड़ों की छोटी-छोटी वायु-थैलियों की कोशिकाओं में पाए जाने वाले खून में क्लब सेल प्रोटीन (cc16) की खोज की है।

भारत और अन्य देशों में अनेक बायोमार्करों पर प्रयोग हुए हैं। लेकिन इनमें से cc16 के अलावा कोई भी इस रोग विशेष से अधिक सम्बंधित नहीं था। यदि cc16 को सिलिकोसिस का पता लगाने वाले बायोमार्कर के रूप में प्रयोग किया जाए तो यह उन लोगों के लिए फायदेमंद होगा जिनमें सिलिकोसिस शुरू हो रहा है। जब सिलिका के कण फेफड़ों में प्रवेश करते हैं, तब वे फेफड़ों की कोशिकाओं को नष्ट कर देते हैं। जिससे cc16 खून में पहुंचने लगता है। cc16 के स्तर के आधार पर सिलिकोसिस की शुरुआत का पता लगाया जा सकता है और इसकी रोकथाम के उपाय किए जा सकते हैं। cc16 नामक यह बायोमार्कर सिलिकोसिस निदान की वर्तमान नीति में संशोधन करने के साथ ही, ऐसे रोगियों के लिए स्वास्थ्य योजना तैयार करने का भी आधार बन सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : The Independent

 

बीमारी की गोपनीयता पर उठे नैतिकता के सवाल

रीज़ का इलाज करते समय चिकित्सकों के कुछ दायित्व होते हैं। कुछ देशों में डॉक्टर का अपने मरीज़ के मर्ज़ को गोपनीय रखना एक महत्वपूर्ण दायित्व है, चाहे मर्ज़ कितना भी गंभीर हो।

गोपनीयता के इस दायित्व के साथ अधिकार सम्बंधी सवाल उठे हैं। जैसे यदि मरीज़ की ऐसी गंभीर आनुवंशिक बीमारी का पता चलता है जिसके उसके बच्चों में होने की संभावना हो तो इस परिस्थिति में डॉक्टर के दायित्व क्या और किसके प्रति होंगे? एक तरफ तो मरीज़ की गोपनीयता का सवाल है और दूसरी ओर मरीज़ के परिजनों को बीमारी होने की आशंका के बारे में उन्हें जानने का हक है।

साल 2013 में एक मामला सामने आया था। एक महिला ने अदालत में मुकदमा दायर किया था कि डॉक्टर ने उन्हें पिता की गंभीर आनुवंशिक बीमारी (हंटिंगटन) के बारे मे आगाह नहीं किया। उस वक्त भी नहीं जब वह गर्भवती थी। बीमारी की गंभीरता जानते हुए डॉक्टर को पिता की मर्ज़ी के खिलाफ उन्हें आगाह करना चाहिए था ताकि वे शिशु को जन्म देने के निर्णय को बदल पातीं।

2017 में यूके की एक अदालत ने कहा था कि यदि बीमारी गंभीर आनुवंशिक हो तो डॉक्टर के दायित्व का दायरा उसके परिजनों तक बढ़ जाता है। किंतु इसके चलते मरीज़ और डॉक्टर के बीच का विश्वास टूटता है। उम्मीद है कि 2019 में यह केस ट्रायल के लिए जाएगा। कोर्ट शायद यह कहे कि यदि बीमारी आनुवंशिक हो तो गोपनीयता का दायरा मरीज़ के बच्चों तक बढ़ जाएगा। यदि ऐसा हुआ तो मरीज़ के परिजन मरीज़ के रिकार्ड की मांग करने लगेंगे। पिछले कई सालों में इस तरह के और भी मामले उठे हैं।

लाइसेस्टर लॉ स्कूल के लेक्चरर रॉय गिबलर और ग्रीन टेम्पटन कॉलेज के प्रोफेसर चाल्र्स फोस्टर का कहना है कि उपरोक्त फैसला ना सिर्फ मरीज़ के प्रति डॉक्टर के दायित्व को फिर से परिभाषित कर सकता है बल्कि ‘मरीज़’की परिभाषा को भी बदल सकता है।

एडिनबरा युनिवर्सिटी के चिकित्सा न्यायशास्त्र के प्रोफेसर ग्रेएम लॉरी के मुताबिक यह डॉक्टर के लिए असमंजस की स्थिति होगी कि उनकी प्राथमिक ज़िम्मेदारी किसके प्रति है – मरीज़ के प्रति या उसके परिजन के प्रति। हो सकता है डॉक्टर बीमारी को सिर्फ इसलिए उजागर करें क्योंकि यह कानूनी तौर पर ज़रूरी माना जाएगा।

गोपनीयता से सम्बंधित एक अध्ययन में गंभीर आनुवंशिक बीमारी को परिजनों को बताए जाने के बारे में डॉक्टर, मरीज़ और लोगों की राय ली गई थी। देखा गया कि ज़्यादातर लोग गंभीर बीमारियों के बारे में अपने परिजनों को बता देते हैं या बताना चाहते हैं। पर कुछ लोग दोषी ठहराए जाने, ताल्लुक अच्छे ना होने, सही वक्त ना होने, साफ-साफ ना कह पाने जैसे कारणों के चलते नहीं बता पाते। एक अध्ययन में 30 प्रतिशत मरीज़ उनकी बीमारी के बारे में उनकी मर्ज़ी के खिलाफ परिजनों को बताने के पक्ष में थे जबकि 50 प्रतिशत लोगों ने कहा कि इसके लिए डॉक्टर को सज़ा मिलनी चाहिए। एक अन्य अध्ययन में एक चौथाई से भी कम मरीज़ उनकी मर्ज़ी के विपरीत परिजनों के बताने के पक्ष में थे जबकि एक अन्य अध्ययन में रिश्तेदारों के नज़रिए से सोचने पर आधे से ज़्यादा लोग परिजनों को बताने के पक्ष में थे।

आनुवंशिक बीमारियो के मामले में दो अंतर्राष्ट्रीय संधियां ‘ना जानने के अधिकार’के बारे में बात करती हैं। यदि यह फैसला आता है तो उन लोगों के इस अधिकार के बारे में क्या होगा जो बीमारी होने की आशंका के बारे में नहीं जानना चाहते और बेखौफ ज़िंदगी बिताना चाहते हैं। मामला काफी पेचीदा है और निष्कर्ष आसानी से निकलने वाला नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : the blaze

 

टेस्ट ट्यूब शिशु के चालीस साल

लुईस ब्राउन वह पहली बच्ची थी जिसका जन्म टेस्ट ट्य़ूब बेबी नाम से लोकप्रिय टेक्नॉलॉजी के ज़रिए हुआ था। आज वह 40 वर्ष की है और उसके अपने बच्चे हैं। एक मोटेमोटे अनुमान के मुताबिक इन 40 वर्षों में दुनिया भर में 60 लाख से अधिक टेस्ट ट¬ूब बच्चेपैदा हो चुके हैं और कहा जा रहा है कि वर्ष 2100 तक दुनिया की 3.5 प्रतिशत आबादी टेस्ट ट्यूब तकनीक से पैदा हुए लोगों की होगी। इनकी कुल संख्या 40 करोड़ के आसपास होगी।

वैसे इस तकनीक का नाम टेस्ट ट्यूबबेबी प्रचलित हो गया है किंतु इसमें टेस्ट ट्यूब का उपयोग नहीं होता। किया यह जाता है कि स्त्री के अंडे को शरीर से बाहर एक तश्तरी में पुरुष के शुक्राणु से निषेचित किया जाता है और इस प्रकार निर्मित भ्रूण को कुछ दिनों तक शरीर से बाहर ही विकसित किया जाता है। इसके बाद इसे स्त्री के गर्भाशय में आरोपित कर दिया जाता है और बच्चे का विकास मां की कोख में ही होता है।

इस तकनीक को सफलता तक पहुंचाने में ब्रिटिश शोधकर्ताओं को काफी मेहनत करनी पड़ी थी। भ्रूण वैज्ञानिक रॉबर्ट एडवड्र्स ने अंडे का निषेचन शरीर से बाहर करवाया, जीन पर्डी ने इस भ्रूण के विकास की देखरेख की और स्त्री रोग विशेषज्ञ पैट्रिक स्टेपटो ने मां की कोख में बच्चे की देखभाल की थी। लेकिन प्रथम शिशु के जन्म से पहले इस टीम ने 282 स्त्रियों से 457 बार अंडे प्राप्त किए, इनसे निर्मित 112 भ्रूणों को गर्भाशय में डाला, जिनमें से 5 गर्भधारण के चरण तक पहुंचे। आज यह एक ऐसी तकनीक बन चुकी है जो सामान्य अस्पतालों में संभव है।

बहरहाल, इस तरह प्रजनन में मदद की तकनीकों को लेकर नैतिकता के सवाल 40 साल पहले भी थे और आज भी हैं। इन 40 सालों में प्रजनन तकनीकों में बहुत तरक्की हुई है। हम मानव क्लोनिंग के काफी नज़दीक पहुंचे हैं, भ्रूण की जेनेटिक इंजीनियरिंग की दिशा में कई कदम आगे बढ़े हैं, तीन पालकों वाली संतानें पैदा करना संभव हो गया है। सवाल यह है कि क्या इस तरह की तकनीकों को स्वीकार किया जाना चाहिए जो ऐसे परिवर्तन करती है जो कई पीढ़ियों तक बरकरार रहेंगे। कहीं ऐसी तकनीकें लोगों को डिज़ायनर शिशु (यानी मनचाही बनावट वाले शिशु) पैदा करने को तो प्रेरित नहीं करेंगी?(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : Cambridge network

घाव की निगरानी और ज़रूरी होने पर दवा देती पट्टी

जीर्ण (पुराने) घावों को भरने में बहुत वक्त लगता है। घाव भरने के दौरान इनकी नियमित देखभाल करनी पड़ती है वरना संक्रमण की आशंका होती है। कभी-कभी तो नौबत यहां तक पहुंच जाती है कि व्यक्ति का वह अंग ही काटना पड़ जाता है। डायबिटीज़ और मोटापे की समस्या से ग्रस्त लोगों में जीर्ण घाव होने की संभावना और भी बढ़ जाती है।

इस समस्या से राहत पाने के लिए टफ्ट्स विश्वविद्यालय के समीर सोनकुसाले और उनकी टीम ने ऐसा बैंडेज विकसित किया है जो घावों की देखभाल करेगा और ज़रूरत के हिसाब से घाव पर दवा भी लगा देगा।

इस बैंडेज में लगे सेंसर घाव से रिसने वाले जैविक अणुओं का जायज़ा लेते रहते हैं और इनके आधार पर घाव की हालत भांपते हैं। उदाहरण के लिए, सेंसर देखते हैं कि घाव को ऑक्सीजन पर्याप्त मात्रा में मिल रही है या नहीं; घाव का ph (यानी अम्लीयता) का स्तर ठीक है या नहीं; घाव असामान्य स्थिति में तो नहीं है; घाव के आसपास का तापमान क्या है; कोई सूजन तो नहीं है। इस जानकारी को एक माइक्रोप्रोसेसर में पढ़ा जाता है। फिर घाव की स्थिति एक मोबाइल डिवाइस को भेजी जाती है। यदि दवा देने की ज़रूरत लगती है तो वह डिवाइस बैंडेज को दवा, एंटीबायोटिक देने के निर्देश देती है।

पिछले कुछ सालों में वैज्ञानिकों ने ऐसे आधुनिक बैंडेज विकसित किए हैं जो घाव में संक्रमण का पता कर सकते हैं और यह अंदाज़ लगा सकते हैं कि वह कितनी तेज़ी से ठीक हो रहा है। किंतु घाव की स्थिति भांपकर उपचार करने वाला यह पहला बैंडेज है हालांकि यह बैंडेज अभी बाज़ारों में उपलब्ध नहीं हैं। शोधकर्ताओं का कहना है अलग-अलग तरह के जीर्ण घावों की देखभाल और उपचार के लिए अभी इस पर और काम किया जाना बाकी है। उम्मीद है कि यह बैंडेज बेड सोर, जलने के घाव और सर्जरी के घावों को भरने में मददगार होगा। इस तरह का बैंडेज संक्रमण को कम करेगा। शायद अंग को काटे जाने की नौबत ना आए।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : Tufts University

 

टूरेट सिंड्रोम विवश कर देता है – सीमा

ये हिचकियां निकालना बंद करो।

मैं नहीं कर सकती।

क्यों नहीं कर सकती?

क्योंकि ये हिचकियां नहीं, टूरेट सिंड्रोम है।

इन डायलॉग ने आपको हालिया रिलीज़ फिल्म हिचकी की याद दिला दी होगी। हिचकी फिल्म के आने से पहले मैं इस शब्द से वाकिफ नहीं थी। आप में से कइयों के लिए भी ये शब्द अनसुना रहा होगा। फिल्म देखी तो टूरेट सिंड्रोम के बारे में और जानने का मन हुआ। कंप्यूटर खोला और जुट गई नेट से जानकारी इकट्ठा करने में। आप भी टूरेट सिंड्रोम के बारे में जानना चाहेंगे

टूरेट सिंड्रोम यह नाम फ्रांसीसी चिकित्सक, जॉर्ज गिलेस डे ला टूरेट के नाम पर रखा गया है, जिन्होंने पहली बार 19वीं सदी में इस बीमारी के लक्षणों का विवरण दिया था।

टूरेट सिंड्रोम एक तंत्रिका सम्बंधी विकार है। इसमें इंसान के मस्तिष्क के तंत्रिका नेटवर्क में कुछ गड़बड़ी हो जाती है जिससे वे अनियंत्रित हरकतें करते हैं या अचानक आवाज़ें निकालते हैं। इन्हें टिक्स कहा जाता है। बांह या सिर को मोड़ना, पलकें झपकाना, मुंह बनाना, कंधे उचकाना, तेज़ आवाज़ निकालना, गला साफ करना, बातों को बारबार कहने की ज़िद करना, चिल्लाना, सूंघना आदि टिक्स के प्रकार हैं।

टूरेट सिंड्रोम से पीड़ित व्यक्तियों में टिक्स के पहले अजीबसी उत्तेजना होती है और टिक्स हो जाने के बाद थोड़ी देर के लिए राहत मिलती है। पर कुछ देर बाद फिर वही उत्तेजना पैदा होने लगती है। इन लक्षणों पर उन लोगों का कोई नियंत्रण नहीं रहता।

टूरेट सिंड्रोम से पीड़ित व्यक्ति के बौद्धिक स्तर या जीवन प्रत्याशा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। लेकिन अपनी अनियंत्रित हरकतों के कारण उन्हें कई बार शर्मिंदगी और अपमान का सामना करना पड़ता है जिससे उनका रोज़मर्रा का कामकाज और सामाजिक जीवन बहुत ज़्यादा प्रभावित होता है।

टूरेट सिंड्रोम के कारणों के बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है। शोध के अनुसार, मानव के मस्तिष्क के बेसल गैंग्लिया वाले हिस्से में गड़बड़ी के कारण टूरेट सिंड्रोम के लक्षण विकसित होते हैं। बेसल गैंग्लिया शरीर की ऐच्छिक गतिविधियों, नियमित व्यवहार या दांत पीसने, आंखों की गति, संज्ञान और भावनाओं जैसी आदतों को नियंत्रित करने में मदद करता है।

कुछ अन्य शोध के अनुसार टूरेट सिंड्रोम के मरीज़ों में बेसल गैंग्लिया थोड़ा छोटा होता है और डोपामाइन तथा सेरोटोनिन जैसे रसायनों के असंतुलन के कारण भी यह समस्या उत्पन्न होती है। यह व्यक्ति के आसपास के वातावरण से भी प्रभावित होता है।

टूरेट सिंड्रोम में बिजली का झटका जैसा लगता है लेकिन यह सनसनाहट ज़्यादा देर तक नहीं रहती है बल्कि आतीजाती रहती है। डॉक्टर अभी भी निश्चित तौर पर यह नहीं समझ पाए हैं कि आखिर ऐसा क्यों होता है। टूरेट सिंड्रोम के आधे मरीजों में अटेंशन डेफिसिट हाइपर एक्टिविटी डिसऑर्डर (यानी एकाग्रता का अभाव और अति सक्रियता) के लक्षण दिखाई देते हैं जिसके कारण ध्यान देने, एक जगह बैठने और काम को खत्म करने में परेशानी होती है। टूरेट सिंड्रोम के कारण चिंता, भाषा सीखने की क्षमता में कमी (डिसलेक्सिया), विचारों और व्यवहार को नियंत्रित करने की क्षमता में कमी आदि समस्याएं भी हो सकती हैं। तनाव, उत्तेजना, कमज़ोरी, थकावट या बीमार पड़ जाना इस सिंड्रोम को और गंभीर बना देते हैं।

यह आनुवंशिक है यानी यदि परिवार में किसी व्यक्ति को टूरेट सिंड्रोम हो तो उसकी संतानों को भी टूरेट सिंड्रोम होने की संभावना रहती है। लेकिन टूरेट सिंड्रोम से पीड़ित एक ही परिवार के व्यक्तियों में इसके लक्षण अलगअलग हो सकते हैं।

अमूमन कई बच्चों में ये टिक्स उम्र के साथ अपने आप चले जाते हैं पर लगभग 1 प्रतिशत बच्चों में ये स्थायी रूप में रह जाते हैं। लड़कियों की तुलना में लड़कों में ये ज़्यादा होते हैं।

वैसे तो टूरेट सिंड्रोम का कोई इलाज नहीं है, लेकिन टिक्स को नियंत्रित किया जा सकता है। दवाइयों को प्राथमिक उपचार के रूप में दिया जाता है। किंतु इन दवाइयों से थकावट, वज़न बढ़ना, संज्ञान सुस्ती जैसे दुष्प्रभाव भी हो सकते हैं। दवाइयों के अलावा व्यवहारगत उपचार भी दिया जाता है जिससे टिक्स के प्रभाव और तीव्रता को कम किया जाता है।

व्यवहारगत उपचार में टिक्स के पैटर्न और आवृत्ति की निगरानी की जाती है और उन उद्दीपनों को पहचानने की कोशिश की जाती है जिनसे टिक्स उत्पन्न होते हैं। इसके बाद टिक्स को संभालने के विकल्प सुझाए जाते हैं (उदाहरण के लिए, गर्दन के झटके को कम करने के लिए ठुड्डी को नीचे करते हुए गर्दन को सीधा खींचना)। ऐसे उपाय टिक्स के कारण पैदा हुई उत्तेजनाओं से मुक्ति पाने में मददगार होते हैं। मरीज़ और उसके परिवार की काउंसलिंग की जाती है ताकि वे समाज और घर में भागीदार बन सकें।

पर सबसे ज़्यादा ज़रूरत है संवेदनशीलता की, टूरेट सिंड्रोम से पीड़ित व्यक्ति के साथ सामान्य व्यवहार करने की। हमारी संवेदनशीलता उन्हें एक सामान्य जीवन जीने में मदद कर सकती है। यह बात सिर्फ टूरेट के मामले में नहीं बल्कि हर भिन्नसक्षम व्यक्ति के मामले में लागू होती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : Metro Parent

अनैतिकता के निर्यात पर रोक का प्रयास

नैतिकता का निर्यात यानी एथिकल डंपिंग शब्द युरोपीय आयोग ने 2013 में गढ़ा था। इसका आशय यह है कि कई देशों के शोधकर्ता नैतिक मापदंडों के चलते जो शोध अपने देश में नहीं कर सकते उसे किसी अन्य देश में जाकर करते हैं जहां के नैतिक मापदंड उतने सख्त नहीं हैं। यह स्थिति प्राय: विकसित सम्पन्न देशों और निर्धन देशों के बीच उत्पन्न होती है। अब युरोपीय संघ ने इस तरह के अनैतिकता के निर्यात पर रोक लगाने का फैसला किया है।

वैसे युरोपीय संघ द्वारा वित्तपोषित शोध के संदर्भ में अनैतिकता के निर्यात की बात 2013 में ही शुरू हो गई थी किंतु उस समय इस संदर्भ में स्पष्ट दिशानिर्देश नहीं होने के कारण प्रतिबंध को लागू नहीं किया जा सका था। अब आयोग ने दिशानिर्देश तैयार कर लिए हैं और युरोपीय संघ द्वारा वित्तपोषित सारे अनुसंधान प्रोजेक्ट्स में इन्हें लागू किया जाएगा।

युरोपीय आयोग के नैतिकता समीक्षा विभाग का कहना है कि इस तरह से अन्य देशों में जाकर शोध के ढीलेढाले मापदंडों का उपयोग करने से वैज्ञानिक अनुसंधान की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। खास तौर से यह स्थिति जंतुओं पर किए जाने वाले अनुसंधान के संदर्भ में सामने आती है। इसके अलावा, कई मर्तबा यह भी देखा गया है कि जिन देशों में अनुसंधान किया जाता है, वहां के लोगों को पर्याप्त जानकारी देने के मामले में भी लापरवाही बरती जाती है। अनुसंधान में भागीदारी के जो मापदंड युरोप में लागू हैं, उनका पालन प्राय: नहीं किया जाता। दिशानिर्देशों में यह भी कहा गया है कि शोध परियोजनाओं में इस वजह से जानकारी छिपाना या कम जानकारी देना उचित नहीं कहा जा सकता कि वहां के लोग या स्थानीय शोधकर्ता उसे समझ नहीं पाएंगे। इसके अलावा एक मुद्दा यह भी है कि अन्य देशों में शोध करते समय वहां के नियमकानूनों का भी ध्यान रखा जाना चाहिए।

अलबत्ता, कई लोगों का कहना है कि इस तरह की सख्ती से अन्य देशों में अनुसंधान करना मुश्किल हो जाएगा और इससे न सिर्फ वैज्ञानिक अनुसंधान का बल्कि उन देशों का भी नुकसान होगा।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

Photo Credit: The Conversation

पोलियो ने फिर सिर उठाया

बात भारत की नहीं, कॉन्गो प्रजातांत्रिक गणतंत्र की है। अलबत्ता, कहीं की भी हो मगर यह बात अंतर्राष्ट्रीय चिंता का विषय है कि पोलियो ने फिर से बच्चों को लकवाग्रस्त किया है।

कॉन्गो प्रजातांत्रिक गणतंत्र (संक्षेप में कॉन्गो) में पोलियो के कारण 29 बच्चे लकवाग्रस्त हो चुके हैं और गत 21 जून को एक और मामला सामने आया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के वैश्विक पोलियो उन्मूलन कार्यक्रम ने इसे अत्यंत चिंताजनक घटना घोषित किया है जो पोलियो उन्मूलन के हमारे प्रयासों को वर्षों पीछे धकेल सकती है।

कॉन्गो में उभरे नए मामले पोलियो उन्मूलन के प्रयासों के सबसे कठिन हिस्से की ओर संकेत करते हैं। कॉन्गो में पोलियो के ये मामले उस कुदरती वायरस के कारण नहीं हुए हैं, जो अफगानिस्तान, पाकिस्तान और शायद नाइजीरिया में अभी भी मौजूद है। कॉन्गो में लकवे के नए मामले ओरल पोलियो वैक्सीन (दो बूंद ज़िंदगी की) में इस्तेमाल किए गए दुर्बलीकृत वायरस के परिवर्तित रूप के कारण सामने आए हैं। वैक्सीन का यह दुर्बलीकृत वायरस प्रवाहित होता रहा और इसमें विभिन्न उत्परिवर्तन हुए और अंतत: इसने फिर से संक्रमण करने और लकवा पैदा करने की क्षमता अर्जित कर ली है।

वास्तव में मुंह से पिलाया जाने वाला पोलियो का टीका काफी सुरक्षित और कारगर माना जाता है और यही पोलियो उन्मूलन के प्रयासों का केंद्र बिंदु रहा है। इसकी एक खूबी है जो अब परेशानी का कारण बन रही है। टीकाकरण के बाद कुछ समय तक यह दुर्बलीकृत वायरस मनुष्य से मनुष्य में फैलता रहता है। इसके चलते उन लोगों को भी सुरक्षा मिल जाती है जिन्हें सीधे-सीधे टीका नहीं पिलाया गया था। मगर कई बार यह वायरस इस तरह से बरसों तक पर्यावरण में मौजूद रहकर उत्परिवर्तित होता रहता है और फिर से संक्रामक रूप में आ जाता है।

टीके से उत्पन्न पोलियो वायरस सबसे पहले वर्ष 2000 में खोजा गया था। इसकी खोज होते ही, विश्व स्वास्थ्य सभा ने घोषित किया था कि कुदरती वायरस के समाप्त होते ही मुंह से पिलाए जाने वाले टीके को बंद कर देना चाहिए। फिर 2016 में पता चला कि टीका-जनित पोलियो वायरस अब कहीं अधिक घातक हो चला है और यह कुदरती वायरस की अपेक्षा ज़्यादा लोगों को लकवाग्रस्त बना रहा है। उसके बाद से इसे एक वैश्विक समस्या मानते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन के पोलियो उन्मूलन कार्यक्रम ने पोलियो उन्मूलन की रणनीति में कई बदलाव किए हैं और देशों को प्रसारित किए हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि बदली हुई रणनीतियां कामयाब होंगी।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

Photo Credit: Pakistan today

 

बीमारियों के शहंशाह पर विजय – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

कैंसर तब होता है जब स्वस्थ कोशिकाएं क्षतिग्रस्त हो जाती है, उनमें अनियंत्रित विकास होता है जो स्वास्थ को प्रभावित करता है।

कैंसर विशेषज्ञ डॉ. सिद्धार्थ मुखर्जी की कैंसर पर लिखी किताब पुलित्ज़र पुरस्कार के लिए चुनी गई थी। उनकी इस किताब का नाम था एम्परर ऑफ ऑल मेलेडीज़ (बीमारियों का शहंशाह)। यह कैंसर जैसे शत्रु द्वारा प्रस्तुत चुनौती के प्रति विस्मय और खेल भावना से अपने शत्रु की प्रशंसा का मिलाजुला प्रस्तुतीकरण है। इससे पहले 1971 में अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने कैंसर पर युद्ध की घोषणा की थी और इसके लिए 1.4 अरब डॉलर की राशि प्रदान की थी। इन 47 वर्षों में अकेले यू.एस. राष्ट्रीय कैंसर संस्थान ने ही कैंसर पर युद्ध में 90 अरब डॉलर खर्च किए हैं। और विजय अभी हमारा मुंह चिढ़ा रही है।

प्रति वर्ष अमेरिका में 173 लाख नए कैंसर मरीज़ रिपोर्ट होते हैं। और हर 20 मिनिट में एक कैंसर मरीज़ की मृत्यु होती है। भारत में यह आंकड़ा 25 लाख है और हर 8 मिनिट में एक मृत्यु। इस प्रकार सभ्यता की शुरुआत से ही हमारे साथ चली आ रही इस घातक बीमारी का समाधान बेहद ज़रूरी और महत्वपूर्ण है।

कैंसर तब होता है जब शरीर में कोई स्वस्थ कोशिका क्षतिग्रस्त हो जाती है और अनियंत्रित वृद्धि करने लगती है जिससे स्वास्थ्य प्रभावित होता है। कोशिका में क्षति या तो कोशिका के जीन्स को प्रभावित करने वाली जन्मजात या आनुवंशिक त्रुटियों की वजह से हो सकती है या जीवन शैली और पर्यावरणीय कारकों के कारण हो सकती है। सामान्य कोशिका में यह शुरू से तय होता है कि वह एक निश्चित समय तक विभाजन करेगी और एक निश्चित आकार तक वृद्धि करेगी। लेकिन कैंसर कोशिकाओं के डीएनए में क्षति के कारण वे बेलगाम वृद्धि करती रहती हैं जिसकी वजह से ट्यूमर (गठान) बनता है। कैंसर विशेषज्ञ दवाइयों या सर्जरी से इस ट्यूमर को हटा देते हैं। लेकिन बड़ी चुनौती इसका यह पहला उपचार नहीं है बल्कि यह है कि कैंसर फिर से सिर न उठाए या इसका मेटास्टेसिस (शरीर के दूसरे हिस्सों में पहुंचकर उन्हें नुकसान पहुंचाना) न होने पाए। अर्थात कैंसर से लड़ाई का मकसद इसकी जड़ तक पहुंचकर उसे उखाड़ फेंकना है।

इसी संदर्भ में हम अपने अंदर कुदरती रूप से मौजूद प्रतिरक्षा तंत्र का रुख करते हैं। प्रतिरक्षा तंत्र कोशिकाओं, ऊतकों और अणुओं का एक जटिल नेटवर्क है। यह तंत्र संक्रमण और अन्य बीमारियों के साथसाथ कैंसर से लड़ने में मदद करता है। श्वेत रक्त कोशिकाएं (लिम्फोसाइट्स) इसमें अहम भूमिका निभाती हैं। विशेष रूप से बीलिम्फोसाइट्स नामक कोशिकाएं हमलावरों में अणुओं की आकृति को पहचानती हैं और फिर एंटीबॉडीज़ बनाती हैं, जो हमलावरों को घेरकर शरीर से हटा देते हैं। (महत्वपूर्ण बात यह है कि लिम्फोसाइट इस आकृति को याद रखते हैं, और जब भी इस हमलावर द्वारा पुन: हमला हो तो बीलिम्फोसाइट तैयार रहते हैं।) कोशिकाओं का एक समूह टीकोशिकाओं का होता है जो कुछ रसायन छोड़ती हैं। ये रसायन हमलावर कोशिकाओं को आत्महत्या के लिए प्रेरित करते हैं। इस प्रक्रिया में इन टीकिलर कोशिकाओं को टीहेल्पर कोशिकाओं की मदद मिलती है। इसके अलावा डेंड्राइटिक कोशिकाओं का एक और समूह होता है जो बीकोशिकाओं और टीकोशिकाओं दोनों को सक्रिय करने में मदद करता है, और वे विशिष्ट खतरे का जवाब देने में समर्थ हो जाती हैं।

प्रत्येक कोशिका की सतह पर एक छोटा मार्कर होता है, एक छोटे आण्विक पहचान पत्र के समान। इसे एंटीजन कहते हैं। ये छोटेछोटे अणु होते हैं जो कोशिका की सतह पर पाए जाते हैं। शरीर की सामान्य कोशिकाओं पर उपस्थित एंटीजन को शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली की कोशिकाएं अपनेके रूप में पहचानती है और उन्हें हाथ नहीं लगाती। लेकिन जैसे ही कोई अन्य कोशिका (जैसे हमलावर सूक्ष्मजीव या वायरस) इस तंत्र में घुसपैठ करने की कोशिश करती है तो उसके पराए एंटीजन का पता लगाया जाता है और बी और टी लिम्फोसाइट्स द्वारा हमलावर को शरीर से बाहर फेंक दिया जाता है।

यही टीकाकरण की बुनियाद है। टीके में, हम रोग पैदा करने वाले रोगाणुओं (या तो मृत या अक्षम बनाए हुए) को शरीर में प्रवेश कराते हैं। इसे प्रतिरक्षा तंत्र पराएविदेशी एंटीजन के रूप में पहचानता है और उसे पकड़कर (एंटीबॉडी प्रोटीन की मदद से) शरीर से बाहर फेंक देता है। साथ ही प्रतिरक्षा तंत्र इस पराए एंटीजन को याद रखता है और जब भी हमलावर फिर से आता है, बी कोशिकाएं इसके खिलाफ एंटीबॉडीज़ बनाती हैं और इसे हटा देती हैं। इस प्रकार शरीर को लंबे समय तक सुरक्षा मिलती है। ह्रूमन पैपिलोमा वायरस (एचपीवी) जैसे कैंसरकारक वायरस और हेपेटाइटिस बी और सी के वायरस सहित कई बीमारियों के खिलाफ टीकाकरण के पीछे यही आधार रहा है।

अन्य प्रकार के कैंसर के लिए इसका क्या महत्व है? कैंसर कोशिकाओं की सतह पर भी एंटीजन होते हैं। ये कैंसरसम्बंधी एंटीजन हैं। इनमें कुछ एंटीजन को शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र द्वारा पहले नहीं देखा गया था। ये नवएंटीजन्स कहलाते हैं। ये शरीर के लिए पराए होते हैं जो हमलावर से आते हैं।

वर्तमान में कैंसर के इलाज को लेकर उत्साह के माहौल में, प्रतिरक्षा तंत्र का इस्तेमाल करके एक कैंसररोधी टीका बनाने का यह विचार सूची में सबसे आगे हैं। यह रोकथाम का टीका नहीं होगा (जैसे कि एचपीवी या हिपेटाइटिस के टीके होते हैं) बल्कि एक उपचारात्मक टीका होगा। इसमें पहले तो मौजूदा तरीकों से कैंसर का इलाज किया जाता है। इलाज के बाद कैंसर फिर से सिर न उठाए और न ही (मेटास्टेसिस के ज़रिए) अन्य अंगों में फैले, इसके लिए रोगी के शरीर से कैंसर ऊतक का एक टुकड़ा लिया जाता है और इसमें नवएंटीजन की पहचान की जाती है। इसके बाद वैज्ञानिकों का एक समूह कंप्यूटर विधि का उपयोग यह जांचने के लिए करता है कि कौनसा टुकड़ा रोगी के प्रतिरक्षा तंत्र को कैंसर कोशिकाओं से लड़ने के लिए सबसे अच्छी तरह से सक्रिय करेगा। इस तरह चुने गए नवएंटीजन का इस्तेमाल करके टीका बनाया जाता है। और यह टीका मरीज़ों को दिया जाता है ताकि कैंसर की पुनरावृत्ति न हो। उम्मीद है कि इस प्रकार हमेशा के लिए कैंसर से निजात मिल जाएगी।

कैंसर के कुछ टीके तो बाज़ार में उपलब्ध भी हो चुके हैं। उदाहरण के लिए स्तन कैंसर के खिलाफ एचईआर-2, प्रोस्टेट कैंसर के खिलाफ प्रोवेन्ज और मेलानोमा के खिलाफ टीवीईसी। वैसे आजकल कुछ शोधकर्ता रोगी के पूरे जीनोम को पढ़ कर ट्यूमर के डीएनए या आरएनए के क्षारों का अनुक्रमण करना चाहते हैं ताकि उसमें हुए उत्परिवर्तन की पहचान करके हर मरीज़ के लिए व्यक्तिगत टीका बनाया जा सके। सम्राटहमला कर सकता है और घायल कर सकता है। लेकिन अब हम बॉय स्काउट का नारा अपना रहे हैं कि तैयार रहो, तो शायद सम्राट की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

Photo Credit: ScienceNordic

तीन पालकों वाले एक और बच्चे की तैयारी

 सिंगापुर शायद वह दूसरा देश होगा जहां तीन पालकोंदो मां और एक पिताकी संतान पैदा करने की अनुमति मिल जाएगी। इससे पहले युनाइटेड किंगडम में इसे कानूनन वैध घोषित किया गया था। और संभवत: इस वर्ष पहली तीनपालक संतान जन्म लेगी। तो यह मामला क्या है और एक बच्चे की दो मांएं कैसे हो सकती हैं? 

जब स्त्री के अंडाणु और पुरुष के शुक्राणु का निषेचन होता है तो दोनों की आधीआधी जेनेटिक सामग्री निषेचित अंडे में पहुंचती है। मगर कोशिका के एक खास अंग (माइटोकॉण्ड्रिया) पूरे के पूरे सिर्फ मां से आते हैं। माइटो­कॉण्ड्रिया कोशिका का वह अंग है जो ऑक्सीजन का उपयोग करके ग्लूकोज़ से ऊर्जा प्राप्त करने का काम करता है। मज़ेदार बात यह है कि माइटोकॉण्ड्रिया की अपनी स्वतंत्र जेनेटिक सामग्री होती है जो कोशिका के केंद्रक से अलग होती है। 

यदि मां के माइटोकॉण्ड्रिया की जेनेटिक सामग्री में कोई विकार हो तो वह बच्चे में भी पहुंच जाता है और बच्चे को श्वसन सम्बंधी रोग होने की संभावना बढ़ जाती है। इसका प्रभाव मुख्य रूप से मस्तिष्क, हृदय और मांसपेशियों के काम पर होता है। इसलिए वैज्ञानिकों ने यह तकनीक विकसित की है कि ऐसे विकारग्रस्त माइटोकॉण्ड्रिया वाली स्त्री के अंडाणु के निषेचन के दौरान केंद्रक की जेनेटिक सामग्री तो उसकी अपनी रहे किंतु माइटोकॉण्ड्रिया किसी अन्य स्त्री का डाला जाए। तो उस बच्चे की दो मां होती हैंएक जिसके केंद्रक की जेनेटिक सामग्री अंडे में है और दूसरी जिसके माइटो­कॉण्ड्रिया बच्चे को मिले हैं।

इसे माइटोकॉण्ड्रिया प्रतिस्था­पन उपचार या माइटोकॉण्ड्रियल रिप्लेसमेंट थेरपी कहते हैं। और इसे अंजाम देने के कई वैकल्पिक तरीके हैं। इसके कई सामाजिक पक्ष हैं जिन पर विचार करना आवश्यक है। इसलिए सिंगापुर सरकार ने आम लोगों और धार्मिक समूहों को 15 जून तक का समय दिया था कि वे सिंगापुर की जैव आचार परामर्श समिति को अपनी राय बता सकते हैं। इसके आधार समिति अंतिम निर्णय लेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

फोटो क्रेडिट : Bio ethics observatory

प्रयोगशाला बनी आंत की लंबाई बढ़ाने की कोशिश

 वैज्ञानिकों ने मानव स्टेम कोशिकाओं को संवर्धित करने की तकनीक को इतना परिष्कृत कर लिया है कि अब प्रयोगशाला में मानव अंगों के छोटे रूप बनाए जा सकते हैं। ये वास्तविक अंग की सूक्ष्म अनुकृति होते हैं और इन्हें अंगाभ या ऑर्गेनॉइड कहते हैं। ये उस अंग के कामकाज की अच्छी नकल कर लेते हैं और इनका उपयोग उस अंग के कामकाज और बीमारियों के अध्ययन हेतु किया जा सकता है। किंतु फिलहाल यह स्थिति नहीं आई है कि ऐसे अंगाभों का प्रत्यारोपण वास्तविक अंग की जगह किया जा सके। अब एक अध्ययन में पता चला है कि यदि मानव आंत के अंगाभ में कुछ स्प्रिंग का इस्तेमाल किया जाए तो उसकी लंबाई बढ़ने लगती है।

सामान्यत: शरीर में जब आंत का विकास होता है तो उसपर तमाम खिंचाव और तनाव के बल लगते हैं। इन बलों के प्रभाव से आंत लंबी होने लगती है। शोधकर्ताओं ने किया यह कि मानव स्टेम कोशिकाओं से ऊतक विकसित किया और उसे चूहे के शरीर में प्रत्यारोपित कर दिया। जब चूहे के शरीर में 10 सप्ताह तक इसका विकास हो चुका था, तब उन्होंने इसके अंदर एक स्प्रिंग को जिलेटिन में लपेट कर डाला। शुरू में स्प्रिंग अच्छे से दबाकर जिलेटिन में लपेट दी गई थी। इस दबी स्प्रिंग को चूहे के शरीर में विकसित हो रहे आंतअंगाभ के अंदर डाला तो जिलेटिन घुल गया और स्प्रिंग फैलने लगी।

जब अंगाभ को बगैर स्प्रिंग के पनपाया गया था तो उसकी लंबाई 0.5 से.मी. हो पाई थी जब किस्प्रिंग की मदद से वह 1.2 से.मी. लंबी हुई। नेचर बायोमेडिकल जर्नल में प्रकाशित शोध पत्र में टीम ने बताया है कि न सिर्फ इस अंगाभ की लंबाई ज़्यादा थी, इसमें आंत की कई अन्य रचनाएं भी विकसित हुईं। जैसे सामान्य आंत की अंदरुनी सतह पर उंगली जैसे उभार होते हैं जिन्हें विलाई कहते हैं। ये विलाई आंत की अंदरुनी सतह का क्षेत्रफल बढ़ादेते हैं और आंत अवशोषण का अपना काम कहीं बेहतर ढंग से कर पाती है। यह भी देखा गया कि इस अंगाभ में पाचन तंत्र के कुछ जीन्स की भी बेहतर अभिव्यक्ति हुई।

इस सबके बावजूद अभी भी यह अंगाभ वास्तविक अंग या उसके खंड का स्थान लेने के लिए पर्याप्त नहीं है। किंतु शोधकर्ताओं का ख्याल है कि यह प्रयोग चूहे के शरीर में किया गया था और चूहा अपेक्षाकृत छोटा जंतु है। यदि यही प्रयोग किसी बड़े जंतु में करेंगे तो उम्मीद है कि बेहतर नतीजे मिलेंगे और संभवत: एक दिन प्रत्यारोपण के लिए अंग बन पाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

फोटो क्रेडिट : UTHFA